शनिवार, 5 मई 2012

कहानी











बेघर

सुमति सक्सेना लाल                              
  
    कल से ऐसा लग रहा है जैसे एक बार फिर से ज़िंदगी उलट पुलट हो गयी है। कल अप्पू ने आकर किसी बहुत पुराने ज़ख्म को खुरच कर खोल दिया जैसे। डिपार्टमैंट में पहुंच कर कॅधे से पर्स उतार कर रख ही रही थी कि अप्पू अंदर आयी थी। गोरा रंग,भरा सा शरीर । लगा था देखा है इसे कहीं। मेरे  चेहरे पर उलझन देखकर वही बोली थी,‘‘भाभी मैं अप्पू’’ उसके चेहरे पर असंमजस डर, दर्द सब कुछ था।
    कुछ क्षण के लिए मैं उलझन में पड़ी थी पर फिर मुझे समझने में देर नहीं लगी थी और मैं अचंभित रह गयी थी,‘‘अरे अप्पू तुम ?’’ लगा था मेरा मन तय नहीं कर पा रहा है कि इस क्षण मुझे कैसा लगना चाहिए। फिर लगा था कि आंसुओं का एक सैलाब सीने के अंदर उछालें ले रहा हो।
    हम दोनों ही आमने सामने काफी देर तक चुपचाप बैठे रहे थे। लंबे असमंजस के बाद मैं बात शुरू कर पायी थी,‘‘कैसी हो अप्पू?’’ मैंने पूछा था।  
    अप्पू नें अपनी गोदी में पड़ी निगाह को मेरी तरफ उठाया था,‘‘ठीक हूं’’ वह कुछ क्षण चुप रही थी,‘‘आप कैसी हैं ?’’ फिर लगा था जैसे अपने आने की माफी मांग रही हो,‘‘लखनऊ आयी थी तो किसी ने बताया कि आप यूनिवर्सिटी में पढ़ा रही हैं तो मन नहीं माना और बहुत हिम्मत करके आपसे मिलने चली आयी।’’ अप्पू की आंखों में भीगापन है।
     समय की गर्त में दब गया बहुत कुछ एक साथ सामने आकर खड़ा हो गया था। मुझे अपने आप को संयत करने की कोशिश करनी पड़ी थी। मेरे स्वर में शिकायत भर गयी थी,‘‘अप्पू सुधीर ने ऐसे डाइवोर्स के कागज़ भेज दिये थे तब किसी को मेरी याद नहीं आयी थी ? बाबू जी, अम्मा जी, छोटे भैया, तुम्हे, किसी को भी नही ? क्या मैं कुछ भी डिजर्व नहीं करती थी?’’
     अप्पू ने एकबार उलझन भरी निगाह से मेरी तरफ देखा था। वह बोली थी तो उसकी आवाज़ कांप रही थी,’’भाभी भैया तो फौरन ही आपके पीछे-पीछे आपको मनाने के लिए लखनऊ आए थे। अम्मा-बाबू ने भी कितनी कोशिश की थी बात करने की। पर अंकल ने कह दिया था कि आप किसी से मिलना नही चाहतीं,बात भी नही करना चाहतीं।’’अप्पू की आखों में आंसू भरने लगे थे ‘‘भैया ने आपको बाबू की डैथ की ख़बर दी थी। पर….’’ उसकी आवाज़ एकदम से भर्रा गयी थी और आंखों में रुकी आंसुओं की परत गालों पर उतर आयी थी।
      मैं सन्न रह गयी थी ‘‘अरे क्या हुआ था बाबू को ?’’
   अप्पू ने मेरी तरफ देखा था। पर उसने मेरे सवाल का कोई जवाब नहीं दिया था। मेरे दिल में एक हूक सी उठी थी। पापा आपने यह क्या कर दिया। आंसुओं मे भीगी अप्पू की आवाज़ कांपने लगी थी,‘‘अम्मा आखिर तक इस दुख से नहीं उबर पाईं।’’
   मेरी  ज़ुबान तक आया था पूछूं और सुधीर? पर चुप रही थी। अब क्या कहूं, क्या पूछूं, क्या शिकायत करूं। फिर किससे ? सुधीर अब किसी और के पति हैं। पापा अब इस दुनिया में नही हैं। मन में एक हूक उठी थी। यह क्या हो गया। क्यों होने दिया मैंने ऐसा ? कुछ नही कर सकती अब मैं। तब क्यों नही समझी थी मैंने यह बात कि पापा के लिए सुधीर दामाद होने से पहले एक बहुत जूनियर आई.ए.एस. अफसर थे जिसकी उदंडता को वह माफ नहीं कर सकते थे। शायद पापा सुधीर को सबक सिखाना चाहते थे। पर मेरी बलि चढ़ गयी । या पापा ने शायद सोचा ही नही होगा कि उनसे बार बार झिड़की खा लेने के बाद सुधीर मौन साध लेंगे और अपना रास्ता बदल लेंगे। शायद पापा ने यह भी नहीं समझा होगा कि सुधीर के बग़ैर मेरा जीवन इस कदर अधूरा हो जाएगा।
            
   सुधीर से मेरी शादी पापा की ज़िदगी की पहली हार थी। वह इस रिश्ते में शुरू से अपने आप को शह की स्थिति में समझ रहे थे पर संबधो की बिसात पर वे अन्जाने ही मात खा गए थे। वह पहली बार ज़िदगी के हिसाब किताब में गड़बड़ा गए थे। पापा मेरी शादी तय करके आए थे तो  मौसा जी हैरान रह गए थे,‘‘कैसी बात कर रहे हैं भाई साहब ? अपनी वसु को आपने इतने नाज़ नखरे से पाला है। बरेली का वह इलाका देखा है आपने ? गंदगी के नाले बहते हैं वहां।’’

