रविवार, 6 मई 2012

वातायन-मई,२०१२









हम और हमारा समय

आलोचना और हिन्दी साहित्य
रूपसिंह चन्देल

माना जाता है कि आलोचक साहित्यकार और पाठक के बीच सेतु का कार्य करता है. इस मान्यता के पीछे ठोस आधार हैं. कबीर कभी परिचय के मोहताज नहीं रहे. हर काल-पीढ़ी उनसे परिचित थी. जन-जन में वह समाए रहे, लेकिन एक बड़ा वर्ग ऎसा भी था—बौद्धिकों का बड़ा वर्ग जो उनकी उपेक्षा किए हुए था. डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर पर जो कार्य किया, कबीर के प्रति उदासीन उस बौद्धिक वर्ग की नींद टूटी और आम-जन के बीच कबीर की महत्ता जहां और जैसी थी वैसी ही रही, लेकिन उनके प्रति उपेक्षित-उदासीन भाव रखने वाला वह बौद्धिक वर्ग आज उनके पीछे दीवाना हो रहा है. डॉ. द्विवेदी ने उस उदासीन बौद्धिक वर्ग को जगाने के लिए कबीर पर कार्य नहीं किया था. उन्होंने एक ईमानदार आलोचक का कर्तव्य निर्वाह किया था. आज सबसे अहम प्रश्न यही है कि उन जैसे कितने आलोचक अपने दायित्व के प्रति ईमानदार हैं?

बात १९९९ की है. कमलेश्वर के घर उनसे साहित्य, समाज, राजनीति आदि विभिन्न विषयों पर लंबी बातचीत हो रही थी. आलोचकों की चर्चा आते ही उन्होंने कहा, “आज आलोचना है कहां? आलोचक मुंहदेखी आलोचना करते हैं.”

कमलेश्वर का यह कथन उन रचनाकारों  का सच है जो आलोचकों द्वारा चर्चित लेखकों से कमतर नहीं लिख रहे---बल्कि कुछ का लेखन उनसे कहीं अधिक उल्लेखनीय है. लेकिन न वे इनकम टैक्स या सेल्स टैक्स में बड़े पदों पर होते हैं और न ही बड़े उपहार और बड़ी दावतें देने की स्थिति में. यहां केवल दो उदाहरण देना पर्याप्त समझता हूं. दोनों ही लेखक समकालीन थे. मैंने पहले भी इन दोनों लेखकों की चर्चा की है.ये थे जगदीश चन्द्र और द्रोणवीर कोहली. जगदीश चन्द्र के उपन्यासों की ट्रिलॉजी –’धरती धन न अपना’, ’नरक कुंड में बास’ और ’यह जमीन तो अपनी थी’ में जिस गंभीरता और वास्तविकता से दलित जीवन को उद्घाटित किया गया है वह अतुलनीय है. लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण सच यह है कि विनोद शाही के अतिरिक्त दूसरे आलोचकों की कृपा दृष्टि उन तक नहीं पहुंची. वे उन रचनाओं की चर्चा में अपनी ऊर्जा लगाते रहे जिनमें अवास्तविकता के साथ जीवन और समाज चित्रित हुआ था.  ऎसा ही व्यवहार उन्होंने कोहली के साथ किया जिन्होंने ’वाह कैंप’,”तकसीम’ और ’ध्रुवसत्य’ जैसे महत्वपूर्ण उपन्यास लिखे.  मेरी पीढ़ी के कितने ही सशक्त कथाकारों के हिस्से की चर्चा वे रचनाकार लूटते रहे जो आलोचकों को प्रभावित करने में सक्षम थे.

२० मार्च, २०१२ को मुलाकात के दौरान ऎसी ही चर्चा पर वरिष्ठतम लेखिका मन्नू भंडारी ने साड़ी, शॉल और मिठाई जैसे उपहारों से लादकर अपनी रचनाओं की चर्चा करवाने वाली एक लेखिका का उल्लेख किया था. स्थिति जब इतनी विद्रूप हो चुकी हो कि उन्हीं की रचनाओं की चर्चा की जाती हो जो मोटे उपहार देने की स्थिति में हों, लाभ पहुंचाने वाले बड़े पदों पर हों या जिनके पति-परिवार के लोग ऊंचे पदों पर रहते हुए बड़ी दावतें दे सकते हों तब वह लेखक क्या करे जो ऎसा कर सकने की स्थिति में नहीं है. निश्चित ही ऎसे प्रतिबद्ध और समर्पित रचनाकारों की रचनाओं की चर्चा प्रायः कम ही होती है, लेकिन प्रायोजित चर्चा करवाने वाले इस बात से हत्प्रभ होते हैं कि चर्चा के मोर्चे पर शतक वे बना रहे होते हैं फिर भी दूसरों की पुस्तकें और रचनाएं छप भी रही होती हैं और बिक भी रही होती हैं.

जहां तक पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं के प्रकाशन की बात है, मेरा मानना है कि प्रत्येक सम्पादक को कुछ अच्छी रचनाओं की तलाश रहती है. अतः प्रतिबद्ध, समर्पित और ईमानदार रचनाकर्मियों की रचनाओं के प्रकाशन का  आधार रचना की कसौटी ही होता है. यहां यह उल्लेख आवश्यक है कि ऎसी रचनाओं का एक व्यापक पाठक वर्ग होता है, जबकि आलोचकों द्वारा प्रशंसित रचनाकारों के मामले में पाठकों को कहते सुना गया है कि वे छले गए. समीक्षक-आलोचक ने रचना की जो प्रशंसा की उन रचनाओं को पढ़ने के बाद उन्हें बेहद निराशा हुई.

महान रूसी लेखक लियो तोल्स्तोय ने अपने एक मित्र से कहा था, “तुम्हें पता है कि प्रारंभ में रूस ही नहीं जर्मन के आलोचकों ने मेरी रचनाओं पर कितना हाय-तौबा मचाया था. यह अच्छी बात है कि बात अब उनकी समझ में आ गयी है.” उन्होंने आगे कहा था, “मैंने कभी आलोचकों की परवाह नहीं की.  सदैव अपने पाठकों के विषय में सोचा---क्योंकि वे ही लेखक को जीवित रखते हैं.” मैक्सिम गोर्की की एक कहानी सुनकर तोल्स्तोय ने उनसे कहा था, “किसके लिए लिखी यह कहानी? यह भाषा आम-जन की नहीं है. आम-जन ऎसे नहीं बोलता. उसके लिए लिखो---वही तुम्हें जिन्दा रखेगा.”

