शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009

वातायन - मार्च, २००९


हम और हमारा समय

चौदहवीं लोक सभा का कार्यकाल समाप्त हो गया. मीडिया रपटों के अनुसार संसद से बाहर जाते हुए अधिकांश सांसदों के चेहरे उतरे हुए थे और वे हसरत भरी निगाहों से संसद भवन को निहार रहे थे. सबको जनता के आदेश की चिन्ता थी. पता नहीं दोबारा लौट भी पायेंगे या नहीं. जिस जनता को पांच सालों तक वे भूले रहे अब पुनः उसके दरबार में जाना होगा. जनता का फैसला क्या होगा यही रही होगी उनकी चिन्ता. जनता उनके लिए मात्र वोटबैंक है, जिसकी याद उन्हें हर पांच वर्ष में आती है.

हम सबसे बड़ा लोकतंत्र हैं, लेकिन यहां का लोकतंत्र भ्रष्ट नेताओं और अफसरों के हाथों बंधक है. आज उत्तर प्रदेश और बिहार की स्थिति भयानक रूप से दयनीय है. इस स्थिति के लिए केवल और केवल राजनीति जिम्मेदार है.मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव मायावती को प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं. उन मायावती को जिनके जन्मदिन के लिए उनके विधायकों को अनिवार्य रूप से चंदा देना होता है. नेता अपनी जेब से चंदा क्यों देने लगे! वे अपने यहां के व्यापारियों और अफसरों से उसकी उगाही करते हैं और व्यापारी और अफसर जनता की जेब काटते हैं. करात साहब उन मायावती को प्रधानमंत्री बना देखना चाहते हैं जिनके पास करोड़ों की चल अचल सम्पति है. यदि ऎसा हुआ तो यह देश के लिए दुर्भाग्य की बात होगी.

मेरा विश्वास है कि देश की जनता पूरे देश को ’उत्तर प्रदेश’ बनता नहीं देखना चाहेगी. उसे अवसर-वादी राजनीतिज्ञों को सबक सिखाना ही चाहिए.

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वातायन के इस अंक में बाबा नागार्जुन पर मेरा संस्मरण, राधेश्याम तिवारी की कविता और हरिसुमन बिष्ट की कहानी प्रस्तुत है. आशा है पिछले अंको की भांति पाठक इस अंक का भी स्वागत करेंगे.

संस्मरण

बाबा का गुस्सा
रूपसिंह चन्देल
१९७८ के अप्रैल महीने का पहला रविवार . साफ चमकता हुआ दिन. सूरज आसमान पर चढ़ते ही उग्र होने लगा था, लेकिन उत्तर से बहकर आती ठण्ड की हल्की खुनक लिए हवा उसके ताप को अधिक प्रभावकारी होने से रोक रही थी. गढ़वाल के पहाड़ों पर दो दिन पहले बर्फ पड़ी थी.

उस दिन बाबा को आना था. बाबा यानी हिन्दी के महान जनकवि बाबा नागार्जुन.

बात मुरादनगर की है. मुरादनगर की पहचान वहां अवस्थित आर्डनैंस फैक्ट्री के कारण है. मैं वहां के रक्षा लेखा विभाग में था और फैक्ट्री होस्टल में रहता था. होस्टल फैक्ट्री के पूर्वी छोर पर एस्टेट से बिल्कुल अलग-थलग था. होस्टल और फैक्ट्री के बीच से होकर गुजरने वाली सड़क रेलवे स्टेशन से एस्टेट के 'एच' टाइप मकानों के बीच से होती हुई 'आर' टाइप मकानों तक जाती थी और कम आम़द-रफ्त वाली थी. कहते हैं कि फैक्ट्री के 'आर' और 'एस' टाइप मकानों में कभी अंग्रेजों के घोड़े बांधे जाते थे, जिनमें अब वर्कर्स के परिवार रहते हैं. आजादी के इतने वर्षों बाद भी कुछ लोग जानवरों जैसा जीवन जीने के लिए आज भी अभिशप्त हैं .

उस सड़क पर लोगों के दर्शन तभी होते जब फैक्ट्री की पाली शुरू होती या लंच के समय या पाली छुटने के समय. ट्रेन पकड़ने जाते या ट्रेन से आते लोग भी दिख जाते थे. होस्टल में रहने वालों की संख्या भी न के बराबर थी---- बमुश्किल आठ-दस लड़के रहते थे. दरअसल उस होस्टल का निर्माण फैक्ट्री के प्रशिक्षु अधिकारियों के लिए किया गया था. लेकिन किन्ही कारणों से वहां प्रशिक्षण स्थगित हो चुका था . अतः खाली पड़े होस्टल के कमरे जरूरतमंद बैचलर्स को मिल जाते थे.

होस्टल के सामने फैक्ट्री का जंगल, फैक्ट्री के पार खेत और होस्टल के पीछे भी जंगल दूर तक पसरा हुआ था . रात में वहां गजब का सन्नाटा होता और होती झींगुरों की आवाज. यहां रहते हुए मैं पूरी तरह लोगों से कटा हुआ था. सुबह नौ बजे से शाम चार बजे तक कार्यालय और शेष समय पढ़ाई. कार्यालय के लोग मेरी अभिरुचि के न थे. उनसे कम ही संवाद होता. कार्यालय में काम और खाली समय कोई पुस्तक पढ़ता रहता. दफ्तर वालों की दृष्टि में मैं एक विचित्र किस्म का युवक था जो न किसी से बातचीत करता था और न ही किसी गतिविधि में शामिल होता था. मेरी इस स्थिति को तोड़ा था फैक्ट्री में काम करने वाले स्व. प्रेमचन्द गर्ग ने.

प्रेमचन्द गर्ग साहित्यकार न थे, लेकिन साहित्य और इतिहास में उनकी विशेष रुचि थी. मध्यम कद के वह सीधे-सरल व्यक्ति थे. उन्होंने बताया कि वहां के कुछ युवकों ने एक साहित्यिक संस्था 'विविधा' की स्थापना की है और वह भी उससे जुड़े हुए थे. 'विविधा' की स्थापना में जिन युवकों की भूमिका थी उनमें प्रमुख थे कथाकार-कवि सुभाष नीरव, सुधीर गौतम और सुधीर अज्ञात. गौतम और अज्ञात ने १९८० के बाद साहित्य से अपना नाता तोड़ लिया था .

गर्ग जी ने आग्रह किया कि मैं भी उससे जुड़ूं. यह जून १९७७ की बात थी.

पन्द्रह अगस्त १९७७ की सुबह मेरी पहली मुलाकात सुभाष नीरव से हुई. उस दिन नीरव के घर 'विविधा' की गोष्ठी होनी थी और उसमें शामिल होने के लिए कहने सुभाष होस्टल में मेरे पास आये थे. उन दिनों मैं प्रताप नारायण श्रीवास्तवl के कथा-साहित्य पर पी-एच.डी. की तैयारी में व्यस्त था. मैं 'विविधा' की गोष्ठियों में शामिल होने लगा और यदा-कदा सुभाष नीरव और प्रेमचन्द गर्ग के घर जाने लगा था. बाद में मैं सुभाष के घर के सदस्य-सा हो गया था.

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१९७८ अप्रैल के उस पहले रविवार को 'विविधा' की ओर से एक गोष्ठी का आयोजन किया गया था.बाबा को गोष्ठी की अध्यक्षता करनी थी. सच यह था कि अध्यक्षता के बहाने 'विविधा' वाले बाबा की कविताएं सुनना चाहते थे. इस आयोजन की रूपरेखा कब बनी मुझे जानकारी न थी. मैं तब तक उससे अनौपचारिक रूप से ही जुड़ा हुआ था. लेकिन अनुमान है कि बाबा को बुलाने की योजना सुभाष नीरव और सुधीर गौतम के दिमाग की उपज थी. गौतम दिल्ली में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में थे और सुभाष 'शिपिगं एण्ड ट्रांसपोर्ट मंत्रालय' में. दोनों ही दिल्ली की साहित्यिक गतिविधियों में शामिल होते रहते थे. उनमें किसने बाबा को मुरादनगर आने के लिए तैयार किया यह पता नहीं, लेकिन बाबा को ले आने की जिम्मेदारी सुभाष नीरव को सौंपी गयी थी. उन दिनों नागार्जुन पटेल नगर में किसी के यहां रह रहे थे. दिल्ली में बाबा के अनेक निवास थे, जिन्हें साहित्यिक हल्के में लोग बाबा के 'अड्डे' कहते थे. किसी के यहां भी बाबा बिना सूचना जा धमकते और जब तक इच्छा होती रहते. बाबा उस परिवार का अभिन्न अंग होते----- बुजुर्ग अभिभावक. गृहस्वामी -स्वामिनी को उसकी गलतियों पर फटकार लगाते और उनके बच्चों को प्यार-दुलार देते बाबा उस परिवार में घुल-मिल रहते. सादतपुर में उन्होंने १९८५-८६ में अपना मकान बना लिया था, जहां उनके पुत्र श्रीकांत आज भी सपरिवार रहते हैं , लेकिन मनमौजी बाबा जहां चाहते वहां रहते.

बाबा का स्वागत हमें संतराज सिंह के यहां करना था. संतराज फैक्ट्री सीनियर साइण्टिफिक आफीसर थे . अफसरों के बंगले फैक्ट्री के उत्तरी दिशा में थे. अनुमान था कि सुभाष बाबा के साथ दोपहर लंच के समय तक पहुंच जायेगें. संतराज सिंह के यहां हम लगभग डेढ़ बजे पहुंच गये . बीतते समय के साथ हमारी विकलता बढ़ती जा रही थी. हम अनुमान लगा रहे थे कि शायद बाबा ने आने से इंकार कर दिया होगा या उन्होंने अपना अड्डा बदल लिया होगा और हताश सुभाष बस से लौट रहे होगें.

