गुरुवार, 2 अक्तूबर 2008

वातायन - अक्टूबर, २००८






हम और हमारा समय

मैं क्यों लिखता हूं
तेजेन्द्र शर्मा

बहुत घिसा पिटा सा लगता है यह कहना कि लेखन मुझे विरासत में मिला है. लेकिन यह सच भी है कि मेरे पिता श्री नंद गोपाल मोहला नागमणी उर्दू में लिखा करते थे. उन्होंने उपन्यास, अफ़साने, ग़ज़लें, नज़में, गीत सभी विधाओं में लिखा. वे पंजाबी भी उर्दू लिपि में ही लिखा करते थे. अफ़सोस मैं उर्दू लिपि नहीं पढ सकता. लेकिन लिपि चाहे कोई भी हो रचनाशीलता का मूल तत्व तो एक ही होता है.

जब मैं युवा था तो अंग्रेज़ी में लिखता था. उन दिनों सोचता भी अंग्रेज़ी में ही था. बायरन और कीट्स पर लिखी मेरी किताबें ख़ासी लोकप्रिय भी हुई थीं. फिर इंदु जी के संसर्ग में आने पर हिन्दी में लिखने लगा. सोच अंग्रेज़ी की लेखन हिन्दी में - सीधा सीधा अनुवाद जैसा लगता था. इंदु जी ने मूलमंत्र दिया - अंग्रेज़ी के स्थान पर पंजाबी में सोचा करिये और हिन्दी में लिखा करिये, आहिस्ता आहिस्ता हिन्दी में सोचने लगेंगे. और वही हुआ भी - आज मैं सपने भी हिन्दी में ही देखता हूं. अंग्रेज़ी और पंजाबी कहीं हाशिये पर चली गई हैं.

यह सवाल बहुत बार पूछा जाता है कि आप लिखते क्यों हैं. सभी से पूछा जाता है. महान् लेखकों से लेकर साधारण लेखक तक सबके अपने अपने कारण होते होंगे लिखने के. मेरे लिखने का कोई एक कारण तो नहीं ही है. दरअसल मेरे आसपास जो कुछ घटित होता है वह मुझे मानसिक रूप से उद्वेलित करता है. तब तमाम तरह के सवाल मेरे ज़हन में कुलबुलाने लगते हैं. उन सवालों से जूझते हुए सवाल जवाब का एक सिलसिला सा चल जाता है. तब मेरी लेखनी स्वयंमेव चलने लगती है. मेरे तमाम पात्र मेरे अपने परिवेश में से ही निकल कर सामने आ जाते हैं और फिर पन्नों पर मेरी लडाई लडते हैं. कहीं किसी प्रकार का भी अन्याय होते देखता हूं तो चुपचाप नहीं बैठ पाता. अन्याय के विरूध्द अपनी आवाज़ को दबा नहीं पाता. हारा हुआ इन्सान मुझे अधिक अपना लगता है. उसका दु:ख मेरा अपना दु:ख होता है. जीतने वाले के साथ आसानी से जश्न नहीं मना पाता जबकि हारे हुए की बेचारगी अपनी सी लगती है.
हमारी पीढ़ी ने जितने बदलाव इन्सानी जीवन में देखे हैं, वे अचंभित कर देने वाले हैं. मैं उस गांवनुमा रेल्वे स्टेशन पर भी रहा हूं जहां रात को लैम्प या मोमबत्ती जलानी पड़ती थी. हमारी मां ने वर्षों कोयले की अंगीठी और मिट्टी के तेल का स्टोव जला कर खाना बनाया है. हमारी पीढ़ी ने बिजली से चलने वाली रेलगाड़ी भी देखी है, जम्बो जेट विमान और कान्कॉर्ड भी, हमारी जीवन काल में मनुष्य चांद पर कदम भी रख आया. हमारे ही सामने दिल बदलने का आपरेशन हुआ और बिना शल्य चिकित्सा के आंखों का इलाज. हमारी ही पीढ़ी ने कैसेट, वीडियो कैसैट,सी.डी., डी.वी.डी., एम.पी.3 इत्यादि एक के बाद एक देखे. हमने अपने सामने भारी भरकम फ़ोटो-कॉपी मशीन से लेकर आज की रंगीन फ़ैक्स मशीनों तक का सफ़र तय किया. हमारी पीढ़ी मोबाईल फ़ोन एवं कम्पयूटर क्रांति की गवाह है. हमारी पीढ़ी क़े लेखक के पास लिखने के इतने विविध विषय हैं कि हमारे पुराने लेखकों की आत्मा हैरान और परेशान होती होगी. वे दोबारा इस सदी में आकर लिखना चाहेंगे.

हमारी पीढ़ी में लेखकों की एक नई जमात भी पैदा हुई है - प्रवासी लेखक. वैसे तो अभिमन्यु अनत बहुत अर्से से मॉरीशस में रह कर हिन्दी साहित्य की रचना कर रहे हैं. लेकिन एक पूरी जमात के तौर पर प्रवासी लेखक हाल ही में दिखाई देने लगे हैं. भारत के आलोचक समीक्षक कभी भी प्रवासी लेखन को गंभीरता से नहीं लेते थे. उसके कुछ कारण भी थे. अधिकतर प्रवासी लेखक नॉस्टेलजिया के शिकार थे. उनके विषय भारत को ले कर ही होते थे. मज़ेदार बात यह थी कि जिस भारत के बारे में वे लिखते थे, वो भारत उनके दिमाग़ क़ा भारत होता था, भारत जहां से वे विदेश प्रवास के लिये आये थे. उसके बाद भारत में जितने बदलाव आये उनसे वे बिल्कुल भी परिचित नहीं थे. इसलिये उनका लेखन किसी को छू नहीं पाता था. और उनके अपने आसपास का माहौल उन्हें नहीं छू पाता था. अभिमन्यु अनत के बाद न्युयॉर्क की सुषम बेदी पहली ऐसी लेखिका बनीं जिन्होंने अपने आसपास के माहौल को अपने लेखन का विषय बनाया. आज तो यू.के. में लेखकों की एक पूरी जमात है जो कि अपने आसपास के विषयों को अपनी कविताओं, कहानिया, लेखों और व्यंग्यों का विषय बना रही है.

इसीलिये मेरी कहानियों में ग़ज़लों में कविताओं में मेरे आसपास का माहौल,घटनाएं और विषय पूरी शिद्दत से मौजूद रहते हैं. मैं अपने आप को अपने आसपास से कभी भी अपने आप को अलग करने का प्रयास नहीं करता. इसीलिये मेरी कहानियों में एअरलाईन, विदेश, प्रवासी, रिश्तों में पैठती अमानवीयता और खोखलापन, अर्थ से संचालित होते रिश्ते, महानगर की समस्याएं सभी स्थान पाते हैं. कहानी काग़ज़ पर शुरू करने से पहले बहुत दिनों तक कहानी का थीम मुझे मथता रहता है.

