शुक्रवार, 29 जून 2012

वातायन-जुलाई,२०१२







अरुण प्रकाश








हम और हमारा समय

संस्मरण
एक ईमानदार और खुद्दार लेखक थे अरुण प्रकाश

रूपसिंह चन्देल

एक कहानीकार के रूप में अरुण प्रकाश से मैं बहुत पहले से परिचित था, लेकिन व्यक्तिगत परिचय तब हुआ जब मैं  अभिरुचि प्रकाशन के लिए बीसवीं शताब्दी की उत्कृष्ट आंचलिक कहानियां’ सम्पादित कर रहा था.  यद्यपि एक कहानीकार के रूप में समकालीन कहानीकारों में अरुण का नाम शीर्ष पर था और उनकी कई कहानियां बहुचर्चित थीं, लेकिन वह अचानक उस दिन और अधिक चर्चित हो उठे थे जब अच्छी-खासी हिन्दी अधिकारी की अपनी नौकरी से त्यागपत्र देकर वह कमलेश्वर  के साथ दैनिक जागरण में आ गए थे. इसके दो कारण हो सकते हैं –पहला यह कि उन्हें सरकारी नौकरी रास नहीं आ रही थी, जैसा कि प्रायः लेखकों को नहीं आती  और दूसरा कारण कि वह पत्रकारिता में  अपनी प्रतिभा का अधिक विकास देख रहे थे. सही मायने में अरुण प्रकाश से मेरा यह पहला परिचय था. मैं उन्हें एक आदर्श के रूप में देखने लगा था. आदर्श इसलिए कि जिस सरकारी नौकरी को उन्होंने छोड़ दिया था उसे छोड़ने के उहा-पोह में मैं 1980 से  था.  1980 के अक्टूबर माह में नौकरी छोड़ने के इरादे से  मैंने हिन्द पॉकेट बुक्स’ में पहला साक्षात्कार दिया था, लेकिन तब तक न मेरा कोई अधिक साहित्यिक अवदान था और न ही कहीं सम्पादन का अनुभव. मुझे साक्षात्कार के लिए केवल इस आधार पर बुलाया गया था कि मैं कानपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी में शोधरत था और कुछ अच्छी कहानियां भी मेरे खाते में थीं.

1982 तक मैं अपनी नौकरी से इस कदर ऊब चुका था कि किसी भी कीमत पर वहां से मुक्ति चाहने लगा था और एक मित्र की सलाह पर मैंने दिल्ली प्रेस को इस आशय का एक अंतर्देशीय पत्र भेज दिया था. दिली प्रेस मेरे नाम से  परिचित था. एक सप्ताह के अंदर वहां से परेशनाथ का पत्र आ गया. लेकिन इस मध्य मेरे हितैषी  मित्र डॉ. रत्नलाल शर्मा ने वहां का जो खाका खींचा था वह बेहद भयावह था. एक नर्क से छूटकर उससे भी बड़े दूसरे नर्क में फंसने जैसा---मैं नहीं गया. पन्द्रह दिन बाद परेशनाथ  का एक और पत्र आया, लेकिन न मैंने उत्तर दिया और न ही वहां गया. वहां नहीं गया, लेकिन नौकरी बदलने के प्रयत्न चलते रहे. कई महाविद्यालयों में साक्षात्कार दिए, लेकिन न मैं कच्छाधारी था और न ही घोषित मार्क्सवादी. दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रध्यापकी के लिए इनमें से एक का होना अनिवार्य था.  नौकरी मैं बदलना चाहता था लेकिन अपनी योग्यता के बल पर. हालांकि तब तक कितने ही ऎसे लोगों से मेरा सम्पर्क हो चुका था जो पत्रकारिता की दुनिया में ऎसी स्थिति में थे कि कहने पर मेरे लिए कुछ व्यवस्था अवश्य कर देते, लेकिन मुझे वह सब स्वीकार नहीं था. अस्तु ! मैं उसी नौकरी को करने के लिए अभिशप्त रहा. लेकिन नौकरी छोड़ने के अपने स्वप्न को मैंने कभी मरने नहीं दिया (अंततः नवम्बर,२००४ में मैं उसे अलविदा कह सका था) . लेकिन जब पता चला  कि अरुण प्रकाश ने नौकरी से त्यागपत्र दे दिया है तब उनके उस निर्णय ने मुझे प्रभावित किया था. कमलेश्वर ने उनकी योग्यता को पहचाना और उन्हें अपनी टीम में शामिल किया था  और वह सदैव कमलेश्वर के अभिन्न रहे. कमलेश्वर ने स्वयं मुझसे उनकी प्रशंसा करते हुए उन्हें एक प्रतिभाशाली कथाकार कहा था. मालिकों से मतभेद होने के बाद जब कमलेश्वर जागरण से अलग हुए, उनकी टीम भी छिन्न-भिन्न हो गई थी. शेष लोगों की बात मैं नहीं जानता लेकिन कमलेश्वर अरुण को कभी नहीं भूले. जब भी उन्हें अवसर मिला अरुण प्रकाश को साथ रखा. लेकिन कितना ही ऎसा वक्त रहा जब अरुण को फ्रीलांसिग करनी पड़ी. फ्रीलांसिंग करना कितना कठिन है, यह करने वाला ही जानता है और उस व्यक्ति के लिए तो और भी कठिन है जो खुद्दार हो---घुटने न टेकने वाला और अपने श्रम के सही मूल्य के लिए अड़ जाने वाला हो.
बात 1996 की है. अरुण प्रकाश को मैंने उनकी एक आंचलिक कहानी के लिए फोन किया. बहुत ही धीर गंभीर आवाज में वह बोले, “चन्देल, कहानी तो तुम कोई भी ले लो---लेकिन मुझे पहले यह बताओ कि प्रकाशक कहानीकारों को दे क्या रहा है?”
“अरुण जी, प्रकाशक ने प्रत्येक कहानीकार को दो सौ रुपए और उस खंड की प्रति जिसमें लेखक की कहानी होगी.”
            “पहली बात यह कि पारिश्रमिक कम है---कम से कम पांच सौ होना चाहिए और दूसरी बात कि दोनों खंड ही लेखकों को मिलने चाहिए.”
“मैं आपकी बात श्रीकृष्ण जी तक पहुंचा दूंगा. फिर भी यह बता दूं कि पारिश्रमिक पर मैं पहले ही उनसे बहस कर चुका हूं. वह दो सौ से अधिक देने की स्थिति में नहीं हैं. यह बात तो मैं अपनी ओर से स्पष्ट कर ही सकता हूं. रही बात दोनों खण्ड देने की तो मुझे विश्वास है कि इस बात के लिए वह इंकार नहीं करेंगे.” मैंने कहा.
“मैंने तो लेखकीय हक की बात की. हम लेखकों को अपने अधिकार के प्रति जागरूक होने की आवश्यकता है.” क्षण भर के लिए अरुण प्रकाश रुके थे, शायद कुछ सोचने लगे थे, फिर बोले थे, “चन्देल, तुम जो कहानी चाहो वह ले लो---मैं श्रीकृष्ण की स्थिति जानता हूं. तुम्हे और उन्हें कहानी देने से इंकार नहीं कर सकता.जैसा चाहो करो.”