तोलस्तोय के ’युद्ध और शांति’ के प्रकाशन के बाद रूस और जर्मन के आलोचकों ने उसके विरुद्ध जमकर लिखा, लेकिन पाठकों ने उसे सिर माथे पर बैठाया और देश की सीमाएं लांघ वह अमेरिका सहित विश्व के अनेक देशों तक पहुंचा और अत्यधिक चर्चित हुआ. लेकिन अपने यहां के आलोचकों के दृष्टिकोण ने उन्हें पत्र-पत्रिकाओं से विमुख कर दिया. वे नित पाठकों के आने वाले ढेरों पत्रों के उत्तर डिक्टेट करवाते थे लेकिन डाक में आये पत्र-पत्रिकाओं को एक ओर खिसका देते थे. तोल्स्तोय ने वह लिखा जो वह लिखना चाहते थे और वह सब पाठकों के लिए लिखा. अतः किसी भी लेखक को यह समझ लेना चाहिए कि पाठकों के दरबार में पैठ बनाने में यदि वह असफल है तो आलोचकों की बैसाखी उसे दीर्घजीवी नहीं कर सकती.  

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वातायन के इस अंक में प्रस्तुत है अमेरिकी लेखिका अनिलप्रभा कुमार की कविताएं, कहानी और सद्यः प्रकाशित उनके कहानी संग्रह –’बहता पानी’ पर समीक्षात्मक आलेख. साथ ही एक जमाने में चर्चित रही लेखिका सुमति सक्सेना लाल की कहानी ’बेघर’. सुमति जी ने १९६९ में लिखना प्रारंभ किया था और १९७४ तक निरंतर लिखा, लेकिन बाद में तीस वर्षों तक वह खामोश रहीं. इतनी लंबी खामोशी के बाद किसी भी रचनाकार का पुनः लेखन की ओर प्रवृत्त होना प्रशंसा की बात है. मुझे विश्वास है उनका लेखन निरंतर जारी रहेगा और किसी हद तक वह तीस वर्षों के अंतराल की क्षतिपूर्ति कर सकेंगी. 
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समीक्षात्मक आलेख










