चित्र : डॉ० अवधेश मिश्र
हम और हमारा समय
मैं क्यों लिखता हूं
हृदयेश
मैं क्यों लिखता हूं को बताने के लिए मैं एकदम विषय के सिरे पर जाना चाहूंगा कि मैंने लिखना कब प्रारम्भ किया था. प्रारम्भ में लेखन से जुड़ने के जो कारण होते हैं वे बाद में धीरे-धीरे समय के साथ परिष्कृत होते रहते हैं. लेखक अपने समय और समाज के साथ गहरे से जुड़ता हुआ, जीवन के तरह-तरह के पाठों से सीखता हुआ, दीक्षित व सांस्कारित होता हुआ परिपक्व होता रहता है. परिष्कार या परिपक्व होने की प्रक्रिया लंबी है, निरंतर गतिमान. यों भी कहा जा सकता है कि यह लेखक के चेतन-जीवन पर्यन्त सक्रिय रहती है. जब यह निरन्तरता रुक जाती है तब लेखक चुक जाता है. पिछले लिखे से ज्यादा पायेदार, अधिक उच्चकोटि का लिखने की संभावना समाप्त हो जाती है. उसका लेखन तब अभ्यास-जनित बन जाता है, रौंदे हुए रास्ते पर चलने वाला, अन्वेषी बनने के उद्यम से अपने को विरत करता हुआ.
मेरी स्कूली शिक्षा मात्र हाईस्कूल तक हुई थी. पिता में दूरदृष्टि नहीं थी. जो एकदम सामने है उसकी प्राप्ति ही उनका लक्ष्य होता था और उसी से वह संतुष्ट हो जाते थे . तब दसवीं दरजा उत्तीर्ण नवयुवकों के लिए बाबूगीरी की नौकरियों की कोई कमी नहीं थी. कोई प्रतियोगितात्मक परीक्षा नहीं. किसी का कहना, बोल देना ही बस काफी. पिता जनपद न्यायालय में कार्यरत थे, सेवा के अंतिम चरण में. उन्होंने अपने बड़े बेटे को वहां नियुक्त करा दिया था. मेरे लिए भी वैसी पक्की व्यवस्था कर दी थी. मेरे कई साथियों ने अगली कक्षाओं में दाखिला ले लिया था. मैं भी पढ़ाई जारी रखना चाहता था. मैंने बारहवीं कक्षा की पढ़ाई बतौर एक वैयक्तिक छात्र पूरी की थी. बी.ए. , एम.ए. की परीक्षाएं तब इस प्रकार से अनुमन्य नहीं थीं. लग गए पूर्ण विराम को हटाने के लिए तब मैं हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग की मध्यमा और उत्तमा की परीक्षाओं की ओर उन्मुख हो गया था, क्योंकि ये परीक्षाएं नौकरी करते हुए भी स्वअध्ययन की पूंजी के बल पर दी जा सकती थीं. इस अध्ययन ने साहित्य से मेरा परिचय करा दिया था. कचहरी में नौकरी करने से पूर्व मैंने कुछ समय तक आर्डनैंन्स डिपो में काम किया था. वहां मेरे अनुभाग में एक सहकर्मी थे उपाध्याय जी. वह वहीं कार्यसमय में अवकाश जुटाकर उपन्यास लिखा करते थे. संकेत पा लिया था. मैंने भी लिखने की डगर पकड़ ली.
मुझे यह स्वीकार करने में कोई झिझक नहीं है कि सन १९५१ के आसपास मैंने जो वैसा चुनाव किया था, यानी लेखन से जुड़ाव , तो शिक्षा में साथियों से पिछड़ने और बाबूगिरी की एक बेहैसियत नौकरी करने की हीनभावना से उबरने के लिए. पत्र-पत्रिकाओं में नाम व फोटो के साथ प्रकाशित होना प्रतिष्ठा देता है, साहित्य सर्जक बौद्धिकों के बीच का आदमी माना जाकर प्रथम श्रेणी का नागरिक बन जाता है, प्रतिकूलताएं भी उसका स्वागत-सत्कार करने के लिए बाध्य हो जाती हैं, ऐसी तब कुछ रोमानी अवधारणाएं एक साहित्यकार के प्रति मेरे मन में थीं. प्रतिष्ठा के कई रूप होते हैं. मोटा-मोटी एक रूप होता है भौतिक , यानी नफा-नुकसान पहुंचने की ताकत रखने वाला जो किसी राजनेता, बड़े अधिकारी या मिल-फैक्टरियों के मालिकों के साथ संबद्ध होता है और दूसरा सात्विक ऊर्जा वाला, आंतरिकता को समृद्ध करने की कूबत रखने वाला, जो साहित्य, कला एवं संगीत के साधकों के साथ संलग्न होता है. प्रतिष्ठा के इस दूसरे रूप में अधिक व्यापकता और स्थायित्व होता है. प्रतिष्ठा के भौतिक और सात्विक भेद की समझ उस समय मुझमें नहीं थी. उस वक्त प्रतिष्ठा यानी यश का स्थूल प्रकार ही सामने था.