"लेकिन, नीरव जी को फोन तो कर ही देना चाहिए था." गर्ग जी ने मंद स्वर में कहा. वह सदैव धीमे स्वर में -- प्रायः फुसफुसाते हुए बोलते थे. हांलाकि फोन उन दिनों दुर्लभ -सी चीज थी.

हम लगातर घड़ियां देख रहे थे. तीन बज चुके थे और नीरव का अता-पता नहीं था. तीन बजकर कुछ मिनट पर बंगले के सामने टैक्सी रुकने की आवाज हुई. संतराज, जो पांच फीट चार इंच के, सांवले, चमकती आंखों और चेहरे पर फ्रेंचकट दाढ़ी वाले पैंतीस-छत्तीस वर्षीय व्यक्ति थे और ड्राइंग रूम के ठीक सामने बैठे थे, टैक्सी देखते ही लपकर बाहर दौड़े थे.

"लगता है आ गये." खड़े होते हुए गर्ग जी फुसफुसाये और वह भी बाहर की ओर चल पड़े तो हम तीनों भी बाहर निकल आये.

सुभाष नीचे खड़े बाबा को उतरने में सहायता कर रहे थे. संतराज ने भी आगे बढ़कर उतरने में उनकी सहायता की.

बाबा का चेहरा तना हुआ था. सबने झुककर उन्हें प्रणाम किया, लेकिन बाबा चुप रहे. ड्राइंगरूम में पहुंचते ही बाबा फट पड़े, " यह है आप लोगों की व्यवस्था? इतनी गर्मी में बस में धक्के खाता हुआ आ रहा हूं. आप लोगों ने समझा क्या है? मैं अध्यक्षता का भूखा हूं?------." बाबा उबलते रहे और हम सब समवेत विनयावनत उनसे क्षमा मांगते रहे.

दरअसल हुआ यह था कि सुभाष बाबा को लेकर किसी प्रकार आई.एस.बी.टी. पहुंचे थे. वहां से उन्हें मेरठ की बस लेनी थी जो मुरादनगर होकर जाती थी. वह बस मिली नहीं. अब गाजियाबाद तक पहुंचने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था. सुभाष बाबा के साथ गाजियाबाद की बस में चढ़ गये. बस में इतनी भीड़ हो गई कि बाबा को उसमें पिसते हुए यात्रा करनी पड़ी. गाजियाबाद पहुंच बाबा ने आगे जाने से इंकार कर दिया . बाबा बिफर गये थे. किसी प्रकार सुभाष ने उन्हें मनाया था और जेब में पर्याप्त पैसे न होते हुए भी उन्हें टैक्सी से लेकर मुरादनगर पहुंचे थे.

पांच-सात मिनट धाराप्रवाह बोल लेने के बाद बाबा का गुस्सा शांत हुआ था. पानी पीकर सोफे पर पसरकर वह बैठ गये, आंखें बंद कर लीं और बुदबुदाये, "थका डाला आज आप लोगों ने."
हम सब एक दूसरे के चेहरे देखते रहे.

बाबा ने भोजन का प्रस्ताव ठुकरा दिया, "थकान में भोजन----- बिल्कुल नहीं."

प्रकृतिस्थ होने में बाबा को आध घण्टा लगा. और आध घण्टा बाद वह हंस-हंसकर बातें कर रहे थे. संस्मरण सुना रहे थे. नमकीन, बिस्कुट, मिठाई का स्वाद ले रहे थे.

एक घण्टा बाद बाबा अपनी मौज में आ गये थे और उससे अच्छा अवसर अन्य न था उनकी कविताएं सुनने का. उन्होंने आपात्काल पर लिखी अपनी कुछ कविताएं सुनाईं, जिसमें एक इंदिरागांधी को केन्द्र में रखकर लिखी गई थी. उन्होंने अपनी अन्य चर्चित कविताएं भी सुनाई, जिनमें एक थी - 'नई पौध'.
बढ़ा है आगे को बेतरह पेट
धंसी-धंसी आंखें
फूले-फूले गाल
टांगे हैं कि तीलियां, अटपटी चाल
दो छोटी, एक बड़ी
लगी है थिगलियां पीछे की ओर
मवाद, मिट्टी, पसीना और वक्त---
चार-चार दुश्मनों की खाये हुए मार
निकर मना रही मुक्ति की गुहार
आंत की मरोड़ छुड़ा न पाई बरगद की फलियां,
खड़ा है नई पौध पीपल के नीचे खाद की खोज में
देख रहा ऊपर
कि फलियां गिरेंगी
पेट भरेगा
और फिर जाकर
सो रहेगा, चुपचाप झोपड़े के अंदर
भूखी मां के पेट से सटकर.
बाबा ने एक और कविता सुनाई -'नया तरीका'--
दो हजार मन गेहूं आया दस गांवों के नाम
राधे चक्कर लगा काटने, सुबह हो गई शाम
सौदा पटा बड़ी मुश्किल से, पिघले नेताराम
पूजा पाकर साध गये, चुप्पी हाकिम-हुक्काम
भारत-सेवक जी को था अपनी सेवा से काम
खुला चोर बाजार, बढ़ा चोकर चूनी का दाम
भीतर झुरा गई ठठरी, बाहर झुलसी चाम
भूखी जनता की खातिर आजादी हुई हराम.

नया तरीक़ा अपनाया है राधे ने इस साल
बैलों वाले पोस्टर सारे, चमक उठी दीवाल
नीचे से लेकर ऊपर तक समझ गया सब हाल
सरकारी गल्ला चुपके से भेज रहा नेपाल
अंदर टंगे पड़े हैं गांधी-तिलक-जवाहरलाल

चिकना तन, चिकना पहनावा, चिकने-चिकने गाल
चिकनी क़िस्मत, चिकना पेशा, मार रहा है माल
नया तरीका अपनाया है राधे ने इस साल.
नागर्जुन क्रान्तिकारी कवि थे. ऎसे नहीं जैसे सातवें दशक में यहां क्रान्तिकारी कवियों की बाढ़ आ गयी थी----- ऎसे क्रान्तिकारी कवियों की, जो अपनी जमीन से जुड़े हुए नहीं थे. कंधे से थैला, थेगली लगी पैण्ट पर खादी का कुर्ता लटकाये ये महान(?) क्रान्तिकारी कवि रात-रात में हिन्दुस्तान में क्रान्ति हो जाने का स्वप्न देखते थे. अपनी कविताओं को 'आग का अक्षर' घोषित करने वाले इन कवियों में कुछ ने लेनिनकट दाढ़ी रख ली थी और अपनी अलग पहचान दर्शाने के लिए ये किसी युवती को अपने शब्द जाल में बांध अपने साथ लिए कनॉट सर्कस, कॉफी हाउस से लेकर विश्वविद्यालय के पार्कों में घूमते दिखाई देने लगे थे. जनता और क्रान्ति से इनका दूर का भी रिश्ता न था. अंदर से ये विशुद्ध बुर्जुआई और अवसरवादी थे. समय सबको बेनकाब कर ही देता है. मैंने इसी दिल्ली में बाबा के नाम का बेशर्मी से उपयोग करने वाले तथाकथित छद्म क्रान्तिकारियों को दौलत के लिए निकृष्टता की हद तक गिरते देखा है. शायद ऎसे ही लोगों को ध्यान में रखकर बाबा ने लिखा था :

'काश! क्रान्ति उतनी आसानी से हुआ करती.'
"काश! क्रान्तियां उतनी आसानी से हुआ करतीं.
काश! क्रान्तियां उतनी सरलता से सम्पादित हो जातीं
काश! क्रान्तियां योगी, ज्योतिषी या जादूगर के चमत्कार हुआ करतीं
काश! क्रान्तियां बैठे ठाले सज्जनों के दिवास्वप्नों -सी घटित हो जातीं.
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उस दिन बाबा ने शाम सात बजे क्लब में काव्य गोष्ठी की अध्यक्षता की थी. फैक्ट्री एस्टेट में तीन क्लब थे. एक आफीसर्स बंगलों के साथ अफसरों के लिए, दूसरा गांधी पार्क के पास बंगाली क्लब (जिसमें बंगाली भद्र समाज का आधिपत्य था) और तीसरा होस्टल से कुछ दूर पानी की टंकी के पास जंगल में. यह वर्कर्स क्लब था, जिसमें एक पुस्तकालय भी था. यह कभी-कभी------ खास अवसरों पर ही खुलता था या तब जब पुस्तकालय इंचार्ज (जो एक साहित्य प्रेमी सरदार जी थे और हिन्दी में कविताएं लिखते थे) उसे खोलते थे. उस दिन की काव्यगोष्ठी उसी क्लब में थी.

वर्कर्स क्लब में बहुत भीड़ थी. अनेक लोग अपनी कविताएं सुनाने के लिए अभिलषित थे. जगदीश चन्द्र 'मयंक' गोष्ठी का संचालन कर रहे थे. किसी भी कवि को मंच पर बुलाने से पहले मयंक स्वयं पहले अपनी एक कविता सुनाते . गोष्ठी में जितने श्रोता थे उतने ही अपनी कविताएं सुनाने वाले कविगण. छोटी जगहों की यह त्रासदी होती है. अपने को कवि मानने वाले लोगों को उनकी कविताएं सुनने और उनपर अपने विचार देनेवाले लोगों का ऎसी जगहों में अकाल होता है और जब ऎसे अवसर मिलते हैं तब वे अपनी अधिक से अधिक कविताएं सुना लेना चाहते हैं. कार्यक्रम चलते हुए लगभग तीन घण्टे बीतने को आए. बाबा अंदर ही अंदर भुन रहे थे और एक समय ऎसा भी आया जब वह अपने को रोक नहीं पाये और दोनों हाथ उठाकर चीख उठे -- "बस्स--- बहुत हो चुका . आप लोगों ने मुझे समझा क्या है? मेरे बुढ़ापे का खयाल भी नहीं-------- तीन घण्टे से सुन रहा हूं----" फिर वह मयंक की ओर मुड़े और गुस्सैल स्वर में बोले, " और आपने अपने को कितना बड़ा कवि समझ रखा है. किसी को भी मंच पर बुलाने से पहले अपनी एक कविता पेल देते हो......"