अरुण प्रकाश के साथ मेरी कोई ऎसी मुलाकात जिसे मैं निजी मुलाकात कहूं नहीं थी. प्रायः वह साहित्यिक कार्यक्रमों में मिलते और कई बार हंस कार्यालय में भी उनसे मिलने के अवसर मिले. लेकिन कभी लंबी बातें नहीं हुईं. मैंने सदैव उनके स्वभाव में एक अक्खड़पन अनुभव किया. इसे मैं उनकी लेखकीय ईमानदारी और खुद्दारी मानता हूं. जो मन में होता वह कह देते. वह स्वभाव से विवश थे.
मेरे उपन्यास ’पाथर टीला’ पर 12 मार्च, 1999 को गांधी शांति प्रतिष्ठान में गोष्ठी के दौरान डॉ. ज्योतिष जोशी और डॉ. कुमुद शर्मा ने जिन दो टूक शब्दों में मैत्रेयी पुष्पा को उसमें गांव न होने के उनके कथन पर उत्तर दिए थे वह तो उल्लेखनीय थे ही अरुण प्रकाश ने जो कहा उसने मैत्रेयी पुष्पा के गांव के ज्ञान पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिया था.

बहुत भटकाव के बाद अरुण प्रकाश  को पत्रकारिता के क्षेत्र में कुछ करने का अवसर तब मिला जब वह साहित्य अकादमी की पत्रिका समकालीन भारतीय साहित्य’ के सम्पादक नियुक्त हुए थे. वहां उनकी नियुक्ति उन लोगों को हजम नहीं हुई थी जो स्वयं उस सीट पर बैठना चाहते थे. अरुण पर कीचड़ उछालने के लिए कुछ समाचार पत्रों का दुरुपयोग किया गया था. लेकिन अरुण प्रकाश ने उस सबको गंभीरता से नहीं लिया था. केवल इतना कहा था, “ खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे वाली  कहावत चरितार्थ हो रही है. होने दो.  अपनी पूरी क्षमता और ऊर्जा के साथ अरुण ने पत्रिका के अंक निकाले और नये मानदंड स्थापित किए. उनकी नियुक्ति तीन वर्ष के लिए हुई थी और अकादमी के नियम के अनुसार साठ वर्ष से कम आयु के व्यक्ति को ही तीन वर्ष के लिए आगामी नियुक्ति मिलनी थी. अरुण शायद साठ के निकट थे या पूरे कर चुके थे. उन्हें तो नियुक्ति नहीं मिली, लेकिन उनके हटते ही अकादमी ने अपने नियमों में परिवर्तन किए  थे…. आयु सीमा बढ़ा दी  थी.
एक बार अरुण प्रकाश पुनः संघर्ष-पथ पर चल पड़े थे. लेकिन यह पथ उस ओर उन्हें ले जाएगा जहां से कोई वापस नहीं लौटता शायद उन्होंने भी कल्पना नहीं की होगी. भयंकर बीमारी के बाद भी  कर्मरत रहते हुए उन्होंने नई पीढ़ी के लिए  यह संदेश दिया कि न टूटो और न झुको---विपरीत परिस्थियों में भी कर्मरत रहो. बिहार के बेगूसराय में 22 फरवरी 1948 को जन्मे इस विशिष्ट कथाकार की देह का अवसान 18 जून, 2012 को दिल्ली के पटेल चेस्ट इंस्टीट्यूट में हो गया. हिन्दी ने एक प्रखर प्रतिभा और आन-बान के धनी साहित्यकार को खो दिया जिसकी क्षतिपूर्ति संभव नहीं है.
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अरुण प्रकाश पर केन्द्रित इस अंक में प्रस्तुत है उन्हें श्रृद्धाजंलि स्वरूप वरिष्ठ आलोचक डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी  का आलेख, वरिष्ठ कथाकार और कवि डॉ. बलराम अग्रवाल का संस्मरण, वरिष्ठ कथाकार सूरज का संस्मरण और अरुण प्रकाश के प्रथम कहानी संग्रह ’भैया एक्सप्रेस’ से उनकी बहुचर्चित कहानी ’कफन-१९८४.  अंक पर आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी.
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२६ जून,२०१२ को हिन्दी के वरिष्ठ लेखक और पत्रकार अमर गोस्वामी हमारे बीच नहीं रहे. उन्हें विनम्र श्रृद्धाजंलि.


प्राण शर्मा जी ने सूचित किया कि यू.के. के वरिष्ठ साहित्यकार गौतम सचदेव का आज सुबह (२९ जून,२०१२) १ बजे हृदयगति रुकने से निधन हो गया. दो दिन पहले ही मेरा उनसे पत्राचार हुआ था. उनके निधन के समाचार से मैं हत्प्रभ हू. वातायन परिवार की ओर से उन्हें हार्दिक श्रृद्धाजंलि.   
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श्रृद्धांजलि


        दिलशाद गार्डन में २४ जून की सुबह अरूण प्रकाश को श्रृद्धांजलि देते साहित्यकार 
चित्र में बाएँ सेमदन कश्यप, कमलेश ओझा, रंजीत वर्मा,हरिनारयण, विश्वनाथ त्रिपाठी, भारतेन्दु मिश्र, रमेश आज़ाद, सुश्री काजल पाण्डेय, श्रीमती मीनू मिश्र, जय कृष्ण सिंह,अशोक गुजराती और बलराम अग्रवाल।

जीवन से भरपूर थे अरुण प्रकाश
डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी

अरुण प्रकश जिजीविषा के प्रतीक थे. उनके न रहने से एक बेहद संभावनाशील लेखक छिन गया है. अरुण प्रकाश की खास बात यह थी कि वह वैज्ञानिक दृष्टि संपन्न थे. उनमें गहरी राजनीतिक और सामाजिक चेतना थी. यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि हिन्दी साहित्य में ऎसी गहरी सामाजिक चेतना वाले लेखक बहुत कम हुए हैं. वह लंबे समय से असाध्य बीमारी से जूझ रहे थे, लेकिन इस दौरान भी उनके साथ मैंने कई लंबी यात्राएं की थीं. बीमारी के दौरान अक्सर ऎसा होता था कि वह एक दिन घर में बिताते थे और तीन दिन अस्पताल में. ऎसे में भी वह जीवन की ऊष्मा से लबरेज थे. दरअसल, उन्हें जीवन से प्रेम था. बेशक बीमारी के दिनों में संघर्ष काफी गहरा गए थे, लेकिन परिवार ने उन्हें संभाले रखा था. यह संतोष की बात है.

पंजाबी के लेखक हैं डॉ. मोहन सिंह, जिन्होंने सबसे पहले मुझे अरुण प्रकाश के बारे में बताया था. उन्होंने मुझसे कहा था कि मैं ’भइया एक्सप्रेस’ कहानी पढ़ूं. मैंने कहानी पढ़ी और यह कहना चाहूंगा कि पंजाब में आतंकवाद के दिनों में वहां बिहारी मजदूरों की हालत पर इसके बराबर की कोई और कहानी याद नहीं पड़ती. यह असाधारण कहानी है. इसके बाद उनकी एक और कहानी ’जलप्रांतर’ का नाम मैं लेना चाहूंगा. बिहार में बाढ़ के संकट पर यह अद्भुत कहानी है. बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदा  तो अपना कहर बरपाती ही है, ऎसी त्रासदियों के समय इनसान के कितने रूप सामने दिखते हैं –अच्छे या बुरे, कहानी में बहुत गहराई से दिखाया गया है. ऎसे समय भी इनसान अपने अंधविश्वास नहीं छोड़ता और अपनी जिद में बर्बाद हो जाता है, या उसे प्राण भी गंवाने पड़ते हैं. यानी रूढ़ियों से मुक्त न होने की उसकी हठ उसे कहीं का नहीं छोड़ती. कहानी में प्राकृतिक आपदा के समय सर्वस्व दिशाहीनता को दर्शाया गया है और यह बहुत गहरे तक असर करती है.

