शुक्रवार, 9 मई 2008

वातायन – मई 2008

हम और हमारा समय
अपनी पीढ़ी के कवियों में राधेश्याम तिवारी लगभग अकेले ऎसे कवि हैं जिनकी कविताएं एक साथ गांव एवं शहर - दोनों से हमें जोड़ती हैं। गहरे जीवनानुभवों से उपजी उनकी कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता जीवन के प्रति इनका सकारात्मक नजरिया है। यही कारण है कि बुरे से बुरे समय में भी जीने का रास्ता ये कविताएं तलाश लेती हैं।
अपने शिल्प में ये कविताएं जितनी बोधगम्य लगती हैं भीतर से उतनी ही अर्थ-गर्हित हैं। यही कारण है कि राधेश्याम तिवारी उन कवियों से अलग नजर आते हैं जो सिर्फ शब्दाडम्बर में उलझकर पाठकों को कविता से दूर करते हैं। प्रस्तुत हैं उनकी पांच कविताएं-


राधेश्याम तिवारी की कविताएं

सेवक की इच्छा

सेवक हूं आपका
आपकी बराबरी भला
कैसे कर सकता मैं
आपकी पवित्र जूठन को
मानता हूं महाप्रसाद
छाया की तरह चलता हूं
आपके पीछे-पीछे
आप हंसते हैं, तो मैं हंसता हूं
रोते हैं, तो रोता हूं,
मैं देह नहीं, सिर्फ कंधा हूं
जिस पर आपका
बोझ ढोता हूं
फिर भी जन्म अकारथ ही गया मेरा
कि इस जन्म में मैं सेवा से
कर न सका आपको संतुष्ट
इसके लिए मुझे
लेना पड़ेगा दूसरा जन्म
पर, दूसरा जन्म
कब, कहां, किस रूप में लूंगा
यह भी तो तय
आप ही करेंगे स्वामी
वैसे तो मुझे
अपने बारे में सोचने का
नहीं है अधिकार
फिर भी सोचता हूं
कि कितना अच्छा होता
अगर अगले जन्म में मैं पैदा होता
मछ्ली के रूप
तब आप मुझे
मिर्च-मसाला डालकर
तेल में तलते
और आराम से पीते हुए
मजे ले लेकर खाते
पर, डर है एक बात का स्वामी
कि अपनी तीव्र भूख के कारण
कहीं आप मुझे
कच्चा ही न चबा जाएं
इससे आपका हाजमा
हो सकता है खराब
जिसे शराब
पहले ही बहुत ज्यादा
बिगाड़ चुकी है
अभी तो आपको
बहुत कुछ खाना है स्वामी
आपको कष्ट होगा
तो मेरी आत्मा को
कैसे मिलेगी शांति ?
लेकिन एक डर और है
कि अगर आपने मुझे
ठीक से तल भी लिया
तो भी मेरे
कांटे तो बचे ही रह जाएंगे
जो मौका पाते ही
आपके गले में फस जाएंगे
उस समय आप
मुझे उस तरह नहीं खा पाएंगे
जैसे अभी अजगर की तरह
निगल रहे हैं।


झरही

मेले में भटकी हुई
किसी बच्ची की तरह
अपनी नदी मां से
बिछड़ गई होगी झरही
और भटकते-भटकते
चली आई होगी
'गौत्तमा' और 'बिसुनपुरा' के बीच
यहां जरूर मिली होगी उसे
घर से भागी हुई कोई औरत
जिसके दुःख से
झरने लगी होंगी उसकी आंखें
और तभी से इसका नाम
पड़ गया होगा झरही

कहने को तो यह नदी है
लेकिन संकोची इतनी
कि आसाढ़-सावन में भी
]इसमें कभी बाढ़ नहीं आती
अपने में सिमटी
यह बहती रहती है चुपचाप
जिसे भीतर तक महसूस कराती हैं
गांव-जवार की औरतें

गर्मी में तो रह जाती है
केवल इसकी निशानी
पानी बस इतना
कि धोबी घाट के पाट से
कपड़े पटकने
आती रहे आवाज
झरही को
इतने से संतोष है

झरही घाट का रामचन्दर माझी
गर्मी में अपना जाल समेटकर
चला जाता है परदेश कमाने
जमीन पर पड़ी उसकी नाव को
देखती रहती है उसकी मेहरारू

झरही की मुर्दघटी में
जब जलती है कोई लाश
उस समय मृतक के साथ
आये लोग
झरही को भी कर लेते हैं याद
कि किस तरह यह बार-बार
सूख कर फिर भर जाती है

सोचता हूं
कभी रही से पूछूं
कि कब और कहां से आई हो तुम
और कहां तुमको जाना है
लेकिन यह पूछते हुए
लगता है डर
कि कहीं मेरा ही प्रश्न
उसने कर दिया मेरी ओर
तो क्या दूंगा इसका उत्तर?