मयंक का चेहरा उतर गया. उन्होंने क्षमा मांगी. बाबा कुछ ढीले पड़े. बोले, "अब मैं अपनी एक कविता सुनाऊंगा."

और बाबा ने अपनी - 'अकाल और उसके बाद' कविता सुनाई.

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गस्त

कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकश्त

दाने आए घर के अन्दर कई दिनों के बाद
घुआं उठा आंगन से ऊपर कई दिनोम के बाद
चमप उठीं घर भर की आंखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पांखें कई दिनों के बाद

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मुरादनगर की उस मुलाकात के बाद वर्षों मुझे बाबा के दर्शन नहीं हुए. १९८८ में जब मैंने सादतपुर (दिल्ली) में अपने प्लाट में कुछ हिस्से का निर्माण करवाया तब कथाकार स्व. रमाकांत जी के यहां एक शाम बाबा से मुलाकात हुई. मैंने आधा-अधूरा मकान तो बनवा लिया और बनवाया यही सोचकर कि रहने आ जाऊंगा, लेकिन अनेक असुविधाएं देख यहां रहने नहीं आया. लेकिन पन्द्रह दिनों में एक बार यहां अवश्य आता और सुबह से शाम तक रहता. तब बाबा को यहां की गलियों मे डोलता देखता. जब वह यहां होते, प्रायः प्रतिदिन सुबह लाठी टेकते एक-एक साहित्यकार के घर जाते ---- बलराम, रामकुमार कृषक, वीरेन्द्र जैन, महेश दर्पण, धीरेन्द्र अस्थाना (इन सभी के मकान आसपास हैं - अब धीरेन्द्र मुम्बईवासी हैं ) ----- सुरेश सलिल, विष्णुचन्द शर्मा, हरिपाल त्यागी--------- .बाबा लाठी से सबके दरवाजे ठकठकाते, मुस्कराकर घर के हाल-चाल पूछते और आगे बढ़ जाते. जब जिसके यहां बैठने की इच्छा होती वह घण्टा-दो घण्टा बैठते---- नाश्ता करते- चाय पीते और ऎसे भी अवसर होते कि किसीके यहां दो-तीन दिनों तक बने रहते बावजूद इसके कि चार कदम पर उनका अपना घर था.

रमाकांत और उनका मकान एक गली में और दस मकानों की दूरी पर होने के कारण बाबा प्रायः उनके यहां या वह बाबा के यहां उपस्थित होते . वैसे तो बाबा को मेरे मेन गेट पर ताला लटकता ही मिलता था, लेकिन जिस दिन मैं आया होता और वह इधर से निकलते गेट पर डण्डे से ठक-ठक अवश्य करते. मैं अंदर से दौड़कर आता तो घनी दाढ़ी में मुस्कराकर कहते - 'कितने दिन बाद ताला खोला?"

मैं सकुचाता हुआ मुस्करा देता.

एक दिन अपना कहानी संग्रह 'आदमखोर तथा अन्य कहानियां' भेंट करने सुरेश सलिल के यहां गया. यह १९९१ की बात है. बाबा वहां उपस्थित थे. संग्रह लेकर मैग्नीफाइंग ग्लास लगाकर बाबा उसे देखने लगे. एक-दो कहानियों पर दृष्टि डालने के बाद मुस्कराते हुए समर्पण के पृष्ठ की ओर इशारा कर कहा, "मां को समर्पित किया है."

मैं बाबा के चेहरे की ओर देखने लगा. मुझे मुरादनगर का उनका गुस्सा याद आ गया था. सोच नहीं पा रहा था कि बाबा कहना क्या चाहते थे.

"मां का कोई नाम तो होगा ही?"

मैंने हां में सिर हिलाया, फिर मां का नाम बताया.

"तो तुमने उनका नाम क्यों नहीं लिखा?"

मैं चुप .

"आइन्दा जब भी किसी को समर्पण करो तो उसका नाम अवश्य लिखना. पाठकों को नाम मालूम होना चाहिए."

बाबा की यायावरी जग-जाहिर थी. सादतपुर से वह महीनों गायब रहते. वह कहते कि वह दुनिया के किसी भी कोने में क्यों न रहें लेकिन उनकी आत्मा सादतपुर में ही बसती है. मस्त और फक्कड़ थे बाबा नागार्जुन . इतने फक्कड़ कि महीनों स्नान न करते ---- कपड़ों की परवाह न करते. खाने के शौकीन, लेकिन अल्पाहारी. दूसरों को खिलाने में अधिक सुख पाते और ऎसी स्थिति में जिसकी यहां भी ठहरे होते उस गृहस्वामिनी का काम बढ़ जाता, लेकिन बाबा अपने से मिलने आये व्यक्ति को खिलाने का सुख अनुभव करते.

शायद महान व्यक्ति ऎसे ही होते हैं.

कविता


राधेश्याम तिवारी की एक कविता

बुश बुरा नहीं मानते

लो़ग बेवजह शंकित हैं
कि टाटा चाय की तरह
बुश बहुत कड़क हैं
न जाने वे किस बात का बुरा मान जाएं
जबकि बुश किसी बात का बुरा नहीं मानते
इराकी पत्रकार
मुतदार अल जै़दी के जूते मारने का
बुरा नहीं माना उन्होंने
जै़दी के दो जूते उन पर पड़े
एक, इराकी जनता की ओर से
दूसरा, वहां की विधवाओं की ओर से
अपनी ओर से तो उसका अभी बाकी ही है
बुश ने फिर भी मुस्कराते हुए कहा--
इसे मैं बुरा नहीं मानता
यह स्वतंत्र समाज का संकेत है

बुश का समाज
बहुत पहले से स्वतंत्र हो चुका है
जिसका इस्तेमाल कर उनके देश ने
दुनिया-भर में बम बरसाए हैं
और बेशुमार खून बहाया है
अगर कोई उनकी स्वतंत्रता को
बुरा मानता है
तो इसमें बुश का क्या दोष
लेकिन बुरा मानकर भी
अब वे जै़दी का क्या कर लेंगे

समय जो इतिहास में
दर्ज हो चुका है
उसे वे सद्दाम की तरह
फांसी पर तो चढ़ा नहीं सकते
और न ही फिलिस्तीनी जनता की तरह
उसे इतिहास के पन्नों से /दर-ब-दर कर सकते हैं
कुछ भी करके वे उस समय को
कैसे भूल सकते हैं
जिस समय में उन्हें जूते पड़े थे
बहुत करेंगे तो जै़दी को कीमा बनाकर
अपने प्यारे कुत्तों में बांट देंगे
मंदी के इस दौर में
उन्हें इसकी भी जरूरत है
कुत्तों के एक दिन का भोजन बचाकर
वे अपने लिए रख सकते हैं
लेकिन डर है कि इससे जै़दी तो
और ज़िंदा हो जाएगा
और लोग समझने लगेंगे कि
बुश सचमुच बुरा मान गए
जिससे जै़दी अपने मकसद में
कामयाब हो जाएगा

बुश यह जानते हैं
कि आतंक का विरोध करके मरना
आतंक सहकर ज़िंदा रहने से/अधिक कीमती है
इसलिए जूते मारने को वे
कभी बुरा नहीं मानेंगे.
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युवा कवि-पत्रकार राधेश्याम तिवारी का जन्म देवरिया जनपद (उत्तर प्रदेश) के ग्राम परसौनी में मजदूर दिवस अर्थात १ मई, १९६३ को हुआ।अब तक दो कविता संग्रह - 'सागर प्रश्न' और 'बारिश के बाद' प्रकाशित. हिन्दी की लगभग सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।सम्पादन - 'पृथ्वी के पक्ष में' (प्रकृति से जुड़ी हिन्दी कविताएं)पुरस्कार : राष्ट्रीय अज्ञेय शिखर सम्मान एवं नई धारा साहित्य सम्मान .संपर्क : एफ-119/1, फ़ेज -2,अंकुर एनक्लेवकरावल नगर,दिल्ली-110094मो० न० – 09313565061

कहानी

वरिष्ठ कथाकार हरिसुमन बिष्ट की कहानी

कौसानी में जैली फिश

सुबह की पहली चाय आनन्द विहार बस अड्डे पर पीने के बाद, बस से हल्द्वानी को चल पड़ा।
दो बजे हल्द्वानी पहुंचा। कौसानी की बस एक बजे चली गयी थी। वह कौसानी-बागेश्वर की आखिरी बस थी। अब जीप ही एकमात्र विकल्प साधन था। पहाड़ों पर उनसे यात्रा जितनी सुविधाजनक थी, उतनी ही खतरनाक भी। फिर भी बिना किसी भय के लोग उनकी सुविधाओं का लाभ उठाने को खड़े थे।
सुबह आठ बजे एक हादसा हो चुका था। हल्द्वानी से रानीखेत जा रही बस भवाली के समीप गहरी खायी में गिर गयी थी। अठारह यात्री मारे गये थे। हल्द्वानी शहर हिला हुआ था। किन्तु जीप ड्राइवर इस घटना की सूचना से जरा भी विचलित नहीं थे। उनके लिए यह कोई नयी घटना न होकर सामान्य थी। उनके चेहरे के भावों को पढ़कर मैंनें भी सायास अपने मन में बैठे भय को बाहर धकेला और कौसानी तक का किराया पूछ डाला।