   पापा ने हॅस कर बात टाल दी थी,‘‘अरे अनिल लड़का देखोगे तो खुश हो जाओगे। दरवाज़े पर रौनक हो जाएगी। गोरा चिट्टा छह फुट का, हॅसता चेहरा। पहले अटैम्प्ट में आई.ए.एस. में आ गया। आल इन्डिया थर्ड रैंक। मुझे तो जिस दिन कर्टसी कॉल देने आया था मैंने तो उसी दिन छांट लिया था उसे। हैसियत लड़के की देखी जाती है। बाप की नहीं।’’पापा ने मौसा जी की तरफ बड़ी अर्थ भरी निगाहों से देखा था, ‘‘हम लोगों की शादी भी इसी बूते पर हुयी थी न और हम लोग भी खु़श रहे ही और हमारी बीबियां भी।’’ वे फिर धीमें से फुसफुसाए थे जैसे ज्ञान की बात बता रहे हों ‘‘स्टेटस में बहुत फर्क हो तो लड़के ही घर वालों से कहां रिश्ता रखते हैं ज़्यादा दिन तक।’’ मौसा जी एकदम सकुचा गये थे।उन्होंने खिसियायी निगाहों से मेरी तरफ देखा था और चुप रहे थे। बोलते भी क्या? नाना आई.सी.एस. थे। बजरंगी लाल आई.सी.एस. के चर्चे ब्यूरोक्रैसी में आज भी चलते हैं। उन्होंने मम्मी और दोनो मौसियों की शादी ग़रीब घर के होनहार लड़कों से की थी। शायद यह उनकी प्रखर बुद्धि का पारिवारिक प्रशासन था। तीनों ही दामादों नें अपने परिवारों से कोई रिश्ता नहीं रखा था। तीनो ही बजरंगी लाल के आज्ञाकारी रहे और तीनों के ही घर पर उनकी पत्नियों का शासन चलता था। पर सुधीर ने बहुत ही ईमानदार और समझदार तरीके से शादी से पहले ही मुझ को अपने परिवार की हैसियत, उसकी सीमाएं,समस्यायें,असुविधाएं,दोनों परिवारों के बीच का अन्तर, अपने माता पिता के त्याग, सब अच्छी तरह से समझा दिए थे। मुझ को सुधीर बहुत ज़्यादा अच्छे लगे थे।
       शादी के बाद मैं बरेली आती तो परेशान हो जाती पर उस घर की असुविधांओं को मैंने कभी शिकायत नहीं बनने दिया। अपने मन के सामने तक नहीं । वैसे भी सुधीर मेरे मन को पहले से ही तैयार कर चुके थे इसलिए मेरे पास शिकायत करने का कोई कारण नही था। पर एक साल बीतते न बीतते पापा बौखलाने लगे थे। उनके सब्र का बांध टूटने लगा था। न उन्हें बरेली वालों का मेरे  पास जा कर रहना ही अच्छा लगता था और न उन्हे सुधीर का मुझे  लेकर बार बार बरेली जाना ही। मैं बड़ी मुश्किल से पापा को शांत कर पाती थी। पर कब तक?  
         
