शनिवार, 21 अगस्त 2010

वातायन - अगस्त,२०१०



अकस्मात हुई व्यस्तता के कारण इस बार वातायन प्रकाशित करने में अप्रत्याशित विलंब हुआ. कुछ मित्रों ने शिकायत की . यह वातायन की प्रतिष्ठा का प्रमाण है. प्रारंभ से ही मेरा उद्देश्य साहित्यिक राजनीति, गुटबन्दी- दलबन्दी से अलग रहते हुए निष्पक्ष-भाव से रचनाओं का प्रकाशन रहा है. वरिष्ठ रचनाकारों से लेकर बिल्कुल नए और युवा रचनाकारों को बिना किसी भेदभाव के इसमें प्रकाशित किया गया. भविष्य में भी मेरा यह प्रयास जारी रहेगा.

वातायन में यदाकदा मैंने अपने संस्मरण, जीवनी, और साक्षात्कार प्रकाशित किए, लेकिन कभी कहानी प्रकाशित करने के विषय नहीं सोचा. लेकिन इसबार कुछ समय पूर्व लिखी अपनी कहानी - ’वह चुप हैं’ प्रकाशित करने का मोह संवरण नहीं कर पा रहा हूं. इस कहानी के प्रकाशन की भी एक कहानी है. लिखने के तुरंत बाद यह कहानी किसी पत्रिका में प्रकाशनार्थ न भेजकर मैंने सुश्री पूर्णिमा वर्मन की ई पत्रिका -’अभिव्यक्ति’ को भेजा. लंबी प्रतीक्षा के बाद मैंने उन्हें कहानी की वस्तुस्थिति जानने के लिए पत्र लिखा जिसमें यह भी लिखा कि यदि कहानी प्रकाशित करने में उन्हें संकट प्रतीत हो रहा है तो मैं उसे अन्यत्र भेज दूं. दूसरे दिन ही उनका पत्र आया कि मैं इसे अन्यत्र प्रकाशित करवा लूं. मैंने उसे ’सृजनगाथा’ को भेजा जिसे मानस जी ने तीसरे दिन ही प्रकाशित कर दिया. इस कहानी को पूर्णिमा जी ने न प्रकाशित करने का निर्णय क्यों किया होगा, यह कहानी पढ़कर पाठक स्वयं समझ जाएगें. ’अभिव्यक्ति’ में पूर्णिमा जी मेरी दो कहानियां प्रकाशित कर चुकी थीं, इसलिए स्पष्ट है ’वह चुप हैं’ की थीम शायद उन्हें पसंद नहीं आयी होगी . उत्तर से मैं प्रसन्न हुआ था, क्यों उसमें एक सम्पादकीय ईमानदारी थी. जबकि उन्हीं दिनों गर्भनाल के श्री आत्माराम शर्मा के व्यवहार से मैं हत्प्रभ और खिन्न था . श्री शर्मा को मैंने अपनी ’खतरा’ कहानी भेजी थी . कहानी मिलने के दो दिनों के अंदर ही कहानी की प्रशंसा करते हुए उनका पत्र मिला कि कहानी गर्भनाल के अंक ४२ में प्रकाशित होगी. लेकिन अंक ४२ में उस कहानी का कहीं अता-पता नहीं था और आगामी अंक के लिए भी उसकी घोषणा नहीं थी. मैंने उन्हें कहानी कभी न प्रकाशित करने के लिए पत्र लिखा . बाद में मुझे एक मित्र से ज्ञात हुआ कि गर्भनाल का एक धागा अमेरिका के किसी साहित्यकार से संचालित है, जिन्होंने मुझे अपमानित करने का निर्णय किया हुआ था. ’खतरा’ को अंक ४२ में प्रकाशित करने के आशय का पत्र लिखने के बाद भी उसे प्रकाशित न करना और इस विषय में मुझे सूचित भी न करना मित्र की बात को सही सिद्ध कर रहे थे. ’खतरा’ इस घटना के तुरंत बाद ही ’सृजनगाथा’ में प्रकाशित हुई थी.

