मंगलवार, 1 जनवरी 2008

वातायन- जनवरी 2008


"वातायन" की ओर से नव वर्ष की शुभकामनाएं !


हम और हमारा समय
आज हम अर्थवादी समय में जी रहे है। बाजारवाद भयावह रूप से हावी है। निश्चित रूप से बाजार से साधारण व्यक्ति अधिक प्रभावित हो रहा है। सेज के नाम पर किसानों को उजाड़ने के षडयंत्र हो रहे हैं। हम एक अघोषित पूंजीवाद की ओर अग्रसर हैं। यह दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण है । अर्थवाद ने पारिवारिक जीवन को तहस-नहस कर दिया है। बुजुर्ग परिवार में ही उपेक्षा का शिकार हो रहे हैं। इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि वृद्ध माँ-पिता की देखभाल के लिए अदालत को निर्देश देने पड़ रहे हैं।

हम और हमारा समय ‘ में प्रस्तुत हैं ऐसी ही स्थितियों को व्याख्यायित करती कथाकार सुभाष नीरव की दो लघु कहानियाँ। लघुकथा को लघुकहानी कहना अधिक तर्कसंगत है। ‘कथा‘ एक व्यापक शब्द है। यह कथा-साहित्य की समस्त विधाओं को ध्वनित करता है। अंग्रेजी में ‘शार्ट स्टोरी’ जब हिन्दी में कहानी के रूप में पहचानी जाती है तब उससे छोटी कहानी ‘लघु कहानी‘ ही कही जानी चाहिए। आशा है इस दिशा में सक्रिय रचनाकार मेरे तर्क से सहमत होगें। हिंदी में जो कहानीकार इस तरह की रचनाएं लिख रहे हैं, उन्हें तो कम से कम इन्हें “लघु कहानी” ही कहना चाहिए।

सुभाष नीरव की दो लघु कहानियाँ
मकड़ी


अधिक बरस नहीं बीते जब बाजार ने खुद चलकर उसके द्वार पर दस्तक दी थी। चकाचौंध से भरपूर लुभावने बाजार को देखकर वह दंग रह गया था। अवश्य बाजार को कोई गलत-फहमी हुई होगी, जो वह गलत जगह पर आ गया – उसने सोचा था। उसने बाजार को समझाने की कोशिश की थी कि यह कोई रुपये-पैसे वाले अमीर व्यक्ति का घर नहीं, बल्कि एक गरीब बाबू का घर है, जहां हर महीने बंधी-बधाई तनख्वाह आती है और बमुश्किल पूरा महीना खींच पाती है। इस पर बाजार ने हँसकर कहा था, “आप अपने आप को इतना हीन क्यों समझते हैं? इस बाजार पर जितना रुपये-पैसों वाले अमीर लोगों का हक है, उतना ही आपका भी? हम जो आपके लिए लाए हैं, उससे अमीर-गरीब का फर्क ही खत्म हो जाएगा।" बाजार ने जिस मोहित कर देने वाली मुस्कान में बात की थी, उसका असर इतनी तेजी से हुआ था कि वह बाजार की गिरफ्त में आने से स्वयं को बचा न सका था।
अब उसकी जेब में सुनहरी कार्ड रहने लगा था। अकेले में उसे देख-देखकर वह मुग्ध होता रहता। धीरे-धीरे उसमें आत्म-विश्वास पैदा हुआ। जिन वातानुकूलित चमचमाती दुकानों में घुसने का उसके अन्दर साहस नहीं होता था, वह उनमें गर्दन ऊँची करके जाने लगा।
धीरे-धीरे घर का नक्शा बदलने लगा। सोफा, फ्रिज, रंगीन टी.वी., वाशिंग-मशीन आदि घर की शोभा बढ़ाने लगे। आस-पड़ोस और रिश्तेदारों में रुतबा बढ़ गया। घर में फोन की घंटियाँ बजने लगीं। हाथ में मोबाइल आ गया। कुछ ही समय बाद बाजार फिर उसके द्वार पर था। इस बार बाजार पहले से अधिक लुभावने रूप में था। मुफ्त कार्ड, अधिक लिमिट, साथ में बीमा दो लाख का। जब चाहे वक्त-बेवक्त जरूरत पड़ने पर ए.टी.एम. से कैश। किसी महाजन, दोस्त-यार, रिश्तेदार के आगे हाथ फैलाने की जरूरत नहीं।
इसी बीच पत्नी भंयकर रूप से बीमार पड़ गई थी। डॉक्टर ने आपरेशन की सलाह दी थी और दस हजार का खर्चा बता दिया था। इतने रूपये कहां थे उसके पास? बंधे-बंधाये वेतन में से बमुश्किल गुजारा होता था। और अब तो बिलों का भुगतान भी हर माह करना पड़ता था। पर इलाज तो करवाना था। उसे चिंता सताने लगी थी। कैसे होगा? तभी, जेब मे रखे कार्ड उछलने लगे थे, जैसे कह रहे हों– “हम है न !” धन्य हो इस बाजार का! न किसी के पीछे मारे-मारे घूमने की जरूरत, न गिड़गिड़ाने की। ए.टी.एम.से रूपया निकलवाकर उसने पत्नी का आपरेशन कराया था।
लेकिन, कुछ बरस पहले बहुत लुभावना लगने वाला बाजार अब उसे भयभीत करने लगा था। हर माह आने वाले बिलों का न्यूनतम चुकाने में ही उसकी आधी तनख्वाह खत्म हो जाती थी। इधर बच्चे बड़े हो रहे थे, उनकी पढाई का खर्च बढ़ रहा था। हारी-बीमारी अलग थी। कोई चारा न देख, आफिस के बाद वह दो घंटे पार्ट टाइम करने लगा। पर इससे अधिक राहत न मिली। बिलों का न्यूनतम ही वह अदा कर पाता था। बकाया रकम और उस पर लगने वाले ब्याज ने उसका मानसिक चैन छीन लिया था। उसकी नींद गायब कर दी थी। रात में, बमुश्किल आँख लगती तो सपने में जाले-ही-जाले दिखाई देते जिनमें वह खुद को बुरी तरह फंसा हुआ पाता।
छुट्टी का दिन था और वह घर पर था। डोर-बेल बजी तो उसने उठकर दरवाजा खोला। एक सुन्दर-सी बाला फिर उसके सामने खड़ी थी, मोहक मुस्कान बिखेरती। उसने फटाक-से दरवाजा बन्द कर दिया। उसकी सांसे तेज हो गई थीं जैसे बाहर कोई भयानक चीज देख ली हो। पत्नी ने पूछा, “क्या बात है? इतना घबरा क्यों गये? बाहर कौन है?”
“मकड़ी !” कहकर वह माथे का पसीना पोंछने लगा।


तिड़के घड़े

“सुनो जी, बाऊजी से कहो, लैट्रिन में पानी अच्छी तरह डाला करें। भंगन की तरह मुझे रोज साफ करनी पड़ती है।"
गुड़ुप!