   आज ज़िन्दगी टुकड़े-टुकड़े में मेरी आखों के आगे घूम रही है। कभी लगता कितनी पुरानी बात हो। जैसे पिछला जनम था वह। कभी लगता सब कुछ आखों के सामने है। अभी अभी बीता है या बीत रहा है, पापा,मम्मी,सुधीर और मेरी शादी। लगता जैसे सुधीर का अहसास मन के आसपास छू रहा है कहीं। सुधीर की याद और तोड़ रही है मन को जैसे किसी पराए पुरुष को याद कर रही हूं मैं। कोई इंसान जो इतना अपना था, इतना निकट, वह अचानक इतना पराया कैसे बन गया ? कहां चला गया वह ? इसी दुनिया में कहीं। पर उसे पुकार नही सकती। उसे छू नही सकती। सुधीर के संग की चाहना मन को मथने लगती है। मन में अजीब सी तड़पन होती है। लगता है कहीं से किसी तरह से पा लूं सुधीर को। आज नये सिरे से मलाल उपजता है कि जब मैं बुला सकती थी सुधीर को तब क्यों मान किए बैठी रही। क्यों सुधीर, अम्मा ,बाबू जी के आने का इंतज़ार करती रही? किसलिए ? तब क्यों नही समझा था कि पापा ऐसा कर सकते थे। समझ ही नही आता कि कैसे उस एक क्षण ने सब कुछ नष्ट करके रख दिया और मैं चुप रही। वैसा होने देती रही, क्यों ? अब कुछ नही किया जा सकता। मेरे और सुधीर के बीच तो बड़ा मधुर सा रिश्ता था। मेरी दुनिया तो सुधीर के ही आसपास घूमती थी। तब लगता था कि सौ साल भी जीएंगे तब भी ऐसा ही प्यार करते रहेंगे, एकदम ताज़ा, हर पल नया नया सा। तब लगा था कभी बूढ़ा नहीं हो सकता मेरा प्यार। तनाव तो पापा और सुधीर के बीच हुआ था। शायद पापा ने सुधीर के पिता के लिये कुछ अशोभनीय कह दिया था। यह भी कहा था कि‘‘उस गन्दे घर में वह वसु को लेकर बार-बार मत जाया करो।’’ और सुधीर आपा खो बैठे थे। उस क्षण सुधीर यह भूल गये थे कि वे मेरे पापा और प्रांत के सीनियर सैकरेट्री हैं।
   पापा से बहुत कुछ कह कर सुधीर घर के अन्दर आए थे तो मैं भी पीछे पीछे आ गयी थी। सुधीर भीतर आ कर भी बड़बडाते रहे थे और गुस्से में कुछ भी बोलते रहे थे। मुझ को अच्छा नहीं लगा था। दो सालों में पहली बार मेरा स्वर सुधीर से बिगड़ा था,‘‘सुधीर मांइण्ड योर लैन्गुएज।’’
   हम दोनो में कहा सुनी हुयी थी। सुधीर उत्तेजित हो गये थे। उनका हाथ मेरे ऊपर पड़ा तो नहीं था पर उठा तो था ही। मुझे कुछ देर के लिए तोड़ देने के लिए उतना ही काफी था। सारी स्थितियों का विश्लेषण और विवेकीकरण तो मैं बहुत बाद में कर पायी थी। मैं बाहर के कमरे में पापा के पास आ कर बैठ गयी थी। पापा ने मुझ से चलने के लिये कहा था और मैंने अपनी अटैची ठीक कर ली थी। आज सोचती हूं मैंने वैसा क्यों किया ? मैं रुक कर सुधीर से बात कर सकती थी।उनसे पापा के कहे की माफी मांग सकती थी। सुधीर जिस ढंग से पापा से बोले थे उसके लिए उनसे झगड़ा कर सकती थी,उनसे रूठ सकती थी।पर मैं ऐसे चल क्यों दी?
   तब लगा था कि एकाध दिन में सुधीर मेरे पीछे-पीछे दौड़े भागे आएंगे। मुझे मनाएंगे। पर कुछ भी नहीं हुआ था और मैं मूर्खों की तरह पापा की ‘बिगर दैन लाइफ ईगो’के तले मान किए बैठी रह गयी। नहीं। सुधीर से मान रखने जैसी कोई बात नहीं थी मन में। बस मैं पापा को लांघ कर लौटने का साहस नहीं कर सकी थी। शायद ठीक कहती है मीनाक्षी कि ‘‘पापा वह ‘वट वृक्ष’ थे जिनके साए तले तुम और भैया पूरी तरह से ‘ग्रो’ किए ही नही। एम.ए., पी.एच.डी.करना भी कोई ‘ग्रो’ करना होता है।’’
   पापा ने मुझे सोचने का समय नहीं दिया था। जल्दी ही यूनिवर्सिटी में रिसर्च ज्वायन करा दी थी। रिसर्च पूरी भी नही हो पायी थी कि सुधीर के भेजे डाइवोर्स के कागज़ मिले थे। बहुत तकलीफ हुयी थी। पर मैने दस्तख़त कर दिये थे। लगा था सुधीर यही चाहते हैं। मेरी यूनिवर्सिटी में नौकरी लग गयी थी। तभी सुधीर की शादी की ख़बर मिली थी। कुछ दिनों तक मैं बहुत रोयी थी। पर सुधीर मन से दूर जाने लगे थे। पापा अपनी तरह से मेरी ज़िदगी प्लान कर रहे थे। एकदम स्मार्ट,भरा पुरा-सा सक्षम जीवन। जीवन में एक पुरुष नहीं हुआ तो क्या और भी तो बहुत कुछ है। पापा ने कुछ ऐसा ही समझाया था मुझे।
                  
   उन दिनो पापा कानपुर में घर बनवा रहे थे। पूरे एक बीघे के प्लाट पर। वह उनका ड्रीम प्रोजेक्ट था। जैसे उन दिनो वे सपने भी घर के ही देख रहे थे,‘‘उसी घर मे वसु तुम्हारे लिए भी एक एनैक्सी बनवा देते हैं।’’
   पापा कितना ख्याल करते हैं। सोच कर मैं निहाल हो गयी थी। मैंने इस बारे में काफी सोचा था, फिर मना कर दिया था,‘‘नही पापा। पूरी ज़िदगी तो मुझे लखनऊ में रहना है। शुरू से यहीं हूं। फिर रिटायर हो कर कानपुर जा कर क्या करूंगी। मेरे सारे मित्र और परिचित तो यहीं हैं।’’
   ‘‘दीदी अलग क्यों रहेंगी। कानपुर रहेंगी तो मेरे साथ ही रहेंगी’’ भइया ने विरोध किया था।
   मैं एकदम खुश हो गयी थी। यह छोटे-छोटे भरोसे बहुत हिम्मत देते। भइया से भी ज़्यादा ख्याल करने वाली अंजलि। कितनी बार तो ऐसा होता कि भैया से संवाद अंजलि के माध्यम से होता। मेरी इच्छा आवश्यकता वही भैया तक पहुंचाती और वही उसे पूरा भी कराती।
   खैर घर के प्रश्न पर पापा निश्चिंत हो गये थे। लखनऊ में एलाटमैंट का घर है ही, फिर किस बात की चिंता। एकदम शहर के बीच में चार बैडरूम की कोठी। पापा दूरदर्शी थे। सर्विस में रहने के लिए एक से एक कोठियां मिलीं पर उन्होंने घर एलॉट करा लिया था। फिर इसे कभी नहीं छोड़ा था। कहते कभी तो रिटायर होना ही है, फिर कोई रहने के लिए सरकारी कोठियां नहीं मिलेंगी। सो लखनऊ मे रहने का एक ठिकाना पक्का कर लिया था उन्होने। बिल्कुल सही प्रंबध हो गया था। भइया के लिये कानपुर वाला घर और मेरे लिये एलाटमैंट का यह घर। मै बहुत खुश थी इस व्यवस्था से। रिटायरमैंट के बाद पापा-मम्मी कानपुर चले गए थे। चार बैडरूम के इस घर में न जाने कितने परिवर्तन पापा-मम्मी कराते रहे थे और इन सालों में न जाने कितने बदलाव मैंने अपनी सुविधा और शौक के लिये कराये हैं। माडर्न बाथरूम, धीरे-धीरे करके लगभग सारे घर की नयी फ्लोरिंग, किचन मे टाइल्स और ग्रेनाइट। एलाटमैंट का घर तो पीढ़ियों तक अपना ही होता है। पर मुझे पीढ़ियों की बात कहां सोचनी है, मेरे बाद किस्सा ख़तम। पर पापा इसी बात पर अटक गए थे। इसे सरकार को क्यों दिया जाएगा ? इतना अच्छा घर, प्राइम लोकेशन, इस घर पर लाखों रुपये हम सब के लगे हैं और तय हुआ था कि ज्वायंट एलाटमैंट में पापा के साथ मेरा नहीं यश का नाम पड़ेगा। भगवान उसे लंबी उमर दे पर किसी भी हालत में घर हाथ से नहीं निकलेगा। पापा के बाद भैया, फिर दीप, फिर ’’ और भैया का नाम डलवा कर पापा निश्चिंत हो गए थे।