मैं स्टाईल या स्ट्रक्चर को लेकर पहले से कुछ तय नहीं करता. विषय, चरित्र, घटनाक्रम सभी को अपने आप अपना रूप तय करने का मौका देता हूं. इस का अर्थ यह कदापि नहीं कि कथ्य और शिल्प के स्तर पर जो बदलाव कहानी लेखन में आ रहे हैं, मैं उनसे बचता फिर रहा हूं. मेरी कहानियों में आपको वो सभी तत्व भी मिलेंगे, लेकिन मेरे लिये यह सब एक अच्छी कहानी कहने के औज़ार हैं, कहानी से अधिक महत्वपूर्ण नहीं. कई बार मेरे चरित्र मुझ से बातें करते हैं और अपना स्वरूप, अपनी भाषा, स्वयं तय कर लेते हैं. मैं अपनी भाषा कभी अपने चरित्रों पर नहीं थोपता. यदि आवश्यक्ता होती है तो वे पंजाबी, मराठी, गुजराती या अंग्रेज़ी का उपयोग अपनी पृष्ठभूमि के अनुसार ख़ुद ही तय कर लेते हैं. मेरी अपनी कोशिश रहती है कि मैं भी चरित्रों की भाषा को अपने पर न हावी होने दूं. अपनी भाषा को उनसे बचाए रखने का प्रयास करता हूं.

कभी कभी किसी का कहा गया एक वाक्य ही कहानी बन जाता है. कभी कोई घटना नहीं होती है लेकिन कहानी होती है. आज की कहानी में से घटना आहिस्ता आहिस्ता गायब होती जा रही है . लेकिन फिर भी मेरा एक प्रयास रहता है कि कहानी में कहानीपन हमेशा बना रहे. केवल शब्दों की जुगाली या शब्दों के साथ अय्याशी मुझे एक लेखक के तौर पर मंज़ूर नहीं है. वहीं मेरा प्रयास घटना सुनाना कभी भी नहीं रहता. मेरे लिये घटना के पीछे की मारक स्थितियां कहीं अधिक महत्वपूर्ण रहती हैं. एक लेखक के तौर पर मुझे कहानी दिखाने में अधिक आनंद मिलता है. मुझे लगता है कि कहानी सुनाना पुरानी कला बन गया है. मैं दिमागी तौर पर अपने चरित्रों की सभी भावनाओं को जी लेना चाहता हूं, जीता हूं, तभी उन्हें काग़ज़ पर उतारता हूं.

वहीं कविता या ग़ज़ल के लिये तरीका अलग ही है. उसके लिये मैं कुछ नहीं करता. सब अपने आप होने लगता है. कविता या ग़ज़ल एक सहज प्रक्रिया है जिसमें प्रसव काल छोटा होता है लेकिन प्रसव पीड़ा सघन. जबकि कहानी के लिये लम्बे समय तक एकाग्रता बनाए रखनी पड़ती है.

मुझे और लेखकों का तो मालूम नहीं किन्तु जब कभी मेरी कलम से कोई अच्छी कहानी, ग़ज़ल या कविता निकल जाती है, तो मुझे ख़ुद मालूम हो जाता है। मैं यह बात कभी नहीं कह पाऊंगा कि मुझे अपनी सभी कहानियां एक जैसी प्रिय हैं।

क़ब्र का मुनाफ़ा, काला सागर, ढिबरी टाईट, एक ही रंग, तरक़ीब, कैंसर, अपराध बोध का प्रेत जैसी कहानियां लिख कर जो सुख मिला शायद वो कुछ अन्य कहानियां लिख कर नहीं मिला। इसलिये यह कहना कि मेरी कहानियां मेरी औलाद की तरह हैं और इन्सान को अपने सभी बच्चों से एकसा प्यार होता है – यह मेरे लिये एक क्लीशे से बढ़ कर कुछ भी नहीं है। हां यह सच है कि लेखक अपनी हर रचना के साथ एक सी मेहनत करता है, लेकिन नतीजा हर बार अलग ही निकलता है। यह किसी भी सृजनात्मक कला के लिये कहा जा सकता है, चाहे संगीत, पेन्टिंग, फ़िल्म बनाना या फिर लेखन। वैसे तो बहुत सी कहानियों के साथ बहुत सी यादें जुड़ी हैं, लेकिन मैं अपनी कहानी देह की कीमत के बारे में विस्तार से चर्चा करना चाहूंगा।

देह की कीमत अपनी कुछ अन्य कहानियों के साथ मेरी प्रिय कहानियों में से एक है। इस कहानी की एक विशेषता है कि मैं इस कहानी के किसी भी चरित्र के साथ परिचित नहीं हूं। लेकिन मैं तीन महीने तक एक एक किरदार के साथ रहा और उनसे बातें कीं और उनकी भाषा और मुहावरे तक से दोस्ती कर ली।

एम.ए. में मेरे एक दोस्त पढ़ा करते थे – नवराज सिंह। वह उन दिनों टोकियो में भारतीय उच्चायोग में काम कर रहे थे। टोकियो से दिल्ली फ़्लाईट पर आते हुए उनकी मुलाक़ात मुझ से हुई। उन दिनो मैं एअर इंडिया में फ़्लाइट परसर के पद पर काम कर रहा था। बातचीत के दौरान उन्होंने मुझे तीन लाईन की एक घटना सुना दी, "यार की दस्सां, पिछले हफ़्ते इक अजीब जही गल्ल हो गई। ओह इक इंडियन मुण्डे दी डेथ हो गई। उसदा पैसा उसदे घर भेजणा सी। घर वालियां विच लडाई मच गई कि पैसे कौन लवेगा। बड़ी टेन्शन रही। इन्सान दा की हाल हो गया है।"

अपनी बात कह कर नवराज तो दिल्ली में उतर गया। लेकिन मेरे दिल में खलबली मचा गया। मैं उस परिवार के बारे में सोचता रहा जो अपने मृत पुत्र से अधिक उसके पैसों के बारे में चिन्तित है। उन लोगों के चेहरे मेरी आंखों के सामने बनते बिगड़ते रहे। मैने अपने आसपास के लोगों में कुछ चेहरे ढूंढने शुरू किये जो इन चरित्रों में फ़िट होते हों। उनका बोलने का ढंग, हाव-भाव, खान-पान तक समझता रहा। इस कहानी के लिये फ़रीदाबाद के सेक्टर अट्ठारह और सेक्टर पन्द्रह का चयन भी इसी प्रक्रिया में हुआ। मुझे बहुत अच्छा लगा जब सभी चरित्र मुझसे बातें करने लगे; मेरे मित्र बनते गये।

इस कहानी की विशेषता यह रही कि घटना का मैं चश्मदीद गवाह नहीं था। घटना मेरे मित्र की थी और कल्पनाशक्ति एवं उद्देश्य मेरा। यानि कि कहानी की सामग्री मौजूद थी। बस अब उसे काग़ज़ पर उतारना बाकी था। जब मेरी जुगाली पूरी हो गई तो कहानी भी उतर आई पन्नों पर।