अरुण प्रकाश की कहानियों  में निम्नवर्ग प्रमुखता से सामने आता है. यह एक वर्ग है जिसे कहानी से दूर किया जा रहा है. अरुण प्रकाश के पिता समाजवादी नेता रह चुके थे, लेकिन उन्होंने जीवन में बहुत संघर्ष किया था. शायद यही कारण थे कि निम्नवर्ग के प्रति उनमें गहरी संवेदना थी और वह उसके दुख-दर्दों को अपनी कहानियों में अक्सर बयान करते रहते थे. उनकी एक पुस्तक आयी थी ’गद्य की पहचान’. यह आलोचनात्मक कार्य है, लेकिन बिल्कुल एक रोचक कहानी की तरह इसे पढ़ा जा सकता है.

उनके व्यक्तित्व के कई और रूप भी थे. एक संपादक के तौर पर भी जब वह ’समकालीन भारतीय साहित्य’ से जुड़े थे, तब उन्होंने कथा चयन के चुनाव में अपनी असाधारण पहचान के कई प्रमाण दिए थे. उन्हीं के संपादन में तेलुगू लेखक केशव रेड्डी की कहानी ’भूदेवता’ का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित हुआ था. अपने संपादन में उन्होंने समकालीन भारतीय साहित्य में कई प्रादेशिक कहानियों के अनुवाद प्रकाशित किए. इसके अलावा, उन्होंने ’युग’ आदि टी.वी सीरियलों की पटकथाएं भी लिखीं. इस तरह के लेखन में भी वह बहुत सिद्धहस्त थे.

मुझे अक्सर वह नए कहानीकारों की कहानियों के बारे में बताते थे. एक दिन वह मेरे पास आए और मनोज रूपड़ा की कहानी ’साज़-नासाज’ की तारीफ करने लगे. फिर एक बार रमाकांत श्रीवास्तव की कहानी ’चैंपियन’ की खूबियों पर चर्चा करने लगे थे. मैंने वे कहानियां पढ़ीं और उनसे प्रभावित हुआ. दरअसल, यह सबसे बड़ी पहचान होती है एक सच्चे रचनाकार की कि वह किसी भी नए या पुराने लेखक की कहानी की खुले मन से तारीफ करे---यदि रचना उस लायक है तो—और यह खूबी अरुण प्रकाश के व्यक्तित्व का अंग थी. कहना न होगा कि यह बहुत दुर्लभ गुण है जो किसी-किसी ही व्यक्ति में होता है. आज जब किसी भी रचना की निंदा और स्तुति भी आदान-प्रदान का विषय बन गई है तो ऎसे हालात में साहित्य अरुण प्रकाश जैसे लोगों से ही जिंदा है.

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संस्मरण




थक-हारकर बैठ जाना उनकी प्रकृति में नहीं था
बलराम अग्रवाल

अरुण प्रकाश से मेरा परिचय 2004 में हुआ था। मैंने उनके आवास पर आने की अनुमति माँगने के लिए एक दिन उन्हें फोन किया था। मुझे वह नहीं जानते, ऐसा मेरा मानना था और यह भी कि बहुत सम्भव है कि मेरा नाम भी मेरे बताने पर उन्होंने तभी सुना हो जब पहली बार फोन पर मैंने उन्हें बताया था; लेकिन मेरी धारणा को ध्वस्त करते-से वह बोले थे—“आपकी लघुकथाएँ कभी-कभार पढ़ता रहता हूँ। मेरे घर आने के लिए आपको अनुमति लेने की जरूरत नहीं है बलराम जी, आप नि:संकोच आइए।
अनुमति की जरूरत दरअसल यह जानने के लिए भी है कि मैं किस दिन और किस समय आऊँ ताकि आपको असुविधा न हो। मैं बोला। यह कहते हुए मुझे यह आश्चर्य भी होता रहा कि अधिकांशत: लम्बी कहानियाँ लिखने वाला यह व्यक्ति छोटे आकार की कथा-रचनाएँ भी न केवल पढ़ता है बल्कि उनके रचनाकारों के नाम से भी परिचित है।
मैं इन दिनों घर पर ही रहता हूँ। उन्होंने कहा था,फिर भी, आने से पहले फोन कर लोगे तो आपको भी असुविधा नहीं होगी।
आज ही आ जाऊँ? मैंने पूछा।
किस समय आओगे? उन्होंने पूछा।
दोपहर बाद।
आ जाओ।
उसी दिन मैं दिलशाद गार्डन स्थित उनके आवास पर पहुँच गया था। कॉल बेल की आवाज़ सुनकर दरवाज़ा उनकी पत्नी ने खोला था या किसी बच्चे ने, याद नहीं। दरवाज़ा खोलकर एक कामचलाऊ खूबसूरत पार्टीशन के पीछे मुझे उनके कमरे की ओर भेज दिया गया था। उस समय अपने कमरे में बैठे वह किसी उपन्यास की समीक्षा लिखने में व्यस्त थे। कमरे में बहुत खुलापन नहीं था। बैठने की जगह तक मुझे जाने का रास्ता देने के लिए उन्हें अपनी जगह से खड़े होना पड़ा था शायद। खड़े होकर पूरी आत्मीयता से उन्होंने मेरा स्वागत किया, जल लाने के लिए आवाज़ दी और मुझसे कहा—“आइए, कैसे हैं?
पहली ही मुलाकत में ऐसी अनौपचारिकता! स्पष्ट था कि वे सम्बन्धों में मिठास के पक्षधर अधिक थे, गणितीय गुणा-भाग के कम; जबकि आज के फ्रीलांसर्स में इसका उलट देखने को मिलता है। जवाब में मैंने अच्छा हूँ कहा और अपने कथा-संग्रह चन्ना चरनदास की एक प्रति उनकी ओर बढ़ाकर बोला,अपना नया कथा-संग्रह आपको भेंट करने के लिए आया हूँ।
यह निश्चित रूप से पुस्तक के प्रति उनके सम्मान का द्योतक था कि मेरे हाथ से चन्ना चरनदास को लेते ही उन्होंने अपने माथे से लगाया जैसाकि बचपन में हमारे अध्यापकों और माता-पिता ने हमें सिखाया था। मैं किंचित चौंका। पुस्तक को ऐसा सम्मान तो स्वयं मैंने भी प्रकाशक के हाथ से उसकी प्रति प्राप्त करते हुए नहीं दिया था।
इस बीच मेरे लिए पानीभरा गिलास आ गया था। लाने वाले से उन्होंने तुरन्त ही कहा था,एक-एक कप चाय और ले आना।
मैं पुन: चौंका। मुझ नवागन्तुक से वे कुछ पूछ ही नहीं रहे थे। आम तौर पर, जल लेंगे?, गरम लेंगे या ठंडा? जैसे औपचारिक सवाल तो आगन्तुक से हर व्यक्ति करता ही है। अरुण प्रकाश ने ऐसा कुछ नहीं किया। उन्होंने परिवारवालों को सीधे आदेश दिया। मुझे यह कहने का कि भाईसाहब, रहने दीजिए, मैं चाय नहीं पीता अवसर ही नहीं दिया; और न यह कि चाय नहीं, ठंडा ठीक रहेगा। सीधी बात थी कि घर में जो आसानी से उपलब्ध हैंजल और चायये दो ही आपको स्वीकारने होंगे। दूसरी बात यह कि उन्होंने एक कप नहीं, एक-एक कप कहा था जबकि उनके पास पहले ही रखे कप में कुछ चाय अभी भी बाकी थी! इस बात के भी दो मतलब थेपहला यह कि हो सकता है, वे लिखते समय लगातार चाय पीते रहने के शौकीन रहे हों जैसे कि डॉ॰ विनय को लिखने की मेज़ पर मैंने लाइट पैग़ रखकर बैठते देखा था और दूसरी यह कि मैं तो आपके सामने यह पी ही रहा हूँ कहकर अकेले आगन्तुक को चायपान की ओर ठेल देने की टालू औपचारिकता से ऊपर वे उसका साथ निभाने के पक्षधर रहे हों।





