मंगलवार, 12 जून 2012

मूल्यांकन













क़द्दावर कहानीकार  क़मर मेवाड़ी

सूरज पालीवाल

क़मर मेवाड़ी की पहली कहानी उस समय के चर्चित ’साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में मार्च, १९५९ में यानी आज से लगभग बावन वर्ष पहले प्रकाशित हुई थी. क़मर भाई बहत्तर की उम्र को पार कर चुके हैं. वे पैंतालीस साल से नियमित त्रैमासिक पत्रिका ’सम्बोधन’ का प्रकाशन-सम्पादन कर रहे हैं. यह मात्र वर्षों की गणना है, इससे क़मर भाई का कोई लेना-देना नहीं है. वे अभी भी जवान हैं, ज़ोर से अट्टहास करते हैं और मित्रों के सुख-दुख में सुबह से रात तक दौड़ते-भागते भी थकते नहीं हैं. जानते किसे हैं क़मर मेवाड़ी को, या उनके कहानीकार, कवि और सम्पादक को. क़मर भाई किसी को कुछ नहीं बताते, वे एक अच्छे आदमी की तरह अपने मित्रों और पड़ौसियों से मिलते और रहते हैं. मैं उन्हें मेवाड़ी आन-बान-शान के सम्पूर्ण रूप में देखता हूं. मेवाड़ का आदमी स्वाभिमानी और संघर्ष प्रिय होता है. क़मर भाई भी ऎसे ही हैं. इसलिए उनकी कहानियों में मेवाड़ बोलता है और मेवाड़ में क़मर भाई बोलते हैं—दोनों को अलग करके देखना कठिन है.

क़मर मेवाड़ी ने जिस समय कहानियां लिखना आरंभ किया था, उस समय एक ओर ’नयी कहानी’ की शहर केन्द्रित धारा चल रही थी तो दूसरी ओर रेणु,नागार्जुन, शिवप्रसाद सिंह, शैलेष मटियानी इत्यादि की ग्राम केन्द्रित धारा भी समानान्तर चल रही थी. जाहिर है कि नगर और मध्यवर्ग पर लिखने वाले कहानीकार अपनी लच्छेदार भाषा में तेज़ी से बदलते मध्यवर्ग की बेचैनियों को अपनी कहानियों में व्यक्त कर रहे थे. इनके सामने नगर का युवा वर्ग तो था ही, साथ-ही-साथ गांव और कस्बों से आया युवा वर्ग भी था, जो स्वाधीन भारत के सपनों को टूटता-बिखरता देख रहा था. टूटते-बिखरते सपनों की इन कहानियों में पाठकों ने अपनी छवि देख कहानियों को सराहा. इन्हीं नवयुवकों ने प्रेम की बदलती परिभाषाओं को कहानियों में पढ़ा और जीवन में बनते-बिगड़ते रिश्तों को देखा तथा अनुभव किया. इसलिए ये कहानियां इन्हें नयी और अपनी लगीं. लेकिन गांव जिस तेज़ी से बदल रहे थे, विकास की गंगा गांवों में पहुंच रही थी, राजनीति का विकृत रूप गांवों में पहुंचकर उसे और विकृत कर रहा था, अपराध और दलालों की संस्कृति गांवों में विकसित हो रही थी, उसे ग्राम कथा केन्द्रित कहानीकारों ने बेहतर ढंग से चित्रित किया.

