शुक्रवार, 30 नवंबर 2007

हम और हमारा समय

हम और हमारा समय

‘स्मृति पुरस्कारों’ का मायाजाल

हिन्दी में ब्लॉगों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है। यह सुखद है। ‘वातायन’ का सृजन साहित्य, समाज और संस्कृति से सम्बन्धित उन विषयों पर चर्चा करने के लिए किया गया है जिनका प्रकाशन पत्र-पत्रिकाओं में संभव होते हुए भी प्राय: इसलिए संभव नहीं हो पाता क्योंकि वह पत्र-पत्रिकाओं के संपादकों की नीतियों के विरुद्ध भले ही न हो, लेकिन उनके निजी विचारों के विरुद्ध होता है। यह सर्वविदित है कि हिन्दी साहित्य में कुछ रचनाकार और सम्पादक राजनीति करते हैं। संभव है, सभी भाषाओं में ऐसा हो, लेकिन हिन्दी में यह स्थिति शायद सर्वाधिक है। यहाँ मुझे अपने एक मित्र की बात याद आती है जो उन्होनें लगभग दस वर्ष पूर्व दिल्ली में नार्थ-ब्लॉक के गेट के सामने कही थी। उनका कहना था, ‘‘जो राजनीति करेगा वही साहित्य में चर्चा में रहेगा।" और मैनें कहा था, ‘‘राजनीति वही करते हैं जिनके पास या तो लेखकीय क्षमता नहीं होती या जो चुक चुके होते हैं।" (यहॉं यह बताना अनुचित न होगा कि मेरे वे मित्र साहित्य के पुराने राजिनीतिकार थे और उन दिनों एक प्रकाशक के लिए काम करते हुए अपनी राजनीति की धार को चमका रहे थे।)
हम हिन्दी को विश्वभाषा बनाना चाहते हैं और यह भी चाहते हैं कि उसे संयुक्त राष्ट्रसंघ में मान्यता प्राप्त हो, लेकिन अपने को चर्चा में रखने से लेकर पुरस्कारों तक जो राजिनीति हिन्दी में व्याप्त है उससे उसके भविष्य के विषय में सोचा जा सकता है। पुरस्कारों की स्थिति यह है कि देश की महत्वपूर्ण संस्थाओं में राजनीति इस हद तक प्रविष्ट हो चुकी है कि हिन्दी के वरिष्ठतम लेखकों की महत्वपूर्ण कृतियों को दरकिनार कर किसी पूंजीपति महिला या उच्च-पदाधिकारी के पहले उपन्यास या कविता संग्रह को पुरस्कार के लिए चुन लिया जाता है। इसके अतिरिक्त, स्मृति पुरस्कारों की बाढ़ हमें सोचने के लिए विवश करती है। यहाँ मैं अपनी बात इसी विषय पर केन्द्रित करना चाहता हूँ।
यह स्थिति सुखद ही कही जाएगी कि हिन्दी में निरंतर लेखकों की संख्या बढ़ रही है, पुस्तकें छप रही हैं और छप इसलिए रही हैं क्योंकि वे बिक रही हैं। यह अलग बात है कि वे पाठकों की पहुँच से बाहर सरकारी गोदामों की शोभा अधिक बढ़ा रही हैं। पिछले बीस वर्षों में प्रकाशकों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। कल तक जो किसी प्रकाशक के यहॉं ‘सेल्स’ का काम देखते थे या ‘डिस्पैच’ के लिए बंडल तैयार करते थे, आज वे सफल प्रकाशक हैं। कोई लेखक पचीस-तीस वर्षों के लेखन के बाद भी सफलता-असफलता के बीच झूलता रह सकता है (बल्कि झूलता ही रहता है), लेकिन कोई प्रकाशक पांच-छ: वर्षों में जीवन की उन तमाम सुख-सुविधाओं को जुटा लेता है, अच्छे स्टेट्स के लिए आज जिनकी आवश्यकता है। बात इतनी ही नहीं है। जिस प्रकार लेखकों और प्रकाशकों की संख्या बढ़ी है, उससे भी अधिक पुरस्कारों की संख्या में वृद्धि हुई है। पाँच सौ से लेकर पाँच लाख तक के पुरस्कार दिए जाने लगे हैं। एक समय था जब सब कुछ सीमित था। गिने-चुने पुरस्कार थे। लेकिन आज परिदृश्य बदल गया है। पहले लेखक पुरस्कारों के लिए नहीं लिखता था। पुरस्कार उसकी सोच में नहीं होता था। कुछ वरिष्ठ लेखकों ने कभी पुरस्कार न लेने का निर्णय तक किया हुआ था (भले ही बदली परिस्थितियों में उन्होनें भी अपने निर्णय बदल दिए)। लेखक यह मानकर चलता था कि पुरस्कार लेखक से बड़ा नहीं होता। लेकिन, अब लेखक शायद यह सोचने लगा है कि ‘अमुक’ ‘तमुक’ पुरस्कार पाकर ही वह बड़ा लेखक बन जाएगा। इस विषय में मात्र एक उदाहरण पर्याप्त है। स्व. मनोहर श्याम जोशी को लंबी उपेक्षा के बाद ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ दिया गया था। लेकिन जोशी जी की लेखकीय प्रतिष्ठा में उसने चार चाँद नहीं लगाए थे। जबकि जाशी जी जैसे अनेकों प्रतिष्ठित, और पुरस्कार पाने की योग्यता रखने वाले लेखकों-कवियों की उपेक्षा करके, (एक-दो रचनाकारों को छोड़कर) हिन्दी में जिन लोगों को ‘साहित्य अकादमी’ द्वारा पिछले आठ-दस वर्षों में पुरस्कृत किया गया, उससे ‘साहित्य अकादमी’ प्रश्नों के घेरे में आ गयी। अब वह अपने प्रारंभिक काल जैसी निर्विवादित संस्था नहीं रही।