बलराम अग्रवाल

उस दिन हमारे बीच बहुत-सी बातें हुईं। यह अलग बात थी कि उनमें अधिकतर बातें उनकी ओर से आईं, मेरी ओर से केवल हाँ हूँ होता रहा। समीक्षा लिखने के अपने तरीके को स्पष्ट करते हुए उन्होंने बताया था कि—“किसी भी पुस्तक की समीक्षा/आलोचना उसे आधी-अधूरी या कहीं-कहीं से पढ़कर कभी मत करो। इससे उसके प्रति आप न्याय नहीं कर पाएँगे। दूसरे, आलोचना की भाषा में कम से कम एक शब्द ऐसा ज़रूर डालो जो प्रचलित शब्दों से किंचित अलग हो और पढ़ने वाले उसके अर्थ तलाशने के लिए शब्दकोशों में डुबकियाँ लगाने को विवश हो जाएँ। मैं आज भी नहीं जानता कि वे किस तरह ऐसे शब्दों का प्रयोग आलोचना की अपनी भाषा में करते थे। बहरहाल, आलोचना लिखने के और-भी अनेक गुर वे बताते थे।
अरुण प्रकाश ने होटल प्रबंधन की शिक्षा प्राप्त की थी और बरौनी फर्टिलाइज़र कार्पोरेशन में गेस्ट हाउस के मैनेजर हो गए थे। वहीं पर उन्हें रहने के लिए आवास मिला हुआ था। अच्छा-खासा जीवन था। उनके पिता राज्यसभा के सांसद हुए थे लेकिन बहुत कम समय में ही उनका निधन अथवा हत्या हो गई थी। शुरु में अरुण जी कविताएँ लिखा करते थे और उनकी पहली प्रकाशित पुस्तक भी कविता संग्रह ही थी—‘रक्त के बारे में। यों कहानियाँ लिखना भी उन्होंने बरौनी में रहते हुए ही शुरू कर दिया था। बेला एक्का लौट रही है या कफन 1984 जैसी कहानियाँ काफी चर्चित हो चुकी थीं। उनकी कहानी जल प्रांतर भी सम्भवत: उन्हीं दिनों आ गई थी। बरौनी में रहते हुए ही उन्होंने हिन्दी अधिकारी की विभागीय अंतरिम परीक्षा दी और उत्तीर्ण होकर बरौनी से दिल्ली आ गए। यहाँ आकर उन्होंने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली। सेवानिवृत्ति के बाद वे कमलेश्वर के साथ जुड़ गए और लगभग हर उस जगह रहे जहाँ कमलेश्वर गए। उनके अतिरिक्त जागरण,राष्ट्रीय सहारा आदि पत्रों से भी अरुण प्रकाश जुड़े। जीविका के लिए उन्होंने अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद, फिल्मों और टेलीविज़न धारावाहिकों का स्क्रिप्ट लेखन, विदेशी फिल्मों की हिन्दी सब-टाइटिलिंग आदि अनेक कार्य किए। उनके साहित्यिक जीवन का अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य सम्भवत: साहित्य अकादमी, नई दिल्ली की हिन्दी पत्रिका समकालीन भारतीय साहित्य का संपादक बनना था जिसे अपनी रुग्णावस्था के चलते भी उन्होंने पूरी निष्ठा, दायित्व, कुशलता और श्रम के साथ निभाया।
तनावग्रस्त व्यक्ति को या तो एकदम गुमसुम देखा जाता है या फिर निरर्थक रूप से वाचाल। गुमसुम व्यक्ति को देखते ही आप पूछते हैंकिस सोच में हैं?  और निरर्थक रूप से वाचाल व्यक्ति को अक्सर अनदेखा, नज़रअन्दाज़ कर देते हैं। लेकिन रचनाशील व्यक्ति जब तनावग्रस्त होता है तब उसकी चुप्पी में भी रचनाशीलता होती है और वाचालता में भी। त्रिलोचन शास्त्री के बाद अरुण प्रकाश दूसरे रचनाकार थे जिनकी वाचालता में मुझे तनाव की गहरी छाया महसूस होती थी। हालाँकि त्रिलोचन जी की वाचालता जितनी रोचक अरुण जी  की वाचालता नहीं होती थी तथापि जीवन से जुड़े अनेक ग्लोरियस प्रसंग वे गढ़ लेते थे। वस्तुत: लेखन और पत्रकारिता में अपनी जिस तीक्ष्णता को सिद्ध करने की दृष्टि से उन्होंने सेवानिवृत्ति ली थी, वह तीक्ष्णता सिद्ध करने का भरपूर मौका कभी वे पा नहीं सके और इस असफलता ने उन्हें क्षोभ से भर दिया था। लेकिन इस क्षोभ को कभी भी उन्होंने हताशा में नहीं बदलने दिया, रचनात्मक बनाए रखने का भरपूर प्रयास किया। वे सिगरेट भी शायद बहुत पीते थे और जैसा कि उनके कुछेक मित्रों से मैंने सुना अस्थमा से पीड़ित रहने के बावजूद भी उन्होंने सिगरेट पीना कम नहीं किया था। उनके इस कृत्य को भी मैं तज्जनित तनाव से ही जोड़कर देखता हूँ।
उनकी विनोदी प्रकृति का जिक्र इस बीच किसी ने किया हो, याद नहीं; लेकिन स्वस्थ विनोद उनके स्वभाव में था। एक दिन जब मैं उनसे मिलने गया तो बातचीत के दौरान बोले—“बलराम, आपने कछुए और खरगोश की कहानी पढ़ी है?
बचपन में पढ़ी थी। मैंने कहा।
यही तो। वे बोले, पाठ्यक्रम तैयार करने वालों को अक्ल ही नहीं है कि उस कहानी का मैसेज बच्चों के लिए तो है ही नहीं, जवानों के लिए है।
मैसेज तो साफ है… मैं बोला।
जो मैसेज साफ है वह आपमें फीड किया गया है, आपका शोधा हुआ नहीं है। वे बोले।
शोधा हुआ क्या है? मैंने पूछा।
अरे सीधी-सादी सेक्स की कहानी है यह। वे बोले, जो तेज़ दौड़ेगा, वो साला बीच में ही टाँय-टाँय फिस् हो जाएगा। सो जाएगा थक-हारकर। मुकाम तक पहुँचना है तो धीरे-धीरे चलो…कछुए की तरह… यह कहकर उन्होंने चमकभरी आँखों से मुस्कराते हुए मुझे देखा। बोले, इसे कहते हैं शोध…आलोचक की समझ…किसी साले को अक्ल ही नहीं है कि…
अरुण प्रकाश जी के अधिकतर मित्रों-परिचितों का मानना है कि वे स्वास्थ्य के प्रति कम, कार्य के प्रति अधिक जिम्मेदार थे। रुग्णता के दिनों में भी वे लगातार लेखन कार्य करते रहे, आक्सीजन मास्क हटाकर बोलते-बतियाते रहे। मेरा मानना है कि रुग्णता की गंभीरता में भी काम में लगे रहना उनकी जिजीविषा थी। अपनी दबंग प्रकृति और स्पष्ट दृष्टि के कारण उन्होंने मित्रों के बीच ही अमित्रों का निर्माण कर लिया था। इस संबंध में मुझे एक वाकया याद है। नई दिल्ली स्थित गाँधी शांति प्रतिष्ठान में कथाकार रूपसिंह चंदेल के उपन्यास पाथर टीला के लोकार्पण और उस पर चर्चा का अवसर था। अनेक विचारकों ने उक्त उपन्यास की कथावस्तु, शिल्प, शैली आदि पर अपने विचार रखे। मैत्रेयी पुष्पा ने अपने वक्तव्य में कहा कि—“ पाथर टीला के लेखक को भारतीय गाँवों की जानकारी नहीं है। इस उपन्यास में वर्णित गाँव काल्पनिक है। मुझे नहीं पता कि अरुण प्रकाश का नाम उस अवसर पर वक्ताओं की सूची में था या नहीं, लेकिन वे मंच पर गए और मैत्रेयी पुष्पा के बयान को कड़ाई के साथ नकारते हुए उन्होंने कहा कि—“हिन्दी के अधिकतर आलोचक गाँव के वास्तविक जीवन, उसके रहन-सहन और राजनीति के बारे में भ्रम का शिकार हैं। उन्होंने वस्तुत: गाँव देखे नहीं, केवल पढ़े हैं, वह भी प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यासों में वर्णित गाँव। इसीलिए जब प्रेमचंद से इतर कोई गाँव उन्हें किसी कहानी या उपन्यास में पढ़ने को मिल जाता है तो वह उन्हें अविश्वसनीय लगता है। स्पष्ट है कि मैत्रेयी के बयान का विरोध उस समय मंचस्थ राजेन्द्र यादव को भी अवश्य ही नागवर गुजरा होगा जिनके अनुमोदन पर मैत्रेयी का नाम वक्ताओं की सूची में जोड़ा गया था। अभिव्यक्ति के मामले में अपनी इस दबंगई के चलते ही वे मुकाम-दर-मुकाम कमलेश्वर सरीखे साथियों और हितैषियों द्वारा भी अलगाए जाते रहे। आज का समय स्वस्थ आलोचना का इसलिए रह ही नहीं गया है, परन्तु उन्होंने अपने हितों की चिन्ता न करके आलोचना के स्वास्थ्य को ध्यान में रखा। उन्होंने दैहिक रूप से मरना स्वीकार किया लेकिन अपने ज़मीर को मरने देना तो अलग, कभी झुकने तक नहीं दिया।
मुझे लगता है कि स्वस्थ रहते हुए जिस मुकाम को अरुण प्रकाश न पा सके, उसे अस्वस्थ होने के कारण बीच में छोड़ देना वे नहीं चाहते थे। विपरीत परिस्थितियों से समझौता कर लेना और थक-हारकर बैठ जाना उनकी प्रकृति में नहीं था। 