“बाऊजी, देखता हूँ, आप हर समय बैठक में ही पड़े रहते हैं। कभी दूसरे कमरे में भी बैठ जाया करें। इधर कभी कोई यार-दोस्त भी आ जाता है मिलने।"
गुड़ुप!

“बाऊजी, आप तो नहाते समय कितना पानी बर्बाद करते हैं। सारा बाथरूम गीला कर देते है। पता भी है, पानी की कितनी किल्लत है।"

“अम्मा, हर समय बाऊजी के साथ क्यों चिपकी रहती हो। थोड़ा मेरा हाथ भी बटा दिया करो। सुबह-शाम खटती रहती हूँ, यह नहीं कि दो बर्तन ही मांज-धो दें।"
गुड़ुप! गुड़ुप!

“बाऊजी, यह क्या उठा लाए सड़ी-गली सब्जी! एक काम कहा था आपसे, वह भी नहीं हुआ। नहीं होता तो मना कर देते, पैसे तो बर्बाद न होते।"
गुड़ुप!

“अम्मा, आपको भी बाऊजी की तरह कम दीखने लगा है। ये बर्तन धुले, न धुले बरबार हैं। जब दुबारा मुझे ही धोने हैं तो क्या फायदा आपसे काम करा कर। आप तो जाइए बैठिये बाऊजी के पास।"
गुड़ुप!

दिनभर शब्दों के अनेक कंकर-पत्थर बूढ़ा-बूढ़ी के मनों के शान्त और स्थिर पानियों में गिरते रहते हैं। गुड़ुप-सी आवाज होती है। कुछ देर बेचैनी की लहरे उठती हैं और फिर शान्त हो जाती हैं।

रोज की तरह रात का खाना खाकर, टी वी पर अपना मनपसंद सीरियल देखकर बहू-बेटा और बच्चे अपने-अपने कमरे में चले गये हैं और कूलर चलाकर बत्ती बुझाकर अपने-अपने बिस्तर पर जा लेटे हैं। पर इधर न बूढ़े की आँखों में नींद है, बूढ़ी की। पंखा भी गरम हवा फेंक रहा है।
“आपने आज दवाई नहीं खाई?”
“नहीं, वह तो दो दिन से खत्म है। राकेश से कहा तो था, शायद, याद नहीं रहा होगा।"
“क्या बात है, अपनी बांह क्यों दबा रही हो?”
“कई दिन से दर्द रहता है।"
“लाओ, आयोडेक्स मल दूँ।"
“नहीं रहने दो।"
“नहीं, लेकर आओ। मैं मल देता हूँ, आराम आ जाएगा।"
“आयोडेक्स, उधर बेटे के कमरे में रखी है। वे सो गये हैं। रहने दीजिए।"
“ये बहू-बेटा हमें दिन भर कोंचते क्यों रहते हैं?” बूढ़ी का स्वर धीमा और रुआंसा-सा था।
“तुम दिल पर क्यों लगाती हो। कहने दिया करो जो कहते हैं। हम तो अब तिड़के घड़े का पानी ठहरे। आज हैं, कल नहीं रहेगें। फेंकने दो कंकर-पत्थर। जो दिन कट जाएं, अच्छा है।"

तभी, दूसरे कमरे से एक पत्थर उछला।
“अब रात में कौन-सी रामायण बांची जा रही है बत्ती जलाकर। रात इत्ती-इत्ती देर तलक बत्ती जलेगी तो बिल ज्यादा तो आएगा ही।"
गुड़ुप!

लेखक संपर्क :
248, टाइप-3, सेक्टर-3
सादिक़ नगर, नई दिल्ली-110049
दूरभाष : 011-26264912(घर)
09810534373(मोवाइल)
ई-मेल :subhneerav@gmail.com