शायद पहली या दूसरी रचना ही प्रकाशन के लिए स्वीकार कर ली गयी थी. देश की स्वतंत्रता के बाद के शुरुआती समय-दौर में जीवन के हर क्षेत्र में काफी-कुछ आदर्श और मूल्यपरकता थी. साहित्य में भी. तब पत्र-पत्रिकाओं के संपादक रचना प्राप्ति की सूचना संबधित लेखक को बिना भेदभाव के तत्काल देते थे, एक माह के अंदर उसे अपने निर्णय से अवगत करा देते थे और इसके बाद इस जानकारी से भी कि रचना किस अंक में आ रही है. बीच -बीच में संपादक लेखक को पत्र लिखकर उसकॊ सींचने-पोसने के लिए सलाह-सुझावों का खाद-पानी भी देते रहते थे. तब साहित्य में आज जैसी न तो राजनीति थी, न गुटबाजी और बेशर्म उठा-पटक. जन्म ले रहा लेखक भ्रूणहत्या से बचा रहता था. दूरदराज के कस्बों, छोटे शहरों में रहने वाले साहित्य की राह पकड़े लेखकों के लिए यह स्थिति अनुकूल थी. मेरी रचनाएं सधन्यवाद वापस भी आ रही थीं, किन्तु प्रकाशन की स्वीकृति भी आगे-पीछे उपस्थित होकर सहारा दे रही थी. इसलिए लेखन की ओर डग बढ़ना रुका नहीं, जारी रहा.
बड़े घरानों की पत्रिकाएं पारिश्रमिक के रूप में खासा पैसा देती थीं , जैसे धर्मयुग, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी . मैं इन पत्रिकाओं से जुड़ने लगा था. इन्हीं के साथ सरिता, माया, नीहारिका से भी रिश्ते बनाने लगा था, जो भी पत्रं-पुष्पं नहीं, पुष्ट फल देती थीं. ये पत्रिकाएं भी मन-भावन साज-सज्जा धारण किए होती थीं और रेलवे, बस स्टेशनों के स्टालों पर उपलब्ध रहती थीं. अब धन का आकर्षण भी लिखते रहने का एक कारण बन गया था. कौन-सी पत्रिका व्यक्तित्वहीन है या दिशाभ्रष्ट बाजारू इस ओर ज्यादा गौर नहीं करता था. माह में दो नहीं तो दो माह में तीन कहानियां तो लिख ही डालूं, यह भी कोशिश रहती थी. छपास की भूख ज्यादा हावी थी.
कहानी के अलावा मैं उपन्यास को भी अपनी कलम की जद में ले आया था. प्रकाशक उपन्यास को प्रकाशन के लिए हाथों-हाथ लेते क्योंकि पाठकों के बीच इनकी अच्छी मांग थी. प्रकाशक के लिए उपन्यास में अपनी लागत पूंजी को लेकर कोई खतरा नहीं रहता था बल्कि यह मुटिआये लाभ का सौदा होता था. कहानी की अपेक्षा उपन्यास लेखन की दृष्टि से एक बड़ा काम था. यह पोखर से बाहर निकलकर नदी में उतरकर पानी के विस्तार, बहाव और गहराई से परिचित होना होता है. इसे यों भी कहा जा सकता है कि यह जीवन को उसके अनेक रंगों, शेडों व बीसियों चरित्रों और विस्तृत समय-खंड को लयात्मक ढंग से साधना होता है. जटिल और कठिन साध्य कार्य ही पहचान दिलाते हैं. आप अपनी विधा में स्वयं को हाशिये से खिसकाकर केन्द्र की ओर अग्रसारित करने लगते हैं. धन के साथ पहचान अर्थात यशेच्छा भी लेखन को जारी रखे हुए थी.