लौटकर जब हम आएंगे

लौटकर जब हम आएंगे
तो यही नहीं रहेंगे
उस समय तक हमारे बाल
कुछ सफेद हो चुके होंगे
गालों की लाली भी
कुछ कम हो चुकी होगी
और चलने की गति में भी
कुछ परिवर्तन हो चुका होगा
लेकिन ये परिवर्तन
इस बात पर भी निर्भर करेगा
कि तब तक हमारे घुटने
और दिल का दर्द कैसा है

लौटकर जब हम आएंगे
तो यह भी बतलाएंगे
कि चिकित्सक के निर्देशानुसार
हम भोजन में नमक और चीनी
कितनी मात्रा में ले रहे हैं
लेकिन यह इस बात पर भी
निर्भर करेगा
कि तब तक मधुमेह और रक्तचाप की
क्या स्थिति है

लौटकर जब हम आएंगे
तो जरूरी नहीं कि
आप मुझे देखकर
इसी तरह मुस्कराएंगे
यह इस बात पर भी
निर्भर करेगा कि
तब तक आप के पास
खुशी कितनी बची हुई है

लौटकर जब हम आएंगे
तो उस समय तक
घर के सामने खाली प्लाटों में
बहुत से प्रियजनों के मकान
बन चुके होंगे
उन बड़े-बड़े मकानों में
टेलीफोन भी लग चुके होंगे
लेकिन संवाद इस बात पर
निर्भर करेगा कि तब तक
प्रेम की पूंजी उनके पास
कितनी बची हुई है.


किसी ने भी नहीं मानी उसकी बात

उसने धरती से
सिर्फ अपने लिए मांगी जगह
लेकिन धरती ने
नहीं मानी उसकी बात
और फैला दिया सबके लिए
अपना हरित आंचल,
नदी से उसने कहा-
तुम सिर्फ मेरे लिए बहो
पर, नदी भी कब मानने वाली थी
उसने सबके लिए बहा दिया
शीतल जल,
सूरज से उसने कहा-
मेरे सिवा मत दो किसी और को उजाला
सूरज ने मुस्कराते हुए
बिखेर दिया सबके लिए उजास,
गगन से उसने कहा-
तुम सिमट जाओ मेरी सीमा में
मगर कहां मानने वाला था आकाश
हवा से उसने कहा-
प्रिये, तुम मेरी सांसों में समा जाओ
हवा बिना कुछ कहे ही सरसराती हुई
सबकी सांसों में समा गई
वह जिनसे बना था
उनमें से किसी ने भी नहीं मानी उसकी बात
सबने मिलकर
उसे बनाया था सबके लिए
अंत में वह हो गया इतना अकेला
कि कुछ भी नहीं बचा उसके पास,
न पृथ्वी, न जल, न अग्नि, हवा, न आकाश!

ऎसा भी क्या

आए हो तो
मिलो सबसे जाकर
देखो, कितने सारे लोग हैं यहां
हो सके तो बांटो सबका दुख-दर्द
देखो उन जंगली फूलों को भी
जो मुस्करा रहे हैं तुम्हें देखकर
जिन्हें नहीं है इसका मलाल
कि राष्ट्रपति भवन की वाटिका में
नहीं मिली उन्हें जगह
आए हो तो
इनसे भी कुछ सीख लो
कि किस तरह सबमें
बिखेर रहें हैं सुगंध-केवड़ा, गुलाब और बेला,
ऎसा भी क्या
कि अकेले आए-गए
और जो थोड़े समय के लिए ठहरे हो
उसमें रहना चाहते हो अकेला
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युवा कवि-पत्रकार राधेश्याम तिवारी का जन्म देवरिया जनपद (उत्तर प्रदेश) के ग्राम परसौनी में मजदूर दिवस अर्थात १ मई, १९६३ को हुआ।

अब तक दो कविता संग्रह - 'सागर प्रश्न' और 'बारिश के बाद' प्रकाशित. हिन्दी की लगभग सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।

सम्पादन - 'पृथ्वी के पक्ष में' (प्रकृति से जुड़ी हिन्दी कविताएं)
पुरस्कार : राष्ट्रीय अज्ञेय शिखर सम्मान एवं नई धारा साहित्य सम्मान .

संपर्क : एफ-119/1, फ़ेज -2,
अंकुर एनक्लेव
करावल नगर,
दिल्ली-110094
मो० न० – 09313565061

