मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

वातायन-जनवरी,२०११

चित्र - जी मनोहर

हम और हमारा समय

प्रगति पर भ्रष्टाचार की छाया

रूपसिंह चन्देल

इक्कीसवीं सदी का पहला दशक बीत गया. लेकिन नई सदी के इन बीते वर्षों में देश ने जितना विकास किया उससे अधिक भ्रष्टाचार और अपराधों में वृद्धि हुई. ऎसा नहीं कि बीती सदी में यह सब नहीं था. चारा घोटाला, बोफर्स कांड, हर्षद मेहता - सुखराम प्रकरण आदि वे घोटाले थे जिन्हें आम जनता जान सकी थी, जबकि कितने ही ऎसे घोटाले थे जो सरकारी फाइलों में दफ्न कर दिए गए थे. लेकिन ऎसा प्रतीत होता है कि आज की अपेक्षा तब के घोटाले छोटे थे. कॉमनवेल्थ गेम्स, टू जी एक्स्पेक्ट्रम, आदर्श सोसाइटी-----इन दश वर्षों में घटित ऎसे तमाम घोटालों की संख्या अनंत है. एक समय था जब लोग कहते थे कि रक्षा विभाग एक मात्र ऎसा विभाग है जहां भ्रष्टाचार नहीं है, लेकिन तब भी यह सच नहीं था . वहां भी बड़े-बड़े घोटाले होते हैं ----और वे छोटे नहीं होते. एक सर्वेक्षण के अनुसार इस देश का कोई भी विभाग ऎसा नहीं है जहां भ्रष्टाचार नहीं है. किसी विद्वान का कहना है कि रिश्वतखोरी को सरकारी स्वीकृति प्रदान कर दी जानी चाहिए. अब तो न्याय के मंदिर भी इससे अछूते नहीं रहे. परिणामस्वरूप एक वर्ग रातों-रात गलत ढंग से कमाए गए धन से मालामाल हो रहा है और दूसरा वर्ग एक किलो प्याज खरीदने के विषय में सोचने को विवश है. मंत्री महोदय की शह हो तो क्यों न जमाखोर सक्रिय हों. हमे १९४२ का बंगाल का दुर्भिक्ष नहीं भूलना चाहिए. अंग्रेजों ने लाखों लोगों को भूखों मार दिया था. आनाज गोदामों से बाहर नहीं निकाला गया था और जनता कलकत्ता की सड़कों पर कंकाल हुए जानवरों को मारकर कच्चा ही खाने के लिए अभिशप्त हो गई थी. तब सत्ता में अंग्रेज थे और आज सत्ता में एन.सी.पी. के शरद पवार कृषिमंत्री हैं . वह सदैव जमाखोरों की भाषा बोलते हैं और क्यों बोलते हैं यह आमजन समझता है, लेकिन वह विवश है. विवश इसलिए क्योंकि उसके पास सही नेतृत्व का अभाव है. आमजन की बात कहने वाले विनायक सेन जैसे ईमानदार व्यक्ति को सीखचों के पीछे भेज दिया जाता है.

एक तीसरा वर्ग और है और इस वर्ग की संख्या निरंतर बढ़ती ही जा रही है. यह वर्ग है गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों का. रात-दिन कड़ी मसक्कत करने के बावजूद यह वर्ग आधा पेट रहने और फटे-चीथड़े पहनने के लिए अभिशप्त है. एक ओर नितिन गडकरी अपने पुत्र के विवाह के लिए निमंत्रण पत्र छपवाने में ही एक करोड़ रुपए खर्च कर देते हैं – शेष खर्च का अनुमान लगाया जा सकता है तो दूसरी ओर गरीब कड़ाके की ठंड में खुले आसमान के नीचे सोने के लिए अभिशप्त है. बढ़ते आर्थिक अंतर से जहां महानगरों में अपराध बढ़े वहीं केवल मौज-मस्ती के लिए कुछ लोग अपराध की दुनिया में प्रविष्ट हुए. दिल्ली जैसे महानगर अपराधियों के गढ़ बनते जा रहे हैं. गृहमंत्री चिदम्बर का यह कथन कि दूसरे राज्यों से आए लोग ऎसे काम करते हैं को राजनीतिक हंगामे का रूप भले ही दिया गया हो, लेकिन यह एक कटु सचाई है, भले ही आंशिक. लगता नहीं है कि आगे के दिनों में भ्रष्टाचार और अपराध कम होगें. विशेषज्ञों की मानें तो यह बढ़ेगा ही. आज एक लाख छिहत्तर हजार करोड़ रुपए का घोटाला हुआ है-----कल क्या होगा कहना कठिन है.
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इस बार वातायन में प्रस्तुत है ’अहा ज़िन्दगी’ में बहादुरशाह ज़फर पर प्रकाशित मेरा आलेख और डॉ. मधु सन्धु की लघुकथाएं.

नववर्ष की शुभकामनाओं सहित यह अंक आपकी सेवा में प्रस्तुत है. आशा है आपको पसंद आएगा.
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टुकड़ा-टुकड़ा इतिहास

चित्र - जी मनोहर
इतिहास की एक उदास ग़ज़ल रूपसिंह चन्देल (बहुत पुरानी बात नहीं है। सिर्फ डेढ़ सौ साल पहले भारत के इतिहास ने एक अप्रत्याशित करवट ली थी। अंग्रजी राज के खिलाफ एक बड़ी बगावत पूरे उत्तर भारत में वेगवती आंधी बन उठी थी । अंग्रजी सेना के भारतीय सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया था। यह विद्रोह गांवों के किसानों और गढ़ियों के सामंतों तक फैल गया। अस्तंगत मुगल साम्राज्य के आखिरी बादशाह बहादुरशाह ज़फर को विद्रोहियों ने अपना नेतृत्व दिया। ज़फर बूढ़े थे, बीमार और कमजोर भी। पर उनकी कुछ खासियतें भी थीं। औरंगजेब ने धार्मिक कट्टरता की जो गांठ इस देश पर लगा दी थी, उसकी कुछ गिरहें ज़फर ने खोली थीं। वे अकबर की परम्परा और सूफी मिजाज के शख्श थे। अपनी सीमित शक्तियों और मजबूरियों के बावजूद उन्होंने अपने कार्यकाल में जो भी करने की कोशिश की, उससे पता चलता है कि वे इस देश से सचमुच प्यार करते थे और नितंांत प्रतिकूल समय में भी वे उस परम्परा के वाहक थे, जो हिन्दुस्तान की माटी से उपजी और विकसित हुइ थी। बहादुरशाह ज़फर मुगल सल्तनत का उजड़ा हुआ नूर थे। वह सल्तनत जिसने पूरे हिंदुस्तान में अपना परचम लहराया था-जिसने हिंदूस्तान को एक नए रंग में ढाल दिया था - अब देश तो दूर, दिल्ली में भी बस नाम भर की थी। हकीकत तो यह है कि वह लाल किले तक महदूद थी। बहादुरशाह ज़फर के प्रति मेरे आकर्षण और मेरे मित्र और 'अहा ज़िदगी' के सम्पादक आलोक श्रीवास्तव के आग्रह और प्रतिआग्रह ने मुझे बादशाह पर लिखने के लिए प्रेरित किया। प्रस्तुत है 'अहा जिंदगी' के दिसम्बर, 2010 अंक में प्रकाशित मेरा वह प्रयास) ******* आसमान में सितारे लटके हुए थे और हल्की ठण्डी बयार बह रही थी। सुबह के ठीक चार बजे का समय था। दूर-दूर तक घुप्प अंधेरा और सन्नाटा पसरा हुआ था। सन्नाटे को चीरती थी काफिले के साथ चल रहे बल्लम-बरदार सैनिकों के घोड़ों की टापें। पेड़ों पर बेचैन फुकदती चिड़ियों की आवाज में प्रतिदिन की भांति गाए जाने वाले सुबह के सुहाने गीत नहीं थे। वे विलाप कर रही थीं। यहां तक कि सड़क के दोनों ओर खड़ी झाड़ियों में झींगुर भी शोकगीत गा रहे थे। उनके सामने से गुजरने वाला काफिला उनके चहेते बादशाह बहादुरशाह ज़फर और उनके परिवार के सदस्यों का था जिसे अंग्रेज किसी अज्ञात स्थान की ओर ले जा रहे थे। वह 7 अक्टूबर, 1858 की सुबह थी। 6 अक्टूबर की रात बिस्तर पर जाते समय बादशाह ने कल्पना भी न की थी कि उन्हें भोर से पहले ही जगा दिया जाएगा और तैयार होकर प्रस्थान करने के लिए कहा जाएगा....कहां के लिए, यह पूछने का अधिकार भी अब उस पराजित बादशाह को नहीं था। वही नहीं, उनके साथ चल रहे काफिले के 31 सदस्यों में से किसी को भी यह भान नहीं था। अंग्रेजों ने सब कुछ अत्यंत गोपनीय रखा था। लेफ्टीनेंट ओमनी को बादशाह की सुरक्षित यात्रा सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। उसने ठीक 3 बजे बादशाह और अन्य लोगों को जगाकर एक घण्टे में तैयार हो जाने का फरमान सुनाया था। बाहर बल्लम-बरदार घुड़सवार सैनिक तैनात थे। बादशाह बहादुरशाह ज़फर को दिल्ली छोड़नी थी। जाना कहां था यह उन्हें नहीं बताया गया था। वे एक हारे हुए बादशाह थे। गनीमत यह थी कि उन्हें मौत के घाट नहीं उतार दिया गया था। सिर्फ देश-निकाला मिला था। वे वह जंग हार गए थे जिसका उन्होंने न एलान किया था, न आगाज। न रणभूमि में उतरे थे, न कमान संभाली थी। जिस तरह वे मुगलों की सिमटी हुई सल्तनत के प्रतीकात्मक बादशाह थे उसी तरह 1857 के विद्रोही सिपाहियों ने उन्हें अपना प्रतीकात्मक नेतृत्व दे रखा था। बहादुरशाह ज़फर मुगल सल्तनत का उजड़ा हुआ नूर थे। वह सल्तनत जिसने पूरे हिंदुस्तान में अपना परचम लहराया था - जिसने हिंदुस्तान को एक नए रंग में ढाल दिया था - अब देश तो दूर, दिल्ली में भी बस नाम भर की थी। हकीकत तो यह है कि वह लाल किले तक महदूद थी और लाल किले में भी कहां, वहां भी कौन सुनता था बादशाह की? किले के अपने षडयंत्र थे, अपनी राजनीति और दुरभिसंधियां! दुनिया के सबसे शक्तिशाली साम्राज्यों में से एक का वारिस अपने ही मुल्क, अपनी राजधानी, अपने ही किले यहां तक कि अपने ही दीवाने-आम और दीवाने-खास में मजबूर और अकेला था। सूफी तबीयत के ज़फर के आखिरी दिनों को यह मजबूर अकेलापन हरम की रंगरेलियों में, कुछ त्योहारों के रंगों-रोशनियों में और बाकी ग़ज़लों के रदीफ-काफिए में कटता था। उधर अंग्रेजों की नीतियों और कारस्तानियों ने आम सिपाही,किसान और सामंत सभी में असंतोष व्याप्त कर रखा था। हिंदुस्तान के घायल जज्बात जाग रहे थे, एक अपमानित मुल्क,एक उत्पीड़ित देश अपनी रगों में बहते लहू को महसूस कर रहा था। वह साल कहर बनकर टूटा। उस महाविद्रोह की बाढ़ में न जाने कितने तख्तो-ताज बह गए, महल और गढ़ियां ध्वस्त हुए, प्राचीरें गिरीं। उठती शमशीरों ने अपनी चमक से गंगा-यमुना के दोआबे से लेकर गोदावरी-कृष्णा तक के पानियों में रवानी पैदा कर दी। ज़फर में हिचक थी, डर था, बेचारगी थी, पर थोड़ा आदर्शवाद और जज्बा भी थी। इन सबने उन्हें उस आँधी के आगे खड़ा कर दिया - जो 1857 की गर्मियों में पूरे देश को झिंझोड़ती घूमती रही। अब वह आंधी थम चुकी थी और हारा हुआ कैद बादशाह दिल्ली की सड़कों से आखिरी बार गुजर रहा था....... चंदोवादार पालकी में आगे बादशाह बहादुर शाह ज़फर और उनके जीवित दोनों छोटे पुत्र थे जिसे चारों ओर से घेरे सैनिक चल रहे थे। उसके पीछे पर्देवाली गाड़ी में जीनत महल, मिर्जा जवां बख्त की युवा पत्नी नवाब शाह ज़मानी बेगम और उसकी मां मुबारक उन्निशा और उसकी बहन थीं। तीसरी सवारी में बेगम ताज महल और ख्वाजा बालिश सहित उनकी परिचारिकाएं थीं। उनके पीछे पांच बैलगाड़ियों का काफिला था जिनमें प्रत्येक में चार पुरुष और महिला सहायक और ज़फर के हरम की महिलाएं थीं और इन गाड़ियों को भी सैनिक घेरकर चल रहे थे। काफिला यमुना नदी की ओर बढ़ रहा था जहां उसे नावों वाले पुल से नदी पार कर कानपुर की ओर प्रस्थान करना था। वहां से स्टीम बोट द्वारा उन्हें आगे कलकत्ता के लिए की यात्रा करना था। ओमनी ने 13 अक्टूबर को बादशाह के काफिले की यात्रा के बारे मे लिखा, ''पूर्व बाशाह और दूसरे कैदी भलीभांति यात्रा कर रहे हैं। वे प्रसन्न हैं। प्रत्येक सुबह 8 बजे मैं सभी कैदियों को टेण्ट में ठहरा देता हूं और अर्ध्दरात्रि को 1 बजे आगे यात्रा जारी रखने के लिए उन्हें उठा देता हूं।'' ढहे साम्राज्य का वारिस दिल्ली के जिस साम्राज्य की नींव 352 वर्ष पहले बाबर ने रखी थी उसका अंतिम बादशाह अपना सर्वस्व खोकर उस काली रात रंगून के लिए निर्वासित कर दिया गया था ,जिसके विषय में उसे वहां पहुंचने तक जानकारी नहीं दी गई थी। 21 अप्रैल, 1526 को इब्राहीम लोदी के साथ पानीपत के मैदान में हुए युध्द ने दिल्ली के भाग्य में मुगल सल्तनत की मुहर लगा दी थी। बाबर हिन्दुस्तान लूटने के इरादे से नहीं यहां रहकर शासन करने के विचार से आया था। यद्यपि उसकी धमनियों मे दो लुटेरों - तैमूर और चंगेज खां का रक्त प्रवाहित था (पिता की ओर से वह तैमूर की पांचवी पीढ़ी और मां की ओर से चंगेज खां की चौदहवीं पीढ़ी में वह जन्मा था)। बाबर ने जिस मुगल साम्राज्य की स्थापना की उसके अंतिम बादशाह थे अबू ज़फर मुहम्मद बहादुर शाह, इतिहास में जिन्हे ज़फर के नाम से जाना गया। बाबर द्वारा स्थापित मुगल साम्राज्य का गौरवशाली इतिहास हमें हुमांयु, अकबर, जहांगीर , शाहजहां और औरंगजेब अर्थात पांच पीढ़ियों तक प्राप्त होता है, लेकिन औरंगजेब के पश्चात् इस साम्राज्य का पतन प्रारंभ हो गया था। यद्यपि औरंगजेब के काल में ही अनेक राज्य स्वतंत्रता की घोषणा करने लगे थे, लेकिन 1770 में उसकी मृत्यु के पश्चात् मराठों, राजपूतों और सिखों ने मुगल साम्राज्य से स्वतंत्रता की घोषणा प्रारंभ कर दी थी क्योंकि औरगंजेब के बेटों में सत्ता युध्द प्रारंभ हो गया था। यद्यपि औरंगजेब ने बहादुरशाह (प्रथम) को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था तथापि भाइयों के मध्य अवश्यंभावी युध्द हुआ और बहादुरशाह के हाथों न केवल आजमशाह और काम बख्श पराजित हुए बल्कि युध्द में मारे भी गए। तिरसठ वर्ष की आयु में बहादुरशाह प्रथम सम्राट बना, लेकिन वह एक अदूरदर्शी शासक था। परिणामत: सामा्रज्य की नींव हिलने लगी। उसे कमजोर करने में अहम भूमिका निभायी उसके पुत्रों जहांदार शाह, आजिमुशान, रफीकुशान और जमनशाह के मध्य हुए संघर्षों ने। 1740 तक मुगल साम्राज्य केवल नाम मात्र के लिए साम्राज्य बचा था। 1748 में अहमद शाह दिल्ली का सम्राट बना। 1754 में उसकी मृत्यु के पश्चात् आलमगीर द्वितीय गद्दी पर बैठा। वह एक अयोग्य शासक था। उसके काल में अहमदशाह अब्दाली ने चौथी बार भारत में आक्रमण किया था। उसने दिल्ली में प्रवेश कर उसे लूटा और कत्लेआम किया। अहमदशाह के वजीर इमादुलमुल्क ने उसकी हत्या कर दी और शाहजहां तृतीय 1758 में दिल्ली की गद्दी पर बैठा। लेकिन वह एक वर्ष ही शासन कर सका। 1759 में आलमगीर के पुत्र अलीगौहर ने अपने को सम्राट घाषित कर दिया और उसने शाहआलम की उपाधि धारण की। 1772 तक वह दिल्ली से बाहर रहा। शाहआलम के पश्चात् उसके पुत्र अकबरशाह द्वितीय ने 1806 में सत्ता संभाली। उसने 1837 तक दिल्ली पर शासन किया। बहादुरशाह ज़फर अकबरशाह के दूसरे पुत्र थे। पिता की मृत्यु के पश्चात् 1837 में ज़फर दिल्ली के सिंहासन पर आरूढ़ हुए थे। औरंगजेब की मृत्यु से लेकर बहादुरशाह ज़फर की ताजपोशी तक के 67 सालों में इतिहास की नदी में बहुत पानी बह चुका था। तिजारत करने आए अंग्रेज अब लगभग समूचे हिंदुस्तान पर काबिज थे। कंपनी का राज था और कंपनी की लूट थी। पूरा भारत असंख्य छोटी-छोटी रियासतों-रजवाड़ों में बंट चुका था। ये क्षत्रप और सामंत अंग्रेजों को अपना विधाता बनाए, अपने छोटे-छोटे स्वार्थों और ऐयाशियों की कठपुतली बने हुए थे। दिल्ली के तख्त पर मुगल सल्तनत का चिराग अब भी रोशन था, मगर उसकी लौ किले की दीवारों तक को पार न कर पाती थी। यह नाममात्र की सत्ता थी। नाममात्र की बादशाहत। बहादुरशाह ज़फर की बूढ़ी आंखों में इतिहास की एक वीरानी बसती थी..... उन आंखों ने निरे बचपन से अपने खानदान और सल्तनत में इतनी साजिशें और खून देखे थे कि वे सब उनके पूरे व्यक्तित्व में एक ठंडापन, एक अवसाद बनकर हमेशा को ठहर गए थे। बहादुरशाह ज़फर का जन्म 1775 में हुआ था। जब वह मात्र तेरह वर्ष के थे, गुलाम कादिर खां ने शहर पर कब्जा कर लिया था और उसने उनके पितामह शाह आलम द्वितीय को स्वयं अंधा करके ज़फर के पिता अकबर शाह को सम्राट घोषित किया था। बहादुरशाह ज़फर अकबरशाह की राजपूत पत्नी लालबाई से उत्पन्न हुए थे। उनका पालन-पोषण रहस्यवादी वातावरण और रहस्यवादी वैचारिकता वाले पिता के साये में हुआ था। अकबरशाह सूफियाना मिज़ाज व्यक्ति थे और अपनी बढ़ती उम्र के साथ उन्होंने उसे इतना विकसित कर लिया था कि वह सूफी संत (कुतब-इ-आलम) बन गए थे। आज भी सूफियों की दुनिया में उनकी एक अलग पहचान कायम है। बहादुरशाह ज़फर की मां और दादी राजपूत परिवारों से थीं । अकबर महान से वह बहुत प्रभावित थे और हिन्दुओं के प्रति उनके हृदय में विशेष आदर भाव था। अकबर की भांति ही वह हिन्दू -मुस्लिम एकता के लिए प्रयत्नरत रहते थे। दरअसल बहादुरशाह ज़फर और दारा शिकोह दोनों ही इतिहास की ऐसी विडंबनाएं हैं, जिनके साथ समय ने यदि थोड़ी भी मुरव्वत की होती तो भारत का इतिहास कुछ और भी हो सकता था। शिकोह और ज़फर अकबर की उस महान परम्परा की कड़ियां बन सकते थे जो इस देश के खेतों-गांवों से लेकर नगरों-बाज़ारों तक संस्कृति और इन्सानियत की सुगंध बनकर बसी होती। दारा शिकोह को औरंगजेब ने कत्ल करवाया और एक ओर पूरी तरह से जर्जर मुगल साम्राज्य और दूसरी ओर से अंग्रेजों के फंदों में कसे ज़फर अपनी मजबूरियों के कारागार से निकल ही नहीं पाए। 
 