अनिलप्रभा कुमार की कहानियां

                                      गहन संवेदना की सूक्ष्म-भिव्यक्ति

रूपसिंह चन्देल

 अमेरिका के प्रवासी हिन्दी लेखकों में पिछले कुछ वर्षों में जिन साहित्यकारों ने अपनी गंभीर रचनात्मकता का परिचय दिया है, अनिल प्रभा कुमार उनमें एक  नाम हैउन्होंने न केवल कहानी के क्षेत्र  में बल्कि कविता के क्षेत्र में भी अपनी अलग पहचान बनाई हैउनकी कहानियाँ जीवनानुभूति की उस वास्तविकता से परिचित करवाती हैं जिनसे आमजन दिन-प्रतिदिन गुजरता, जूझता, टूटता और बिखरता हैउनकी कहानियों में पात्रों और परिस्थितियों का सूक्ष्म अध्ययन प्रतिभासित है
प्रवासी लेखकों के विषय में प्रायः कहा जाता है कि वे नॉस्टेल्जिया के शिकार होते हैं, लेकिन क्या यह बात यहाँ (यानी मुख्यभूमि भारत में) रहकर लेखन कार्य कर रहे  लेखकों के संदर्भ में उतनी ही सच नहीं है? लेखक अपने अतीत से मुक्त कैसे हो सकता है! अनेकों वर्षों पूर्व महानगरों में आ बसा एक संवेदनशील लेखक अपने गाँव-गली, कस्बे-मोहल्ले, नगर को भुला नहीं सकतावह उसकी साँसों में रचा-बसा होता है और किसी न किसी रूप में उसकी रचनात्मकता का हिस्सा बनता हैअनिल प्रभा कुमार की कुछ कहानियों में भी वह विषयानुकूल  प्रभावकारी रूप में  चित्रित हुआ  हैउनका शिल्प उसे और अधिक प्रभावोत्पादक बनाता है
हाल में अनिल प्रभा कुमार का कहानी संग्रह ‘बहता पानी’ दिल्ली के ’भावना प्रकाशन’ से प्रकाशित हुआ हैसंग्रह में उनकी चौदह कहानियाँ संग्रहीत हैंयद्यपि उनकी प्रत्येक कहानी अमेरिकी परिवेश पर आधारित है तथापि कुछेक में भारतीय परिवेश भी उद्भासित हैकाल, परिवेश और वातावरण का निर्धारण रचना की विषयवस्तु पर आधृत होता हैअनिल प्रभा कुमार का कथाकार रचना की अंतर्वस्तु की माँग को बखूबी जानता-पहचानता है और उसे अपने सुगठित शिल्प और सारगर्भित भाषा में पाठकों से परिचित करवाता है. अनेक स्थलों पर उनके वाक्य-विन्यास विमुग्धकारी हैंछोटे-वाक्यों में बड़ी बात कहने की कला लेखिका के शिल्प कौशल को उद्घाटित करती है।  अन्य बात जो पाठक को आकर्षित करती है और पिछले कुछ वर्षों में हिन्दी कहानी में जो छीजती दिखाई दे रही है वह है रचनाकार का प्रकृति प्रेम।  ‘किसलिए’, ‘दीपावली की शाम’, ‘फिर से’ कहानियों में यह दृष्टव्य हैकहानियों की संवेदनात्मक अभिव्यक्ति उन्हें मार्मिक और सशक्त बनाती है
अनिल प्रभा कुमार के पात्र पाठक में विचलन पैदा करते हैं और उसके अंतर्मन को आप्लावित कर एक अमिट छाप छोड़ते हैंउनकी एक भी कहानी ऎसी नहीं जो सोचने के लिए विवश नहीं करती और उस सबका कारण उनमें रेखांकित जीवन की विडंबना और विश्रृखंलता है‘उसका इंतजार’  अंदर तक हिला देने वाली एक ऎसी युवती की कहानी है जो मनपसंद युवक की प्रतीक्षा में अपनी आयु की सीढ़ियाँ चढ़ती चालीस तक पहुँच जाती हैयह आज का कटु सच है जो न केवल अमेरिका के किसी प्रवासी भारतीय की बेटी का सच है बल्कि भारत की हर उस दूसरी-तीसरी पढ़ी-लिखी लड़की का सच है जो नौकरी करते हुए अपने पैरों पर खड़ी हैकल, यानी नानी-दादी के कल, की भाँति वह समझौते के लिए तैयार नहीं, क्योंकि जीवन के निर्णय अब वह स्वयं लेती है, भले ही उस निर्णय में चूक हो जाती है‘उसका इंतजार’ की विधु के साथ भी यही हुआअपनी माँ से विधु का कथन दृष्टव्य है—“माँ, तुम भी यहाँ आकर इन सबसे मिल गई हो? मुझे बछिया की तरह एक अनजाने खूँटे से बाँधने को तैयार हो गईं?”  अंत में उसका कथन उसके आत्मविश्वास को दर्शाता है—“जब मैंने इतना इंतजार किया है तो थोड़ा और सही—मैं सिर्फ शादी करने के लिए अपने दिल से समझौता नहीं करूँगीइतनी हताश नहीं हुई अभी मैं”  लेकिन अनिल प्रभा कुमार यहीं नहीं रुकतींएक मनोवैज्ञानिक की भाँति वह विधु के अंतर्मन में झाँकती हैं और विधु  का यह कथन पाठक को छील जाता है—“माँ, तुम देखना, एक दिन जरूर आएगा वहछह फुट लंबा, सुन्दर, आकर्षक, गठीला शरीर, बेहद पढ़ा-लिखा, अमीर, खानदानी, हँसमुख, मुझपर जान छिड़कने वाला, हाजिर जवाब, दिलचस्प, गंभीर, उदार विचारोंवाला, बिल्कुल अमेरिकी मॉडल लगेगा पर मूल्य बिलकुल भारतीय होंगेमैं उसे देखते ही पहचान लूँगी और वह----.” विधु के होठ बुदबुदा रहे थे लेकिन गाल पर ढुलक आए आँसू का उसे पता ही नहीं चला
अनिल प्रभा कुमार की कहानियों के अंत उन्हें सिद्धहस्त रचनाकार सिद्ध करते हैं
‘किसलिए’ कहानी उस व्यक्ति की कहानी है, जो नौकरी से अवकाश प्राप्तकर घर में अपनी बेटी ईशा के ‘पेपे’ (कुत्ता) के साथ रहता है  पत्नी बानी नौकरी के चलते हफ्ते में एक या दो दिन आती है और ईशा बाहर रहती है‘पेपे’ उस व्यक्ति के जीवन का इतना अहम हिस्सा बन जाता है कि वह उसके बिना रह नहीं सकतायह एक जीवंत और वास्तविक कहानी है और ऎसी कहानी वही लिख सकता है जिसने ऎसे क्षण जिए हों।  इस कहानी को पढ़ते हुए मुझे जैक लंडन के ‘काल ऑफ दि वाइल्ड’ की याद आती रही।  वह कुत्तों पर ही आधारित है, जिसमें लंडन ने उनका मानवीकरण किया हैयद्यपि अनिल प्रभा की कहानी में ऎसा नहीं है, लेकिन ‘पेपे’ की गतिविधियाँ और मालिक के संकेतों को समझनेकार्यान्वित करने की उसकी क्षमता आकर्षित करती हैवह व्यक्ति उसे बेटे की भाँति प्यार करता हैढाई हजार डालर खर्च कर उसका ऑपरेशन करवाता है, लेकिन वह उसे बचा फिर भी नहीं पाता।  ‘पेपे’ और उस व्यक्ति का जो मनोवैज्ञानिक चित्रण लेखिका ने किया है वह कहानी को अविस्मरणीय बनाता है
‘गोद भराई’ किसी स्त्री के संतान न होने की पीड़ा और भारत से किसी बच्ची को गोद ले आने को केन्द्र में रखकर लिखी गई है।  ‘घर’ अमेरिकी संस्कृति, सभ्यता, और वातावरण को रेखांकित करती हैयह मात्र सलिल और सलीम की कहानी नहीं, उस पूरे समाज की कहानी है जहाँ पति-पत्नी के विलगाव का दुष्प्रभाव बच्चों को झेलना पड़ता हैअकस्मात सलीम की माँ अपने पिता की सिफारिश पर उसके यहाँ आकर रहने वाले महेश के साथ जाकर जब अलग रहने का निर्णय करती है, सलीम इस पीड़ा को बाँट किसी से नहीं पाता लेकिन वह उसे अंदर ही अंदर कुतरती रहती हैमेडिकल में जाने की क्षमता रखने वाला सलीम चिड़ियाघर की छोटी नौकरी करने के लिए अभिशप्त हो जाता है, क्योंकि पिता भी दूसरी शादी करके कनाडा में बस जाते हैं और डाक्टरों ने उसे सलाह दी  कि उसे प्रकृति के नजदीक रहना चाहिए।  कहानी का अंत बेहद मार्मिक है—“रात की कालिमा खत्म हो चुकी थीआकाश का रंग ऎसा हो गया, जैसे रात जाने से पहले राख बिखेर दी गई होसलिल वहीं कार में बैठा देखता रहासलीम धीरे-धीरे पैर घसीटता हुआ, उस राख के शामियाने के नीचे जा रहा था—अपने घर”  यानी चिड़ियाघर जो अब सलीम  का घर था
