रविवार, 3 फ़रवरी 2008

वातायन- फरवरी, 2008

हम और हमारा समय
रूपसिंह चन्देल



जनवरी, 2008 अंक में इसी स्तंभ के अंतर्गत लघुकथा को लघुकहानी कहते हुए मैनें कथाकार सुभाष नीरव की लघु कहानियां प्रकाशित की थीं। इस विधा में मैंने भी पर्याप्त लिखा है और ‘कुर्सी संवाद‘ तथा ‘कथाबिंदु‘ (सहयोगी रचनाकार– सुभाष नीरव और हीरालाल नागर) पुस्तकों को लघुकथा संग्रह कहा था। 1990 में प्रकाशित ‘प्रकारातंर’ (सम्पादित) को भी लघुकथा संकलन ही कहा था। लेकिन अब मैं यह अनुभव करता हूं, और जैसाकि वातायन के जनवरी अंक में मैनें कहा था, इस विधा को लघु कहानी ही कहा जाना चाहिए। मुझसे पहले भी कुछ रचनाकारों ने यह मुद्दा उठाया था।

दिसम्बर 2007 के ‘नया ज्ञानोदय‘ में डॉ0 गोपाल राय ने अपने आलेख ‘आलोचना में पारिभाषिक पदों के प्रयोग की अराजकता’ में इस विषय पर अपनी महत्वपूर्ण टिप्पणी की है । वह लिखते हैं –– ‘‘हिन्दी में ‘शार्ट स्टोरी‘ के लिए ‘आख्यायिका‘ और ‘गल्प पदों‘ का प्रयोग इतना प्रचलित हो चुका था कि उन्होनें अपनी वैसी रचनाओं के लिए कहानी, आख्यायिका, और गल्प पदों का प्रयोग साथ-साथ किया । पर हम जानते हैं कि हिन्दी में ‘शार्ट स्टोरी‘ के लिए ‘आख्यायिका‘ और ‘गल्प पद‘ नहीं चले, जिसका श्रेय रामचंद्र शुक्ल को है। उन्होंनें ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास में‘ शार्ट स्टोरी के लिए ‘छोटी कहानी‘ पद का प्रयोग किया जो उनके बाद ‘कहानी‘ के रूप में प्रचलित हुआ। आज भी यही पद सामान्य रूप से प्रचलित है पर इधर कुछ दिनों से ‘कहानी‘ के लिए ‘कथा‘ पद का भी प्रयोग होने लगा है जो भ्रमोत्पादक है । उसी के तर्ज पर ‘लघुकथा‘ पद तो और भी अनर्थकारी है।”

अत: लघुकथा के लिए ‘लघुकहानी‘ कहीं अधिक उपयुक्त, सार्थक एवं तर्कसंगत है । आशा है इस दिशा में सक्रिय रचनाकार इस विषय पर गंभीरता से विचार करेंगे। प्रस्तुत हैं कथाकार महेश दर्पण की दो लघु कहानियॉं। अन्य भाषाओं से हिन्दी में होने वाले ‘अनुवाद’ की वर्तमान स्थिति पर कवि सुशील कुमार का आलेख प्रकाशित किया जा रहा है। सुशील ने निश्चित ही एक गंभीर मुद्दा उठाया है, जिस पर विचार किया जाना चाहिए।