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संपर्क : एम-70, उल्धनपुर, दिगम्बर जैन मन्दिर के सामने,
नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032
ई-मेल : 2611ableram@gmail.com

संस्मरण













मेरे लिए अरुण जी
  
सूरजप्रकाश

अरुण जी से मेरी गिनी-चुनी मुलाकातें ही थीं। मुंबई में 1997 में किसी कार्यक्रम में हम पहली बार मिले थे। उन्‍होंने अपना और अपने साथ खड़े वसु मालवीय का परिचय खुद ही दिया था। मैं उनकी कहानियों का मुरीद था। मेरा खुद का लेखन तब शुरुआती ही था लेकिन मैं हैरान हुआ जान कर कि वे मुझे पढ़ चुके थे।

वे उन दिनों मुंबई में कमलेश्‍वर जी की टीम में शायद चंद्रकांता सीरियल के लिए लेखन कर रहे थे। पहली मुलाकात के बाद उनसे अक्‍सर फोन पर बात हो जाती। मौका निकाल कर मैं भी उनसे मिलने गोरेगांव चला जाता और ढेर सारी बातें होतीं। वे बहुत अच्‍छे श्रोता और वक्‍ता थे। किस्‍सों का भंडार रहता था उनके पास। जब भी उनके पास जाता, वे हाथ का काम एक तरफ रख देते और खूब बातें करते। दो-एक बार वे सांताक्रूज के हमारे घर भी आये और पूरी शाम हमारे साथ बितायी।

तभी एक हादसा हुआ था और उसकी खबर मुझे उनसे ही मिली थी। वसु कमलेश्‍वर जी की लेखन टीम में ज्‍याइन करने परिवार के साथ आ रहा था कि रास्‍ते में ही ऑटो रिक्‍शा उलट जाने के कारण अपने ठीये पर पहुंचने से पहले ही उसकी अकाल मृत्‍यु हो गयी थी। अगले दिन वसु के शव को और उसकी पत्‍नी को इलाहाबाद भिजवाने का दायित्‍व अरुण जी ने ही निभाया था। बेशक इसमें कमलेश्‍वर जी के रसूख का भी हाथ था।

मेरा पहले व्‍यंग्‍य संग्रह ’ज़रा संभल के चल” के लिए रचनाएं उन्‍होंने ही चुनी थीं और वह किताब ’यात्री प्रकाश” से उन्‍हीं के कहने पर छपी थी।

बाद में दिल्‍ली में उनसे कई मुलाकातें हुईं। साहित्‍य  अकादमी में, उनके घर पर या किसी कार्यक्रम में। मैंने हमेशा उन्‍हें उतना ही आत्‍मीय, मिलनसार, सामने वाले को भी हमेशा बराबरी पर समझने वाला पाया। वे अपनी कहानियों पर कम ही बात करते और किस्‍से सुनाने में ही उनका मन रमता था। कुछ किस्‍से तो हम हंस पत्रिका में आये उनके आत्‍मकथ्‍य के ज़रिये जान ही चुके थे लेकिन उनके सुनाने का अंदाज़ निराला ही होता था और इससे किस्‍से का मज़ा और ही बढ़ जाता था।
रूपसिंह चन्देल और सूरज प्रकाश

एक बार बता रहे थे कि किसी सरकारी नौकरी में चयन हो जाने के बावजूद उन्‍हें इस कारण नहीं लिया गया था कि उनके पैर में तकलीफ थी और वे सामान्‍य रूप से चल नहीं पाते थे। मुझे नहीं पता कि लंगड़ा कर चलने के पीछे क्‍या वज़ह रही होगी, पूछने का मतलब नहीं था। तब वे अपने मामले को ले कर राष्‍ट्रपति तक गये थे। अगर मैं गलत नहीं हूं तो सरकारी नौकरियों में शारीरिक रूप से विकलांग व्यक्तियों के लिए कुछ प्रतिशत पद रखने की शुरूआत के पीछे राष्‍ट्रपति महोदय से उनकी इसी मुलाकात का हाथ था। जब राष्ट्रपति के सचिव ने पूछा कि राष्ट्र्पति को आपसे क्यों मिलना चाहिये तो अरुण जी का जवाब था - क्योंकि वे देश के प्रथम नागरिक हैं और मैं देश का आम नागरिक हूं। इसी बात पर उन्हें राष्ट्रपति से मुलाकात की अनुमति मिल गयी थी। वे मिले थे और अपनी बात रखी थी।

