शनिवार, 30 अगस्त 2008

वातायन - सितम्बर, २००८



चित्र : डॉ० अवधेश मिश्र

हम और हमारा समय

मैं क्यों लिखता हूं

हृदयेश

मैं क्यों लिखता हूं को बताने के लिए मैं एकदम विषय के सिरे पर जाना चाहूंगा कि मैंने लिखना कब प्रारम्भ किया था. प्रारम्भ में लेखन से जुड़ने के जो कारण होते हैं वे बाद में धीरे-धीरे समय के साथ परिष्कृत होते रहते हैं. लेखक अपने समय और समाज के साथ गहरे से जुड़ता हुआ, जीवन के तरह-तरह के पाठों से सीखता हुआ, दीक्षित व सांस्कारित होता हुआ परिपक्व होता रहता है. परिष्कार या परिपक्व होने की प्रक्रिया लंबी है, निरंतर गतिमान. यों भी कहा जा सकता है कि यह लेखक के चेतन-जीवन पर्यन्त सक्रिय रहती है. जब यह निरन्तरता रुक जाती है तब लेखक चुक जाता है. पिछले लिखे से ज्यादा पायेदार, अधिक उच्चकोटि का लिखने की संभावना समाप्त हो जाती है. उसका लेखन तब अभ्यास-जनित बन जाता है, रौंदे हुए रास्ते पर चलने वाला, अन्वेषी बनने के उद्यम से अपने को विरत करता हुआ.

मेरी स्कूली शिक्षा मात्र हाईस्कूल तक हुई थी. पिता में दूरदृष्टि नहीं थी. जो एकदम सामने है उसकी प्राप्ति ही उनका लक्ष्य होता था और उसी से वह संतुष्ट हो जाते थे . तब दसवीं दरजा उत्तीर्ण नवयुवकों के लिए बाबूगीरी की नौकरियों की कोई कमी नहीं थी. कोई प्रतियोगितात्मक परीक्षा नहीं. किसी का कहना, बोल देना ही बस काफी. पिता जनपद न्यायालय में कार्यरत थे, सेवा के अंतिम चरण में. उन्होंने अपने बड़े बेटे को वहां नियुक्त करा दिया था. मेरे लिए भी वैसी पक्की व्यवस्था कर दी थी. मेरे कई साथियों ने अगली कक्षाओं में दाखिला ले लिया था. मैं भी पढ़ाई जारी रखना चाहता था. मैंने बारहवीं कक्षा की पढ़ाई बतौर एक वैयक्तिक छात्र पूरी की थी. बी.ए. , एम.ए. की परीक्षाएं तब इस प्रकार से अनुमन्य नहीं थीं. लग गए पूर्ण विराम को हटाने के लिए तब मैं हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग की मध्यमा और उत्तमा की परीक्षाओं की ओर उन्मुख हो गया था, क्योंकि ये परीक्षाएं नौकरी करते हुए भी स्वअध्ययन की पूंजी के बल पर दी जा सकती थीं. इस अध्ययन ने साहित्य से मेरा परिचय करा दिया था. कचहरी में नौकरी करने से पूर्व मैंने कुछ समय तक आर्डनैंन्स डिपो में काम किया था. वहां मेरे अनुभाग में एक सहकर्मी थे उपाध्याय जी. वह वहीं कार्यसमय में अवकाश जुटाकर उपन्यास लिखा करते थे. संकेत पा लिया था. मैंने भी लिखने की डगर पकड़ ली.

मुझे यह स्वीकार करने में कोई झिझक नहीं है कि सन १९५१ के आसपास मैंने जो वैसा चुनाव किया था, यानी लेखन से जुड़ाव , तो शिक्षा में साथियों से पिछड़ने और बाबूगिरी की एक बेहैसियत नौकरी करने की हीनभावना से उबरने के लिए. पत्र-पत्रिकाओं में नाम व फोटो के साथ प्रकाशित होना प्रतिष्ठा देता है, साहित्य सर्जक बौद्धिकों के बीच का आदमी माना जाकर प्रथम श्रेणी का नागरिक बन जाता है, प्रतिकूलताएं भी उसका स्वागत-सत्कार करने के लिए बाध्य हो जाती हैं, ऐसी तब कुछ रोमानी अवधारणाएं एक साहित्यकार के प्रति मेरे मन में थीं. प्रतिष्ठा के कई रूप होते हैं. मोटा-मोटी एक रूप होता है भौतिक , यानी नफा-नुकसान पहुंचने की ताकत रखने वाला जो किसी राजनेता, बड़े अधिकारी या मिल-फैक्टरियों के मालिकों के साथ संबद्ध होता है और दूसरा सात्विक ऊर्जा वाला, आंतरिकता को समृद्ध करने की कूबत रखने वाला, जो साहित्य, कला एवं संगीत के साधकों के साथ संलग्न होता है. प्रतिष्ठा के इस दूसरे रूप में अधिक व्यापकता और स्थायित्व होता है. प्रतिष्ठा के भौतिक और सात्विक भेद की समझ उस समय मुझमें नहीं थी. उस वक्त प्रतिष्ठा यानी यश का स्थूल प्रकार ही सामने था.

शायद पहली या दूसरी रचना ही प्रकाशन के लिए स्वीकार कर ली गयी थी. देश की स्वतंत्रता के बाद के शुरुआती समय-दौर में जीवन के हर क्षेत्र में काफी-कुछ आदर्श और मूल्यपरकता थी. साहित्य में भी. तब पत्र-पत्रिकाओं के संपादक रचना प्राप्ति की सूचना संबधित लेखक को बिना भेदभाव के तत्काल देते थे, एक माह के अंदर उसे अपने निर्णय से अवगत करा देते थे और इसके बाद इस जानकारी से भी कि रचना किस अंक में आ रही है. बीच -बीच में संपादक लेखक को पत्र लिखकर उसकॊ सींचने-पोसने के लिए सलाह-सुझावों का खाद-पानी भी देते रहते थे. तब साहित्य में आज जैसी न तो राजनीति थी, न गुटबाजी और बेशर्म उठा-पटक. जन्म ले रहा लेखक भ्रूणहत्या से बचा रहता था. दूरदराज के कस्बों, छोटे शहरों में रहने वाले साहित्य की राह पकड़े लेखकों के लिए यह स्थिति अनुकूल थी. मेरी रचनाएं सधन्यवाद वापस भी आ रही थीं, किन्तु प्रकाशन की स्वीकृति भी आगे-पीछे उपस्थित होकर सहारा दे रही थी. इसलिए लेखन की ओर डग बढ़ना रुका नहीं, जारी रहा.

बड़े घरानों की पत्रिकाएं पारिश्रमिक के रूप में खासा पैसा देती थीं , जैसे धर्मयुग, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी . मैं इन पत्रिकाओं से जुड़ने लगा था. इन्हीं के साथ सरिता, माया, नीहारिका से भी रिश्ते बनाने लगा था, जो भी पत्रं-पुष्पं नहीं, पुष्ट फल देती थीं. ये पत्रिकाएं भी मन-भावन साज-सज्जा धारण किए होती थीं और रेलवे, बस स्टेशनों के स्टालों पर उपलब्ध रहती थीं. अब धन का आकर्षण भी लिखते रहने का एक कारण बन गया था. कौन-सी पत्रिका व्यक्तित्वहीन है या दिशाभ्रष्ट बाजारू इस ओर ज्यादा गौर नहीं करता था. माह में दो नहीं तो दो माह में तीन कहानियां तो लिख ही डालूं, यह भी कोशिश रहती थी. छपास की भूख ज्यादा हावी थी.

कहानी के अलावा मैं उपन्यास को भी अपनी कलम की जद में ले आया था. प्रकाशक उपन्यास को प्रकाशन के लिए हाथों-हाथ लेते क्योंकि पाठकों के बीच इनकी अच्छी मांग थी. प्रकाशक के लिए उपन्यास में अपनी लागत पूंजी को लेकर कोई खतरा नहीं रहता था बल्कि यह मुटिआये लाभ का सौदा होता था. कहानी की अपेक्षा उपन्यास लेखन की दृष्टि से एक बड़ा काम था. यह पोखर से बाहर निकलकर नदी में उतरकर पानी के विस्तार, बहाव और गहराई से परिचित होना होता है. इसे यों भी कहा जा सकता है कि यह जीवन को उसके अनेक रंगों, शेडों व बीसियों चरित्रों और विस्तृत समय-खंड को लयात्मक ढंग से साधना होता है. जटिल और कठिन साध्य कार्य ही पहचान दिलाते हैं. आप अपनी विधा में स्वयं को हाशिये से खिसकाकर केन्द्र की ओर अग्रसारित करने लगते हैं. धन के साथ पहचान अर्थात यशेच्छा भी लेखन को जारी रखे हुए थी.

फिर यों आगे बढ़ते-बढ़ते एक समय ऐसा भी आया कि सामाजिक बोध दबाव बनाने लगा. गहरे से गहरा. यह भाव जगने लगा कि कथा-सृजन एक साहित्यिक आयोजन के साथ-साथ सामाजिक कर्म भी तो है. इसके द्वारा अन्याय, उत्पीड़न, शोषण, असमता के विरुद्ध आवाज भी तो उठायी जा सकती है. समय की मांगों और इन मांगों की जरूरतों को भी रेखांकित किया जा सकता है. एक सभ्य, शिष्ट और मानवीय गरिमायुक्त समाज की संरचना की रूप-रेखा भी प्रस्तुत की जा सकती है. यह प्रस्तुति तभी समर्थवान और लम्बी आयु की संभव है जब भाषा, शिल्प, कथ्य और दृष्टि से उसको हर स्तर साधा जाए. लेखक का ध्यान तब रचना की संख्या पर न होकर उसकी गुणवत्ता पर होता है.

लिखने के कारण में अब यों औदात्य भी जुड़ गया. अब मैं जब कोई कृति पूरी करता हूं तो कलम की सार्थकता के साथ अपने होने की सार्थकता की भी गहरी अनुभूति मुझमें होती है. स्नान कर साफ धुले कपड़े पहनने पर जो आनन्द मिलता है वैसे ही आनन्द को देर तक अपने अन्दर महसूस करता रहता हूं.

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शाहजहांपुर (उत्तर प्रदेश) में १९३० में जन्मे हृदयेश जी का पूरा नाम है हृदयेश नारायण मेहरोत्रा .

* हृदयेश जी की प्रकाशित कृतियां :

उपन्यास : 'गांठ'(१९७०), 'हत्या'(१९७१), 'एक कहानी अंतहीन'(१९७२), सफेद घोड़ा काला सवार' (१९७६), 'सांड' (१९८१), 'नास्तिक' (अनुवाद: १९८४), 'पुनर्जन्म'(१९८५), 'दण्डनायक'(१९९०), 'पगली घण्टी' (१९९५), 'किस्सा हवेली'(२००४) और 'तिक्की' (२००८).