जीवनी


संक्षिप्त जीवनी : लियो तोल्स्तॉय

किसानों के हमदर्द लेखक : लियो तोल्स्तॉय
रूपसिंह चन्देल

‘युद्ध और शांति’, ‘अन्ना कारेनिना’, ‘पुनरुत्थान’, और ‘हाजी मुराद’ उपन्यास, तीन आत्मकथात्मक उपन्यास – ‘बचपन’, ‘किशोरावस्था’, और ‘कज्ज़ाक’, ‘फ़ादर सेर्गेई’, ‘इवान इल्यीच की मृत्यु’, ‘क्रुट्ज़र सोनाटा’ (लंबी कहानी), ‘घोड़े की कहानी’, ‘बाल नृत्य के बाद’ आदि कहानियाँ, ‘अंधकार की सत्ता’ तथा ‘जीवित शव’ नाटक सहित लगभग पचीस कृतियों के लेखक, चिन्तक, विचारक, दार्शनिक, शांतिवादी और शैक्षिक सुधारक लियो निकोलएविच तोल्स्तॉय का जन्म कास्को से दो सौ किलोमीटर दूर तूला नगर के यास्नाया पोल्याना नामक जागीर में एक समृद्ध तथा उच्च कुलीन परिवार में 28 अगस्त (नये कलेंडर के अनुसार 9 सितम्बर) 1828 को हुआ था। उनके पिता का नाम निकोलई इल्यिच ताल्स्तॉय और मॉं का नाम मारिया निकोनिकोलएव्ना था। उनकी मॉं प्रतिष्ठित वोल्कोन्स्की परिवार से थीं और महाकवि पुश्किन की दूर की रिश्तेदार थीं। लियो तोल्स्तॉय जब दो वर्ष के थे, उनकी मॉं की मृत्यु हो गयी थी।
बच्चों की शिक्षा के उद्देश्य से निकोलई इल्यिच तोल्स्तॉय ने मास्को जाने का निर्णय किया। 10 जनवरी, 1837 को यास्नाया पोल्याना से उनकी यात्रा सात स्लेजों में प्रारंभ हुई, जिन्हें उनके अपने और किराये के घोड़े खींच रहे थे। लियो की वृद्धा दादी एक अलग स्लेज में थीं। मास्को में प्ल्यू्श्चिखा में शेर्बाचेव का मकान किराये पर लिया गया, जहॉं वे अठारह महीनों तक रहे थे। निकोलई ने बच्चों की शिक्षा के लिए फ्योदोर एवानोविच नामक शिक्षक नियुक्त किया था। लेकिन इन्हीं दिनों एक दुर्घटना घटी थी। एक सम्पत्ति विवाद के सिलसिले में निकोलई इल्यिच तोल्स्तॉय को अकस्मात तूला जाना पड़ा था। 19 जून, 1837 को उन्होनें मत्यूशा नामक शिकारी, जो उनका नौकर भी था, के साथ तूला के लिए प्रस्थान किया और 24 घंटों से भी कम समय में लंबी यात्रा तय कर 21 जून को वह वहां पहुंचे थे। वह किसी से मिलने जा रहे थे कि रास्ते में गिर गये थे और उनकी मृत्यु हो गयी थी। 25 मई, 1838 को लियो तोल्स्तॉय की दादी प्रिन्सेज गोर्चाकोवा की भी मृत्यु हो गयी थी। पिता की मृत्यु के समय लियो मात्र 9 वर्ष के थे। उनके, उनके भाइयों और बहन के पालन-पोषण की जिम्मेदारी उनकी एक आंट अलैक्जैड्रां इल्यिनिच्ना ने संभाली लेकिन 1841 में उनकी मृत्यु के पश्चात उनकी दूसरी आंट तात्याना अलैक्जाड्रोंव्ना ने उनके पालन-पोशण का भार संभाला था।
प्रारंभिक शिक्षा के बाद लियो तोल्स्तॉय कज़ान विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिए गये। उस समय उनकी आयु 13 वर्ष थी। उनके साथ उनका निजी नौकर वन्यूशा था जो बालक ही था और जो बाद में उनकी काकेशस यात्रा के समय उनके साथ रहा था। कज़ान में वह एक अवकाश प्राप्त कर्नल युश्कोव के घर में रहे थे। पढ़ाई की दृष्टि से तोल्स्तॉय अच्छे छात्र नहीं थे। उनकी पत्नी ने अपने संस्मरण में इस विषय में लिखा है, ‘‘वह अच्छे विद्यार्थी नहीं थे और गणित सीखने में उन्हें बहुत कठिनाई होती थी…।" उन्होंने कज़ान विश्वविद्यालय के प्राच्य विद्या विभाग में प्रवेश लिया, किन्तु एक वर्ष पश्चात् ही वह पढ़ाई छोड़कर उन्होनें विधि शास्त्र विभाग में प्रवेश ले लिया था। लेकिन मन यहॉं भी उनका नहीं रमा। वहॉं उनके प्रोफेसर थे-डी. आई. मेयर, जो बहुत अच्छे व्यक्ति थे। वह तोल्स्तॉय में विशेष रुचि ले रहे थे। उन्होंने उन्हें एक विषय पर तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करने का कार्य सौंपा। लेकिन, तोल्स्तॉय वह कार्य नहीं कर पाये थे। बहुत वर्षों बाद पी. पेकार्स्की ने डी. आई. मेयर पर एक संस्मरण लिखा था, जो 1859 में प्रकाशित एक पुस्तक में संकलित हुआ था। उसमें उन्होंने प्रो0 का कथन उद्धृत किया था। प्रो0 मेयर ने कहा था, ‘‘मैनें आज उसकी परीक्षा ली, और देखा कि पढ़ने की उसकी बिल्कुल इच्छा नहीं है। खेद का विषय है। उसकी ऐसी अभिव्यंजक मुखाकृति और बुद्धिमानों जैसी आंखें हैं कि मैं यह मानता हूँ कि सद्भावना और स्वतंत्रता से एक असाधारण व्यक्ति के रूप में वह अपना विकास कर सकता है।"
तोल्स्तॉय ने स्वेच्छया दर्शनशास्त्र का अध्ययन किया, जिसने उनके भावी लेखन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। बाद में उन्होंनें बाइबिल, अरब की लोक कथाएं, प्राचीन रूसी साहित्य, और ऐसा साहित्य जिसके लेखकों के नाम लोग भूल गये थे, अठारहवीं शताब्दी का साहित्य और भूले-बिसरे जर्नल्स खोजकर पढ़े थे। उन्होंने पुश्किन को बार-बार पढ़ा, और रूसो को बचपन में ही पढ़ डाला था। उन्होंने जिप्सी संगीत से भी बहुत कुछ सीखा था।
लियो तोल्स्तॉय के घर में प्रस्कोव्या इसाएव्ना नाम की एक नौकरानी थी, जो बचपन में उन्हें कहानियां सुनाया करती थी। कभी वह उनके दादा, जो सेना में जनरल थे, के बहादुरी के किस्से सुनाती तो कभी लोक-किस्से। कहा जा सकता है कि दादी-नानी की बचपन में सुनी कहानियों की भांति इसाएव्ना की कहानियों ने लियो के बचपन में ही एक महान लेखक की बुनियाद रख दी थी। उसके विषय में तोल्स्तॉय को ज्ञात हुआ था कि वह फोका नामक खानसामा को प्यार करती थी, और उसके साथ शादी की अनुमति चाहती थी। लेकिन उनके दादा ने उसे शादी की अनुमति नहीं दी थी।
