tag:blogger.com,1999:blog-417740764999982630.post6406601262156490190..comments2024-01-30T07:29:55.670-08:00Comments on वातायन: वातायन - दिसम्बर २००९रूपसिंह चन्देलhttp://www.blogger.com/profile/01812169387124195725noreply@blogger.comBlogger6125tag:blogger.com,1999:blog-417740764999982630.post-71471721242293400632009-12-19T03:52:35.937-08:002009-12-19T03:52:35.937-08:00भाई चंदेलजी,
नमस्कार
पुरस्कार को लेकर जो स्थिति ...भाई चंदेलजी,<br />नमस्कार<br />पुरस्कार को लेकर जो स्थिति अन्य क्षेञों में है लगभग वही हाल अब हिंदी में भी देखने को मिल रहा है. संभवतः इसीलिए पुरस्कार अपना महत्व और सम्मान खोते जा रहे हैं. लगभग शालीन आक्रोश और तार्किक शब्दावली में लिखा यह लेख उम्दा है. मेरी बधाई स्वीकारें.<br />- प्रदीप जिलवाने, खरगोनप्रदीप जिलवानेhttps://www.blogger.com/profile/08193021432011337278noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-417740764999982630.post-33328718178750674642009-12-04T23:15:52.550-08:002009-12-04T23:15:52.550-08:00भाई चंदेल जी,पुरुस्कारों पर आप की टिप्पड़ी किसी भी...भाई चंदेल जी,पुरुस्कारों पर आप की टिप्पड़ी किसी भी प्रकार ख़ारिज नहीं की जा सकती है.सत्य के बहुत नजदीक.सत्य प्रायः कडुआ होता ही है इस लिए बहुतों की नाराजगी स्वाभाविक है.इन्हीं कुछ कारणों से भारी संख्या में नकली लेखक मैदान में उतर पड़े हैं और विदेश यात्राओं तथा पुरुस्कारों में सबसे आगे हैं.हिंदी साहित्य में विश्वसनीयता को ऐसे ही लोगों ने ख़त्म किया है.अच्छा लेखन तो आज भी कम नहीं हो रहा है.सार्थक बहस के लिए बधाई.सुरेश यादवhttps://www.blogger.com/profile/16080483473983405812noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-417740764999982630.post-10578772846136583612009-12-02T19:02:37.366-08:002009-12-02T19:02:37.366-08:00इतिहास के पृष्ट पलटें तो सम्मानों की राजनीति बहुत ...इतिहास के पृष्ट पलटें तो सम्मानों की राजनीति बहुत पुरानी है.Dr. Sudha Om Dhingrahttps://www.blogger.com/profile/10916293722568766521noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-417740764999982630.post-21935180386128945872009-12-01T22:47:11.428-08:002009-12-01T22:47:11.428-08:00भाई चन्देल, तुमने पुरस्कारों के पीछे की गंदी राजनी...भाई चन्देल, तुमने पुरस्कारों के पीछे की गंदी राजनीति पर पहले भी लिखा है और अब फिर एक बार नए ढंग से इनके पीछे के सच को खंगालने की कोशिश की है। नि:संदेह अब लगभग हर छोटा बड़ा पुरस्कार/सम्मान शक के घेरे में है। इन पुरस्कार कमेटियों में बैठे स्वमानधन्य निर्णायक अपने अपनों को रेवड़ियाँ बांटते नज़र आते हैं। लेकिन भाई समय अच्छे अच्छों को किनारे लगा देता है,तिकड़मों और जोड़तोड़ से स्वय को और अपनी कृतियों को पुरस्कृत करवा लेने वालों की तो बिसात ही क्या है।<br />मैं भाई बलराम अग्रवाल की टिप्पणी से भी सहमत हूँ। उनकी बात में दम है।सुभाष नीरवhttps://www.blogger.com/profile/06327767362864234960noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-417740764999982630.post-74988670558642321392009-11-30T07:30:49.376-08:002009-11-30T07:30:49.376-08:00UK MEIN KABHEE-KABHEE SUNNE MEIN
AATAA HAI KI AMUK...UK MEIN KABHEE-KABHEE SUNNE MEIN<br />AATAA HAI KI AMUK RACHNAKAR KEE PRASIDDH<br />KRITI KO PURASKRIT KIYAA GAYAA HAI<br />LEKIN BHARAT KEE HAR PATRIKA AUR<br />AKHBAAR MEIN ANAAM KRITIYON PAR <br />PURASKAAR PAANE WAALON KEE LAMBEE-<br />CHAUDEE SOOCHEE DEKHEE JAA SAKTEE <br />HAI.JAB KABHEE MAIN ISKE KHILAAF<br />AAWAAZ SUNTAA HOON TO MERE DIL KO<br />TASALEE HOTEE HAI KI CHALO ,KOEE <br />TO HAI IS GANDGEE KO DOOR KARNE<br />WAALAA. AAPKEE AAWAAZ BULAND HO.PRAN SHARMAnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-417740764999982630.post-86480375538756699362009-11-29T11:39:08.447-08:002009-11-29T11:39:08.447-08:00नि:संदेह, बचेंगे अंतत: शब्द ही। लेकिन शब्दों का मा...नि:संदेह, बचेंगे अंतत: शब्द ही। लेकिन शब्दों का मायाजाल भी उतना विश्वसनीय नहीं है, जितना कि आपने या भाई ज्ञानप्रकाश ने सोचा है। मैंने आज ही एक पुस्तक में एक साक्षात्कार पढ़ा है और मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि अपने-आप को महान् साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठित करने की नीयत से उक्त महाशय ने स्वयं ही प्रश्न लिखे और स्वयं ही उनके उत्तर भी। दुर्भाग्य की बात यह है कि आज न तो उक्त साक्षात्कर्ता जीवित हैं और न ही उक्त महान साहित्यकार; आरोप सिद्ध कैसे हो? एक इसलिए चुप रहा कि बिना श्रम के ही नाम छप गया, दूसरा इसलिए कि मन की कुण्ठा निकल गई। ऐसे छद्म साक्षात्कारों का चिह्नांकन कैसे होगा? प्रचलित पुरस्कारों में से भी बहुतों की कहानी ऐसी ही निकल सकती है यानी कि न तो कुछ लिया गया और न ही दिया, लेकिन नाम लेने वाले और देने वाले--दोनों का हो गया!बलराम अग्रवालhttps://www.blogger.com/profile/04819113049257907444noreply@blogger.com