क़मर मेवाड़ी के पात्र संघर्ष में जीवन की सार्थकता तलाशते हैं. छोटे सुख और बहुत बड़े दुखों की दुनिया की कहानियां उनके पास हैं. कहानियों में ऎसे पात्रों की तलाश करते हुए वे कभी ठेठ गांव में जाते हैं तो कभी शहर में. दरअसल, जो लोग शहर और गांव का बंटवारा करते हैं वे यह भूल जाते हैं कि अभावों की दुनिया का जीवन हर जगह एक होता है. अभावों में आदमी की आदमियत बनी रहती है, वह छल और कपट की दुनिया से अलग अपनी छोटी-सी दुनिया बनाता है और उसे व्यापक परिप्रेक्ष्य देने की कोशिश करता है. क़मर मेवाड़ी की कहानियां उसके व्यापक परिप्रेक्ष्य को बनाने में सहायक होती हैं, उसकी मदद करती हैं और आदमी को पहचानने में अनुभव की रोशनी दिखाती हैं. मैं वर्षों से क़मर मेवाड़ी की कहानियों का प्रशंसक रहा हूं इसलिए कि वे प्रसिद्धि की चालबाजी से दूर रहकर निरन्तर कहानियां लिखते रहे हैं. उनके सामने कई कहानी आन्दोलन खड़े हुए और बिखर गए पर उन्होंने कभी उनमें शामिल होने या उनके विरोध में नारेबाजी करने की कोशिश नहीं की. वे मानते रहे कि अन्ततः कहानियां ही बोलेंगी और वे ही उनका महत्व तय करेंगी. जो कहानीकार अपने समय में अधिक बोलकर या अधिक तारीफें बटोरकर बड़ा होने का प्रयत्न करते रहे बाद में इतिहास ने उन्हें उठाकर फेंक दिया. समय बहुत निर्मम है, वह बहुत धैर्य के साथ चीज़ों का मूल्याकंन करता है. जिस कथाकार में धैर्य होगा, वह आगे बढ़ेगा और जो जल्दबाजी में रहेगा वह जल्दी ही चुक जाएगा. चुका हुआ कहानीकार थके और बूढ़े घोड़े की तरह होता है, जिसे कोई नहीं पूछता. क़मर मेवाड़ी आज भी कहानियां लिख रहे हैं तो इसलिए कि वे समाज से जुड़े हुए हैं, समाज के परिवर्तनों और तेज़ी से घटती घटनाओं पर उनकी पैनी नज़र है. इन बावन वर्षों में न जाने कितने कहानीकार आए और चुक कर शांत  हो गए. आन्दोलनकर्ताओं और सम्पादकों की अपनी पसन्द के कई कहानीकारों ने जो प्रसिद्धि रातोंरात बटोरी वह प्रसिद्धि क़मर मेवाड़ी को नहीं मिली लेकिन जिन्हें  मिली उन्हें आज कोई नहीं पूछता जबकि  क़मर भाई अब भी अपनी कहानियों के लिए ही जाने जाते हैं. किसी भी कहानीकार के लिए यह अच्छी ख़बर हो सकती है कि वह समय के साथ जीवित रहे, सक्रिय रहे और जीवंत रहे.

’सम्बोधन’ का प्रकाशन वे लम्बे समय से कर रहे हैं, लेकिन उसे लेकर उनके मन में किसी प्रकार का भ्रम नहीं है. पिछले पांच दशकों में न जाने कितनी पत्रिकाएं प्रकाशित हुईं, हल्ला मचाया, झंडा लहराया और तिरोहित हो गईं. हिन्दी में भूमंडलीकरण के प्रभाव से कई सम्पादकों ने तरह-तरह से नारेबाजी की और बाज़ार भाव की तरह अपना वजन नपवाया, लेकिन वे सारे दांवपेंच व्यर्थ ही साबित हुए. ’सम्बोधन’ जैसा कल निकल रहा था, वैसा आज भी निकल रहा है. बहुत शान्त भाव से अपने समय को निरूपित करने का काम ’सम्बोधन’ कर रहा है. क़मर मेवाड़ी का कवि और कहानीकार रूप ’सम्बोधन’ में हमेशा देखा जा सकता है. उन्होंने जिस प्रकार समकालीन कहानियों का मूल्यांकन करवाया है, वह अपने आप में अनोखा है. ’सम्बोधन’ सही अर्थों में लघु पत्रिका की कमी को पूरा करता है.

क़मर मेवाड़ी प्रगतिशील विचारधारा और प्रातिशील लेखक संघ से वर्षों से जुड़े रहे हैं इसलिए उनकी कहानियों मे वह विलुप्त होती हुई धारा आज भी विद्यमान है लेकिन जिन्होंने लिखकर उसकी क्रान्ति के सपने साकार किए थे, वे अब शांत हैं. मैं यह तो नहीं कहता कि उनका मोहभंग हो गया है पर इतना तो कह ही सकता हूं कि अब शायद उन्होंने उस प्रकार के सपने देखने बन्द कर दिए हैं. इसलिए अब कहानी लिखना भी उनके बस में नहीं है. पर क़मर मेवाड़ी तो अब भी उन्हीं सपनों की कहानियं लिख रहे हैं. जीवन-जगत से जुड़ाव कहानियों का आधार होता है, उनके पास वह है इसलिए वे किसी की परवाह किए बिना लगातार लिख रहे हैं. आलोचकों ने उन्हें कितना महत्व दिया है और प्रगतिशील लेखक संघ ने उन्हें कितना अपना माना है, इसकी चिन्ता वे नहीं करते. कस्बे से लेकर गांव की अनगिनत कहानियां अब भी उनके पास हैं, जिन्हें धैर्य के साथ वे रच रहे हैं. उनकी प्रासंगिकता यह है कि वे समय के साथ हैं और अपने समय को रेखांकित करने का माद्दा उन्हें आता है.

’जिजीविषा और अन्य कहानियां’ संग्रह अब तक की कहानियों का दस्तावेज़ है. यह क़मर मेवाड़ी को समग्रता में देखने, पढ़ने और समझने में पूरी मदद करेगा, ऎसा विश्वास है.

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 (सूरज पालीवल)
प्रो. सूरज पालीवाल
अध्यक्ष एवं अधिष्ठाता, साहित्य विद्यापीठ,
महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय,
वर्धा          


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