तोल्स्तॉय ने किसानों के जीवन का निकट से गहन अध्ययन किया। वह उनकी दयनीय जीवन-स्थितियों से दुखी और व्यवस्था के प्रति विक्षुब्ध थे। उन्होंनें यास्नाया पोल्याना में खेती के कार्यों में अपने को व्यस्त कर लिया था। यह कज़ान से लौट आने के बाद की घटनाएं थीं। उन्होंनें एक थ्रेशिंग मशीन बनायी, जिसका वर्णन उन्होंनें ‘जमींदार की एक सुबह’ में किया है। इस मशीन ने भारी शोर किया था, सनसनाई थी और दम तोड़ दिया था। उन दिनों तोल्स्तॉय 18 वर्ष के थे। थ्रेशिंग मशीन द्वारा किसानों के श्रम को कम करने का उनका सपना टूट गया था। फरवरी, 1849 में वह अपनी मास्टर्स डिग्री के लिए सेंट पीटर्सबर्ग गये थे। जुआ खेलने की लत उन्हें वहीं लगी थी। वह कर्ज में इतना डूब गये थे कि मार्च 1849 में उन्होंने सेर्गेई को लिखा था कि वह उनके घोड़े और कुछ जमीन बेचकर पैसे भेजे। उन्होंनें अपने कारिन्दा को जंगल बेचने के लिए लिखा था। उन्होंनें सेर्गेई को पुन: लिखा और कहा कि वह ‘खरीदारों से किसी भी शर्त‘ पर सौदा करके उन्हें पैसे भेजे। ‘हाजी मुराद‘ और ‘कज्ज़ाक‘ में उन्होंने अपने इस अनुभव का लाभ उठाया है। उसके बाद उन्होंनें विदेश यात्राएं कीं। वह उन स्थानों पर गये, जहॉं कभी रूसो रहे थे और जहॉं उन्होंने नयी शिक्षा पद्धति का स्वप्न देखा था। यात्रा के अंत में तोल्स्तॉय भी रूस में पब्लिक विद्यालय शिक्षा के विषय में सोचने लगे थे।
यास्नाया पोल्याना लौटकर तोल्स्तॉय ने किसानों के लिए एक स्कूल की स्थापना की थी। यह उनके एक आलेख – ‘पब्लिक विद्यालयों के प्रबन्धन के लिए योजना का प्रारूप‘ से स्पष्ट है। विद्यालय को सरकारी मान्यता प्राप्त न थी। यहॉं युवा तोल्स्तॉय अपने किसानों के बच्चों को पढ़ाते थे। उनका पुराना नौकर फोका इस कार्य में उनकी सहायता करता था। उनके काकेशस चले जाने के बाद यह कार्य बाधित हुआ था, लेकिन वहॉं से लौटने के बाद उन्होंनें पुन: विद्यालय प्रारंभ कर दिया था। तब स्कूल चलाने के लिए उन्होंनें मास्को के ग्यारह विद्यार्थियों का चयन किया था। इन्हीं दिनों उन्हें किसानों और जमींदारों के बीच मध्यस्थता करने के लिए पब्लिक आर्बिट्रेटर चुना गया था। परिणामत: किसानों के बच्चों के लिए उस क्षेत्र में अनेक स्कूल खुले थे, लेकिन यास्नाया पोल्याना का स्कूल उनके लिए था।
लियो तोल्स्तॉय के परिवार में सैन्य सेवा की सुदीर्घ परम्परा रही थी। उनके पिता ने 1812 में नेपोलियन के विरुद्ध युद्ध किया था। तोल्स्तॉय के बड़े भाई निकोलई सेना में भर्ती हुए थे। 1851 में तोल्स्तॉय भी उनके साथ गए और एक बाहरी व्यक्ति के रूप में सेना के लिए अपनी सेवाएं अर्पित की थीं। उस समय उनकी आयु बाईस वर्ष थी। सेना में वह लगभग पांच वर्ष रहे थे। कमीशन प्राप्त करने के लिए उन्हें बहुत प्रयास करना पड़ा था। परिवार के उच्च संपर्कों का सहारा लेना पड़ा था। उन्होंने काकेशिया, डेन्यूब और क्रीमिया की लड़ाइयों में भाग लिया था। सैन्य अभियानों में उनकी सक्रिय भागीदारी, भले ही एक बाहरी व्यक्ति के रूप में, उन्हें काकेशिया तथा सेवस्तोपोल के युद्धों से संबन्धित कहानियों और ‘कज्ज़ाक‘ , ‘युद्ध और शांति’ तथा ‘हाजी मुराद’ जैसे उपन्यासों के सृजन में सहायक सिद्ध हुई थी। उनकी पत्नी सोफिया अन्द्रेएव्ना ने अपने संस्मरण में लिखा है, ‘‘वह प्राय: मुझसे यह कहते थे कि उनकी सबसे सुखद स्मृतियां काकेशिया से जुड़ी हुई हैं। उन दिनों उन्होंनें बहुत पढ़ा, स्टेर्न की रचनाओं का अनुवाद किया। यहीं उन्होंने ‘बचपन’ और ‘किशोरावस्था’ की रचना की थी।"
वैसे तोल्स्तॉय ने पहली रचना, 1841 में हुई अपनी बुआ की मृत्य के बाद कविता के रूप में लिखी थी।
काकेशिया प्रवास भावी लेखक तोल्स्तॉय के लिए वरदान सिद्ध हुआ था। वास्तविकता यह थी कि वह सोची-समझी योजना के बाद ही सैन्य सेवा में गये थे, क्योंकि न केवल वह सैन्य अभियानों को निकट से देखना चाहते थे, बल्कि उस पूरे प्रांत का बहुआयामी अध्ययन भी करना चाहते थे। ‘कज्ज़ाक’ और ‘हाजी मुराद’ इसका प्रमाण हैं। काकेशस में लिखी गयी उनकी रचना ‘बचपन’ उस समय की प्रमुख साहित्यिक पत्रिका ‘सोव्रेमेन्निक‘ (समकालीन) में प्रकाशित हुई थी। तोल्स्तॉय ने इसमें लेखक के रूप में अपना नाम नहीं दिया था। लेकिन जब पाठकों और आलोचकों ने ‘बचपन’ की प्रशंसा की तब उनकी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा था। इस विषय में उन्होंनें अपनी डायरी में लिखा, ‘‘मैं इसे पढ रहा था, प्रशंसा के कारण अभिभूत हुआ जा रहा था और मेरी छाती गर्व से फटी जा रही थी।" इस पत्रिका के सम्पादक थे प्रसिद्ध कवि और लेखक नेक्रासोव। नेक्रासोव ने इस पर टिप्पणी करते हुए लिखा था, ‘‘ लेखक हमें हमारे लिए सर्वथा नयी दुनिया में ले जाता है… उनमें पात्रों को समझने और उनके स्वरूप के विषय में गहरी सचाई अभिव्यक्त हुई है… ।"