‘दीपावली की शाम’ एक ऎसे परिवार की कहानी है जिके पास अपार संपत्ति है, लेकिन घर का बड़ा लड़का चवालीस साल का और छोटा छत्तीस कातीन बेटों में कोई भी विवाविह नहीं, और तीन भाइयों के बीच एक बहन भी अविवाहित…। घर का स्वामी अपने घर की तुलना ताजमहल से करता नहीं अघाता लेकिन उसी ताजमहल में दीपावली के दिन सन्नाटा उसे परेशान अवश्य करता हैघर में न कहीं रोशनी न उत्साहअपनी परेशानी को गृहस्वामी यह कहकर छुपाता है—“अगली दीपावली हिंदुस्तान में मनाएँगे।  सभी जाएँगे।  बस, पास रोकड़ा होना चाहिए
‘फिर से’ कहानी पारिवारिक विघटन को व्याख्यायित करती है।  केशी और तिया की कहानीकेशी सेना में युद्धभूमि में और तिया उसकी अनुपस्थिति में उसकी मान मर्यादाओं की सीमाएँ तोड़ती हैलौटकर वह फिर भी बच्चों की खातिर उसके साथ रहने को तैयार हो जाता है, लेकिन तिया को उसका उपकार नहीं चाहिए थादोनों अलग हो जाते हैंकेशी बच्चों को लेकर अमेरिका जा बसता हैवही तिया जिस क्षण बच्चों से मिलने अमेरिका पहुँचती है उस क्षण को बहुत ही सधे भाव से लेखिका ने कहानी में चित्रित किया हैपुनः मिलकर भी दोनों के अहं टकराते हैं और केशी बेटी संजना के घर से जाने का निर्णय कर लेता हैउस क्षण को कहानी में जिस प्रकार अनिल प्रभा कुमार ने बिम्बायित किया है वह आकर्षक है—“खाली कमरे के बीचों-बीच खड़े वह बाढ़ में सब-कुछ जल-ग्रस्त हो जाने के बाद खड़े एकाकी पेड़ जैसे लग रहे थेनितांत अकेला, उदास वृक्षप्रकृति जैसे उसे पीटने के बाद, रहम खाकर, जिन्दा रहने के लिए छोड़ गई हो
‘बरसों बाद’ दो सहेलियों की मिलन गाथा है, जो तीस वर्षों बाद मिलती हैंअपनी बेटी के प्रसव के लिए अमेरिका पहुँची सहेली, जिसका पति प्रोफेसर था, अपनी पीड़ा जब इन शब्दों में बयान करती है—“नौकरी करती रही न! ऊपर से बीमारियों-तनाव की वजह सेएहसास—बस कौरव महारथियों के बीच अभिमन्यु के घिर जाने जैसा। यूँ ही घर-गृहस्थी के रोज-रोज के ताने, व्यंग्य, आरोप।  मुझे लगता है कि जैसे मैं दुनिया की सबसे बुरी औरत हूँ।” वह काँप रही थीएक आम भारतीय नारी, वह पढ़ी-लिखी नौकरी पेशा है तो क्या, की स्थिति का वास्तविक आख्यान करती यह कहानी कितने ही विचारणीय प्रश्न उत्पन्न करती है
संग्रह की शीर्षक कहानी  ‘बहता पानी’ अमेरिका से भारत आयी एक महिला की कहानी है, जिसके दिल-दिमाग में घर और स्थानों की वही छवि अंकित है जिसे छोड़कर वह प्रवास में गयी थीउसकी सहेली माधवी का प्रश्न है—“तू पुरानी जगहों से इतनी चिपकी हुई क्यों है?”
“पता नहीं. शायद वह मेरी स्मृतियों के स्थल हैं.” वह आगे कहती है, “शायद मैं उसी पुरानेपन, उन्हीं बिछुड़े सुखों की तलाश में लौटती हूँ। वह मेरा कंफर्ट जोन हैइस नयेपन में मेरी पहचान खो जाती है और मैं अपने को गँवाना नहीं चाहती” वह भाई से विशेषरूप से अनुरोध कर अपने घर के उन हिस्सों को देखती है जहाँ उसके पिता लेटते थे, जहाँ वह पढ़ती थी।  और जब वापस लौटती है, वह मुड़कर उस खिड़की की ओर देखना चाहती है जहाँ खड़े होकर अशक्त पिता उसे विदा करते थेअपनी पुरानी यादों में जीती यह एक स्त्री की प्रभुविष्णु कहानी है
‘बेटे हैं न!’ एक वृद्ध माँ की दारुण कथा है, जो पति की आकस्मिक मृत्यु के बाद अपने तीन बेटों में अपना भविष्य सुखी और सुरक्षित देखती हैउसके तीनों बेटे अमेरिका में जा बसते हैंवह भी अपने सबसे चहेते बेटे प्रकाश के साथ चली जाती हैप्रकाश के बच्चे जब तक छोटे होते हैं सत्या के प्रति प्रकाश की पत्नी अमला का व्यवहार ठीक रहता है, लेकिन जरूरत समाप्त होते ही सत्या उसे बर्दाश्त से बाहर हो जाती है—“तो क्या हमने आपका ठेका ले रखा है?” अपना आपा खो बैठी अमला कहती हैअंततः अमला द्वारा प्रताड़ित-अपमानित सत्या को प्रकाश भारत भेज देता है, जहाँ सत्या की छोटी बहन दमयंती उसे एयरपोर्ट पर रिसीव करती हैदमयंती के पूछने पर, “बहन जी, क्या हो गया?” सत्या फूट पड़ती है, ‘दमी, उस दिन नहीं, पर आज मैं सचमुच विधवा हो गयी हूँ।” कहानी की मार्मिकता पाठक में उद्वेलन उत्पन्न करती है
‘मैं रमा नहीं’, अमेरिका निवासी एक अपाहिज पति के लिए समर्पित रमा, एक प्रोफेसर और ऎसी अधुनिका युवती की कहानी है जो भारत से शोध और नौकरी के लिए अमेरिका जाती है।  एक ओर रमा है जो दूसरों के लिए भोजन पकाकर अपना और अपने उस पति का पोषण कर रही है जो कभी इंजीनियर के रूप में वहाँ गया था, लेकिन एक दुर्घटना के कारण अशक्त जीवन जी रहा थादूसरी ओर वह युवती है जो अपने पति को छोड़कर टोरटों में रह रहे अपने भाई के मित्र अर्जुन के साथ लिव-इन रिलेशन में  रहती हैप्रोफेसर के यह पूछने पर कि, “तुम अर्जुन से विवाह क्यों नहीं कर लेतीं? बाकी सब-कुछ तो वैसा ही है” वह उत्तर देती है, “विवाह करने से प्रेम के सारे आयाम बदल जाते हैं” और अंत में वह प्रोफेसर को एक और झटका देती है, “मैं आपको एक बात और बता देना चाहती हूँ…” उसने होंठों को भींचा, “---कि मैं रमा नहीं हूँ।” यह कहानी पीढ़ियों के अंतर को बखूबी दर्शाती है
‘ये औरतें, वे औरतें’ एक ऎसे सच से पर्दा उठाती है,जहाँ नमिता के घर की नौकरानी  तीबा यदि अपने पति से प्रताड़ित है तो वहीं आभिजात्य सिम्मी और नमिता भी हैं  तीबा का पति मामूली-सी बातों में उसे पीटता है, गर्म प्रेशर कुकर से जला देता है तो नमिता का पति जया के साथ अँधेरे का लाभ उठाने पर नमिता के प्रश्न पर उसे थप्पड़ रसीद कर देता है।  कहानी अपरिवर्तित सामंती पुरुष मानसिकता, उसकी लंपटता और शोषित-प्रताड़ित नारी जीवन की विडंबना को अत्यंत सार्थकता से अभिव्यक्त करती है‘रीती हुई’ , ‘वानप्रस्थ’, और  ‘सफेद चादर’ भी उल्लेखनीय कहानियाँ हैं
प्रभा कुमार की कहानियों से गुजरते हुए एक महत्वपूर्ण बात यह भी उभरकर आती है कि उनमें एक उपन्यासकार विद्यमान है‘बेटे हैं न!’  में एक अच्छे और बड़े औपन्यासिक कथानक की संभावना अंतर्निहित हैयह एक व्यापक फलक की कहानी है
अंत में, यह कहना अप्रसांगिक न होगा कि अमेरिका के हिन्दी लेखकों में उषा प्रियंवदा और सुषम बेदी की कथा परंपरा को जो कथाकार गंभीरता से आगे बढ़ा रहे हैं अनिल प्रभा कुमार और इला प्रसाद उनमें प्रमुख हैंइनकी कहानियों की ही नहीं, कविताओं की भी मौलिकता, भाषा की प्रांजलता और शिल्प वैशिष्ट्य अनूठा है