बहरहाल, आज के लेखक की मानसिकता और उसकी स्थिति को समझकर, उसकी पुरस्कारों की भूख को भांपकर अनेकों संस्थाएं कुकुरमुत्तों की भांति उग आयीं, जिन्होंने एक कहानी, पाँच लघुकथाओं, बाल कहानी संग्रह से लेकर कहानी-कविता संग्रहों, उपन्यास, आलोचना, पत्रकारिता अर्थात् लिखित शब्द की हर विधा तक ही नहीं, वरन टी. वी., रेडियो आदि तक अपने को फैला लिया और पुरस्कारों की बाढ़-सी आ गयी। पुरस्कार पाने के लिए लेखक-कवि एक कहानी, उपन्यास, कविता लिख सरपट- लटपटाते हुए पुरस्कार झपट दौड़ में शामिल होने लगे। पुरस्कार उनकी सीमा बन गये। परिणाम, कुछ और चतुर लोगों ने अपने आत्मीयों के दिवंगत होते ही ‘स्मृति पुरस्कार’ देने प्रारंभ कर दिये। इन स्मृति पुरस्कारों की स्थापना के पीछे आत्मीयों की स्मृति को सुरक्षित रखने या उनके साहित्यिक अवदान के प्रति लोगों को आकर्षित करने से अधिक अपने को चमकाने की मानसिकता अधिक रहती है। इन स्मृति पुरस्कारों की पड़ताल से अनेक रहस्यमय तथ्यों का उदघाटन संभव है। इनमें अनेक उन मृत-व्यक्तियों की स्मृति पर संचालित हैं जिनका साहित्य से कोई लेना-देना नहीं था और यदि था भी तो न के बराबर। एक मित्र का ऐसा ही उदाहरण है। इसे पत्नी के प्रति उनका अगाध प्रेम ही कहा जाएगा, जिसे उन्होंने मरणोपरांत लेखिका ही नहीं बनाया, बल्कि उनकी स्मृति में पुरस्कार भी देने लगे। कल तक जो लोग उन मित्र की उपेक्षा करते थे, अब उनके आगे-पीछे होने लगे। पत्नी के बहाने अब मित्र चमक रहे थे। उनके परिवार के सभी सदस्य चमक रहे थे। प्रतिवर्ष मुख्यमंत्री से लेकर केन्द्रीय मंत्री कार्यक्रम की अध्यक्षता के लिए आने लगे थे। स्पष्ट है कि पचीस-तीस हजा़र रुपये खर्च कर मित्र और उनका परिवार सत्ता के निकट पहुंच गया था, जिसके प्रत्यक्ष-परोक्ष लाभ हैं।
कुछ व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के भी ऐसे ही उदाहरण हैं। लेकिन इन पुरस्कारों के आयोजनों से कुछ चतुर लोग जुड़े हुए हैं जो प्रतिवर्ष पुरस्कार की बंदूक लाला जी के कंधे पर रखकर दागते रहते हैं। इससे लाला जी की दुकान चमक रही है या नहीं, लेकिन आयोजक लोग अपने को चमकाने में अवश्य सफल रहे हैं। ऐसा नहीं है कि सभी स्मृति पुरस्कारों की स्थिति ऐसी ही है। लेकिन, जो निर्विवाद हैं उनकी संख्या बहुत कम है।
ऐसी स्थिति में पुरस्कारों की राजनीति और उसके पीछे दौड़ते लेखकों की कमज़ोरी से लाभ उठाने से वे तत्व पीछे क्यों रहते जो भ्रष्ट, लंपट और हत्यारे हैं, लेकिन सम्पन्न हैं, बड़े व्यावसायिक हैं या उच्चपदासीन हैं। इन पुरस्कारों के लिए बड़े-बड़े दिग्गजों को लार टपकाते और उनके आयोजनों में शिरकत करते देखा गया है।
एक उदाहरण यहाँ भी पर्याप्त है। मार्च, 2006 में दिल्ली में एक ऐसा ही पुरस्कार प्रारंभ किया गया और एक युवा कवयित्री को दिया गया। उस कवयित्री को क्या पता कि जिसकी स्मृति में वह पुरस्कार ग्रहण कर रही थी, उसकी पूंजीवादी मानसिकता, लालच और क्रूरता के कारण उपजी पारिवारिक कलह ने न केवल असमय उसके पिता को निगल लिया था बल्कि उसका एक छोटा भाई भी उसके षड्यंत्रों से आहत होकर मृत्यु का शिकार हो गया था। उन देवी जी के नाम से उसके पति ने न केवल एक स्मृति पुरस्कार प्रारंभ किया बल्कि एक संस्था की स्थापना भी की। उस ‘स्मृति पुरस्कार’ के बहाने अपनी राजनीति चमकाने में निमग्न उसके पति की उसके पिता और परिवार के प्रति किये उसके षड्यंत्र में क्या भूमिका थी, यह जाँच का विषय है। इस पुरस्कार प्रकरण में दो बातें आश्चर्यचकित करने वाली थीं। एक – उस मृत कवयित्री के कवि-स्वरूप का ज्ञान साहित्य जगत को उसके मरणोपरांत हुआ था, और दो– उस स्मृति पुरस्कार समारोह में हिन्दी के अनेक आलोचक, कवि-कवयित्रियाँ, प्राध्यापक, लेखक शामिल हुए थे, जिनमें से अनेकों ने मृत कवयित्री और उनके पति का यशोगान चारणभाव से किया था। इनमें से अनेक ऐसे भी थे जो उस दर्दनाक हादसे से परिचित थे जिसे अंजाम देकर कवयित्री जी दिवंगत हुई थीं। एक ट्रेड यूनियन नेता की हत्या करवाने वाले एक औद्योगिक घराने द्वारा प्रारंभ किये गये एक साहित्यिक पुरस्कार को घृण्य मानने वाले ये बौद्धिक वैसे ही दूसरे पुरस्कार में शामिल होने और चारणभाव से प्रशंसा करने कैसे पहुंच गये थे? क्या इसलिए कि उस स्मृति पुरस्कार को प्रारंभ करने वाले व्यक्ति ने शातिरपन से अपने चारों ओर एक ऐसा भ्रमजाल बुन रखा है जिससे वे उसकी वास्तविक छवि नहीं देख पाये, या हमपेशा- हमजातीय होने के कारण या दोनो ही कारणों से। वास्तविकता जो भी हो, चिन्तनीय और निन्दनीय कही जायेगी।
लेकिन यह हवा जिस दिशा में बह रही है, उससे यह सिलसिला थमता नहीं दिख रहा है। नयी पीढ़ी को ऐसे स्वार्थी तत्वों ने भ्रम में डाल दिया है कि पुरस्कार ही साहित्य में स्थापित होने का एकमात्र आधार है। स्पष्ट है कि पुरस्कार के नाम पर अपने को चमकाने वालों की दुकानें चलती रहेंगी। उनके अपने हित सधते रहेंगें और आम-जन इस मायाजाल को समझने में लहू-लुहान होता रहेगा। ऐसी स्थिति में हिन्दी के विश्व भाषा बनने और संयुक्तराष्ट्र संघ में मान्यता प्राप्त करने के विषय में सोचा जा सकता है।