महेश दर्पण की दो लघु कहानियाँ

शाट

किसी का बेटा जा चुका था तो किसी की मां गुजर चुकी थी। किसी की बीवी नहीं रही थी तो किसी का पिता दम तोड़ चुका था। कोई बाल-बाल बच गया था तो किसी को दहशत मारे डाल रही थी ।
विस्फोट के बाद तीसरे दिन भी शहर के ज्यादातर लोग बेहद परेशान थे। किसी का बेटा अस्पताल में था तो किसी की मां। किसी की कोई खबर नहीं थी तो कोई पहचान में ही नहीं आ पा रहा था पुलिस के कहने के बावजूद कोई यह मान ही नहीं रहा था कि उसका भाई नहीं रहा तो कोई ऐन शिनाख्त के वक्त ही दम तोड़े दे रहा था। लोग पगलाये से इधर से उधर भाग रहे थे।
अखबार वाले ही नहीं , टीवी चैनलों वाले भी दौड़- दौड़ कर पीडि़तों से उनका हाल पूछने में लगे हुए थे।
एक चैनल वाला अपने आफिस को रिपोर्ट कर रहा था, “अब तक 60 से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं और इससे भी ज्यादा घायल हो गए हैं।
शहर की एक बच्ची इस सबसे बेखबर थी। बच्ची ने अपनी प्यारी गुड़िया को कस कर पकड़ा हुआ था। अपने में डूबी।, गुड़िया थामे वह जाने किस तरफ बढ़ी चली जा रही थी।
ठीक इसी वक्त उस पर भी किसी चैनल वाले की नजर पड़ गई। वह फौरन उसकी तरफ लपका – “ए बच्ची , कहां जा रही हो?”
“जिदल मेरी गुलिया को कोई खतरा न हो।“
“तुम्हें डर नहीं लगता?”
“मेली गुलिया है तो साथ में।“
चैनल वाला उसकी मासूमियत के सामने इस कदर बेबस हो गया कि उसे यह खयाल ही न रहा कि गुड़िया लिए उस बच्ची का शाट अपने चैनल के लिए रिकॉर्ड कर ले। देखते-देखते वह उसकी नजरों से ओझल हो गई।

आदत

दफ्तर जाते समय वह हर रोज गली के नुक्कड़ पर पहुंच कर पल भर को रुकता। पलट कर देखता और हाथ कुछ ऊपर उठा कर हिला देता।



दरवाजे से लगी सीढि़यों पर खड़ी पत्नी उसकी ओर देखती जवाब में हाथ हिलाती नजर आती। उसका हिलता हाथ देख कर वह सुकून से भर जाता और फिर पलट कर अपने रास्ते चल देता। उसे मालूम रहता कि इसके बाद भी पत्नी कुछ देर और उसे ओझल होते देखती रहेगी और फिर दरवाजा उढ़का कर अपने रोजमर्रा के काम-काज में मगन हो जाएगी।
रोज की तरह आज भी यही हुआ। उसने नुक्कड़ पर पहुँच कर पल भर के लिए खुद को रोका। फिर पलट कर जैसे ही हाथ ऊपर उठा कर हिलाने को हुआ, उसे खुद पर हंसी आ गई। दरवाजे पर पत्नी भला कहाँ से नजर आती। वह तो खुद उसे खाट पर बीमार हालत में छोड़ कर आया है। उसका उठा हुआ हाथ कुछ मरियल अंदाज में नीचे आया। इसके बाद वह पलट कर चल जरूर दिया, लेकिन रह-रह कर जाने क्यों उसे यही लगता रहा जैसे आज कुछ छूटा जा रहा है।



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आलेख

मूल रचना बनाम अनुवाद



सुशील कुमार


“हर बेचैन स्त्री
तलाशती है
घर प्रेम और जाति से अलग
अपनी एक ऐसी ज़मीन
जो सिर्फ़ उसकी अपनी हो
एक उन्मुक्त आकाश जो शब्दों से परे हो"
(`नगाड़े की तरह बजते शब्द`- पृष्ठ- ०९)