   मैंने बहुत चाहा था कि मैं आहत न महसूस करूं...पर मन में कुछ चुभा था। कई दिनों तक मैं बेचैन रही थी जैसे कुछ छिन गया हो। कितने एहसास ऐसे होते हैं जिन्हे हम सोचना नहीं चाहते पर वे हमारे दिल दिमाग पर हावी हो जाते हैं। मैंने अपने आप को समझाना चाहा था कि कागज के एक टुकड़े से फर्क ही क्या पड़ता है? फरक पड़ा भी नहीं था। पूरा घर तो मेरा ही है। मैं ही रहती हूं यहां और मेरी ही इच्छा से चलता है सब कुछ । यह घर मेरा ‘प्राइड पोसेशन’ है। गेट पर गाड़ी रोक कर जिस समय मैं हार्न बजाती हूं और सतवंती के बच्चे दौड़े हुए आते हैं तो अच्छा लगता है। लाल बजरी की सड़क पर सरकती हुयी कार सामने के बराम्दे के आगे आकर ठहर जाती। अन्दर जाते जाते तक मैं न जाने कितने निर्देश दे चुकी होती। कभी माली को,कभी राम सिंह को और कभी सतवंती को। हर दिन तो अपने इस घर में आती हूं पर हर बार नए सिरे से सब कुछ बहुत अच्छा लगता है। एकदम अकेले अपने बूते पर अपनी ज़िदगी को बहुत शान से जीने का आत्म विश्वास भी। पापा-मम्मी ने तो पूरा घर ही छोड़ा है। सजा सजाया,फर्नीचर, क्राकरी,कालीन,सब कुछ। पर फिर भी मै तो घर में कुछ न कुछ कराती ही रहती हूं। किसी न किसी तरह से उसे सजाती और संवारती ही रहती हूं। मेरी मित्रें मुझे ‘हाउस प्राउड’ कहती हैं।

                                          
   मैं अक्सर बैठै बैठे अपने सुख दुख का हिसाब करती रहती हूं। सोचती हूं भाग्य ने कितना कुछ मुझसे छीन लिया। पर कितना कुछ दे भी दिया। यूनिवर्सिटी की यह नौकरी,लखनऊ का अपना यह घर,भैया और अंजलि जैसे भाई भाभी और दीप। दीप तो मेरा ही बेटा है। क्लास टू से लेकर ग्रैजुएशन तक मेरे पास रहकर पढ़ा है। अंजलि आयी होती तो भी अपनी छोटी-बड़ी ज़रूरत के लिए मेरे ही आगे पीछे लगा रहता और मेरी दुनिया दीप के चारों तरफ। अंजलि और भैया के बहुत से एहसान हैं मेरे ऊपर। सबसे बड़ा उपकार तो दीप को मेरे पास छोड़ देना ही है। ऐसे हर कोई अपनी पहली औलाद को किसी के पास छोड़ सकता है कहीं?
   पापा-मम्मी के निधन के बाद भैया मेरा कुछ अधिक ही ख़्याल रखने लगा है। हर छुट्टी से पहले ही कानपुर से मुझे लेने के लिए गाड़ी आ जाती है। परिवार का कहीं भी कोई कार्यक्रम बनता तो मैं उसमें अवश्य शामिल की जाती हूं। अपने काम के सिलसिले में भैया लखनऊ आता ही रहता है,तब अंजलि अपने फार्म से ढेर-ढेर सामान भेजती है, अनाज,फल सब्जी, अपनी डेयरी से घी,पनीर,सब कुछ। मेरा घर भरा पुरा सा रहता।
     