कहानी

फ़र्क

सूरज प्रकाश
कुंदन आज बहुत खुश है। आज का दिन उसे मनमाफिक तरीके से मनाने के लिए मिला है। खूब घुमायेगा बच्चों को। पार्क, सिनेमा, चिड़ियाघर। किसी अच्छे होटल में खाना खिलायेगा। आज उसे मारुति वैन चलाते हुए अजब-सा रोमांच हो रहा है। रोज यही वैन चलाता है वह, पर रोज के चलाने और आज के चलाने में फ़र्क महसूस हो रहा है उसे। रोज वह ड्राइवर होता है। हर वक्त सतर्क, सहमा हुआ-सा। बैक व्यू मिरर पर एक आंख रखे। पता नहीं सेठजी कब क्या कह दें, पूछ लें। लेकिन आज के दिन तो वह मालिक बना बैठा है। सेठ जी ने खुद उसे दिन भर के लिए गाड़ी दी है। ``जाओ कुंदन। एक बार तुम कह रहे थे न, कभी बच्चों को घुमाने के लिए गाड़ी चाहिए। ले जाओ। बच्चों को घुमा-फिरा लाओ।'' दो सौ रुपये भी दिये हैं उसे। सेठ कितने अच्छे हैं। आज बेशक एक दिन के लिए सही, उस ज़िंदगी को जी कर देखेगा, जो उसका सपना थी। उसके भीतर का सहमा-सा, हर वक्त बुझा-बुझा रहने वाला मामूली वर्दी-कैप धारी ड्राइवर न जाने कहां फुर्र से उड़ गया है। आज वह सफारी सूट पहने बैठा है।
उसका मन गुनगुनाने को हो रहा है। स्टीरियो चला दिया है उसने। कोई बहुत पुराना गाना। उसके स्कूल के दिनों बहुत बजने वाला। वह मुस्कुराया। डैश बोर्ड पर लगी घड़ी में वक्त देखा। दस बजने को हैं। अब तक सब तैयार हो चुके होंगे, उसने सोचा। कल रात जब उसे सेठजी ने ग़ाड़ी ले जाने के लिए कहा था, तभी उसने कुंती से कह दिया था, दस बजे तक तैयार रखना बच्चों को। सुबह गाड़ी लेने जाते समय फिर से ताकीद कर गया था। एकदम अपटूडेट। सेठ के बच्चों के माफिक। अभी पांच मिनट में वह घर के दरवाजे पर होगा।
गाड़ी के गली में पहुंचते ही, वहां हर वक्त खेलने वाले बच्चों ने गाड़ी को घेर लिया और ज़ोर-ज़ोर से हो-हो करने लगे। दो-एक खिड़कियों में से उत्सुक चेहरे भी टंग गये। आज वह पहली बार गाड़ी घर पर लाया है। शोर सुनकर गप्पू, संजय और पिंकी बाहर निकल आये। वे अभी भी तैयार हो रहे हैं। गप्पू ने स्कूल यूनिफार्म पहनी हुई है और मुचड़ी हुई टाई उसके हाथ में है। संजय ने अपना इकलौता सफ़ारी सूट डाटा हुआ है और पैरों में हैं हवाई चम्पलें। तीनों उसे देखते ही चिल्लाये, ``मम्मी, मम्मी, पापा आ गये, पापा आ गये। अहा, कितनी अच्छी है, पापा की मारुति।'' गप्पू टाई हाथ में लिये-लिये सीधा वैन तक जा पहुंचा और बच्चों को धकियाने लगा, ``हटो, हटो, हमारी कार है यह। पापा आ गये, पापा देखो, संजय मुझे पहले कंघी नहीं करने दे रहा है।'' लगा, जैसे वे पहले से ही लड़ रहे थे। पिंकी बहुत ही शोख रंग की फ्राक पहने हुए है। उसे कुंती पर गुस्सा आया। ``इस औरत को कभी अक्कल नहीं आयेगी। बच्चों को ढंग से तैयार भी नहीं कर सकती।'' बच्चों को एक किनारे ठेल कर वह घर के भीतर वाले हिस्से में आया, जहां रसोई में एक दीवार की आड़ में बने गुसलखाने में कुंती की खटपट सुनायी दे रही है। वह वहीं से चिल्लाया, ``यह क्या तमाशा है, न खुद तैयार हुई हो, न बच्चों को तैयार किया है। अब मैं क्या सारा दिन दरवाजे पर ही टंगा रहूंगा?'' वह वहीं से बोली, ``क्या करती मैं। पानी ही नहीं आया। अभी तक बैठी थी, पानी के इंतज़ार में। नहीं आया तो राजो की मां से मांग कर लायी हूं दो बाल्टी।'' यह कहते-कहते कुंती केवल ब्रेसरी और पेटीकोट पहने, हाथ में गीला तौलिया लिये सामने आ गयी। हालांकि उसका गुसलखाने से बाहर आने का यह रोज़ का तरीका है, लेकिन कुंदन ने कभी इस तरफ ध्यान ही न दिया था। आज उसे इस हालत में देख कर कुंदन के सौन्दर्य बोध को बेतरह ठेस लगी। वह फिर फट पड़ा, ``यह क्या बेहूदगी है, जरा भी शऊर नहीं है तुम्हें?'' कुंती ने उसकी बात का कोई जवाब नहीं दिया और पास ही खड़ी गीले बात तौलिये से फटकारने लगी। कुंदन ने फिर चोर नज़रों से बीवी की तरफ देखा, जो बालों को सुखाने के बाद दोनों हाथ आगे किये हुए ब्लाउज पहन रही थी। कुंदन की निगाह अचानक उसकी बगल के गीले बालों की तरफ चली गयी। उसने मुंह बिचकाया और बाहर वाले कमरे में आ गया।