काकेशिया में रहते हुए ही तोल्स्तॉय ने एक लेखक के रूप में प्रसिद्धि पा ली थी। जब वह वहां से नवम्बर 1855 में पीटर्सबर्ग लौटकर आये, तब उस समय के महान रूसी रचनाकारों, आस्त्रोव्स्की, चेर्नीशेव्स्की, तुर्गनेव और गोंचारोव ने उनका एक बड़े लेखक के रूप में स्वागत किया था। तुर्गनेव ने तोल्स्तॉय की बहन मारिया को लिखा था, ‘‘हम सब की राय में लेव निकोलएविच हमारे सर्वश्रेष्ठ लेखकों की पांत में आ गये हैं और अब तो उन्हें कोई ऐसी चीज लिखनी चाहिए कि वह प्रथम स्थान प्राप्त कर लें जिसके योग्य वह हैं और जो उनकी प्रतीक्षा कर रहा है।" यहां यह उल्लेख करना अनुचित न होगा कि लेखक तुर्गनेव और तोल्स्तॉय की बहन मारिया के मध्य प्रेम संबन्ध थे। मारिया ने अपने पति से तलाक ले लिया था। वह तुर्गनेव से विवाह करना चाहती थी, जिसे तुर्गनेव लंबे समय से टालते आ रहे थे। तोल्स्तॉय के लिए यह एक अप्रिय स्थिति थी। तुर्गनेव के प्रशंसक होने के बावजूद कुछ विषयों में तोल्स्तॉय का उनसे मतवैभिन्य था। उस पर मारिया के संबन्धों का मामला। दरअसल, तुर्गनेव मॉलिन वर्डोट को प्यार करते थे, जिसके मकान में वह रहते थे। लेकिन सुश्री वर्डोट से तुर्गनेव को अपने प्रेम का उत्तर नहीं मिला था। तुर्गनेव के एक पुत्री थी, जिसके पालन-पोषण के लिए वह विशेष चिन्तित रहते थे और सुश्री वर्डोट उस बच्ची की देखभाल करती थीं। लेकिन तोल्स्तॉय मारिया के विषय में चिन्तित थे। 1861 के वसंत में कवि अफानसी फेट की जागीर स्तपनोव्का में एक सुबह नाश्ते के दौरान तुर्गनेव और तोल्स्तॉय की मुलाकात हो गयी थी। किसी विषय पर दोनों में झड़प हुई थी और बहन को लेकर तोल्स्तॉय के मन में जमी क्षुब्धता फूट पड़ी थी। इस सबके बावजूद तोल्स्तॉय के हृदय में तुर्गनेव के विरुद्ध दुर्भाव न था। तुर्गनेव ने अपने किसानों को स्वतंत्र कर दिया था और दुर्भिक्ष के दौरान गरीब किसानों के सहायतार्थ विभिन्न जागीरों की यात्रा करते समय तोल्स्तॉय ने पाया था कि तुर्गनेव के किसानों की स्थिति अन्य जमींदारों के किसानों से बहुत अच्छी थी।
फरवरी, 1862 में पब्लिक आर्बीट्रेटर के पद से त्यागपत्र देकर तोल्स्तॉय 12 मई 1862 को मास्को चले गये थे। उनके साथ उनके शिष्य वसीली मोरोजोव, और इगोर चेर्नोव थे और था पुराना नौकर अलेक्सेई ओरेखोव जो सेवास्तोपोल में उनके साथ रहा था। मास्को में उन्होनें बेहर्स परिवार के साथ रात व्यतीत की थी। उनकी भावी पत्नी सोनिया बेहर्स (सोफिया अन्द्रेएव्ना) ने पहली बार उस ग्रामीण युवक को देखा था। मास्को से तोल्स्तॉय त्वेर चले गये थे। जिन दिनों वह यास्नाया पोल्याना से बाहर थे, अधिकारियों ने उनके स्कूल में छापा मारा था। उससे स्कूल को इतनी क्षति हुई थी कि स्कूल उससे उबर नहीं पाया था।
लियो निकोलएविच तोल्स्तॉय लगभग चौंतीस वर्ष के हो चुके थे, लेकिन अविवाहित थे। काकेशस से लौटने के बाद वह एक किसान युवती अक्सीनिया बजीकिना के प्रेम में पड़ गये थे। वह उन दिनों ‘कज्ज़ाक‘ लिख रहे थे। लेकिन उन्हीं दिनों त्युचेवा नामक युवती से भी उनके प्रेम संबन्ध थे। उन दिनों वह नियमित डायरी लिखते थे। 14 जनवरी, 1858 को उन्होनें लिखा, ‘‘त्युचेवा हर समय मेरे दिमाग में रहती है। सच, इससे मुझे खीज होती है, क्योंकि वास्तव में यह प्रेम नहीं है।" 26 जनवरी, 1858 को उन्होंनें लिखा, ‘‘वह ठंडी, तुच्छ और अभिजातवर्गीय है जबकि चिचेरिना सुन्दर है।" लेकिन अक्सीनिया के विषय में वह लिखते हैं, ‘‘अक्सीनिया को एक दृश्टि देखा। वह बहुत सुन्दर है। मैनें इतने दिन व्यर्थ ही गंवा दिए। आज पुराने बड़े जंगल में, वहां उसकी भाभी भी थी, और मैं मूर्ख हूँ… मैं उसके प्यार में पड़ गया हूँ। ऐसा जीवन में पहले कभी नहीं हुआ था। मेरे मस्तिष्क में दूसरा कोई विचार नहीं है। मैं संतप्त हूँ।"
कुछ लोगों का कहना है कि अक्सीनिया से उन्हें एक पुत्र भी था। लेकिन अक्सीनिया से पूर्व अन्य युवतियों से भी उनके प्रेम संबन्ध थे। कोकेशस जाने से पूर्व वह एक जिप्सी युवती के प्रति आकर्षित थे। उनका भाई सेर्गेई लंबे समय तक एक जिप्सी युवती के साथ रहने के पश्चात् उससे विवाह कर चुका था। उसने तोल्स्तॉय को भी उस जिप्सी युवती से, जिसके प्रति तोल्स्तॉय आकर्षित थे, विवाह के लिए प्रेरित किया था। बाद में, तोल्स्तॉय बलेरिया असे‍र्नीवा के प्रेम में पड़े थे, जिसके साथ संबन्ध विच्छेद करते हुए उन्होंनें 14जनवरी, 1857 को उसे एक पत्र लिखा था, ‘‘प्रिय अलेरिया व्लादीमीरोव्ना, मैं स्वीकार करता हूँ कि मैं अपने प्रति कसूरवार हूँ और भयानक रूप से आपके प्रति भी कसूरवार हूँ… मैं शीघ्र ही पेरिस के लिए रवाना हूँगा और कब रूस वापस लौटूंगा, ईश्वर ही जानता है।" वलेरिया व्लादीमीरोव्ना असे‍र्नीवा अपने मां-पिता को खो चुकी थी। वह सुदाकोवो, जो यास्नाया पोल्साना के निकट था, में रहती थी और अच्छे रहन-सहन के बावजूद धनवान न थी। लेकिन काले बालों वाली, संगीत पसंद वह एक सुदर्शना युवती थी। असे‍र्नीवा के साथ तोल्स्तॉय के संबन्ध बहुत गहराई तक स्थापित हो चुके थे। उन्होंनें अपनी बुआ, भाई ओर मित्रों से उसका परिचय करवाया था। उसे सोलह पत्र भी लिखे थे, लेकिन किन्हीं अज्ञात कारणों से उन्होंनें उससे विवाह नहीं किया था।
तोल्स्तॉय जब तीस के थे, वह त्युचोवा के विषय में सोचते थे, ‘‘मैं उससे बिना प्यार के निश्चय ही शांतिपूर्वक विवाह के लिए अपने को तैयार कर रहा था, लेकिन उसने जान-बूझकर ठंडेपन के साथ मेरा स्वागत किया।" अंतत: उन्होंनें उससे भी विवाह का विचार त्याग दिया था। 1 जनवरी, 1859 को उन्होंनें डायरी में लिखा, ‘‘ मैं या तो इस वर्ष विवाह कर लूंगा अथवा कभी नहीं करूंगा।" उन दिनों की उनकी डायरी से ज्ञात होता है कि विवाह को लेकर वह कितना उलझन में थे। लगातार वह अक्सीनिया का उल्लेख करते हैं। अंतत: बेहर्स परिवार से उनकी निकटता ने उन्हें सोनिया के निकट ला दिया था। वास्तव में, डाक्टर अन्द्रेई इव्स्ताफीविच बेहर्स अपनी बड़ी बेटी लिजा का विवाह तोल्स्तॉय के साथ करना चाहते थे। लेकिन 6 मई, 1862 को तोल्स्तॉय ने अपनी डायरी में लिखा, ‘‘मैनें बेहर्स परिवार में सुखद दिन व्यतीत किया, लेकिन लिजा के साथ विवाह का साहस मुझमें नहीं है।" वह बेहर्स की छोटी बेटी सोनिया, जो उनसे सोलह वर्ष छोटी थी, को पसंद करते थे और 24 सितम्बर, 1862 को सोनिया के साथ उनका विवाह हुआ था। डाक्टर बेहर्स लिजा के साथ तोल्स्तॉय के विवाह न करने से इतना नाराज थे कि उन्होंनें सोनिया को दहेज के रूप में कुछ भी नहीं दिया था।