कहानी-संग्रह : 'छोटे शहर के लोग' (१९७२), 'अंधेरी गली का रास्ता' (१९७७), 'इतिहास' (१९८१), 'उत्तराधिकारी '(१९८१), 'अमरकथा' (१९८४), 'प्रतिनिधि कहानियां' (१९८८), 'नागरिक' (१९९२), 'सम्मान' (१९९६), 'जीवनराग' (१९९९), 'सन उन्नीस सौ बीस' (१९९९), 'उसी जंगल समय में '(२००४), 'दस प्रतिनिधि कहानियां' (२००६).

** 'सफेद घोड़ा काला सवार' तथा 'सांड' उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा पुरस्कृत.

*** प्रतिबद्ध सृजन-यात्रा के लिए १९९३ के 'पहल सम्मान' से समादृत.

सम्पर्क : १३६/२, बक्सरियां , शाहजहांपुर (उ०प्र०) - २४२००१
मोबाइल नं० ०९४५१८०७११९
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बातचीत



वरिष्ठ कथाकार राजेन्द्र यादव के साथ रूपसिंह चन्देल की बातचीत

राजेन्द्र जी २८ अगस्त, २००८ को ७९ वर्ष के हो गये. लेकिन आज भी वह चिर युवा दिखाई देते हैं. अपने विषय में बहुत कुछ छुपा जाने (मुड़-मुड़के देखता हूं ) वाले राजेन्द्र जी अपनी वय को छुपा जाने की कला भी जानते हैं. उनकी इस कला के पीछे 'हंस' कार्यालय में गूंजने वाले उनके ठहाके हैं . मैं कामना करता हूं कि उनके ये ठहाके 'हंस' कार्यालय में आगामी पचास वर्षों तक यूं ही बदस्तूर गूंजते रहें. पचासों बार उनके ठहाकों का मैं न केवल साक्षी रहा बल्कि शामिल भी. और तभी एक दिन उनसे विभिन्न विषयों पर लम्बी बातचीत करने की इच्छा हुई. यह बातचीत दो बैठकों में की गई. पहली बैठक लगभग चार घण्टे चली थी. पूरे समय हम बातचीत करते रहे थे. चार घण्टो की बातचीत पचास पृष्ठों में सिमटी थी. दूसरी बैठक तीन घण्टों की थी और वह तीस पृष्ठों में दर्ज हुई थी. इस प्रकार राजेन्द्र जी के साथ मेरी बातचीत अस्सी पृष्ठों में दर्ज है.

यदि मैं गलत नहीं हूं तो राजेन्द्र जी से सबसे लम्बा साक्षात्कार मैंने दर्ज किया. प्रस्तुत है पहले साक्षात्कार पर 'अकार' पत्रिका के सम्पादक श्री गिरिराज किशोर की टिप्पणी और साक्षात्कार के कुछ महत्वपूर्ण अंश.


गिरिराज किशोर की टिप्पणी :

राजेन्द्र यादव हिन्दी के सबसे विवादास्पद, जीवन्त और टकराहट पैदा करने वाले लेखक हैं. उनकी गालियां भी नकारात्मक और कभी-कभी सकारात्मक भी, चर्चा का विषय बन जाती हैं. अपने मत को पुरज़ोर तरीके से प्रतिपादित करने में उनका कोई सानी नहीं है. -------वैसे वह जादू टोने के खिलाफ हैं पर उन्होंने अपने अन्दर सम्मोहन उत्पन्न किया है. औरत हो या मर्द सम्मोहन का भरपूर उपयोग करते हैं. जब चाहें तोड़ भी देते हैं. सम्मोहित व्यक्ति तत्काल अपने हरवे लेकर सामने जा खड़ा होता है. महिला और दलित उनकी क्रान्ति के दो मजबूत पाए हैं. व्यवहार और लेखन में स्त्री-विमर्श में कुछ दरारें नजर आई हैं. पर उनके स्टण्ड मे कोई फर्क नहीं आया. -------अपनी बात के लिए मित्र को हताहत कर सकते हैं. उनके इस साक्षात्कार में इसकी कई एक बानगियां मिलेंगीं.

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सच कह दूं ऎ बिरहमन*

राजेन्द्र जी के विषय में कहा जाता है कि वे साहित्यिक विवादों में रहना पसन्द करते हैं. यह कहना शायद अनुचित न होगा कि वे विवाद उनकी सामाजिक सोच, वैचारिक प्रतिबद्धता और साहित्यिक सरोकारों के पुनःपरीक्षण के परिणाम होते हैं. साहित्य-सृजन की अपेक्शा साहित्यिक जुगाली करने वालों को यह सब कुफ्र लगता है. राजेन्द्र जी के विषय में यह बात सत्य है कि वे घोर पढ़ाकू किस्म के इन्सान हैं और आज जब हिन्दी-साहित्य में बिना पढ़े फतवे देने वाले (अपढ़-से) लोगों का आधिक्य है तब राजेन्द्र जी उन रचनाओं की परम्परा में खड़े दिखाई देते हैं जो न केवल वैश्विक-विशिष्ट साहित्यिक योगदान के लिए जाने जाते हैं; बल्कि अपनी बहु-पठन वृत्ति के लिए भी उन्हें हम जानते हैं -- चाहे वे तोल्स्तोय - गोर्की हों या दॉस्तोएव्स्की.

'हंस' के प्रेमच्न्दीय गौरव को अक्षुण्ण रखते हुए उसे पत्रिका से आगे 'मंच' का स्वरूप प्रदान करने का श्रेय राजेन्द्र जी को है और उनकी एकमाअत्र चिन्त्रा का कारण 'हंस' होता है. न वे खुद और न उनका स्वास्थ्य. ठहाकों ने उन्हें चिर युवा बना रखा है. शायद वे अपने किस्म के निराले साहित्यकार-सम्पादक हैं जो बीस वर्ष की युवती से भी शिष्ट मजाक कर ठहाका लगा सकते हैं. यह उनकी जीवंतता को प्रमाणित करता है.

राजेन्द्र जी ने 'हंस' के माध्यम से स्त्री और दलित समस्याओं पर अपनी चिन्ताएं व्यक्त कीं और सबसे पहले नारी-दलित विमर्श को विचार का विषय बनाकर अनेकों को उस पर सोचने के लिए उत्प्रेरित किया. उन्होंने सक्षम-अक्षम अनेक दलित रचनाकोरों को 'हंस' का मंच प्रदान किया---- प्रोत्साहन के लिए ही सही. प्रस्तुत है साहित्यिक और साहित्येतर विषयों पर रजेन्द्र जी के साथ बातचीत के कुछ प्रमुख अंश: --

रूपसिंह चन्देल : इधर 'विवादास्पद' विशेषण आपकी पहचान बनता जा रहा है. यहीं से क्यों न अपनी बात शुरू करें.

राजेन्द्र यादव : मुझे नहीं मालूम विवादास्पद का क्या अर्थ वे लेते हैं. शायद घूंघट और बुर्कों वाली जमात में किसी स्त्री का मुंह खोलकर चलना ही उसे विवादास्पद बनाता हो. आत्मतुष्ट, लद्धड़, मुर्दा और अन्तिम सत्यों तक पहुंचे हुए समाज में कुछ असुविधाजनक सवाल उठाना ही विवादास्पद व्यक्ति के रूप में जाना जाता है, बाद में धीरे-धीरे लगने लगा कि शायद मेरी बातें चली आती परम्पराओं से हटकर होती हैं और कुछ विश्वासों के साथ आराम से चिपके बैठे लोगों के गले नहीं उतरतीं. न उन्हें यह अभ्यास होता है कि मुद्दों को नयी दृष्टि से देखें, न शायद जरूरत महसूस होती है. वे पचासों बार कही-सुनी बातों को अपने शब्दों में दुहरा देते हैं तो तालियां बजने लगती हैं. भवान की सुनी-पढ़ी महिमा को आप गदगद होकर दुहराते जाइए, आप भक्त, विद्वान, चिन्तक, दार्शनिक सब कुछ मान लिए जाएंगे. अपनी अक्ल लगाने की जरूरत ही नहीं है. पुराने और घिसे-पिटे को सही जगह सजाकर नाटकीयता से पेश कर दीजिए--- यहां आप अद्भुत विचारक हैं. आप सिर्फ इतना कह दीजिए कि भगवान नाम का यह 'अन्तिम सत्य' आपके चिन्तन, कर्म, विवेक की सारी पहल (इनीशियेटिव) आपके हाथ से छीनकर आपको सिर्फ कठपुतलियों में बदल देता है, वह आपको अपने किए की जिम्मेदारियों से मुक्त करके सारे मानवीय सरोकारों को सोख लेता है. खुद आपके द्वारा गढ़ा गया भगवान-रूपी भस्मासुर सबसे पहले आपको ही खा जाता है. लीजिए साहब, आप विवादास्पद भी हैं और सिरफिरे भी.

पहली बात तो यह कि मैं कोई ऎसी बात नहीं कहता जो और लोग पहले न कह चुके हों. गहराई से सोचने वाले सारे लोग यही सब कहते रहे हैं. बात सिर्फ इतनी ही है कि मैं उन्हें अपनी तरतीब दे देता हूं. आग्रह सिर्फ यही है कि चीजों को विश्वास से नहीं, तर्क से देखो. जैसी जो चीज आपको दे दी गयी है उसे अपनी तरह जांचो. हमारे जीवन, सोच, आचार-व्यवहार में जाने कितने अन्धविश्वास संस्कार बनकर हमें निर्धारित-नियन्त्रित करते हैं, उन पर पुनर्विचार करना क्या सचमुच इतना बड़ा अपराध है? हम तार्किक और अतार्किक के अन्तर्विरोधों के शिकार हैं, उन्हें समझ के स्तर पर साफ करना जरूरी है. बुद्धिजीवी का अर्थ सिर्फ दूसरों द्वारा चबाए गये की जुगाली करना ही नहीं है, खुद अपने ढंग से विश्लेषण करना भी है. उसके लिए कुछ भी न पवित्र, भव्य, दिव्य होता है न भ्रष्ट, अस्पर्श्य और तिरस्करणीय. अब अगर मैं कहता हूं कि अभिनन्दनों और श्रद्धांजलियों की भाषा एक ही क्यों होती है-- वह क्यों दयनीय निरर्थकता की अतिशयोक्तियों की कवायद बनकर रह जाती है? क्यों वहां वह व्यक्ति नहीं होता जो कि वह सचमुच था. तुम्हीं बताओ यह सब कहना ही क्या कुफ्र है?