गर्भनाल के संदर्भ में ही मेरे एक मित्र के साथ घटी घटना याद आ रही है, जो उन्होंने मेरी कहानी की कहानी सुनने के बाद बतायी थी. श्री आत्माराम शर्मा जी ने उन्हें लघुकथाएं भेजने के लिए आग्रहपूर्ण पत्र लिखा. मित्र ने लघुकथाएं भेजीं. लंबे समय तक चुप्पी के बाद जब मित्र ने उनसे वस्तुस्थिति जाननी चाही तब श्री शर्मा ने उनसे पूछा कि वह गर्भनाल के लिए क्या सहायता कर सकते हैं. मित्र ने जब किसी भी प्रकार सहायता से इंकार किया आत्माराम जी ने चुप्पी साध ली. इस घटना को दो वर्ष बीत गए वे लघुकथाएं आज तक प्रकाशित नहीं हुईं. इन घटनाओं से प्रिण्ट पत्रिकाओं की भांति कुछ ई पत्रिकाओं में व्याप्त राजनीति को समझा जा सकता है.
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वातायन के इस अंक में ’हम और हमारा समय’ के अंतर्गत प्रस्तुत है सुधा ओम ढींगरा का आलेख और वरिष्ठ कथाकार/पत्रकार बलराम की कविता, जिसे कभी श्री विष्णु खरे ने ’नवभारत टाइम्स’ में प्रकाशित करने से इंकार कर दिया था.
आशा है अंक आपको अवश्य पसंद आएगा.

हम और हमारा समय


प्रेम चन्द की कहानियों और उपन्यासों के पात्र सदा ज़िन्दा रहेंगे....

सुधा ओम ढींगरा

मुंशी प्रेम चन्द के साहित्य पर आए दिन प्रश्न चिन्ह लगते रहते हैं. कभी उनकी कहानियों की सार्थकता पर आलोचनाएँ होती हैं और कभी उन पर समीक्षाएं. साहित्यकारों के ऐसे तेवर देख कर हमेशा सोच में पड़ जाती हूँ कि कल को आगामी पीढ़ी आज के साहित्य पर इसी तरह आक्षेप लगा कर चर्चा करेगी. अगर साहित्य अपने युग का दर्पण है और युग का प्रतिनिधित्व करता है, तो उसे फिर उसी नज़र से देखना चाहिए. हर युग में साहित्य अपने समय को लेकर ही तो लिखा जाता है.
इस लेख को लिखने की प्रेरणा मुझे मेरे बेटे से मिली...बात उन दिनों की है, जब वह नार्थ कैरोलाईना यूनीवर्सिटी में हिंदी विदेशी भाषा के तौर पर सीख रहा था और कोर्स में प्रेमचंद के साहित्य को पढ़ रहा था. उसने हिन्दी माईनर ली थी और वह अन्तिम वर्ष का छात्र था. मैं अक्सर हिन्दी साहित्य पर उससे बातचीत किया करती थी और कई वे बातें उसे समझा देती थी, जो कोर्स में नहीं थीं. इरादा उसे हिन्दी भाषा और साहित्य के प्रति जागरूक करना अधिक होता था.