लेकिन हिन्दी भाषा-साहित्य की काव्यभूमि पर निर्मला पुतुल की ज़मीन कितनी अपनी है, हम आगे खुलेंगे इस आत्मसंशय के साथ कि उस ऊसर ज़मीन को अगर उर्वर प्रदेश न बनाया गया होता तो कैक्टस, नागफनी और बबूल सरीखे पेड़-पौधे ही वहाँ अपनी जड़ें जमा पाते!
देखने वाली बात है कि एक संताल आदिवासी परिवार में जन्मी-पली पुतुल का सिर्फ़ अपनी भाषा (संताली वांडमय, द्विभाषा नहीं) में अब तक एक भी कविता-संग्रह नहीं आया है। क्षेत्र में कई संताली पत्रिकाएं परिचालन में हैं, फिर भी अनुवाद से पूर्व वह इनमें लगभग नहीं के बराबर छपी हैं। हाँ, सामाजिक कार्यकर्त्ता होने के नाते विशेष गरज़ से रमणिका फाउंडेशन के द्वारा इनका द्विभाषी काव्य-संकलन 'अपने घर की तलाश में` प्रकाश में आया जिसमें प्रतिपृष्ठ दायीं ओर संताली और बायीं ओर हिन्दी में कविताएं आमने-सामने पाठकों से संवाद करती नज़र आती हैं, जो इस बात का पुख्ता सबूत है कि पुतुल की अनुदित कविताएं ही काव्यजगत में उनकी पहचान बना पाई हैं। किन्तु यक्षप्रश्न यह है कि किस भाषा-साहित्य में, हिन्दी में या संताली में या दोनों में, क्योंकि संताली भाषा के रचनाकार को हिन्दी भाषा-साहित्य के रचनाकार में ढ़ालने का जो प्रयास जाने-अनजाने जारी है, उससे अनुवाद-चिंतन की परंपरा से संबंधित कई-एक सवाल हाल के दिनों में उठ खड़े हुए हैं। समकालीन एक अन्य काव्य संग्रह 'नगाड़े की तरह बजते शब्द`, जिनमें अधिकतर कविताएं पहले संग्रह की ही हैं, भारतीय ज्ञानपीठ ने वर्ष २००४ में प्रकाशित की जो चर्चित रही और वर्ष २००५ के 'बेस्टसेलर पुस्तकों` की अनुक्रम में सूचीबद्ध भी हुई। दोनों ही संग्रहों में भाषा-रुपान्तर अशोक सिंह का हैं।
यहाँ यह बता देना समीचीन है कि संताली भाषा प्रक्षेत्र की अन्य क्षेत्रीय भाषाओं यथा- बांग्ला, भोजपुरी, उर्दू, खोरठा, नागपुरी, मैथिली की तरह संताली भाषा न तो हिन्दी वर्णमाला के समीप है और न सहज ग्राह्य। इसमें टोन, अंडरटोन, बोलने के लहजे, शब्दार्थ, ये सब बिल्कुल भिन्न हैं। अतएव जटिल भाषा-साहित्य के वाड़्मय पर पकड़ बनाकर उसकी संस्कृति या सृजन पर अनुवाद का कार्य बेहद जोखिम़ भरा होता है, इसलिए कोई करता है तो उसके शब्दकर्म को उत्साहित करना चाहिए। पर दु:खद है कि भारतीय ज्ञानपीठ से छपे इस संग्रह के आवरणपृष्ठ पर अंकित कवि अरुणकमल के वक्तव्य को यदि हटा दिया जाए तो यह बताना मुश्किल हो जाएगा कि रचना किस भाषा से अनूदित है। रुपान्तर का नाम भी छोटे अक्षरों में अंकित है सिवाय इसके, अनुवादक के लिए एक वाक्य, एक शब्द, एक अक्षर तक नहीं लिखा गया है, संग्रह के आमुख पृष्ठ पर रुपान्तरकार की अभिव्यक्ति की जरुरत भी नहीं समझी गई।