तालों में ताल भीमताल से होकर जाने में भय कम तो हुआ। यह रास्ता मैनें पहले कभी नहीं देखा था। भीमताल घने कोहरे में छिपा था - मन के कोने में छाए कोहरे से कम घना। दूर-दूर तक पहाड़ियों की पंक्तियां-सी दिख रही थीं किन्तु ताल में तैरती नौकाएं अपना पाल फैलाने के बावजूद हिल डुल नहीं रही थीं।
रह-रहकर बचपन के वे दिन याद आने लगे, जब ये नौकाएं निमित होती थीं और उद्देश्य भी, तब यहां रास्ता भवाली से होकर आता था। बोझिल और अजीब तरह के भय से अटा पड़ा रास्ता। पंत के शब्दों में कहूं- ''लिपटे भू के जघनों से घन/ प्राणों की ज्वाला जन-मादन/ नाभि-गर्त में घूम भंवर-सी करे मर्म आकांक्षा नर्तन।''
श्रृंगार के रंगों में डूबे हुए इस चित्र के यहां होने की सार्थकता पर आपत्तिा नहीं हो सकती। क्योंकि भावावेश में जिन दिनों को स्मृति पर समेटने का प्रयास कर रहा था-- उनमें यह सब प्रसंग बरबस याद आना स्वाभाविक था। आज स्थिति एकदम भिन्न थी- न निमित वह न उद्देश्य। बस घने कोहरे में एकदम लिपटे ताल के ऊपर मैं हवाई जहाज से नहीं,
जीप से यात्रा कर रहा था। दृश्य मनोरम जरूर था, दूर-दूर तक भटकाव का अंदेशा भी नहीं था।
पहाड़ में जीवन जीने के विकट रास्ते दिखने लगे। उन रास्तों से गुजरना ही जीवन का होना था। पहाड़ के इस छोर से उस छोर तक सैंकड़ों घूम। हर घूम में छिपा एक भूत रहता था। इसमें तर्क नहीं भाव की प्रधानता थी। एक ओर गहरी खाई और उसमें कल-कल, छल-छल बहती कोसी की जलधारा तो, दूसरे घूम पर एक नया दृश्य और नया जीवन होने की जिज्ञासा। . . .
पहाड़ होते ही हैं इतने जीवंत। पहाड़ न होते तो जीवन न होता। पहाड़ न होते तो मानव का विकास न होता। पहाड़ न होते तो पंत न होते-प्रकृति की सुकुमारिता उन्हेंं न मिलती।
पंत का जीवन पहाड़ सदृश्य था। जहां हर घूम की अबूज पहेली आज भी है। बांझ-बुरांश और देवदार के घने जंगल, चारों ओर फैली पर्वतमालाएं - उनमें गूंजती गिरि कोयल की बोली। प्रकृति से साहचर्य और निसर्ग से तादात्म्य करता पंत का व्यक्तित्व।
दूर-दूर तक फैली सोमेश्वर घाटी। घाटी में लहलहाते धान के खेत, खेतों में गूंजते हुड़कियां बौल और दूर से आती किसी मन चले की बांसुरी का स्वर। दरअसल बचपन से ही थिरकते थे पांव पंत के - शायद पालने से। यहां का हर जीव गुनगुनाता, लोरियां सुनाता या फिर कविता-सा करता हुआ। कविता के बोल ज्यों-ज्यों आकार लेते गए, कुंतल केशों की लट खुलती गयी-प्रकृति के हर खोह से नए-नए अर्थ प्रतिध्वनित होते गए। विरागनाओं की घाटी का उत्स कमजोर पड़ता गया, कुआंरी प्रकृति का सुकुमार जीवन एकरसता की भेंट चढ़ता गया, कोई कहता है - प्रकृति में सभी रस यहां मौजूद हैं - कभी रहें होंगे। अब खेत बंजर हैं, जंगल की घनी छाया में उजास है - कुआरी बाला का शरीर छिंदा-विंदा है, रस-रास की ठौर पर विरह-वेदना मुखर है . . .
कभी लौटकर नहीं आए पंत, प्रकृति का सुकुमार कवि। अधूरा रहा श्रंगार प्रकृति का। एक दिन को आए थे बापू, मुग्ध होकर चौदह दिन तक यहां ठहर गए
, वे भी श्रंगार पूरा कर न सके-अधूरा रहा। पंत नहीं हो सकता मैं - बापू भी नहीं - कोई भी नहीं - हो भी नहीं सकता कोई। मन की उडान दूर तक टोह लेती, आंखें हिमालय के एक सौ अस्सी किलोमीटर फैली लम्बी बाहों को निहारतीं- कुछ नहीं दिखता साफ-साफ-।
हिमालय भी शर्म से पीला था। उसका पीला रंग आंखों को खूब भा रहा था। जगह-जगह पीयूली खिली थी, पुष्प संक्रांति का पर्व भी हो सकता था। गांव की हर देहली पर चढते वे पुष्प। गांव में जन्में शिशुओं का हिसाब लगाते हुए कि कितनों ने पांव रखा है इस पावन भूमि पर। नयी टोकरी बनी होगी किसी की, ऐंपड में रची गयी होंगी विहंगम दृश्य की बारीक लकीरें। और उन्हीं फूलों से भर दी गयी होगी वह टोकरी . . .
गहरे घने बादलों की परत दर परत चादर पर लिपटा था हिमालय। फिर भी उसकी गूजती आवाज पहाड़ियों से प्रतिध्वनि हो रही थी - कहां हो प्रकति पुत्र ! कहां है वह सुकुमार कवि !! क्या कवि का होना ही कौसानी का होना है या फिर कौसानी का होना ही कवि का होना है। . . .
देश भर से बीसियों कवि पहुंच चुके थे। जीतू होटल का हर कमरा और अनाशक्ति आश्रम की हर फिजां में कविता की रस बयार बह रही थी। कण-कण और तृण-तृण में कविता गूंज रही थी
, हर कण्ठ सरस और मधुर। भले ही रसभरियों का मौसम नहीं था यह - हर शब्द में रस जरूर भरा था। अधूरा था तो काव्यकलश; यत्र-तत्र छलकती कविता की बूंदें गाम्भीर्य लेश मात्र भी नहीं।
कवितामय वातावरण, प्रभा-विभा, संगीत, ताल, छंद और लय - सब का एक अद्भुत सामंजस्य, सभी प्राय एक दूसरे के। एकांत में था मेरा मन - अजीब तरह की बेचैनी से भरा-भरा-सा। नहीं, ऐसा सोचना व्यर्थ नहीं हो सकता - हठीला मन उसकी दास्तान पूछने से नहीं चूका-आंखें सामने टिक गयीं। नजर एक हो गयी थी।
''यह सुमधुर कण्ठ तुम्हारा है -''
''जी-
''
''आयी कहां से हो ?''
''बता चुकी हूं-रात में-''
''किस समय-''
''आए थे जब, बैग उठाया था मैंने-''
''क्यों-''
''न मालूम क्यों प्रतीत हुआ था कोई आ चुका है, जिसकी प्रतीक्षा थी मुझे। बस-फिर तो आत्मीयता का कलश बरबस छलछला आया-''
''ओह, तो ये बात है-अजीब सा प्रतीत हो रहा है यह सुनकर - मुझे भी। तो, हम पहले भी मिले है''
''संभवत: बचपन में तब से प्रतीक्षारत - सूर्य की पहली किरण देखने का मन था-देख ली मैनें।
''नहीं , ऐसा मत कहो यहां देखने को है भी क्या ?''
''जिसे देख रही हूं -''
''वह सच नहीं है -''
''सच पर पंख नहीं होते-सच वही होता है जिसे आंखें देख रही होती हैं -