 जिल्लत की ज़िंदगी ज़फर के पितामह शाहआलम की मृत्यु के पश्चात् अंग्रजों ने दिल्ली सल्तनत पर अपना शिकंजा कसना प्रारंभ कर दिया था। 1813 में ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा सम्राट को दिए जाने वाले नजराना परम्परा को लार्ड मिण्टों ने समाप्त कर दिया था। 1816 में लार्ड हेस्टिंग्स ने शाही टकसाल पर प्रतिबंध लगा दिया। ब्रिटिश सरकार ने 1812 में सम्राट के लिए बारह लाख पेंशन मुकर्रर की, जिसे 1833 में बढ़ाकर 15 लाख कर दिया गया था। लार्ड एलेनबरो ने एक आदेश जारी किया जिसमें कहा गया कि उसके द्वारा अधिकृत व्यक्ति ही ताज का अधिकारी होगा। अंग्रेजों द्वारा ढाले जाने वाले सिक्कों पर सम्राट का जो चित्र अंकित होता था, उसे 1835 में हटा दिया गया। यह एक संकेत था कि मुगल शासन पूरी तरह अंग्रेजों के रहमो-करम पर निर्भर था। अंग्रेजों ने बादशाह बहादुर शाह ज़फर की गतिविधियों और उनसे मिलने-जुलने वालों पर नज़र रखना प्रारंभ कर दिया। बादशाह की गतिविधियां सीमित हो गयीं थीं और वह लाल किला की दीवारों में ही कैद होकर रह गए थे। ज़फर के समय दिल्ली का रेजीडेंट सर थामस मेटकॉफ था। मेटकॉफ ऊपर से उनके प्रति मित्रवत रहता, लेकिन उनकी हर गतिविधि पर उसकी दृष्टि होती थी। कोई भी कुलीन पुरुष सर मेटकॉफ की अनुमति के बिना लालकिला के अंदर दाखिल नहीं हो सकता था। उपहार लेने-देने के अधिकार भी बादशाह से छीन लिए गए थे। बादशाह अपने ताज से कोई मणि या रत्न अपने परिवार के किसी व्यक्ति को भी नहीं दे सकते थे। दिल्ली के बाहर के किसी कुलीन व्यक्ति को बिना रेजीडेंट मेटकॉफ की अनुमति के वह खिलअत नहीं दे सकते थे। बादशाह ज़फर और जीनत महल के पुत्र जवां बख्त के विवाहोत्सव के अवसर पर कोलेसर के राजा गुलाब सिंह ने दरबार में उपस्थित होकर बादशाह को एक घोड़ा और सात सोने की मोहरें नजराने स्वरूप भेंट की थीं। ज़फर ने उन्हें खिलअत भेंट की, लेकिन मेटकॉफ ने राजा को वह खिलअत तुरंत लौटाने का आदेश दिया था। कारण ..... मेटकॉफ की दृष्टि में राजा अंग्रेजी शासन के अधीन था, न कि बादशाह के और उसे किसी विदेशी (ज़फर) शासक के प्रति निष्ठा या स्वामिभक्ति व्यक्त करने का कोई अधिकार नहीं था। यह एक घटना मात्र इस बात को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त है कि ज़फर अपने देश और अपने साम्राज्य में कितना अपमानित अनुभव करते रहे थे। एक अंग्रेज के अनुसार उनकी स्थिति पिंजरे में बंद एक पक्षी की भांति थी। कहना उचित होगा कि एक समय ऐसा आ गया कि जब ज़फर के पास अपने महल और अपने गौरवशाली वंश की प्रतिष्ठा के अतिरिक्त कुछ भी शेष नहीं बचा था।
 
 शायरी में पनाह लेता दिल इस सबके बावजूद ज़फर को कुछ जुलूसों या शोभायात्राओं में जाने की अनुमति प्राप्त थी। वह सूफी मकबरों में जाते, महरौली स्थित अपने ग्रीष्म महल में वर्ष में एक बार जाते, पुराने ईदगाह में ईद मनाते, फूलवालों की सैर में सोत्साह हिस्सा लेते, और जोगमाया मंदिर और कुतुब साहब के मकबरे में जाते। बहादुरशाह ज़फर स्वयं एक अच्छे शायर थे और उनके दरबार में ऐसे लोगों का आवागमन बना रहता था। उनके दो दरबारी शायरों ,मिर्जा गालिब और जौक में शायरी को लेकर तमाम असहमतियां थीं। जौक सहजाभिव्यक्ति के शायर थे जबकि गालिब एक जटिल शायर थे। जौक एक सामान्य पैदल सिपाही के पुत्र थे, जिन्हें ज़फर ने लाल किले के बगीचों का मानद इंचार्ज बना दिया था। जबकि गालिब एक आभिजात्य पृष्ठभूमि से थे। ज़फर ने उन्हें अपना उस्ताद मान लिया था। जौक एक सामान्य जीवन यापन करने वाले अहर्निशि शायरी को समर्पित व्यक्ति थे वहीं गालिब को अपनी कुछ चारित्रिक कमजोरियों पर विशेष गर्व था। जवां बख्त के विवाह (1852) से पांच वर्ष पहले गालिब को जुआं खेलने के अपराध में जेल में डाल दिया गया था, लेकिन इसे उन्होंने अपना अपमान नहीं माना था। एक बार जब किसी ने उनकी उपस्थिति में शेख साहबाई की शायरी की प्रशंसा की, गालिब चीख उठे, ''साहबाई ने शराब चखी नहीं , न ही उसने जुआ खेला , प्रेमिकाओं द्वारा चप्पलों से वह पीटा नहीं गया, और न ही वह एक बार भी जेल गया ..... फिर वह शायर केैसे हो गया ?'' अपने कुछ पत्रों में उन्होंने 'लेडीज मैन' के रूप में अपना उल्लेख किया है । एक उदाहरण और। गालिब के एक मित्र की पत्नी की मृत्यु हो गयी। उसने आहतमन उन्हें एक शोकपत्र लिखा। गालिब ने उसे लिखा -''मिर्जा, मुझे यह पसंद नहीं है जैसा आप कर रहे हैं…जब आप जीवित हैं दूसरे की मृत्यु पर शोक व्यक्त नहीं कर सकते … अपनी स्वतंत्रता के लिए ईश्वर को धन्यवाद दो और दुखी मत हो … भाई होश में आओ और दूसरी ले आओ ....।'' यद्यपि ज़फर स्वयं एक अच्छे शायर थे, लेकिन वह जौक की प्रतिभा की उच्चता के मुरीद थे। एक बार उन्होंने अपनी कुछ पंक्तियां जौक को दीं, जिनकी कमियों को जौक ने अविलंब संशोधित कर दिया। ज़फर इससे इतना प्रसन्न हुए कि उन्होंने उन्हें खिलअत भेंट की और उन्हें 'महल के बगीचों का मानद सुपरिटेण्डेण्ट पद प्रदान किया। ज़फर शौकिया शायर नहीं थे। उनका दिल शायरी में बसता था। उन्होंने ढेरों ग़ज़लें रची थीं। इन ग़ज़लों में मानव जीवन की कुछ गहरी सच्चाइयां और भावनाओं की दुनिया बसी थी। वे एक उम्दा शायर थे। राजनीतिक स्तर पर भले ही दिल्ली का अध:पतन हो रहा था, लेकिन साहित्यिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और शैक्षिक स्तर पर दिल्ली के स्तर का कोई शहर उस समय तक हिन्दुस्तान में नहीं था। दिल्ली वालों को अपने शहर और अपनी गली-कूचों पर गर्व था। जौक को आखिर कहना पड़ा था, ''कौन जाए जौक पर दिल्ली की गलियां छोड़कर।'' उर्दू का जन्म दिल्ली में हुआ जिसकी सुन्दरता और लालित्य मनमोहक थी। मौलवी अब्दुल हक का कहना था, ''जो व्यक्ति दिल्ली में नहीं रहता वह उर्दू का गुणग्राहक नहीं हो सकता।'' जेम्स बेली फ्रेजर का कथन है, '' दिल्ली जैसा कोई शहर नहीं था। दिल्ली के प्रत्येक घर में शायरी की चर्चा होती थी और बादशाह स्वयं एक अच्छे शायर थे।'' दिल्ली में पुरुष और महिलाओं की भाषा समान होते हुए भी महिलाओं की उर्दू उच्चारण की कुछ अलग ही विशेषता थी। शायरी से न केवल आभिजात्य जन अभिभूत थे बल्कि किसी हद तक आम लोग भी उसके प्रति आकर्षित थे। मिर्जा जवां बख्त की शादी से दो वर्ष पूर्व उर्दू शायरी का एक संग्रह (1850) प्रकाशित हुआ था, जिसमें दिल्ली के चुनिन्दा पांच सौ चालीस शायरों की रचनाओं को प्रकाशित किया गया था। उस समय दिल्ली में कवियों की संख्या का अनुमान लगाया जा सकता है। उस संग्रह में बादशाह बहादुर शाह ज़फर के अतिरिक्त उनके परिवार के पचास सदस्यों की रचनाएं तो थीं ही, चांदनी चौक में पानी बेचने वाले एक गरीब व्यक्ति के साथ पंजाबी कटरा के एक व्यापारी, एक जर्मन यहूदी (दिल्ली में बहुत से योरोपीय परिवार बस गए थे और उन्होंने दिल्ली की संस्कृति अपना ली थी), एक जवान पहलवान, एक गणिका और एक हज्जाम की रचनाएं भी शामिल थीं। उसमें लगभग तिरपन ऐसे नाम थे जो हिन्दू थे। ज़फर सहित दिल्ली के लगभग सभी शायरों में शायरी के प्रति दीवानगी थी। बादशाह प्राय: महल में मुशायरों का आयोजन करते थे। शायरों, दरबारियों, महिलाओं और आमजन के बैठने के लिए विशेष व्यवस्था की जाती थी। सुबह चार बजे तक मुशायरा होता रहता था। इतिहासकारों के अनुसार जिस समय सिविल लाइन्स क्षेत्र में अंग्रेज फौजी घुड़सवारी और परेड के लिए तैयार हो रहे होते उस समय किले में मुशायरे का दौर समाप्त कर अलसाए लोग अपने घरों को लौट रहे होते थे। ये सभी दिन के ग्यारह-बारह बजे तक घोड़े बेचकर सोते थे। यह स्थिति अंग्रेजों के लिए अनुकूल थी। जब दिल्ली सोती वे जागकर दिल्ली पर अपना पूर्ण आधिपत्य स्थापित करने की योजना पर कार्य करते और अनुशासन का कट्टरता से पालन करते हुए वे रात दस बजे बिस्तरों पर चले जाते, जबकि यही समय दिल्ली के शायरों के बादशाह के महल में एकत्र होने का होता था। बहादुरशाह ज़फर ने अपनी नियति स्वीकार ली थी और अपने को पूरी तरह से कल के हवाले कर दिया था। बादशाह की आयु भी इस योग्य न रही थी कि अंग्रेजों की मुखालिफत करते। परिणामत: वह अपने पिंजरे में बंद अपनी उदासीनता को शायरी में भुलाने का प्रयत्न करने लगे थे ।
 