सभी स्वीकारते हैं कि परायी या इतर संस्कृति और दुरुह भाषा-साहित्य से संबंधित सृजन का अनुवाद मौलिक लेखन से भी कठिन होता है। इस संदर्भ में मूल रचना को अनुवाद के माध्यम से अशोक सिंह ने अपनी भाषा में उतना ही सहज और भावप्रवण बनाकर प्रस्तुत करने का जो अपरिमित कौशल, अभ्यास, अध्ययन और लेखन क्षमता का परिचय दिया है ( कि मूल रचना भी अनुवाद के सामने निष्प्रभ मालूम पड़ती है) उस पर प्रकाशक और (पत्रिकाओं में) संपादकों द्वारा नि:शब्द रहना कहाँ तक न्यायसंगत प्रतीत होता है? क्योंकि सृजनात्मक साहित्य का अनुवाद पुनर्सृजन की प्रक्रिया है जो मूल लेखन से किसी भी दृष्टि से न तो घटिया है और न कम महत्वपूर्ण। इस दृष्टि से हिन्दी अनुवाद-चिंतन परंपरा के एक मुख्य आधार-स्तंभ हरिवंश राय बच्चन का मत ध्यातव्य है। उनका मत है कि "स्तरीय अनुवादों से सृजनशील साहित्य निश्चित रुप से प्रभावित होता है। इसलिए अनुवाद की चरम सफलता यही मानी गयी है कि वह अनुवाद न होकर जिस अनुपात में मौलिक प्रतीत हो, उसी अनुपात में इसे सफल माना जा सकता है।" मौलिक सृजन की तुलना में अनुवाद की स्थिति के विषय में उनका कहना है कि "मैं अनुवाद को, यदि मौलिक प्रेरणाओं से एकात्म होकर किया गया हो, मौलिक सृजन से कम महत्व नहीं देता। अनुभवी ही जान सकेंगे कि प्राय: यह मौलिक सृजन से अधिक कठिन होता है।"
लेकिन बाजारवाद के इस युग में साहित्य में "मार्केटिंग" का जो प्रभाव देखा जा रहा है, उससे हिन्दी अनुवादक किस हद तक पीड़ित है और इसके क्या सांस्कृतिक-साहित्यिक फलाफल होंगे, इसको देखना-गुनना ही इस आलेख का वर्ण्य-विषय है क्योंकि बदलते परिवेश में, जहाँ सृजन की गुणवत्ता बाजार के द्वारा निर्धारित हो रही है, लोककला, लोकसंस्कृति, लोकसाहित्य और लोकचेतना को महज बाजार की वस्तु बन जाने का खतरा उत्पन्न हो गया है। बाजार में वस्तु प्रधान होती है, उसका निर्माता या वस्तुविद् नहीं क्योंकि उसकी मूल्यवत्ता, उसकी अर्थसत्ता से संचालित होती है। इस कारण साहित्य में अनुवादक के 'लोकेशन` से "मार्केंटिंग” को परहेज होता है क्योंकि इससे उसे एक धक्का-सा लगता है और सृजन को मूल रुप में प्रेषित करने की वंचना में अवरोध पैदा होता है। लेकिन क्रेता-पाठक इस चकमेबाजी से बच जाते हैं। मुगालते में उनकी जेबें भी कटने से बच जाती है।
निर्मला पुतुल की कविताओं के संदर्भ हमें नहीं भूलना चाहिए कि उनके अपने क्षेत्र संताल परगना और उससे बाहर दिल्ली तक उनकी जो साहित्यिक छवि बन रही है, वह कविताओं की अनूदित प्रतिलिपियों के प्रकाशन के बाद बनी है, उससे पहले नहीं।