'इस धारा सा ही जग का क्रम/ शाश्वत इस जीवन का उद्गम/ शाश्वत है गति शाश्वत संगम।'
''नही, नहीं मैंने कहा न यह झूठ है-आज आसमान में बदली है, कल भी ऐसा ही रहा होगा - परसों भी ऐसा ही . . .। आसमान नहीं खुला अभी उसके खुलने की प्रतीक्षा है सभी को-''
''अच्छा, तो तुम्ही बता दो कब खुलेगा आसमान''उसने गम्भीरता से प्रश्न किया।
''जब फूआर बरसेगी, देवदारू जंगल जंगल खिल खिलाएेंगी, उनकी फुनगियां नाचेंगी गायेंगी, सोमेश्वर घाटी गूंज उठेगी
, कल-कल, छल का स्वरनाद करती कोसी का घटवार जलमग्न हो जाएगा - एकदम विहंगम दृश्य - जलप्लावन और कटती जमीन का कोना कोसी की जलधारा को गैरिक रंग में रंग देगा, प्रकृति के अप्रतिम सौंदर्य के साथ-साथ कई भयावह दृश्य भी - ।''
''ओह, मुझे डरा रहे हो -''
''नहीं, स्वयं तुम -''
''ऐसा कैसे हो सकता है - मैं ऐसा कैसे कर सकती हूं भला। ऐसा करूंगी भी क्यों? अब तुम आए हो, आत्मीयता का एक नया संसार आया है, न मालूम तुम्हें देखकर-''
यकायक उसका हाथ मेरे शरीर को स्पर्श कर गया।
छुईमुई नहीं था मैं, हो भी नहीं सकता था, पर कुछ ऐसा था उसकी छुअन भर से संकुचाया था। उसकी तरफ दृष्टि गयी -सोचा, कहीं अंगुलियां जख्मी तो नहीं हुई, या शहर की गर्द ओ गुबार का रंग तो नहीं चढ गया अंगुलियों पर। गौर से देखा तो ऐसा कुछ भी नहीं लगा। सिर्फ उनका गुलाबी रंग सुर्ख हो गया था। सहमा-सहमा सा मन। और शब्द उलीच दिए -''ठिठौली करने को मन कर रहा है क्या ?''
''कुछ-कुछ'' स्निग्ध मुस्कान बिखेर कर उसने कहा,
''मन भर कर हंसोगी नहीं ?''
''नहीं चिर यौवना हंसती नहीं कभी -''
''अजीब उपमा है''
''उपमेय भी -''
'ओह-आ चुका न मैं''
''तुम आ गए-आ गए तुम पूर्ण रूप में -''
''कैसा पूर्ण रूप -समझा नहीं मैं, अधूरा मैं था ही कब -''
''पूर्ण पुरुष को प्राप्त करने का उल्लास था मुझ में - मगर -''
''मगर क्या -''
''जिसके लिए मन उमड़ पड़ा था उसे अदृश्य भय ने खामोश कर दिया - पल भर के लिए-''
सच कह रही है यह, ऐसा ही महसूस हुआ था मुझे, जब पल भर की खामोशी के बाद विचलित मन चिहुंका तो मेरे भीतर कुछ झरने लगा- उसकी और मेरी फिर एक बार नजर एक हुई। गहरी झील सी आंखों में तैरने को मन हुआ। मेरे हाथ उसकी तरफ बढे, अंजुली भर चेहरे को पढ़ने का प्रयास करने से पहले ही मेरी हथेलियां फिसल गयीं और शब्द भी -
''हंसी नहीं -''
''नहीं आनन्द की अनुभूति''
''
स्पर्श नहीं''
''नहीं-सिर्फ अनुभूति -''
''कुण्ठित मन का विरास है यह -''
''और कुछ -''
''चिर यौवना रहने का शाप''
''पुरुष ग्रंथि का उत्सर्जन है यह -''
''यही सच है जैसा कुछ बुदबुदाया- वह मेरे शब्दों को सुन नहीं सकी, हो सकता है उसने सुनने की जरूरत नहीं समझी हो। मैंने हर ओर से उसे टटोलने का प्रयास किया। उसे मैं सड़कर बजबजाए हुए शरीर में एक पुतला भर लगा। मेरी बातों से उब हुई और उबकाई-भी। यदि ऐसा नहीं होता तो वह अपना स्पर्श जरूर देती। पर उसे मेरी सांस और शरीर बू मारते लगे। मैनें कहा
,
''जरा करीब नहीं बैठोगी''
''नहीं सोच रही हूं-पिंजडे में बन्द पाखी को मुक्त कर दूं-''
''सोच क्या रही हो ? कर दो न - ऐसा कर सकोगी !!''
''चुनौती-चुनौती मत दो मुझे - हरेक बस अपने लिए सोचता है।''
खूब हंसा में उसकी बात पर। मगर उसके चेहरे पर चढ़ते-उतरते भाव गहरे और गहरे होते लगे। उसे लगा चुनौती देकर चिढ़ा रहा हूं मैं उसे - हास्य- व्यंग्य का बज्र फैका है उस पर। भयानक विस्फोट का गर्जन करती वह बोली, ''किसी भी बंधन में नहीं रहना चाहती मैं -'' उसकी गम्भीरता को विचलित करते हुए मैंने कहा, ''
देखो, रंग बदल दिया क्षितिज ने - एकदम गैरिक रंग था उसका। नहीं, वह भी बदल रहा है अब ताम्रवर्णीयरंग में रंगा- अदभुत दृश्य अटठखेलियां करते वे बादल -नहीं, नहीं, नन्हें-नन्हें बच्चे है वहां बादलों के-
''विचित्र किस्म के हो - पहेलियां ही पहेलियां । कितना कुछ नहीं सोच देते पल भर में।''
''चलो कहां चलना है मुझे''
इस समय वह स्निग्ध मुस्कान को फिसलने से रोक न सकी। उसका मुस्कराना अब मुझे अच्छा नहीं लगा। गम्भीर होकर कहा - ''चढाई है, पांव फिसलने का डर - काई है जमीन पर - पक्की कोलतारी सड़क बनाने की जरूरत नही थी।''
''उम्र के इस पडाव पर हो अभी भी कच्चे फुटपाथ पर चलने की मंशा है क्या?''
''हां पहली सीढ़ी से चढने की चाह है मुझे- एकदम शिशु की भांति -''
''पक्के रास्ते की चाह नहीं -''
''पहाड़ों पर पक्के रास्ते अच्छे नहीं लगते - पगडंण्डिया सुन्दर दिखती हैं - उन पर चलने का आनन्द ही कुछ अलग है -''
''ऐसे क्यों देखने लगे मुझे कौसानी में बहुत कुछ है देखने को -।''
''तुमसे बढ़कर -''
''इस उम्र में दो राहे की सोचते हो -
''
''समझा नहीं मैं -''
''पंत का स्थान दिखाने आई थी मैं -''
''मैं भी-मगर रास्ता आसान नहीं-कठिन है।''
''डरते हो। पुरुष होकर भी -''
''पुरुष डरते नहीं कभी -''
''हां, दुनिया में ऐसा ही भ्रम है और उस भ्रम में जीता है पुरुष।''
''नहीं
, यह सच है, औरत डरती भी है डराती भी -''
''किसने कहा, ऐसा।''
''कच्चे रास्ते पर चलने का दुस्साहस न दिखाना।'' इसे दी गयी सीख नहीं कह सकते - अब लड़कपन नहीं रहा।'' एक औरत ने ही कहा था, ''पर अब तुम्हारा सान्निध्य मिला तो -''
''भटक गए -''
''नहीं,'' इस समय मेरे शब्द कमजोर और लिजलिजे पड़ गए - गोया उनकी तासीर को चतुर्मास की दीमक चाटने लगी थी। मेरी मन की बात अभी पूरी भी न हुई थी-वह पूछ बैठी -
''कौन है वो - सम्भवत:- तुम्हारी पत्नी -''
''वही समझ लो तुम्हे कैसे मालूम -''
''तुमने ही तो -''
''कब -''
''स्पर्श के स्ंपदन से भीतर की बात बाहर आने में देर नहीं लगती - मैं भी एक औरत हूं जो होठों से निकले शब्दों की बजाए आंखों की जबान ज्यादा समझती हूं। आंखें सब कुछ कह देती हैं। उन्हें संदेह होगा इसीलिए- संदेह बेबुनियाद नहीं होता है।
गहरा खमोशी। शब्द से कहीं अधिक मारक खामोशी। हम दोनों जैसे एक नई जिंदगी की कगार पर आ चुके थे। हमारी दोस्ती इतनी अंतरंग हो गई जैसे कि बाईस की उम्र के जोश में होता है। चौबीस घंटे से कम समय में भी हम इतने करीब हो गए जैसे बरसों से जानते हों-
*******
डॉ. हरिसुमन बिष्ट का जन्म १ जनवरी, १९५८ को उत्तराखण्ड में हुआ था. उन्होंने कुमांऊ वि.वि. से हिन्दी साहित्य में एम.ए. और 'स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कहानी में नारी स्वातंत्र्य की अवधारणा' विषय पर आगरा विश्वविद्यालय से पी-एच.डी की उपाधि प्राप्त की.
उनकी प्रकाशित कृतियां हैं : उपन्यास- (1) ममता (1980), (2) आसमान झुक रहा है (1980) , (३) होना पहाड़ (1999),(4) आछरी-माछरी (2006)

कहानी संग्रहः (१) सफेद दाग (1983) (२) आग और अन्य कहानियां (1987) (३) मछरंगा (1995) (४) बिजुका (2003)

यात्रा वृतांत : अन्तर्यात्रा (1998)

संपादन : विक्तोरिया तोकरेवा की कहानियां 'अपनी जुबान कुछ कहो' (1983)
भारतीय एवं विदेशी भाषाओं में कहानियां प्रकाशित। तथा पत्र-पत्रिकाओं में समान रूप से लेखन .
पुरस्कार एवं सम्मान : 1993 में 'अराधक श्री' सम्मान।

1995 में अखिल भारतीय दलित साहित्य अकादमी द्वारा 'डाॅ0 अम्बेडकर सेवाश्री' सम्मान।
1995 में अखिल भारतीय 'रामवृक्ष बेनीपुरी सम्मान' हजारी बाग झारखण्ड से सम्मानित।
राष्ट्रीय हिन्दी सेवी सहस्त्राब्दी सम्मान वर्ष 2000 ।
लोक साहित्य परिषद दिल्ली द्वारा वर्ष 2000 में निष्काम मानव सेवा सम्मान। अनेक स्थानीय सामाजिक एवं साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
संप्रति : हिन्दी अकादमी, दिल्ली (रा'ट्रीय राजधानी क्षेत्र, दिल्ली सरकार) में उप सचिव।
सम्पर्क: ए-३४७, सेक्टर ३१, नोएडा: २०१३०३ (उ.प्र.)
मोबाईल नं.०९८६८९६१०१७

सोमवार, 2 फ़रवरी 2009

वातायन - फ़रवरी ’२००९

चित्र : तेजेन्द्र शर्मा
हम और हमारा समय

प्रिण्ट से वेब तक का सफर
रूप सिंह चन्देल
कल तक साहित्यकारों की रचनाओं के प्रकाशन का मुख्य आधार मुद्रित पत्र-पत्रिकाएं थीं. वे आज भी हैं, लेकिन तकनीकी क्रान्ति ने रचनाकारों के लिए एक नई दुनिया के द्वार खोल दिए और आज मुद्रित पत्र-पत्रिकाओं के साथ इंटरनेट की समझ रखने वाले साहित्यकार अपनी रचनाओं को वेब और ब्लॉग पत्रिकाओं में प्रकाशित देखना चाहते हैं. अभिव्यक्ति, अनुभूति (पूर्णिमा वर्मन), सृजनगाथा (जयप्रकाश मानस),लेखनी (शैल अग्रवाल ), साहित्य शिल्पी (राजीव रंजन), कृत्या(रति सक्सेना) आदि वेब पत्रिकाओं ने इस दिशा में चमत्कारिक कार्य किए हैं. कुछ ब्लॉग धारकों ने अपने ब्लॉग्स को निजी प्रचार और भड़ास से अलग रखते हुए वेब पत्रिकाओं के कार्य को आगे बढ़ाते हुए साहित्य प्रकाशित करना प्रारंभ किया. इस दिशा में श्लाघनीय पहल करते हुए कवि-कथाकार सुभाष नीरव ने 'सेतु साहित्य' के रूप में दस्तक दी . 'गवाक्ष' वाटिका, और 'साहित्य सृजन' प्रस्तुत कर उन्होंने इस दिशा में साहित्य के प्रति अपनी गंभीरता और सपर्पण को स्पष्ट किया. आज अन्य अनेक ब्लॉग ऎसे हैं जो अन्य रचनाकारों की रचनाएं प्रकाशित कर हिन्दी साहित्य के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान कर रहे हैं .