 अंत:पुर के रस-राग
हताश-उदास और अंग्रेजों से अपमानित बादशाह अपने हरम में होने वाले षडयंत्रों के प्रति भी जागरुक नहीं रहे थे। 1837 में जब बादशाहत का ताज उनके सिर पर रखा गया था उस समय उनकी चहेती बेगम थीं ताज महल जो एक दरबारी संगीतज्ञ की पुत्री थीं। ताज महल बेहद खूबसूरत थीं, लेकिन बादशाह के हृदय की साम्राज्ञी वह अधिक समय तक नहीं बनी रह सकी थीं। तीन वर्ष बाद ज़फर के जीवन में एक युवती ने प्रवेश किया जिसका नाम जीनत महल था। जीनत उस समय उन्नीस वर्ष की थी जबकि ज़फर चौसठ के। कुछ महीनों के अंदर ही जीनत महल के साथ उनका विवाह सम्पन्न हुआ और ताज महल के स्थान पर अब जीनत काबिज हो चुकी थी। बादशाह के मृत्यु-पर्यन्त जीनत महल उनकी सर्वप्रिय बेगम बनी रहीं। उन्हीं का पुत्र था जवां बख्त। जीनत महल के महल में प्रवेश के पश्चात् बादशाह की सभी बेगमों और रखैलों में असन्तोष व्याप गया था। क्योंकि बादशाह की दृष्टि में उन सबकी औकात कम हो गयी थी। इस सबके बावजूद बादशाह अपने हरम को नयी रखैलों से भरने से परहेज नहीं कर रहे थे। 1852 में ज़फर ने जीनत महल से उत्पन्न अपने सर्वप्रिय पुत्र जवां बख्त का विवाह किया। खजाना खाली था। विवाह व्यवस्था, महल, किला, चांदनी चौक तथा अन्य महत्वपूर्ण स्थलों को सजाने से लेकर विवाह की अन्य तैयारियों के लिए जीनत महल ने दिल्ली के सूदखोरों, सेठों और साहूकारों से खुलकर उधार लिया। उन सबने यह जानते हुए भी कि उन्हें वह धन वापस नहीं मिलेगा, जीनत महल को नाराज करना उचित नहीं समझा। इसका एक प्रमुख कारण् यह था कि वे सब अंग्रेजों को नापसंद करते थे और बादशाह के प्रति आत्मीयता और आदरभाव उन सबके मन में था। वे शायद यह भी भांप चुके थे कि अंग्रेजों द्वारा वे लूटे ही जाएगें फिर क्यों न वह धन बादशाह के काम आए। जवां बख्त के विवाह के समय ज़फर की आयु सतहत्तर वर्ष थी, लेकिन चार्ल्स जॉन ग्रिफिथ के अनुसार 1853 में बादशाह की हरम में पांच रखैलों को शामिल किया गया था और वे सभी कमसिन युवतियां थीं। ऐसी स्थिति में हरम की स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है। ग्रिफिथ के अनुसार उसके बाद भी बादशाह की इच्छाएं दमित न हुई थीं। उनके कम से कम सोलह पुत्र और इकतीस पुत्रियां थीं। उनके अंतिम पुत्र का नाम मिर्जा शाह अब्बास था, जो तब पैदा हुआ था जब ज़फर सत्तर वर्ष के थे। यद्यपि हरम में बेगमों और रखैलों की गतिविधियां संदेहास्पद थीं और वहां अनुशासन बनाए रखना बादशाह के लिए सहज नहीं हो पा रहा था, लेकिन जीनत महल हरम की स्थिति को भलीभांति जानती -समझती थी और वहां के प्रति उनका रुख सदा सहानुभूतिपूर्ण रहता था। उन्होंने कभी दुर्भावना प्रकट नहीं किया। बल्कि जब हरम की एक रखैल दरबारी संगीतज्ञ तनरस खान से गर्भवती हुई, जीनत ने हस्तक्षेप कर उसे कठोर दण्ड से बचा लिया था। लेकिन ताज महल बेगम के साथ जीनत महल का शीतयुद्ध जारी था… संभवत: उसका कारण ताज बेगम ही थीं जो अपने अतीत को भुला नहीं पा रही थीं। परिणामत: ताज बेगम को बादशाह के भतीजे मिर्जा कामरान के साथ अवैध संबन्ध के संदेह में जेल में डाल दिया गया था। तनरस खान से गर्भवती रखैल पिया बाई ही नहीं अनेक रखैलों की एक ही दास्तान थी। जवां बख्त के विवाह से दो महीना पहले एक रखैल को एक सिपाही के साथ रंगे हाथों पकड़ा गया था। सिपाही को लोहे की छड़ से पीटा गया, जबकि रखैल को आनाज पीसने की मामूली सजा दी गई थी। लगातार घटित होने वाली इन घटनाओं से ज़फर बहुत आहत थे। 1 फरवरी, 1852 को एक प्रबन्धक नियुक्त करतें हुए उन्होंने कहा था, ''मैं जनानखाना की व्यवस्था से बहुत दुखी हूं। चोबदार और चौकीदार कभी अपने कामों में उपस्थित नहीं रहते और जनानखाने में बाहरी व्यक्ति प्रवेश पाते रहते हैं।'' उन्हें रखैल चांद बाई ने बताया था कि सुल्ताना बाई के निवास में नबी बख्श नामका व्यक्ति बलात प्रवेश कर गया था, जबकि खोजा ने उसे रोकने का प्रयास भी किया था ......। महल की बड़ी बेगमों का जीवन अपेक्षाकृत आराम से बीत रहा था। ज़फर के अपने बच्चों को अपना जीवन अपने ढंग से जीने की पूर्ण आजादी थी। वे चाहें अध्ययन करें , अथवा कलात्मक गतिविधियों में अभिरुचि लें, शिकार, कबूतरबाजी करें या बटेर लड़ाएं। लेकिन छोटी राजकुमारियों के छूट की सीमाएं थीं। इन सबके अतिरिक्त पूर्व शासकों के लगभग दो हजार लोगों के परिवार...... जिनमें उनकी बेगमें, राजकुमारियां, पोते-पड़पोते, लकड़पोते आदि थे, का जीवन अत्यंत दुरूह था। वे सभी महल के दड़बानुमा क्वार्टरों में गरीबों जैसा जीवन जी रहे थे। लाल किला का यह एक ऐसा दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष था, जो शर्मनाक था और शायद इसी कारण उन्हें लाल किला से बाहर झांकने के अवसर कभी-कभार ही, खासकर दरियागंज में होने वाले जनोत्सव के दौरान ही प्राप्त होता था। ज़फर की परेशानी का सबब उनके कुछ दूर के रिश्तेदार भी थे। उनका विश्वास था कि महल में होने वाली चोरियों में उनकी ही भूमिका हाती थी। वे एक-दूसरे की चीजें चोरी करते और पीकर उत्पात मचाते। जब उन्हें ज्ञात हुआ कि मिर्जा महमूद सुल्तान पागल होकर महल के इर्दगिर्द घूमते रहते हैं उन्होंने उसे जंजीरों से बांध देने का आदेश दिया था। ज़फर के एक सौ पचास ऐसे रिश्तेदारों ने उत्तर-पश्चिम क्षेत्र के लेफ्टीनेण्ट गवर्नर को एक ज्ञापन भेजा था कि ज़फर उन दायादों को अपनी समस्याएं मेटकॉफ से डिस्कस करने से रोकते हैं।  
 
अंग्रेजों से ठन गई ज़फर अपने प्रति ब्रिटिशर्स के व्यवहार और अपने अधिकारों के छीने जाने से दुखी थे ही उस पर अंग्रेजो ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी तय करने के अधिकार से भी वंचित कर दिया था। इस बात का झटका उन्हें तब लगा जब उनके बड़े बेटे दाराबख्त की ज्वर से 1849 में मृत्यु हुई थी। अंग्रेज आशा कर रहे थे कि ज़फर अपने दूसरे पुत्र मिर्जा फखरू को उत्तराधिकारी घोषित करेगें, जो प्रतिभाशाली कवि, खुशनवीस (सुलेखक) और इतिहासकार था। लेकिन ज़फर अपनी बेगम जीनत महल के प्रभाव में थे, जो जवांबख्त को उत्तराधिकारी घोषित करने का दबाव बना रही थीं, जो उस समय मात्र आठ वर्ष का था। अंग्रेजों का सोचना था कि ज़फर अतीत को दोहराना चाहते थे, क्योंकि उनके पिता अकबरशाह द्वितीय ने अपने बड़े पुत्र मिर्जा जहांगीर के बजाय ज़फर को उत्तराधिकार सौंपा था। इसी दौरान मिर्जा फखरू ने अंग्रजी का अध्ययन प्रारंभ कर दिया और अंग्रेजपरस्त अपने श्वसुर इलाही बख्श की भांति वह मेटकॉफ और अन्य अंग्रेज सैन्य अफसरों के संपर्क में रहने लगा। फखरू जवां बख्त के विवाह से तीन माह पूर्व 1852 में मेटकॉफ और लेफ्टीनेण्ट गवर्नर से मिला और एक गोपनीय समझौते पर हस्ताक्षर किए जिसमें कहा गया था कि अंग्रेज उसके पिता की इच्छा के विपरीत उसे उत्तराधिकारी घोषित करेंगे और फखरू लाल किला अंग्रजों को सौंपकर महरौली के ग्रीष्म महल में दरबार स्थानांतरित कर लेगा और अंग्रेज लाल किला को बैरक के रूप में इस्तेमाल कर सकेगें। अंग्रेजो के साथ फखरू के समझौते की भनक जैसे ही ज़फर को लगी क्रोधाविष्ट हो उन्होंने फखरू को दरबार से बहिस्कृत करने का आदेश दिया और कहा कि जो भी फखरू से मित्रता रखेगा वह दरबार का शत्रु माना जाएगा। फखरू को दरबार में प्राप्त सभी अधिकार, उसके भत्ते, मकान आदि छीनकर उसके छोटे भाइयों में बांट दिए गए, विशेषरूप से कठोर परिश्रमी मिर्जा मुगल को। लेकिन अंग्रेजों के निर्णय में कोई परिवर्तन नहीं हुआ, जिसने ज़फर को हताशा के गर्त में झोंक दिया। उन्होंने यहां तक घोषणा कर दी कि यदि उनकी इच्छा का अनादर किया गया तो वह हज़ के लिए चले जाएंगे। इधर लाल किला के भीतर छोटे-छोटे स्वार्थों की राजनीति चल रही थी, उधर देशभर में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की तैयारियां। न जाने कितने हरकारे गांव-बस्ती-जंगल पार करते गुपचुप संदेशों को यहां से वहां पहुंचा रहे थे। पूरे उत्तर भारत की नसों में एक विद्रोह सुलग रहा था। इस सुलगन की आंच इतनी तेज थी कि वह समय से पहले ही लपट बन, धधक उठी। विद्रोह की नियत तारीख से पहले ही बंगाल की बैरकपुर छावनी में सिपाही मंगल पांडे ने बगावत कर दी। उसे फांसी हुई। पर जो लपट उठ चुकी थी, वह थमने वाली न थी। मेरठ की बैरकों से सिपाही निकल आए, उन्होंने मेरठ छावनी में अंग्रेजों की हत्याएं कीं, बंगले जलाए। यह सब दिल्ली के ठीक पड़ोस में घटा था। लाल किला से महज 67 किलोमीटर की दूरी पर। मेरठ के सिपाहियों की मंजिल अब दिल्ली थी। मेरठ छावनी को धधकता छोड़ 85 सिपाहियों का दल रास्ते के गांवों को पार करता देखते-देखते दिल्ली की सरहद पर जा पहुंचा। यमुना पार करते ही दिल्ली थी। सामने लाल किला एक अस्त वैभव की उदास यादगार-सा खड़ा था.... क्रांति की अगुवाई और पराजय 1856 तक दिल्ली दरबार में इतना सब घटित-परिघटित हो चुका था और अंग्रेजों की नीतियों से बूढ़ा बादशाह इतना अधिक अपमानित अनुभव करने लगा था कि 10 मई को मेरठ में अंग्रेजों का सफाया करने के बाद दिल्ली पहुंचे क्रांतिकारियों ने जब बादशाह से क्रांति की कमान संभालने का अनुरोध किया तब किंचित द्विविधा के बाद ज़फर ने उनके प्रस्ताव को स्वीकार करने में अधिक समय नष्ट नहीं किया था। मेरठ में क्रांति की सफलता के बाद उसी रात क्रांतिकारियों ने दिल्ली के लिए प्रस्थान किया था। दिल्ली में क्रांतिकारी सेना की पहली टुकड़ी कश्मीरी दरवाजा से प्रविष्ट हुई और दूसरी टुकड़ी ने कलकत्ता दरवाजा से प्रवेश किया था। दिल्ली के राजमहल में सैनिकों और नागरिकों की भीड़ एकत्र होने लगी थी। बादशाह का टूटा मनोबल जाग्रत हुआ और वह निराशा के गह्नर से बाहर निकलने का प्रयत्न करने लगे। उन्हें इक्कीस तोपों की सलामी दी गई। कुछ संकोच के साथ बादशाह ने सैनिकों का आना स्वीकार कर लिया। क्रांतिकारी नेताओं से विचार-विमर्श के बाद बादशाह को जो आशंकाएं थीं दूर हो गयीं। सावरकर लिखते हैं - ''सम्राट-पद प्राप्ति की सैकड़ों लालसाओं के दीप उनके अन्त:करण में प्रज्वलित हो उठे। सैनिकों ने उनसे कहा, ''आप स्वातंत्र्य की पुनीत पताका अपने करकमलों में थामिए ......।'' 
ज़फर ने क्रांतिकारियों का नेतृत्व स्वीकार कर लिया। बख्त खां को प्रधान सेनापति नियुक्त किया गया और जनरल के पद से विभूषित किया गया। मिर्जा मुगल को एड्जुटेण्ट जनरल बनाया गया। महीनों युध्द चला, लेकिन क्रांतिकारियों के अदूरदर्शी नेतृत्व, नेताओं के आपसी मतभेद, लालकिला की दुरभिसंन्धियों और सैनिकों की अनुशासनहीनता के कारण दिल्ली का भी वही हस्र हुआ जो शेष भारत का हुआ था। अंतत: 14 सितम्बर 1857 को दिल्ली के पतन के पश्चात् अंग्रेजों ने दिल्ली में जो तबाही मचायी उसे देख नादिरशाह भी शायद सकते में आ जाता, हालाँकि उसने मात्र आठ घण्टों में बत्तीस हजार नागरिकों को मौत के घाट उतरवा दिया था। छ: दिनों के रक्तिम संघर्ष के बाद अंग्रेजों ने भारतीय सिपाहियों के अंतिम गढ़ लाहौर गेट,जामा मस्जिद और सलीमगढ़ के किले पर फतह हासिल कर ली। जब अंग्रेज टुकड़ी ज़फर के महल में पहुंची तो पता चला कि बादशाह,उनका परिवार और इष्ट-मित्र दो दिन पहले ही वहां से पलायन कर चुके थे। वे निजामुद्दीन की दरगाह के पास स्थित हुमायूं के मकबरे में जाकर छिपे थे। अधिक दूर जाने का मौका ही न मिल पाया था। अंग्रेजो ने दिल्ली में भयानक कत्लेआम किया। हजारों बाशिदों को निष्कासित कर देश के बाकी हिस्सों में भेज दिया गया। एक अंग्रेज कप्तान ग्रिफिथ ने लिखा, ''उन लोगों को शहर से बाहर जाते देखना सचमुच बड़ा ही मर्मस्पर्शी दृश्य था। रोजाना लाहौर गेट से सैकड़ों लोग गुजरते रहे और यह सिलसिला पूरे एक सप्ताह तक जारी रहा।'' दिल्ली के घर, मोहल्ले, गलियां, सड़कें वीरान पड़ी थीं। उस खौफजदा वीरानी का वर्णन एक अंग्रेज अधिकारी ने अपनी डायरी में इस तरह लिख छोड़ा है - ''इन सुनसान सड़कों पर गूंजने वाली हर एक आवाज बड़ी अजीम तिलस्मी और अलौकिक लगती थी। हमारे कानों में ये रहस्यमय प्रतिध्वनियां मुर्दों के शहर की तरह अनुनादित होती थी। इधर-उधर एक कुत्ता किसी शव को झिंझोड़ता रहता था। कोई गिध्द गले तक गोश्त भरकर उड़ने में भी अक्षम हो जाता और उसका सर खून से तर-बतर रहता। हमारे पहुंचते ही पंख फड़फड़ाता। कुछ शवों के हाथ इस मुद्रा में ऊपर उठे हुए होते मानों किसी को इशारा कर बुला रहे हों। हम चलकर वहां जाते ओैर यह पड़ताल करते कि सचमुच वे शव हैं भी या नहीं। भयंकर निस्तब्धता थी…।'' एक और युवा अंग्रेज अधिकारी उन्नीस वर्षीय एडवर्ड विबार्ट ने लिखा।, ''यह अक्षरश: हत्या थी … मैंने इससे पहले भी रक्तरंजित दृश्य देखे थे॥, लेकिन मैं प्रार्थना (ईश्वर से ) करता हूं कि जो कल देखा वह दोबारा न देखूं । अधिकांश महिलाओं को बख्श दिया गया था , लेकिन पतियों और पुत्रों को जिबह होते देख उनकी चीखें अत्यधिक कष्टकारी थीं ।… ईश्वर जानता है कि मैं दुखी अनुभव नहीं करता , लेकिन जब किसी धूसर दाढ़ी वाले वृध्द व्यक्ति को अपने प्रियजनों के समक्ष मारा जाता है तब मैं सोचता हूं कि कोई कठोर हृदय व्यक्ति ही यह देखकर उदासीन रह पाता है …।''. बादशाह की गिरफ्तारी गालिब सहित कुछ ही भाग्यशाली मुसलमान थे जो दिल्ली में रहते हुए भी सुरक्षित बच गए। अधिकांश या तो मारे जा चुके थे या दिल्ली से पलायन कर गए थे। अंग्रेज जनरल हडसन को भेदिए ने बादशाह के विषय में खबर दी। बादशाह की बेगम जीनत महल से सौजन्यपूर्ण रिश्ता रखने वाला विलियम हडसन 50 सैनिकों की टुकड़ी लेकर मकबरे पर पहुंचा। वह टुकड़ी के साथ दरवाजे पर ही रुका। भीतर दो दूत भेजे गए। दो घंटे बाद दानों दूत यह संदेश लेकर लौटे कि बादशाह समर्पण को तैयार हैं - पर उसी शर्त पर जब खुद हडसन आगे बढ़कर उन्हें हुकूमत की ओर से सुरक्षा का वचन दें। हडसन मकबरे के प्रवेशद्वार के सामने सड़क के बीचोबीच पहुंचा। उसके हाथ में तलवार थी और मकबरे के दूधिया गुंबदों पर नजरें टिकाए उसने बुलंद आवाज में घोषणा की -''यदि बादशाह बाहर आएं तो हम उन्हें जान की रक्षा का वचन देते हैं।'' कुछ ही पलों बाद जीनत महल बाहर निकलीं। उनके पीछे बादशाह भी पालकी में थे। सुरक्षा का वादा दोहराया गया। घुड़सवारों का काफिला शाही परिवार को अपने सुरक्षा घेरे में लेकर दिल्ली की ओर चल दिया। हजारों लोगों ने रास्ते में काफी दूर तक चलकर उनका साथ दिया। बहादुरशाह ज़फर पर जनवरी 1859 के अंत में सैन्य अदालत के तहत अभियोग चला। जब बादशाह पर आरोप लगाकर उनकी विवेचना की जा रही थी, उन्हें यूरोपीय सैलानियों के सामने दिल्ली के एक अजूबे की तरह पेश किया जा रहा था। ज़फर अमूमन निष्क्रियता की ही स्थिति में रहे। सैन्य-अदालत की समूची कर्रवाई दो माह से अधिक समय तक चली। 29 मार्च,1859 को उन्हें सभी अपराधों का दोषी करार दिया गया। ज़फर को ब्रिटिश सत्ता के विरुध्द बगावत करने का दोषी ठहराया गया। ऐसे मामलों में मृत्युदण्ड का प्रावधान था, लेकिन हडसन ने ज़फर को जीवनदान का वचन दिया था, अत: उन्हें मृत्युदण्ड नहीं दिया जा सकता था। तय हुआ कि उन्हें या तो अण्डमान निकोबार के किसी द्वीप में या किसी अन्य स्थान में भेज दिया जाए। सात महीनों तक इस बात के लिए दिल्ली, कलकत्ता, रंगून और अंडमान-निकोबार के मध्य पत्राचार होता रहा। अंतत: उन्हें रंगून भेजने का निर्णय किया गया। वतन से दूर मौसम साफ था । दिन में खिलखिलाती धूप वतन से दूर जा रहे वतनपरस्तों को सहलाती और रात और सुबह शीतलता प्रदान करती। अंतत: कारवां कानपुर पहुंचा। वहां स्टीम बोट देख बादशाह अचंभित रह गए। उन्होंने ओमनी से कहा कि उन्होंने इससे पहले कभी इतनी बड़ी और इतनी तीव्र गति से चलने वाली नाव नहीं देखी थी। ओमनी ने उनसे समुद्र की रोमांचक यात्रा का प्रभावशाली वर्णन किया और ज़फर के मन में ऐसी यात्रा की इच्छा जागृत करने का प्रयास किया। कानपुर से उनकी यात्रा इलाहाबाद के लिए प्रारंभ हुई। यात्री, अंग्रेजों के शब्दों में कैदी, उस यात्रा से प्रसन्न थे। एक अधिकारी जार्ज वैगेण्ट्रीबर ने दिल्ली गजेट में लिखा, ''महिलाएं पर्दे के पीछे इसप्रकार बातें करतीं और हंसती हुई सुनाई दे रही थीं मानो उन्हें दिल्ली से प्रस्थान करने का कतई अफसोस नहीं था।'' कानपुर से प्रस्थान करने से पहले जीनत महल अपने पुत्र जवां बख्त पर ऊंची आवाज में चीखती उसे फटकारती हुई सुनी गई थीं। ओमनी के अनुसार इसका कारण जवां बख्त का अपने पिता की एक रखैल के इश्क में पड़ जाना था। मां की डांट-फटकार के बावजूद जवां बख्त ने पिता की उस रखेैल से इश्क लड़ाना बंद नहीं किया। इसने मां और पुत्र के संबधों को बेहद तनावपूर्ण बना दिया था। यही नहीं, जवां बख्त पारिवारिक आर्थिक संकट की परवाह न करते हुए अपने गार्डों को रिश्वत देकर उनसे शराब की बोतलें प्राप्त करता था, इस्लाम में जिसे वर्जित माना गया है। इससे बेटे के प्रति मां का क्रोध कम होने के बजाए बढ़ा ही था। प्रस्थान से पहले जीनत महल का ताज महल बेगम से भी झगड़ा हुआ था। कानपुर से इलाबाद जाते हुए भी झगड़ा होता रहा और जब वे इलाहाबाद के मुगलों के किले में पहुंचे, ताज महल बेगम ने किसी भी कीमत में निर्वासन में न जाकर दिल्ली वापस लौटने की घोषण्ाा कर दी। बादशाह की रखैलों, मिर्जा जवां बख्त की सास और साली ने भी ताज महल बेगम के साथ दिल्ली लौट जाने का निर्णय किया। परिणामत: पन्द्रह लोगों ने ज़फर के साथ कलकत्ता के लिए प्रस्थान किया था। 8 दिसम्बर को मागरा नामक जहाज से बादशाह और उनके दल ने अपने प्यारे वतन को अलविदा कह कलकत्ता से रंगून के लिए प्रस्थान किया। इस तरह बहादुरशाह ज़फर के जीवन का एक अध्याय समाप्त हुआ। कौन जानता है कि दिल्ली से कलकत्ता और कलकत्ता से रंगून की लंबी यात्रा के दौरान वे क्या सोचते रहे थे - अपने गौरवशाली पुरखों के बारे में? लाल किले और दिल्ली में गुजरे अपने बचपन और जवानी के दिनों के बारे में या क्रांति की उन आंधियों के बारे में जो सारे उत्तर भारत से उठकर उनके पास तक चली आई थीं? या वे आने वाले उन दिनों के बारे में सोच रहे थे जब दूर परदेश में गुमनाम रहकर मौत तक जीना होगा? 1857 का विद्रोह कुचला गया। अंग्रेजों ने निर्ममता से प्रतिशोध लिया। गांव के गांव जलाए गए। अवध के पेड़ टंगी लाशों से भर गए। खुद को सभ्यता का शिक्षक बताने वाले लुटेरों ने समूची दुनिया के इतिहास मे बर्बरतम हत्याएं कीं- जिनकी वास्तविक संख्या का कोई हिसाब नहीं हैं। विद्रोह के नेता मारे गए या तराई-वनों के जंगलों में बिला गए। दिल्ली की बराए-नाम मुगल सल्तनत भी इतिहास के सफों में आखिरी तौर पर सिमट गई। बस, हजारों मील के फासले पर, देश से दूर जलावतन बादशाह आखिरी घिड़ियां गिनता जिंदा था.... 7 नवम्बर, 1862 (शुक्रवार) की सुबह पांच बजे मुगल वंश के इस अंतिम सम्राट ने अपने देश से हजारों मील दूर रंगून की धरती पर अंतिम सांस ली और इस संसार को अलविदा कहा। उसी दिन शाम चार बजे उन्हें कब्र के हवाले कर दिया गया। डेविस ने इस बात का ख्याल रखा कि अंत्येष्टि के समय बहुत कम लोग उपस्थित रहें। उस समय उनके दोनों पुत्र उपस्थित थे, लेकिन मुस्लिम रिवाज के अनुसार कोई महिला नहीं थी। डेविस ने कब्र के चारों ओर कुछ दूरी पर बांस का बाड़ा बनवा दिया था और कब्र के ऊपर हरी घास छितरा दी थी, जिससे कोई यह न जान सके कि तीन सौ पचास वर्षों तक हिन्दुस्तान पर शासन करने वाली महान सल्तनत का अंतिम बादशाह वहां दफ्न है। डेविस ने लिखा कि ज़फर को कब्र में दफनाते समय कोई एक सौ दर्शक थे और ये वैसे ही लोग थे जैसे घुड़दौड़ देखने वाले या सदर बाजार घूमने जाने वाले लोग हों। ज़फर की मृत्यु से रंगून के मुसलमानों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा था। इस राजा की मृत्यु उनके लिए किसी आम व्यक्ति की मृत्यु जैसी ही थी। ****** 
 
