मंगलवार, 12 जून 2012

कहानी










ऊंचे क़द का आदमी

क़मर मेवाड़ी

दरअसल घर आजकल उन्हें काटने को दौड़ता है. वे जब भी घर में होते, हड़बड़ी में रहते. वे जल्द घर से निकल भागने का बहाना तलाशते रहते. पहले कभी ऎसा नहीं होता था. वे जब घर में होते तो दफ्तर को भूल जाते. उन्हें अच्छी तरह याद है, दफ्तर में उन्हें कभी घर याद नहीं आया.

लेकिन यह बहुत पुरानी बात है. जब से वे रिटायर हुए हैं ज़िन्दगी का सिलसिला ही गड़बड़ा गया है. अब वे जब घर में होते हैं तो दफ्तर और बाहर होने पर घर उन पर हावी रहता है.

यह घर जिसे उन्होंने अपने जवानी के दिनों में बनाया था. जिसका नाम प्रसिद्ध वकील पिता के नाम पर रखा था और जिसमें मस्ती व उमंगों भरे खुशगवार दिन गुजारे थे, अब उन्हें भुतह महल लगने लगा था.

उम्र के अंतिम दौर में उन्हें यह दिन भी देखने थे.

वे जब घर से बाहर होते तब अनेक आशंकाओं के झंझावातों से घिरे रहते. उन्हें ख्याल आता कि पत्नी अचानक बीमार हो गई है और मुहल्ले वाले उसे अस्पताल ले जाने की तैयारी कर रहे हैं. कभी उनके ख्यालों में बेटा उभर आता जो स्कूल की छुट्टी के बाद घर लौटते हुए दुर्घटनाग्रस्त हो गया है. ऎसा कोई ख्याल आते ही वे तेज़-तेज़ कदमों से घर की ओर चल पड़ते. लेकिन घर पहुंचते ही जब वे देखते कि पत्नी उनके लिए शाम का खाना बना रही है और बेटा गली में अपने दोस्तों के साथ गिल्ली-डण्डा खेल रहा है. तब उनके जान में जान आती. वे तसल्ली से अपने कपड़े उतारकर खूंटी पर टांग देते, फिर लुंगी पहलनकर पलंग पर पसर जाते और लंबी-लंबी सांसें लेने लगते.

शाम का खाना खा चुकने के बाद घर फिर उन्हें अपनी गिरफ्त में ले लेता. पर वे मजबूर थे. रात में घर छोड़कर कहीं जाना उनके लिए काफी दुश्वार था. आंखों की रोशनी के धुंधला जाने की वजह से वे रात की मटरगश्ती से आज़ाद हो गए थे.

अगर आंखों की रोशनी कम न होती, बीमार पत्नी और एक अदद बेटे की बेड़ी से वे जकड़े न होते तो घर क्या, वे इस शहर को ही अलविदा कह देते. 

उन्हें रात भर नींद नहीं आती. वे बिस्तर पर पड़े-पड़े कल्पनाओं के ताजमहल बनाते और बिगाड़ते रहते और सुबह होने का बड़ी बेसब्री से इंतजार करते.

वे एक बुलन्द किरदार के इन्सान थे.

हालात के थपेड़ों ने उन्हें शंकित जरूर कर दिया था. लेकिन उनका दिमागी तवाजन बरकरार था. वे शायराना तबीयत के मालिक थे. अदबी महफिलों और सभा सम्मेलनों में उनका कलाम उनके व्यक्तित्व में चार चांद लगा देता था. उनके अशआर एक खुशबूदार ताज़ा हवा के झोंकों की तरह सबको मुअत्तर कर देते थे. वे साफ दिल के बेबाक इंसान तो थे ही, हुब्बुल वतनी के जज्बे से भी सरशार थे.

शादी-ब्याह में वे बढ़-चढ़कर भेंट देते और साथ वालों को शर्मिन्दा कर देते. एक बार एक दोस्त की मां के निधन पर उसके यहां मातमपुर्सी के लिए गए. दोस्त उनके सामने फूट-फूटकर रोने लगा, तो वे बोल पड़े, ’अब बस भी कर---बहुत हो चुका---नाटक क्यों करता है’ दोस्त को अचानक लकवा मार गया. वहां बैठे सब लोग सन्न रह गए कि उन्होंने यह क्या कह दिया. लेकिन उन्हें मालूम था कि दोस्त कितना कमीना है. जब मां ज़िन्दा थी तो अपने पति के साथ किराए के मकान में रहती थी और दोस्त ने अपनी मां को कई बार जूतों से पीटा था, और आज जब मर गई तब फूट-फूटकर रो रहा है. हकीकत में उन्हें दोगले किस्म के लोगों से बेइन्तेहा नफरत थी.