एअर इण्डिया में कार्यरत होने के कारण मैं हरदीप जैसे बहुत से चरित्रों से उड़ान में मिला करता था। उनसे की गई बातचीत इस कहानी की बुनावट में बहुत काम आई। हरदीप का नाम भी मैनें अपने एक मित्र से उधार लिया जिसे विदेश जा कर बसने का बहुत शौक था, हालांकि वह अपने इस सपने को पूरा नहीं कर पाया। मैनें अपने चरित्र के बात करने का ढंग हरदीप के तौर तरीके पर गढ़ा। दारजी की शक्ल मुझे अपने ड्राइंगे के अध्यापक में दिखाई दी जो कि एक गुरसिख था और हमेशा कुर्ता-नुमा कमीज़, शलवार और जैकट पहनते थे। इसी तरह अन्य चरित्रों को भी अपने आसपास के लोगों के चेहरे दे दिये। जब कहानी का पहला ड्राफ़्ट पूरा हुआ तो मैंने उसे अपनी दिवंगत पत्नी इन्दु को पढ़ने के लिये दिया। उन्होंने कहानी पढ़ने के बाद कहा, "यह आपकी पहली कहानी है जिसे बेहतर बनाने के लिये मैं कुछ भी सुझा नहीं सकती। यह एक परफ़ेक्ट कहानी है।"

मेरा हौसला दोगुना हो गया। और कहानी को छपने के लिये वर्तमान साहित्य के विशेषांक के लिये भेज दिया। कहानी प्रकाशित हो गई किन्तु कहानी की कहीं चर्चा नहीं हुई। मेरे मित्र वरिष्ठ पत्रकार अजित राय का कहना है, "तेजेन्द्र जी आप अच्छी कहानियां ग़लत जगह छपने के लिये भेज देते हैं। यदि आपकी यह कहानी हंस में प्रकाशित हो जाती तो आप एक स्थापित कहानीकार कबके हो चुके होते।"
इस कहानी पर मुंबई की एक वरिष्ठ प्राध्यापिका ने टिप्पणी की कि यह कहानी उसे प्रेमचन्द की कफ़न की यादि दिलाती है। ख़ुश होने के बाद मैने सोचना शुरू किया कि आख़िर उन्होंने यह क्यों कहा। जहां घीसू और माधव गांव के ग़रीब अनपढ़ चरित्र हैं, वहीं हरदीप के परिवार के लोग खाते पीते घर के लोग हैं। फिर पैसे को लेकर व्यवहार एक सा क्यों? मुझे महसूस हुआ कि हमारे आसपास के समाज में रिश्ते केवल अर्थ से संचालित होते हैं। समाज का इस हद तक पतन हो चुका है कि रिश्तों की कोई अहमियत ही नहीं रह गई है।

किन्तु प्रेमचन्द की कफ़न कहीं एक पॉज़िटिव सन्देश भी देती है कि अभी सब कुछ खोया नहीं है। चाहे घीसू और माधव कितने भी पतित क्यों न हो चुका हो, उनके आसापास का समाज मुर्दे के लिये कफ़न के पैसे जुटा ही देगा। यहां देह की कीमत में भी हरदीप की मां और भाइयों जैसे चरित्रों के रहते भी अभी प्रकाश की रेखा बाकी है। सबकुछ चौपट नहीं हुआ है। दारजी अपनी बहू के साथ अन्याय नहीं होने देंगे। हमारा समाज आज भी पूरी तरह से पतित नहीं हुआ है। यानि कि यह कहानी भी एक पॉज़िटिव नोट पर ही समाप्त होती है।

मैनें इस कहानी का पाठ मुंबई, दिल्ली, शिमला, बरेली, यमुना नगर, और लंदन के भारतीय उच्चायोग में किया तो श्रोताओं की बहुत वाहवाही मिली। इस कहानी पर मुर्दाघर के लेखक प्रों. जगदम्बा प्रसाद दीक्षित की टिप्पणी मेरे लिये बहुत महत्वपूर्ण है, "शर्मा जी यह कहानी आपकी आजतक की सर्वश्रेष्ठ कहानी है।"

मेरी कहानियां वैसे तो उड़िया, मराठी, गुजराती, एवं अंग्रेज़ी में अनूदित हो चुकी हैं. लेकिन पंजाबी (गुरमुखी लिपि), नेपाली एवं उर्दू में तो मेरे पूरे पूरे कहानी संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं. यहां ब्रिटेन में कथा यू.के. के माध्यम से कथा-गोष्ठियों का आयोजन करता हूं और स्थानीय लेखकों के साथ कहानी विधा के विषय में बातचीत होती है। दो वर्षों तक पुरवाई पत्रिका का संपादन किया। ब्रिटेन के हिन्दी कहानीकारों का विशेषांक खासा चर्चित हुआ। लंदन में कहानी मंचन का अनुभव भी प्राप्त हुआ। लन्दन की एशियन कम्यूनिटी आर्ट्स नामक संस्था ने मेरी 16 कहानियों की एक टॉकिंग बुक यानि कि ऑडियो सी.डी. भी बनवाई है। कहानी विधा को समर्पित हूं और कहानियां लिखते रहना चाहता हूं।

(मंच पर राजेन्द्र यादव के साथ कथाकार तेजेन्द्र शर्मा)

जन्म : 21 अक्टूबर 1952 को पंजाब के शहर जगरांवशिक्षा : दिल्ली विश्विद्यालय से बी.ए. (ऑनर्स) अंग्रेज़ी, एवं एम.ए. अंग्रेज़ी, कम्पयूटर कार्य में डिप्लोमा ।प्रकाशित कृतियाँ : काला सागर (1990) ढिबरी टाईट (1994), देह की कीमत (1999) यह क्या हो गया ! (2003), बेघर आंखें (2007) -सभी कहानी संग्रह। ये घर तुम्हारा है... (2007 - कविता एवं ग़ज़ल संग्रह) ढिबरी टाइट नाम से पंजाबी, इँटों का जंगल नाम से उर्दू तथा पासपोर्ट का रंगहरू नाम से नेपाली में भी उनकी अनूदित कहानियों के संग्रह प्रकाशित हुए हैं। अंग्रेज़ी में : 1. Black & White (biography of a banker – 2007), 2. Lord Byron - Don Juan (1976), 3. John Keats - The Two Hyperions (1977)कथा (यू.के.) के माध्यम से लंदन में निरंतर कथा गोष्ठियों, कार्यशालाओं एवं साहित्यिक कार्यक्रमों का आयोजन । लंदन में कहानी मंचन की शुरू‏आत वापसी से की। लंदन एवं बेज़िंगस्टोक में, अहिंदीभाषी कलाकारों को लेकर एक हिंदी नाटक हनीमून का सफल निर्देशन एवं मंचन ।74-A, Palmerston RoadHarrow & WealdstoneMiddlesex UKTelephone: 020-8930-7778 / 020-8861-0923.E-mail: kahanikar@gmail.com , mailto:kathauk@hotmail.comWebsite: http://www.kathauk.connect.to/

कहानी




लट्टू

द्रोणवीर कोहली

हम दोनों दिन-भर लट्टू की तरह घूमते रहे, लेकिन लट्टू नाम की चीज़ हमें कहीं नहीं मिली. हम जिस भी दुकानदार से जाकर पूछते, वह एक ही बात बोलता ,"आजकल लट्टू कौन चलाता है, साहिब. रखकर क्या करेंगे! पहले प्राइमर में बच्चों को ल से लट्टू, ठ से ठठेरा सिखाते थे. अब वह सब बदल गया है, तो लट्टू कैसे रहेगा!"