   लखनऊ विकास प्राधिकरण का नोटिस आया है कि उसके अन्तर्गत आने वाली सभी सम्पतियों का निस्तारण ‘‘न लाभ ,न हानि की नीति’’ पर किया जा रहा है । सभी आवंटी बहुत खुश हैं। सूचना मिलते ही भैया भी आए थे। एल.डी.ए. की भाग  दौड़ शुरू हो गयी थी। एक करोड़ से ऊपर की इस सम्पति का मूल्यांकन मात्र बारह लाख रुपये हुआ है। भैया और दीप में बहस चलती रही थी। भैया का कहना था कि यह एक छोटी- सी रकम है, इसे एक साथ निबटा दिया जाए। दीप की राय थी कि हम उतना भी एक साथ क्यों तोड़े। हमें लोन लेना चाहिए। बीच-बीच में अंजलि भी अपनी बात कहती रही थी। उस उल्लास, उस वाद-विवाद में मुझे तो किसी ने शामिल किया ही नही था। बहुत प्रयास करने पर भी मैं स्वंय भी सम्मिलित नहीं हो पायी थी। सारे समय मैं मौन ही रही थी। मैं तो आज तक इस घर को अपना ही समझती रही थी। यही तो कहा था पापा ने। पर ख़रीदने वाली बात पर भैया ने मुझसे कोई राय की ही नहीं। इतने पैसे की हैसियत तो मेरी भी थी।
   कई दिन तक मैं बेचैन रही थी। कई रातों मैं ठीक से सो नही पायी थी। कई बार जु़बान तक आया था कि में भैया से कह दूं कि ‘‘यह घर पापा ने  मेरे लिए दिया था.’’ पर कहने की हिम्मत ही नही पड़ी थी। मुझे डर लगा था कि कहीं भैया नाराज़ हो गया तो? कहीं भैया ने अपना कानूनी हक बता दिया तो क्या करूंगी? तब तो रिश्ते ही दरक जाऐंगे। इस चोट को मैं बर्दाश्त नही कर सकूंगी। मैं चुप रही थी पर मन जैसे क्षत-विक्षत हो गया था। भैया ने अपने और अंजलि के संयुक्त नाम से घर खरीदा था। एक कसक हुयी थी मन में। भैया मेरा नाम भी तो डाल सकता था। तब मैं शायद थोड़ा कम अकेला महसूस करती। वैसे भी मेरा तो सभी कुछ भैया और दीप को ही जाना है। फिर भैया मेरा नाम डालने में क्यों डर गया? शायद भैया ने सोची ही नही वह बात।

   घर अभी भी पहले की तरह मेरी ही इच्छा और आदेश से चलता है। कौन सा बल्ब शेड कहां लगेगा? क्यारियां कहां बननी है? ‘ड्राइव वे’ लाल बजरी का बनेगा या काले कांक्रीट का? सभी तो मैं ही तय करती रही हूं और अभी भी मैं ही तय करती हूं। फिर भी लगने लगा है मेरी मुट्ठी ख़ाली है। जैसे घर का बोझा कंधे पर ढो रही हूं मैं। कभी यह भी लगता जैसे कि मेरी राय मांगने का,मेरा आदेश और इच्छा मानने का कोई एहसान मुझ पर किया जा रहा है। कभी कभी मन में बेहद पीड़ा होती है कि ‘‘पापा यह मेरी कैसी व्यवस्था करके गए हैं। मेरे अपने ही घर को मेरी शरणगाह बना दिया उन्होने। उस शरण के लिए कितने एहसानों में दबी हूं मैं। चाहूं तब भी मुक्त नही हो सकती हूं। इन एहसानों के बोझ को ढोते ढोते थक गयी हूं मैं। अब मन करता है सब मुक्त कर दें मुझे । लगता है अब अंजलि कह दे मुझसे कि, ‘‘दीदी यह घर हमारा है, इसे हमारी तरह से चलने दीजिए।’’ पर कहां कभी कोई ऐसी आधी बात भी तो नहीं करता। लगता जैसे सब अपनी भलाई का खाता भर रहे हैं। भलाई न. एक, भैया ने। भलाई न. दो, अंजलि ने। भलाई न. तीन,दीप ने। अभी तो इस भलाई के कालम और भरेंगे। अभी तो दीप की बहू आएगी। फिर उसके बच्चे। मेरा रजिस्टर एकदम ख़ाली है। वह सिर्फ एहसानों से भरा हुआ है। एहसान न.एक, दो., तीन.,चार., फिर…फिर। सब कुछ करती हूं सबके लिए फिर भी एहसानों के बोझ तले दबी हुयी हूं।
   न जाने क्या हो गया है कि आजकल बात बात पर और अक्सर बेबात भी आंखें भर आती हैं। लगता जैसे पैर के नीचे अपनी कोई ज़मीन नहीं,सिर के ऊपर अपनी कोई छत भी नहीं। जैसे परायों के साए तले खड़ी हूं। निपट अकेली। पापा याद आते हैं। सुधीर बार बार निगाहों के आगे आकर खड़े हो जाते हैं। जीवन में दोनो की ही कमी खलती है। दोनों से ही अलग अलग झगड़ा करती रहती हूं।
  