पता नहीं वह सरकारी नौकरी उन्‍हें मिली या नहीं या मिलने पर भी उन्‍होंने की या नहीं, लेकिन एक नयी सोच का रास्‍ता उन्‍होंने जरूर खोला था कि शारीरिक रूप से विकलांग व्‍यक्ति को भी सरकारी नौकरी पाने का हक है और दूसरी बात कि अगर आपकी बात में दम है तो आपको अपना मुद्दा ले कर राष्‍ट्रपति तक भी जाना चाहिये।

ये बात सब जानते ही हैं कि वे अपने लेखन को ले कर भी कितने खुद्दार थे। एक बार हंस से उनकी कहानी राजेन्द्र यादव जी ने यह कह कर लौटा दी थी कि कहानी का शीर्षक बदल दो तो हम कहानी छापेंगे तो अरुण जी ने जवाब दिया था कि मैं कहानी का शीर्षक बदलने के बजाये अपनी कहानी के लिए संपादक बदलना पसंद करूंगा। और वह कहानी उन्होंने हंस से ले कर कहीं और छपवायी थी।

अब याद नहीं आ रहा कि ये किस्‍सा उन्‍होंने खुद बताया था या मैंने कहीं पढ़ा था। हो सकता है, मेरी याददाश्‍त इस समय पूरी तरह मेरा साथ न दे रही हो।

होटलों में काम करने वाले वेटरों, किचन स्‍टाफ और फ्रंट स्‍टाफ के काम काज को ले कर उनकी एक लम्‍बी और महत्‍वपूर्ण कहानी है जिसका नाम मैं भूल रहा हूं।

अब ये भी याद नहीं कि इस कहानी को लि‍खने के मसकद से वे उन दिनों होटल की नौकरी कर रहे थे या होटल की नौकरी करने के कारण इस कहानी का जनम हुआ था। अभी कोई बता रहा था कि वे उन दिनों होटल मैनेजमैंट का कोई कोर्स कर रहे थे इसलिए होटल से जुड़े हुए थे।

तो किस्‍सा ये बताया जाता है कि उनके वाले होटल में अज्ञेय जी और इला जी खाना खाने आये। अरुण जी की ड्यूटी उसी मेज पर थी। निश्चित रूप से अज्ञेय जी ने अरुण जी को और अरुण जी ने अज्ञेय जी को पहचान लिया होगा लेकिन एक मर्यादा होती है हर संबंध की, स्‍थान और परिवेश की, जिसका पालन दोनों ही कर रहे थे और मौजूदा परिस्थिति में अपनी-अपनी हैसियत और जरूरत के हिसाब से व्‍यवहार कर रहे थे। खाने के दौरान अज्ञेय जी ने इला जी को अरुण प्रकाश के कहानीकार होने के बारे में बताया होगा।

बिल अदायगी के समय इला जी ने एक मोटी रकम अरुण जी के लिए टिप के रूप में छोड़नी चाही लेकिन अज्ञेय जी ने साफ मना कर दिया – आप उसे टिप दे कर उसे सचमुच का वेटर मत बनाइये। मर्यादा इसी में है कि उसका मान रखने के लिए कोई टिप न छोड़ी जाये। न कम न ज्‍यादा।

उनसे जुड़ी तमाम बातें याद आ रही हैं। उनके लेखन,  आत्‍मीय व्यवहार, बेलौस जीवन, खूब काम करने का माद्दा, और संबंधों में एक अलग ही तरह का अपनापन, एक कशिश रहा करती थी और उनसे मिलने के बाद उनसे घंटों बतियाया जा सकता था। वे हमें कहीं भी छोटा महसूस नहीं होने देते थे। हमें यही तसल्ली है कि अरुण जी ने एक जुझारू, खांटी और ईमानदार लेखक का जीवन जीया। एक हाड़-तोड़ मज़दूर की तरह अपने काम में पूरी निष्ठा से लगे रहे और एक शानदार लेखकीय जीवन की मिसाल छोड़ गये।

अपनी कहानियों के लिए उन्‍होंने जो विषय उठाये हैं, चाहे वह बेला एक्‍का लौट रही है, जल प्रांतर, भैया एक्‍सप्रेस हो, भासा हो, सारी की सारी कहानियां उनकी मैच्‍योर सोच और अपने वक्‍त, समाज और समाज की विसंगतियों के प्रति उनके सरोकारों की कहानी ही कहती हैं।

हमारी विनम्र स्मृति।

सूरज प्रकाश
mail@surajprakash.com
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कहानी


कहानी से पहले…

कहानी विधा में स्वाभाविक बने रहने की अंतर्निहित क्षमता है. जर्मन कवि-नाटककार ब्रेख्त ने एक बात जोड़ी थी कि जो स्वाभाविक होता है उसमें चमत्कारिक होने की शक्ति भी जरूर होनी चाहिए.

सारी मुश्किल यहीं पर आती है कि यथार्थ को कैसे स्वाभाविक बनाए रखा जाए और वह चमत्कारिक भी हो.

बहरहाल, ऎसी ही मुश्किल कोशिशों का नतीजा है यह मेरा पहला कथा-संकलन ! मेरी पहली प्रकाशित कहानी ’छाला’ भी इसमें है जो बीस वर्ष पूर्व ’कहानीकार’ में छपी थी. शुरुआती दौर का अनगढ़पन संकलन में दिखेगा ही.

इस संकलन के प्रकाशन में कमलेश्वरजी ने प्रोत्साहित किया, मैं उनका हृदय से आभारी हूं.

अरुण प्रकाश

कहानी
कफन – १९८४
अरुण प्रकाश



करीब पैतालीस साल पहले महान प्रेमचन्द ने ’कफन’ कहानी लिखी थी.मैं वही कहानी पढ़ रहा हूं. लगता है, प्रेमचंद मेरे  गांव के ही थे. कहानी पढ़ते वक्त मेरे गांव के सजीव पात्र मेरी चेतना में घूमते लगते हैं. कभी ’कफन’ के पात्र, कभी मेरे मुहल्ले के लोग. सब कुछ गड्डमड्ड हो जाता है. इन सबको लेकर अगर कहानी लिखूं तो कहानी बेनगी? चूं-चूं का मुरब्बा भले बन जाये !

कहानी के लिए शास्त्रीय ढंग से सशक्त कथानक, चरित्र, क्लाइमेक्स सब सोचना पड़ता है. क्योंकि जीवन में ऎसे संयोग कम ही आते हैं कि किसी घटना में सशक्त कथानक, चमकदार चरित्र और विस्मयकारी क्लाईमेक्स हो. अक्सर कहानी में ये सब कल्पना से जोड़े जाते हैं. प्रेमचंद बिना पैंबद लगाए ही सहज सजीव जीवन सामने रख देते थे. प्रेमचंद की कहानी ’कफन’ के १९८४ के संस्करण के असली पात्रों को अपनी शास्त्रीय और शाश्वत कला से नकली मेकअप क्यों दूं? वह तो प्रेमचंद की सिद्धहस्तता से ही खिंच जाएगी. प्रेमचंद ने लिखा : “सब कुछ आ जाएगा, भवान दे तो. जो लोग अभी तक एक पैसा नहीं दे रहे हैं, वही कल बुलाकर रुपए देंगे….”