एक दिन मैंने उसे प्रेम चन्द की 'कफ़न' कहानी पढ़ते देखा और मुझ से रहा नहीं गया. मैंने प्रेम चन्द के साहित्य पर बात शुरू कर दी. बातचीत के दौरान मैंने महसूस किया कि प्रेमचंद तो युगों- युगों तक पढ़े और सराहे जाएँगे. तीन पीढ़ियों ने तो हमारे घर में ही प्रेमचंद को पढ़ा है- मेरे माँ बाप, मैंने और बेटे ने, जो अमेरिका में जन्मा-पला है. पता नहीं मुझे ऐसा क्यों लग रहा था कि प्रेम चन्द के साहित्य को समझने में उसे दिक्कत होगी. वह साहित्य समाज के आधुनिकरण की क्रांति से परे का ग्रामीण परिवेश लिए, संघर्षों से जूझते किसानों का सीधा-सादा साहित्य है. शायद वह उससे रिलेट ना कर पाए और उसकी गहराई तक ना पहुँच सके. बात मेरी सोच के विपरीत हो गई.....
उसने हँसते हुए कहा --''माँ प्रेम चन्द का साहित्य समय से पहले लिखा गया था, इसलिए प्रेमचंद जी को साहित्य में वह स्थान नहीं मिल सका जो मिलना चाहिए था. उनका सबसे बड़ा सम्मान है मेरे जैसे कई बच्चों ने अमेरिका में उन्हें पढ़ा और सराहा है. प्रेमचंद के साहित्य की आज भी सार्थकता है. उनकी कहानी 'कफन' के पात्र अमेरिका में भी मिलते है. जो वर्ग फूड स्टैम्प्स को बेचकर शराब खरीदता है. खाना बेघर लोगों की रसोई में खा कर रोज़ शराब पीकर झूमता है. क्या घीसू और माधो के चरित्रों की तरह नहीं है? ऐसा वर्ग 'कफन कहानी ' के घीसू-माधो पात्रों का दूसरा रूप है.. मनुष्य का मूल भूत स्वभाव सब जगह एक सा है. परिवेश के साथ थोड़ा बहुत बदल जाता है.''
''भारत में ऐसा वर्ग बहुत बड़ी मात्रा में है, जिनकी पत्नियाँ दूसरों के घरों में काम करती है और पति शाम को शराब पी कर आते हैं, पत्नियों को पिटते है. मर जाती है तो जानते है कि कफन तो जनता ला ही देगी - पति पीने से हटते तो नहीं.....'' बेटा बोलता गया और मैं सुनती गई --''माँ इन्टरनेट पर मैं रोज़ न्यूज़ पढ़ता हूँ--किसानों के प्रदर्शन, उनका आत्मदाह, और उनके कष्टों का पता हमें चलता हैं. जो आज किसानों के साथ हो रहा है...प्रेमचंद, तो बहुत पहले ही यह लिख चुके हैं, हम लोग ही उसे समझ नहीं पा रहे हैं.''
बेटे ने प्रश्न किया-- माँ क्या आज भारत में निर्मला नहीं है? क्या आज भारत में होरी नहीं है? प्रेमचंद की कहानियाँ और उपन्यास(उनके पात्र) आज भी जहाँ-तहाँ आपको मिल जायेगें. प्रेमचंद के पात्र आज भी हैं और कल भी रहेंगे. बेटा तो यह बात कहकर अपनी पुस्तकें उठा कर चला गया और मैं सोच में बैठी रही....