आज 'हंस' ,'नया ज्ञानोदय' ,'वागर्थ', आदि हिन्दी पत्रिकाएं देश-विदेश में बैठे उन पाठकों तक पहुंचने के लिए, जिन्हें प्रकाशित पत्रिका उपलब्ध नहीं हो पाती , अपने अंकों को वेब पर जारी कर रही हैं. अमेरिका में सुधा ओम ढींगरा 'हिन्दी चेतना' को पहले ही वेब पर जारी करती आ रही हैं. आभिप्राय यह कि जिस प्रकार हर रचनाकार अपने ढंग से अपने समय को अपनी रचनाओं में व्याख्यायित कर रहा है (वह चर्चा में है या नहीं यह इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि चर्चा के कारण आज रचना की उत्कृष्टता से बिल्कुल अलग होते हैं) उसी प्रकार मुद्रित पत्र-पत्रिकाओं के साथ आज वेब परिकाएं और ब्लॉग्स अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं.

जिस प्रकार लघु पत्रिका प्रकाशित करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है उसी प्रकार वेब पत्रिका का कार्य भी कम चुनौतीपूर्ण नहीं है. ब्लॉग्स में साहित्य प्रकाशित करने में भी भरपूर श्रम और साधन की दरकार होती है.इससे आर्थिक लाभ की कल्पना नहीं कर सकते, लेकिन हिन्दी के प्रति उन लोगों का प्रेम और समर्पण उन्हें इसके लिए प्रेरित करता है. वे जो कार्य कर रहे हैं उसे हल्के तौर पर नहीं लिया सकता. व्लॉग्स और वेब पत्रिकाओं पर साहित्य प्रकाशित करने वालों के प्रति अगंभीर दृष्टिकोण रखनेवालों की सोच पर तरस ही खाया जा सकता है. इसके दो कारण हो सकते हैं - उनकी अज्ञानता या कुण्ठा . आज हिन्दी में लगभग सात हजार ब्लॉग्स हैं. यहां मैं उनकी चर्चा नहीं कर रहा जो एक-दूसरे पर अपनी कुण्ठा -भड़ास निकालते हैं, और असाहित्यिक और असभ्य भाषा का प्रयोग करते हैं ( ऎसा वे अपने या अपने किसी चहेते को महान साहित्यकार समझे जाने का दबाव बनाने के भाव से शायद करते हैं ) या अपने ब्लॉग्स में केवल और केवल अपनी और अपने साहित्य की चर्चा करते हैं . उनकी अपनी सीमाएं हैं----लेकिन सात हजार में कुछ ब्लॉग्स तो ऎसे हैं ही जो उल्लेखनीय कार्य कर रहे है.

लेकिन जब वरिष्ठ कथाकार राजेन्द्र यादव वेब पत्रिकाओं और ब्लॉग पत्रिकाओं पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं - "इनके कारण पत्रिकाओं को कूड़ा रचनाओं से निज़ात मिली" तब दुखद आश्चर्य होता है. (यह टिप्पणी उन्होंने हाल में एक कार्यक्रम के दौरान की थी). राजेन्द्र जी न वेब पत्रिकाएं देखते-पढ़ते हैं और न ब्लॉग पत्रिकाएं (जब मैंने 'वातायन' में उनका साक्षात्कार प्रकाशित किया और उनसे उसे देखने का अनुरोध किया तब उन्होंने कहा था कि वह नहीं देख सकते, क्योंकि उन्हें इस तकनीक की जानकारी नहीं है), फिर वे उनमें प्रकशित रचनाओं के विषय में कैसे जानते हैं कि उनमें क्या प्रकाशित होता है. वास्तविकता यह है कि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित सभी रचनाएं उत्कृष्ट नहीं होतीं और वेब और ब्लॉग पत्रिकाओं की रचनाएं कूड़ा नहीं होती , जैसा राजेन्द्र जी की टिप्पणी से प्रकट होता है. बल्कि वास्तविकता यह है कि पत्र-पत्रिकाओं की अपेक्षा वेब और ब्लॉग पत्रिकाओं में कहीं अधिक बेहतर साहित्य प्रकाशित हो रहा है और दूसरी उल्लेखनीय बात यह कि वहां फिलहाल साहित्यिक राजनीति नहीं हो रही, जैसी पत्र-पत्रिकाओं में होती है.वेब और ब्लॉग पत्रिकाओं में प्रकाशन का मुख्य आधार रचनाकार नहीं रचना होती है.

अतः किसी पत्रिका के सम्पादक को वेब और ब्लॉग पत्रिकाओं को लेकर भ्रम की स्थिति में नहीं रहना चाहिए.

******
वातायन के इस अंक में प्रस्तुत है रंजना श्रीवास्तव की कविताएं और कवि-कथाकार और पत्रकार सुधा ओम ढींगरा (यू.एस.ए.) की कहानी. इन रचनाओं पर सुधी पाठकों की निष्पक्ष राय की अपेक्षा रहेगी.

कविता



रंजना श्रीवास्तव की सात कवितायें

1
एक उनींदी भोर

दु:ख उतने नहीं हैं
जितनी कि गहरी हैं
पीड़ाएँ

दृश्यों के संयोजन में
दुखते घावों की जगह
सबसे ऊपर है
हँसी और उल्लास के रंगों में
मुरझा जाने की चिन्ताएँ
शामिल हैं

विवशताओं के कटे पंखों पर
एक आवेगमयी
उड़ान जैसा
प्रकट होता है- सुख
या फिर धूप का
एक टुकड़ा
जो घनी छायाओं के
जंगल में तनिक देर के लिए
उगा हो
अघोषित सत्यों के
संग्रहालय में
स्मृतियों की कब्रों पर
कसमसाता हुआ
सिर धुनता हुआ
अपने होने को
परिभाषित न कर पाने की
पीड़ा से
दु:ख की सामाजिकता से
आहत-मर्माहत सा

एक चमक जिससे
फूटती है रोशनी

एक उनींदी भोर
जिसमें
ठहरे हुए जीवन को
साँसों की धरोहर में
सम्हाल लिया जाए
पूरे एहतियात से।
00

2
अतिक्रमण

ज़रूरी नहीं
विवशताओं में
ठहराव की गुंजाइशें
शत-प्रतिशत हों
दु:ख ठेलता है
अवसाद के
भरते बादलों का
पानी
अंधेरे विवरों में ही
जल उठते हैं
रोशनी के पहाड़
गतियाँ मृत्यु से
जीवन की ओर
दौड़ती हैं लगातार
जकड़नें खोलती हैं
बंधी गाँठों के
जटिल अवरोध

हर मुश्किल का हल
आपके भीतर से
प्रकट होता है
कठिन पीड़ा में ही
जन्म लेता है प्रतिरोध
और चमत्कार की तरह
वक्त की लगाम
आपके हाथ में
दुबारा आ जाती है
दु:ख कितना भी बड़ा हो
समय भर देता है
जख्मों के निशान

परछाइयाँ
आपकी स्मृतियों में
जगह लेकर
जज्ब हो जाती हैं
दृश्यों व बिम्बों के
आन्तरिक कक्षों में

आपके भीतर
एक और पृथ्वी का नक्शा
अपनी मौजूदगी की
शिनाख्त पर
इतरा रहा होता है
आपके भीतर
जन्म ले रहा होता है
एक और शख्स
आपकी तमाम
कमजोरियों पर
अतिक्रमण करता हुआ।
00

3
तुम मिटा सकते हो

आँधियों के सपने नहीं होते
सपनों के मिट जाने की
कथाओं से बनता है
आँधियों का वजूद

हवा के आँधी बनने तक
डूब चुकी होंगी आस्थाएँ
समंदर की तली में
बचा रह गया होगा
थोड़ा-सा नमक
थोड़ी-सी धूप
पृथ्वी के किसी हिस्से में
छटपटा रही होगी

फूल व खुशबू की
किस्मत में लिखा होगा
बेवक्त मर जाना
और खून में
सफ़ेदी का उतरना
आहिस्ता-आहिस्ता
समय के प्राचीन नक्शे में
आँधियों का वजूद
नहीं रहा होगा
जब उम्मीदों के
पत्थरों को रगड़कर
पैदा की गई थी आग
आँधियाँ कहाँ थीं

उस समय
जीवन की अल्हड़ हँसी में
सब के सब शामिल थे
भूख और प्यास के सि
द्धान्तों में
अपने-पराये का
ख्याल तक नहीं था
एक ही आग पर
पकती थीं- रोटियाँ और दु:ख
एक समंदर
सबके बीच लहराता था
और पूरी पृथ्वी गीली हो जाती थी

मेहनत और खुशी की
हमख्याली ने
जीवन की गति को
कितने एहतियात से साधा होगा
कितनी सावधानी से
रचा गया होगा समाज
कोई क्या जानता था
कि मूल्यों और सिद्धान्तों के
हथौड़े से
मनुष्यता को
इस कदर पीटा जाएगा
कि गरम हो जाएगा
ब्रह्मांड

कितनी भावुक थी हवा

जब ईर्ष्या की आग में
नहीं जली थीं कामनाएँ

सोचो !