खेद है कि समकालीन हिन्दी अनुवादकों को हाशिये पर धकलने में जितना बाजार दोषी है, उससे कम दोषी हिन्दी पत्र-पत्रिकाएं नहीं हैं। कुछ सचेत पत्रिकाओं को छोड़कर अन्य के संपादकों-संयोजकों का ध्यान इस ओर नहीं हैं। उनकी अन्यमनस्कता के कारण अन्य भारतीय भाषाओं में सृजन के हिन्दी अनुवाद को अपूरणीय क्षति हो सकती है।
चूंकि निर्मला पुतुल की काव्यवस्तु ने मेरे मन को मोहा है और ये भीतर तक मुझे आलोड़ती भी है, इसलिए मैं इनकी अनूदित कविताओं का अरसे से एक सजग पाठक रहा हूँ। लेकिन साथ ही साथ अनुवादक के साथ हो रही वंचना और उपेक्षा भी मुझे कहीं न कहीं हमेशा सालती रही है। स्वसंग्रहित विविध पत्रिकाओं से नीचे कुछ हिन्दी पत्रिकाओं के नाम अंकित है, अंक-संख्या, पृष्ठ-संख्या के साथ, जहाँ संताली कविताएं अनूदित होकर प्रमुखता से छपीं, पर इनमें न तो अनुवादक का नाम अंकित किया गया, न कविता के संताली से अनूदित होने का ही कोई प्रमाण मिलता है। अनजान पाठकों को तो हमेशा भरम रहेगा कि रचनाएं सीधे हिन्दी की है, और ऐसा हुआ भी हैं।
१. "अद्यतन", अनियतकालीन (सीवान) - अंक- ११/सितम्बर २००२. चार कविताएं प्रकाशित - मैं वो नहीं हूँ, क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए, अपनी जमीन तलाशती स्त्री, अपने घर की तलाश में ।
२. "अपेक्षा" (त्रैमासिक) अंक १२/जुलाई- सितम्बर २००२/पृष्ठ सं0- ५६. छ:कविताएं। ३. “प्रभात खबर” दीपावली विशेषांक २००५/पृष्ठ सं0- १३८ । दो कविताएं - बाहामुनी और अहसास होने से पहले।
४. “हंस” मई २००५/पृष्ठ सं0- ५० पर/तीन कविताएं मूलत: हिन्दी में छपी।
५. “इरावती” अंक- २/अक्टूबर- दिसम्बर २००५। पृष्ठ सं0- ४५ पर ५ कविताएं छपीं जिसमें दो संताली की है पर अनूदित होने का कोई जिक्र नहीं।
६. “अस्मिता” (पटना) अंक ०१/२००५ पृष्ठ सं0- ५९ पर
७. “हंस” संभवत: २००४ के मध्य के किसी अंक में निर्मला पुतुल की संताली कविताएं- `धर्म के ठेकेदारों की ठेकेदारी` और 'मेरा सब कुछ अप्रिय है`, हिन्दी की मूल रचना के रुप में छापी गई।
८. “समकालीन जनमत” पटना/सितम्बर २००३। आदिवासी विशेषांक पृष्ठ सं0- १०२ पर तीन कविताएं।
९. “कांची” रांची - जनवरी २००२ अंक में पृष्ठ सं0- ४३ पर दो कविताएं।
१०. “देशज अधिकार” फरवरी २००६/पिछले आवरण पृष्ठ पर प्रकाशित कविता "एक खुला पत्र अपने झारखंडी भाईयों के नाम।"
११. “युद्धरत आदमी” - अखिल भारतीय आदिवासी विशेषांक के पृष्ठ सं0-१३७ पर संताली हिन्दी कविताएं आमने-सामने, लेकिन अनुवादक का नाम नहीं।
१२. बिहार विधान परिषद से प्रकाशित पत्रिका "साक्ष्य" अंक-१०/सितम्बर २००० में पृष्ठ सं0-१९० पर तीन कविताएं।