मुझे लगता है कि चीजों को ऎतिहासिक, सामाजिक और व्यापक परिप्रेक्ष्य में रखकर देखा जाना चाहिए. जैसे मान लीजिए आपने कहा, 'यह रचना बहुत सुन्दर है' स्वाभाविक है : मैं जानना चाहूंगा कि इसमें वह क्या है जिसे आप सुन्दर कह रहे हैं ? उसकी अपनी कलात्मक संरचना के साथ उसे सुन्दर बनाने वाली एक और चीज है और वह है आपकी अपनी अभिरुचि, दृष्टि और परख के मानदण्ड. यानी देखने वाले की निगाह. साथ ही यह प्रश्न है कि वह दृष्टि कहां से आई है. जाहिर है सौन्दर्य-बोध की एक परम्परा है, शास्त्र है. पिछले सौ सालों के साहित्य को परखने और एप्रिशियेट करने की हमारी सारी अभिरुचियां पश्चिम से आई हैं. परम्परागत सौन्दर्यशास्त्र से आप सस्कृंत साहित्य प्रेरित रचना को तो परख साकते हैं, छायावाद को नहीं. छायावाद या बाद की कविता को समझने के लिए आपके पास पश्चिम, शुरू में इंग्लैण्ड और बाद में योरुप और इधर लातिनी अमेरिकन, अफ्रीकी इत्यादि कविताओं और सामाजिक विमर्श को समझने की पृष्ठभूमि होनी चाहिए. यानी रचना की सुन्दरता को आत्मसात करने के लिए सिर्फ भावुकता या संवेदना से बात नहीं बनेगी, बौद्धिक और व्यापक फलक की भी जरूरत पड़ेगी. अब यह आपके ऊपर है कि अपनी अन्तर्वस्तु देकर आप उसे कितना अपना या अपनों के लिए 'गैर-बाहरी' बना लेते हैं.

सुन्दरता का यह विश्लेषण यहीं खत्म नहीं होता कि साहित्य की यह सारी समझ और सौन्दर्य-बोध हमने पश्चिम से सौ-डेढ़ सौ सालों में पाया, घोटा और आत्मसात किया है-- उसे अभ्यास और संस्कार बनाया है. पश्चिमी होने के साथ-साथ वह दो हिस्सों में बंटा है--- वहां एक धरा औपनिवेशिक साम्राज्यवादी है तो दूसरी लोकतान्त्रिक और राष्ट्रवादी. डैफोडिल्स आपके यहां होते हों या न होते हों, मगर आप शान्ति से आरामकुर्सी पर बैठे वर्डस्वर्थ की इस कविता को मन की आंखों से देखते, सौ-डेढ़ सौ साल विभोर होते रहने के अभ्यास से आये हैं. इस विश्वास के साथ कि सौन्दर्य सार्वभौमिक होता है, उसके लिए देश-काल की सीमाएं नहीं होतीं. मैं कहता हूं कि ऎसा नहीं है; वहां देश और काल से भी अधिक उसी में स्थित एक विशेष वर्ग भी है, विशेष परिवेश में पली संवेदना भी है यानी एक ऎसा व्यक्ति जिसके पास बड़ा-सा घर बंगला है, चारों तरफ तरह-तरह के फूल पत्तों वाले हरे लॉन हैं, बड़ी-सी कोठी का चौड़ा बराण्डा है, वहां संध्या के झुटपुटे में सामने के मोर-पंखी और पॉपलर पेड़ों पर अस्त होती सुनहली धूप देखता चिड़ियों की टिवट-टिवट सुनता सारी चिन्ताओं से मुक्त अरामकुर्सी पर आंख मूंद कर लेटा, बीच-बीच में शराब की चुस्कियां लेता सम्भ्रान्त सम्पन्न वह व्यक्ति है जो मन की आंखों के सामने डैफोडिल्स के खिले हुए विस्तार का आनन्द ले रहा है, ला-हैमसेन्स मरसी के रोमानी वातावरण में नायक द्वारा झटके से उठाकर घोड़े पर बैठा ली गयी सुन्दरी को क्षितिज के पार धुन्ध में जाते हुए देख रहा है, 'चार्ज आफ दा लाइट ब्रिगेड' के आधा-आधा लीग तय करते हमलावर घोड़ों की हांफनी सुन रहा है, कुबलाई खां के अफीमी सपनों की सैर कर रहा है या रबि बिन अजरा में अपने आप को किसी चाक पर रखे बर्तन की तरह आकार देते अदृश्य हाथों की दार्शनिकता में डूबा है. कितनी आन्तरिक शान्ति मिलती है स्कूल-कॉलेज के किशोर दिनों से मन पर मंडरती इन परछाइयों में फिर-फिर घूमना----.

उसके काव्य सौन्दर्य को पूजा भाव से जीने वाला अतीत के सांस्कृतिक वैभव में पला साम्राज्यवाद की कृपा से निश्चिन्त और आधुनिक होता हुआ कुलीन है. यह कालिदास के काव्य का आनन्द भी उसी गहराई से ले सकता है. इसे आधुनिक स्त्रोतों से बौद्धिक सन्तुष्टि और प्राचीन से आध्यात्मिक शान्ति दोनों की जरूरत है. यह राष्ट्रीयता का भी विरोधी नहीं है, मगर राष्ट्रीयता उसे उतनी ही चाहिए कि साहब लोगों का लोकतन्त्र बर्दाश्त कर सके, यानी खुद अपने लिए खतरनाक न हो जाए.

रूपसिंह चन्देल : क्या साहित्य आपको लोकोत्तर आनन्द में नहीं पहुंचाता ?

राजेन्द्र यादव : जरूर पहुंचाता है. मैं इस लोकोत्तर आनन्द के सौन्दर्य शास्त्र को ही समझने की कोशिश करना चाहता हूं. क्या यह सार्वभौमिक और निरपवाद रूप से सभी के साथ ऎसा करता है या एक चुना हुआ फुरसती, निश्चिन्त वर्ग है जिसे यह सम्बोधित है. कुछ चीजें जो संशयहीन भाव से मेरे गले नहीं उतरतीं मैं उन्हें दुबारा आज के व्यापक सन्दर्भों में जांचना चाहता हूं.

रूपसिंह चन्देल : पिछले दिनों 'हंस' में आपने साम्प्रदायिकता का सवाल उठाया था----.

राजेन्द्र यादव : मैं पूछता हूं कि भेड़-चाल से अलग होकर एक बुद्धिजीवी की तरह क्यों नहीं सोचना चाहिए? हंस में मैंने कह दिया कि काश्मीर की समस्या साम्प्रदायिक नहीं, क्षेत्रीय स्वायत्तता की समस्या है. पाकिस्तान और हिन्दुस्तान दोनों देश अपनी इस राजनीतिक दुश्मनी को भरसक साम्प्रदायिक बना रहे हैं. वहां हिन्दू और मुसलमान दोनों ही मर रहे हैं, दोनों ही विस्थापित हैं. वहां सिर्फ हिन्दू लाशों को गिनकर साम्प्रदायिक रंग देना हिन्दुत्ववादी दन्धापन है जो सारे देश को आपस में दुश्मन बना रहा है. अब तो वहां से अधिकाशंअ हिन्दू विस्थापित हो चुके हैं, मरने वाले तो जादातर काश्मीरी मुसलमान ही बचे हैं. इसी सन्दर्भ में मैंने यह भी पूछा था कि श्रीलंका में जो लाखों लोग विस्थापित हो रहे हैं, हजारों मर रहे हैं--- सिंहली, बौद्ध, नमिल सभी -- वह क्शेत्रीय स्वायत्तता का सवाल है या साम्प्रदायिकता का? पूर्व पाकिस्तान में जो हजारों लोगों को भून डाला गया, वे सब मुसलमान बुद्धिजीवी थे---- जिन लाखों लोगों को विस्थापित होना पड़ा , वे भी मुसलमान ही थे. साम्प्रदायिकता की समस्या बंगलादेश बनने के बाद आई - जिस पर तस्लीमा नसरीन ने लिखा. आसाम का उग्रवाद भी क्या साम्प्रदायिकता, क्षेत्रीय स्वायत्तता, जातीय अस्मिता के सवालों को अलग-अलग करके समझ तो सकते हैं. मुम्बई सूरते में हुए साम्प्रदायिक विस्फोट ठीक वही नहीं हैं जो काश्मीर और आसाम में हो रहे हैं.

रूपसिंह चन्देल : हंस के सम्पादक के रूप में आप पर प्रायः यह आरोप लगाया जाता है हि आप कुछ रचनाकारों को विशेष महत्व देते हैं--- विशेषकर महिला रचनाकारों को ?