कमरें में आकर उसे समझ में नहीं आया, क्या करे। थोड़ी देर अजनबियों की तरह जेब में हाथ डाले खड़ा रहा। जैसे वह किसी और के घर में मजबूरी में खड़ा हो। तभी गप्पू उससे लिपटता हुआ बोला, ``पापा, मैं तैयार हो गया। गाड़ी में बैठ जाऊं?'' कुंदन ने उसकी तरफ देख लिया। कहा कुछ नहीं। संजय और पिंकी अभी भी बहस कर रहे हैं। कुंदन को लगा, उसका मूड उखड़ रहा है। वह आते समय यही मान कर चल रहा था कि बच्चे बिल्कुल तैयार होंगे। साफ-सुथरे, करीने से कपड़े पहने और यहां...।वह दरवाजे पर आ खड़ा हुआ। सिगरेट सुलगाई और चाबियों का छल्ला घुमाते हुए गली का एक चक्कर लगाने की नीयत से चल पड़ा। गली के बच्चे अभी भी वैन के आस-पास डटे हुए हैं।• जब कुंती बच्चों को लेकर वैन में सवार होने के लिए आयी, तो कुंदन को चारों कार्टून नजर आये। गप्पू ने यूनिफार्म उतार दी है और नेकर-बुश्शर्ट पहन लिये हैं। नेकर-बुश्शर्ट के रंगों का कोई मेल नहीं है। एक हरी, एक लाल। पिंकी ने खूब कस कर बालों की चुटिया बनायी है। चेहरा एकदम खिंचा-खिंचा सा लग रहा है उसका। संजय सफारी में किसी कम्पनी एक्सक्यूटिव की तरह तना-तनाया खड़ा है, लेकिन हवाई चप्पल उसकी सारी हेकड़ी निकाल रहे हैं। उसने एक नज़र कुंती पर डाली। शायद उसने अपनी सबसे भड़कीली साड़ी पहनी है। तेल चुपड़े बाल, मांग में ढेर सारा सिंदूर और कहीं से भी मैच न करती लिपस्टिक। वह कुंती से फिर कोई कड़वी बात कहना चाहता है, लेकिन कुछ कहे बिना ही उसने अपने चेहरे के भावों से मन की बात कह ही दी।
बच्चे वैन के दरवाजे खुलने का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं। तीनों बच्चे पीछे हुड खोलकर वहां बैठने के चक्कर में हैं और पिछले दरवाजे पर खड़े एक-दूसरे को धकिया रहे हैं। गली के बच्चे अब भी थोबड़े लटकाये, मुंह में गंदी उंगलियां ठूंसे इन्हें बड़ी ईर्ष्यालु निगाहों से देख रहे हैं। कुंदन झल्लाया बच्चों पर, हटो परे, सब पिछली सीट पर बैठेंगे। हुड नहीं खुलेगा। बच्चों के चेहरे उतर गये।
कुंदन उन्हें इस तरह पीछे हुड खोल कर बिठा तो देता, लेकिन बेमेल और गंदे कपड़े देखते हुए उसकी हिम्मत नहीं हुई कि खुले हुड से सबको पता चले कि ये गाड़ी के मालिक के नहीं ड्राइवर के बच्चे हैं। तीनों बच्चे लपक कर चढ़ गये। कुंती ने सलीके से साड़ी का पल्लू संभाला और बड़ी ठसक के साथ बगल वाली सीट पर आ विराजी।वैन के चलते ही बच्चे धमाचौकड़ी करने लगे। कुंदन ने अचानक ही ब्रेक लगायी। सभी चौंके, पता नहीं क्या हुआ। कुंदन ने कुंती की तरफ झुक कर दरवाजा ठीक से बंद किया और गाड़ी गियर में डाली। कुंदन का मूड अभी भी ठिकाने नहीं है। उसे लगातार इस बात की कोफ्त हो रही है कि उसने नाहक ही सेठजी का अहसान लिया। ये बच्चे इस लायक नहीं हैं कि गाड़ियों में घूम सकें। अब खुद सेठ की तरह गाड़ी चलाने, बीवी-बचों को सेठ के बच्चों की तरह ऐश करवाने का उसका कत्तई मन नहीं है।•
कभी जिंदगी में उनका भी सपना था, एक बड़ा आदमी बनने का। खूब सारी अच्छी-अच्छी चीज़ें खरीदने, अमीर आदमियों की तरह एकदम बढ़िया कपड़े पहने होटलों में जाने का। एकदम लापरवाही का अंदाज लिये ज़िंदगी जीने का। शुरू-शुरू में उसकी बहुत इच्छा हुआ करती थी कि उसकी बीवी बहुत ही खूबसूरत हो और बच्चे एकदम फर्स्ट क्लास। तमीजदार। फर्राटे से अंग्रेज़ी बोलने वाले। बचपन उसका बहुत अभावों में बीता था। सुख-सुविधाएं तो दूर, ज़रूरी चीज़ों तक से वंचित।और सपना भी उसका कहां पूरा हो पाया था। आधी-अधूरी छोड़ी हुई पढ़ाई। दसियों तरह के धंधे। साधारण-सी औरत से शादी और कहीं से भी विशिष्ट न बन सकने या लग सकने वाले बच्चे। चाह कर भी वह उनको मनमाफिक ज़िंदगी नहीं दे पाया था। कुछ अरसे से इस सेठ की मारुति वैन चलाने का काम मिल गया है। `उस तरफ की दुनिया' की हसरतें फिर ज़ोर मारने लगी थीं और उसने सेठजी से कह दिया था, एक दिन के लिए गाड़ी देने के लिए।उसके ख्यालों की शृंखला टूट गयी। पिछली सीट से उसके कंधे पर उचक आया गप्पू उससे कार स्टीरियो चलाने के लिए कह रहा है। वह फिर लौट आया अपने खराब मूड में। नहीं चलाया उसने स्टीरियो। गप्पू ने फिर कहा, तो कुंती भी बोली, ``चला दीजिए न'। कुंदन ने भरपूर नज़र से कुंती की तरफ देखा और एक झटके से स्टीरियो ऑन कर दिया। बच्चे गाने की धुन के साथ-साथ उछलने लगे।कुंदन ने फिर डपटा, ``शांति से नहीं बैठ सकते क्या?'' दरअसल इस समय वह कत्तई इस मूड में नहीं है कि ज़रा-सा भी शोर हो। वह उन्हें पुराने दिनों के ख्वाबों में खोया रहना चाहता है। लेकिन सब कुछ उसके खिलाफ चल रहा है। कुंती सब देख रही है। वह साफ महसूस कर रही है कि आज का कुंदन रोज़ वाला कुंदन नहीं है। बार-बार उसे और बच्चों को ऐसे डपट रहा है जैसे उन्हें कभी इस रूप में देखा ही न हो। उसे क्या पता नहीं, बच्चों के पास कैसे और कौन-से कपड़े हैं। य सोच-सोच कर अपना खून जला रहा है कि उसके बच्चे सेठ के बच्चों जैसे क्यों नहीं हैं। कुंती अनमनी-सी सड़क की तरफ देखने लगी।