प्रेमचंद की कहानी 'बालक' याद आ गई. उसका ग्रामीण पात्र अपनी बदनाम पत्नी के बच्चे को अपना कहता है, क्योंकि अब वह उसकी है तो उसका बच्चा भी उसीका हुआ. मेरे साथ काम करने वाले रिचर्ड और जोडी का भी यही कहना है. रिचर्ड ने काल गर्ल जोडी से शादी कर उसके बच्चे को अपना कहा. जब जोडी उसकी है तो उसका हिस्सा, उसका बच्चा भी उस का है.
प्रेमचंद के ग्रामीण पात्र और अमेरिका के शहरी पात्र की सोच कितनी मिलती है. मेरे बेटे ने ठीक कहा था कि 'प्रेमचंद' के पात्र हर युग में, हर देश में, हर परिवेश में हैं, रहेंगे और मिलेंगे.
प्रेमचंद को तीन पीढ़ियाँ ही नहीं जब तक मानवी सभ्यता है लोग उन्हें पढ़ते रहेंगे. उनकी कहानियों और उपन्यासों के पात्र सदा ज़िन्दा रहेंगे.


अप्रवासी साहित्यकार सुधा ओम ढींगरा हिन्दी साहित्य -- विशेषरूप से ई पत्रिकाओं और ब्लॉग्स की दुनिया के लिए एक सुपरिचित नाम है. अपनी कविताओं और कहानियों के लिए उन्होंने अपनी अलग पहचान बनायी है. अब तक एक कविता संग्रह और एक कहानी संग्रह प्रकाशित. कनाडा से प्रकाशित पत्रिका - ’हिन्दी चेतना’ की सम्पादक हैं, जिसके कारण उनकी आवाज दुनिया के एक छोर से दूसरे छोर तक गूंजती रहती है.

कविता



ऎसे में आदमी

बलराम

कैसा समय आ गया है प्रभो
कि श्रम के गाल पर पड़ता तमाचा रोज
कि कर्त्तव्य होता पद-दलित हर बार
कि कर्म का मतलब हो गया है आत्म-गान
और श्वान-वृत्ति निष्ठा का
व्यर्थ हुए बलिदान

पुत्रों की आहुति
स्वजनों का रक्त
करने लगे आस्था का भाष्य
चारण और भाट
विश्वासों का हो गया ठेका
बोली में बिक गया है सत्य
सरे बाजार लुट गया है शिव
विरूप हो गया है सुन्दरम भी
देखने में जिसे
लगने लगी है घिन
ऎसे में
आदमी के पास
रह गए हैं बस
थोड़े से विकल्प
चुप्पी, चीख या फिर आर्त्तनाद

चुप रहकर आदमी
खो जाने दे खुसी
और अपना गम
चीखकर परिवेश में भर दे सिहरन
या फिर आर्त्तनाद में डुबो दे दसों दिशाएं
कंपित कर दे न्याय-पिता का आसन
जो शायद कहीं है ही नहीं
एक मिथ भर है
टूट चुका कब का वह भी
ऎसे में आदमी क्या करे
क्या करे प्रभो !