सोफिया अन्द्रेएव्ना के साथ शादी के पश्चात् तोल्स्तॉय के जीवन का नया अध्याय प्रारंभ हुआ। सोफिया निश्चित ही उनकी एक कुशल संगिनी सिद्ध हुई थीं। वह उनकी पत्नी, सहायिका, निजी सचिव आदि विभिन्न रूपों में उनके रचनात्मक कार्यों में सहायता करती थीं। वह उनकी प्रत्येक रचना की पहली पाठक ही नहीं होती थीं, बल्कि वह उन्हें अपनी सलाह भी देती थीं। वह उनकी रचनाओं को फेयर करती थीं। शादी के पश्चात् लंबी अवधि तक तोल्स्तॉय कुछ नहीं लिख पाये थे। ‘कज्ज़ाक’ (1852-1862) लिखकर वह पर्याप्त यश पा चुके थे। लेकिन, लगभग दो वर्षों तक कुछ न लिख पाने के दौरान वह एक बड़े विषय पर कार्य करने के लिए अपने को तैयार कर रहे थे। उन्होंनें 1865 में ‘युद्ध और शांति’ पर कार्य प्रारंभ किया, जिसे 1869 में पूरा किया था। यह उपन्यास राजनीतिक, सामाजिक, कूटनीतिक, धार्मिक, दार्शनिक, सामरिक, मनोवैज्ञानिक, आर्थिक अर्थात् जीवन के लगभग सभी पक्षों पर प्रकाश डालता है। इस उपन्यास ने तोल्स्तॉय को विश्व के महान लेखकों के मध्य आसीन कर दिया। सामरसेट माम ने उनके विषय में लिखा, ‘‘ संसार का सबसे बड़ा उपन्यासकार बाल्जाक था, किन्तु ‘युद्ध और शांति’ संसार का महान उपन्यास है।" तोल्स्तॉय ने इस उपन्यास को लिखने में अथक श्रम किया था। इस दौरान उन्होनें दो छोटी रचनाएं ‘काकेशस में एक युद्धबंदी’ (1872) और ‘फादर सेर्गेई (1873) लिखा। लेकिन वह कुछ और महत्वपूर्ण लिखने की योजना बना रहे थे। यह उपन्यास था ‘अन्ना कारेनिना’ जिसे उन्होंनें 1875-77 में लिखा था। यह उपन्यास सुन्दर अन्ना, कूपमंडूक और सीमित जीवन दृष्टि रखने वाला उसका कुलीन पति कारेनिन, जो उम्र में अन्ना से काफी बड़ा था और अन्ना को प्रेम करने वाले जवान काउंट व्रोन्स्की की कहानी है । उपन्यास का अंत अन्ना की आत्महत्या में होता है। इसमें मुख्य कथा के साथ लेविन और कीटी की प्रेम कथा भी है। लेविन के विचार तत्कालीन रूस की विविध समस्याओं पर तोल्स्तॉय के विचारों को व्याख्यायित करते हैं। इस उपन्यास के विषय में रोमा रोलां का कथन है, ‘‘अन्ना कारेनिना पूरा एक संसार है जिसकी निधि अकूत है।"
‘अन्ना कारेनिना’ के बाद तोल्स्तॉय का लेखन निरंतर चलता रहा। 1882 में उन्होंनें – ‘एक स्वीकारोक्ति’, ‘मेरा धर्म’ (1884) , ‘घोड़े की कहानी’ (1864 में – पुन: 1886 में), ‘इवान इल्यीच की मृत्यु’ (886) , ‘एक व्यकित को कितनी जमीन की आवश्यकता है?’ (1886) , ‘अंधकार की सत्ता’ (ड्रामा –1886), ‘क्रुट्जर सोनाटा’ (1889 – लंबी कहानी), ‘पुररुत्थान’ (1889–99), ‘हाजी मुराद’ (1896 – 1904) जैसी कालजयी रचनाएं लिखीं। ‘पुररुत्थान’ में तोल्स्तॉय ने भूदास प्रथा के बाद की रूसी सामाजिक जीवन की विसंगतियों को गंभीरता से अभिव्यक्त किया है। यद्यपि इस उपन्यास का नायक नेखल्युदोव है, तथापि वास्तविक नायक आम-साधारण लोग हैं जो नेखल्युदोव के माध्यम से अपने वास्तविक रूप में पाठकों के समक्ष प्रकट होते हैं।
‘हाजी मुराद’ तोल्स्तॉय का ऐतिहासिक उपन्यास है, जिसमें हाजी मुराद ही नहीं अधिकांश अन्य पात्र वास्तविक हैं। उन्होंनें इस उपन्यास को लगभग पचास वर्ष पश्चात् लिखा था, जबकि वह यास्नाया पोल्याना के स्कूल के अपने छात्रों को प्राय: हाजी मुराद की वीर गाथाएं सुनाया करते थे। ‘क्रुट्जर सोनाटा‘ के विषय में कुछ विद्वानों का कहना है कि उन्होंने अपनी पत्नी सोफिया अन्द्रेएव्ना से ईर्ष्या के कारण उसे लिखा था। ऐसा माना जाता है कि सोफिया अन्द्रेएव्ना और उस समय के प्रसिद्ध संगीतकार सेर्गेई इवानएविच तानेएव, जो तोल्स्तॉय का अच्छा मित्र था, के मध्य यास्नाया पोल्याना अथवा मास्को में प्रेम संबन्ध स्थापित हुआ था लेकिन शायद वह सोफिया का एकपक्षीय प्यार था। वह यह नहीं जानती थी कि तानेएव उसे प्यार नहीं करता। वह यह सोचती थी कि वह उसके पति से भयभीत था। लेकिन वह प्रत्येक संगीत समारोहों में जाती थीं और तानेएव के बगल में बैठती थीं। एक बार तानेएव कीव गया और वहां मस्कोव परिवार के साथ ठहरा। सोफिया अन्द्रेएव्ना भी उसकी पीछे कीव गयी थीं। वह पहले अपनी बहन तातियाना से मिलीं, फिर मस्लोव परिवार की मेहमान बनी थीं। इस परिवार से उनके पुराने संबन्ध थे। अगले दिन वह सभी के साथ जंगल घूमने गयीं, जहां सोफिया के चित्र खींचे गये थे। जब वह मास्को लौटीं तब उन्होंने तोल्स्तॉय का तनावग्रस्त खिंचा हुआ चेहरा देखा था। तोल्स्तॉय ने अपनी भाभी को एक पत्र लिखा था, जिसमें दुखी मन से उन्होंने लिखा था कि “आखिर अब मैं सत्तर वर्ष का बूढ़ा जो हूँ।" उन्होंनें पांच पृष्ठों का एक लंबा पत्र सोफिया को लिखा था, जिसे उन्होंनें ‘एक संवाद’ कहा था। उसमें उन्होंनें सोफिया से कीव यात्रा और तानेएव के प्रति उनके सम्मोहन के विषय में स्पष्टीकरण मांगा था। पत्र पढ़कर सोफिया आग बबूला हो उठी थीं और चीखती हुई बोली थीं, ‘‘आप कमीने हैं, आप एक जानवर हैं ! और मैं एक अच्छे, सहृदय व्यक्ति को प्यार करती हूँ, न कि आपको। आप एक पशु हैं !"