अन्य महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य ऐसे काबिज हुए भारत में अंग्रेज अंग्रजों ने किस प्रकार भारत में अपने पैर पसारे यह जानना उतना ही आवश्यक है जितना अंतिम मुगल सम्राट की जीवन शैली। 31 दिसम्बर, 1599 को महारानी एलिजाबेथ प्रथम ने ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना की स्वीकृति पर हस्ताक्षर किए थे। कंपनी ने सूरत से व्यवसायिक गतिविधियां प्रारंभ कीं। उसने दिल्ली के मुगल सम्राट की अनुमति प्राप्त कर अन्य स्थानों में भी अपने व्यापारिक केन्द्र स्थापित किए। व्यापार के प्रयोजन से भारत आने वाली वह अंतिम योरोपीय कंपनी थी। 1448 में पुर्तगाली और 1595 में डच यहां आए थे। 1726 तक कंपनी ने लंदन के लीडल हॉल स्ट्रीट में अपना हेडक्वार्टर स्थापित कर लिया था और वह जॉन कंपनी (JOHN COMPANY) के नाम से जानी जाने लगी थी। 1750 जक बंगाल के पचहत्तर प्रतिशत वस्तुओं का प्रबंधन उसने अपने हाथ में ले निया था। अपने पैर जमाने के लिए कंपनी ने विदेशी प्रतिद्वद्वियों और देशी राजाओं के साथ निरंतर युध्द लड़े। 1757 में प्लासी, 1764 में बक्सर, 1767-69, 1780-84, 1790-92 और 1799 में उसे मैसूर के साथ युध्द लड़ने पड़े थे। प्लासी के युध्द के बाद कंपनी एक राजनैतिक शक्ति के रूप में उभरी थी। 1765 में कंपनी ने दिल्ली के मुगल सम्राट शाहआलम द्वितीय के साथ बिहार, बंगाल और उड़ीसा की दीवानी का अधिकार प्राप्त करने का करार किया। दीवानी का अर्थ था उन स्थानों से राजस्व उगाही करने का अधिकार। राबर्ट क्लाइव ने कंपनी की एक शक्तिशाली सेना की आवश्यकता अनुभव की, हालंांकि उससे पहले स्ट्रिंगर लारेंस 1748 में इस बात की शुरुआत कर चुका था। क्लाइव ने सेना में अवध और बिहार के राजपूतों और ब्राह्मणों को भर्ती किया। 1770 में तराई में कंपनी के विस्तार के बाद उसने पहाड़ी आदिवासियों को भी सेना में भर्ती करना प्रारंभ कर दिया। 1790 में ब्रिटिश सेना में एक लाख लोग भर्ती हो चुके थे। 1824 में यह संख्या एक लाख चौवन हजार और 1856 में 2,14,000 (दो लाख चौदह हजार) थी । अर्थात 1857 में जब क्रांति प्रारंभ हुई, अंग्रेजों के पास एक शक्तिशाली सेना थी। जब 1837 में विक्टोरिया ब्रिटेन की महारानी बनीं, लगभग सम्पूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप अ्रंग्रेजी राज्य का हिस्सा बना चुका था। नौ करोड़ भारतीयों पर पचास हजार अंग्रेज कर्मचारी शासन कर रहे थे। 1837 का वर्ष विश्व इतिहास में महत्वपूर्ण है। उस वर्ष एक ओर विक्टोरिया ब्रिटेन की महारानी बनीं तो दूसरी ओर मिर्जा अबू ज़फर दिल्ली के सम्राट। उन्होंने अबुल मुजफ्फर सिराजुद्दीन मोहम्मद बहादुरशाह बादशाह गाजी की उपाधि धारण की। मिली-जुली संस्कृति के पोषक ज़फर गालिब का मानना था कि यदि ईश्वर या खुदा व्यक्ति के अंदर निवास करता है तब उसे धार्मिक विधि-विधानों की अपेक्षा प्रेम से पाया जा सकता है और वह हिन्दू और मुसलमान - दोनों के लिए उपगम्य है। इसीलिए जब गालिब एक बार बनारस गए तब उन्होंने विनोदपूर्वक लिखा कि उनकी इच्छा सदा के लिए वहीं बस जाने की थी। वहां उनके हाथ में पवित्र धागा बांधा गया, माथे पर तिलक लगाया गया और उन्हें गंगा के किनारे बैठाकर यह कहा गया कि गंगा की एक बूंद भी उनके पापों का प्रक्षालन कर देगी। हिन्दुओं के प्रति बहादुरशाह ज़फर और उनके कुछ पूर्वजों का दृष्टिकोण गालिब से भिन्न नहीं था। हिन्दुओं के संरक्षण में ज़फर अपनी अहम भूमिका अनुभव करते थे। उनकी एक रचना में कहा गया है कि हिन्दू और मुस्लिम धर्मों का सार एक ही है। उनके दरबार में हिन्दू-मुस्लिम सभ्यता का समन्वित दर्शन प्राप्त होता था और दोनों ही समुदाय हर स्तर पर इस सभ्यता को बरकरार रखने का प्रयत्न करते थे। हिन्दू अभिजन हज़रत निजामुद्दीन की दरगाह में जाते थे, हाफ़िज को उध्दृत करते थे और फारसी कविताओं के प्रशंसक थे। उनके बच्चे, विशेषरूप से प्रशासकीय पदों पर आसीन खत्री और कायस्थों के बच्चे, मौलवियों से शिक्षा ग्रहण करते थे और उदारवादी मदरसों में जाते थे। यहां यह बताना अनुचित नहीं कि हिन्दुस्तान में कार्यरत आज के मदरसों और ज़फर के दौर में दिल्ली में अवस्थित मदरसों में बहुत बड़ा अंतर था। ज़फर के दौर की दिल्ली के मदरसों में अधिकांश उदारवादी और प्रगतिशील विचारों की शिक्षा दी जाती थी। आज की भांति उनमें कट्टरता नहीं थी। अनेक महान हिन्दू विचारक, और राजा राममोहन राय जैसे सुधारक उन मदरसों की ही देन थे। ज़फर के दरबारी दस्तावेज यह बताते हैं कि किस प्रकार ज़फर सोत्साह अपने दरबारियों, पत्नियों और रखैलों के साथ होली का त्योहार मनाते थे। इस त्योहार का शुभारंभ वह हिन्दू परम्परानुसार सात कुओं के पानी के स्नान से करते थे। तदनंतर वह सभी के साथ विभिन्न रंगों और गुलाल के साथ होली खेलते थे। हिन्दुओं के त्योहार दशहरा के अवसर पर महल में हिन्दू अधिकारीयों द्वारा उन्हें नज़राना भेंट किए जाते और शाही घोड़ों को रंगकर सजाया जाता था। रात में बहादुरशाह ज़फर रामलीला और रावण पर राम की विजय और रावण और मेघनाथ के पुतलों का जलाया जाना देखते। इस अवसर पर ज़फर शोभायात्रा के मार्ग का परिवर्तन भी सुझाते जिससे वह महल के हर कोने से होकर गुजरे और लोग उसका आनंद उठा सकें। दीपावली के दिन ज़फर सात प्रकार के आनाजों से अपने को तुलवाते और उसे गरीबों में बंटवाते थे। दस्तावेजों के अनुसार बहादुरशाह ज़फर हिन्दू भावनाओं के प्रति विशेष संवेदनशील थे। एक शाम जब वह यमुना किनारे घोड़े पर सवार हवाखोरी कर रहे थे- एक हिन्दू ने उनके सामने मुसलमान बनने की इच्छा व्यक्त की। ज़फर के प्रधानमंत्री हाकिम अहसानुल्ला खां ने निवेदन किया कि उस व्यक्ति के अनुरोध पर ध्यान देना उचित नहीं होगा। ज़फर ने उस व्यक्ति को वहां से हटवा दिया था। प्रतिवर्ष फूलवालों की सैर प्राचीन जोगमाया मंदिर और कुतुब साहिब के मकबरा महरौली में मनाया जाता (आज भी यह परंपरा जारी है) और ज़फर साहब उसमें शिकरत करते। लेकिन उन्होंने घोषणा कर रखी थी कि वह मकबरे में पंखे के साथ नहीं जाएगें, क्योंकि मंदिर में उसके साथ नहीं जाते थे। एक बार ईद के अवसर पर लगभग दो सौ मुसलमानों का दल ज़फर के पास गया। वे गाय काटने की अनुमति चाहते थे। दृढ़ और क्रुध्द स्वर में यह कहते हुए कि - ''मुसलमानों का धर्म गोवध पर निर्भर नहीं है।'' ज़फर ने गोवध की अनुमित नहीं दी थी। ऐसी थी तब दिल्ली बहादुरशाह ज़फर के समय में पूरे हिन्दुस्तान में दिल्ली के मदरसों की प्रतिष्ठा थी। दूर-दूर से युवक वहां पढ़ने के लिए आते थे। पानीपत के एक युवा कवि उनसे इतना प्रभावित थे कि उन्होंने अपना घर त्याग दिया और खाली जेब पैदल ही दिल्ली जा पहुंचे। ये थे अल्ताफ हुसैन हाली। हाली अपनी शादी छोड़ रात के अंधेरे में दिल्ली के लिए भाग खड़े हुए थे। इसके लिए उन्हें अनेक कष्ट उठाने पड़े, लेकिन उनके मन में दिल्ली के मदरसों में पढ़ने की चाहत थी। बाद में उन्होंने लिखा, ''घर में सभी चाहते थे कि मैं कोई काम करूं, लेकिन में पढ़ने के लिए बेचैन था।'' दिल्ली उन दिनों बौध्दिकों का केन्द्र थी और 1850 के आसपास सांस्कृतिक स्तर पर वह सभी को आकर्षित कर रही थी। उन दिनों दिल्ली में छ: बड़े और चार छोटे मदरसे थे और उर्दू और फारसी के नौ अखबार निकलते थे। दिल्ली कॉलेज से पांच बौध्दिक जर्नल प्रकाशित होते थे। अगणित प्रकाशक थे और कम से कम एक सौ तीस यूनानी डाक्टर थे। पाश्चात्य विज्ञान की अनेक महत्वपूर्ण खोजों का अरबी और फारसी में अनुवाद किया गया था और अधिकांश कॉलेजों और मदरसों में बौध्दिक खुलापन सुस्पष्ट था। गालिब, जोक, साहबई, और अज़ुर्दा जैसे बौध्दिक और कवि तब दिल्ली में मौजूद थे। ''सौभाग्य से, ''हाली ने लिखा, ''उन दिनों राजधानी दिल्ली के प्रतिभासंपन्न लोगों का मिलना और एकत्र होना अकबर और शाहजहां के दौर की याद ताजा कर देता था।'' हाली का परिवार उन्हें खोजकर वैवाहिक बंधन में बांधने में सफल होता उससे पहले ही वह हुसैन बख्श के विशाल और खूबसूरत मदरसा में प्रवेश पाने में सफल रहे थे। अपनी वृध्दावस्था में उन्होंने लिखा, ''मैंने उस वैभवशाली मदरसा की अंतिम बुझती लौ अपनी आंखों से देखी थी और यह सोचकर दुख से मेरा हृदय फटा जा रहा है।'' उन दिनों चांदनी चौक के दुकानदार ठीक नौ बजे सुबह अपनी दुकानें खोल देते थे। सबसे पहले वे भिखारियों को कुछ दान देते जो उनकी दुकानों के सामने से अपने कटोरों में सिक्के खनखनाते घूमते हुए निकलते थे। उनमें दिल्ली के कुछ 'पवित्र पागल' कहे जाने वाले स्त्री-पुरुष भिखारी भी होते थे। ऐसे पागलों में एक दीन अली शाह और बाई जी अधिक प्रसिध्द थे, जो अपनी सुध-बुध खोए चांदनी चौक में घूमते रहते थे । ******