इस तरह जब लट्टू प्राप्त करने में हमें कामयाबी हासिल नहीं हुई, तो पत्नी ने दुकानदार से यह बात कही,"हमारा नाती हठ कर रहा है. कहता है, लट्टू लेना है. कहीं मिलता नहीं. कहां ढूंढ़ें."

वह बोला, "आप बालक को हमारे स्टोर में ले आइए. ये सारे खेल-खिलौने देखेगा, तो लट्टू भूल जाएगा."

"नहीं , वह आ नहीं सकता." मैंने कहा.

"ऎसी क्या बात है!"

इस पर अनायास ही मेरी पत्नी के मुख से वह बात निकल गई जिसे हम पोशीदा रखना चाहते थे. डरते थे कि यदि दुकानदार को पता चल गया, तो एक लट्टू के दुगुने-चौगुने क्या, सौगुना दाम मांगने से भी गुरेज़ नहीं करेगा.

"भइया, नाती हमारा अमेरिका में रहता है." पत्नी ने भेद खोल दिया. हिंदुस्तानी चीजो़ से लगाव है उसे. दो साल पहले गिली-डंडा भी भिजवाया था."

दुकानदार बोला, "अचरज, अमेरिका में लट्टू नहीं मिला! उस देश में तो दुनिया की ऎसी कोई वस्तु नहीं जो इंपोर्ट न की जाती हो."

"वहां लट्टू मिलते हैं, लेकिन इलेक्ट्रानिक . वैसे नहीं मिलते, जैसे कील वाले हिंदुस्तानी-पाकिस्तानी लट्टू होते हैं. सूत-लत्ती से चलने वाले. वही मंगाया है उसने."


"तब तो समस्या बड़ी गंभीर है. हिंदुस्तान में तो अब वैसे लट्टू चलाने का रिवाज ही नहीं रहा! अब तो शायद ही कहीं बनते होंगे."

"आखि़र , दिल्ली जैसे शहर में कहीं तो मिलेगा. यहां तो लट्टू चलाने की प्रतियोगिताएं हुआ करती थीं."

और मुझे याद आया कि बचपन में हम किस तरह लट्टू के खेल के पीछे पागल रहते थे. ज़मीन पर लट्टू चलाने के मुकाबले होते थे. दूसरे के चलते लट्टू पर अपना लट्टू स्थापित करने की भी होड़ लगती थी या ज़मीन पर तेज़ी से चलते लट्टू को उछाल कर हथेली पर रखने और उसे ज्यादा से ज्यादा समय तक चलाए रखने के करतब भी हम किया करते थे और कील की चुभन तक महसूस नहीं होती थी. क्या मज़ेदार दिन थे वे भी बचपन के. जरूर ही हमारे नाती ने कहीं लट्टू चलता देखा जो इतना इसरार कर रहा है.

"धूम-फिर लीजिए." दुकानदार ने सलाह दी. "शायद किसी के पास पुराना पड़ा हो. वैसे, कोई बनाता नहीं है अब."

"भइया , हम तो साउथ एक्स हो आए हैं, डेफ़ कोल़ भी गए, लाजपत नगर की मार्केट में गए, सरोजिनी नगर की मार्केट भी घूम आए. जिसने जो जगह बताई, पूछ आए हैं. दिन-भर भटकते-भटकते करीब बीसेक लिटर पेट्रोल तो फूंक ही दिया होगा. फिर भी, लट्टू कहीं नहीं मिला. हमने उतने चक्कर तो लगाए ही होगें जितने लट्टू लगाता है."

"फिर तो मजबूर-----" कहते-कहते दुकानदार रुका. बोला, "एक काम करो. इस वक्त आप शंकर मार्केट में खड़े हो. पहाड़गंज कुछ ही फासले पर हैं. वहां किसी न किसी दुकान पर मिल सकता है. वहां नहीं मिलता, और अभी हिम्मत थोड़ी बची है, और आपको एक अदद लट्टू चाहिए ही, तो चांदनी चौक में दरीबा में या बल्लीमारान में या फिर सदर बाजार के तेलीवाड़ा में पता लगाइए. शायद किसी दुकान वाले के पास पुराना लट्टू पड़ा हो. या फिर इंपोर्टिड माल बेचने वाले किसी दुकानदार से मिल जाए. इंपोरटिड मिलेगा भी सस्ता. चीन में या थाइलैंड में बनी बल्ब-बैटरियां वगैरह तो आने ही लगी हैं. वहां से कोई लट्टू भी इंपोर्ट करता ही होगा."


"आपने भली कही. दूसरे देशों में लट्टू चलाने का रिवाज ही नहीं है. सो, वे लट्टू बनाना जानते ही नहीं होंगे."

वह हंस दिया. बोला, "आप लोग बड़े भोले हैं. चीन वाले गणेश की, शिव की, कृष्ण की पूजा नहीं करते. लेकिन हमारे देवी-देवताओं की मूर्तियां बना कर यहां मिट्टी के मोल बेच रहे हैं, तो लट्टू क्यों नहीं बनाएंगे? जा कर दरियाफ्त तो करो. अगर लट्टू उन्होंने अभी नहीं बनाया, तो आप जैसे दो-चार लोग लट्टू की फ़रमाइश करेंगे और चीनी लोगों को भनक पड़ गई, तो हिंदुस्तान के सारे बाजा़र लट्टुओं से पाट देंगे."

"साहब, आप तो ऊंची अर्थशास्त्र की बातों में पड़ गए. हमें तो मामूली-सा एक लट्टू चाहिए. चलिए, आपकी नसीहत को पल्ले बांधकर पुरानी दिल्ली के बाज़ारों की खा़क छानते हैं. बच्चे को खुश तो करना ही है न!"

अब खुद ड्राइव करने की हिम्मत नहीं थी. सो, हमने गाड़ी पार्किंग में ही छोड़ी और टैक्सी कर ली दिन-भर की -पांच सौ रुपए में. उन बाजा़रों में जाकर एक-एक दुकान पर दरियाफ्त किया. कुछेक तो हंसे, कुछेक चकित हुए कि सन २००५ में भी किसी बच्चे की दिलचस्पी इलेक्ट्रानिक खिलौनों को छोड़कर लट्टू जैसी पुरानी चीज़ में हो सकती है.