राजेन्द्र यादव : इन आरोपों के जवाब में यह बातें बहुत बार कही जा चुकी हैं. देखो, चालीस-पचास साल से मैं साहित्य में हूं. जाहिर है मेरी कुच रुचियां हैं, कुछ समझ भी है, कुछ सम्पर्क, सम्बन्ध भी हैं, और जब ये सब चीजें होती हैं तो चुनाव भी होता है. रेलवे प्लेटफार्म या गोदाम और ड्राइंगरूम में अन्तर है. गोदाम में दुनिया की सारी अच्छी -बुरी चीजें जमा होती हैं. ड्राइंगरूम में आप वही रखना चाहते हैं जो उस जगह की जरूरत है. वहां चुनाव है. यही चुनाव मुझे हंस में भी करना पड़ता है. हंस रीडर्स डाइजेस्ट नही है, जहां दुनिया की छोटी-बड़ी चीजें संकलित हों. हर रुचि के आदमी को जो चाहिए वहां है. चुनाव में आप पक्षपाती भी हो सकते हैं. कुछ चीजें मुझे ज्यादा पसन्द हैं, कुछ कम पसन्द हैं , कुछ वैचारिक दृष्टि से मुझे जरूरी लगती हैं----- हो सकता है कि बहुत पसन्द न हों. इस सबमें पक्षपात भी लग सकता है. यह पक्षपात हर सोचने समझने वाले के साथ होता है. जब आप इस चुनाव को पसन्द नहीं करते तो उसे गुटबाजी कहते हैं. आप 'तेरे पैर पैर, मेरे पैर चरण' की स्थिति में रहते हैं. कभी बडे़ महान लोगों का 'सरस्वती मण्डल' था . उसमें शिकायत थी कि वहां अयोध्याप्रसाद उपाध्याय जैसे लेखक को घास नहीं डाली गयी. रामचन्द्र शुक्ल से हमेशा लड़ाई होती रही. इसलिए इस बात को मैं नहीं मानता कि मैंने कोई खास गिरोह या मण्डली जैसा कुछ बना रखा हो. मेरी रुचि और पसन्द के लेखक अधिक हों, यह स्वाभाविक है. उस रुचि में भी तीन बातें हैं-- बल्कि चार बातें हैं---- एक तो कुछ लेखक हैं, जिनके प्रति सम्मान है. कुछ जो मेरे समकालीन रहे हैं. वह लिहाज है. अगर भीष्म साहनी की कहानी मुझे अच्छी भी न लगे लेकिन चालीस-पचास साल से भीष्म का साथ है--- अपने लेखन के लिए वे जिम्मेदार हैं. कुछ समकालीनता से जुड़े हैं, कुछ परम्परा से. यानी परम्परा और समकालीनता में मेरे चुनाव हैं. तभी मुझे लगता है कि मेरी पसन्द से ज्यादा ---- वैचारिक, सामाजिक स्थितियों के हिसाब से, साहित्यिक विकास के लिहाज से कुछ जरूरी हो सकते हैं. चौथी चीज है---- किसी लेखक की रचना --- उसकी ताजगी. आपने पहली बार किसी प्रतिभा को खोजा और उसको मंच दिया---- यह संतोष छोटा नहीं है. लिखना तो बहुत शुरू करते हैं, मगर रह कुछ लोग ही जाते हैं. पन्द्रह साल में मैंने 'हंस' में सैकड़ों-हजारों लेखक छापे. कुछ में दम था, वे चले. तो खोजने में एक दृष्टि यह भी होती है कि आप कहीं गलत आदमी को तो प्रोत्साहन नहीं दे रहे. बहरहाल इसे अहंकार भी कह सकते हो कि 'ही इज माई क्रियेशन' या 'आई हैव डिस्कवर्ड हर' सन्तोष देता है. चलो क्रियेशन यहां बकवास शब्द है उसे मैं वापस लेता हूं. मेरा ख्याल है कि कम से कम एक डेढ़-दो दर्जन लोग ऎसे होंगे, जिनकी पहली रचना हंस में ही छपी. उनके प्रति अतिरिक्त मोह होना स्वाभाविक है. इस कमजोरी को आप कुछ लोगों के प्रति खास मोह भी कह सकते हैं. और एक बात है जिसे मैं चाहता हूं कि तुम अण्डर लाइन करो. हो सकता है कि अपनी सीमाओं के कारण मेरी निगाह से कुछ बहुत प्रभाशाली और अच्छे लेखक छूट गये हों, या जितना वे समझते हैं या दूसरे समझते हैं उनको उतना महत्व मैंने न दिया हो. लेकिन जिनको रेखांकित किया है, क्या उनका लेखन कमजोर है? आगे जो पूरी की पूरी पीढ़ी है और जिसके लिए मुझ पर पक्षपात का आरोप लगाया जाता है---- क्या मैंने उनकी कमजोर रचनाएं छापीं या वे लेखक कमजोर थे? ठीक है नरेन्द्र कोहली या निर्मल मेरी पसन्द के लेखक नहीं हैं. बहुत बड़े लेख हैं. लेकिन उनकी तरह की सोच के लेखकों के लिए अगर 'हंस' का मंच सुलभ नहीं है तो मेरा ख्याल है कि मैं गलत नहीं हूं. महिलाओं के सवाल को मैं दलितों के साथ मिलाकर रखना चाहता हूं. एक ओर तो सिद्धान्त रूप से मंचों से सभी कहते हैं कि महिलाओं को आना चाहिए--- महिलाओं को लाया जाना चाहिए, लेकिन जब वे आने लगती हैं तब हमें बेचैनी-टेन्शन होने लगते हैं, हमारे संस्कार फड़फड़ाने लगाते हैं. शायद महिला हमारा डर और अंकुश दोनों है. कार्यालयों में महिलाओं की उपस्थिति वातावरण को थोड़ा अनुशासित रखती है. मगर सच यह भी है कि महिलाएं जब आने लगती हैं तो आदमी सहज रूप से असहज हो जाता है. सबसे ज्यादा बेचैनी तब होती है जब वे बोलने लगती हैं. जैसा हम चाहें वैसा बोलें तब तक तो ठीक है---- अच्छा है---- शी इज ए वेरी गुड कम्पनी वगैरह-वगैरह. लेकिन जब वह अपनी बात अपनी तरह बोलने लगती है पुरुष अहंकार फुफकारने लगता है. कहीं भी देख लो, अगर औरत अपने ढंग से ऎसा कुछ बोलने लगे जो आपको बहुत सुविधाजनक या समर्थन में न लगता हो तो कुढ़कर कहते हैं कि साली चल घर, देखता हूं. कहने का मतलब यह है कि महिलाएं हमारी इच्छा से दिखाई दें, बोलें या लिखें तो ठीक है, मगर उनकी उपस्थिति हमारी इच्छा के अनुरूप ही हो. वे हमारे वर्चस्व को तोड़ती हैं. वर्ना आप मुझे बताइए कि एक अंक में बीस-बाईस पुरुषों के बीच एक या दो महिलाएं क्यों परेशानी पैदा करती हैं. यह तो अच्छा है कि बहुत वैचारिक और बहुत आलोचनात्मक लिखनेवाली महिलाएं नहीं हैं वर्ना और मुसीबत होती . महिलाओं पर अतिरिक्त ध्यान वे लोग देते हैं---- मैं नही. दूसरा आरोप, यह कि जब-जब महिला---- चाहे वह राजनीति में आये या साहित्य में आये, उसके ऊपर तो यह आरोप हमेशा ही लगता है कि इसमें खुद तो दम नहीं है, इनके संरक्षक-गॉड फादर हैं इन्हें उछाल रहे हैं. यह मानसिकता आज की नहीं है. जिसे हम 'बंग महिला' कहते हैं उनको और रामचन्द्र शुक्ल को लेकर महावीर प्रसाद द्विवेदी ग्रुप ने हमेशा ऎसे ही आरोप लगाए थे कि इनका (शुक्ल जी का) अतिरिक्त मोह उस महिला से है. जब मन्नू ने लिखना शुरू किया तो बहुत दिनों तक यही होता रहा कि ये तो राजेन्द्र ही लिखते हैं . बहुत बाद में जब मन्नू के दो-चार कहानी संग्रह - उपन्यास आ गये तब लोगों ने माना. ठीक है, मैं उसकी रचनाएं देखता था, बातचीत करता था बल्कि कहानियों और उपन्यासों के शीर्षक मेरे ही दिए हुए हैं. आपसी सलाह की यह परम्परा उर्दू शायरी में हमेशा रही है. चीजें उससे इम्प्रूव होती हैं. मैं किसी का नाम दे देता हूं , किसी रचना का शीर्षक दे देता हूं---- या पढ़कर यह बता देता हूं कि यह शेर यहां इस तरह हो तो अच्छा हो जाएगा. यह सुझाव देना ही क्या पाप है? महिलाओं को लेकर यह शोरगुल मेरी समझ में कभी नहीं आता. दूसरी बात कि सारी महिलाएं न तो हेमामालिनी हैं, न ऎश्वर्य राय. मगर लांछन है कि आप उनके सौन्दर्य, पैसे या सत्ता के कारण उनका साहित्य छाप रहे हैं. अधिकांश सीधी-सादी घरेलू महिलाएं होती हैं. किसी में प्रतिभा दिखाई देती है तो आप रेखांकित कर देते हैं. इस सामने लाने को अगर अपाराध कहो तो मेरा ख्याल है कि जहां दस लेखकों का अपराधी हूं वहां एक लेखिका का भी हूं. वैसे मैं इसकी चिन्ता नहीं करता.

( राजेन्द्र यादव के साथ मेरी यह लम्बी बातचीत उनकी पुस्तक 'जवाब दो विक्रमादित्य', वाणी प्रकाशन , २१-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली-११०००२

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राजेन्द्र यादव का जन्म २८ अगस्त, १९२९ को आगरा (उत्तर प्रदेश) में हुआ था. उन्होंने आगरा विश्वविद्यालय से १९५१ में हिन्दी में एम०ए० किया.

राजेन्द्र जी की प्रकाशित पुस्तकें :

* कहानी संग्रह : देवताओं की मूर्तियां (१९५१), खेल-खिलौने (१९५३), जहां लक्ष्मी कैद है (१९५७) , अभिमन्यु की आत्महत्या (१९५९), छोटे-छोटे ताजमहल (१९६१), किनारे से किनारे तक (१९६२), टूटना (१९६६), चौखटे तोड़ते त्रिकोण (१९८७), श्रेष्ठ कहानियां, प्रिय कहानियां, प्रतिनिधि कहानियां, प्रेम कहानियां, चर्चित कहानियां, मेरी पच्चीस कहानियां, अब तक की समग्र कहानियां, यहां तक: पड़ाव-१, पड़ाव-२ (१९८९).

*उपन्यास : सारा आकाश (१९५९ - प्रेत बोलते हैं, के नाम से १९५१ में), उखड़े हुए लोग (१९५६), कुलटा (१९५८), शह और मात (१९५९), अनदेखे अनजाने पुल (१९६३), एक इंच मुस्कान (मन्नू भंडारी के साथ - १९६३), मंत्र-विद्ध (१९६७).

*कविता-संग्रह: आवाज तेरी है (१९६०)

*समीक्षा-निबन्ध : कहानी : स्वरूप और संवेदना (१९६८), प्रेमचंद की विरासत (१९७८), अठारह उपन्यास (१९८१), औरों के बहाने (१९८१), कांटे की बात (दस खंड - १९९४), कहानी अनुभव और अभिव्यक्ति (१९६६), उपन्यास : स्वरूप और संवेदना (१९९८), आदमी की निगाह में औरत (२००१), वे देवता नहीं हैं (२००१), मुड़-मुड़के देखता हूं(२००२) .

इसके अतिरिक्त अनेक पुस्तकों का सम्पादन. तुर्गनेव, लर्मन्तोव , चैखव और कामू की पुस्तकों के अनुवाद.

'हंस' मासिक का सम्पादन.

सम्पर्क : अक्षर प्रकाशन प्रा०लि०, २/३६, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-११०००२ .
फोन : ०११-२३७२७०३७७, ०११-४१०५००४७
E-mail :
info@hansmonthly.com

शनिवार, 2 अगस्त 2008

वातायन अगस्त,2008


हम और हमारा समय

मैं क्यों लिखती हूँ ?