लघुकथाएं

चित्र - अजयसिंह पील्वा



डॉ० मधु सन्धु की तीन लघुकथाएं

लिव इन

दोनों अपने अपने क्षेत्र में माहिर थे. आभिजात्य उनपर चारों तरफ से लिपटा हुया था. घर के बाहर दोनों एकदम मर्दाना होते और घर के अन्दर जनाना.

बाहर लम्बी गाडिया ड्राइव करते , कंप्यूटर पर बात कर प्रोजेक्ट बंकते, मीटिंग कर कर्मचारियों अधिकारियों को संबोधित करते , नित्य नए ट्रिप पर जाते, शाम को अलग अलग दोस्तों के साथ कैफे ,पिक्चर ,रेस्टोरेंट में घूमते.

अन्दर आते ही दोनों किचन में घुस जाते. वह आटा मलता, वह चपाती सेंक देती. वह दूध उबालता, वह फ्रिज की साफ़ सफाई में जुट जाती. वह बिखरी चीजे संभालता, वह कबेट में संबाल देती.

दोनों में पूरी अंडर स्टेंडिंग थी. दोनों खुश थे और इस जीवन से संतुष्ट भी . सास ननद के तानो तथा बीवी की हिदायतों की जगह हाई टेक संगीत चलता . सिन्दूर की जगह कंपनी की स्मार्ट ड्रेस और कैप ने तथा मंगलसूत्र की जगह गले में लटकते शिनाख्ती पत्र ने ले ली थी.

दोनों निजी कंपनियों में कार्यरत थे. लड़का चार और लड़की तीन कम्पनियां बदल चुके थे वेतन वृद्धि के इन्तजार की अपेक्षा उन्हें नई नोकरी ज्यादा सुविधा जनक लगती थी. लड़का इससे पहले हैदराबाद , मैसूर, गुडगाँव आदि में और लड़की बंगलौर नॉएडा वगैरह में रह चुकी थी. लिव -इन में रहना उन्हें अच्छा लगता था और सोभाग्य से उन्हें अच्छे साथी मिलते रहे थे . दोनों विदेश यात्राओं पर भी रहते. लड़का सिंगापुर आस्ट्रलिया और लड़की इटली, अमेरिका घूम चुके थे.

सब से बड़ी बात कि दोनों आज़ाद थे. गृहस्थ के कारावास, सात फेरों वाले अटूट बंधन और बंधी नोकरी की बासी रूटीन से दोनों बहुत आगे निकल चुके थे.

पहिया जाम

सीधे स्पष्ट नियम थे उसके. इस हाथ दे, उस हाथ ले. उसने आज के काम एक कागज़ पर लिखे , तरतीब दी और चल दिया . वह था तो एक मामूली क्लर्क, पर विभाग में उसका दर्जा अलादीन के चिराग सा था. बाद दोइअहर तीन से पांच तक का समय प्रबंधकीय ब्लाक में ही बीतता .

डॉ. सहगल के भांजे के एम. टेक. के परिक्षा परिणाम इरक करके उसने वहीं से फोने कर दिया- साहब जी रिजल्ट अभी अभी कंप्यूटर पर चढ़ा है .उसके अंक ४२,६६,८३ और ३० हैं . एक पेपर में रिअपीयर है . मैं आते आते रिअपीयर का फार्म लेता आऊंगा .

एक छात्र की माइग्रेशन फाइल गर्ग दबा कर बैठा था . उसने गर्ग को बेटे के पास होने की बधाई दी . विभाग के पिछले फंक्शन से बचे दो वी. आई. पी. पेन भेंट किये . दो मीठी दोस्ताना बातें की , एक आध चुटकला सुनाया और फाइल मूव करवा ली.

गुप्ता सर के तीन बिल आडिट में फंसे थे . वह झटपट पांचवें माले की सीढियां चढ़ गया . आडिट वालों का इंतजाम करके आया था. उसे सब रेट मालूम थे . बंद लिफाफा ही साहब के पेपरवेट के नीचे रखा और फाइल को पहिए लग गए . अभ वह फ्री था, सुर्खरू था.

काल गति, समय चक्र कब एक सा रहता है .जैसे सब के दिन फिरते हैं , वैसे इस पूरी दुनिया के दिन भी फिर गए .
अब वह निश्चिन्त बैठा था. न किसी का रिजल्ट लाने की चिंता थी, न आडिट का बिल पास करवाने की, न जुए-खाने का हर काम करने की, न विनम्रता बांटने की .

क्योंकि अब बॉस ने न केवल उसे रिश्वत/ मेहताना लेते रंगे हाथों पकड़ा था, बल्कि सस्पेंशन के आर्डर निकलवाने , प्रेस में खबर देने , लम्बी छुट्टी पर भेजने की भी धमकी दी थी .. किसी तरह पगड़ी उनके पाँव पर रख कर उसने अपनी इज्जत और नोकरी तो बचा ली , पर अब विभाग में पहिया जाम सा हो गया था . हर काम ठहर गया था, रुक गया था.

अवार्ड

एम. एस. सी. दस आठवें पेपर यानी प्रोजेक्ट के लिए उसे दिन रात एक करना पड़ा . वेब साईट से बहुत कुछ डाउन लोड किया, पढ़ा , समझा. लेब में बारह बारह घंटे की सिटिंग दी. जुनीयर्ज की चिरोरी करते उन्पाज एक्सपेरिमेंट्स किये. ढेरों प्रेजेंतेशंस बनाये . टाइपिंग , एडिटिंग -बस एक ही इच्छा थी- काम सुपर हो.

सीडी बनाई .डा गिल उसे अमेरिका भेज रहे हैं.... मेरे रिसर्च पेपर को.... ऐसा उद्वेलन . पहला नए डा गिल का, दुसरा मेरा यानी रिसर्चर का. जब डेढ़ वर्ष बाद पुस्तकालय में देखा तो पेपर तो वही था पर उस पर नाम गाइड डा गिल और अध्यक्ष डा राणा के थे. और जब अवार्ड की घोषणा हुई तो लेने डा राणा गए.
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डा. मधु संधु, गुरु नानक देव विश्व विधालय , अमृतसर

मंगलवार, 30 नवंबर 2010

वातायन-दिसम्बर,२०१०



हम और हमारा समय

२०१०-२०११ हिन्दी के चार महान कवियों के जन्म- शती के रूप में मनाया जा रहा है . ये कवि हैं अज्ञेय, केदारनाथ अग्रवाल, बाबा नागार्जुन और शमशेर बहादुर सिंह. इनके साथ एक नाम और जुड़ता है फैज़ अहमद फैज़ का. फैज़ की लिपि भले ही उर्दू थी, लेकिन हम उन्हें हिन्दी का कवि ही मानते हैं . इसप्रकार यह काल पांच महान कवियों का जन्म-शती वर्ष है. लेकिन हिन्दी की दुर्भाग्यपूर्ण राजनीति के चलते कुछ आभिजात्य साहित्यकार केवल अज्ञेय और शमशेर की जन्म-शती ही मनाने की बात कर रहे हैं और शेष को हासिए पर डालने के उनके प्रयास जारी हैं. उनके दुरभिसंधिपूर्ण प्रयासों के बावजूद
देश के अनेक शहरों और कस्बों में नागार्जुन, केदार और फैज़ के चहेते अपने स्तर पर उन पर केन्द्रित कार्यक्रम कर रहे हैं. ऎसी स्थिति में सादतपुर कैसे पीछे रह सकता था, जहां जीवन के अंतिम दस-ग्यारह वर्षों तक नागार्जुन की आवाज गूंजती रही थी और जहां की गलियां उनके पगचिन्हों को आज भी अपने सीने पर सहेजे हुए हुए हैं. सादतपुर का हर घर बाबा का अपना घर था और गली नम्बर दो में उनका अपना मकान होते हुए भी कभी-कभी कई-कई दिन वह किसी साहित्यकार के घर बने रहते थे. उस घर के किचन से लेकर चौबारे तक बाबा का आधिपत्य होता था . प्रतिदिन सुबह आठ बजे आप
ना डंडा ले वह घर से निकलते और चित्रकार-साहित्यकार हरिपाल त्यागी के घर तक पांच गलियां मंझाते हुए सभी साहित्यकारों-पत्रकारों के दरवाजे पर दस्तक देते घूम आते. मन होता तब किसी के घर कुछ देर बैठ लेते. घर के सुख-दुख जानते-समझते और समझाते ,हंसते और हंसाते और चाय पीकर उठ जाते. सादतपुर रहते हुए बाबा का यह सिलसिला अबाध चलता रहता. शाम के समय बाबा को रमाकांत जी के पास बैठे देखा जा सकता था. वहीं कवि विष्णुचन्द्र शर्मा भी पहुंच जाते और दूसरे लोग भी .
यहां यह बताना आवश्यक है कि सादतपुर दिल्ली के उत्तर-पूर्व में बसी वह बस्ती है जहां १९७१ में सबसे पहले कथाकार स्व. रमाकांत आ बसे थे. रमाकांत जी ने अनेक साहित्यकारों और पत्रकारों को यहां आ बसने के लिए प्रोत्साहित किया. उनके बाद यहां आने वालों में हैं विष्णुचन्द्र शर्मा, सुरेश सलिल, महेश दर्पण, स्व.माहेश्वर, बाबा नागार्जुन, हरिपाल त्यागी, धीरेन्द्र अस्थाना, बलराम, वीरेन्द्र जैन, रामकुमार कृषक, सुरेन्द्र जोशी, अरविन्द सिंह -----यह सिलसिला आज भी जारी है. आलोचक मुरलीमनोहर प्रसाद सिंह-रेखा अवस्थी , पत्रकार अजेय सिंह और कथाकार- चितंक भगवान सिंह ने भी यहां जमीनें खरीदीं थीं, लेकिन यहां बसे नहीं.

दिल्ली के नक्शे में भले ही सादपुर खोजना कठिन हो लेकिन यह एक ऎसी बस्ती है जो पूरे देश में ही नहीं दुनिया के कुछ अन्य देशों में भी साहित्यकारों-पत्रकारों की बस्ती के रूप में जानी जाती है. यह दिल्ली के साहित्यिक-सांस्कृतिक केन्द्र के रूप में प्रख्यात है. साहित्यिक गोष्ठियों और समाराहों की मजबूत परम्परा रही है यहां और आज भी व्यस्ततम जीवनचर्या के बावजूद यहां साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता रहता है. साहित्यिक मेल-मिलाप का जो सिलसिला रमाकांत जी के समय से प्रारंभ हुआ था वह आज भी चल रहा है. ऎसी ही एक बैठक के दौरान हरिपाल त्यागी, रामकुमार कृषक और महेश दर्पण
ने यह निर्णय लिया कि सादतपुर में नागार्जुन जन्मशती समारोह का आयोजन किया जाना चाहिए . इन तीनों ने ही इस कार्यक्रम के सफल आयोजन के लिए अथक प्रयास किए , जिसमें यहां के सभी साहित्यकारों-पत्रकारों का इन्हें भरपूर सहयोग मिला. हरिपाल त्यागी ने बाबा की कविताओं (बांग्ला कविताओं सहित) के २८ पोस्टर और बाबा का एक तैलचित्र बनाया.

२१ नवम्बर,२०१० (रविवार) को अंततः सादतपुर के जीवन ज्योति हायर सेकण्डरी स्कूल में दोपहर दो बजे से शाम सात बजे तक यह समारोह सम्पन्न हुआ, जिसमें बनारस से वाचस्पति
बरेली से सुधीर विद्यार्थी सम्मिलित हुए. दिल्ली के कोने-कोने से ही नहीं गाजियाबाद, बिजनौर, फरीदाबाद, गुड़गांव आदि दूरस्थ स्थानों से भी साहित्यकार –पत्रकार आए .

प्रस्तुत है समारोह की विस्तृत रपट और साथ में बाबा नागार्जुन की छः कविताएं .
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नागार्जुन-जन्मशती समारोह - एक रपट

सुबह सात बजे का समय. सादतपुर की गली नं. २ का ’यात्री निवास’ --- बाबा नागार्जुन का घर जहां आज उनके पुत्र श्रीकांत रहते हैं . हमें वहां एकत्र होना था. दस मिनट के अंदर सादतपुर
और उसके आस-पास क्षेत्र में रहने वाले सभी साहित्यकार-पत्रकार, आमजन, बड़ी संख्या में किशोर और बच्चे एकत्र हो गये . सवा सात बजे “’अमल-धवल गिरि के शिखरों पर, बादल को घिरते देखा है , सादतपुर की इन गलियों ने , बाबा को चलते देखा है.” नारे की अनुगूंज के साथ प्रभातफेरी प्रारंभ हुई. इस नारे की पहली दो पंक्तियां बाबा की एक कविता की हैं, जिनके साथ बाद की दो पंक्तियां राककुमार कृषक ने अपनी जोड़ दी हैं.

बाबा की एक अन्य कविता की तीन पंक्तियां लेकर एक और नारा अकाश में गूंज रहा था –
"नए गगन में , नया सूर्य जो चमक रहा है, मेरी भी आभा है इसमें.”

तीसरा नारा था रामकुमार कृषक द्वारा निर्मित पंक्तियां :

“दुनिया कहती दुनिया-भर के , मैं कहता सादतपुर के हैं, बाबा अधुनातन पुरखे हैं.”


उपरोक्त तीनों नारे लगभग दो घण्टे तक सादतपुर की गलियों को गुंजायमान करते रहे. प्रभातफेरी का कारंवा आगे बढ़ता रहा और नए चेहरे जुड़ते रहे. पूरे सादतपुर का चक्कर लगाकर प्रभातफेरी का समापन ’यात्री निवास’ में हुआ.

मुख्य समारोह दोपहर दो बजे गली नं. तीन स्थित जीवन ज्योति हायर सेकण्डरी स्कूल के प्रांगण में हुआ. बाबा कितने गहरे जन-सरोकारों वाले कवि थे यह समारोह इस बात को प्रमाणित कर रहा था. इस कार्यक्रम में न केवल नागार्जुन के रचनात्मक अवदान पर गंभीर चर्चा हुई, बल्कि उनकी रचनाओं को कला, संगीत, फिल्म, पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों के माध्यम से भी उपस्थित किया गया. प्रभातफेरी से लेक शाम को फिल्म-प्रदर्शन तक चले इस शताब्दी समारोह का आयोजन ’सादतपुर साहित्य समाज’ ने किया था, जिसमें सादतपुर के नागरिकों तथा दिल्ली और दिल्ली के बाहर से आए अनेक सुप्रतिष्ठ लेखकों, कलाकारों और पत्रकारों ने भाग लिया.