वैन जू के गेट पर रुकी। बच्चे अभी सहमे हुए हैं। वे कुंदन से आंखें चुरा रहे हैं। उसने दरवाजे खोले तो डरते-डरते उतरे। कुंदन को लगा, उससे कुछ ज्यादती हो गयी है। गाड़ी पार्क करके उसने टिकट लिये और बच्चों को धौल-धप्पा करके दौड़ा दिया। बच्चे फिर किलकारियां भरते पिंजरों की तरफ भागे।
कुंदन और कुंती धीरे-धीरे चलने लगे। कुंदन ने गॉगल्स पहन लिये और चाबियों का छल्ला घुमाने लगा। दोनों में से कोई कुछ नहीं बोल रहा है। आज छुट्टी का दिन नहीं है, फिर भी चिड़ियाघर में चहल-पहल है। बच्चे थक जाते हैं तो रुक कर इन दोनों का इंतज़ार करने लगते हैं। उन्होंने जब बताया कि प्यास लगी है तो कुंदन ने सबको कोल्ड ड्रिंक्स पिलवाये।जू दिखाने के बाद कुंदन उन्हें हैंगिंग गार्डेन ले गया। वहां तेजी से रपटते हुए पिंकी गिरी और अपने घुटने, कोहनियां छिलवायी। फ्रॉक खराब हुई सो अलग। बजाय बच्चे को संभालने, पुचकारने के, कुंदन फिर बड़बड़ाने लगा, ``ढंग से चल भी नहीं सकते। जब देखो गंदे बच्चों की तरह कूदते-फांदते रहेंगे।'' कुंती ने तुरन्त पिंकी को संभाला और कुंदन पर बरस पड़ी, ``अब ये तो नहीं कि बच्ची गिर गयी है, उसे संभालें, पुचकारें, बस तब से लट्ठ लेकर पीछे पड़े हैं,'' उसने पिंकी को दुलारते हुए अपनी गोद में उठाया और उसकी चोटें सहलाने लगी। कुंदन पिंकी के नज़दीक ही था, जब वह गिरी, लेकिन अपना सफ़ारी खराब होने के चक्कर में उसे नहीं उठाया उसने।
हैंगिंग गार्डन से चौपाटी आते समय सब एकदम चुप हैं। तीनों बच्चों को भूख लगी है। सामने स्टाल भी है, लेकिन हिम्मत नहीं हुई कुछ मांगें। बस ललचाई निगाहों से वे खाने-पीने का सामान देखते रहे। कुंदन आगे-आगे चलता रहा। बिना इस बात की परवाह किये कि उन्हें कुछ दिलवा दे।
मछली घर देखते-देखते तीनों बच्चे भूख और थकान से निढाल हो रहे हैं। सुबह जो कुछ खाकर चले थे, तब से एक-एक कोल्ड ड्रिंक पिया है, सबने। यहां भी कुंदन का ध्यान इस ओर कत्तई नहीं है कि बच्चों को कुछ दिलवा दे। कुंती समझ नहीं पा रही, कुंदन ऐसा व्यवहार क्यों कर रहा है। कल तक तो भला-चंगा था। कल रात कितना उत्साहित था, बच्चों को घुमाने के लिए। और आज सुबह से उसके और बच्चों के पीछे पड़ा है। ``कपड़े गंदे क्यों हैं?'' ``ढंग से तैयार क्यों नहीं हुए?'' ``शऊर नहीं है, कुछ खाने का, जैसे कुछ देखा नहीं है, नदीदे कहीं के।'' अरे तुमने ज़िंदगी में कुछ दिखाया होता तो देखा होता। कभी इस तन को पहने हुए जोड़े के अलावा दूसरा ढंग को जोड़ा नसीब नहीं हुआ, और कहता है, ``ढंग के कपड़े क्यों नहीं पहने। मैं ही जानती हूं, जैसे-तैसे लाज रखे हुए हूं। घर की गाड़ी खींच रही हूं। माना, आज एक दिन के लिए सेठ ने तुम्हें गाड़ी दे दी है, हमें घुमाने-फिराने के लिए पर इसका ये मतलब तो नहीं कि तुम लाट साहब हो गये, गाड़ी चलाते-चलाते और हम फटीचर ही रह गये। कुंती कुढ़े जा रही है, अब ड्राइवर के बच्चे सेठ के बच्चे तो नहीं बन सकते न, अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने वाले कि एक बार में मान जायें। आखिर बच्चे ही तो हैं। पहली बार घूमने निकले हैं। थोड़ा बिगड़-बिफर गये तो क्या? बेकार ही आये, अगर पहले पता होता कि कुंदन यह हाल करेगा तो...।''
बच्चे अलग कुढ़ रहे हैं। आज पहली बार गाड़ी लाये हैं और रौब मार रहे हैं दुनिया भर का। अब कभी नहीं बैठेंगे पापा की गाड़ी में। तीनों रुआंसे-से बैठे हुए हैं। अबकी बार संजय को चपत लगी है, अपनी चप्पलों से सीट खराब करने के चक्कर में। वही सबसे ज्यादा उत्साहित था सुबह और इस समय वहीं सबसे अधिक उखड़ा हुआ बैठा है।सबको बहुत हैरानी हुई जब कुंदन ने एक एयरकंडीशंड और अच्छे रेस्तरां के आगे गाड़ी रोकी। शायद वह दिन भर की कसर यहीं पूरी करना चाहता है। बच्चे, चमत्कृत होकर भीतर की सज्जा देखने लगे। कुंती भरसक प्रयास करने लगी, सहज दिखने की, जैसे यहां आना उनके लिए कत्तई नयी बात न हो। कुंदन खुद ऐसा ही दिखाने की कोशिश कर रहा है जैसे इस तरह की जगहों में उसका रोज़ का आना-जाना हो, लेकिन साफ लग रहा है, वह खुद पहली बार आया है यहां। आस-पास की मेजों पर खूब शोर है। लोग खुल कर ठहाके लगा रहे हैं, लेकिन ये सब बिल्कुल काना-फूसी के स्वर में बातें कर रहे हैं। गप्पू, पिंकी और संजय आपस में खुसुर-पुसुर करके माहौल से परिचय पा रहे हैं।