सवेरे माधव ने कोठरी में जाकर देखा तो उसकी स्त्री ठंडी हो गयी थी. उसके मुंह पर मक्खियां भिनक रही थीं. पथराई हुई आंखें ऊपर टंगी थीं. सारी देह धूल से लथपथ हो रही थी. उसके पेट में बच्चा मर गया था.

बुधुवा की लाश को रामजी ने वालूघर में जाकर देखा. वहां कई मुर्दे कतार में पड़े थे. सबके ऊपर सफेद चादर डाली हुई थी. होली अस्पताल का डोम बहुत विनती करने के बाद, दो रुपये लेने के बाद ही लाश देखने को राजी हुआ था. गैरकानूनी काम जो ठहरा. आखिर मरीज इलाज का खर्च बिना चुकाये जो मर गया था. होली अस्पताल के डॉक्टर थॉमस अस्पताल के कानून से बंधे थे. कानून ट्रस्ट के पास कैद था और ट्रस्ट फादर जौनसन के सफेद लिबास से प्रेरणा लेता था. ईश्वर भी चाहता है कि आदमी ईमानदार हो, वह मरे भी तो पहले ईश्वर के सारे कर्ज चुका दे.

बुधुआ की आंखें बंद थीं. शरीर अकड़ गया था. दस घंटे पहले मरा. खबर पाते ही बूढ़ा रामजी भागा आया था. पहले  भी कई बार कर्जे ले लेकर वह बुधुआ, अपने एक्मात्र बेटे, को देखने आया था. हर बार डॉक्टर थॉमस बोलता, “बाबा, जॉन्डिस की बीमारी ठीक होने में थोड़ा टाइम लगेगा. तुम क्यों बेटा का नाम अस्पताल से कटाने को मांगता है ?”

रामजी क्या बोले? डॉक्टर को क्या पता कि बुधुआ की बीमारी ने घर की कमर ही तोड़ दी थी. गाय का दूध बेचने से परिवार कैसे चलता है, वही जानता था. दर्द से तिरछी कमर और उस पर आंखों से नजदीक की चीज दिखायी नहीं पड़ती, फिर भी उसे घास छीलनी पड़ती. दो-तीन बार खुरपे से अपनी अंगुलियां काट चुका है. तिस पर पांच खाने वाले. बुढि़या किसी काम की नहीं—बस, कमर सेंकती रहेगी. बहू काम ही नहीं करेगी. दो जुड़वा पोते. अगर बहू भी घर से बाहर निकल कमाती तो कुछ सहारा हो जाता. पर स्वाभिमानी बेटे ने उसे कभी घर से बाहर काम करने ही नहीं दिया. खुद उसने मालिकों के यहां हलवाही नहीं की. कहता , कौन बेगारी में फंसे, रिक्शा उससे लाख बेहतर ! सब दिन तो मालिक लोगों की नजर में चढ़ा रहा, फिर रामजी किससे कर्जा लेता ? मुखियाजी की बहू से दो सौ, हेडमास्टर साहब से दो सौ कर्ज पहले से है. तिस पर बुधुआ सब की नजर में चढ़ा था. कौन देता? कर्जे के नाम पर सब दुत्कारते. अब---किससे मांगेगा रामजी ? बुधुआ की लाश कैसे मिलेगी ?

“सात सौ रुपये कौन देगा?” हेडमास्टर साहब ने यहां जमा लोगों को ललकारा, “आप लोग देंगे ! गांव की लाश क्रिश्चियनों के यहां रह जाये, यह शर्म की बात है. निकालिए अपने-अपने घरों से दस-बीस रुपये और चलिए दस लोग अस्पताल. हम लोग लाश ले आयेंगे, क्यों मुखियाजी ?”

देखते-देखते आठ सौ चौवालीस रुपये जमा हो गये.

किसी ने पूछ लिया, “हेडमास्टर साहब और मुखिया जी ने कितना दिया ?”

मुख्याजी बरस पड़े, “हम लोगों ने दो-चार रुपये नहीं दिये हैं, हां. चार सौ रुपया मूल, दस रुपया सैकड़ा की दर से तीन महीने का सूद एक सौ बीस. कुल पांच सौ बीस रुपया इलाज के नाम पर रामजी को माफ कर दिया .”

“जब जमींदार साहब ने दो रुपये दिए तो गांव के बनिये-महाजन को इंकार कैसे होता? घीसू जमींदार के नाम ढिंढोरा पीटना जानता था. किसी ने दो आने दिये, किसी ने चार आने---

लेकिन शिवजी के पास देने को पैसा नहीं था. अभी उसके पास कुछ होता तो बुधुआ के लिए---पढ़ी-लिखी बेकारी में वह नौकरी ढूंढ़ता रहा. पर बुधुआ भाले की तरह सीधा था. कमाने लायक हुआ तो सीधा रिक्शा चलाने लगा. जॉन्डिस का प्रकोप पूरे इलाके में चील की तरह मंडरा रहा था. संसद में जॉन्डिस से मरने वालों के आंकड़े पर बहस चल रही थी. विशेषज्ञों-डॉक्टरों का दल गरम पानी पीने की नसीहतें देता घूम रहा था. स्थानीय डॉक्टरों की चांदी थी. भुखमरी, कुपोषण और दूषित जल की संपूर्ण व्यवस्था पूर्ववत थी. बुधुआ को भी जॉन्डिस हुआ. शिवजी ने उसे ठीक से दवा-दारू कराने की राय दी थी और कहा था कि हो सके तो कुछ दिन रिक्शा चलाना छोड़ दे;  लेकिन बुधुआ क्या करता ! घर का भोजन उसी की मजदूरी से चलता था. गाय भी तो नहीं ब्यायी थी जो दूध बेचकर वह घर का खर्च चलाता और इलाज भी करवाता. कुछ दिनों तक उसने रिक्शा चलाना छोड़ा भी पर घर की किल्लतों ने उसे मजबूर कर रिक्शे का हैंडल पकड़ा दिया.  फिर शुरू हो गयी सवारियों से भाड़े को लेकर झिक-झिक, धूप, पसीना, बैंक की किश्तों के तकादे. वह फिर बिस्तर पर गिरा.
शिवजी बुधुआ से मिलने पहुंचा तो बुधुआ फिस्स से हंस पड़ा, “तुम्हारा बाल-बच्चा है नहीं. बस नौकरी ढूंढ़ो. हम कमायेंगे नहीं तो परिवार कैसे चलेगा.  इ बीमारी-ऊमारी तो रहती ही है---और क्या हालचाल है ?”

बुधुआ का लीवर रोटी की तरह फूल गया था. वह बिस्तर से उठ नहीं सका. आखिरी समय में बाप ने कर्ज लेकर उसे होली फैमिली अस्पताल में भरती करवा दिया. बेकार.

अस्पताल के डॉ. थॉमस पर गांव के बबुआनों की बातों का असर नहीं हुआ. सात सौ इक्कीस रुपये जमा करने पर ही लाश मिल सकती थी. शिवजी से अस्पताल के एक कर्मचारी ने चुपके से बताया  कि फादर जॉनसन से मिलने पर कुछ हो सकता है.