वास्तव में तानेएव और सोफिया का प्रेम वास्तविक नहीं था। निश्चित् ही पारिवारिक असंतोष और प्रेम की आंकाक्षा के कारण वह उसकी ओर आकर्षित हुई थीं, लेकिन वह एकपक्षीय था। ऐसी स्थिति में तोल्स्तॉय की मानसिक स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है।
सोफिया अन्द्रेएव्ना ने यास्नाया पोल्याना में घर बनवाया, उसे सजाया, और वहां रही भी थीं। लेकिन वास्तविकता यह थी कि ग्राम्य जीवन को वह स्वीकार नहीं कर पायी थीं। परिवार के लिए समर्पित और बच्चों के भविष्य की चिन्ता में डूबी रहने वाली उस अथक परिश्रमी महिला को पति का किसानों के प्रति उदारवादी दृष्टिकोण, सामाजिक कार्यों में उनकी संलिप्तता और व्यवस्था का मुखर विरोध पसंद नहीं था। वह तोल्स्तॉय को एक काउंट की भांति… एक अभिजातीय वर्ग के व्यक्ति की भांति देखना चाहती थीं। जबकि तोल्स्तॉय किसानों जैसा सामान्य जीवन जीना पसंद करते थे। 28 जून, 1881 को तोल्स्तॉय ने अपनी डायरी में लिखा, ‘‘मैं एक गरीब आत्मा को देखने गया था। वह एक सप्ताह से बीमार है। उसे दर्द और कफ है। पीलिया बढ़ रहा है। कुर्नोसेन्कोव को पीलिया था। कोन्द्राती उसी से मरा था। गरीब लोग पीलिया से मर रहे हैं। वे फलाला से मर रहे हैं।" वह आगे लिखते हैं, ‘‘उसकी पत्नी की गोद में एक बच्चा है, तीन लड़कियां हैं और भोजन नहीं है। चार बजे तक उन्हें भोजन नहीं मिला था। लड़कियां सरसफल तोड़ने गयी थीं और वही उनका भोजन था।"
तोल्स्तॉय ने आगे लिखा कि उस घर में स्टोव इसलिए जलाया गया कि बच्चे को लगे कि कुछ पकाया जा रहा था और वह चीखे नहीं। गरीबी का यह भयावह दृश्य तत्कालीन रूस की स्थिति का वास्तविक बयान है। उन्होंने पुन: लिखा, ‘‘ हम शैम्पेन के साथ अच्छा रात्रिभोज करते हैं ।… प्रत्येक बच्चे को खर्च के लिए पांच रूबल दिए जाते हैं। गाडि़यां तैयार हैं, जिनमें वे पिकनिक के लिए जाएगें। उनकी गाडि़यां कठिन श्रम से थके-मांदे किसानों की गाडि़यों के पास से गुजरेगीं… ।"
तोल्स्तॉय की रचनाएं ही नहीं समय-समय पर उनकी डायरी में दर्ज की गई बातें रूस की उस समय की सामाजिक ओर आर्थिक विद्रूपता को उद्घघाटित करती हैं। तुर्गनेव की भांति उन्होंने भी अपने किसानों को स्वतंत्रता दे दी थी। लेनिन ने उनके विषय में अपने आलेख – ‘‘लेव तोल्स्तॉय रूसी क्रांति के दर्पण में" में लिखा था, ‘‘तोल्स्तॉय के विचारों में विरोधाभास वस्तुत: उन विरोधाभासपूर्ण परिस्थितियों का दर्पण है जिनमें किसान समुदाय को हमारी क्रांति में अपनी ऐतिहासिक भूमिका अदा करनी पड़ी थी।"
किसानों के जीवन परिवर्तन के विषय में तोल्स्तॉय जैसा सोचते थे क्रांतिकारी भी वैसा ही सोच रहे थे। शायद इसीलिए उन्होंनें कहा था, ‘‘ क्रांति अपरिहार्य है।" वह दूसरी क्रांति की प्रतीक्षा कर रहे थे, जो किसानों की जीवन स्थितियां बदल देने वाली थी। लेकिन दूसरी ओर वह क्रांति से भयभीत भी थे। ऐसी ही अनेक बातों में हमें उनका विरोधाभास प्रकट होता दिखता है।
उन्होंने 13 मई, 1908 से 15 जून, 1908 तक एक आलेख पर कार्य किया, जिसका शीर्षक था, ‘‘मैं चुप नहीं रह सकता"। इस आलेख ने पूरी दुनिया में तहलका मचा दिया था। सेंसर किये जाने के भय से तोल्स्तॉय ने इसे लेटिश (Lettish) में प्रकाशित करवाया था। उसके बाद यह तूला के एक गुप्त छापाखाने से पूरा प्रकाशित हुआ। दुनिया के लगभग सभी देशों में इसे प्रकाशित किया गया और आश्चर्यजनक रूप से जर्मन के दो सौ अखबारों में यह एक साथ प्रकाशित हुआ था। इस लेख का प्रारंभ इस प्रकार होता है, ‘‘सात मौत की सजाएं। दो सेण्ट पीटर्सबर्ग में, एक मास्को में, दो पेन्जा़ में, दो रिगा में। चार फांसियां – दो खर्सन में, एक विल्नो में और एक आडेसा में।" इस लेख में आगे कहा गया कि 1880 के दशक में देश में एक जल्लाद था, लेकिन 1908 में अनेकों दिवालिया दुकानदार जल्लादी काम के लिए अपनी सेवाएं दे रहे हैं और बदले में सैकड़ों रूबल पाकर अपने व्यवसाय को पुन: स्थापित कर रहे हैं। इन जल्लादों में होड़ गची हुई है। परिणामस्वरूप वे कुछ कम पैसों में, अनेक केवल पचास रूबल में ही हत्या के लिए तैयार हैं।
तोल्स्तॉय के इस आलेख से सरकार हिल उठी थी। लेकिन वह उस महान लेखक के विरुद्ध कुछ कर नहीं सकती थी, जिसे जनता का अपार स्नेह प्राप्त था। इस आलेख को पढ़कर अमेरिका में रह रहे भारतीय क्रांतिकारी तारकनाथ दास ने तोल्स्तॉय को 24 मई 1908 को भारत की स्थिति के विषय में एक पत्र लिखा था। तोल्स्तॉय ने उन्हें उत्तर दिया था। इसके पश्चात् महात्मा गांधी ने उन्हें पत्र लिखे, जिनके उत्तर ‘एक भारतीय के नाम पत्र’ के रूप में यास्नाया पोल्याना के पुस्तकालय में सुरक्षित हैं। महात्मागांधी को लिखे तोल्स्तॉय के पत्र अत्यंत महत्वपूर्ण हैं जो भारत की पराधीनता के विषय में उनके दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हैं।
तोल्स्तॉय तिहत्तर वर्ष के थे। उनका स्वास्थ्य खराब था। वह याल्टा जाना चाहते थे। 5 सितम्बर, 1901 को सेवेस्ताप जानेवाली ट्रेन में उनके लिए एक विशेष कोच की व्यवस्था की गई थी। जब ट्रेन खार्कोव स्टेशन पहुँची, जनता का हुजूम अपने उस महान लेखक की एक झलक पाने के लिए उमड़ पड़ा था। विश्व के शायद वे एक मात्र ऐसे लेखक थे जिनकी एक झलक पाने के लिए स्टेशनों पर हजारों की भीड़, एक बार लगभग पचीस हजार की भीड़, एकत्र होती थी।