हवा के भीतर से
उठे बवंडर ने
आँधियों की शक्ल
क्यों अख्तियार की

तुम मिटा सकते हो
पृथ्वी के नक्शे से
इन आँधियों के निशान।
00

4
आग चंदन बनती जा रही है

बच्चे खेल रहे हैं
किलकारियाँ गूंज रही हैं
ब्रह्माण्ड में

सुख की सार्थकता के
अनुपम दृश्यों से

गुजर रही है पृथ्वी
बच्चे उछल रहे हैं
पीट रहे हैं तालियाँ
स्तब्ध है आसमान
खुशी से दमक रहा है
उसका चेहरा
बच्चों की मुस्कानों में
खिल रहे हैं फूल
उछालें मार रही हैं
नदियाँ
बादल बरस रहे हैं
मूसलाधार
और आग
चंदन बनती जा रही है
हम सबके दिलों में ।
00

5
वह एक उदास घर था

वह एक उदास घर था
वहाँ बच्चे नहीं थे
यूँ सब कुछ था
घर को
घर कहे जाने लायक
बचपन की छलकती
हँसी के बग़ैर
उदास थीं दीवारें
उदास थे फूल
तितलियाँ
आसमान के रंगों से
बच्चों की हँसी ढूँढ़ती थीं

एक उदास संगीत में
डूबे विषाद की
कंपन से
मायूस इस घर में
बच्चों का न होना
उनके होने की मुखरता को
शीर्ष बिन्दु तक पहुँचाकर
छीन लेता था
इस घर से
उसकी खुशियाँ
हँसी की
उदास फुलझरियाँ
अपनी चमक के
फीकेपन पर
हताशा के कोहरे में

क़ैद हो जाती थीं।
00

6
समय एक आग का गोला है

तुम्हारी मौलिकता में
एक संवेदनशील
पृथ्वी की भावुकताएँ हैं
मेरी विवशता में
खामोश रातों का
नि:शब्द अकेलापन

यूँ सब कुछ

व्यवस्थित है
इस अव्यवस्था के बीच
जिसके मौन में
हमारी नदी के
टूटते कगारों के
ढहते जाने की आवाज़ें हैं
हम व्यर्थ होते जा रहे हैं
अपनी समर्थताओं के
बावजूद
हमारी उपस्थितियों में
अनुपस्थित है

हमारा वजूद

समय आग का एक गोला है
जिसकी लपटों में
जल रहा है
हमारा वर्तमान

कहाँ है वे नौकाएँ
जिनमें रखीं
चप्पुओं की आवाज़ें
हमें धारा के विपरीत
तैरना सिखाएँगी
गतियाँ थामेंगी
हमारे विषाद की
ठंडी हथेलियाँ
और जीवन बहेगा
कामनाओं की
ख़ामोश नदी में दोबारा
प्राणवायु की तरह।
00

7
गतियाँ ठहर जाती हैं

ख़ामोशी के
कितने रंग हैं
जिनमें डूबा है
आकाश
उदास कैनवश पर
उत्तप्त लहरें हैं

मैं अपनी अँजुरी में
उठाती हूँ दु:ख
और सहेज लेती हूँ
गतियाँ ठहर जाती हैं
मेरी पृथ्वी के
नाभिकीय कक्ष में।
00


रंजना श्रीवास्तव
शिक्षा : एम ए, बी एड ।
जन्म : गाज़ीपुर(उत्तर प्रदेश)
प्रकाशित पुस्तकें : 'चाहत धूप के टुकड़े की
', 'सक्षम थीं लालटेनें'(कविता संग्रह), 'आईना-ए-रूह'(ग़ज़ल संग्रह)

संपादन : 'सृजन-पथ'(साहित्यिक पत्रिका)
पूर्वांचल की अनेक साहित्यिक-सामाजिक संस्थाओं से संबद्ध। हिन्दी की प्रतिष्ठित लघु पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं, कहानियाँ, समीक्षाएं एवं स्त्री विषयक लेख प्रकाशित।
सम्मान :
'चाहत धूप के टुकड़े की' कविता संग्रह पर सिलीगुड़ी गौरव सम्मान, उत्तर बंग नाट्य जगत से विशिष्ट कविता लेखन के लिए सम्मानित। हल्का-ए-तामीर-ए-अदब(मऊ आइमा), इलाहाबाद से महती सेवाओं हेतु प्रशस्ति पत्र।

संपर्क : श्रीपल्ली, लेन नंबर 2, पी ओ – सिलीगुड़ी बाज़ार, जिला- सिलीगुड़ी(पश्चिम बंगाल)-734 005
फोन : 09933946886
ई-मेल : ranjananishant@yahoo.co.in