बहता पानी : अनिलप्रभा कुमार
भावना प्रकाशन, 109-A,पटपड़गंज,दिल्ली-110091
मूल्य – ३००/-, पृष्ठ - १६७
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कहानी










ये औरतें- वे औरतें
अनिलप्रभा कुमार

घंटी बजी। दरवाज़ा उसे ही खोलना था। पहले मेह्मान अन्दर आए। तीबा ने मुस्करा कर आंखें झुका लीं।
"वैल्कम -वैल्कम" कहते हुए खन्ना साहब ने बड़ी गर्म-जोशी से उनका स्वागत किया।
"भई, जल्दी तो नहीं पहुंच गए हम?"
"अरे नहीं, आप तो बिल्कुल सही वक्त पर आए हैं", कहते हुए मिसेज़ खन्ना ने मेहमान महिला को गले लगा लिया।
तीबा धीरे से रसोई-घर में सरक गई। उसे पता था अब दोनों दम्पति मैदान संभाल लेंगे।
आज वह सुबह ही आ गई थी। मैडम ने आज रात रुकने को पहले से ही कह दिया था। कल भी वह और मैडम सारा दिन किचन में काम करती रही थीं। पांच बजते ही उसकी घबराहट बढ़ गई।
"मैडम, मैं अब जाऊंगी। मेरा आदमी ग़ुस्सा होगा।" वह दुपट्टे को नए सिरे से लपेट कर सिर ढंक लेती है। कुछ ऐसे कि सूजा हुआ गाल भी ढक जाए।
मैडम उसे देखती हैं और हल्की सी उसांस निकल जाती है।
"कल जल्दी आ जाना, पार्टी है और रात भी यहीं रह जाना। काफ़ी काम होगा।"
तीबा कुछ असमंजस में खड़ी रही, कुछ कहने के लिए शब्द सोचती हुई।
"अपने आदमी को कह देना, रात रुकने के दुगुने पैसे मिलेंगे।"
"जी।" सिर हिलाकर तीबा बस पकड़ने की जल्दी में तेजी से निकल गई। सोचा, पैसे तो सारे वही छीन लेगा। ऊपर से ताबड़तोड़ घूंसे और अंगारों जैसी गालियां। उसके साथ- साथ उसके पैदा करने वालों को भी ज़लील करती हुईं।
"क़बाब गर्म हो गए?" मैडम दरवाज़े पर खड़ी पूछ रही थीं।
"जी, जी।" हकलाकर तीबा ने कहा और जल्दी से अवन का दरवाज़ा खोलकर देखा। छुआ, अभी ठंडे थे।
"पहले थोड़े से पकौड़े अन्दर दे जा, क़बाब बाद में आ जाएंगे।"
मैडम के मुड़ते ही तीबा ने कड़ाही का तेल गर्म करने के लिए स्टोव की आग बढ़ा दी। खौलते तेल को देखकर, घबराहट से उसके माथे पर पसीना छलछला आया। पीछे मुड़कर देखा, कोई नहीं था। उसने अपने को समझाया - "घबरा नहीं तीबा, यहां तुझे कोई ख़तरा नहीं।"
सीने में सांस भरी, जबड़े कसे और पकौड़े तलने शुरु कर दिए।
मैडम फिर दरवाज़े पर थीं।
उसने पकौड़ों की ट्रे उन्हें थमा दी। पहले वह झिझकीं, फिर ले ली।
"तू कब तक लोगों के सामने आने से कतराती रहेगी? जल्दी से क़बाब लेकर आ।"
उसने अपना हुलिया देखा। मैडम ने अपनी बेटी की पुरानी पैंट उसे दे दी थी। उसने ख़ुद ही लम्बी सी पूरी बांहों की कुर्ती सिल कर पहन ली। मैडम सिर ढकने से ग़ुस्सा होती हैं और उसे इन कपड़ों में, ख़ासकर बिना दुपट्टे के अजीब लगता है। उसने दुपट्टे को स्कार्फ़ की तरह गले में लपेट लिया, जैसे मैडम ने कहा था।
अवन से क़बाब की ट्रे बाहर निकालते वक्त बांह में बड़ी तेज़ टीस उठी। उसने अपने को संभाल लिया। बीच वाले हॉल कमरे में पार्टी का इंतज़ाम था। अन्दर से क़हक़हों, गिलासों के खनकने की आवाज़ों के साथ-साथ सेंट की मिली-जुली ख़ुशबू से उसे पता चल गया कि अन्दर और भी लोग आ चुके हैं।
क़बाबों की ट्रे को संभालती हुई वह अन्दर आ गई। पहले वाला जोड़ा सोफ़े पर बैठा था। अब तक दो जोड़े और आ चुके थे। वह सभी खन्ना साहब के पास खड़े बतिया रहे थे। नीली झिलमिलाती साड़ी में लिपटी, हीरे के झुमके डुलाती जया मैडम अकेली ही आईं थीं। तीबा को पैंट-टॉप में देखकर मुस्करायीं।
"अरे तीबा तू तो अमरीकन बन गई !"
तीबा सकुचा गई। चाहती थी कोई उसके हाथ से ट्रे ले ले। वह ट्रे लेकर सबके आगे खड़ी हो जाती। सबसे पहले आई सिम्मी ने मना कर दिया, " भई मैं तो वैजेटेरियन हूं।"
सिम्मी के पति ने उसे कड़ी नज़रों से देखा और आगे बढ़कर दो क़बाब उठा कर अपनी प्लेट में रख लिए। तीबा तो रोज़ ऐसी नज़रों को झेलती है। धीरे से आगे बढ़ गई। प्रिया मैडम और मीता मैडम के पतियों में  भी गहरी दोस्ती है। हमेशा दोनो जोड़े एकसाथ ही आते हैं। मैडम बताती थी कि वे छुट्टियां भी इकट्ठे ही मनाते हैं। उसने ट्रे उनके सामने कर दी।
मीता ट्रे को देखती रही। बोली -"बाद में लूंगी"। वह अपने शरीर का बहुत ध्यान रखती हैं।
प्रिया का पति रजत आगे बढ़ आया। "अरे मीता, खाकर तो देखो। बहुत बढ़िया क़बाब हैं।" कहकर उसने एक क़बाब ट्रे से उठाकर मीता के मुंह की ओर बढ़ा दिया। मीता ने बड़ी नज़ाकत से एक छोटा सा टुकड़ा काटा। हुंकारा भरा फिर कहा - "मेरे हाथ में अभी वाइन है, बाद में ले लूंगी।"