मीनू देखते ही कुंदन चकरा गया है। चीजों के दाम उसकी उम्मीद से बहुत अधिक हैं। दूसरी परेशानी यह है कि उसे पता नहीं चल पा रहा कि ये चीजें हैं क्या? कभी नाम भी नहीं सुने थे, ऐसे व्यंजनों से भरा पड़ा है मीनू। टाईधारी स्टुअर्ट ऑर्डर लेने के लिए सिर पर आ खड़ा हुआ। कुंदन ने थोड़ा समय मांगने की गरज से उसे टरकाया और कुंती से फुसफुसा कर कहा, ``यहां तो चीजें बहुत महंगी हैं, क्या करें?'' कुंती ने उसे सलाह दी, ``दो-तीन दाल-सब्जियां मंगा लो किसी तरह मिल-बांट कर खा लेंगे।'' कुंदन ने किसी तरह हकलाते हुए सबसे कम कीमत वाली दाल-सब्जियों का ऑर्डर दिया और राहत की सांस ली। ए.सी. रेस्तरां में भी उसे पसीना आ रहा है। वेटर छुरी-कांटे सजा गया है। बच्चे उन्हें उलट-पुलट कर देख रहे हैं। उन्हें समझ नहीं आ रहा, इनसे कैसे खाना खायेंगे।
सुबह से यह पहली बार है कि कुंदन बीवी-बच्चों से आंखें चुरा रहा है। वह खुद को इस माहौल में एडजस्ट नहीं कर पा रहा। बार-बार पसीना पोंछता, यही कहता रहा है, बहुत गर्मी है। सबने मुश्किल से खाना खाया है। हौले-हौले। चुपचाप। अभी भी वे अजनबियों की तरह व्यवहार कर रहे हैं। खाने के बाद जब वेटर फिंगर वाउल लाया, तो किसी को समझ नहीं आया, इनका क्या करना है। गुनगुना पानी और उसमें तैरते नीबू के कतरे। सबने कुंदन की तरफ देखा। वह खुद सकपका रहा है, क्या करे इसका। संजय ने कुछ सोचा, झट से नीबू निचोड़ा और गटक कर पानी पी गया। गप्पू और पिंकी भी यही करने वाले थे, तभी पास खड़े वेटर ने उन्हें बताया, यह पानी पीने के लिए नहीं, उंगलियों पर लगा तेल, घी, हटाने और धोने के लिए हैं। कुन्दन का चेहरा विद्रूपता से एकदम काला होने लगा। उसे लगा, भरे बाज़ार में उसे नंगा कर दिया गया है। उससे भी अदने आदमी द्वारा आज उसे उसकी औकात दिखा दी गयी है। उसने सिर ऊपर उठाये बिना हाथ धोये और बिल लाने के लिए कहा।खाना खाकर बाहर निकलते समय सबके मूड उखड़े हुए हैं। गप्पू चिंहुक रहा है, क्योंकि आइसक्रीम न दिलवाये जाने के कारण वह बुक्का फाड़ कर रो पड़ा था और कुंदन ने बिना देर किये उसे एक चांटा रसीद कर दिया। कुंती की शिकायत है, ऐसे होटल में क्यों लाये जहां पैसे तो ढेर सारे लगे, खाने में जरा भी मज़ा नहीं आया। इसी बात पर कुंदन फिर भड़क गया है, ``जैसे मैं यह सब अपने लिए कर रहा हूं। तुम्हीं लोगों को घुमाने-फिराने के लिए सेठ का अहसान लिया और यहां यह हाल है...''``हमें पता होता कि इस तरह गाड़ी का रौब मार कर हमारी पत उतारोगे तो आते ही नहीं। देखो तो ज़रा, कितने ज़रा-ज़रा से मुंह निकल आये हैं बेचारों के।'' गप्पू अब आगे आया है, मां की गोद में, ``अगर एक आइसक्रीम दिलवा देते उसे तो क्या घट जाता?'' कुंती गप्पू को चुप कर रही है।
``हां दिलवा देता आइसक्रीम, देखा नहीं कितनी महंगी थी आइसक्रीम और बाकी चीजें। बाहर आकर मांग लेता, दिलवा भी देता, वह तो वहीं चिल्लाने लगा, नदीदों की तरह। अरे कोई देखे तो कया समझे?''
``हां कोई देखे तो यही समझे कि कोई बड़े लाट साहब अपने ड्राइवर के गलीज बच्चों को घुमा रहे हैं शहर में। अरे इतना ही शौक था किसी बालकटी बीवी का और टीम टाम वाले बच्चों का, तो क्यों नहीं कह दिया सेठ को अपने, लौंडिया ब्याह दी होती अपनी। हमारी जान के पीछे क्यों पड़े हो। जाहिल हैं, गंवार हैं हम तो। हमें तो गाड़ियों में घूमने का न तो शऊर है और न ही शौक। कहीं नहीं जाना अब हमें। छोड़ दो घर पर। बहुत हो गया।'' कुंती का पारा भी चढ़ गया है।बात तू-तू मैं-मैं से हाथा पाई तक पहुंचती, इससे पहले कुंदन ने इसी में खैरियत समझी कि उन्हें घर पर छोड़े। गाड़ी सेठ के हवाले करे और कहीं बैठ दारू पिये। अभी सिर्फ तीन ही बजे हैं और गाड़ी उसने सात-आठ बजे तक लौटाने के लिए कह रखा है।