"साहेब जी, आपका बच्चा एक्स्ट्रा-आर्डिनरी है."

"एक्स्ट्रा-आर्डिनरी नहीं, साहब, अमेरिकन है. वहां की आबोहवा में पला है."

"किसी तरीके से उसे कंविंस करिए कि हिन्दुस्तान में लट्टू का रिवाज उसी तरह ख़त्म हो गया है जिस तरह अब घर में सुराही रखने का रिवाज जाता रहा है."

"नहीं, भाई, यह अमेरिकन जि़द है. लड़का जब तक पूरी नहीं करवा लेगा, चैन से न बैठेगा, न बैठने देगा."

एक दुकानदार ने तो यहां तक कहा, "अगर अमेरिका में लट्टू नहीं मिलता, तो दुनिया के किसी कोने में नहीं मिल सकता. उनके यहां तो सिर्फ़ हथियार बनते हैं. बाकी सारा सौदा-सुल्फ, सब्जी़-भाजी, फल-फ्रूट, खेल-खिलौने, वस्त्र विदेशों से मंगाते हैं. आप नाहक परेशान हो रहे हैं. इस उम्र में मुसीबत मोल ले ली. ऎसा भी क्या! बच्चे को समझा दीजिए. यह लट्टू का ज़माना नहीं, 'लोटो' का ज़माना है."


"भली कही, लेकिन , हम मान नहीं सकते कि हिन्दुस्तान से लट्टू जैसी चीज़ गा़यब हो सकती है. यहां का कोई नेता, अभिनेता, क्लर्क, चपरासी, अफ़सर ऎसा नहीं होगा जिसने बचपन में लट्टू न चलाया हो. एक बार जो चीज़ यहां आती है, वह जाती नहीं. देखा नहीं, रिश्वत की बान जाती ही नहीं."

"सत्य वचन, महाराज." दुकानदार ने हाथ जोड़ कर कहा,"आप ढूंढ़िये. शायद बटेर कहीं हाथ लग जाए."

सो, हमने दिल्ली का कोई बाजा़र, कोई माल, कोई गली-कूचा नहीं छोड़ा जहां जाकर दरियाफ्त न किया हो, लेकिन लट्टू हमें कहीं नहीं मिला. बाजा़र में खड़े-खड़े ही मोबाइल से हमने अमेरिका फ़ोन करके सोते हुए बालक को जगा कर समझाया कि लट्टू की जगह कोई दूसरी चीज़ मंगा लो, हम भिजवा देंगे. लेकिन बालक अड़ा रहा. अमेरिकन लहज़े में बोला, "नाना-नानी, तुम मुझसे प्यार करते हो, तो कहीं से भी लट्टू लेकर भिजवाओ."

बड़ी मुश्किल में पड़े. सुबह जो खाकर निकले थे, उसी में दिन गुजा़र दिया था. बाजा़री खाना पचता नहीं था. पानी पी-पी कर गुजा़रा किया. खड़े-खड़े एकाएक यह बात सूझी. चूंकि यह कहानी सच्ची है, इसलिए जिन लोगों से मैंने इस सिलसिले में संपर्क किया, उनके नाम लेने में मैं संकोच नहीं कर रहा.

सबसे पहले मुझे अपने पुराने सहयोगी पंकज का ध्यान आया. उसे फ़ोन लगाया और सीधे-सीधे पूछ लिया, "पंकज, मुझे एक लट्टू की दरकार है. कहीं से मिल नहीं रहा. बता सकते हो, कहां से मिल सकता है?"

पंकज ठहाका मारकर हंसा. "ऎसी ज़रूरत क्या आन पड़ी है जो ग्लोबलाइजेशन के ज़माने में तुम लट्टू जैसी आब्सोलीट चीज़ की फरमाइश कर रहे हो."

"यार , मजा़क में बात उड़ाओ नहीं. कहीं से एक लट्टू दिलवाओ."

"लट्टू चलाने का यह क्या शौक चर्राया है तुम्हें?"


मैंने कहा, "मैं इस उम्र में क्या लट्टू चलाऊंगा! तुम तो जानते ही हो. मेरी बेटी अमेरिका में बस गई है. वहां से मेरे नाती ने लट्टू भिजवाने की फरमाइश की है, और वह कहीं से मिल नहीं रहा. नई दिल्ली , पुरानी दिल्ली, सब जगह पता लगा लिया. कहीं नहीं मिला. अब तुम्हीं मदद कर सकते हो. तुम्हारे बेटे के पास पुराना लट्टू रखा हो, तो उसी से काम चला लेंगे."

"मेरे बच्चे पहाड़ी हैं. पहाड़ की ऊबड़-खाबड़ ज़मीन पर कोई लट्टू नहीं चलाता. रुको."

लगा पंकज सोचकर कोई हल निकालेगा. थोड़ी देर बाद तनिक गंभीर स्वर में कहता है, "आप एक काम करो. राजेन्द्र जी को फोन करो. वह बड़े खिलाड़ी और ज्ञानी-ध्यानी हैं. हर क्षेत्र में माहिर हैं. ऎसी चीज़ों की जानकारी उन्हें रहती है. फिर वह कई लट्टू एक साथ घुमाने की हिकमत जानते हैं."

"कौन राजेन्द्र जी!" मैंने कहा. "यहां ईंट उखाड़ों, तो सैकड़ों राजेन्द्र मिल जाएंगे."

"अरे, वही."

"अच्छा!!!" मैं बड़ी देर बाद समझा. "ठीक है. गुड सजेशन. उन्हीं को फोन मिलाता हूं."

सो, मैंने राजेन्द्र जी को फोन मिलाया. मैं उनका चेहरा तो देख नहीं सकता था. लेकिन मेरी बात सुनकर जिस तरह वह स्थिर हो गए, उससे लगा कि मेरी यह बात सुन जरूर भन्ना गए होंगे. लगा कि बात नहीं करेंगे. लेकिन जैसे जुगाली करने के बाद एकदम बोल पड़े, "ऎसा करो, कमलेश्वर को फो़न करो. वह लट्टू चलाया करते थे बचपन में. ज़रूर बताएंगे कि कहां से तुम्हें लट्टू मिल सकता है."

""नहीं, राजेन्द्र जी, कमलेश्वर लट्टू नहीं चलाते थे, कंचे खेला करते थे. मुझे याद पड़ता है, भैरव जी ने कहीं लिखा भी है कि जब वह उनके गांव गए थे, तो कमलेश्वर गली में कंचे खेल रहे थे. मैं ग़लत तो नहीं कह रहा न! कोई और स्रोत बताइए. बस, एक अदद लट्टू की दरकार है."