मेरे हिस्से का आकाश
इला प्रसाद


अपनी किताब? "इस कहानी का अंत नहीं " की भूमिका में मैंने स्वीकार किया है कि लेखन मेरे लिए तनाव मुक्ति का साधन रहा है। जहाँ तक मैं जानती हूँ , लेखन का आरंभ आमतौर पर ऐसे ही व्यक्तिगत उद्देश्यों से शुरू होता है। लेखन कभी शौकिया शुरू होता है , कभी व्यक्तिगत कुंठाओं से मुक्ति पाने के लिए, कभी ऐसा ही कुछ और। जो कुछ मैं झेलती रही हूँ , जो उस सामाजिक परिवेश की उपज रहा है जिसमें मैं पैदा हुई, पली - बढ़ी , उसे ही धो-पोंछ कर सुन्दर रूप में वापस लौटा देने की मेरी कोशिश रही - उसी समाज को - जो मुझे सौ-सौ कुंठाएँ झेलने पर मजबूर करता रहा।
यह शुरूआत थी।

मेरे अंतर्मुखी व्यक्तित्व ने अपने लिए यह तरीका ईजाद किया था और इसीलिए अपने लिखे को सार्वजनिक करने में मुझे एक लम्बा समय लगा। शुरूआत कविताओं से हुई और कहानी तक पहुँचते- पहुँचते मैं उस मन:स्थिति में आ चुकी थी कि जब जो कहानी जिसके ऊपर लिखी, उसे ही थमा दी ।"लो, पढ़ो।" जानो इस कहानी के माध्यम से खुद को और मुझे। उस अनकहे को जो मैं सीधे तौर पर कभी नहीं कह पाती।

तब वह दुनिया मेरे दोस्तों-मित्रों तथा कुछ परिचितों तक सीमित थी।

जब पहली बार यह किया , तब बी. एस. सी. प्रथम वर्ष की छात्रा थी। दूसरी बार एम. एस.. सी की। दोनॊं ही कहानियाँ दोस्तों ने रख लीं। नहीं जानती, वे मित्र कहाँ हैं और उन कहानियों का अंतत: उन्होंने क्या किया। किन्तु जब तीसरी कहानी लिखी, तब आई. आई. टी. में थी और फ़िर वही किया। अपने जिन पुरुष सहकर्मियों के व्यवहार से तंग आ कर वह कहानी लिखी थी , वह उन्हें ही पढ़ने को दे दी। बाद में वही कहानी "जनसत्ता" में छपी- "इस कहानी का अन्त नहीं" के नाम से , मेरे संग्रह में भी है- और उसी कहानी से मेरे अन्दर की कहानी लेखिका का सार्वजनिक तौर पर जन्म हुआ।

उसके बाद अमेरिका आई किन्तु तब तक मेरी मानसिकता बदल चुकी थी । जीवन में जिन विसंगतियों को झेल रही थी उनके प्रति एक द्रष्टा- भाव जाग्रत हो चुका था और अपने जिए को औरों से बाँटने की बेचैनी ज्यादा थी। अमेरिका को लेकर , पश्चिमी जीवन शैली को लेकर जो आधी- अधूरी जानकारियाँ भारत में रहते हुए मुझ तक पहुँचती रही थीं उनसे मेरा साक्षात्कार मुझमें एक दायित्व बोध भी भरता रहा कि कि इस जीवन का राई - रत्ती हाल मैं अपने लोगों को सुनाऊँ। इसीलिए मेरी कहानियों के विषय के रूप में मैं कोई खास , बड़ा या विशिष्ट चरित्र या घटना उठाने से बचती रही। वह रोजमर्रा की घटनाएँ हैं जिनसे हमारा रोज ही साक्षात्कार होता है।? जीवन के ये छोटे-छोटे सच जो मैं टुकड़ों में अपने पाठकों को सुनाती रही ह? , उनसे साक्षात्कार कर मेरी आँखें भी खुलती रही हैं, मेरी प्रत्येक कहानी का विकास मेरा आंतरिक विकास भी बनता रहा है।

मैं अब अपने खोल से बाहर हूँ और अमेरिका के वर्जनाहीन समाज में रहकर अपने लेखन में अधिक सामाजिक हो गई हूँ।

मेरे अन्दर का यही दायित्व-बोध मुझे हिन्दी में विज्ञान सम्बधी लेख लिखने को भी प्रेरित करता है कि मशीनीकरण के खतरों को भी हम पहचानें। आँख मूँद कर अंधानुकरण न करें। "सार सार को गही रहे, थोथा देय उड़ाए" वाली मानसिकता तक पहुँचें। कम से कम कोशिश तो करें । ये बातें उन तक भी पहुँचे जो अंगरेजी न जानने के कारण यह सब नहीं जान पाते।

और अब , जब मैंने कुछ दो दर्जन के आसपास कहानियाँ लिख डाली हैं, कई लेख, तो जाहिर है, यह समझने की कोशिश में भी हूँ कि लेखन के महाकाश में मेरी जगह कितनी है! कितनों तक मैं अपनी बात पहुँचा पा रही हूँ क्योंकि लेखन अब मात्र स्वातं:सुखाय नहीं रह गया है।

लेखन मेरी विवशता नहीं , मेरा स्वेच्छा से अपनाया गया माध्यम है जिससे मैं एक बहुत बड़े समाज से जुड़ती हूँ।

लेखन ने मुझे मजबूत किया है, अन्दर से और बाहर से और मैं कृतज्ञ हूँ प्रकृति के उस अनोखे विधान की , कि मैं लिख सकती हूँ !


झारखंड की राजधानी राँची में जन्म। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से सी. एस. आई. आर. की रिसर्च फ़ेलॊशिप के अन्तर्गत भौतिकी(माइक्रोइलेक्ट्रानिक्स) में पी.एच. डी एवं आई आई टी मुम्बई में सी एस आई आर की ही शॊध वृत्ति पर कुछ वर्षों तक शोध कार्य । राष्ट्रीय एवं अन्तर-राष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में शोध पत्र प्रकाशित । भौतिकी विषय से जुड़ी राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय कार्यशालाओं/सम्मेलनों में भागीदारी एवं शोध पत्र का प्रकाशन/प्रस्तुतीकरण।कुछ समय अमेरिका के कालेजों में अध्यापन।छात्र जीवन में काव्य लेखन की शुरुआत । प्रारम्भ में कालेज पत्रिका एवं आकाशवाणी तक सीमित।"इस कहानी का अन्त नहीं " कहानी , जो जनसत्ता में २००२ में प्रकाशित हुई , से कहानी लेखन की शुरुआत। अबतक देश-विदेश की विभिन्न पत्रिकाओं यथा, वागर्थ, हंस, कादम्बिनी, आधारशिला , हिन्दीजगत, हिन्दी- चेतना, निकट, पुरवाई , स्पाइल आदि तथा अनुभूति- अभिव्यक्ति , हिन्दी नेस्ट, साहित्य कुंज सहित तमाम वेब पत्रिकाओं में कहानियाँ, कविताएँ प्रकाशित। "वर्तमान -साहित्य" और "रचना- समय" के प्रवासी कथाकार विशेषांक में कहानियाँ/कविताएँ संकलित । डा. अन्जना सन्धीर द्वारा सम्पादित "प्रवासिनी के बोल "में कविताएँ एवं "प्रवासी आवाज" में कहानी संकलित। कुछ रचनाओं का हिन्दी से इतर भाषाओं में अनुवाद भी। विश्व हिन्दी सम्मेलन में भागीदारी एवं सम्मेलन की अमेरिका से प्रकाशित स्मारिका में लेख संकलित। कुछ संस्मरण एवं अन्य लेखकों की किताबों की समीक्षा आदि भी लिखी है । हिन्दी में विज्ञान सम्बन्धी लेखों का अनुवाद और स्वतंत्र लेखन। आरम्भिक दिनों में इला नरेन के नाम से भी लेखन।कृतियाँ : "धूप का टुकड़ा " (कविता संग्रह) एवं "इस कहानी का अंत नहीं" ( कहानी- संग्रह) ।लेखन के अतिरिक्त योग, रेकी, बागवानी, पर्यटन एवं पुस्तकें पढ़ने में रुचि।सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन ।सम्पर्क : 12934, MEADOW RUNHOUSTON, TX-77066USAई मेल ; ila_prasad1@yahoo.com

कविता

चन्द्रकांत देवताले की कविताएं

मेरी पोशाक ही ऐसी थी

पणजी से चली बस
पता नहीं क्यों नहीं दीख पड़ी बच्ची वह
लोंडा से चलने पर बस के
नजर पड़ी उस पर
उसकी मां भी खड़ी थी गोद में बच्चा लिये
इतनी आदिवासी कि बस में शोभा नहीं देती थी
घुटनों से टिकी हिचकोले खा रही थी
गिरने-गिरने को हो आती थी कभी
अपनी रोनी सूरत के साथ
उसे उठाकर बैठा लिया मैंने गोद में अपनी
उसकी मां के संकोच के बावजूद

उसका सिर मेरी छाती से टिक गया
और अपने ख्यालों में सफर करते हुए
मैं पंद्रह साल पहले की बस में शुजालपुर से राजगढ़ जाने लगा
तब इतनी ही बड़ी थी मेरी बेटी

उसका माथा सूंघते हुए मुझे लगा
यही है बेटी की गंध
और मैं याद करते हुए न जाने क्या-क्या
भूल गया सब कुछ
और मेरे भीतर आदमी के कलेजे की जगह

धड़कने लगा बाप का दिल
फिर यही सोचकर दुख हुआ मुझे
कि बच्ची को शायद ही मिली होगी
मुझसे बाप की गंध
मैं क्या करता मेरी पोशाक ही ऐसी थी

मेरा जीवन ही दूसरा था।


मेरी किस्मत में यही अच्छा रहा

मैं मरने से न तो डरता हूं
न बेवजह मरने की चाहत संजोए रखता हूं
एक जासूस अपनी तहकीकात बखूबी करे
यही उसकी नियामत है

किराए की दुनिया और उधार के समय की
कैंची से आजाद हूं पूरी तरह
मुग्थ नहीं करना चाहता किसी को
मेरे आड़े नहीं आ सकतीं सस्ती और सतही मुस्कुराहटें

मैं वेश्याओं की इज्जत कर सकता हूं
पर सम्मानितों की वेश्याओं जैसी हरकतें देख
भड़क उठता हूं पिकासो के सांड की तरह
मैं बीस बार विस्थापित हुआ हूं
और जक्मों की भाषा और उसके गूंगेपन को
अच्छी तरह समझता हूं
उन फीतों को मैं कूड़ेदान में फेंक चुका हूं
निनसे भद्रलोग जिन्दगी और कविता की नापजोख करते हैं

मेरी किस्मत में यही अच्छा रहा
कि आग और गुस्से ने मेरा साथ कभी नहीं छोड़ा
और मैंने उन लोगों पर यकीन कभी नहीं किया
जो घृणित युद्ध में शामिल हैं
और सुभाषितों से रौंद रहे हैं
अजन्मी और नन्हीं खुशियों को

मेरी यही कोशिश रही
पत्थरों की तरह हवा में टकराएं मेरे शब्द
और बीमार की दूबती नब्ज को थामकर
ताजा पत्तियों की सांस बन जाएं

मैं अच्छी तरह जानता हूं
तीन बांस, चार आदमी और मुट्ठी भर आग
बहुत होगी अंतिम अभिषेक के लिए
इसीलिए न तो मैं मरने से डरता हूं
न बेवजह शहीद होने का सपना देखता हूं

ऐसे जिन्दा रहने से नफरत है मुझे
जिसमें हर कोई आए और मुझे अच्छा कहे
मैं हर किसी की तारीफ करते भटकता रहूं
मेरे दुश्मन न हों
और इसे मैं अपने हक में बड़ी बात मानूं

पुनर्जन्म

मैं रास्ते भूलता हूं
और इसीलिए नए रास्ते मिलते हैं
मैं अपनी नींद से निकलकर प्रवेश करता हूं
किसी और की नींद में
इस तरह पुनर्जन्म होता रहता है
एक जिन्दगी में एक ही बार पैदा होना
और एक ही बार मरना
जिन लोगों को शोभा नहीं देता
मैं उन्हीं में से एक हुं

फिर भी नक्शे पर जगहों को दिखाने की तरह ही होगा
मेरा निन्दगी के बारे में कुछ कहना
बहुत मुशिकल है बताना
कि प्रेम कहां था किन-किन रंगों में
और जहां नहीं था प्रेम उस वक्त वहां क्या था