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लब्ध-प्रतिष्ठ कथाकार बलराम अपनी विशिष्ट लेखन शैली के लिए विख्यात हैं. मित्रजीवी व्यक्ति हैं और नवभारत टाइम्स दिल्ली से स्वैच्छिक अवकाश ग्रहण करने के बाद राजनीतिक पाक्षिक पत्रिका ’लोकायत’ के कार्यकारी सम्पादक पद पर कार्यरत हैं. लोकायत में उनका स्तंभ ’अपना पन्ना’ चर्चा का विषय है, क्योंकि उसमें बलराम हिन्दी साहित्य के पुलिस महानिदेशकों से मुठभेड़ में संलग्न हैं. पिछले कई अंकों उनकी यह मुठभेड़ वरिष्ठतम कथाकार राजेन्द्र यादव के साथ जारी रही . अंततः राजेन्द्र जी को यह लिखना पड़ा कि ’इतनी नाराजगी अच्छी नहीं.’

इन दिनों अशोक बाजपेई के साथ उनकी मुठभेड़ चल रही है----देखें परिणाम क्या होता है. लेकिन इतना तय है कि इन मुठभेड़ों की सी.बी.आई. जांच नहीं होगी. फिर भी मुझ जैसे मित्र को उनकी साहित्यिक सुरक्षा की चिन्ता अवश्य है.

कहानी



वह चुप हैं

रूपसिंह चन्देल

वह चुप हैं ...... बिल्कुल ही चुप .

वैसे कम बोलना उनकी आदत है . यह आदत उन्होंने विकसित की है . कभी वह अधिक बोलते थे जिस पर उन्होंने सप्रयास नियंत्रण पा लिया . वह जानते थे कि कम बोलने के लाख लाभ होते हैं . साथी मुंह ताकते रहते हैं कि वह कुछ बोलें लेकिन वह चुप रहते हैं . दूसरों को सुनते हैं और उनके कहे को अपने अंदर गुनते हैं . अवसरानुकूल कुछ शब्द उच्चरित कर देते हैं...... एक-एक शब्द पर बल देते हुए . वह अपने वाक्यों की असंबध्दता की चिन्ता नहीं करते . चिन्ता करते हैं अधिक न बोलने की . अधिक बोलने को अब वह स्वास्थ्य खराब होने के कारणों में से एक मानते हैं . स्वास्थ्य को वह व्यापक अर्थ में लेते हैं , जो शारीरिक ही नहीं सामाजिक , आर्थिक , राजनैतिक........ व्यापक संदर्भों से जुड़ता है .
वह कम अवश्य बोलते हैं लेकिन बिल्कुल चुप उन्हे पहली बार देखा गया है . मिलने आने वालों को उनकी पत्नी शालिनी दरवाजे से ही टरका देती हैं यह कहकर कि शुशांत जी का स्वास्थ्य ठीक नहीं है .
''शालिनी जी , दो दिन पहले शुशांत जी बिल्कुल स्वस्थ थे.....'' मिलने आए एक युवक के कहने पर वह बोली , '' कल से स्वास्थ्य खराब है . छींक रहे हैं और गला भी खराब है .''
''शालिनी जी ,'' युवक बोला , ''वह स्वयं न बोलें , बस मुझे सुन लें . उनके लिए एक आवश्यक सूचना है .''
शालिनी ने उस अपरिचित युवक को घूरकर देखा ,'' आप मुझे बता दें . मैं उन्हें बता दूंगी .''
युवक ने शालिनी की ओर अखबार बढ़ाते हुए कहा ,'' परसों शाम 'जनाधार लेखक संघ' की ओर से प्रख्यात साहित्यकार कामेश्वर जी की मृत्यु पर शोक सभा आयोजित थी . शुशांत जी भी बोले थे . बोलते हुए उन्होंने कहा था कि कामेश्वर जैसे व्यक्ति इसलिए हमारी श्रध्दांजलि के हकदार हैं क्योंकि उन्होंने थोड़ा-बहुत कुछ लिखा है . वर्ना उनका जीवन इतना अराजक....चरित्र इतना कमजोर ......''
''आप कहना क्या चाहते हैं ?'' शालिनी ने युवक को नजरें तरेरते हुए टोका .
अविचलित युवक ने 'आज भारत' अखबार बढ़ाते हुए कहा , '' इसमें शुशांत जी के कथन की भर्त्सना की गई है . मुझे 'जनाधार लेखक संघ' के सचिव व्याकुल कुमार जी ने यह कहकर भेजा है कि शुशांत जी 'आजाद भारत' को यह कहते हुए अपना खण्डन भेज दें कि उन्होंने वैसा नहीं कहा था . रिपोर्टर ने उनकी बात को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया है .
''जी शुक्रिया . मैं उन्हें बता दूंगी . '' आजाद भारत की प्रति युवक से लेती हुई शालिनी बोली और युवक को दरवाजे पर खड़ा छोड़ दरवाजा बंद कर लिया .
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वह चुप हैं और चुप होने का कारण पूछने पर भी उन्होंने शालनी को नहीं बताया .
एक और समय वह चुप रहने लगे थे , लेकिन बिल्कुल चुप नहीं थे । तब उनके स्कूटर ने उनके अंदर उथल-पुथल मचा रखा था . चार वर्षों से वह उनके गैराज में खड़ा था . बेटे के लिए उसे खरीदा गया था . बेटा उससे कॉलेज जाता ....दिल्ली कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग , जहां से वह इंजीनियरिंग कर रहा था . इंजीनियरिंग कर वह चार साल पहले एम.एस. करने अमेरिका चला गया और एम.एस. कर वहीं नौकरी करने लगा . बेटे के जाने के बाद स्कूटर को गैराज में बंद करने के बाद न उन्हें गैराज खोलने की आवश्यकता अनुभव हुई और न ही स्कूटर का खयाल आया . दरअसल बेटे के लिए उन्होंने नहीं शालिनी ने उसे खरीद दिया था . उनके यहां स्कूटर है यह अनुभूति उन्हें तब होती जब कभी -कभार उसे वह गेट के बाहर खड़ा देखते . वैसे होता यह था कि जब वह सुबह नौ बजे सोकर उठते बेटा कॉलेज के लिए जा चुका होता था . शालिनी विदेश मंत्राालय में सहायक निदेशक राजभाषा थी और वह भी कार्यालय जा चुकी होती थी .