राजेन्द्र जी चिड़्चिड़ाकर बोले, "साले, तुमने थोड़ी देर कर दी. गुलेरी, मोहन राकेश, उपेन्द्रनाथ अश्क, भीष्म साहनी वगैरह-वगैरह हिन्दी में लिखने वाले सब साले पंजाबी लेखक लट्टू ही तो चला कर बड़े हुए थे. उनसे तो अब कोई गुफ्तगू तुम्हारी हो नहीं सकती....."

एकाएक फो़न पर ही कुछ चहकते स्त्री स्वर सुनाई पड़े. राजेन्द्र जी कहते हैं, "अच्छा, तो बाद में बात करेंगे."

"धन्यवाद, राजेन्द्र जी! यु हैव बिन सो हेल्पफुल! नमस्कार."

सुबह घर से निकले थे और अब सूरज अस्ताचल की ओर प्रस्थान कर रहा था. घर लौटने के लिए हम शंकर मार्केट की पार्किंग में खड़ी गाड़ी निकालने चले. अभी दरवाज़ा खोला ही था कि एकाएक यह बात सूझी. मैंने पत्नी से कहा, "नानी! तुम बैठो. अंतिम प्रयास कर देखता हूं. अभी आया."

शंकर मार्केट के बराम्दे में दो अनाथ-से दिखने वाले बालक खड़े थे. मैंने जल्दी-जल्दी जाकर दोनों की हथेलियों पर एक-एक अठन्नी रखी और कहा, "बच्चो! बता सकते हो, लट्टू कहां से मिल सकता है."

दोनों छूटते ही बोले, 'मिल सकता हैं."

"कहां?" मैंने उल्लसित होकर कहा. "बताओ, कहां मिल सकता है?"

"बहुत दूर है." एक लड़का बोला.

"कितनी दूर?"

"बहुत दूर."

मैंने धीरज रखते हुए कहा, "कोई बात नहीं . हम चले जाएंगे."

जो लड़का पहले बोला था, वह अठन्नी को आगे-पीछे से देखते हुए उचककर उंगली के इशारे से बताता है, "इस सीधी सड़क पर जाओ. आगे बाएं हाथ घूम जाओ, जहां फल बेचने वाले बैठते हैं. आगे जाओ, तो टेशन से जी़ने से उतरकर आते हैं न, उसके बाईं ओर एक खुली दुकान है. वह लट्टू रखता है....."


"बाईं तरफ़ नहीं, दाईं तरफ़ ." दूसरा लड़का बोला.

पहले लड़के ने उसे झिड़का, "बहन ---- इधर से जाओ, तो दाईं और. जी़ना उतरकर आओ, तो बाईं ओर."

"यही मैं कह रहा हूं."

"ठीक है, ठीक है, " मैंने दोनों के रूखे बालों को सहलाते हुए कहा, "मैं पता लगा लूंगा."

इन बालकों ने जिस रास्ते को 'बहुत दूर' बताया था--- ज़रूर ही मेरी उम्र का लिहाज़ करते हुए-- वह मुश्किल से तीन मिनट का पैदल रास्ता था. मैं जल्दी-जल्दी चल कर गया, तो सचमुच, रेलवे स्टेशन के बाहर दाईं ओर ज़मीन पर फड़ी लगाए दुकानदार बैठा था. मोमजामे पर ढेर सारी फैली विविध वस्तुओं में एक लट्टू भी रखा था. मुझे लगा, वह लट्टू नहीं, समुद्र-मंथन से निकला मणि है जो देवताओं को जद्दोजहद के बाद प्राप्त हुआ था.
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जन्म १९३२ के आसपास रावलपिण्डी के निकट एक दुर्गम एवं उपेक्षित ग्रामीण क्षेत्र में हुआ. देश-विभाजन के उपरान्त दिल्ली आगमन जहां किशोरावस्था बीता और शिक्षा-दीक्षा हुई. भारतीय सूचना सेवा के दौरान विभिन्न पदों पर काम करने के अतिरिक्त, 'आजकल', 'बाल भारती', 'सैनिक समाचार' जैसी पत्रिकाओं का सम्पादन किया. कुछ समय तक आकाशवाणी में वरिष्ठ संवाददाता तथा हिन्दी समाचार विभाग के प्रभारी सम्पादक भी रहे. आजकल स्वतन्त्र लेखन.

प्रकाशित कृतियां : *काया-स्पर्श, चौखत, तकसीम, वाह कैंप, नानी, ध्रुवसत्य, उम्मीद है (उपन्यास).

*जो़ला के उपन्यास 'जर्मिनल' का अविकल हिन्दी अनुवाद - आएगा वह दिन.
* जमा-पूंजी. (कहानी संग्र).
*टप्पार गाड़ी, देवताओं की घाटी, डाक बाबू का पर्सल, कंथक (किशोरोपयोगी/बालोपयोगी).
*मोर के पैर (लोककथाएं).
संपर्क : एस-२३/६ डी.एल.एफ. सिटी,
गुणगांव- १२२००२
हरियाणा.

मोबाइल : ०९८१०८१५७९१

रपट


"कथाकार तेजेन्द्र शर्मा इन दिनों लन्दन से भारत पधारे हैं। २ अक्टूबर २००८ को उनके आई.टी. विशेषज्ञ पुत्र मयंक की सगाई मुंबई की उन्नति नारवेकर के साथ सम्पन्न हुई। उन्नति ने इसी वर्ष डेन्टिस्ट्री का इम्तहान पास किया है। अपने भारत प्रवास के दौरान तेजेन्द्र शर्मा ने नई दिल्ली, भोपाल एवं फ़रीदाबाद में अपनी कहानियों का अभिनय पाठ किया।

प्रस्तुत है सभी कार्यक्रमों की एक साझा रेपोर्ट:

इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, नई दिल्ली में कथाकार तेजेन्द्र शर्मा का कथापाठ....

अखिल भारतीय सांस्‍कृतिक पत्रकार संघ, नई दिल्‍ली द्वारा आयोजित मित्र संवाद व कहानी पाठ २५ सितम्‍बर २००८ की संध्‍या को इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में सफलतापूर्वक संपन्‍न हुआ। संचालक अजित राय ने इस पहली बैठक में पत्रकार संघ की रूपरेखा सामने रखते समय यह भी घोषणा की कि संघ की ओर से वर्ष में दो सांस्‍कृतिक संवाददाताओं को पुरस्‍कृत किया जाया करेगा।

(कहानी पाठ करते कथाकार तेजेन्द्र शर्मा)