फिर यों आगे बढ़ते-बढ़ते एक समय ऐसा भी आया कि सामाजिक बोध दबाव बनाने लगा. गहरे से गहरा. यह भाव जगने लगा कि कथा-सृजन एक साहित्यिक आयोजन के साथ-साथ सामाजिक कर्म भी तो है. इसके द्वारा अन्याय, उत्पीड़न, शोषण, असमता के विरुद्ध आवाज भी तो उठायी जा सकती है. समय की मांगों और इन मांगों की जरूरतों को भी रेखांकित किया जा सकता है. एक सभ्य, शिष्ट और मानवीय गरिमायुक्त समाज की संरचना की रूप-रेखा भी प्रस्तुत की जा सकती है. यह प्रस्तुति तभी समर्थवान और लम्बी आयु की संभव है जब भाषा, शिल्प, कथ्य और दृष्टि से उसको हर स्तर साधा जाए. लेखक का ध्यान तब रचना की संख्या पर न होकर उसकी गुणवत्ता पर होता है.
लिखने के कारण में अब यों औदात्य भी जुड़ गया. अब मैं जब कोई कृति पूरी करता हूं तो कलम की सार्थकता के साथ अपने होने की सार्थकता की भी गहरी अनुभूति मुझमें होती है. स्नान कर साफ धुले कपड़े पहनने पर जो आनन्द मिलता है वैसे ही आनन्द को देर तक अपने अन्दर महसूस करता रहता हूं.
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हृदयेश
मैं क्यों लिखता हूं को बताने के लिए मैं एकदम विषय के सिरे पर जाना चाहूंगा कि मैंने लिखना कब प्रारम्भ किया था. प्रारम्भ में लेखन से जुड़ने के जो कारण होते हैं वे बाद में धीरे-धीरे समय के साथ परिष्कृत होते रहते हैं. लेखक अपने समय और समाज के साथ गहरे से जुड़ता हुआ, जीवन के तरह-तरह के पाठों से सीखता हुआ, दीक्षित व सांस्कारित होता हुआ परिपक्व होता रहता है. परिष्कार या परिपक्व होने की प्रक्रिया लंबी है, निरंतर गतिमान. यों भी कहा जा सकता है कि यह लेखक के चेतन-जीवन पर्यन्त सक्रिय रहती है. जब यह निरन्तरता रुक जाती है तब लेखक चुक जाता है. पिछले लिखे से ज्यादा पायेदार, अधिक उच्चकोटि का लिखने की संभावना समाप्त हो जाती है. उसका लेखन तब अभ्यास-जनित बन जाता है, रौंदे हुए रास्ते पर चलने वाला, अन्वेषी बनने के उद्यम से अपने को विरत करता हुआ.
मेरी स्कूली शिक्षा मात्र हाईस्कूल तक हुई थी. पिता में दूरदृष्टि नहीं थी. जो एकदम सामने है उसकी प्राप्ति ही उनका लक्ष्य होता था और उसी से वह संतुष्ट हो जाते थे . तब दसवीं दरजा उत्तीर्ण नवयुवकों के लिए बाबूगीरी की नौकरियों की कोई कमी नहीं थी. कोई प्रतियोगितात्मक परीक्षा नहीं. किसी का कहना, बोल देना ही बस काफी. पिता जनपद न्यायालय में कार्यरत थे, सेवा के अंतिम चरण में. उन्होंने अपने बड़े बेटे को वहां नियुक्त करा दिया था. मेरे लिए भी वैसी पक्की व्यवस्था कर दी थी. मेरे कई साथियों ने अगली कक्षाओं में दाखिला ले लिया था. मैं भी पढ़ाई जारी रखना चाहता था. मैंने बारहवीं कक्षा की पढ़ाई बतौर एक वैयक्तिक छात्र पूरी की थी. बी.ए. , एम.ए. की परीक्षाएं तब इस प्रकार से अनुमन्य नहीं थीं. लग गए पूर्ण विराम को हटाने के लिए तब मैं हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग की मध्यमा और उत्तमा की परीक्षाओं की ओर उन्मुख हो गया था, क्योंकि ये परीक्षाएं नौकरी करते हुए भी स्वअध्ययन की पूंजी के बल पर दी जा सकती थीं. इस अध्ययन ने साहित्य से मेरा परिचय करा दिया था. कचहरी में नौकरी करने से पूर्व मैंने कुछ समय तक आर्डनैंन्स डिपो में काम किया था. वहां मेरे अनुभाग में एक सहकर्मी थे उपाध्याय जी. वह वहीं कार्यसमय में अवकाश जुटाकर उपन्यास लिखा करते थे. संकेत पा लिया था. मैंने भी लिखने की डगर पकड़ ली.