शुशांत , जिनका पूरा नाम शुशांत राय था , उठते , अंगड़ाई लेते , खिड़की से झांककर सड़क की आमद-रफ्त का जायजा लेते हुए दाढ़ी पर हाथ फेरते , जिसकी वह बहुत साज-संवार करते थे , फिर बिस्तर छोड़ किचन में जाते , जहां शालिनी थर्मस में उनके लिए चाय बनाकर रख जाती थी .
चाय पीते हुए वह दिन के अपने कार्यक्रम पर विचार करते . अखबार पर सरसरी दृष्टि डालते और विशेषरूप से दुर्घटनाएं , हत्या , बलात्कार और लूट-पाट की खबरें पढ़ते . ये खबरें उन्हें चिन्ता में डाल देतीं . वह अपने को असुरक्षित अनुभव करते ....और घर , शालिनी और बेटे अखिल को लेकर चिन्तित हो उठते .
बलात्कार शब्द पर उनकी नजरें अधिक देर तक टिकतीं . उस समाचार को वह गौर से पढ़ते और मन में विचलन अनुभव करते रहते . विचलन अनुभव करते हुए उन्हें बरबस सुहासिनी की याद हो आती . याद तब अधिक आती जब उससे मिले उन्हें दो-तीन सप्ताह बीत चुके होते .
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सुहासिनी उनकी छात्रा थी .... उनके निर्देशन में पी-एच.डी कर रही थी . उसके रजिस्ट्रेशन के बाद उन्होंने उसकी इस प्रकार उपेक्षा की कि एक दिन वह रो पड़ी थी . वह काम करके लाती . वह देखते ..... देखते नहीं बल्कि गंभीरतापूर्वक देखने का अभिनय करते और कुछ देर बाद रजिस्टर उसकी ओर सरका देते , ''बात बनी नहीं सुहास ...... दोबारा लिखो ....'' और वह कुछ पुस्तकों के नाम बता देते , ''इन्हें पढ़ो . दिशा मिल जाएगी .''
एक -एक चैप्टर को पांच-छ: बार उन्होंने उससे लिखवाया . दो वर्षों में सुहासिनी केवल तीन चैप्टर ही लिख पायी . समय समाप्ति की ओर तेजी से बढ़ रहा था और यही वह चाहते थे . चौथे चैप्टर को जब पांचवीं बार उन्होंने रिजेक्ट किया सुहासिनी के धैर्य का बांध टूट गया और वह फफक पड़ी ,''सर , मैं पी-एच.डी. नहीं करूंगी .''
''च्च....च्च....ऐसा नहीं सोचते सुहास .''सोफे पर उसकी ओर खिसक गए थे वह और अपनी उंगलियों से सुहासिनी के आंसू पोछते हुए बोले थे ,'' तुम प्रतिभाशाली हो..... समझदार भी .... लेकिन पता नहीं क्यों नासमझी करती जा रही हो..... अब तक कब की थीसिस सबमिट हो चुकी होती . कहीं एडहॉक पढ़ा रही होती .''
सुहासिनी का रोना बंद हो गया था . वह सोचने लगी थी , ''क्या सच ही वह प्रतिभाशाली है ... लेकिन सर ने कहा....अभी कहा ....''
सुहासिनी सोच में डूब गयी ....वह कुछ और परिश्रम करेगी.....उसे प्राध्यापक बनना है .... वैसा ही करेगी जैसा शुशांत सर कहेंगे ....''
और उसको वही करना पड़ा जैसा शुशांत राय ने कहा . शालिनी दफ्तर जा चुकी थी और बेटा कॉलेज.... तब से सुहासिनी को अकेले में वह सहवासिनी कहकर पुकारने लगे थे .
सुहासिनी ने पी-एच.डी की और एक कॉलेज में उनके सहयोग से एडहॉक पढ़ाने लगी . उसे रेगुलर होना है और वह सोचती है कि उसके सर यानी शुशांत सर .. .. उसके रेगुलर होने में भी सहायक होंगे . इसीलिए वह दस-पन्द्रह दिनों में उनके घर आती है ... कॉलेज जाते समय ..... . शालिनी के कार्यालय जाने के बाद . लेकिन उस दिन ऐसा नहीं हुआ . शालिनी को ज्वर था . वह कार्यालय नहीं गई थी .
सुहासिनी घर आए और शुशांत अपने को नियंतित्रत रख लें , संभव नहीं था . चार वर्षों बाद उन्हें गेैराज की याद आयी थी . बमुश्किल से चाबी खोज पाए थे वह . ज्वर के कारण शालिनी अर्ध्दचेतनावस्था में थी .