मुझे एक घटना याद आ रही है. पाकिस्तान ने युद्ध छेड़ दिया था. जिला कलक्टर ने एक मीटिंग में सभी सरकारी कर्मचारियों से एक-एक दिन का वेतन देने की अपील की.

वे खड़े हुए. अपने खास अन्दाज़ में अपना एक पसन्दीदा शेर सुनाया. फिर पूरे माह की तनख्वाह ’राष्ट्रीय सुरक्षा कोष’ में देने की घोषणा के बाद सैनिकों के साथ अग्रिम मोर्चे पर जाकर युद्ध में भाग लेने की पेशकश भी कर दी. पूरा हॉल तालियों की आवाज़ से गूंज उठा था.

लेकिन इधर उनका अम्नो सुकून गायब है. जब से वे रिटायर हुए हैं सब कुछ गड़बड़ा गया है. दो साल हो गए लेकिन अब तक उनका पेंशन केस नहीं सुलझा. गए मंगल को जब मैं टहलने  के लिए निकला तो उनसे मुलाकात हो गई. वे हमेशा की तरह घर से निकलकर मुक्ति की सांस ले रहे थे.

हम कमला नेहरू अस्पताल तक घूमकर झील की तरफ निकल गए. इरिगेशन पार्क की खूबसूरती ने उनका मन मोह लिया. वे खुश-खुश दिखने लगे लेकिन पार्क की मखमली दूब पर एक जगह गन्दगी देखकर उनके चेहरे पर तनाव आ गया. उन्होंने एक गन्दी गाली हवा में उछाल दी. दरअसल उन्हें लोगों की गै़र-जिम्मेदाराना हरकतों से बड़ा कष्ट होता था. हम पार्क से निकल आए. अब हम अदब की छतरी में बैठे थे.

उन्होंने बदन से शेरवानी उतारी. माचिस और सिगरेट का पैकेट निकाला. शेरवानी को समेटकर एक तरफ रख दिया.फिर सिगरेट जलाकर हवा में छल्ले बनाने लगे.

इस उम्र में उनकी इस अदा ने मुझे रोमांचित कर दिया.

सिगरेट के दो-तीन कश लेने के बाद वे मुझसे बोले, “आपका रिटायरमेंट कब  है?”

“अभी काफी वक़्त है.” मैंने कहा,

“कुछ समझ में नहीं आता क्या करूं. दो साल गुज़र गए. पेंशन का एक घेला तक नहीं मिला.”

“दिक्कत क्या है?” मैंने जानना चाहा.

“यही तो मालूम नहीं.जब एक ऑब्जेक्शन की पूर्ति करके फाइल भेजी जाती है, तब तक दूसरे रेमार्क के साथ छः माह बाद फाइल वापस पेंशन विभाग से लौट आती है.” उन्होंने जवाब दिया.

“अच्छा यह बात है.”

“जी हां.”

“आप दफ्तर में किसी से बात करते.” मैंने सुझाया.

“किससे बात करूं? जिन लोगों के साथ दफ्तर में इतना वक़्त गुज़ारा, खाया-पिया, दुख-दर्द में साथ दिया, क्या उन लोगों की कोई जिम्मेदारी नहीं?” उनके लहजे में गुस्सा था.

“जिम्मेदारी तो है उनकी. लेकिन उनसे मिल लेने में क्या हर्ज है?” मैंने कहा.

“हर्ज तो कुछ भी नहीं. लेकिन मिलने पर भी क्या  होगा. करेंगे तो वे अपनी मर्जी का. देखता हूं कितने दिन तक वे यह खेल मेरे साथ खेलते हैं.”