पानी, नींद और अंधेरे के भीतर इतनी छायाएं हैं
और आपस में प्राचीन दरख्तों की जड़ों की तरह
इतनी गुत्थमगुत्था
कि एक दो को भी निकालकर
हवा में नहीं दिखा सकता

जिस नदी में गोता लगा हूं
बाहर निकलने तक
या तो शहर बदल जाता है
या नदी के पानी का रंग
शाम कभी भी होने लगती है
और उनमें से एक भी दिखाई नहीं देता
जिनके कारण चमकता है
अकेलेपन का पत्थर


(सभी कविताएं 'कवि एकादश' (संपादक : लीलाधर मंडलोई और अनिल जनविजय - प्रकाशक : मेधा बुक्स, एक्स -11, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110 032 फोन: 011-22323672) से साभार)


देवताले का जन्म 7 नवम्बर 1936 को जौलखेड़ा (जिला बैतूल), मध्य प्रदेश में हुआ था। प्रारंभिक शिक्षा बड़वाह तथा इंदौर में। होल्कर कॉलेज, इंदौर से 1960 में हिन्दी साहित्य में एम ए । सागर विश्वविद्यालय में मुक्तिबोध पर 1954 में पीएच डी।

छात्र जीवन में 'नई दुनिया', 'नवभारत' सहित अन्य अखबारों में कार्य। 1961 से 1996 तक मध्य प्रदेश शासन, उच्च-शिक्षा विभाग के तहत पन्ना, भोपाल, ;उज्जैन, पिपरिया, राजगढ़, रतलाम, नागदा, इंदौर के कॉलेजों में अध्यापन। शासकीय कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय, इंदौर में हिन्दी विभागाध्यक्ष तथा डीन, कला संकाय, देवी अहिल्याबाई विश्वविद्यालय , इंदौर के पदों से सेवा-निवृत्ति के बाद स्वतंत्र लेखन तथा पत्रकारिता।

उनकी प्रकाशित कृतियों में : हड्डियों में छिपा ज्वर' (1973), 'दीवारों पर खून से'(1975), 'लकड़बग्घा हंस रहा है'(198), 'रोशनी के मैदान की तरफ'(1982), 'भूखंड तप रहा है '(1982), 'आग हर चीज में बताई ई थी'(1987), 'पत्थर की बैंच'(1996), 'इतनी पत्थर रोशनी'(2002), 'उसके सपने'(1997), 'उजाड़ में संग्रहालय'(2003), कविता संग्रहों के अतिरिक्त अन्य अनेक पुस्तकें प्रकाशित।