मुझे यह स्वीकार करने में कोई झिझक नहीं है कि सन १९५१ के आसपास मैंने जो वैसा चुनाव किया था, यानी लेखन से जुड़ाव , तो शिक्षा में साथियों से पिछड़ने और बाबूगिरी की एक बेहैसियत नौकरी करने की हीनभावना से उबरने के लिए. पत्र-पत्रिकाओं में नाम व फोटो के साथ प्रकाशित होना प्रतिष्ठा देता है, साहित्य सर्जक बौद्धिकों के बीच का आदमी माना जाकर प्रथम श्रेणी का नागरिक बन जाता है, प्रतिकूलताएं भी उसका स्वागत-सत्कार करने के लिए बाध्य हो जाती हैं, ऐसी तब कुछ रोमानी अवधारणाएं एक साहित्यकार के प्रति मेरे मन में थीं. प्रतिष्ठा के कई रूप होते हैं. मोटा-मोटी एक रूप होता है भौतिक , यानी नफा-नुकसान पहुंचने की ताकत रखने वाला जो किसी राजनेता, बड़े अधिकारी या मिल-फैक्टरियों के मालिकों के साथ संबद्ध होता है और दूसरा सात्विक ऊर्जा वाला, आंतरिकता को समृद्ध करने की कूबत रखने वाला, जो साहित्य, कला एवं संगीत के साधकों के साथ संलग्न होता है. प्रतिष्ठा के इस दूसरे रूप में अधिक व्यापकता और स्थायित्व होता है. प्रतिष्ठा के भौतिक और सात्विक भेद की समझ उस समय मुझमें नहीं थी. उस वक्त प्रतिष्ठा यानी यश का स्थूल प्रकार ही सामने था.
शायद पहली या दूसरी रचना ही प्रकाशन के लिए स्वीकार कर ली गयी थी. देश की स्वतंत्रता के बाद के शुरुआती समय-दौर में जीवन के हर क्षेत्र में काफी-कुछ आदर्श और मूल्यपरकता थी. साहित्य में भी. तब पत्र-पत्रिकाओं के संपादक रचना प्राप्ति की सूचना संबधित लेखक को बिना भेदभाव के तत्काल देते थे, एक माह के अंदर उसे अपने निर्णय से अवगत करा देते थे और इसके बाद इस जानकारी से भी कि रचना किस अंक में आ रही है. बीच -बीच में संपादक लेखक को पत्र लिखकर उसकॊ सींचने-पोसने के लिए सलाह-सुझावों का खाद-पानी भी देते रहते थे. तब साहित्य में आज जैसी न तो राजनीति थी, न गुटबाजी और बेशर्म उठा-पटक. जन्म ले रहा लेखक भ्रूणहत्या से बचा रहता था. दूरदराज के कस्बों, छोटे शहरों में रहने वाले साहित्य की राह पकड़े लेखकों के लिए यह स्थिति अनुकूल थी. मेरी रचनाएं सधन्यवाद वापस भी आ रही थीं, किन्तु प्रकाशन की स्वीकृति भी आगे-पीछे उपस्थित होकर सहारा दे रही थी. इसलिए लेखन की ओर डग बढ़ना रुका नहीं, जारी रहा.
बड़े घरानों की पत्रिकाएं पारिश्रमिक के रूप में खासा पैसा देती थीं , जैसे धर्मयुग, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी . मैं इन पत्रिकाओं से जुड़ने लगा था. इन्हीं के साथ सरिता, माया, नीहारिका से भी रिश्ते बनाने लगा था, जो भी पत्रं-पुष्पं नहीं, पुष्ट फल देती थीं. ये पत्रिकाएं भी मन-भावन साज-सज्जा धारण किए होती थीं और रेलवे, बस स्टेशनों के स्टालों पर उपलब्ध रहती थीं. अब धन का आकर्षण भी लिखते रहने का एक कारण बन गया था. कौन-सी पत्रिका व्यक्तित्वहीन है या दिशाभ्रष्ट बाजारू इस ओर ज्यादा गौर नहीं करता था. माह में दो नहीं तो दो माह में तीन कहानियां तो लिख ही डालूं, यह भी कोशिश रहती थी. छपास की भूख ज्यादा हावी थी.