  कोई भी तो नहीं ऐसा जिससे कुछ कह सकूं। भैया से भैया की क्या शिकायत करूं ? अंजलि से क्या कहॅं कि मैं सब से आहत हूं। इस दुनिया से चले गए पापा से भी। एक मीनाक्षी बचती है जिससे सब तरह की बात कर लेती हूं। जिससे अपना सुख दुख, अपना अकेलापन सब बांट लेती हूं। तीस साल पुरानी मित्रता है उससे। पर, पर वह भी तो नहीं समझ पाती मेरी पीड़ा और मेरी हार को। कभी कहती है,‘‘जब भैया और अंजलि इतना प्यार और मान देते हैं तो फिर इतना क्यों परेशान हो ?’’ कभी कहती है,‘‘जब मन पर इतना बोझा महसूस करती हो तो क्यों इस तरह से अपने आप को टार्चर कर रही हो। अपना अलग घर ले लो।’’   पर मैं क्या करूं? मैं तो जैसे ट्रैप्ड हॅं।क्या कहूं भैया और अंजलि से कि घर छोड़ कर क्यों जा रही हूं। उनके प्यार और सम्मान का प्रतिदान ऐसे रूठ कर कैसे दे सकती हूं।
                     
   धीरे धीरे भैया का व्यापार बढ़ता जा रहा है। उसी अनुपात में उसका लखनऊ आना भी । शुरू में मुझ को बहुत अच्छा लगता था। जैसे मैं अकेली नहीं हूं। एक भरा पुरा परिवार है मेरे पास। अब इधर काफी समय से भैया महीने में औसतन दस दिन तो रहता ही है। साथ में ड्राइवर, स्टैनो और चपरासी। कभी-कभी अंजलि और दीप भी। घर का हर कोना भराभरा-सा हो जाता है। कभी-कभी घर एकदम पराया सा लगने लगता जैसे घर में मेरे लिए जगह ही न बची हो। मेरी ज़िदगी उतने दिनो के लिए अपने कमरे और किचन तक सिमट जाती है। नाश्ते खाने से लेकर मिलने आने वालों के लिए चाय काफी और ठण्डा भिजवाते मैं थकने लग जाती हूं। पस्त हो रही हूं मैं तन से, मन से। सच कहूं तो धन से भी । कहने को तो पूरा घर मेरा है। पर मेरी हस्ती तो धीरे धीरे मेरे ही घर के एक कमरे में सिमटती जा रही है। कोठी के गेट पर भैया और उसके नाम की प्लेट पहले से लगी है। अब  एक तख़्ती दीप के नाम की भी लग गयी है। साथ में ‘यश कन्सलटैंट’’ का एक बड़ा सा बोर्ड। बाहर से ही घर पराया-सा लगने लगा है।
   दीप को मेरे पास से गए पांच साल हो चुके हैं। अब वह बड़ी दक्षता से भैया का काम संभाल रहा है। इन सालों में न जाने क्या हुआ है कि दीप पराया सा लगने लगा है। शायद समय की दूरी रिश्तों को धुंधलाने लगी है। आता है तो बीच में अपनेपन की कोई उष्मा आ ही नहीं पाती। मुझे लगता जैसे कौए की तरह परायी संतान को अपने डैनों के नीचे अपने सीने से लगाए गफलत मे जी रही थी। पंख पनपते ही वह तो अपने घोंसले में पहुंच गया। पता नहीं क्यों लगता है जैसे दीप का स्वर औपचारिक होने लगा है। जैसे अपनापन जताने की उसे कोशिश करनी पड़ रही है। लगता है जैसे उस कोशिश से थक रहा है वह। मैं भी थकने लगती हूं। मैं अक्सर अपने मन को समझाती हूं कि अब बड़ा हो गया है दीप। अपने पैरों पर खड़े हो कर लड़के ऐसे ही हो जाते हैं। अपना बेटा होता तो क्या वह भी ऐसा ही हो जाता, पराया सा। शायद हो ही जाता ।