सेठजी कुंदन को देखते ही चौंके, ``क्या बात है, इतनी जल्दी लौट आये। अच्छी तरह घूमा-फिरा दिया न बच्चों को?'' इससे पहले कि कुंदन कुछ कह पाता, अचानक जैसे उन्हें कुछ याद आया; बोले, ``ऐसा करो, घर चले जाओ। मेम साहब की बहनें आयी हुई हैं, बच्चों के साथ। सब लोग उनकी कार में नहीं आ पायेंगे। तुम वैन ले जाओ और वे जहां कहें, घुमा लाओ सबको। मैं फोन कर देता हूं, ठीक।''कुंदन अब फिर ड्राइवर बन चुका है। ``यस सर'' कहकर बाहर आ गया। मूड अब भी संवरा नहीं है। कहां तो सोच रहा था, दारू पियेगा कहीं आराम से बैठ कर, और यहां फिर ड्यूटी लग गयी, शहर भर के चक्कर काटने की। बेकार ही यहां आया, सोचा उसने, ``गाड़ी लौटाने शाम को ही आना चाहिए था।''
सेठजी के घर पहुंचा तो कोई तैयार नहीं था वहां। अपने आने की खबर दे कर वापिस वैन में आ गया। वहीं बैठा लगातार सिगरेट फूंकता रहा। कोई घंटे भर बाद सब लोग नीचे आये। तीन महिलाएं, एक पुरुष, ढेर सारे बच्चे। शायद सात-आठ। एक बड़ी लड़की। कुंदन ने सबको नमस्कार किया, जिसका उसे कोई जवाब नहीं मिला। एस्टीम मेम साहब ने खुद निकाली। उनकी बहनें, जवान लड़की, दो बड़े लड़के उसी में बैठे। वैन की तरफ सभी बच्चे लपके। तीनों दरवाजे भड़भड़ा कर खोले गये और सारे बच्चे पीछे हुड खोलकर वहां बैठने के लिए झगड़ने लगे। कुंदन अपनी सीट छोड़ कर नीचे आया। उसने देखा, सभी बच्चों ने रंग-बिरंगे कपड़े पहने हुए हैं। किसी की नेकर कहीं जा रही है, तो किसी की टी शर्ट झूल रही है। सभी बच्चे पीछे बैठने के लिए उतावले हैं। आखिर उन सज्जन ने किसी तरह समझौता करवाया उनमें कि जो बच्चे जाते समय पीछे बैठेंगे, वापसी में वे आगे बैठेंगे।
कुंदन किनारे पर खड़ा सब देख रहा है। अचानक उसकी निगाह वैन के अन्दर गयी। सभी बच्चों ने गंदे जूते-चप्पलों से सीटें बुरी तरह खराब कर दी हैं। उसकी मुट्ठियां तनने लगीं, लेकिन जब उसके कानों ने ``चलो ड्राइवर'' का आदेश सुना तो चुपचाप अपनी सीट पर आकर बैठ गया और एस्टीम के आगे निकलने का इन्तज़ार करने लगा। आदेश हुआ, ``पहले हैगिंग गार्डन चलो।'' वे सज्जन उसकी बगल वाली सीट पर बैठ गये। बच्चे अभी गुलगपाड़ा मचाए हुए हैं। वैन के चलते ही किसी बच्चे ने उसे एकदम रूखी आवाज में आदेश दिया, ``ड्राइवर, स्टीरियो ऑन करो'' उसने पीछे मुड़ कर देखा, आदेश देने वाला लड़का गप्पू की उम्र का ही रहा होगा सींकिया-सा। अचानक उसे सुबह गप्पू का कहा वाक्य याद आया, कैसे मिमिया कर कह रहा था, ``पापा स्टीरियो बजाओ ना,'' लड़के की आवाज फिर गूंजी, ``सुना नहीं ड्राइवर, स्टीरियो चलाओ।'' वह तिलमिलाया। चुपचाप स्टीरियो चला दिया। सभी बच्चे चिल्लाने लगे। उसने कनखियों से साथ वाली सीट पर बैठे साहब को देखा। उन पर बच्चे की टोन का कोई असर नहीं हुआ है। हैंगिग गार्डन तक पहुंचते-पहुंचते बच्चों ने शोर मचा-मचा कर, गंदी जुबान में बातें करते हुए उसकी नाक में दम कर दिया। वह किसी तरह खुद पर नियंत्रण रखे हुए है। बार-बार उसका जी चाह रहा है, गले पकड़ कर धुनाई कर दे सब बच्चों की अभी। ज़रा भी तमीज नहीं है। मां-बाप कुछ भी नहीं सिखाते इन्हें। देखो तो, कैसे शह दे रहे हैं अपने बच्चों को।हैंगिंग गार्डन पहुंचते ही सब बच्चे कूदते-फांदते भाग निकले, सेठानी और उनके मेहमान टहलते हुए उनके पीछे चले। उसका मूड फिर उखड़ गया है। अचानक उसे ख्याल आया, पिछली सीट बहुत गंदी कर दी है बच्चों ने। वह एक कपड़ा गीला करके लाया और रगड़ -रगड़ कर सीटें पोंछने लगा। उसे याद आया, उसके अपने बच्चे भी तो तीन-चार घंटे बैठे रहे हैं इसी गाड़ी में तब तो एक दाग भी नहीं लगा था सीटों पर। संजय को सीट पर सिर्फ चप्पल रखने पर भी डांटा था उसने। सीटें साफ करते समय उसने सोचा, नाहक ही इतनी मेहनत कर रहा है। थोड़ी देर बाद बच्चों ने इनका फिर यही हाल कर देना है।
जब सब लोग हैंगिंग गार्डेन से निकले तो एक बच्चे के कपड़े बुरी तरह गंदे हैं और घुटने छिले हुए हैं। कहीं गिर-गिरा गया होगा, कुंदन ने सोचा। उसे उस सज्जन ने गोद में उठा रखा है और बार-बार पुचकार रहे हैं। गाड़ियों में सवार होने से पहले सारा काफिला रेस्तरां की तरफ बढ़ गया।हैंगिंग गार्डेन से सब लोग चौपाटी की तरफ चले। इस बार वह लड़की वैन में आ गयी है। बड़े अजीब-से कपड़े हैं उसके। घुटनों तक टी शर्ट। बहुत ही मैली चीकट जींस और बाथरूम स्लीपर्स। वह बार-बार आंखें मिचमिचा रही है और बबलगम चुभला रही है। कुंदन को बबलगम से बहुत चिढ़ है। खास कर ये बच्चे जब बबलगम मुंह में फुलाकर पच्च की आवाज करते हुए फोड़ देते हैं। उसे बराबर यह डर बना रहा कि यह लड़की बबलगम कहीं गाड़ी में न चिपका दे।कुंदन का डर सही निकला। चौपाटी पर उतरते समय लड़की के मुंह में चुंइगम नहीं हैं। सबके दूर जाते ही उसने तुंत गाड़ी की पिछली सीटों वाली जगह पर देखा। चुंगम दरवाजे की फोम पर टिकुली-सा चिपका हुआ है। कुंदन की आंखों में अजीब रंग आने-जाने लगे। जी में आया, ईंट का टुकड़ा उठा कर सिर पर दे मारे उसके। ``ये बच्चे तो सचमुच ही मेरे बच्चों से भी गये-गुज़रे हैं। मैं फालतू में ही सारा दिन अपने बच्चों के पीछे पड़ा रहा कि उन्हें मैनर्स नहीं है।''उसे अपने आप पर बहुत शर्मिंदगी होने लगी। चुपचाप अपनी सीट पर आकर बैठ गया और शीशा चढ़ा दिया। एकदम उदास हो गया। कितने बड़े भ्रम में था वह अब तक। उस तरफ की दुनिया। ऊहं!!उसने तय किया कि रात को घर जाते समय बच्चों के लिए खाने की ढेर सारी चीज़ें और खिलौने ले जायेगा।