"अरे वाह, भई हम किस मर्ज़ की दवा हैं? मैं खिलाता हूं।" रजत ने फिर क़बाब उसके मुंह की ओर बढ़ाया। मीता शर्मा कर हंस पड़ी। प्रिया धीरे से उठ कर जया के पास आ बैठी।
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"कैसी हो जया?"
"कैसी लगती हूं?"
प्रिया ने ऐसे देखा जैसे पहली बार देख रही हो।
"अच्छी लग रही हो। लगता है तलाक़ तुम्हें रास आ रहा है।"
जया खिलखिला कर हंस पड़ी। "आज़ाद हूं, ख़ुश हूं, अपनी ज़िन्दगी जी रही हूं, बस और क्या?"
"हमें भी राज़ बता दो भई।" प्रिया को मुस्कराने की क़ोशिश करनी पड़ी।
जया प्रिया के थोड़ा पास सरक आई। उसकी चेहरे पर आत्म-विश्वास की चमक थी। "मैंने भी तगड़ा वक़ील करके अपना पूरा हिस्सा ले लिया। उसका बिज़नेस सफल करने में मैने भी तो कोई कम मेहनत नही की। अब बस ऐश कर रही हूं। थोड़ा सोशल -वर्क भी करती हूं। अपनी एशियाई औरतें, जो घरेलू हिंसा की शिकार होती हैं न, उनकी मदद के लिए यहां एक संस्था है - सखी। बस उस में वांलटियर वर्क कर रही हूं।"
"हूं, तो तुम्हें मक़सद मिल गया।" प्रिया ने ख़ोखली-सी आवाज़ में कहा।
"तेरी सास अब कैसी है ?" जया ने बड़े अपनेपन से पूछा।
"वैसी की वैसी ही है, मुसीबत पैदा करने वाली। हर बात की शिक़ायत, ख़ासकर मेरी शिकायतों से रजत के कान भरती रहती है।" प्रिया के मुंह में कड़वाहट घुल गई।
"तो तू रजत को अपना पक्ष क्यों नहीं बताती?
"मैं बोल सकती हूं क्या उसकी मां के खिलाफ़ कुछ भी?" प्रिया ने सवाल जया से नहीं अपने-आप से ही किया।
"प्रिया, तेरे लिखने में तो बड़ी बेबाक़ सचाई होती है। यह बहादुरी सिर्फ़ कागज़- कलम के लिए ही रख छोड़ी है क्या ?"
प्रिया सिर्फ़ देखती भर रही जया को। होठों तक कई बातें आईं, रुकीं और लौट गईं। वह ख़ुद भी तो यही सोचती है कि जो महसूस करती है उसे लिख तो सकती है पर कहने के लिए, होठों पर चुप्पी की इतनी भारी सांकलें उससे क्यों नहीं धकेली जातीं?
तीबा फिर से गर्म पकौड़ों की ट्रे हाथ में लेकर आ खड़ी हुई। प्रिया बैठी थी। उसने हाथ से ज़ोर डालकर ट्रे को नीचा करना चाहा। तीबा की बांह पर ज़ोर पड़ा। उसकी हल्की सी  सिसकारी निकल गई।
जया का ध्यान उसकी बांह पर बंधी पट्टी पर गया।
"क्या हुआ?" उसकी आवाज़ में चिन्ता थी।
तीबा चुप।
"बड़ा ज़ालिम है इसका आदमी ।" मेज़बान नमिता खन्ना ने खिन्न होकर कहा। सिम्मी और मीता भी पास आकर बैठ चुकी थीं।
"बहुत यातनाएं देता है इस को। तीन-चार दिन पहले यह प्रैशर-कुकर में दाल रख कर, अपनी बिल्डिंग की बेसमेंट में कपड़े लॉंड्री मशीन में डालने चली गई। ज़रा देर हो गई वापिस आने में। कुकर जल गया। बस उस जानवर ने उसी जलते कुकर से इसकी बांह को दाग़ दिया।"
"ओफ़्फ़ोह ।" जया बेचैन हो उठी। थोड़ी देर सोचती रही। पूछा - कोई बच्चा है क्या इसका?"
"उसकी भी अलग ट्रैजेडी है।" नमिता को तो आकर तीबा सब बताती है न। उसे बड़ा दुख होता है, पर करे क्या वह? उसने अपने तबक़े की औरतों से तीबा के लिए सहानुभूति इकट्ठी करनी चाही।
"बेचारी पूरे दिनों से थी। इसको लगा कि बच्चा हिल-डुल नहीं रहा। अपने आदमी से इसने कहा कि मुझे अस्पताल ले चल। कहता है कि आज रविवार है, अस्पताल बन्द है। सारी रात तड़पती रही। अगले दिन जब तक लेकर गया तब तक बच्चा मर चुका था।
मीता अन्दर ही अन्दर डूब गई। कैसी विडम्बना है- किसी के बच्चा होता नहीं और किसी को क़द्र नहीं।
"तीबा इधर आ, मेरे पास बैठ।" जया ने तीबा का हाथ पकड़ कर बैठाना चाहा।"
तीबा सोफ़े पर, उसके पास बैठने में संकोच कर गई।
"कहा न, ऊपर बैठ - मेरे साथ।"
तीबा नज़रें झुकाए बैठ गई।
"क्या तेरा आदमी तुझे मारता-पीटता है?" जया ने पूछताछ शुरु की।
हामी में सिर हिलाकर तीबा रोने लगी।
"कितनी देर से है यहां, इस मुल्क में?"
"एक साल से।"
"क्या शिक़ायत है उसे तुझसे?"
"कहता है कि मैं ख़ूबसूरत नहीं, समझदार नहीं, मेरा परिवार अच्छा नहीं। बात-बात पर गालियां देता है, हाथ उठाता है।"
"तू यहां से भाग क्यों नहीं जाती?" सिम्मी से रहा नहीं गया।
"मेरा कोई नहीं है इस देश में।" तीबा ने बेबसी से कहा।
"तू क्यों सहती है यह सब कुछ? कोई ढंग की नौकरी कर ले।" प्रिया परेशान थी।
"मैं अभी कोई नौकरी नहीं कर सकती। मेरे पास ग्रीन -कॉर्ड नहीं है। वह कहता है मैं मना कर दूंगा तो अमरीकी सरकार तुझे यहां रहने की इज़ाज़त ही नहीं देगी। वापिस भेज देगी।"