कार्यक्रम की शुरुआत हरिपाल त्यागी द्वारा बनाए नागार्जुन के भव्य तैलचित्र और उनकी कविताओं के २८ पोस्टरों के उद्घाटन-अनावरण से हुई. अनावरण श्रीमती कमलिनी दत्त, कु. कणिका , डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी, डॉ. भगवान सिंह , वाचस्पति, उमेश वर्मा, कुबेरदत्त आदि के हाथों हुआ.

उद्घाटन-अनावरण के बाद नागार्जुन की कुछ कविताओं की स्वरबद्ध प्रस्तुति इस समारोह की विशॆष उपलब्धि रही. प्रस्तोता थीं लेडी श्रीराम कॉलेज में हिन्दी प्राध्यापक डॉ. प्रीति प्रकाश प्रजापति. उनका काव्य-गायन सभी के लिए अविस्मरणीय अनुभव रहा. इसके बाद सादतपुर के कुछ वरिष्ठ और युवा नागरिकों ने बाबा के साथ जुड़ी अपनी यादों को ताजा किया.

अगला सत्र था नागार्जुन का महत्व-मूल्यांकन . इसमें सर्वप्रथम बोलते हुए सुप्रसिद्ध समालोचक डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी ने कहा कि नागार्जुन की जन्मशती सारे देश में मनाई जा रही है. लेकिन सादतपुर में इसका मनाया जाना विषेष महत्व रखता है. यह
समारोह तरौनी(बाबा का गांव) में मनाए गए समारोह से कम महत्वपूर्ण नहीं है. उन्होंने कहा कि उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर विचार करना आज की जरूरत है.बाबा का फोटो आपने किसी राजनेता के साथ नहीं देखा होगा. यहां आप यह विचार कीजिए कि आज जो प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं, वे किनसे मिलते हैं और नागार्जुन किनसे मिलते थे. बाबा को हिन्दी में साहित्य अकादमी पुरस्कार नहीं मिला. यह पुरस्कार की परंपरा और मान्यता पर गहरा व्यंग्य और कटाक्ष है. वे वंचितों के कवि थे. डॉ. त्रिपाठी ने ’अकाल और उसके बाद’ शीर्षक कविता के हवाले से कहा कि ’सामयिक’ को ’कालजयी’ कैसे बनाया जाता है, यह बाबा से सीखा जा सकता है. आज ऎसी कविता की बड़ी जरूरत है. उन्होंने कहा कि जनवादी संवेदना की अभिव्यक्ति के लिए जनवादी शिल्प की जरूरत होती है. उसे साधना कठिन है, लेकिन इसे साधे बिना क्लैसिक कविता नहीं रची जा सकती. जनवादी साहित्य में क्लैसिक क्या है, यह नागार्जुन से सीखना होगा.

वरिष्ठ कवि विष्णुचन्द्र शर्मा ने इस अवसर पर नागार्जुन शीर्षक अपनी कविता का पाठ किया और सुप्रसिद्ध समालोचक मुरली मनोहर प्रसाद सिंह ने बाबा के कुछ संस्मरण सुनाते हुए कहा कि एक बार दिनकर जी ने मुझसे कहा कि बाबा उनसे मिल लें. मैंने बाबा से जब यह कहा तो वे बहुत नाराज हुए और पूछा कि तुमने दिनकर को क्या जवाब दिया ? मैं चुप. बाद में जब दिनकर जी ने बाबा की नाराजगी के बारे में जाना तो वे खुद उनसे मिलने आए और उनसे माफी मांगी. उन्होंने कहा कि यह एक जनकवि का स्वाभिमान था. मुरली बाबू ने बाबा की कविता में विवधता पर भी प्रकाश डाला और उनकी प्रगतिशील प्रयोगवादिता पर भी. रेखा अवस्थी का कहना था कि वर्ग चेतना के नाते बाबा ने जो रास्ता दिखाया है, उस पर हमें ध्यान देना चाहिए. वरिष्ठ व्यंग्य लेखक प्रदीप पंत ने कहा कि ’अज्ञेय’ जहां अपने लेखन और साहित्य में अभिजात हैं, वहीं नागार्जुन उनसे एकदम दूर खड़े दिखाई देते हैं .यह एक ही समय में मौजूद दो कवियों का ध्यान देने योग्य अंतर है.

क्रान्तिकारी आंदोलन की शोध-खोज करनेवाले सुपरिचित लेखक सुधीर विद्यार्थी ने अपने मार्मिक संस्मरण सुनाते हुए कहा कि बाबा में दूसरी भाषाओं और दूसरों से सीखने की जो अद्भुत ललक थी, उसमें वे बच्चों से भी सीखते थे. उन्होंने जो कुछ रचा, वह बंद कमरों में बैठकर नहीं रचा. सुप्रसिद्ध चितंक और कथाकार भगवान सिंह ने नागार्जुन की कविताओं का उल्लेख करते हुए उन्हें हमारे काव्येतिहास का अत्यंत महत्वपूर्ण कवि कहा. बाबा के परम आत्मीय रहे लेखक-प्राध्यापक वाचस्पति ने उनकी घुमक्कड़ी के कुछ दिलचस्प संस्मरण सुनाए. कथाकार संजीव ने बाबा के वात्सल्य भाव और उनकी जीवंतता को लेकर संस्मरण सुनाए. कहा कि बाबा सबको डांटते जरूर थे, पर स्वयं भी डांट खाने का अवसर जुटा लेते थे. लेकिन इसके पीछे उनके व्यक्तित्व की विशिष्टताएं ही थीं. घन्नासेठों की तो परछाईं तक से वे बचते थे.

समारोह के अंतिम चरण में नागार्जुन केन्द्रित दो महत्वपूर्ण फिल्मों का प्रदर्शन किया गया. इनमें से एक का निर्माण साहित्य अकादेमी और दूसरी का एन.सी.ई.आर.टी ने किया है. समारोह के विभिन्न सत्रों का संचालन क्रमशः रामकुमार कृषक और महेश दर्पण ने किया.

इस समारोह में बड़ी संख्या में लेखकों ने अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई. उनमें से कुछ नाम हैं – वरिष्ठ कवि दिनेश कुमार शुक्ल (गुड़गांव) , वरिष्ठ कथाकार रमेश उपाध्याय, कवि गिरधर राठी , बली सिंह , भारत भारद्वाज, त्रिनेत्र जोशी, प्रकाश मनु (फरीदाबाद), दिविक रमेश (नोएडा), भारतेन्दु मिश्र, रमेश प्रजापति, दरवेश भारती, मधुवेश, सुधीर सुमन, प्रेम जनमेजय, श्याम सुशील, वरुण कुमार तिवारी, क्षितिज शर्मा, संजीव ठाकुर (गाजियाबाद) , रमेश आजा़द, आचार्य सारथी, मणिकांत ठाकुर, प्रकाश प्रजापति, अनुराग, आशीष, पूर्वा दत्त, सीमा ओझा, जितेन्द्र जीत, रेखा व्यास, दिलीप मंडल आदि.

*****

कविताएं





नागार्जुन की छः कविताएं


जेष्ठ पूर्णिमा, १९११ - ५.११.१९९८
(१)

कालिदास

कालिदास, सच-सच बतलाना !
इंदुमती के मृत्युशोक से
अज रोया या तुम रोए थे ?
कालिदास, सच-सच बतलाना

शिवजी की तीसरी आंख से
निकली हुई महाज्वाला में
घृतमिश्रित सूखी समिधा-सम
कामदेव जब भस्म हो गया
रति का क्रंदन सुन आंसू से
तुमने ही तो दृग धोए थे ?
कालिदास, सच-सच बतलाना
रति रोई या तुम रोए थे ?

वर्षा रितु की स्निग्ध भूमिका
प्रथम दिवस आषाढ़ मास का
देख गगन में श्याम घन-घटा
विधुर यक्ष का मन जब उचटा
खड़े-खड़े तब हाथ जोड़कर
चित्रकूट के सुभग शिखर पर
उस बेचारे ने भेजा था
जिनके ही द्वारा संदेशा
उन पुष्करावर्त मेघों का
साथी बनकर उड़नेवाले
कालिदास,सच-सच बतलाना
परपीड़ा से पूर-पूर हो
थक-थककर औ’ चूर-चूर हो
अमल-धवल गिरि के शिखरों पर
प्रियवर, तुम कब तक सोए थे ?
रोया यक्ष कि तुम रोए थे ?
कालिदास, सच-सच बतलाना

(१९३८)



(२)

बहती है जीवन की धारा

बहती है जीवन की धारा !
मलिन कहीं पर विमल कहीं पर,
थाह कहीं पर अतल कहीं पर .
कहीं उगाती, कहीं डुबोती,
अपना दोनों कूल-किनारा .

बहती है जीवन की धारा !

तैर रहे कुछ सीख रहे कुछ
हंसते हैं कुछ, चीख रहे कुछ.
कुछ निर्भर हैं लदे नाव पर
खेता है मल्लाह बिचारा.

बहती है जीवन की धारा !

सांस-सांस पर थकने वाले,
पार नहीं जा सकने वाले .
उब-डुब उब-डुब करने वाले ,
तुम्हें मिलेगा कौन सहारा .

बहती है जीवन धारा !
(१९४१)



(३)

सिन्दूर तिलकित भाल

घोर निर्जन में परिस्थिति ने दिया है डाल !
याद आता तुम्हारा सिंदूर तिलकित भाल !
कौन है वह व्यक्ति जिसको चाहिए न समाज ?
कौन है वह एक जिसको नहीं पड़ता दूसरे से काज ?
चाहिए किसको नहीं सहयोग ?
चाहिए किसको नहीं सहवास ?
कौन चाहेगा कि उसका शून्य में टकराय यह उच्छ्वास ?
हो गया हूं मैं नहीं पाषाण
जिसको डल दे कोई कहीं भी
करेगा वह कभी कुछ न विरोध
करेगा वह कुछ उअहीं अनुरोध
वेदना ही नहीं उसके पास
फिर उठेगा कहां से निःश्वास
मैं न साधारण, सचेतन जंतु
यहां हां—ना—किन्तु और परन्तु
यहां हर्ष-विषाद-चिंता-क्रोध
यहां है सुख-दुःख का अवबोध
यहां हैं प्रत्यक्ष औ’ अनुमान
यहां स्मृति-विस्मृति के सभी के स्थान
तभी तो तुम याद आतीं प्राण,
हो गया हूं मैं नहीं पाषाण !
याद आते स्वजन
जिनकी स्नेह से भींगी अमृतमय आंख
स्मृति-विहंगम की कभी थकने न देगी पांख
याद आता मुझे अपना वह ’तरउनी’ ग्राम
याद आतीं लीचियां, वे आम
याद आते मुझे मिथिला के रुचिर भू-भाग
याद आते धान
याद आते कमल, कुमुदिनि और तालमखान
याद आते शस्य-श्यामल जनपदों के
रूप-गुण-अनुसार ही रक्खे गये वे नाम
याद आते वेणुवन वे नीलिमा के निलय, अति अभिराम

धन्य वे जिनके मृदुलतम अंक
हुए थे मेरे लिए पर्यंक
धन्य वे जिनकी उपज के भाग
अन्न-पानी और भाजी-साग
फूल-फल औ’ कंद-मूल, अनेक विध मधु-मांस
विपुल उनका ऋण , सधा सकता न मैं दशमांश
ओग, यद्यपि पड़ गया हूं दूर उनसे आज
हृदय से पर आ रही आवाज-
धन्य वे जन, वही धन्य समाज
यहां भी तो हूं न मैं असहाय
यहां भी व्यक्ति औ’ समुदाय

किन्तु जीवन-भर रहूं फिर भी प्रवासी ही कहेंगे हाय !
मरूंगा तो चिता पर दो फूल देंगे डाल
समय चलता जायगा निर्बाध अपनी चाल
सुनोगी तुम तो उठेगी हूक
मैं रहूंगा सामने (तस्वीर में) पर मूक
सांध्य नभ में पश्चिमांत-समान
लालिमा का जब करुण आख्यान
सुना करता हूं, सुमुखि उस काल
याद आता तुम्हारा सिंदूर तिलकित भाल !

(१९४३)

(४)

कांग्रेस तो तेणे कहिए-----

कांग्रेसजन तो तेणे कहिए, जे पीर आपणी जाणे रे
पर दुःख में अपना सुख साधे, दया भाव न आणे रे
तीन भुवन मां ठगे सभी को, शरम न राखे केनी रे
टोपी-कुर्ता-धोती खद्दर, धन-धन जननी तेनी रे
समदर्शी बनी लज्जा त्यागे, सुदृढ़ तिरंगी ढाले रे
जिह्वा थकी, सत्य ना बोलै, पर धन अपनो माने रे
माया-मोह न छूटे छन-भर, लोभ बस्यो जेहि मनमां रे
जैसे-तैसे वोट बटोरे, पिछली कीर्ति बखाणै रे
बड़े-बड़े सेठन के हितमां, अपणा हित पहचाणे रे
भूखे रखि-रखि लाख जनन को, हौले-हौले मारे रे
भण नर सैंया कमा-कमा नित कुल इकहत्तर तारे रे
कांग्रेसजन तो तेणे कहिए-----

१७ दिसम्बर, १९५१







(५)

आओ, इसे जिन्दा ही कब्र में गाड़ दें !

शांति का हिरन, अहिंसा की गाय –
बाघ ने दोनों को दबोच लिया हाय !
किसका हिरन, किसकी गाय ?
नेहरू का हिरन, गाय गांही की थी हाय !
कौन था बाघ, कौन था खूंखार ?
माओ-चाओ-शाओ की कम्युनिस्ट सरकार !
दुख हुआ मार्क्स को, स्टालिन मुसकाया !
गांधी के मुंह पर फीकापन छाया !!

चेहरा तिलक-सुभाष का तमतमाया---
भगतसिंह की आंखों में खून उतर आया !

लहू की सिंचाई है, अमन की खेती है---
लेनिन की लाश जंभाई नहीं लेती है !
सपने इन्कलाब के यहां-वहां भर गया ;
वो माओ कहां है ? वो माओ मर गया !!
यह माओ कौन है ? बेगाना है यह माओ !
आओ, इसको नफ़रत की थूकों में नहलाओ !!

आओ, इसके खूनीं दांत उखाड़ दें !
आओ, इसे जिंदा ही कब्र में गाड़ दें !!

(धर्मयुग, २६ जनवरी, १९६३)

(६)

भारत-भूमि में प्रजातंत्र का बुरा हाल है

लालबहादुर नीचे, ऊपर कामराज है
इनक़िलाब है नीचे, ऊपर दामराज है
दम घुटता है लोकसभा के मेंबरान का
बन जाए न अचार कहीं इस संविधान का !
लौह-पुरुष के चार शीश हैं, आठ हाथ हैं
देख रहा वह कोटि-कोटि जन कहां साथ हैं
अन्न-संकट में अस्सी प्रतिशत म्ख कुम्हलाए
इन आंखों की चमक कौन फिर वापस लाए !
जंतर-मंतर में नेहरू की रूह कैद है
पता न चलता क्या काला है, क्या सुफ़ेद है !
कहां गया मेनन, मुरार जी क्यों हैं गुमसुम
वह उंगली क्या हुई, कहां है गीला कुमकुम ?

कामराज क्या दामराज है ?
दामराज क्या रामराज है ?
रामराज क्या कामराज है ?
कामराज क्या दामाराज है ?

क्या चक्कर है –
जनता मुझसे पूछ रही है, क्या बतलाऊं ?
जनकवि हूं मैं साफ़ कहूंगा, क्यों हकलाऊं ?
नेहरू को तो मरे हुए सौ साल हो गए
अब जो हैं वो शासन के जंजाल हो गए
गृह-मंत्री के सीने पर बैठा अकाल है
भारत-भूमि में प्रजातंत्र का बुरा हाल है !