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१४ मार्च १९५२ को देहरादून (उत्तर प्रदेश - अब उत्तरांचल) में जन्में वरिष्ठ कथाकार सूरज प्रकाश ने पत्रकारिता में एम.ए. की डिग्री प्राप्त की. १९८७ से नियमित लेखन. अब तक अनेक पुस्तकें, जिनमें -- अधूरी तस्वीर, छूटे हुए लोग तथा साचा सर्नामे (गुजराती में) (कहानी संग्रह) , हादसों के बीच, और देश बिराना (उपन्यास), जरा संभल के चलो (व्यंग्य संग्रह) आदि प्रमुख हैं. अनुवादक के रूप में सूरज प्रकाश ने अपनी एक अलग पहचान बनायी है और अंग्रेजी तथा गुजराती से अनेक महत्वपूर्ण पुस्तकों के अनुवाद किये हैं, जिनमें प्रमुख हैं : एनिमल फार्म (जॉर्ज आर्वेल), क्रॉनिकल ऑफ ए डैथ फोरटोल्ड(गैब्रियल गार्सिया मार्खेज़), ऎन फ्रैंक की डायरी (ऎन फ्रैंक), चार्ल्स चैप्लिन की आत्मकथा (चार्ल्स चैप्लिन), तथा अनेक अनेक कालजयी कहानियां. गुजराती लेखक - दिनकर जोशी और विनोद भट्ट की रचनाओं के अनुवाद के साथ बम्बई-१(बम्बई पर आधारित कहानियों का विशिष्ट संग्रह) और 'कथा लन्दन (इंगलैंड में लिखी जा रही हिन्दी कहानियों का संग्रह) के सम्पादन.

पुरस्कार : गुजरात साहित्य अकादमी का पहला कथा सम्मान(१९९४) और महाराष्ट्र राज्य हिन्दी अकादमी का प्रेमचन्द कथा सम्मान(२०००) .
सम्प्रति : रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया में कार्यरत.
सम्पर्क : एच-१/१००१, रिद्धि गार्डन, फिल्म सिटी रोड, मालाड पूर्व,
मुम्बई-४०००९७
मोबाईल नं० – ०९८६००९४४०२

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वातायन- जून 2008
‘हम और हमारा समय’ के अंतर्गत हरिपाल त्यागी का आलेख – “मैं क्यों लिखता हूँ?” और तेजेन्द्र शर्मा की कहानी- “अभिश्प्त” ।