छाती पर क्रॉस बनाते हुए फादर ने शिवजी से कहा, “हम ईसू से तुम्हारा वास्ते प्रेयर करेगा. वह डॉक्टर थॉमस को अच्छा अक्ल देगा. तुम डॉक्टर थॉमस के पास जाओ.”

शिवजी को देखते ही डॉक्टर थॉमस बोल उठा, “ईसू सबकी मदद करता है---तुम बहुत गरीब आदमी है. हम बोल दिया है---तुम डैड बॉडी ले जा सकता है.”

कमरे से बाहर आते ही शिवजी उस दुख में मुस्करा उठा ---फादर  जॉन्सन का टेलीफोन ! नहीं, ईसू का टेलीफोन !

---और दोपहर को घीसू और माधव बाजार से कफन लाने चले गये. इधर लोग बांस-वांस काटने लगे---

लाश लेकर सब गाड़ी से उतरे तो मुखियाजी ने कहा, “आप लोग लाश लेकर चलिए, मैं रामजी के साथ कफन खरीदने जाता हूं. आप लोग जब तक काठ-बांस का इंतजाम कर लीजिएगा.”

बीस गज कफन, गाय का घी, धूप की लकड़ी, अगरबत्ती आदि लेकर मुखियाजी लौट रहे थे. रास्ते में रामजी से बोले, “क्या मंहगाई का जमाना आ गया है. एक सौ इकतालीस रुपये लग गये. अब तो मरना भी सस्ता नहीं रहा.” गांव आकर पता चला कि लकड़ी भी खरीदनी होगी. सिर्फ बांस का इंतजाम हो सका है. कम-से-कम दस-ग्यारह मन लकड़ी तो लगेगी ही. एक सौ चौवन रुपये की लकड़ी आ गयी. श्मशान घाट पर कुछ रुपये पंडित को दिये गये. बुधुआ की लाश फूंकने में इस तरह तीन-सौ तेईस रुपये खर्च हुए. गांव की इज्जत रह गयी, ऊपर से मुखियाजी के पास पांच सौ इक्कीस रुपये बच गये.

बुधुआ की पत्नी दोनों बच्चों को चिपकाये सूनी आंखों से अंधेरे में देख रही थी. मां दरवाजे के पास लोहा-पत्थर लेकर रामजी के लौटने का इंतजार कर रही थी. आते ही रामजी के हाथ-पैर धोये. बुधुआ की प्रेतात्मा घर में न घुसे, इसलिए लोहा-पत्थर को छूकर ही रामजी घर में घुसा. बुधुआ की मां और पत्नी फुक्का मारकर रोने लगीं. दोनों बच्चे डरे कबूतर की तरह मां से सटे रहे. दोनों आखिर कब तक रोतीं. बुधुआ की मां मिट्टी के नये बरतन में भात पकाने में जुट गयी.

अपने आगे दूध-भात परोसे देखकर रामजी विस्मय से पूछ बैठा, “चावल कहां से लायी ?---जब वह जिंदा था, तो चावल नसीब नहीं---आज--.” उसकी आवाज भर्रा गयी.

“अब धरम-करम थोड़े छोड़ा जाता है.----शिवजी की मां से मांग लायी.” बुधुआ की मां समझाते हुए बोली.

रामजी बिफर उठा, “कैसा धरम-करम ? जब बेटा ही नहीं रहा---फिर अरवा चावल खाने के लिए पैसा भी तो हो…”

“बाबू जी, अब जैसे भी हो---चंदा भी तो हुआ है…” बुधुआ की पत्नी जमान कुरेदती बोली.

रामजी नदी किनारे से बुधुआ की आत्मा की शांति के लिए तर्पण कर लौट रहा था. तभी उसे याद आया, क्यों न मुखियाजी से चंदे की बची रकम ले ली जाये. वह मुखियाजी के घर की तरफ मुड़ गया.

मुखियाजी के दालान पर हेडमास्टर साहब के अलावा कई लोग बैठे थे. शिवजी भी था. ब्लाक प्रमुख के चुनाव पर लोग बातें कर रहे थे.

रामजी पर नजर पड़ते ही मुखियाजी ने संभलकर कहा, “आओ रामजी---बस, अब तो संतोष से काम लेना पड़ेगा. आखिर गांव-समाज ही काम आया ! बुधुआ को कहते थे, हलवाही करो, तो टन्न से जवाब देता था ---’मालिक, इससे पेट नहीं भरेगा.”
सकुचाते हुए रामजी ने कहा, “मालिक, अब तो बुधुआ ही नहीं है---किसी तरह उसका क्रिया-कर्म हो जाये---“

मुखियाजी रामजी का पैसा मांगने का इरादा भांपते बोले, “गांव के लोगों ने लाश उठवा दी. अब चाहते हो श्राद्ध भी हमीं करवा दें ? अरे, गाय है ही, बेचकर श्राद्ध कर दो.”

रामजी गाय बेचना सुनकर सिहर उठा. एक उसी का तो आसरा है. आंसू सहेजता रामजी बोला, “गाय का ही आसरा है, कैसे बेचें---चंदा वाले पैसे से श्राद्ध किसी तरह हो जायेगा.”

मुखियाजी भभक उठे, “हेडमास्टर साहब, सुनते हैं इसकी बात ? गांव वालों ने चंदा लाश उठवाने के लिए दिया था, सो लाश तुमको मिल गयी. श्राद्ध की बात कहां थी और अब पैसा बचा कहां है? कफन, लकड़ी, पंडित और पूजा-पाठ के सामान में कुल तीन सौ तेईस रुपये खर्च हो गये. हमारा और हेडमास्टर साहब का मूल और सूद लेकर पांच सौ बीस रुपया बाकी था, सो सध गया. कुल आठ सौ चौवालीस में से एक रुपया बचा है---वह ले लो.”

मुखियाजी ने रामजी के हाथ में एक रुपये का नोट ठूंस दिया. रामजी एक रुपए के नोट को हथेली में मसलता आगे बढ़ गया.

शिवजी से नहीं रहा गया.

“मुखियाजी, यह आपने अच्छा नहीं किया, रामजी का पैसा दे दीजिए.” उसने कहा.

मुखियाजी गरजे, “बोलने वाले तुम कौन होते हो ! चंदा देते गांड़ फटती थी और चले हैं हिसाब मांगने---माथे पर कर्जा लेकर बुधुआ मर गया ! वह नरक ही न जाता, हेडमास्टर साहब! अब बुधुआ कर्ज से उबर गया तो नरक नहीं जाएगा. अब उसको स्वर्ग में जाने से कौन रोक सकता है ?”

हेडमास्टर साहब मुसकराये, “मुखियाजी, आज सत्संग में भी चलना है, ग्यारह बजे से है. आपने मेरा डूबा पैसा भी वसूल करवा दिया!”

“अरे, छोड़िये ! यह सब तो दुनियादारी है.” मुखियाजी विजयी भाव से गहराकर बोले, “यह सब तो लगा ही रहता है. धरम-करम भी चलना चाहिए. दोनों साथ ही सत्संग में चलेंगे.”
मुखियाजी और हेडमास्टर साहब उठ खड़े हुए.

---और दोनों खड़े होकर गाने लगे : ठगिनी क्यों नैना झमकावै! ठगिनी---

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