'हमाम' तो एक ही है
बाबरी मस्जिद, गुजरात नरसंहार के बाद देश को एक बार पुन: नन्दीग्राम में शर्मशार होना पड़ा। मेधा पाटकर के मुंह पर तमाचा मारकर उन्हें अपमानित किया गया। बुद्धिजीवियों, कलाकारों, साहित्यकारों, पत्रकारों ने विरोध प्रदर्शन किया। लेकिन पश्चिम बंगाल के प्रबुद्ध राजनीतिज्ञों ने नन्दीग्राम की घटना को उचित ठहराया। अत: इस देश में पार्टियां, उनके घोषणा-पत्र आदि भले ही अलग-अलग हों, लेकिन वे जिस हमाम में ऊभ-चूभ हैं, वह एक ही है, जिसे ‘सत्ता का हमाम’ कहते हैं।


और अंत में -
यह कैसा मार्क्सवाद है कि तसलीमा नसरीन को कलकत्ता छोड़ने के लिए विवश होना पड़ा। समझदार लोग कहते हैं कि राजनीति के कई चेहरे होते हैं। इस विषय में हमारे देश के सभी राजनीतिक दल निर्विवादित हैं।

वातायन
अगला अंक

‘वातायन’ के आगामी अंक में विश्व-प्रसिद्ध रूसी लेखक ‘लियो तोल्स्तॉय’ का संक्षिप्त जीवन-परिचय और कथाकार सुभाष नीरव की लघुकहानियाँ।