कहानी के अलावा मैं उपन्यास को भी अपनी कलम की जद में ले आया था. प्रकाशक उपन्यास को प्रकाशन के लिए हाथों-हाथ लेते क्योंकि पाठकों के बीच इनकी अच्छी मांग थी. प्रकाशक के लिए उपन्यास में अपनी लागत पूंजी को लेकर कोई खतरा नहीं रहता था बल्कि यह मुटिआये लाभ का सौदा होता था. कहानी की अपेक्षा उपन्यास लेखन की दृष्टि से एक बड़ा काम था. यह पोखर से बाहर निकलकर नदी में उतरकर पानी के विस्तार, बहाव और गहराई से परिचित होना होता है. इसे यों भी कहा जा सकता है कि यह जीवन को उसके अनेक रंगों, शेडों व बीसियों चरित्रों और विस्तृत समय-खंड को लयात्मक ढंग से साधना होता है. जटिल और कठिन साध्य कार्य ही पहचान दिलाते हैं. आप अपनी विधा में स्वयं को हाशिये से खिसकाकर केन्द्र की ओर अग्रसारित करने लगते हैं. धन के साथ पहचान अर्थात यशेच्छा भी लेखन को जारी रखे हुए थी.
फिर यों आगे बढ़ते-बढ़ते एक समय ऐसा भी आया कि सामाजिक बोध दबाव बनाने लगा. गहरे से गहरा. यह भाव जगने लगा कि कथा-सृजन एक साहित्यिक आयोजन के साथ-साथ सामाजिक कर्म भी तो है. इसके द्वारा अन्याय, उत्पीड़न, शोषण, असमता के विरुद्ध आवाज भी तो उठायी जा सकती है. समय की मांगों और इन मांगों की जरूरतों को भी रेखांकित किया जा सकता है. एक सभ्य, शिष्ट और मानवीय गरिमायुक्त समाज की संरचना की रूप-रेखा भी प्रस्तुत की जा सकती है. यह प्रस्तुति तभी समर्थवान और लम्बी आयु की संभव है जब भाषा, शिल्प, कथ्य और दृष्टि से उसको हर स्तर साधा जाए. लेखक का ध्यान तब रचना की संख्या पर न होकर उसकी गुणवत्ता पर होता है.
लिखने के कारण में अब यों औदात्य भी जुड़ गया. अब मैं जब कोई कृति पूरी करता हूं तो कलम की सार्थकता के साथ अपने होने की सार्थकता की भी गहरी अनुभूति मुझमें होती है. स्नान कर साफ धुले कपड़े पहनने पर जो आनन्द मिलता है वैसे ही आनन्द को देर तक अपने अन्दर महसूस करता रहता हूं.
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शाहजहांपुर (उत्तर प्रदेश) में १९३० में जन्मे हृदयेश जी का पूरा नाम है हृदयेश नारायण मेहरोत्रा .
* हृदयेश जी की प्रकाशित कृतियां :
उपन्यास : 'गांठ'(१९७०), 'हत्या'(१९७१), 'एक कहानी अंतहीन'(१९७२), सफेद घोड़ा काला सवार' (१९७६), 'सांड' (१९८१), 'नास्तिक' (अनुवाद: १९८४), 'पुनर्जन्म'(१९८५), 'दण्डनायक'(१९९०), 'पगली घण्टी' (१९९५), 'किस्सा हवेली'(२००४) और 'तिक्की' (२००८).
कहानी-संग्रह : 'छोटे शहर के लोग' (१९७२), 'अंधेरी गली का रास्ता' (१९७७), 'इतिहास' (१९८१), 'उत्तराधिकारी '(१९८१), 'अमरकथा' (१९८४), 'प्रतिनिधि कहानियां' (१९८८), 'नागरिक' (१९९२), 'सम्मान' (१९९६), 'जीवनराग' (१९९९), 'सन उन्नीस सौ बीस' (१९९९), 'उसी जंगल समय में '(२००४), 'दस प्रतिनिधि कहानियां' (२००६).
** 'सफेद घोड़ा काला सवार' तथा 'सांड' उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा पुरस्कृत.
*** प्रतिबद्ध सृजन-यात्रा के लिए १९९३ के 'पहल सम्मान' से समादृत.
सम्पर्क : १३६/२, बक्सरियां , शाहजहांपुर (उ०प्र०) - २४२००१
मोबाइल नं० ०९४५१८०७११९
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2 टिप्पणियां:
Priy Roop Chandel jee,
Vatayan mein Hridesh kaa lekh-main kyon likhtaa hoon
padhkar unhe badhaee dene ko jee chahta hai.Unkaa
lekh sachchaee kaa ek behtreen namoonaa hai.
Aapkee Rajendra Yadav se baatcheet bhee khoob
rahee hai.Rajendra Yadav kee baaten vyaktigat hain jinse
sahmat hona har ek ke liye namumkin hai.Phir bhee
aapkee pustak mangva kar padhnee hee padhegee.
Pran Sharma
achcha laga hridyesh ji ko padhkar.
bhaisahab blog ko patrika hone se bachayen.
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