कहानी








एक्ज़िट
सुधा ओम ढींगरा

''आज कल पार्टियों में मेहता दम्पत्ति दिखाई नहीं देते. क्या बात है ?''
"मेहता दम्पत्ति का समाचार जानने की उत्सुकता क्यों ? तुम तो उन्हें पसंद नहीं करते .सब लोग जनतें हैं कि पार्टियों में तुम उन्हें बर्दाश्त भी नहीं कर पाते.''
''कितनी बड़ी बात कह दी तुमने.''
''सही नहीं क्या ?''
''सम्पदा , जब मैंने कभी कोई प्रतिक्रिया ही नहीं दी तो लोग कैसे जान गए !. सब तुम्हारे मन की बातें हैं.''
''सुधांशु , मेहता दम्पत्ति पार्टी में प्रवेश करते नहीं कि तुम्हारी भावभंगिमाएँ बदल जाती हैं . और जब तक वे पार्टी में रहते हैं तुम कोने में एक टोले में बैठे रहते हो -- गुप्ता जी, महेश जी , आनंद सेठ ,सुहास भाई . फिर तुम वहां से बस घर वापिस आने के लिए ही उठते हो.''
''सम्पदा, इसका अर्थ यह तो नहीं हुआ कि मैं उन्हें बर्दाश्त नहीं करता या पसंद नहीं करता. ''
''और क्या हुआ ?''
''क्या बेहूदा बात कर रही हो -तुम भी जानती हो कि मेहता परिवार कितना ओछा है. कृत्रिमता अंग-अंग से छलकती है. बातें कितनी बनावटी हैं .''
नैविगेटर की आवाज़ उभरती है ''टेक लेफ्ट.''
सुधांशु ने स्टीयरिंग व्हील बाईं ओर घुमा दिया .
''न मुझे अजय मेहता से नफरत है न मैं उसे नपसंद करता हूँ . समस्या है उसकी डींगें --पूरी पार्टी में वह हाँकता है और अफसोस कि लोग सुनतें हैं.''
''क्या लोग कान बंद कर लें .सब की रुचियाँ तुम्हारी जैसी नहीं.''
''पर पार्टी में अनर्गल बेवजह वार्तालाप तो सुनने मैं नहीं जाता, बौद्धिक न सही कुछ तो महत्त्वपूर्ण बात हो--मौलिकता बेचारी दूर खड़ी रोती है. गप्प के बिना बात ही शुरू नहीं करता अजय मेहता.''
'' क्या मेहता परिवार का बड़ा घर सच नहीं, बी.एम.डब्लू , मर्सीडीज़, लैक्सिस कारें झूठी हैं. बच्चे प्राइवेट स्कूल में पढ़ रहें हैं-साल में चार बार मंहगें स्थलों पर छुट्टियाँ बितानें जाते हैं- सुंदरी मेहता गहने कपड़ों से लदी रहती है - नित नई पार्टियाँ करना क्या गप्पें हैं?''
कार ५४० हाई वे पर सरपट दौड़ रही थी. सुधांशु ने कार दाईं ओर की लेन में कर ली. चार पंक्तियों की सड़क पर कारें ८० मील की रफ्तार से भाग रहीं थीं. दाईं ओर की लेन में सुधांशु ने क्रूज़ कंट्रोल में ६५ मील की रफ्तार सेट कर गाड़ी चलानी शुरू कर दी. दाईं लेन धीमी रफ्तार वालों व गंतव्य स्थान आने पर प्रस्थान लेने वालों के लिए होती है.
''सम्पदा , अमेरिका में किस के पास यह सब नहीं है. पार्टियों में आते ही कहना-आज सिस्को के दस हज़ार शेयर ख़रीदे पंद्रह डालॅर पर और एक घंटे बाद सोलह डालॅर पर बेच दिए. साठ मिनट में मैंने दस हज़ार डालॅर बना लिए.''
''उसका धंधा है.''
''और क्या धंधें के बिना हैं. कितने लोग अपने धंधें की पींगें डाल कर बैठ जातें हैं.''
''जो कमाएगा वही बात करेगा .''
''बाकी बेकार हैं.''
''मैंने कब कहा बेकार हैं.''
''डॉ. वाणी कितने शांत रहते हैं , सबसे हँस कर बात करते हैं. उनका सान्निध्य सुख देता है. कभी उन्होंने अपनी रिसर्च की बात की. ब्रैस्ट कैंसर की दवाई ''टैक्साल '' खोजने वाला कितना विनम्र है.''
''सब तो डॉ. वाणी नहीं हो सकते.''
''यहाँ की प्रतिस्पर्धा और काम के तनाव से मुक्त होने पार्टियों में जाते हैं. आनन्द , मनोरंजन के लिए- देश परिवार की बात करने ,सद्भावना से मेलमिलाप के लिए अन्यथा एक दूसरे की सूरत देखने को तरस जायें.''
तभी एक कार साथ की लेन से सुधांशु की बी.एम.डब्लू के आगे आ गई उसे प्रस्थान करना था. सुधांशु ने कार की गति को क्रूज़ कंट्रोल से हटा कर सामान्य में डाल दिया. कार की गति धीमी हो गई. पहली कार के एक्ज़िट लेते ही सुधांशु फिर अपनी गति में आ गया पर इस बार उसने कार को क्रूज़ पर नहीं डाला. सुधांशु ने फिर अपनी बात शुरू कर दी.
''पार्टी में आते ही अजय मेहता वाईन का ग्लास पकड़ता है , दो चार पैग पीता है और शुरू हो जाता है-आई.बी.एम में पैसा लगा दो. डेल आज कल ख़रीदा जा सकता है. दवाईओं की किसी भी कंपनी में पैसा न लगाओ. एफ.डी.ए. ने सब की बजा दी है. वैसे मैंने आज ग्लैक्सो से बीस हज़ार डालर बनाए हैं .''
सम्पदा कुछ बोली नहीं. रोष में सुधांशु बोलता गया.
''ख़ुद तो दवाईओं की कंपनी के शेयरों से पैसा बनाता है दूसरों को मना करता है.''
''पर वह अनुभवी है. पिछले दस सालों से यही काम कर रहा है. तभी तो मना करता है. इसीलिए तो नौकरी छोड़ दी.''
''छोड़ी नहीं, निकला गया . वहां भी काम के समय शेयर बाज़ारी करता था. भारत थोड़े ही है कि सरकारी नौकरी ले ली और उम्र भर की रोटियां लग गईं.''
''मिसिज़ मेहता तो कह रही थी स्टेट बजट पर कट लगने से मेहता जी की नौकरी चली गई.''
चौथी लेन से एक नवयुवक तेज़ गति से कारों को ओवर टेक करता सुधांशु के आगे आ गया. अगले मोड़ पर उसे प्रस्थान करना था. क्षणिक तीव्रगामी घटना क्रम ने सम्पदा के हाथ डैश बोर्ड की ओर बढ़ा दिए और सुधांशु कार सँभालते हुए बुदबुदाया -- मरेगा साला , साथ में दूसरों को भी मारेगा. क्षणों में कार संभल गई- कुछ देर की खामोशी रही.
'' सम्पदा, जब कट लगता है तो काम चोर लोग पहले निकाले जाते हैं. तुम भी हरेक की बातों में आ जाती हो.''
''सुंदरी मेहता इसे वरदान समझती है, बहुत खुश है. अमेरिका की सरकारी नौकरी में प्राइवेट कम्पनियों के सामानांतर क्या मिलता है और सुरक्षा भी नहीं.''
''भारत की सरकारी नौकरी समझ कर ली थी . काम और समय के प्रति भारतीय सोच चली नहीं यहाँ .''
''सुंदरी मेहता महिला मंडल में बड़ी शान से कहती है -- हम तो उस नौकरी में कुछ भी न कर पाते, भगवान जो करता है सही ही करता है .ये दस हज़ार डालर से बीस हज़ार डालर दिन के बना लेतें हैं.''
''क्या यह शेखी नहीं?''
"उस दिन पार्टी में मेहता भी कह रहा था- अमेरिका में डाक्टर बहुत कमाते हैं और मेरी ओर देख कर कहने लगा पर दिन के पचास हज़ार डालर नहीं. मैं आज अभी आने से पहले इतना पैसा बना कर आया हूँ. यह बड़बोलापन नहीं तो और क्या है ? सम्पदा कोई भी डाक्टर मेहता का मुकाबला क्यों करेगा?''
''उसके ऐसा कहने पर तुम्हें चोट लगी ."
"मुझे चोट क्यों लगेगी--उस पर शराब हावी थी, उसे पता भी नहीं था वह क्या बक रहा है''
सम्पदा ने घड़ी पर सरसरी नज़र डाली -- वेक फारेस्ट पहुँचने में अभी समय था. उसने रेडियो पर ८८.१ ऍफ़ .एम लगा दिया. गीत बाज़ार कार्यक्रम चल रहा था--होस्ट अफ़रोज़ और जान की नोंक -झोंक चल रही थी.
''जान अमेरिकन हो कर भी कितनी अच्छी हिन्दी बोलता है.''
''हाँ , तेरे मेहता को तो इसे सुन कर भी शर्म नहीं आती--पंजाबी भी अंग्रेज़ी लहजे में बोलता है.''
''मेरा मेहता कब से हो गया .''
''तुम्हीं तो उसका पक्ष लेती हो. ''
''कुछ भी कहो पैसा तो उस के पास है. पता है मिसिज़ मेहता के पास हीरे , मोती और जवाहरात के कितने सेट हैं.''
''तुम्हें ईर्ष्या होती है.''
''हाँ, होती है. सर्जन की पत्नी हो कर भी क्या मैं ऐसे जी पाईं हूँ जैसे मिसिज़ मेहता जीती है .''
''मिसिज़ मेहता अपने लिए जीती है तुम अपने से पहले दूसरों के लिए जीती हो.''
''अपने लिए जीने में क्या बुराई है.''
''तो जी लो ना अपने लिए , कौन रोकता है-मत दो हजारों का दान-खरीद लो अपने लिए हीरे -जवाहरात .''
सम्पदा चुप हो गई. रेडियो पर राहत फतेह अली का गाना चल रहा था--तुझे देख -देख जगना, तुझे देख-देख सोना--गाने को सुनते हुए दोनों खामोश रहे--घड़ी की सुई देखते ही सुधांशु फिर बोल पड़ा--
'' कैरी से वेक फारेस्ट इतना लम्बा पड़ता है कि ड्राइविंग करते-करते इन्सान थक जाता है. अपनी सहेली ऊषा से कहो कैरी में घर ले- ले. हर महीने पार्टी रख लेती है.''
''डॉ. ध्रुव कुमार आप के भी तो दोस्त हैं आप क्यों नहीं कह देते.''
तभी फ़ोन की घंटी बजी--बी.एम.डब्लू में एक आसानी है फ़ोन कार के स्पीकर पर बजने लगता है सिर्फ़ टॉक बटन दबाना पड़ता है--बिन्दु सिंह की आवाज़ उभरी--'' सम्पदा, आज की पार्टी केंसल हो गई है, अजय मेहता हास्पिटल में है. उसे हार्ट-अटैक के साथ ही स्ट्रोक भी आया है. डॉ.ध्रुव कुमार तो हस्पताल चले गये हैं. ऊषा ने पार्टी केंसल कर दी है. कुछ फ़ोन काल्स वह कर रही है कुछ मैं कर रही हूँ .पार्टी में लोग भी तो बहुत आ रहे थे.''
''पर हुआ क्या--?'' सम्पदा सुधांशु दोनों बोल पड़े.
'' यहाँ की अर्थ-व्यवस्था और पिछले दिनों शेयर बाज़ार में जो मंदी आई उसको मेहता परिवार ने सहज लिया. पुराने खिलाड़ी थे कई उतार- चढ़ाव देख चुके थे. सम्पदा जो बात पता चली मेहता परिवार बूँद-बूँद कर्ज़े में डूबा हुआ था. घर, कारें, क्रेडिट कार्ड और गहने बैंकों के पास गिरवी थे--सबके विपरीत कर्ज़ा लिया हुआ था यहाँ तक कि घर की एकुटी (घर में इकठ्ठे हुए पैसे ) पर भी कर्ज़ा ले रखा था और पूरा पैसा शेयर बाज़ार में डाला हुआ था.शेयर बाज़ार की गिरावट रोज़ बढ़ती गई और अजय मेहता के पास कई किश्तें देने के लिए पैसा नहीं बचा . अब जब किश्तें चुका नहीं पाए तो बैंक ने कारें ले लीं घर फोर क्लोज़र पर आ गया था. अब नीलाम हो रहा है. ज़ेवर बिक चुकें हैं. एक तरह से सड़क पर आ गया अजय मेहता. यह सदमा सह नहीं सका , तुम लोग अगले एक्ज़िट से कार वापिस मोड़ लो. रैक्स हस्पताल में उसे दाखिल किया गया है.''
इसके साथ ही बिन्दु का फ़ोन सम्पर्क कट गया.
सुधांशु ने कार अगले एक्ज़िट की ओर बढ़ा दी.

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सुधा ओम ढींगरा जालंधर (पंजाब) के साहित्यिक परिवार में जन्मी. एम.ए.,पीएच.डी की डिग्रियां हासिल कीं. जालंधर दूरदर्शन, आकाशवाणी एवं रंगमंच की पहचानी कलाकार, चर्चित पत्रकार (दैनिक पंजाब केसरी जालंधर की स्तम्भ लेखिका). कविता के साथ-साथ कहानी एवं उपन्यास भी लिखती हैं. काव्य संग्रह--मेरा दावा है, तलाश पहचान की, परिक्रमा उपन्यास (पंजाबी से हिन्दी में अनुवाद) एवं माँ ने कहा था...कविताओं की सी.डी. है. दो काव्य संग्रह एवं एक कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन है. १) विश्व तेरे काव्य सुमन २) प्रवासी हस्ताक्षर ३) प्रवासिनी के बोल ४) साक्षात्कार ५) शब्दयोग ६) प्रवासी आवाज़ ७) सात समुन्द्र पार से ८) पश्चिम की पुरवाई ९) उत्तरी अमेरिका के हिन्दी साहित्यकार इत्यादि पुस्तकों में कविताएँ-कहानियों का योगदान. तमाम पुरस्कारों से सम्मानित हो चुकीं हैं. जिनमें प्रमुख हैं चतुर्थ प्रवासी उत्सव २००६ में ''अक्षरम प्रवासी मीडिया सम्मान.''''अमेरिका में हिन्दी के प्रचार -प्रसार एवं सामाजिक कार्यों के लिए वाशिंगटन डी.सी में तत्कालीन राजदूत श्री नरेश चंदर द्वारा सम्मानित.'' हिन्दी चेतना (उत्तरी अमेरिका की त्रैमासिक पत्रिका) की सह- संपादक हैं. भारत के कई पत्र-पत्रिकाओं एवं वेब-पत्रिकाओं में छपतीं हैं. अमेरिका में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए अनगिनत कार्य किये हैं. हिन्दी पाठशालाएं खोलने से ले कर यूनिवर्सिटी में हिन्दी पढ़ाई. हिन्दी के बहुत से नाटकों का मंचन कर लोगों को हिन्दी भाषा के प्रति प्रोत्साहित कर अमेरिका में हिन्दी भाषा की गरिमा को बढ़ाया है. अनगिनत कवि सम्मेलनों का सफल संयोजन एवं संचालन किया है. हिन्दी विकास मंडल (नार्थ कैरोलाइना) के न्यास मंडल में हैं. अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति (अमेरिका) के कवि सम्मेलनों की संयोजक हैं. 'प्रथम' शिक्षण संस्थान की कार्यकारिणी सदस्या एवं उत्पीड़ित नारियों की सहायक संस्था 'विभूति' की सलाहकार हैं. तन , मन एवं धन से हिन्दी के लिए जीवन समर्पित है.
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