वे कुछ देर रुके, उन्हें खांसी का दौरा पड़ गया. वे व्यवस्थित हुए और बोलने लगे, “मुझे किसी ने कहा है कि बड़े बाबू को दो हज़ार भेंट चढ़ा दो. सारा काम निपट जाएगा. अब आप ही जवाब दीजिए. जिस आदमी ने ज़िन्दगी भर ईमानदारी और नेकदिली से अपना फर्ज पूरा किया हो अब वह अपने ईमान को दागदार करेगा? क्या मुझे अपना हक हासिल करने के लिए भी रिश्वत देनी होगी? सच अर्ज कर रहा हूं. मर जाउंगा लेकिन रिश्वत नहीं दूंगा.”

गुस्से से उनके गेहरे का रंग बदल गया था.

माहौल में ठंडक बढ़ गई थी. उन्होंने शेरवानी को उठाया. उसे पहना और चलने को तैयार हो गए.

अब हम धीमे-धीमे कदमों से वापस लौट रहे थे. हमारे बीच मौन पसर गया था. रास्ते में हम दोनों में से कोई कुछ नहीं बोला. जैसे ही हम बस स्टैण्ड के चौराहे पर पहुंचे, तपाक से उन्होंने मुझसे हाथ मिलाया और अपने घर की तरफ चल दिए.

उनसे मिले पूरे आठ दिन गुज़र गए.

पिछले मंगल को हम साथ-साथ घूमने गए थे. आज फिर मंगलवार है. लेकिन आज वे मौजूद नहीं हैं. उनके न रहने की खबर आज के अखबार में छपी है.

सुबह-सुबह मैं खिन्न तथा उदास हो जाता हूं और बग़ैर कुछ खाए-पीए ही उनकी अन्तिम यात्रा में शामिल होने के लिए घर से निकल पड़ता हूं. बहुत सारे परिचित मौजूद हैं. वहां सब अलग-अलग समूहों में बैठे उनकी खूबियों की चर्चा में मशगूल हैं.

मैं किसी से बात नहीं करता. गला रुंध गया है. मुंह से एक बोल तक नहीं फूटता. गमगीन और उदास एक तरफ बैठा हूं. सबसे अलग.

मेरी आंखों में आंसुओं का सैलाब उमड़ आया है. रह-रहकर उनकी वह बात मेरे दिमाग पर हथौड़े की तरह बज रही है, ’सच अर्ज कर रहा हूं. मैं मर जाउंगा, लेकिन रिश्वत नहीं दूंगा.’ वे अपनी बात को इतना जल्द सच साबित कर देंगे मैं इसकी कल्पना भी नहीं कर सकता था.

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क़मर मेवाड़ी

क़मर मेवाड़ी (बाएं से प्रथम)

जन्म : ११ जुलाई, १९३९, कांकरोली, राजसमंद (राजस्थान)

प्रकाशन : ८ मार्च १९५९ के साप्ताहिक हिन्दुस्तान में पहली कहानी प्रकाशित. तब से अब तक अनेक महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशन, आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से प्रसारण.

प्रकाशित कृतियां : रोशनी की तलाश (१९७६), लाशों का जंगल (१९७७), उसका सपना (१९९०), ऊंचे क़द का आदमी (१९९९) (कहानी संग्रह). चांद के दाग (१९७०), आखिर कब तक (एक लंबी कविता)(१९७३), बहस अभी जारी है (१९७७), फैसला होने तक (१९८३) कविता संग्रह. वह एक (१९७४) उपन्यास.

संपादन : हिन्दी की साहित्यिक त्रैमासिक पत्रिका ’सम्बोधन’ का १९६६ से अविकल प्रकाशन.

विशेष : दूरदर्शन (नेशनल) द्वारा कहानी ’ऊंचे कद का आदमी’ पर टेली फिल्म.

सम्मान : राजस्थान साहित्य अकादमी के डॉ. रांगेय राघव पुरस्कार तथा विशिष्ट साहित्यकार सम्मान सहित पन्द्रह से अधिक महत्वपूर्ण सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्त.

सम्पर्क : सम्बोधन, कांकरोली, राजसंद – ३१३३२४ (राजस्थान)

फोन : ०२९५२-२२३२२१

मो. ०९८२९१६१३४२



1 टिप्पणी:

ashok andrey ने कहा…

bahut sundar kahani padwai hai Kamar Mewadi jee kii bhai chandel.
kayaa yeh isthitian aaj bhee moujood nahiin hain.ek imandar vyakti ke dard ko bahut salike se ubhaara gayaa hai.man ko chhu gaee.