   यूनिवर्सिटी से आकर मैं लेटी ही थी कि दरवाजे़ पर आ कर सतंवती खड़ी हो गयी थी, ‘‘दीदी जी आपको भैया जी और बहू जी बुला रहे हैं।’’
   बुला रहे हैं? मतलब? मुझे अजीब लगा था ‘‘कहां हैं वह लोग?’’
   सतवंती वैसे ही खड़ी रही थी,‘‘जी, ड्राइंगरूम में।’’
   मैं ने घड़ी की तरफ देखा था,‘‘कोई आया हुआ है क्या ?’’
   ‘‘जी बहू जी के चैक वाले भैया आए हैं।’’
    मैंने  सोचा था, नवीन के आने पर मुझे क्यों बुला रहे हैं यह लोग? नवीन अंजलि का पड़ोसी था। आर्किटैक्ट है। अंजलि उसे काफी मानती है। मैं ड्राइंग रूम में पहुंची तो देखा था कि मेज़ पर कुछ कागज़ फैलाए सब लोग चारों तरफ आस-पास बैठे हैं। मुझे देखकर नवीन उठ कर खड़ा हो गया था। मेज़ के पास ही मुझे जगह देने के लिए अंजलि भी उठ कर खड़ी हो गयी थी। सब लोग बैठ गए थे तो भैया ने बात शुरू की थी,‘‘दीदी दीप के कमरे के बारे में सोच रहे थे। अब हम लोगों का यहां आना काफी होने लगा है। थोड़े समय में दीप की शादी भी होगी ही, बहू भी आती ही रहेगी।’’
   मैं दीप की तरफ देख कर हॅसी थी,‘‘तो दीप का कमरा रेनोवेट कराने की सोच रहे हो तुम लोग।’’
   ‘‘वह तो बाद की बात है।’’ भैया के चेहरे पर उलझन है,‘‘असली बात यह है कि दीप का कमरा एक तरह से घर का पैसेज है। बहू के आने पर तो वैसा चल नहीं पाएगा।’’
   ‘‘सो तो ठीक है। फिर ?’’ मैं सोच मे पड़ गयी थी । घर की बनावट कुछ इस तरह की थी कि मेरे कमरे से कहीं भी जाने के लिए दीप का कमरा पार करना पड़ता था। अभी तक न परेशानी हुयी थी न इस तरफ किसी का ध्यान ही गया था। पर अब ? मैंने भैया की तरफ देखा था ।
   भैया मेज़ पर फैले घर के नक्शे के ऊपर झुक गए थे,‘‘दो तरीके हैं।’’ भैया क्षण भर को हिचके थे,‘‘एक तो यह कि आपका और दीप का कमरा बदल दिया जाए।’’
   मैं सन्न रह गयी थी। लगा था जैसे शरीर का सारा रक्त सिर पर चढ़ कर कनपटियों पर हथौड़े-सी चोट करने लगा हो। मैंने अपने आप को कोशिश करके शांत रखा था। मैंने भैया की तरफ देखा था,‘‘और दूसरा तरीका?’’
   भैया ने घर के नक्शे पर एक जगह उंगली रखी थी ‘‘दूसरा आपके कमरे से सीधा ड्राइंगरूम में दरवाज़ा खोल दिया जाए। उस स्थिति में आप ड्राईंग रूम के थ्रू निकल सकेंगी।’’
   मैं अकारण घर के नक्शे की तरफ देखती रही थी,‘‘एक उपाय और है,’’ मैंने उसी शांत स्वर में कहा था।
   ‘‘क्या ?’’ सबने एक साथ पूछा था। सब मेरी तरफ देखने लगे थे।
   ‘‘बराम्दे के दूसरी तरफ का कमरा बिल्कुल मेरे कमरे जैसा है, उतना ही बड़ा, उसी तरह गार्डेन फेसिंग। वह उतनी अच्छी तरह मेनटेन्ड नहीं है शायद इसलिए तुम लोगों का ध्यान उसकी तरफ नहीं गया।’’
    भैया ने एकदम मेरी बात काट दी थी,‘‘नहीं दीदी। वह कमरा शुरू से गैस्ट रूम की तरह इस्तेमाल हुआ है। अगर वह कमरा दीप को दिया गया तो साइकोलाजिकली मुझे लगेगा कि मैंने बेटे बहू को घर से बाहर कर दिया।’’    
   मेरी ज़ुबान तक एकदम आया था कि ठीक है फिर वह कमरा मुझे दे दो। मगर फिर मैं एकदम डर गयी थी। लगा था कि अगर भैया फौरन तैयार हो गया तो बहुत पीड़ा होगी मन में। बहुत अपमानित-सा भी महसूस करूंगी। मैं काफी देर सोचती रही थी। सब लोग मेरी ही तरफ देख रहे हैं। मन आया था कि कह दूं, ‘‘तुम लोग जैसा ठीक समझो’’। वैसे भी जीवन में अभी तक मैं यही तो करती रही हूं। पर अनायास मेरा ‘‘मैं’’ मेरी आदत के विपरीत सीधा तन कर खड़ा हो गया था।  मुझे अपने स्वर को संयत करने का प्रयास करना पड़ा था,‘‘नहीं भैया मैं अपना कमरा नहीं छोड़ पाऊंगी। शुरू से मैं इसी कमरे मे रही हूं। मुझे उसी कमरे की आदत है।’’
   दीप अंजलि से सटा हुआ बैठा है। उसका दांया हाथ अंजलि की गोदी में पड़ा है। वह उसे बराबर थपथपा रही है। पता नहीं उसे आगे की प्रतिक्रिया से रोकने के लिए या तसल्ली देने के लिए या ऐसे ही।
   भैया ने  दीप की तरफ और दीप ने भैया की तरफ अर्थ भरी निगाहों से देखा था। लगा था जैसे दोनों निराश हुए हैं। हो सकता है उस कमरे की मांग दीप ने ही की हो। भैया ने कागज़ उठा कर नवीन की तरफ बढ़ा दिए थे,‘‘ठीक है भाई साहब, फिर आप यह दरवाज़ा खुलवा दीजिए और दीप के कमरे में एक वाल टु वाल अल्मारी बनवा दीजिए और खिड़की दरवाज़े नए करा दीजिए।’’
   एक अजब सी बेचैनी तन मन पर हावी होने लगी थी । मैं अपने मन को समझाती रही थी कि यह व्यवस्था तो होनी ही थी। भइया न सोचता यह बात तो मुझे सोचनी पड़ती। नहीं तो मुझे घर के अन्दर आवागमन बाहर के बराम्दे से घूम कर करना पड़ता। ऐसे बेटे बहू के कमरे में तो हर समय नहीं जा सकती न। फिर भी बेचैनी बनी ही रही थी। भैया और दीप की इच्छा और सुविधा में रुकावट बनी इस बात की अजब सी ग्लानि और अपने वजूद को इस घर में एकदम दूसरे दर्जे का नहीं बनने दिया मैंने इस बात का एक अजब सा सन्तोष भी।
     
   आजकल न जाने क्या हो गया है कि मैं बहुत अकेला महसूस करने लगी हूं। न जाने क्या हो गया है कि बैठे-बैठे अकारण आखें भरने लगी हैं। न जाने क्या हो गया है कि बार बार अपने मन को समझाना पड़ता है।
                               