याल्टा में उनसे मिलने वालों में चेखव थे। चेखव ने गोर्की को सितम्बर 1901 के अंत के पत्र में तोल्स्तॉय के चिन्ताजनक स्वास्थ्य के विषय में लिखा था। लेकिन तोल्स्तॉय स्वस्थ होकर घर लौटे थे। उसके पश्चात् उन्होंनें ‘हाजी मुराद' पूरा किया था। अन्य रचनाएं लिखी थीं। इस दौरान वसीयत को लेकर पारिवारिक विवाद प्रारंभ हो गया था। तोल्स्तॉय अपने बेटों से असंतुष्ट थे। वह बेटी मारिया को अधिक चाहते थे। सम्पत्ति का बंटवारा सबमें करना चाहते थे। जबकि सोफिया अन्द्रेएव्ना की चिन्ता पूरे परिवार से जुड़ी हुई थी। वह तोल्स्तॉय के साहित्य का प्रकाशन दॉस्तोएव्स्की की पत्नी अन्ना की भांति स्वयं करना चाहती थीं, (और उन्होंनें यह कार्य सफलतापूर्वक किया भी था) और सम्पूर्ण साहित्य पऱ अधिकार चाहती थीं, जबकि तोल्स्तॉय 1885 के पश्चात् के अपने साहित्य को स्वतंत्र कर देना चाहते थे, जिसे कोई भी प्रकाशित कर सकता था। विवाद गहरा था। परिणामत: 28 अक्टूबर 1910 को सुबह पांच बजे तोल्स्तॉय ने घर छोड़ दिया था। उस क्षण उनकी जेब में 39 रूबल थे और उनके साथ यात्रा करने वाले मकोवित्स्की के पास तीन सौ रूबल थे। वह अस्तापे पहुँचे थे, जहां 7 नवम्बर, 1910 (नये कलेण्डर के अनुसार 20 नवम्बर) को इस महान लेखक ने सुबह छ: बजकर पांच मिनट पर इस संसार को अलविदा कह दिया था।
रूसी सरकार ने अपने इस लेखक के दर्शनार्थ जानेवालों के लिए विशेष ट्रेनें चलायी थीं। रूस की जनता ने जितना प्यार अपने इस महान लेखक को दिया वह अद्भुत था। गोर्की ने उनके विषय में लिखा, ‘‘तोल्स्तॉय एक पूरा जगत हैं … उन्होंने सचमुच एक विराट कार्य किया है… पूरी शताब्दी का निचोड़ पेश किया है।" अपने लेख ‘लेव तोल्स्तॉय’ में गोर्की ने लिखा था, ‘‘ जब तक यह व्यक्ति इस धरती पर विद्यमान है, मैं यतीम नहीं हूँ।"
गोर्की की उपरोक्त बात अब तोल्स्तॉय के साहित्य के संदर्भ में कही जा सकती है।
(लेखक द्वारा अनूदित लियो तोल्स्तॉय के हिन्दी में अब तक अप्रकाशित उपन्यास ‘हाजी मुराद‘ में दिया गया संक्षिप्त जीवन परिचय। उपन्यास ‘हाजी मुराद‘ संवाद प्रकाशन , मेरठ से प्रकाशित।)

समाचार

समाचार

कथाकार सूरज प्रकाश सड़क-दुर्घटना में घायल

वरिष्ठ कथाकार एवं अनुवादक सूरज प्रकाश गत 10 दिसंबर 2007 को फरीदाबाद में एक सड़क-दुर्घटना में घायल हो गए। उनके साथ 82 वर्षीय उनके पिता भी गंभीर रूप से घायल हो गए। एस्कार्ट अस्पताल, फरीदाबाद में उपचार करवाने के बाद इन दिनों सूरज प्रकाश फरीदाबाद में अपने छोटे भाई के निवास पर स्वास्थ्य लाभ कर रहे हैं।

आगामी अंक

फरवरी 2008

हम और हमारा समय” के अन्तर्गत कथाकार एवं आलोचक महेश दर्पण की दो लघु कहानियाँ। साथ ही, अनुवादकों की की जा रही उपेक्षा और अवहलेना को रेखांकित करता सुशील कुमार का आलेख – “मूल रचना बनाम अनुवाद”।