(जनशक्ति, २१ फरवरी १९६५)

सोमवार, 4 अक्तूबर 2010

वातायन - अक्टूबर, २०१०





3 अक्टूबर , 2010 के जनसत्ता में प्रकाशित वरिष्ठ कवि-पत्रकार राजेन्द्र उपाध्याय के आलेख - ‘हड़बड़ी में गड़बड़ी’’ पढ़कर पुराने दिनों की याद ताजा हो गयी । बात 1983 के प्रारंभिक दिनों की है । नवंबर, 1982 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा जी के निवास में मेरे संयोजन में एक सफल बालसाहित्य कार्यक्रम का आयोजन हुआ था । उससे मैं अत्यंत उत्साहित था । एक दिन दिल्ली के एक वरिष्ठ बालसाहित्यकार ने, जो एक बाल पत्रिका में कार्यरत थे, मेरे सामने एक योजना प्रस्तुत की। योजना आकर्षक थी ।
‘‘क्यों न हमलोग साहित्य अकादमी जैसी एक ‘केन्द्रीय बालसाहित्य अकादमी ’ स्थापित करें ।’’ उन्होंने कहा ।
मैं जानता था कि यह एक कठिन कार्य था, लेकिन उत्साह था । बालसाहित्य अकादमी कैसे स्थापित हो इस पर हमने घण्टों विचार किया । एक दिन जामा मस्जिद के सामने के सुभाष पार्क में कई घण्टे हम उसके प्रारूप पर चर्चा करते रहे और यह तय कर लिया कि कौन सचिव होगा और कौन अध्यक्ष । कितने और कितनी राशि के पुरस्कार दिए जाएगें और पुरस्कारों के निर्णय कैसे होगें । सरकार से किस प्रकार सहायता प्राप्त की जाएगी । लेकिन हस्र हमें पहले से ही ज्ञात था और सुभाष पार्क की बैठक के बाद न ही हम दोनों मिले और न ही फोन पर उस पर चर्चा की । बात आई गई हो गयी । लेकिन यह चर्चा कभी समाप्त नहीं हुई कि बाल साहित्यकारों के लिए साहित्य अकादमी जैसी कोई केन्द्रीय अकादमी अवश्य होनी चाहिए । पिछले दिनों जब यह सुना कि साहित्य अकादमी ने अब बाल साहित्य के लिए भी पुरस्कार देने का निर्णय किया है तब अच्छा लगा था । लेकिन राजेन्द्र उपाध्याय के आलेख ने इस पर जो प्रश्नचिन्ह लगाए हैं वे गंभीर और विचारणीय हैं । अपनी ओर से इस विषय में कुछ न कहकर मैं उस आलेख को वातायन के ‘हम और हमारा समय’ के अंतर्गत पाठकों के विचारार्थ प्रस्तुत कर रहा हूं ।
इसके अतिरिक्त इस अंक में प्रस्तुत है स्व. कन्हैयालाल नन्दन पर मेरा संस्मरण और बलराम अग्रवाल की कहानी ।
अंक पर आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी ।
*****
हम और हमारा समय

हड़बड़ी में गड़बड़ी

राजेन्द्र उपाध्याय

साहित्य अकादेमी ने पिछले दिनों अचानक बाल साहित्य की सुध ली । ताबड़तोड़ कई भाषाओं में बाल साहित्यकारों को पचास-पचास हजार के पुरस्कार देने शुरू कर दिए । जैसे ही पुरस्कार की योजना घोषित हुई - इसके लिए बंदरबांट, जोड़तोड़ शुरू हो गई । गुरु लोग अपने-अपने चेलों को पुरस्कृत करने के राष्ट्रव्यापी अभियान में लग गए । किसी अखबार में कोई सूचना नहीं, विज्ञप्ति नहीं कि अकादेमी ने बाल साहित्य के लिए पुरस्कार देने की योजना बनाई है । किसी को पता नहीं, किसी ने किताब भेजी नहीं । जिसको देना था उससे कह दिया कि किताब ‘सबमिट’ कर दो और ताबड़तोड़ तीन लोगों की समिति बना कर पुरस्कार दे दिए । जंगल में मोर नाचा किसने देखा ? किसी ने नहीं । असली हकदार को देना न पड़े इसलिए उनको निर्णायक बना दिया । जिसको देना है, उसको देने में पूरी सावधानी से शतरंज की गोटियां बिछा कर दे दिया ।
लबोलुआब यह कि बाल साहित्य के लिए भी वैसे ही गोटियां बिछाई गईं जैसे बड़ों के साहित्य के लिए बिछाई जाती हैं । वही प्रक्रिया अपनाई गई । तीन विद्वान किसी एक को चुन लेंगे । हिंदी का पहला बाल साहित्य का पुरस्कार साहित्य अकादेमी देने जा रही थी , उसे इस तरह स्कूली निबंध प्रतियोगिता की तरह निपटाना था ! राष्ट्रव्यापी बहस चलाई जाती । कौन बाल साहित्यकार अच्छा है , कौन नहीं । अखिल भारतीय बाल साहित्य परिषदें लगभग हर प्रदेष में हैं , उनसे पूछा जाता । उनसे सम्मति ली जाती । मतदान जैसा भी कुछ किया जा सकता था । राष्ट्रपति से मिल कर जो लोग राष्ट्रीय बाल साहित्य अकादेमी बनाने की बात कर चुके हैं उनसे भी कुछ सलाह-मशविरा किया जाता । सबको नाराज करके किसी एक को खुश करने की पहल साहित्य अकादेमी ने इस बार भी की और नतीजा अटपटा ही निकला ।
क्या बाल साहित्य के क्षेत्र में भी हम उपेक्षितों को उसी तरह गिनाते रहेंगे जैसे बड़ों के साहित्य में गिनाते हैं । श्रीप्रसाद हैं -- काशी में, न जाने कब से बच्चों के लिए कविताएं लिख रहे हैं । और कुछ कभी लिखा नहीं । बाल साहित्य के लिए जीवन खपा दिया । वे जोड़तोड़ नहीं करते, राजनीति नहीं करते । नारायणलाल परमार, निरंकारदेव सेवक, दामोदर अग्रवाल , रमेशचन्द्र पंत, उदय कैरोला, हरिकृष्ण देवसरे, राष्ट्रबंधु , कृष्ण शलभ ने अपना पूरा जीवन बालसाहित्य की क्या कम सेवा की है । कन्हैयालाल नंदन बच्चों के चाचा बरसों रहे । बच्चों की पत्रिका ‘पराग’ निकालते थे । कई महिलाएं हैं, जिन्होंने केवल बालसाहित्य लिखा और लिख रही हैं । प्रभा पंत, सरस्वती बाली, बानो सरताज, शशि शुक्ला । छोटे-छोटे कस्बों में रह कर लोग बच्चों के लिए बड़ी अच्छी कविताएं-कहानियां लिख रहे हैं । सतना, जबलपुर, भोपाल, विदिशा में लोग बैठे हैं , सहारनपुर, जालंधर में हैं । श्रीकृष्ण शलभ ने हिन्दी के एक सौ एक कवियों का पूरा सागर ही एक गागर में भर दिया है । अपने जी.पी.एफ. से पैसे निकाल कर छपवाया है । उनको पुरस्कार दे देते तो कुछ आर्थिक मदद भी हो जाती । रमेशचंद शाह ने बच्चों के लिए काफी लिखा है । रमेश थानवी हैं । प्रयाग शुक्ल, बालशौर रेड्डी , दिविक रमेश हकदार थे , इन्हें नहीं देना था तो निर्णायक बना दिया । दो कौड़ी की किताबें इनको भिजवा दीं । बाजी मारी प्रकाश मनु ने । हाल ही में ‘नंदन’ से सेवानिवृत्त हुए हैं । उनका ‘एक था ठुनठुनिया’ पुरस्कृत उपन्यास कितनों ने पढ़ा है और कहां से छपा है कौन जानता है ?
पहला पुरस्कार था तो ढंग की किताबें मंगवाते । किताब पर न देकर समग्र योगदान पर हिन्दी बाल साहित्य का पुरस्कार श्रीप्रसाद , शेरजंग गर्ग या राष्ट्रबंधु को देते । बनारस से लेकर भुवनेश्वर तक, लखनऊ से लेकर दूर-दूर उत्तराखंड के पहाड़ों तक, दक्षिण में भी लोग हैं, साहित्य की अलख जगाए हुए हैं -- सबको आपने दरकिनार कर दिया और बाल साहित्य का भला करने चले हैं । ऐसे तो और वैमनस्य पैदा होगा ।
बांग्ला में कई चोटी के बाल साहित्यकार हैं । वहां तो तब तक किसी को साहित्यकार नहीं माना जाता, जब तक वह बच्चों के लिए नहीं लिखता । हिन्दी में बाल साहित्य लिखना बच्चों का काम है । छपाक-छपाक, ठमाक-ठमाक करने वाले की हंसी उड़ाई जाती है । हिन्दी में सींग कटा कर बछड़ों में शामिल होने वाले कई स्वनामधन्य लेखक हैं । जिसे बड़ों के लिए लिखना चाहिए वह बच्चों के लिए लिख रहा है, जिसे बच्चों के लिए लिखना चाहिए वह बड़ों के लिए लिख रहा है ।
इस बार अकादेमी ने असमिया में गगनचंद्र अधिकारी और बांग्ला में सरल दे को बाल साहित्य में समग्र अवदान के लिए सम्मानित किया है तो हिन्दी में ऐसा क्यों नहीं किया गया ? क्या हिन्दी में कोई साहित्यकार समग्र अवदान के लायक नहीं-- बल्कि कई दावेदार हैं । गुजराती, कश्मीरी, मणिपुरी और संस्कृत के पुरस्कार बाद में घोषित किए जाएंगे तो हिन्दी में ही ऐसी कौन-सी जल्दी थी ।
*****
(राजेन्द्र उपाध्याय आका”ावाणी , नई दिल्ली में वरिष्ठ सम्पादक हैं)
(जनसत्ता से साभार)