संपर्क : एफ 2/7, शक्ति नगर, उज्जैन (म प्र ) - 456010

कहानी

क्या सोचने लगे आदित्य सहगल?
सुरेश उनियाल

आदित्य सहगल खुद को बड़े सुलझे हुए विचारों वाला आदमी मानता था। उसकी कुछ मान्यताएं थीं एक तो उसका मानना था कि आदमी के वजूद का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा उसका दिमाग है। दिल को वह वाहियात चीज मानता था। अगर दिल का काम दिमाग को आक्सीजन सप्लाई करना न होता तो वह शायद अपने दिल को ही निकलवा फेंकता।
आदित्य का यह भी मानना था कि सब दिमाग एक बराबर नहीं होते। बल्कि कोई दो दिमाग भी बराबर नह होते। दुनिया भर के दिमागों को बाकायदा एक रैंकिंग दी जा सकती है। कुछ ऐसे जैसे टेनिस खिलाडि़यों की रैंकिंग होती है।
एक दिलचस्प विचार अकसर आदित्य के दिमाग में आता था कि अगर कोई ऐसा जरिया निकल आता कि दुनिया भर के लोगों के दिमाग की रैंकिंग निर्धारित की जा सकती तो कितना मजा आता। दुनिया की आबादी इस समय पांच अरब से कुछ कम है। याने रैंकिंग दस अंकों की संख्या में होती। आज के जमाने में दस अंकों की संख्या कोई बड़ी चीज तो है नहीं। टेलीफोन नम्बर में ही सात अंक होते हैं। पेजर और मोबाइल क नम्बर तो दस–दस अंकों के ही होते हैं। दस–ग्यारह अंक तो बीमा पॉलिसी नम्बर के भी होते हैं। क्रेडिट कार्ड नम्बर तो 16 अंकों की संख्या में होते हैं। और ये सभी संख्याएं आज हमारे जीवन का जरूरी हिस्सा बनी हुई हैं। तो फिर दस अंकों की एक और संख्या इस खाते में क्यों नहीं जुड़ सकती? उसे भी हम वैसे ही याद रख सकते हैं जैसे बाकी दूसरी संख्याओं को याद रखते हैं।
इसमें एक दिक्कत जरूर थी। क्रेडिट कार्ड नम्बर, बीमा पॉलिसी नम्बर या टेलिफोन नम्बर आम तौर पर बदलते कम ही हैं। जबकि आदमी क दिमाग की रैंकिंग तो लगातार बदलने वाली चीज होगी। टेनिस रैंकिंग की तरह। हर प्रतियोगिता में प्रदर्शन क आधार पर खिलाड़ी को अंक मिलते हैं। इसी हिसाब से उसकी रैंकिंग कम या ज्यादा होती रहती है।
और फिर दिमाग की रैंकिंग का काम तो इससे कहीं ज्यादा उलझा हुआ होगा। एक तो यह कि लोग ... रोज ही क्या, हर घंटे, हर मिनट, हर सेकंड मर रहे हैं और पैदा भी हो रहे हैं। आपसे बेहतर रैंकिंग वाला अगर कोई मर गया तो आप एक पादान चढ़ गए। इसी तरह नए पैदा होने वालों में कोई आपसे बेहतर दिमाग वाला आ गया तो आप हो गए एक पादान नीचे।
नहीं ठहरिए ... ठहरिए ... मामला गड़बड़ा रहा है। नए पैदा हुए बच्चे का कच्चा दिमाग भला किसी प्रौढ़ क पक हुए दिमाग से बेहतर कसे हो सकता है? इसका मतलब यह हुआ कि बच्चा जैसे–जैसे बड़ा होता रहता है, उसी हिसाब से उसका दिमाग भी रैंकिंग में ऊपर चढ़ता चला जाता है।
अब जरूरत सिर्फ़ इस बात की रह गई थी कि रैंकिंग का आधार क्या हो? अब ऐसी कोई प्रतियोगिता तो आयोजित नह की जा सकती कि पूरी दुनिया क लोग उसमें हिस्सा लें और उसमें मिले अंकों क आधार पर उनकी रैंकिंग तय की जाए।
इस तरह की किसी भी प्रतियोगिता की सबसे बड़ी दिक्कत तो यह होगी कि दुनिया क सारे लोगों को एक साथ शामिल कैसे किया जाए। मान लीजिए, पूरी दुनिया क हर व्यक्ति को एक कंप्यूटर नेटवर्क क जरिए जोड़ दिया जाए। हालांकि यह बात सिफ‍र् मान लेने वाली ही होगी क्योंकि दुनिया भर क पांच अरब से कुछ कम लोगोंं क लिए इतने ही कम्प्यूटर सेट जुटाना कैसे सम्भव हो सकता है? लेकिन बात जब परिकल्पना क स्तर की हो, तो मान लीजिए ऐसा हो जाता है। दुनिया का हर व्यक्ति अपने–अपने कम्प्यूटर पर बैठा प्रतियोगिता में पूछे जाने वाला सवालों का इंतजार कर रहा है।
यहां एक दूसरी दिक्कत आ जाती है। जब हर व्यक्ति प्रतियोगी है तो निर्णायक कौन है ? कौन सवाल तय करेगा? कौन यह जांचेगा कि किसका कितना जवाब सही है और कितना नह ? कौन तय करेगा कि किसे कितने अंक दिए जाएं ?
आदित्य सहगल को लगता है कि दिमाग की रैंकिंग क चक्कर में उसका दिमाग कुछ ज्यादा ही उलझता जा रहा है।
लेकिन वह तो खुद को बहुत सुलझे हुए दिमाग वाला व्यक्ति मानता है। इस तरह की उलझन उसक लिए ठीक नहीं है। इस पूरे उलझाव को दिमाग से झटक कर वह एक बार फिर नए सिरे से उस समस्या पर विचार करने लगता है।
उलझाव क ट्रेफिक जाम से निकल कर जब उसकी गाड़ी विचारों की सीधी लेन पर आ जाती है तो आदित्य सहगल को बड़ी राहत मिलती है। वह सोचता है कि वह दुनिया भर क लोगों क चक्कर में पड़ ही क्यों रहा है। वह सिर्फ़ उन लोगों तक सीमित रहे जो उसक सम्पर्क में आते हैं, जिनसे उसका मतलब पड़ता है। जिस आदमी से उसे ज़िन्दगी में कभी कोई मतलब पड़ना ही नह है, वह दिमाग की रैंकिंग में उससे उपर है या नीचे, इससे क्या फर्क पड़ता है।
लेकिन ऐसे लोगों की संख्या भी तो कम नह होगी जिनसे उसे कोई न कोई मतलब रहता है।
उसने ऐसे लोगों को याद करना शुरू किया। सबसे पहले तो अपने परिवार वाले। फिर नाते–रिश्तेदार। कुछ रिश्तेदार वह जो मिलते–जुलते रहते हैं और उनसे कह ज्यादा वह जो कभी छठे–छमाहे किसी शादी–ब्याह में या किसी मातमपुर्सी में मिल जाते हैं। और कुछ जो ऐसे ऐसे मौकों पर भी कम ही मिलते हैं। बस किसी न किसी बहाने उनका जिक्र भर यदा–कदा बातचीत में जाता है। कुल मिलाकर यह संख्या चार–पांच सौ तक तो पहुंच ही जाएगी। ज्यादा भी हो सकती है।
आदित्य सहगल की ज़िन्दगी में दोस्तों की हमेशा से ही एक महत्वपूर्ण जगह रही है। यों तो बहुत बड़ी संख्या में उसक दोस्त कभी नहीं रहे। कम ही लोगों से वह दोस्ती रख पाता है। लेकिन जो दोस्त बन जाते हैं, फिर वह उन पर जान छिड़कने के लिए तैयार रहता है। जब वह अपने दोस्तों को याद करने बैठता है तो पाता है कि बचपन से लेकर स्कूल के दिनों के, बेरोजगारी के जमाने के, उम्र की विभिन्न पादानों पर, ज़िन्दगी क विभिन्न दौरों में कम ही सही, मित्र तो बनते ही रहे हैं। इनमें से समय–समय पर कुछ छूटते भी रहे हैं। कुछ इसलिए छूटे कि जगह बदल गई तो कुछ इसलिए छूट गए कि मन बदल गए। चिट्ठी–पत्री की आदित्य सहगल को आदत नहीं है इसलिए पत्र व्यवहार उसका किसी क साथ नहीं है। लेकिन उन सब दोस्तों में कई ऐसे हैं जिन्हें याद करने का उसका मन नहीं होता तो कुछ ऐसे भी हैं जिनसे दूरी क बावजूद आत्मीयता बनी हुई है। महीनों–बरसों क बाद भी जब मुलाकात होती है तो वही पुरानी गर्मजोशी और अन्तरंगता लौट आती है।
नाते–रिश्तेदारों और दोस्तों क बाद नम्बर आता है पड़ोसियों का। कभी महानगरीय संस्कृति की बात की जाती थी कि एक पड़ोसी दूसरे पड़ोसी से कोई मतलब नह रखता। आपसी दुआ–सलाम भी हो जाए तो बहुत है। लेकिन अब ग्रुपहाउसिंग सोसाइटियों क जमाने में एक सोसाइटी क ज्यादातर लोग एक दूसरे को अच्छी तरह जानते हैं। फिर आसपास क परचूनिए, सब्जीवाले, दूधवाले, इलैक्ट्रीशियन, प्लम्बर, धोबी, अखबारवाला, सोसाइटी का केयरटेकर, चौकीदार, माली, कार की सफाई करने वाला, न जाने कितने लोग हैं जो रोज या दो–चार दिन में मिलते ही रहते हैं। चार–पांच सौ से ज्यादा इनकी संख्या होगी।
यहां तक आते–आते आदित्य सहगल को लगता है कि अपनी ज़िन्दगी में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वालों को तो वह भूल ही गया है। ये वे लोग हैं जिनक साथ उसक दिन का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा गुजरता है, जो उसकी ज़िन्दगी को कई तरह से प्रभावित करते हैं। उसक दफ्तर वाले, उसक साथ काम करने वाले जिनमें से कई ऐसे हैं जिनके साथ वह अपना सुख–दुख बांटता है। कुछ ऐसे भी हैं जिन्हें वह उतना अपना तो नह समझता लेकिन उनक साथ अपनापे का दिखावा जरूर करता है। कुछ क साथ न चाहने क बावजूद कामकाजी रिश्ते रखने जरूरी हो जाते हैं। कुछ क साथ साफ तौर पर झगड़ा भी है। सब मिलाकर सौ से ज्यादा ही होंगे।
इनके अलावा कुछ ऐसे भी हैं जिनके साथ रोज का सम्बन्ध तो नह है लेकिन गाहे–बगाहे जब मिलना होता है तो बड़े प्यार से मिलते हैं। इसमें उसक वे सब हमपेशा लोग आते हैं जो दूसरे संस्थानों में काम करते हैं और सेमिनारों, मीटिगों वगैरह में अकसर उनसे मुलाकात होती रहती है।
एक श्रेणी उन लोगों की भी है जिनके साथ उसका कोई औपचारिक परिचय तो नहीं है लेकिन रास्ते में आते–जाते, किसी परचून वाले की दूकान पर, किसी सब्जी वाले के ठेले के पास, किसी पनवाड़ी की गुमटी के सामने, चाय के ढाबे में, बस स्टॉप पर ये लोग अकसर दिख जाते हैं। इन लोगों के साथ किसी तरह की हाय–हैलो भी नहीं होती, बस नजरें मिल गई तो मुस्कान का आदान–प्रदान हो जाता है। कुछ ज्यादा फुरसत हो तो मौसम या क्रिकट पर एक आध वाक्य का संवाद हो जाता है।
आदित्य को लगता है कि लिस्ट लम्बी होती जा रही है। हजार का आंकड़ा तो निश्चित रूप से पार हो गया होगा और अभी वे लोग इस लिस्ट में आए ही नहीं जिनके बारे में वह तो बहुत कुछ जानता है लेकिन वे शायद उसका नाम भी नहीं जानते होंगे। भारत के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, दुनिया भर के कई बड़े नेता, फिल्म और टेलिविजन की दुनिया के स्टार, दुनिया भर के जाने–माने लेखक, संपादक, पत्रकार, संगीतकार, कलाकार, खिलाड़ी। वे जो आज सक्रिय हैं, और वे भी जो आज सक्रिय तो नहीं हैं लेकिन गाहे–बगाहे टेलीविजन पर या अखबारों में उनकी शक्ल देखने को मिल जाती है। कुछ वे भी जो आज इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन यादों के सहारे आज भी उसक भीतर मौजूद हैं।
आदित्य इस सूची को यहीं पर खत्म कर देना चाहता है लेकिन उसका साफ सोच वाला उर्वर दिमाग अभी और बहुत से नाम जोड़ना चाहता है। वह उन लोगों को नहीं छोड़ना चाहता जिनके लिए वह खुद भी एक स्टार है। जो सभाओं, बैठकों में अकसर उसे घेर लेते हैं। उसकी कही हुई बातों की दिल से तारीफ करते हैं, उसक ऑटोग्राफ मांगते हैं। उसकी कोई कहानी, कोई कविता, कोई लेख, कोई रिपोर्ट कहीं छपती है तो वे उसे प्रशंसा पत्र लिखते हैं। वे जब उससे मिलते हैं, तब उसकी रचनाओं का जिक्र करते हैं, बताते हैं कि किस तरह वह उन्हें प्रेरित करती हैं।
उनसे मिलते हुए आदित्य को पूरे अपरिचय के बावजूद खुशी होती है। कई बार आदित्य को लगता है कि ये ही वे लोग हैं जिनकी वजह से आदित्य को खुद को देखने का, परखने का मौका मिलता है। ये आदित्य से जो भी कहते हैं, उसमें किसी तरह का छल या प्रपंच नहीं होता। ऐसा नहीं है कि ये लोग आदित्य के हर तरह के विचारों का समर्थन ही करते हों, कुछ चीजों क लिए वे उसकी आलोचना भी करते हैं। इन्हीं लोगों की बातों से, उनक लिखे पत्रों और टेलीफोन पर बातचीत से उसे खुद को परिमार्जित करने का मौका मिलता है। अगर आदित्य सहगल खुद को सुलझे हुए विचारों वाला आदमी मानता है तो उसक पीछे इन सब प्रशंसकों की भी एक बड़ी भूमिका है।
हर वर्ग में औसतन पांच सौ लोग भी हुए तो आठ वर्गों में कुल चार हजार लोग तो हुए ही।
इन वर्गों के विभाजन कुछ खामियां आदित्य सहगल को लगती हैं। एक खामी तो यही है कि बहुत से लोग एक से ज्यादा वर्गों में आते हैं। जैसे कोई दोस्त है तो वह पड़ोसी भी है या सहकर्मी भी। या कोई रिश्तेदार है जो दोस्त भी है और बैठकों, सम्मेलनों में भी उससे अकसर मिलना हो जाता है, या एक पड़ोसी है जो रिश्तेदार भी है, या कोई प्रशंसक ऐसा भी है जिससे अमूमन किसी पनवाड़ी की गुमटी के सामने या किसी चाय के ढाबे में मुलाकात हो जाती है।