"तो तुझे वह ग्रीन -कॉर्डके झांसे में ब्लैकमेल कर रहा है?" मीता ने पूछा।
तीबा सिर झुकाए चुप रही।
"तो तू वापिस क्यों नहीं चली जाती, अपने मां-बाप के पास?" सिम्मी को बात समझ नहीं आ रही थी।
तीबा ने मुंह ऊपर किया। आंसू भरी आंखो में जैसे तूफ़ान आ गया। क्या बताए इन मेम-साहबों को, इन पढ़ी-लिखी औरतों को कि ग़रीबी क्या होती है? एक गांव के स्कूल-मास्टर की पांच बेटियों में से एक खाने वाला मुंह कम हो जाने का मतलब क्या होता है?
उसने पड़ोसिन के पते से मां को चिट्ठी भिजवाई थी - अपनी सारी दुख कथा लिखी थी। जवाब भी आ गया था कि जैसे भी हो, वहीं निबाहो। परित्यक्ता औरत की उसके समाज में क्या दुर्गति होती है, सोच कर भी वह कांप जाती है। अभी तो एक तरफ़ से ही पिट रही है फिर सब ओर से पिटना होगा । किसी भी क़ीमत पर यहीं रहकर बस ग्रीन -कॉर्ड मिल जाए। अमरीका में रहने का उसे क़ानूनी हक़ मिल जाए तो वह फिर अपने पैरों पर खड़ी हो सकती है। कहीं बहुत गहरे छिपी भावना भी है , बहनों को भी बुला लेने की।
"तुझे वापिस जाने की कोई ज़रूरत नहीं।" जया जो बहुत देर से सोच रही थी, बोली।
"तेरा केस बहुत सशक्त है। देख तीबा, सुन। मैं तुझे यह नम्बर देती हूं।" कहकर उसने अपने पर्स में से एक कागज़ निकाला। उस पर नम्बर लिखा।
"यह घरेलू हिंसा की शिकार औरतों के लिए हॉट-लाइन है। अगर वाक़ई तेरी जान को ख़तरा हो या तेरे ऊपर कोई मुसीबत हो तो एकदम से इस नम्बर पर फ़ोन कर देना और घर से बाहर निकल जाना। कोई न कोई तुम्हे लेने आ जाएगा। थोड़े दिन तू शैल्टर में रहेगी और फिर तुझे अपने पैरों पर खड़ा करने की क़ोशिश की जाएगी। नमिता, तू कल इसे एक अपना पुराना मोबाइल फ़ोन दे देना।"
तीबा ने बेहद ध्यान से नम्बर को देखा। कागज़ को मोड़ा और सहेज कर कुर्ती के अन्दर रख लिया। इस कागज़ में उसके लिए ज़िन्दगी का नम्बर था। नमिता ने आकर सैल-फ़ोन तीबा के हाथ पर रख दिया। तीबा कृतज्ञता से भर गयी। उसने धीरे से "शुक्रिया" कहा  और लगा कि रुलाई छूट जाएगी।
"अच्छा, अब किचन में जा।" नमिता ने कोमलता से कहा।
"ये औरतें बेचारीं।" प्रिया को तरस आ रहा था।
"हालात की मारी आ जाती हैं और यहां आकर नरक भुगतती हैं।"
" यहीं क्या, अपने देश में भी ग़रीब तबक़े की सभी औरतों की बुरी हालत है। घर -बाहर दोनों तरफ़ से पिटती हैं।"
सभी के चेहरों पर अफ़सोस था।
परमिन्दर अभी तक खन्ना साहब को बार के पास खड़ा चुटकले सुना रहा था, पास चला आया।
"तुम औरतें यह अलग से टोली बनाकर क्यों बैठ जाती हो? यहां क्या कोई परदा है कि आदमी अलग रहेंगे और औरतें अलग। क्या तुम लोग मुंह लटका कर बैठी हो। चलो मैं तुम्हें एक अश्लील चुटकुला सुनाता हूं।" वह पूरी तरह मस्ती में था।
"प्लीज़, महिलाएं बैठी हैं। सिम्मी ने हल्का सा विरोध किया।
"तो क्या हुआ? सब तुम्हारी तरह दकियानूसी नहीं हैं। ... तो क्या हुआ कि हम लोग एक बड़े फ़ैन्सी रेस्तरां में गए। वहां एक बैली डान्सर थी।..."
"प्लीज़, बस कीजिए।"  सिम्मी ने इस बार ज़ोर से प्रतिवाद किया।
"शॅट-अप", परमिन्दर उससे भी ज़्यादा ज़ोर से दहाड़ा।
सिम्मी को लगा कि जैसे  सबके बीच में उसके पति ने उसे तमाचा जड़ दिया हो। बाथरूम जाने के बहाने से उठ गई। इस वक्त वह किसी से आंख नहीं मिला सकती थी।
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"खाना लग गया है ।" नमिता ने आकर घोषणा की।
"आदमियों को पहले लेने दो ।" मीता ने सुझाव दिया।
"क्यों हम क्यों नहीं पहले ले सकते?" प्रिया ने सवाल उठाया।
"वाह-वाह क्या बढ़िया खाना बना है।" रजत चहक रहा था।
खन्ना साहब स्कॉच का गिलास थामे सी.डी ढूंढ रहे थे।
"जया कौन-सा म्यूज़िक सुनना पसन्द करोगी?"
"जो तुम्हें पसन्द हो।" जया ने वैसे ही जवाब लहरा दिया।
खन्ना साहिब ने कोई पुरानी फ़िल्म की रोमानी धुन बजाई।
नमिता बड़ी मुस्तैदी से किचन और डायनिंग-रूम के चक्कर काट रही थी। हर चीज़ सलीके से परोसी जाए - आकर्षक तरीक़े से। रोटी ताज़ी गर्म बाहर आए, खाना ठीक से गर्म हो। कौन सी चीज़ कहां रखी जाए। कहीं कुछ कम न पड़ जाए। तीबा बड़ी मुस्तैदी से उनके इशारों पर भाग - दौड़ रही थी।
खाना ख़त्म हुआ। मिष्ठान्न के साथ चाय-कॉफ़ी भी परोसी गई।