संस्मरण



संस्मरण

प्रखर प्रतिभा के धनी थे नन्दन जी

रूपसिंह चन्देल

आठवें दशक के मध्य की बात है । धर्मयुग के किसी अंक में हृदयखेड़ा के एक सज्जन पर केन्द्रित रेखाचित्र प्रकाशित हुआ । हृदयखेड़ा मेरे गांव से तीन मील की दूरी पर दक्षिण की ओर पाण्डुनदी किनारे बसा गांव है, जहां मेरी छोटी बहन का विवाह 1967 में हुआ था । वर्ष में दो-तीन बार वहां जाना होता । रेखाचित्र जिसके विषय में था उन्हें मैं नहीं जानता था, लेकिन उसके लेखक के नाम से परिचित था । वह धर्मयुग के सहायक सम्पादक कन्हैंयालाल नन्दन थे । तब नन्दन जी के नाम से ही परिचित था, लेकिन उस रेखाचित्र ने मुझे इतना प्रभावित किया कि उसने नन्दन जी के प्रति मेरी उत्सुकता बढ़ा दी । मैंने बहनोई से पूछा । उन्होंने इतना ही बताया कि नन्दन जी उनके पड़ोसी गांव परसदेपुर के रहने वाले हैं । परसदेपुर का हृदयखेड़ा से फासला मात्र एक फर्लागं है । कितनी ही बार मैं उस गांव के बीच से होकर गुजर चुका था । मेरे गांव से उसकी दूरी भी तीन मील है.......बीच में करबिगवां रेलवे स्टेशन ...... यानी रेलवे लाइन के उत्तर मेरा गांव और दक्षिण परसदेपुर ।
इस जानकारी ने कि नन्दन जी मेरे पड़ोसी गांव के हैं उनके बारे में अधिक जानने की इच्छा उत्पन्न कर दी । उन दिनों मैं मुरादनगर में था और साहित्य से मेरा रिश्ता धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बनी और सारिका आदि कुछ पत्र-पत्रिकाएं पढ़ने तक ही सीमित था । मैंने नन्दन जी के बारे में अपने भाई साहब से पूछा ।
‘‘तुम नहीं जानते ?’’ उनके प्रश्न से मैं अचकचा गया था । चुप रहा ।
‘‘रामावतार चेतन के बहनोई हैं । मुम्बई में रहते हैं .... परसदेपुर में सोनेलाल शुक्ल के पड़ोसी हैं ।’’ और वह करबिगवां स्टेशन में कभी हुई नन्दन जी से अपनी मुलाकात का जिक्र करने लगे ।
मैं अपनी अनभिज्ञता पर चुप ही रहा । सोनेलाल शुक्ल से कई बार मिला था, क्योंकि वह मेरे गांव आते रहते थे । मेरे पड़ोसी कृष्णकुमार त्रिवेदी उनके मामा थे और चेतन जी की कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ता रहा था ।
हिन्दी साहित्य की दो हस्तियां मेरे पड़ोसी गांव की थीं, इससे मैं गर्वित हुआ था ।
नन्दन जी से यह पहला परिचिय इतना आकर्षक था कि मैं उनसे मिलने के विषय में सोचने लगा, लेकिन यह संभव न था । कई वर्ष बीत गए । एक दिन ज्ञात हुआ कि नन्दन जी ‘सारिका’ के सम्पादक होकर दिल्ली आ गए हैं, लेकिन मित्रों ने उनकी व्यस्तता और महत्व का जो खाका खींचा उसने मुझे हतोत्साहित किया । मैं उनसे मिलने जाने की सोचता तो रहा, लेकिन कुछ तय नहीं कर पाया । तभी एक दिन एक मित्र ने बताया कि नन्दन जी मुरादगर आए थे.....कुछ दिन पहले ।
‘‘किसलिए ?’’
‘‘हमने काव्य गोष्ठी की थी उसकी अध्यक्षता के लिए ।’’
‘‘और मुझे सूचित नहीं किया !’’
मित्र चुप रहे । शायद मुझे सूचित न करने का उन्हें खेद हो रहा था ।
‘‘मैं मिलना चाहता था ।’’ मैंने शिथिल स्वर में कहा ।
‘‘इसमें मुश्किल क्या है ! कभी भी उनके घर-दफ्तर में जाकर मिल लो । बहुत ही आत्मीय व्यक्ति हैं । मैं दो बार उनसे उनके घर मिला हूं .....।’’
मित्र से नन्दन जी के घर का फोन नम्बर और पता लेने के बाद भी महीनों बीत गए । मैं नन्दन जी से मिलने जाने के विषय में सोचता ही रहा ।
****
अंततः अप्रैल 1979 के प्रथम सप्ताह मैंने एक दिन आर्डनैंस फैक्ट्री के टेलीफोन एक्सचैंज से नन्दन जी को फोन किया । अपना परिचय दिया और मिलने की इच्छा प्रकट की ।
‘‘किसी भी रविवार आ जाओ ।’’ धीर-गंभीर आवाज कानों से टकराई ।
‘‘इसी रविवार दस बजे तक मैं आपके यहां पहुंच जाऊंगा ।’’ मैंने कहा ।
‘‘ठीक है ....आइए ।’’
नन्दन जी उन दिनों जंगपुरा (शायद एच ब्लाक) में रहते थे । मैं ठीक समय पर उनके यहां पहुंचा । पायजामा पर सिल्क के क्रीम कलर कुर्ते पर उनका व्यक्तित्व भव्य और आकर्षक था । सब कुछ बहुत ही साफ-सुथरा ....आभिजात्य । नन्दन जी सोफे पर मेरे बगल में बैठे और भाभी जी हमारे सामने । हम चार धण्टों तक अबाध बातें करते रहे । तब तक किसी बड़े साहित्यकार-पत्रकार से मेरी पहली ही मुलाकात इतने लंबे समय तक नहीं हुई थी । गांव से लेकर शिक्षा , प्राध्यापकी, पत्रकारिता, साहित्य आदि पर नन्दन जी अपने विषय में बताते रहे । शायद ही कोई विषय ऐसा था जिस पर हमने चर्चा न की थी । जब उन्होंने बताया कि उन्होंने ‘भास्करानंद इण्टर कालेज नरवल’ से हाईस्कूल किया था तब मेरी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा था । मैंने उन्हें बताया कि मैंने भी उसी कालेज से हाईस्कूल किया था ।
बीच-बीच में नन्दन जी फोन सुनने के लिए उठ जाते, लेकिन उसके बाद फिर उसी स्थान पर आ बैठते । बीच में एक बार लगभग आध घण्टा के लिए वह चले गए तब भाभी जी से मैं बातें करता रहा, जिन्हें दिल्ली रास नहीं आ रहा था । वह मुम्बई की प्रशंसा कर रही थीं, जहां लड़कियां दिल्ली की अपेक्षा अधिक सुरक्षित अनुभव करती थीं ।
उस दिन की उस लंबी मुलाकात की स्मृतियां आज भी अक्ष्क्षुण हैं ।
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यह वह दौर था जब मैं कविता में असफल होने के बाद कहानी पर ध्यान केन्द्रित कर रहा था । मेरी पहली कहानी मार्क्सवादी अखबार ‘जनयुग’ ने प्रकाशित की, और लिखने और प्रकाशित होने का सिलसिला शुरू हो गया था । एक कहानी ‘सारिका’ को भेजी और कई महीनों की प्रतीक्षा के बाद सारिका कार्यालय जाने का निर्णय किया । तब तक मैं दिल्ली शिफ्ट हो चुका था ।
मिलने के लिए चपरासी से नन्दन जी के पास चिट भेजवाई । तब सारिका के सम्पादकीय विभाग के किसी व्यक्ति से मेरा परिचय नहीं था , इसलिए चपरासी के बगल की कुर्सी पर बैठकर प्रतीक्षा करने लगा । दस मिनट की प्रतीक्षा के बाद नन्दन जी ने मुझे बुलाया । कंधे पर लटकते थैले को गोद पर रख मैं उनके सामने किसी मगही देहाती की भांति बैठ गया ।
‘‘कहें ?’’ फाइलों पर कुछ पढ़ते हुए नन्दन जी ने पूछा ।
‘‘यूं ही दर्शन करने आ गया । ’’ मेरी हर बात पर देहातीपन प्रकट हो रहा था , जिसे नन्दन जी ने कब का अलविदा कह दिया था .... शायद गांव से निकलते ही ।
‘‘हुंह ।’’ उस दिन मेरे सामने बैठे नन्दन जी घर वाले नन्दन जी न थे । हर बात का बहुत ही संक्षिप्त उत्तर ....और कभी-कभी वह भी नहीं । लगभग पूरे समय फाइल में चेहरा गड़ाए वह कुछ पढ़ते-लिखते रहे । मेरे लिए चाय मंगवा दी और ,‘‘ मैंने अभी-अभी पी है ’’ मुस्कराते हुए उन्होंने कहा, ‘‘आप पियें ...तब तक मैं कुछ काम कर लूं ।’’ वह फाइल में खो गए थे ।
इसी दौरान अवधनारायण मुद्गल वहां आए । नन्दन जी से उन्होंने कुछ डिस्कस किया और उल्टे पांव लौट गए । नन्दन जी के संबोधन से ही मैंने जाना था कि वह मुद्गल जी थे ।
मैंने उठने से पहले अपनी कहानी की चर्चा की ।
‘‘देखूंगा....।’’ फिर चुप्पी ।
‘अब मुझे उठ जाना चाहिए ।’ मैंने सोचा और ‘‘अच्छा भाई साहब ।’’ खड़े हो मैंने हाथ जोड़ दिए ।
नन्दन जी ने चेहरा उठा चश्मे के पीछे से एक नजर मुझ पर डाली, मुस्कराए, ‘‘ओ.के. डियर ।’’
सारिका को भेजी कहानी पन्द्रह दिनों बाद लौट आयी और उसके बाद मैंने वहां कहानी न भेजने का निर्णय किया । इसका एक ही कारण था कि मैं दोबारा कभी किसी कहानी के विषय में नन्दन जी से पूछने से बचना चाहता था और वहां हालात यह थे कि परिचितों की रचनाएं देते ही प्रकाशित हो जाती थीं, जबकि कितने ही लेखकों को उनकी रचनाओं पर वर्षों बाद निर्णय प्राप्त होते थे । एक बार रचनाओं के ढेर में वे दबतीं तो किसे होश कि उसे खंगाले । नन्दन जी तक रचना पहुंचती भी न थी ।
और नन्दन जी के कार्यकाल में मैंने कोई कहानी सारिका में नहीं भेजी । सारिका में जो एक मात्र मेरी कहानी प्रकाशित हुई वह ‘पापी’ थी, जिसे मुद्गल जी ने उपन्यासिका के रूप में मई,1990 में प्रकाशित किया और इस कहानी की भी एक रोचक कहानी है, जो कभी बाद में लिखी जाएगी ।
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फरवरी 1983 या 1984 की बात है । कानपुर की संस्था ‘बाल कल्याण संस्थान’ ने उस वर्ष बालसाहित्य पुरस्कार का निर्णायक नन्दन पत्रिका के सम्पादक जयप्रकाश भारती को बनाया था। 1982 से उन्होंने मुझे संस्थान का संयोजक बना रखा था । प्रधानमंत्री इंदिरा जी के निवास में 19.11.1982 को अपने संयोजन में मैं संस्थान का एक सफल आयोजन कर चुका था और केवल उसी कार्यक्रम का संयोजक था , लेकिन संस्थान दिल्ली से जुड़े मामलों का कार्यभार ‘‘मैं संस्था का संयोजक हूं...इसे संभालूं’’ कहकर मुझे सौंप देता ।
उस अवसर पर भी दिल्ली के साहित्यकारों से संपर्क करना, एकाध के लिए रेल टिकट खरीदना आदि कार्य मुझे करने पड़े । जयप्रकाश भारती ने पुरस्कार के लिए जिन लोगों को चुना वे उनके निकटतम व्यक्ति थे, लेकिन सबसे बड़े आश्चर्य की बात यह कि संस्थान के बड़े पुरस्कार के लिए उन्होंने हिन्दुस्तान टाइम्स समूह में कार्यरत अपनी परिचिता महिला पत्रकार का चयन किया । यह पुरस्कार बहुत विवादित रहा था । उस महिला और भारती जी को लेकर अनेक प्रकार की कुचर्चां थी (आज दोंनो ही जीवित नहीं इसलिए उसपर बस इतनी ही ), लेकिन जिस बात के लिए मैंने इस प्रसंग की चर्चा की वह नन्दन जी से जुड़ी हुई है ।
कार्यक्रम कानपुर के चैम्बर आफ कामर्स में था । नन्दन जी कालका मेल से ठीक समय पर वहां पहुंचे । अध्यक्षता की और जब वह अध्यक्षीय भाषण दे रहे थे तब उन्होंने कहा ,‘‘ मैं जयप्रकाष भारती जी को संस्थान द्वारा उनकी पत्नी को पुरस्कृत किए जाने के लिए बधाई देता हूं ।’’
भारती जी और उनके द्वारा चयनित पत्रकार-बालसाहित्यकार मंच पर ही थे । मैं भी मंच पर नन्दन जी के बगल में बैठा था । नन्दन जी के यह कहते ही भारती जी का चेहरा फक पड़ गया और उस पत्रकार , जो अपनी संगमरमरी शरीर और सौन्दर्य के लिए आकर्षण का केन्द्र थीं, ने नन्दन जी की ओर फुसफुसाते हुए कहा , ‘‘आपने यह क्या कहा ?’’
भारती जी भी कुछ बुदबुदाए थे, जो किसी ने नहीं सुना था, क्योंकि दर्शक-श्रोता तो नहीं, लेकिन उपस्थित साहित्यकारों के ठहाकों में उनकी आवाज दब गई थी ।
नन्दन जी प्रत्युत्पन्नमति व्यक्ति थे । तुरंत बोले, ‘‘मेरा आभिप्राय भारती जी की पत्नी स्नेहलता अग्रवाल जी से है ... जिन्हें कुछ दिन पहले एक संस्थान ने ...’’ कुछ रुककर बोले, ‘‘ एन.सी.आर.टी. ने बालसाहित्य के लिए पुरस्कृत किया है ।’’ (नन्दन जी उस पुरस्कार के निर्णायक मंडल में रहे थे ) ।
बात आई गई हो गई । लेकिन इसने सिद्ध कर दिया कि नन्दन जी की नजर हर ओर हरेक की गतिविधि पर रहती थी .... सही मायने में वह पत्रकार थे और एक प्रखर पत्रकार थे । इसी भरोसे टापम्स समूह ने उन्हें सारिका के बाद पराग और फिर दिनमान का कार्यभार सौंपा था । अपने समय के वह एक मात्र ऐसे पत्रकार थे जो एक साथ तीन महत्वपूर्ण पत्रिकाएं देख रहे थे ।
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उसके बाद साहित्यिक कार्यक्रमों में प्रायः नन्दन जी से मुलाकात होने लगी थी ।
‘‘कैसे हो रूपसिंह ? ’’ मेरे कंधे पर हाथ रख वह पूछते और , ‘‘ठीक हूं भाई साहब ।’’ मैं कहता ।
मेरा मानना है कि पत्रकारिता की दुनिया विचित्र और बेरहम होती है । कब कौन शीर्ष पर होगा और कौन जमीन पर कहना कठिन है । नन्दन जी के साथ भी ऐसा ही हुआ । एक साथ तीन महत्वपूर्ण पत्रिकाओं के सम्पादक और बड़े हालनुमा भव्य कमरे में बैठने वाले नन्दन जी को एक दिन नवभारत टाइम्स के ‘रविवासरीय’ का प्रभारी बनाकर (जो एक सहायक सम्पादक का कार्य होता है ) 10, दरियगंज से टाइम्स बिल्डिगं में एक केबिन में बैठा दिया गया । निश्चित ही उनके लिए यह विषपान जैसी स्थिति रही होगी , लेकिन उन्होंने उस विष को अपने चेहरे पर शाश्वत मुस्कान बरकरार रखते हुए पी लिया । कई महीने वह उस पद पर रहे । सारिका से बलराम और रमेश बतरा भी उनके साथ गए थे । तब तक इन दोनों से मेरी अच्छी मित्रता हो चुकी थी ।
1988 की बात है । सचिन प्रकाशन के लिए मैंने ‘बाल कहानी कोश’ सम्पादित किया , जिसके लिए दो सौ कहानियां मैंने एकत्र की थीं । नन्दन जी से कहानी मांगने के लिए मैं टाइम्स कार्यालय गया । बलराम ने नन्दन जी से कहा , ‘‘रूपसिंह मिलना चाहते हैं ।’’
‘‘पिछले वर्ष मैंने तुम्हारे एक दोस्त के लिए सिफारिश की थी...अब ये भी....।’’ नन्दन जी को भ्रम हुआ था ।
बलराम ने कहा , ‘‘नहीं, चन्देल किसी और काम से आए हैं ।’’
बहर आकर बलराम ने मुझे यह बात बताई और हंसने लगे । दरअसल नन्दन जी उन दिनों हिन्दी अकादमी दिल्ली के सदस्य थे और शायद पुरस्कार चयन समिति में थे । बलराम के जिस मित्र की सिफारिश की बात उन्होंने की थी, वह मेरे भी मित्र थे । खैर, मैं नन्दन जी से मिला । एक बार पुनः आत्मीय मुलाकात । उन्होंने ड्राअर से निकालकर अपनी बाल कहानी ‘आगरा में अकबर’ मेरी ओर बढ़ा दी ।
दुर्भाग्य कि वह ‘बाल कहानी कोश’ आज तक प्रकाशित नहीं हुआ , क्योंकि दिवालिया हो जाने के कारण सचिन प्रकाशन बन्द हो गया था और पाण्डुलिपि की कोई प्रति मैंने अपने पास नहीं रखी थी ।
इस घटना के कुछ समय बाद ही नन्दन जी सण्डे मेल के सम्पादक होकर चले गए । उन्होंने उसे स्थापित किया । उनके साथ टाइम्स समूह के अनेक पत्रकार भी गए थे । 1991 में मेरे द्वारा सम्पादित लघुकथा संकलन ‘प्रकारान्तर’ किताबघर से प्रकाशित हुआ । हिन्दी में तब तक जितने भी लघुकथा संग्रह या संकलन प्रकाशित हुए थे, सामग्री और साज-सज्जा की दृष्टि से वह अत्यंत आकर्षक था । यह संकलन मैंने तीन लोंगो - कन्हैयालाल नन्दन, हिमांशु जोशी, और विजय किशोर मानव को समर्पित किया था।
नन्दन जी की प्रति देने मैं सण्डे मेल कार्यालय गया । नन्दन जी प्रसन्न, लेकिन उस दिन भी वह मुझे उतना ही व्यस्त दिखे, जितना सारिका में मेरी मुलाकात के समय दिखे थे । यह सच है कि वह समय के साथ चलने वाले व्यक्ति थे .... अतीत को लात मार भविष्य की सोचते और वर्तमान को जीते ....और भरपूर जीते।
सण्डेमेल की उस मुलाकात के बाद गाहे-बगाहे ही उनसे मिलना हुआ । मुलाकात भले ही कम होने लगी थी , लेकिन कभी-कभार फोन पर बात हो जाती । बात उन दिनों की है जब वह गगनांचल पत्रिका देख रहे थे । मेरे एक मित्र उनके लिए कुछ काम कर रहे थे । उन दिनों मैंने (शायद सन् 2000 में) कमलेश्वर जी का चालीस पृष्ठों का लंबा साक्षात्कार किया था । उसका लंबा अंश मेरे मित्र ने गगनाचंल के लिए ले लिया । ले तो लिया, लेकिन अंश का बड़ा होना उनके लिए समस्या था । ‘‘मैं नन्दन जी से बात कर लेता हूं ’’ मैंने मित्र को सुझाव दिया । फोन पर मेरी बात सुनते ही नन्दन जी बोले , ‘‘रूपसिंह , पूरा अंश छपेगा ...... उसे दे दो । मैं कमलेश्वर के लिए कुछ भी कर सकता हूं ।’’
6 जनवरी 2001 को कनाट प्लेस के मोहन सिंह प्लेस के इण्डियन काफी हाउस’ में विष्णु प्रभाकर की अध्यक्षता में कमलेश्वर जी का जन्म दिन मनाया गया । हिमांशु जोशी जी ने मुझे फोन किया । वहां बीस साहित्यकार -पत्रकार थे । नन्दन जी भी थे और बलराम भी । कार्यक्रम समाप्त होने के बाद नन्दन जी ने मेरे कंधे पर हाथ रख पूछा , ‘‘रूपसिंह, क्या हाल हैं ?’’
‘‘ठीक हूं भाई साहब ।’’
‘‘तुम्हे जब भी मेरी आवश्यकता हो याद करना ।’’ लंबी मुस्कान बिखेरते हुए वह बोले, ‘‘यह घोड़ा बूढ़ा बेशक हो गया है , लेकिन बेकार नहीं हुआ ...।’’ उन्होंने बलराम की ओर इशारा करते हुए आगे कहा , ‘‘उससे पूछो ।’’
मैं बेहद संकुचित हो उठा था । कुछ कह नहीं पाया, केवल हाथ जोड़ दिए थे । नन्दन जी मेरे प्रति बेहद आत्मीय हो उठे थे और उनकी यह आत्मीयता निरंतर बढ़ती गई थी । शायद उन्हें इस बात का अहसास हो गया था कि कानपुर के नाम पर उनसे बहुत कुछ पा जाने वाले या पाने की आकांक्षा रखने वाले लोगों जैसा यह शख्श नहीं है । उनके प्रति इस शख्श का आदर निःस्वार्थ है । बीस-बाइस वर्षों के परिचय में इसने उनकी सक्षमता से कुछ पाने की चाहत नहीं की । और यह सब कहते हुए भी वह जानते थे कि यह व्यक्ति शायद ही कभी किसी बात के लिए उनसे कुछ कहेगा । वह सही थे । और यही कारण था कि उनका प्रेम मेरे प्रति बढ़ता गया था ।
न्यूयार्क में होने वाले विश्व हिन्दी सम्मेलन की स्मारिका के सम्पादन का कार्य उन्हें करना था । एक पत्र मिला , जिसमें डा. ”शिवप्रसाद सिंह के उपन्यास ‘अलग-अलग वैतरिणी’ पर निश्चित तिथि तक आलेख मुझे लिख भेजने के लिए उन्होंने लिखा था । उन दिनों मैं लियो तोल्स्तोय के उपन्यास ‘हाजी मुराद’ के अनुवाद को अंतिम रूप दे रहा था । मेरे पास शिवप्रसाद जी के उपन्यास ‘नीला चांद’ पर अच्छा आलेख था । मैंने नन्दन जी को लिखा कि ‘अलग -अलग वैतरिणी’ के बजाय मैं ‘नीला चांद’ पर लिख भेजता हूं । उनका तुरंत पत्र आया ,‘‘ एक सप्ताह का अतिरित समय ले लो, लेकिन लिखो ‘अलग-अलग वैतरिणी’ पर ही ।’’ मुझे उनकी आज्ञा का पालन करना ही पड़ा था । बाद में एक दिन शाम सवा पांच बजे उनका फोन आया ।
‘‘रूपसिंह कैसे हो ?’’
‘‘आपका आशीर्वाद है भाई साहब ।’’
कुछ इधर-उधर की बातें और अंत में ,‘‘आज तुम पर प्रेम उमड़ आया ...... तुम्हें प्रेम करने का मन हुआ ....।’’ और एक जबर्दस्त ठहाका ।
मैं भी ठहाका लगा हंस पड़ा था ।
‘‘अच्छा प्रसन्न रहो ।’’ आशीर्वचन ।
और उनके पचहत्तरहवें जन्म दिन का निमंत्रण । इण्डिया इण्टरनेशनल सेण्टर में आयोजन था । लगा पूरी दिल्ली के साहित्यकार-पत्रकार उमड़ आए थे । नन्दन जी के कुछ मित्र बाहर से भी आए थे । उस दिन नन्दन जी बहुत ही बूढ़े दिखे थे । बीमारी ने उन्हें खोखला कर दिया था । डायलिसस पर रहना पड़ रहा था । 1933 में परसदेपुर (जिला - फतेहपुर (उत्तर प्रदेश ) में जन्मे इस प्रखर पत्रकार -साहित्यकार ने 25 सितम्बर , 2010 को नई दिल्ली के राकलैण्ड अस्पताल में तड़के तीन बजकर दस मिनट पर 77 वर्ष की आयु में इस संसार को अलविदा कह दिया ।
अत्यंत सामान्य परिवार में जन्में नन्दन जी का जीवन बेहद उथल-पुथलपूर्ण रहा । प्रेमचंद से प्रेरित हो उन्होंने अंतर्जातीय विवाह किया , जिसके बारे में उन्होंने अपने एक आलेख में लिखा था । उनके जाने से पत्रकारिता और लेखन जगत को अपूरणीय क्षति हुई है ।
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