उपर्युक्त के अतिरिक्त गद्य अनुवाद का भी यही हाल है ! जरा नज़र डालिये-
१. 'कांची` (रांची) अंक अक्टूबर २००३ कहानी विशेषांक। कहानी के मूलत: संताली होने का कोई संकेत नहीं। रुपान्तरकार का नाम नहीं।
२. 'युद्धरत आदमी`- आदिवासी स्वर और नई शताब्दी खंड-२ (पृष्ठ सं0-३३९) पर अंकित संताली आलेख जब पटना से निकलने वाली पत्रिका 'आधी दुनिया आधी जमीन` में प्रकाशित हुई तो वह मूल हिन्दी आलेख बन गया।


अनुदित रचनाओं से भाषान्तरण पर भी एक दृष्टि :

अनुवाद-चिंतन परंपरा के परिपक्व लेखक यदि मूल रचना से अनूदित सृजन को लेकर भाषान्तर का कार्य करते हैं तो यह अंकित करना नहीं भूलते हैं कि उनके इस पुनर्सृजन का आधार क्या है। निर्मला पुतुल की हिन्दी में अनूदित कविताओं के आधार पर अंग्रेजी, मराठी, उड़िया, उर्दु आदि भाषाओं में अनुवाद का उपक्रम जारी है। किन्तु, एकमात्र मराठी अनुवादक पृथ्वीराज तौर ने ही उल्लेख किया है कि 'यह रचना अमुक अनुवाद पर आधारित है।` मैं शेष भाषान्तरकारों से एक विनम्र सवाल पूछना चाहता हूँ कि क्या उन्होंने उनकी मूल रचना (जो संताली में है) से ही यह सुकार्य किया है अथवा अनुलेखन का आधार अशोक सिंह द्वारा अनूदित हिन्दी रचना ही रही है? क्या उनको संताली भाषा-संस्कृति का बोध है? यही नहीं, पुतुल की दोनों हिन्दी अनूदित संग्रह (“अपने घर की तलाश में” और “नगाड़े की तरह बजते शब्द”) पर काफी समीक्षाएं छपी हैं, दर्जनों पत्र-पत्रिकाओं में, पर किसी ने अनुवादक के कार्य को रेखांकित नहीं किया। कितनों ने तो नाम तक का जिक्र नहीं किया। यह सैकड़ों वर्ष पुरानी विरासत में मिली अनुवाद-साहित्य परंपरा के भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं है। इसलिए अनुवाद-चिंतन एवं साहित्य के अस्तित्व पर अब एक केन्द्रीय बहस की आवश्यकता है। यदि भाषान्तरकारों को उनके कार्यफल के रुप में सिर्फ गुमनामी और उपेक्षाएं मिलती रही तो हिन्दी भाषा साहित्य के विशाल हृदय-प्रदेश में जहाँ अनेकानेक देशी-विदेशी भाषा साहित्यों के सृजन के फूल अनूदित होकर विकसित होते है, मुरझाने लगेंगे। अन्य भाषाओं की प्रतिभाएं हिन्दी लेखकों के साथ इतनी गड्ड-मड्ड हो जायेंगी कि हिन्दी के मूल लेखक की मौलिकता एवं पहचान भी एक हद तक प्रभावित हो जायेगी। प्रकाशकों का क्या कहना, उनकी तो सिर्फ चांदी कटनी चाहिए। किन्तु भाषान्तर की स्वस्थ परंपरा कायम रखने के लिए प्रकाशक को इस विषय पर ईमानदार होना पडेग़ा। यह तभी संभव है जब संपादन निष्पक्ष और सावधानीपूर्वक हो और समीक्षक विषयांकित विन्दु पर सचेत हों। उनके द्वारा मूल रचना के अनुलेखन कला शिल्प के गुण-दोष की विवेचना भी मूल रचना के साथ ही अवश्य की जाय ताकि अनुवादक भी समालोचना की परिधि में आ सकें। इस क्रियाशीलन को पुन: जागृत करने की आवश्यकता महसूस की जा रही है जो हमारी चिरकालीन परंपरा भी रही है किन्तु अब अवमाननाग्रस्त हो चली है।
एक संताली रचनाकार को हिन्दी भाषा साहित्य के मूल लेखक के रुप में जिस तरह से आगे खड़ा करने की जो प्रकिया अपनायी गई है उसकी आलोचना इस भय के कारण भी आवश्यक है कि इस परंपरा का कहीं सामान्यीकरण न होता चला जाय। मुझे हैरत होती है कि हिन्दी साहित्य के क्षेत्र का एक बहुचर्चित सम्मान "बनारसी प्रसाद भोजपुरी सम्मान" वर्ष २००४ के लिए निर्मला पुतुल का चयन किया गया है जो उनकी अनूदित कृति 'नगाड़े की तरह बजते शब्द` जिनके अनुवादक अशोक सिंह है, के लिए देने की घोषणा की गई है। यह भी कि, सम्मान समिति के निणार्यक मंडल में हिन्दी के एक वरिष्ठ समालोचक एवं एक वरिष्ठ कथाकार के अतिरिक्त तीन विज्ञ साहित्य-सेवी भी है किन्तु वे इस बात से अब तक बेखबर है कि पुतुल हिन्दी की नहीं, संताली मूल की कवयित्री हैं और उनकी मूल रचना संताली में ही है। (अगर संताली भाषा में उत्कृष्ट शब्दकर्म पर यह सम्मान देने का निर्णय आता तो बात और थी) क्योंकि सर्वविदित है कि यह सम्मान हिन्दी कवि और हिन्दी कथाकार को उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए अब तक दिये जाने की परंपरा रही है। पूर्व के सम्मान संबंधी स्थापित प्रतिमानों को यहाँ खारिज करते हुए इस निर्णय ने जहाँ एक ओर हिन्दी-अनुवाद-साहित्य के लिए खतरे की घंटी बजा दी है, वहीं दूसरी ओर इतरभाषी रचनाकार हिन्दी रचनाकार के रुप में प्रतिस्थापित कर देने से हिन्दी के समानधर्मा कवियों को अपनी मौलिकता की पहचान एवं अस्तित्व पर एक बार नये सिरे से सोचने को मजबूर कर दिया है।