इस अवसर पर लन्दन से पधारे कथाकार तेजेन्द्र शर्मा (महासचिव – कथा यू.के.) ने अपनी बहुचर्चित कहानी 'क़ब्र का मुनाफ़ा' का अभिनय पाठ किया। यह कहानी लन्दन में बसे दक्षिण एशियाई मुस्लिम समाज में मृत्यु का एक नया विमर्श सामने लाती है। जीवन में बाज़ार की घुसपैठ इस क़दर बढ़ गई है कि अंतिम संस्कार जैसे पवित्र रीति-रिवाजों का भी व्यापार होने लगा है। यह एक बड़े दृष्टिकोण की कहानी है जो खिलन्दड़े अन्दाज़ में मृत्यु जैसे गंभीर और डरावने विषय को उत्सव में बदल देती है। श्री तेजेन्‍द्र शर्मा के कहानी पाठ ने समां बांध दिया। लीक से हटकर लिखी गई उनकी कहानी 'क़ब्र का मुनाफ़ा' की रोमांचक करवटों से श्रोताओं को आनंद विभोर होते रहे। संवादों के अनुरूप स्‍वर के आरोह और अवरोह से प्रकट हो रहा था कि तेजेन्द्र शर्मा कथापाठ के सिद्धहस्त कलाकार हैं। उल्‍लेखनीय है कि साक्षात्‍कार के संपादक हरि भटनागर ने इंडिया टुडे के एक सर्वे में 'क़ब्र का मुनाफ़ा' को पिछले साठ साल में प्रकाशित बीस महत्‍वपूर्ण कहानियों में स्‍थान दिया है। कहानी एवं कहानी के अभिनय पाठ की सभी ने भूरि भूरि प्रशंसा की।

श्री तेजेन्द्र शर्मा एक चर्चित कथाकार होने के साथ ही, दूरदर्शन के शांति धारावाहिक के लिए लेखन कर चुके हैं तथा अन्नू् कपूर निर्देशित फिल्म अभय में नाना पाटेकर के साथ अभिनय भी कर चुके हैं। वे हिंदी साहित्य के एकमात्र अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार 'इंदु शर्मा कथा सम्मान' प्रदान करने वाली संस्था 'कथा यू.के.' के महासचिव हैं। अनेक पुरस्कारों से सम्मानित श्री शर्मा अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलनों में भी सहभागी रह चुके हैं।

(मंच पर स.श्री अशोक बाजपेई, राजेन्द्र यादव और तेजेन्द्र शर्मा)

ललित कला अकादमी के अध्यक्ष अशोक वाजपेयी ने तेजेन्द्र शर्मा की कहानी 'क़ब्र का मुनाफ़ा' पर टिप्पणी करते हुए कहा कि यह एक ऐसी सशक्त कहानी हो जो शुरू से आख़िर तक पाठकों को बान्धे रखती है। उन्होंने कहा कि कहानी का अभिनय पाठ एक अद्बुत नाटकीयता को सामने लाता है।

वरिष्ठ कथाकार असग़र वजाहत ने लन्दन के हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स में अंतर्राष्ट्रीय इन्दु शर्मा कथा सम्मान प्राप्त करने के दौरान हुए अपने अनुभवों को दर्शकों के साथ बांटा। उन्होंने कहा कि तेजेन्द्र की कहानियां सामाजिक एवं निजी विसंगतियों को कलात्मक ढंग से सामने लाती हैं।

हंस के संपादक राजेन्द्र यादव ने सांस्कृतिक पत्रकारों के इस संगठन को एक नई पहल बताते हुए कहा कि इससे सांस्कृतिक ख़बरों के क्षेत्र में फैली अराजकता कुछ कम होगी। उन्होंने कहा कि 'क़ब्र का मुनाफ़ा' एक अनोखे विषय को ख़ास तरह की नाटकीयता के साथ गहराई से देखने की कोशिश है। इसे सुनने के बाद लगा कि कहानी पढना भी एक सांस्कृतिक गतिविधि है।


(इंडिया इंटरनेशनल सेण्टर में कुछ मित्रों के साथ कथाकार तेजेन्द्र शर्मा)


सर्वश्री के. बिक्रम सिंह, नासिरा शर्मा, पद्मा सचदेव, विकास राय, देवेन्द्र राज अंकुर, डॉ. कमल कुमार, अशोक चक्रधर, विजय कुमार मल्होत्रा, उषा महाजन, रूप सिंह चन्देल, मंजीत ठाकुर, अशोक मिश्र, गीताश्री, उषा पाहवा, चंदीदत्त शुक्ल, राकेश पांडेय, विमलेश सांदलान, शरद शर्मा, जयंती, सुधीर सक्सेना, रमेश शर्मा, अजय नावरिया, अरूण कुमार जैमिनी, आलोक श्रीवास्तव, अनिल जोशी, रूपसिंह चंदेल, अविनाश वाचस्पति, अरूण माहेश्व,री, महेश भारद्वाज, अनुज अग्रवाल, पायल शर्मा इत्यादि की उपस्थिति ने समारोह को एक गरिमा प्रदान की। समारोह में खूब ठहाके लगे और इसने एक स्तरीय कवि सम्मेलन का सा लुत्फ प्रदान किया।... अंत में अमर उजाला के श्री अरुण आदित्य ने आगंतुकों का धन्यवाद ज्ञापन किया। पर अंत तक यह रहस्य सुलझ न सका कि नामवर सिंह कहीं हवा में ही अटके रहे या दिल्ली के ट्रैफिक में उलझे रहे क्योंकि यह बतलाया गया था कि वे कहीं बाहर हैं और हवाई जहाज़ से इस समारोह में दिल्ली पहुंच रहे हैं...
प्रस्तुति : रू.सिं.च.

कथाकार तेजेन्द्र शर्मा का भोपाल में रचना पाठ.....

हरि भटनागर

प्रसिद्ध कथाकार एवं अंतर्राष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान के प्रमुख कर्ता-धर्ता, लंदनवासी तेजेन्द्र शर्मा का भोपाल में रचना-पाठ आयोजित किया गया। रचना-पाठ की अध्यक्षता प्रसिद्ध साहित्यकार मुकेश वर्मा एवं विजय वाते ने की।

श्री तेजेन्द्र शर्मा ने अपनी दो कहानियों – 'तरकीब' एवं 'देह की कीमत' का अभिनय पाठ किया। पाठ से पूर्व उन्होंने कथाकार श्री हरि भटनागर द्वारा संपादित एवं वरिष्ठ रचनाकार स्व. प्रभा खैतान द्वारा अनुदित एवं प्रस्तुत – लेव तॉलस्तॉय की पत्नी सोफ़िया तॉलस्तोया की डायरी लिये 'रचना समय' के अंकों का लोकार्पण किया। तेजेन्द्र शर्मा ने प्रभा खैतान की असमय मृत्यु पर दुःख व्यक्त करते हुए उनके साहित्यिक अवदान के साथ उन्हें याद किया। सोफ़िया तॉलस्तोया की डायरी के बारे में उन्होंने कहा, " यह डायरी तत्कालीन रूस और लेव तॉलस्तॉय के निजी एवं इनके ढंके मुंदे जीवन प्रसंगों को अनावृत करती है। एक तरह से यह डायरी ज़ारशाही व्यवस्था और महान् रचनाकार तॉलस्तॉय के साथ सोफ़िया तॉलस्तोया के जीवन का – नारी जीवन का महा-आख्यान है।"