सब लोग खा पीकर वहीं सोफ़े और क़ालीन पर पसर गए। पृष्ठभूमि में हल्का संगीत चल रहा था। खन्ना साहब ने रोशनी धीमी कर दी। औरतों का झुंड बिखर चुका था। सिम्मी और परमिन्दर इज़ाज़त लेकर पहले ही घर चले गए। प्रिया के बांयीं ओर मीता बैठ गई और उसके दांयी ओर मीता का पति विक्रम। दाएं हाथ में गिलास थामे, विक्रम का बांया हाथ, संगीत की धुन पर प्रिया की दांयीं जांघ पर ताल दे रहा था। प्रिया सहज ही गुनगुनाने लगी। मीता आंखे बन्द किए संगीत में विभोर थी।
रजत मीता का गिलास भरकर उसे देने आया तो पल भर विक्रम को देखता रहा, जिसका हाथ अभी भी उसकी पत्नी की जांघ पर ताल दे रहा था। फिर लौट गया। दीवार पर लगी तस्वीरों को देखने लगा।
नमिता तीबा को सारी हिदायतें देकर पास आकर खड़ी हो गई।
"क्या देख रहे हैं?"
"प्रभावित हो रहा हूं। देख रहा हूं कि तुम अपने पेशे में कितनी सफल हो। कितने सम्मान और पुरस्कार मिले हैं तुम्हें। खन्ना कितना किस्मत वाला है। तुम्हारे जैसी योग्य और संभ्रांत औरत के साथ प्रेम-विवाह उसने यूं ही नहीं किया था।"
नमिता फीकी -सी हंसी  हंसी।
रजत ने उखड़ी सी नज़र से प्रिया को देखा, "चलना नहीं है क्या? तुम तो आराम से बैठी ग़ज़लें सुन रही हो, गाड़ी तो मुझे ही चलानी है न।"
विक्रम ने धीरे से हाथ हटा लिया।
प्रिया को रजत की अकारण खीज का  कारण न समझ में आया और न ही उसने परवाह की।
"खन्ना कहां गया?"
"यहीं कहीं होंगे।" कहते-कहते नमिता के चेहरे पर से एक धुंए का बादल गुज़र गया।
"बहुत बढ़िया पार्टी थी, मज़ा आ गया।" विक्रम ने अपना कोट पहन लिया। फिर प्रिया का कोट उठाकर उसे पहनाने लगा।
तीबा सौंफ़-सुपारी की ट्रे हाथ में लेकर खड़ी हो गई।
मीता हंसी, "मैंने दस्ताने पहन लिए हैं।"
रजत ने गहरी नज़रों से उसके पति को देखा। फिर मुस्करा कर अपनी हथेली में मीठी सौंफ़ ले ली। "मैने तो अभी नहीं पहने न?" कहकर उसने हथेली मीता के होठों से लगा दी। मीता सौंफ़ खा रही थी और उसकी हंसती आंखे रजत की आंखो में झांक रही थीं।
प्रिया कोट पहन चुकी थी और अब ठीक उन दोनों के बीच खड़ी थी , कहीं और देखती हुई।
खटाक से बाहर का दरवाज़ा खुला । खन्ना और जया भीतर दाख़िल हुए।
"अरे! आप लोग जा भी रहे हैं। मैं बाहर ज़रा जया को "जकूज़ी" दिखाने गया था। चांद- सितारों के नीचे, खुले में गरम पानी में बैठ कर क्या लुत्फ़ आता हैखन्ना अपनी ही रौ में था।
कोई जवाब देने के मूड में नहीं था।
"बस, अब चलते हैं, काफ़ी देर हो गई।"
"गुड-नाइट।"
"गुड- नाईट, ध्यान से गाड़ी चलाना।"
सभी चले गए।
"मै ज़रा जया को कार तक छोड़कर आता हूं", कहकर बिना पत्नी की तरफ़ देखे, खन्ना जया की कमर पर धीरे से हाथ रखकर फिर अन्धेरे में निकल गए।
नमिता सोफ़े में धंस गई।
तीबा जल्दी- जल्दी खाने का सामान समेट कर बर्तन साफ़ करने लगी । सिंक की खिड़की के बाहर कुछ झिलमिलाया। तीबा ने आंखें फाड़ कर देखा। नीली साड़ी की झिलमिलाहट वह पहचान गई। उसने घबराकर खिड़की बंद कर दी। सांस रोके ज़ोर-ज़ोर से बर्तन रगड़ती रही।
काफ़ी देर बाद कार चालू होने की आवाज़ आई। थोड़ी देर में दरवाज़ा खुला, खन्ना साहिब अन्दर आ गए।
तीबा ने किचन के दरवाज़े से झांका। मैडम गुस्से से फ़ुंफ़कारती हुई उठकर खड़ी हो गईं।
"शर्म नहीं आती आपको, सबके सामने इस तरह से खुला तमाशा करते हुए"।
"क्या बकती हो?"
"इतने बड़े बच्चों के बाप हो और यूं खुले- आम मुझे बेइज़्ज़त करते हो? क्या हो रहा था बाहर अंधेरे में?"
"शटऑप", खन्ना साहिब ने पत्नी को एक ज़ोरदार थप्पड़ रसीद किया।
"तुम्हारी इतनी हिम्मत...? पत्नी उन पर वापिस वार करने के लिए बढ़ी।
"तू सोचती है कि तू कमाती है तो मुझ पर भी धौंस जमा लेगी ।" खन्ना सहिब ने नफ़रत से भरकर पत्नी को इतनी ज़ोर से धक्का दिया कि वह ज़मीन पर औंधे मुंह गिर पड़ीं। दर्द से चीख निकल गई। ग़ुस्से, हिकारत और बेबसी से ऐसे देखा- जैसे उनके मुंह पर थूक रही हो।
"तुम नीच, ज़लील आदमी...।" वह हांफ़ने लगी। उसकी नाक से ख़ून बहकर क़ालीन पर गिर रहा था।
तीबा का बदन थर-थर कांप गया। उसने जल्दी से किचन की बत्ती बंद कर दी ताकि वह अन्धेरे में अपना वजूद छुपा सके। धीरे से सरक कर साथ लगी पैन्ट्री में घुस गई। अन्दर से चिटकनी लगा ली। आज रात यहीं ज़मीन पर बिताएगी। सीना धौंकनी की तरह धक- धक कर रहा था। उसने अपने को संभालने के लिए सीने पर हाथ रखा। कुर्ती के नीचे कुछ महसूस हुआ। देखा, पर्ची थी। वही, जिस पर उन मैडम लोगों ने हॉट- लाइन का नम्बर लिख कर उसे दिया था। फिर से तहाकर वापिस रख लिया। कल वह यह नम्बर मैडम को भी दे देगी।
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