मान लीजिए, सूचियों में दोबारा–तिबारा आने वाले नाम पांच सौ हैं। कम भी हो सकते हैं और ज्यादा भी लेकिन जब सब कुछ अंदाजे से ही चल रहा है तो एक अंदाजा यह भी सही।
इस तरह कुल नाम साढ़े तीन हजार के आसपास होने चाहिएं।
इस पूरे हिसाब–किताब से आदित्य सहगल को बड़ी राहत मिलती है। एक बहुत बड़ा काम कर लिया है उसने। पांच अरब की संख्या को घटाकर साढ़े तीन हजार कर दिया है। याने करीब पन्द्रह लाखवां हिस्सा।
यह आंकड़ा एक तरफ जहां आदित्य सहगल को राहत देता है वहीं उसे इस बात का भी अफसोस होता है कि दुनिया के लोगों का कितना थोड़ा सा हिस्सा है जिसे वह जानता है, जो उसक परिचितों की सूची में आता है। यानी दुनिया के हर पंद्रह लाख लोगों में से वह सिर्फ़ एक को जानता है। बाकी चौदह लाख निन्यानवे हजार नौ सौ निन्यानवे लोग ऐसे हैं जिन्हें वह बिल्कुल नहीं जानता।
आदित्य सहगल खुद को बड़ा साहित्यकार और विचारक मानता है। वह मानता है कि इन्सानी फितरत को पहचानने में उसे महारत हासिल है। लेकिन इस आंकड़े के बाद उसका आत्मविश्वास डोल जाता है। कितने कम लोगों को जानता है वह! कितने कम लोगों क सम्पर्क में आ सका है अब तक! कितना कुछ अनदेखा अनजाना रह गया है उससे!
इस आंकड़े ने आदित्य सहगल के बहुत से भ्रमों को तोड़ दिया। आदित्य दुनिया के कई देशों में घूमा है। वहां के लोगों को देखने, परखने, जानने का मौका उसे मिला है। वहां उसने भारत और भारत के लोगों के बारे में कई जगह व्याख्यान भी दिए हैं। लौटने पर यहां के सभा–सम्मेलनों में वहां के लोगों के बारे में, उनक जीवन के बारे में व्याख्यान दिए, लेख लिखे, किताबें लिखीं। लेकिन यह आंकड़ा अब उसकी खिल्ली उड़ा रहा था। कितनी कम समझ के आधार पर किया था उसने यह सब कुछ।
यह तो ठीक तरह से सैंपल सर्वे भी नहीं हुआ। सौ में से एक, हजार में से एक होता तो इसकी कोई प्रामाणिकता भी होती। यहां तो सैम्पल दस हजार या एक लाख में एक नहीं बल्कि पन्द्रह लाख में एक का है।
यह सब क्या है आदित्य सहगल? इनसानी फितरत की जानकारी का तुम्हारा आधार कितना छोटा है? कितने कम लोगों को असल में तुमने देखा और जाना है? तुम्हारी यह जानकारी तो ज्यादातर किताबी है! और जिनकी किताबें पढ़कर तुमने यह सब जाना–समझा है, उनकी खुद की जानकारी का आधार क्या रहा होगा? क्या वे भी तुम्हारी तरह अपनी विद्वत्ता के अहम से भरे हुए अल्पज्ञानी नहीं होंगे? आखिर तुम्हारी किताबें पढ़कर तुम्हारी ‘विद्वत्ता’ से प्रभावित होने वालों की संख्या भी तो कम नहीं होगी। वे तुम्हारी किताबों को पूरी आस्था के साथ पढ़ते हैं। उन्हें तो लगता भी नहीं होगा कि यह कितने अल्पज्ञान की उपज है।
लेकिन ठहरो आदित्य सहगल! लघुता बोध से तुम कुछ ज्यादा ही दबे जा रहे हो। क्या तुम समझते हो कि दुनिया में सचमुच कोई ऐसा आदमी हो सकता है, जो दुनिया के सभी आदमियों को जानता होगा! सभी तो छोड़ो, आधे लोगों को, दसवें हिस्से या सौवें हिस्से को भी जानने वाला कोई इस दुनिया में होगा?
अगर एक व्यक्ति से एक मिनट की भी मुलाकात हो तो पांच अरब व्यक्तियों से एक एक बार मिलने में ही नौ हजार पांच सौ तेरह बरस लग जाएंगे। इन बरसों में वह लोगों से मिलने के अलावा और कुछ नहीं कर पाएगा, न खाना, न सोना, न शौच, न नहाना–धोना, कुछ नहीं।
पूरे न सही, आधे लोगों से मिलने क लिए भी चार हजार सात सौ छप्पन साल छह महीने की जरूरत होगी। दसवें हिस्से से मिलने के लिए नौ सौ इक्यावन साल चार महीने और सौवें हिस्से से मिलने क लिए पचनवे साल और डेढ़ महीने की जरूरत होगी।
आदित्य सहगल को पूरा विश्वास है कि कोई सामाजिक कार्यकर्ता या कोई नेता भी, जिसे लोगों से मिलने के ज्यादा मौके मिलते हैं, अपनी पूरी जिन्दगी में व्यक्तिगत तौर पर तीस–पैंतीस हजार से ज्यादा लोगों को नहीं जानता होगा। याने पूरी दुनिया की आबादी का पंद्रह हजारवां हिस्सा। लेकिन इस जानने में भी जानने की औपचारिकता भर होगी, उपरी दुआ–सलाम की। जिसे असल में जानना कहते हैं, वह तो इनके मामले में भी आदित्य सहगल से ज्यादा नहीं होगी।
यहां पर आदित्य सहगल को एक बात और याद आती है। देश की संसद में बैठे जो लोग पूरे देश और देशवासियों की तकदीर का फैसला करते हैं, वे भी औसतन पंद्रह लाख से ज्यादा ही लोगों का प्रतिनिधित्व करते होंगे। एक संसदीय क्षेत्र में मतदाताओं की औसत संख्या बीस लाख क करीब है। करीब पांच लाख और ऐसे लोग होंगे जिनके नाम मतदाता सूची में नहीं होंगे। इनमें कुछ 18 बरस से कम के बच्चे होंगे, कुछ लोग मतदाता सूचियां बनने के बाद आए होंगे, कुछ के नाम राजनीतिक या इतर कारणों से मतदाता सूचियों से गायब करवा दिए गए होंगे। मतलब यह कि एक सांसद अपने क्षेत्र के करीब 25 लाख लोगों का प्रतिनिधित्व करता है।
इसे इस तरह से देख सकते हैं कि हालांकि वह सांसद एक व्यक्ति है और उसकी समझ भी एक व्यक्ति की ही समझ है लेकिन संसद में वह जो कुछ भी कहता है, वह उसक चुनाव क्षेत्र के 25 लाख लोगों की आवाज मान ली जाती है। जहां उसने सहमति दी, मान लिया जाता है कि वह 25 लाख लोगों की सहमति है और जहां उसने असहमति प्रकट की तो वह 25 लाख लोगों की असहमति मान ली जाती है। भले ही अपनी इस राय से इत्तेफाक रखने वाला वह अकेला व्यक्ति हो और बाकी 24,99,999 लोग उससे इत्तेफाक न रखते हों।
इसी का नाम प्रजातंत्र है और आदित्य सहगल को प्रजातंत्र में पूरा विश्वाय है। इसलिए सारी विसंगतियों क बावजूद जनप्रतिनिधित्व क इस सिद्धान्त मंे उसकी आस्था है।
अब आदित्य सहगल क सामने सवाल यह था कि क्या ये साढ़े तीन हजार व्यक्ति जो उसक परिचितों की सूची में हैं, पूरी दुनिया की आबादी का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं?
आदित्य सहगल को लगता है कि जरूर कर सकते हैं। ऐसा सोचने की आदित्य क पास वजह भी है। उसका मानना है कि इन सब लागों से मिलकर ही उसकी अपनी दुनिया बनती है।
यहां आकर आदित्य दार्शनिकों क सबसे पुराने सवाल पर आ जाता है कि दुनिया दरअसल क्या है? या कहें कि यह पूरी कायनात क्या है? तब वह दार्शनिकों क उस वर्ग की सोच को अपने ज्यादा करीब मानता है जिनक अनुसार आदमी की दुनिया उतनी ही है जितनी उसकी इन्द्रियां याने आंख, कान, नाक, जीभ और त्वचा क द्वारा बोधगम्य है।
जिन लोगों से वह कभी मिला नहीं, जिन्हंे उसने कभी जाना नहीं, जिनक अस्तित्व का उसे कभी बोध नहीं हुआ, वे उसकी अपनी दुनिया का हिस्सा कसे हो सकते हैं? उसकी अपनी दुनिया तो उन्हीं लोगों से बनती है जो कभी न कभी उसक जीवन से जुड़े रहे हैं। चाहे कितने कम ही क्यों न जुड़े हों, लेकिन उनक होने ने आदित्य की यादों में, उसकी चेतना में अपनी एक जगह बनाई है। आदित्य क आदित्य होने में कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में, कम या ज्यादा लेकिन उनका एक निश्चित योगदान है। उनकी दोस्ती का, उनकी दुश्मनी का, उनक लगाव का, उनकी उदासीनता का, उनकी निकटता का, उनकी दूरी का उसकी जिन्दगी क तौर तरीकों पर, कम या ज्यादा लेकिन फर्क पड़ा है। यानी एक तरह से देखा जाए तो इन सबकी वजह से ही आदित्य सहगल का अस्तित्व है।
अगर ये सब लोग आदित्य सहगल क लिए इतने महत्वपूर्ण हैं, उसकी अपनी दुनिया इन्हीं से मिलकर बनी है तो फिर दुनिया क बाकी पांच अरब या जितने भी वे हैं, की परवाह ही वह क्यों करे? उसक ये साढ़े तीन हजार ही उसक लिए किसी भी दुनिया का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं।
इसमें कुछ गलत भी तो नहीं है। आखिर वह आदमी जिससे आदित्य सहगल की कभी मुलाकात ही नहीं हुई और न कभी होने की सम्भावना है, जिसक होने या न होने से आदित्य को कोई फर्क ही नहीं पड़ता, जिसका आदित्य क लिए कोई अस्तित्व ही नहीं है, उसक दिमाग की रेटिंग कुछ भी हो, आदित्य की दिमाग की रेटिंग से कम हो या ज्यादा, कोई मायने नहीं रखता।
अचानक एक सवाल आदित्य क दिमाग में कौंधता है कि रेटिंग की आखिर जरूरत ही क्या है? जो उसकी इस साढ़े तीन हजार की गिनती से बाहर हैं, वे तो उसक लिए बाहर हैं ही और जो इस गिनती में शामिल हैं, वे उसक अपने हैं। इस अपनत्व की डिग्री में फर्क हो सकता है लेकिन हैं तो अपने ही। रेटिंग अगर जरूरी है तो दिमाग की रेटिंग क बजाय अपनत्व की डिग्री की रेटिंग होनी चाहिए।
अरे आदित्य सहगल, यह तुम्हें क्या होता जा रहा है? तुम इतना कनफ्यूज तो कभी नहीं हुए थे। दिमाग को सर्वोपरि मानने वाले तुम, आदित्य सहगल यह दिल की जबान कसे बोलने लगे? यह अपनापन, परायापन तो दिल से होता है। और अगर अपनेपन की बात करनी है तो उसक लिए रेटिंग की जरूरत ही क्या है? अपनापन कोई ऐसी चीज तो है नहीं जिसे नापा जा सक। यह तो सिर्फ़ महसूस की जा सकने वाली चीज है। दिल कोई दिमाग तो है नहीं जो किसी चीज को आंकड़ों की जबान में परखता हो। दिल तो दिल है। उसकी जबान तो महसूस करने वाली जबान है।
संभालो खुद को आदित्य सहगल! यह तो तुम पाला बदलने लगे हो! दिमाग के पाले से दिल के पाले में जाने की कोशिश करने लगोगे तो कहोगे कि आदमी के वजूद का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा उसका दिल है और दिमाग एक वाहियात चीज है। अगर दिमाग का काम दिल को धड़काना न होता तो दिमाग को निकलवा फेंकना ही बेहतर होता।
क्या सोचने लगे आदित्य सहगल!
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संक्षिप्त परिचय
सुरेश उनियाल
जन्म तिथि : 4 फरवरी, 1947
जन्म स्थान : देहरादून, उत्तराखंड
शिक्षा देहरादून में। गणित से एम.एस–सी. व हिंदी साहित्य से
एम.ए.
पूना स्थित फिल्म आर्काइव्स से फिल्म एप्रिसिएशन का
कोर्स
अनुभव : करीब चार दशक तक पत्रकारिता से जुड़े रहने के बाद
स्वैच्छिक सेवानिवृत्त।
1974 से 1977 तक नेशनल बुक ट्रस्ट के संपादकीय विभाग से संबद्ध
कथा पत्रिका सारिका के संपादकीय विभाग में करीब दो दशकों तक काम करने के अलावा टाइम्स ऑफ इंडिया के अन्य प्रकाशनों दिनमान टाइम्स और सांध्य टाइम्स प्रकाशनों से भी जुड़ा रहा।
अब स्वतंत्र लेखन।
पिछले करीब चालीस वषो से लेखनरत। कहानी, समीक्षा, साहित्य विषयक लेख, सिनेमा और खेल पर विभिन्न पत्र–पत्रिकाओं के लिए नियमित लेखन। सांध्य आइम्स के लिए फिल्म समीक्षा और संगीत समीक्षा के नियमित कॉलम।
प्रकाशित पुस्तकें : दरअसल (कहानी संग्रह)
यह कल्पनालोक नहीं (कहानी संग्रह)
कहीं कुछ गलत (कहानी संग्रह)
विज्ञान और विनाश (विज्ञान विषयक टिप्पणियां )
एक अभियान और (संपादित कहानी संकलन)
लगभग दो दर्जन पुस्तकों में सहयोगी लेखन
दो कहानी संग्रह और एक उपन्यास प्रकाशनाधीन
नेशनल बुक ट्रस्ट के लिए नेशनल बायोग्राफी सीरीज की
पुस्तक ‘द मदर’ का अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद।
टाटा समूह के इतिहास की पुस्तक का अनुवाद समृद्धि का
राजपथ राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित
हिंदी सिनेमा पर एक शोधपरक पुस्तक पर काम लगभग
अंतिम चरण पर।
नेशनल बुक ट्रस्ट के लिए ही नेहरू बाल पुस्तकालय
श्रृंखला के लिए भी हमारी नोसेना, जिस दिन नदी बोली
थी और अंतरिक्ष का वरदान का अनुवाद।
विभिन्न भारतीय और विदेशी भाषाओं में कहानियों के
अनुवाद प्रकाशित
पुरस्कार : यह कल्पनालोक कहानी संग्रह के लिए हिंदी
अकादमी से साहित्यिक कृति सम्मान
पता : बी–8, प्रेस अपार्टमेंट्स,
23 इंद्रप्रस्थ एक्सटेंशन,
दिल्ली–110092