   भैया,अंजलि,दीप और पल्लवी आए हैं। पल्लवी को लेकर दीप शादी के बाद पहली बार आया है। हफ्ते भर से मै उसके स्वागत की तैयारी में लगी हूं। बहू पहली बार आ रही है। उसके सामने सब कुछ बहुत करीने और बहुत स्टाइल से होना चाहिए। मैं ने घर की अल्मारियां तक ख़ाली करके घर की सफाई करायी है। नौकरों को अभी तक मैं सैकड़ों निर्देश दे चुकी हूं। पलंग के बैड कवर,बाथरूम की तौलियां सब हर दिन के लिए छांट  कर अलग कर दी हैं मैंने। किस दिन कौन सी क्राकरी लगेगी, क्या मेनू रहेगा सब तय कर लिया है। इस क्राकरी में से कितना कुछ मेंने ख़रीदा है, कितना कुछ मम्मी-पापा के ज़माने का है। उन लोगों के स्टाइल की छाप इस घर पर अभी तक है। पापा को गए चौदह साल और मम्मी को गए ग्यारह साल हो गये पर न जाने कितनी चीज़ों पर उनकी छुअन अभी तक बाकी है ।
   अंजलि घूम-घूम कर पल्लवी को घर दिखा रही है। इस समय दोनों बाहर के बराम्दे में खड़े हो कर बातें कर रहे हैं। पल्लवी के चहकने की आवाज़ अन्दर तक आ रही है,‘‘मम्मी अपने तो दोनों ही घर बहुत सुन्दर हैं। कानपुर वाले घर का माडर्न आर्किटैक्ट,एकदम लेटेस्ट डिज़ाइन और विक्टोरियन स्टाइल का यह घर भी कितना सुन्दर है। ऊंची-सी सीलिंग, खपरैल की ऊंची नीची स्लोपिंग छतें । गेट से घुसते ही घर देखकर तबियत खुश हो जाती है। बाग भी कितना सुन्दर है।’’
   अंजलि हंस रही है, ‘‘भई बाग का क्रैडिट तो बुआ को जाता है। वही रहती हैं यहां और वही करातीं हैं सब कुछ।’’
   मेरे  हाथ रुक गये थे। लगा था अंजलि पल्लवी को मेरा घर नही अपनी प्रापर्टी  दिखा रही है। फिर मैं कौन हूं इस घर में ? केयर टेकर ? मेरा कौन सा घर है ? कोई नहीं। पर मैं तो इस घर को दिन रात सजाती संवारती रही हूं। भ्रम में थी मैं । अब तो उस भ्रम से बाहर निकलने के लिए भी बहुत देर हो चुकी। पल्लवी की उपस्थिति में मैं अपने आप को अजब तरह से दीन-हीन सा महसूस कर रही हॅं, जैसे मैं इस घर में पड़ी हुयी कोई चीज़ हूं, फ़ालतू सामान की तरह । मैं वहीं खड़ी रही थी। डाइनिंग रूम और ड्राइंग रूम के बीच कांच की बड़ी सी दीवार। सामने की फ्रैंच विन्डो से दिखता सामने का फूलों से भरा बेहद सुन्दर बगीचा,हरी मखमली दूब और लाल बजरी से बना ‘ड्राइव वे’। मैं तो हर दिन ही यहां खड़े हो कर देर तक अलग अलग कोण से अपना घर निहारती रहती हूं। हर दिन अपने ही घर,उसके रख रखाव पर मुग्ध होती रहती हूं। पर आज जैसे इस घर को लेकर कुछ महसूस ही नहीं कर पा रही हूं । वही बाग है,वही घर, वही छत और दीवारें। पर इन सबके बीच मैं तो जैसे बेघर हो गयी हूं ।                   
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सुमति सक्सेना लाल

 सन् 1965 में लखनऊ विश्वविद्यालय से एम.ए करने के बाद उसी वर्ष से वहीं के एक सम्बद्ध महाविद्यालय में दर्शन शास्त्र का अध्यापन थे। सन् 1967 में पहली कहानी लिखी थी जो मार्च 1969 में धर्मयुग में प्रकाशित हुई थी। चार वर्षों तक धर्मयुग,साप्ताहिक हिन्दुस्तान और सारिका में कहानियां प्रकाशित होती रहीं। उस के बाद  तीस वर्षों में बस एक कहानी ‘‘दूसरी शुरूआत’’ सन् 1981 में साप्ताहिक हिन्दुस्तान में प्रकाशित हुई थी। इतने वर्षों तक कुछ न लिख पाने की हताशा रही। पत्रिकाओं में अपने समकालीन लेखकों के चर्चे पढ़ते हुए मन में ख़ालीपन की अनुभूति होती। वह ईष्र्या नहीं,पीछे छूट जाने की पीड़ा थी। शायद इसीलिये 2005 से पुनः लिखना प्रारंभ किया और अब निरंतर सृजनरत । इन वर्षो में हॅस, नया ज्ञानोदय,कथादेश,,समकालीन भारतीय साहित्य और नवनीत आदि में कहानियां प्रकाशित और प्रकाशनाधीन ।  २००९ में ‘‘अलग अलग दीवारें’’ (कहानी संग्रह) भारतीय ज्ञानपीठ और २०११ में ‘‘दूसरी शुरूआत’’ (कहानी संग्रह) पैन्गुइन यात्रा बुक्स’’ से प्रकाशित । उपन्यास ‘‘होने से न होने तक’’ प्रकाशनाधीन । हाल ही में उपन्यास ‘‘कितनी बार’’ लिखा गया.
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