शुशांत कठिनाई से गैराज का ताला खोल पाए , क्योंकि उसमें जंग लग चुकी थी . गैराज में जमी धूल की पर्त और दीवारों में लगे जालों ने एक बार तो उन्हें हतोत्साहित किया था , लेकिन उसका विकल्प उन्होंने खोज लिया था . 'चटाइयों का आविष्कार शायद ऐसे अवसरों के लिए ही हुआ था ' उन्होंने उस समय सोचा था . लेकिन स्कूटर बाधक बन गया था . छोटे-से गैराज का अधिकांश स्थान उसने घेर रखा था . उतावलेपन के उस क्षण उस बाधा से मुक्ति आवश्यक थी . मुक्ति उसे हटा देने से ही संभव थी . लेकिन चार वर्षों से एक ही जगह अड़े स्कूटर को हटाना उनके लिए किसी पहाड़ को हटाने जैसा था . भले ही उन्होंने दुनिया को चलाया था ,लेकिन स्कूटर चलाना तो दूर आने के बाद उसे हाथ भी नहीं लगाया था , उसे हटाने से शालिनी के उठ आने का खतरा भी था . उसे खिसकाकर उन्होंने धूल और जालों की परवाह न कर धूलभरी फर्श पर किसी तरह आधी-अधूरी चटाई बिछा ली थी . ऐसे अवसरों में असुविधाओं में सुविधा खोज लेना उनकी फितरत थी .
लेकिन स्कूटर उनके दिमाग में अटक गया था . वह सड़क पर दौड़ने के बजाय उनके दिमाग में दौड़ने लगा था . उसे घर से बाहर कर देने का निर्णय उन्होंने कर लिया था . उसे बेच दें या किसी को दे दें इस द्वन्द्व में वह कई दिनों तक फंसे रहे थे . बेचने से अधिक किसी को दे देना उन्हें अनेक दृष्टिकोण से उपयुक्त लगा था . लेकिन कुछ मुफ्त देना उनके सिध्दाांत के विरुध्द था . मुफ्त पाने वाले की आदतें खराब हो जाती हैं . वह श्रम से बचने लगता है .... इससे न उसका विकास होता है और न देश का . 'मुफ्त' देने-पाने की नीति उनके प्रगतिशील विचारों के विरुध्द थी . अपने प्रगतिशील विचारों के प्रतिपादन के लिए उन्होंने अपने कुछ सिध्दांत तय किए थे और उन सिध्दान्तों का वह कठोरता से पालन करते थे .
सोच-विचारकर उन्होंने 'जनाधार लेखक संघ' से जुड़े अपने एक छात्र को स्कूटर देने का निर्णय किया . संध की परिकल्पना में उनकी भी भूमिका रही थी , जिससे उनके कुछ छात्र भी उससे जुड़े हुए थे . समय-समय पर वे संघ की ओर से धरना-प्रदर्शन कर लेते - - -जंतर-मंतर पर सरकार के विरुध्द नारे लगा लेते . संघ से जुड़े लोग प्रसन्न हो लेते कि वह सरकार की दुर्नीतियों के विरुध्द आवाज बुलंद कर रहे थे जबकि संघ के पदाधिकारी इससे सरकारी तंत्र पर दबाव बनाकर अपने हित साध लेने से प्रसन्न होते थे .
एक दिन राजीव प्रसाद नामके उस युवक को उन्होंने घर बुलाया . उसकी पढ़ाई , समस्याओं आदि की चर्चा कर कहा , ''राजीव तुम्हे एक प्रोजेक्ट पर काम करना है .''
'' कैसा प्रोजेक्ट सर ?''
''स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी उपन्यासों में स्त्री विमर्श'' विषय पर कुछ काम करना है .''
'' सर .....'' राजीव के स्वर में कंपन था .
''मैं तुम्हारी सहायता करूंगा . यही कोई दो-ढाई-सौ पृष्ठों की पुस्तक ........ पर्याप्त पारिश्रमिक मिलेगा . पांच दशकों के महत्वपूर्ण उपन्यासों की सूची मैं लिखवा दूंगा . प्रत्येक दशक के आधार पर पांच अध्याय और छठवां अध्याय उपसंहार .''
''सर- - - मैं- - - .''
''अरे घबड़ाते क्यों हो ? मैं हूं न ! '' दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए शुशंांत राय बोले ,'' इसके लिए कुछ परिश्रम करना होगा ... कुछ पुस्तकालयों की खाक भी छाननी होगी ..... उसके लिए तुम मेरा यह स्कूटर ले जाओ . केवल कार्य करने तक के लिए ही नहीं..... इसे मैं तुम्हें दे रहा हूं .''
राजीव उनके चेहेरे की ओर देखने लगा तो वह बोले ,'' ऐसे क्यों देख रहे हो ! भई मुफ्त में नहीं दे रहा हूं...... काम करवा रहा हूं . तुम प्रतिभाशाली हो और प्रतिभाशाली लोग मुझे प्रिय हैं . मैं उनके लिए कुछ भी करने को तैयार रहता हूं .....''
''सर.....'' राजीव कसमसाया . वह सोच रहा था कि उसके लिए अपनी एम.फिल. का शोध प्रबंध ही भारी पड़ रहा है , ऊपर से इतना भारी-भरकम काम ..... कैसे कर पाएगा वह !''