श्री तेजेन्द्र शर्मा की कहानियों पर चर्चा आरम्भ करते हुए प्रख्यात कवि एवं व्यंग्य रचनाकार जब्बार ढांकवाला ने कहा कि दोनों ही कहानियां नायाब हैं। उन्होंने कहा कि 'तरकीब' कहानी मुस्लिम समाज की विसंगतियों को व्यंजित करती है जो अपनी प्रस्तुति में अनोखी है। उन्होंने 'देह की कीमत' कहानी को आज के जटिल समय और उसकी विद्रूपता का पर्याय बताया। चित्रकार मंजूषा गांगुली ने चित्रकार जनगण सिंह श्याम को याद किया। उन्होंने कहा कि 'देह की कीमत' कहानी का चरित्र जिस तरह महत्वाकांक्षा की दौड़ में मृत्यु के मुंह में समाता है, मुझे यह कहानी जनगण सिंह श्याम की याद दिलाती है। उन्होंने दोनो कहानियों की सराहना की। युवा आलोचक आनन्द कुमार सिंह ने एक तरफ़ 'देह की कीमत' को वेल-रिटन एवं फ़िनिश्ड कहते हुए उसकी तारीफ़ की वहीं दूसरी कहानी 'तरकीब' के बारे में उनकी धारणा थी कि यह कहानी अपनी प्रस्तुति में कमज़ोर है। कहानी अपने कथ्य को गहरे विमर्श के साथ अभिव्यक्त नहीं कर पाई है।

कथाकार हरि भटनागर ने 'देह की कीमत' कहानी को आजकी एक विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण कहानी बताते हुए कहा कि यह कहानी आज के पूंजीवादी समाज के पतन की गाथा है। उन्होंने कहा कि आज का विद्रूप समय हमे कहीं का नहीं छोड़ रहा है और अन्ततः हमें उसका ख़मियाज़ा अपनी जान देकर भुगतना पड़ता है। उनका मानना था कि यह कहानी कथ्य एवं शिल्प में बेजोड़ है। यही वजह है कि जब मैंने 'इंडिया टुडे' द्वारा आयोजित ५० वर्षों की २० श्रेष्ठ कहानियों का मूल्यांकन किया तो मुझे 'देह की कीमत' एवं 'क़ब्र का मुनाफ़ा' में से किसी एक को चुन पाना बहुत दुष्कर कार्य लगा।

युवा कवि रवीन्द्र प्रजापति ने कहा कि दोनों कहानियां कहन और प्रस्तुतिकरण में आधुनिक और अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी कहानी का सबल नमूना हैं। गीतकार राजेन्द्र जोशी ने दोनों कहानियों की विशद मीमांसा प्रस्तुत करते हुए कहा कि दोनों कहानियों में सहजता है जो सीधे दिल-ओ-दिमाग़ को प्रभावित करती है। 'समीरा' पत्रिका की संपादक मीरा सिंह ने 'तरकीब' कहानी की विषय वस्तु की सराहना की। उन्होंने कहा कि यह कहानी हर देश की नारी पीड़ा और पुरुष-वर्चस्व को व्यंजित करती है। कथा लेखिका स्वाती तिवारी ने दोनों कहानियों की प्रशंसा करते हुए कहा कि दोनों कहानियां निश्चित ही आज के समय की विसंगति को अभिव्यक्ति देती हैं। उन्होंने तेजेन्द्र शर्मा की पाठ प्रस्तुति की भी भूरि भूरि प्रशंसा की। व्यंग्यकार वीरेन्द्र जैन ने कहा कि दोनों कहानियां मर्म को छूने वाली यादगार कहानियां हैं।
श्री विजय वाते ने दोनों कहानियों की प्रशंसा करते हुए कहा कि दोनों कहानियां निश्चित ही आज के समय की विसंगतियों को अभिव्यक्ति देती हैं। उन्होंने कहा कि 'तरकीब' कहानी में तेजेन्द्र शर्मा ने मुस्लिम समाज के पुरुष वर्चस्व को बहुत बारीक़ी से छुआ है। डा. शिरीष शर्मा ने 'तरकीब' कहानी को मुस्लिम समाज में पुरुष की क्रूरता का उत्कृष्ठ नमूना कहा। कथाकार मुकेश वर्मा ने कहा कि लम्बे अर्से के बाद ऐसी कहानियां सुनने को मिलीं जो प्रस्तुति और विचार के स्तर पर ऐसी हैं जिनसे हमारे अंदर विचार की यात्रा शुरू कर दी है।

कथा लेखिका उर्मिला शिरीष के जानकी नगर स्थित आवास पर हुए इस रचनापाठ का संचालन उर्मिला शिरीष ने ही किया। उन्होंने कहानियों की सराहना करते हुए कहा कि दोनों कहानियां यादगार कहानियां हैं जो निश्चित रूप से आज के विषमतामूलक समय की पड़ताल करती हैं। एक तरह से ये कहानियां समय के सच की ओर हमारा ध्यान खींचती हैं।

रचनापाठ में अन्य लोगों के अतिरिक्त सर्वश्री बृजनारायण शर्मा, रामनिवास झा, अनवार-ए-इस्लाम, अनिल करमेले और मृत्युंजय शर्मा भी उपस्थित थे।

तेजेन्द्र शर्मा का फ़रीदाबाद में कथा पाठ.....

फ़रीदाबाद के डी.ए.वी. कॉलेज में तेजेन्द्र शर्मा ने अपनी कहानी 'देह की कीमत' का अभिनय पाठ किया। वरिष्ठ पत्रकार अजित राय ने हॉल में उपस्थित १५० विद्यार्थियों को तेजेन्द्र शर्मा का परिचय दिया। कार्यक्रम में तेजेन्द्र शर्मा एवं उनकी माता श्रीमती सुरक्षा शर्मा का पुष्पगुच्छ दे कर स्वागत किया गया। तेजेन्द्र शर्मा के कहानी पाठ से मंत्रमुग्ध श्रोताओं के हाव भाव से साफ़ ज़ाहिर हो रहा था कि वे किस गहराई तक कहानी में डूबे हुए हैं।

कहानी पाठ के पश्चात विद्यार्थियों ने करतल ध्वनि से अपनी तारीफ़ को अभिव्यक्ति दी। कॉलेज के प्रधानाचार्य श्री अहूजा ने कहानी की तारीफ़ करते हुए कहा कि उन्होंने अपने विद्यार्थियों को कभी भी किसी पाठ में इतना मग्न होते नहीं देखा। कहानी के विषय, कथावस्तु, शिल्प एवं पाठ को अद्वितीय बताते हुए उन्होंने तेजेन्द्र शर्मा को खुली दावत दे डाली कि वे जब कभी भी भारत आएं, डी.ए.वी. कॉलेज के छात्रों को अपनी रचना सुनाने अवश्य आएं। हिन्दी विभाग की अध्यक्षा श्रीमती शुभ तनेजा ने धन्यवाद ज्ञापन दिया।