इसका मतलब यह नहीं है कि मैं किसी एंगिल से पुतुल की कविताओं के मेरिट में जा रहा हूँ। उनका काव्यवस्तु और काव्यविवेक यहाँ आलोचना का विषय नहीं है। उनकी रचनाओं के पार्श्व में जो कुछ है उसे यहाँ रखने का प्रयोजन मात्र इतना ही है कि मूल रचनाकार के साथ-साथ अनुवादक की हित-चिंता से भी हिन्दी साहित्य का अविच्छिन्न सरोकार होना चाहिए।
प्रस्तुत लेख में एक अनुवादक और एक ही मूल लेखक के मुद्दे उठाये गये हैं। और दोनों समकालीन हैं, समस्थानिक भी। दुमका में जन्में, पले। वयस् में क्रमश: एक वर्ष आगे-पीछे। दोनों सहकर्मी, सामाजिक कार्यकर्ता भी। पिछले बारह वर्षो से दोनों एक साथ विविध जन-जातीय विषयों पर शोध कार्य भी करते रहे हैं।
निर्मला पुतुल की अनूदित कविताओं की भांति अनुवादक अशोक सिंह की अपनी कविताएं भी वागर्थ, वसुधा, कथादेश, काव्यम्, साहित्य अमृत, सृजन पथ, अक्षरा, साक्षात्कार, इंद्रप्रस्थ भारती, समकालीन भारतीय साहित्य जैसी चालीसों विशिष्ट हिन्दी पत्रिकाओं में छपती रही हैं। इसके अतिरिक्त संताली जीवन एवं संस्कृति पर उनका शोध विषयक आलेख भी 'संवेद` जैसी पत्रिका एवं हिन्दुस्तान, दैनिक जागरण, प्रभात खबर जैसे अखबारों के पन्नों पर दर्ज होते रहे हैं। फर्क़ सिर्फ यह है कि अशोक सिंह हिन्दी से हैं, निर्मला पुतुल संताली से। पुनश्च, हिन्दी में अपनी जमीन तलाशती पुतुल को भाषा पर पकड़ बनाने में अभी कुछ वक्त लगने की संभावना है क्योंकि 'नया ज्ञानोदय`, अंक अक्टूबर २००५ और 'समकालीन भारतीय साहित्य`, (अंक १२५/मई-जून २००६) में हाल में पुतुल की स्वयं के द्वारा अनुदित हिन्दी कविताएं `पहाड़ी यौवना` `देवदार` 'मां`, 'औरत`, इत्यादि में प्रारंभिक भाषाई कमजोरियां ही उजागर होती है। यहाँ एक अहम् सवाल है कि अगर उनकी हिन्दी सशक्त और पकी हुई होती तो उन्हें अनुवादक की वैशाखी की आवश्यकता क्यों पड़ती? पूर्व की अनुदित रचनाओं की तुलना में यहाँ भाषा की बुनावट में एक कृत्रिमता-सी आ गई है जिसमें भाषा का परायापन हावी है और आदिवासियत का अभाव भी एक अंश तक खटकता है। 'नया ज्ञानोदय' के युवा पीढी विशेषांक,मई ०७ में पुतुल की प्रकाशित कविताएं देखकर तो मन ग्लानि से भर उठता है।
उपर्युक्त सभी विचार-विथियों के समर्थन में मै यहां उद्धृत करना चाहता हूँ कि वर्ष १९८८ में पंजाब के क्रांतिकारी कवि पाश की हत्या के उपरांत उनकी कविताओं का हिन्दी रुपान्तर संकलन की प्रस्तावना तैयार करते हुए नामवर सिंह जी ने अनुवादक के प्रति अपने आभार के ये वाक्य लिखे थे जो अनुकरणीय एवं श्लाघ्य है- "पाश की कविता में यह ताकत है जो अनुवाद में भी इतना असर रखती है। ..... हमें तो चमनलाल का कृतज्ञ होना चाहिए कि उन्होंने अनुवाद को संवारने-निखारने का धीरज छोड़कर जल्द से जल्द पाश की कविताओं के अधिकांश को हिन्दी में सुलभ करा दिया। आशा की जानी चाहिए कि इस दिशा में वे भी सक्रिय होंगे जो कवि हैं - पाश के समानधर्मां हिन्दी कवि।"
क्योंकि अनुवादक तो फिर भी आदमी है, अगर पेड़ की भी उपेक्षा की जाती है तो पेड़ भी दु:खी होता है –

"पेड़ों को दु:ख है कि
उस कवि ने भी कभी अपनी कविताओं में
उसका जिक्र नहीं किया
जो रोज उसकी छाया में बैठ
लिखता रहा देश-दुनियां पर कविताएं।"

(`पेड़` कविता से : रचना अशोक सिंह
`उन्न्यन`/अंक-२६/पृष्ठ सं-१९३)



संपर्क : हंसनिवास, कालीमंडा,
हरनाकुंडी रोड, पोस्ट- पुराना दुमका,
दुमका, झारखंड- ८१४ १०१
दूरभाष : 09431310216
ई मेल :sk.dumka@gmail.com



अगला अंक
वातायन- मार्च, 2008

हम और हमारा समय के अंतर्गत पंजाबी के समकालीन चर्चित कवि बलबीर माधोपुरी की कविताएं और जीवनी के अंतर्गत महान रूसी लेखक मिखाइल फ्योदोर दास्तोव्स्की की संक्षिप्त जीवनी।