''इसे दो महीनों में पूरा करना है ....फिर अपने एम.फिल का काम करते रहना .... अभी उसके लिए पर्याप्त समय है .'' और उन्होंने राजीव की ओर स्कूटर की चाबी उछाल दी थी . चाबी वह नहीं थाम पाया तो दाढ़ी में मुस्कराते हुए वह बोले ,'' कैच करने में कमजोर हो ?''
राजीव के घर से स्कूटर घसीटकर बाहर निकालते ही उन्होंने गेट बंद कर लिया था . उसके बाद उन्होंने यह जानने की कोशिश नहीं की कि चार वर्षों में पिचक चुके टायरों और पथरा चुकी पेट्रोल की टंकी की रबड़ ने उसे कितना दुखी किया था . मेकेनिक ने उसकी जेब से पांच सौ रुपए निकलवा लिए थे , जो कि उसके पास नहीं थे .उसने एक साथी से रुपए उधार लेकर मेकेनिक को दिए थे .
लेकिन जिन्दगी में पहली बार उनके साथ ऐसा हुआ कि सोची-समझी योजनानुसार किए गए कार्य में उन्हें असफलता मिली थी . राजीव प्रसाद नामक छात्र द्वारा तैयार पुस्तक उनके नाम से प्रकाशित हानी थी . उसने एक दशक के उपन्यासों पर एक चैप्टर लिखकर उन्हें दिखा भी दिया था , लेकिन उसके बाद वह गायब हो गया था . उन्हें ज्ञात हुआ कि बंगलौर की एक बहुराष्ट्रीय बैंक में उसे नौकरी मिल गयी थी और वह पढ़ाई छोड़ गया था . उन्हें इस बात का अफसोस था कि उन्होंने पहली बार गलत घोड़े पर दांव लगाया था .
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लेकिन अब उनके चुप होने का यह कारण नहीं था .
हुआ यह कि दो दिन पहले लंबे समय के बाद सुहासिनी उनके यहां आयी . शालिनी दफ्तर जा चुकी थी . सुहासिनी को देख वह प्रसन्न हुए . प्रसन्न इसलिए कि उसके आने के लिए कितनी ही बार उन्होंने उसके मोबाइल पर फोन कर उससे आग्रह -अनुग्रह किया था . उसे प्रेम भरे एस.एम.एस. किए थे .
सुहासिनी का उन्होंने ऐसे स्वागत किया मानों वर्षों बाद मिले थे . लेकिन सुहासिनी में उन्हें न वह उत्साह दिखा और न औत्सुक्य . घर में प्रवेश करते ही वह हिमखण्ड की भांति सोफे पर ढह गयी थी . वह देर तक उसकी ओर ताकते रहे थे चुप फिर पूछा था , ''सुहास तुम चुप क्यों हो ? तुम्हारी चुप्पी मुझे बर्दाश्त नहीं हो रही .''
सुहासिनी उन्हें घूरती रही अपनी बड़ी-बड़ी तीक्ष्ण आंखों से . उन्होंने फिर जब टोका , वह रो पड़ी . उन्हें उसके साथ का पहला दिन याद हो आया . तब भी वह ऐसे ही रोयी थी और सोफे पर उसके निकट खिसक उन्होंने उसके आंसू पोछे थे . उन्होंने उसी प्रकार उसके आंसू पोछने चाहे तो सुहासिनी ने उनका हाथ झिटक दिया , ''आपने मुझे बर्बाद कर दिया .'' वह चीखी .
''मैं ऽ ऽ ने ....?''
''हां .....आपने.....मैं गर्भवती हूं ......''
''तुम .....तुम .....'' उनकी जुबान लड़खड़ा गयी थी . किसी प्रकार अपने को संभाल वह बोले , '' इसमें परेशान होने की क्या बात.....मैं तैयार होता हूं.....किसी डाक्टर के पास......''
''नहीं.....''
''फिर .....'' वह भौंचक थे .
''आप शालिनी जी को तलाक दें और मुझसे विवाह........''
''तुम होश में तो हो न सुहासिनी....?''
''पूरे.....होश-ओ-हवाश में कह रही हूं......''
''क्या प्रमाण है कि यह मेरा ही गर्भ है ?'' वह भड़क उठे थे .
'' प्रमाण क्या हैं ....यह आपको भी पता है........'' सुहासिनी ने सधे स्वर में कहा .
वह धप से सोफे पर बैठ गए थे सिर थामकर . उनके सामने डॉ. विप्लव त्रिपाठी का चेहरा घूम गया था.... राजनीतिशास्त्र विभाग के डॉ. विप्लव त्रिपाठी.... । उनकी एक एम.फिल. की छात्रा ने ऐसा ही आरोप लगाते हुए उनके द्वारा उसे मोबाइल पर भेजे गए एस.एम.एस. के प्रमाण विश्वविद्यालय प्रशासन और इन्क्वारी कमीटी के समक्ष प्रस्तुत किए थे और आरोप सिध्द होने के बाद डॉ. त्रिपाठी को प्रोफेसर पद से विश्वविद्यालय ने बर्खास्त कर दिया था .
सुहासिनी जा चुकी थी ..... कब उन्हें पता नहीं चला था .
और तभी से वह चुप हैं .
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