शुक्रवार, 29 जून 2012

संस्मरण













मेरे लिए अरुण जी
  
सूरजप्रकाश

अरुण जी से मेरी गिनी-चुनी मुलाकातें ही थीं। मुंबई में 1997 में किसी कार्यक्रम में हम पहली बार मिले थे। उन्‍होंने अपना और अपने साथ खड़े वसु मालवीय का परिचय खुद ही दिया था। मैं उनकी कहानियों का मुरीद था। मेरा खुद का लेखन तब शुरुआती ही था लेकिन मैं हैरान हुआ जान कर कि वे मुझे पढ़ चुके थे।

वे उन दिनों मुंबई में कमलेश्‍वर जी की टीम में शायद चंद्रकांता सीरियल के लिए लेखन कर रहे थे। पहली मुलाकात के बाद उनसे अक्‍सर फोन पर बात हो जाती। मौका निकाल कर मैं भी उनसे मिलने गोरेगांव चला जाता और ढेर सारी बातें होतीं। वे बहुत अच्‍छे श्रोता और वक्‍ता थे। किस्‍सों का भंडार रहता था उनके पास। जब भी उनके पास जाता, वे हाथ का काम एक तरफ रख देते और खूब बातें करते। दो-एक बार वे सांताक्रूज के हमारे घर भी आये और पूरी शाम हमारे साथ बितायी।

तभी एक हादसा हुआ था और उसकी खबर मुझे उनसे ही मिली थी। वसु कमलेश्‍वर जी की लेखन टीम में ज्‍याइन करने परिवार के साथ आ रहा था कि रास्‍ते में ही ऑटो रिक्‍शा उलट जाने के कारण अपने ठीये पर पहुंचने से पहले ही उसकी अकाल मृत्‍यु हो गयी थी। अगले दिन वसु के शव को और उसकी पत्‍नी को इलाहाबाद भिजवाने का दायित्‍व अरुण जी ने ही निभाया था। बेशक इसमें कमलेश्‍वर जी के रसूख का भी हाथ था।

मेरा पहले व्‍यंग्‍य संग्रह ’ज़रा संभल के चल” के लिए रचनाएं उन्‍होंने ही चुनी थीं और वह किताब ’यात्री प्रकाश” से उन्‍हीं के कहने पर छपी थी।

बाद में दिल्‍ली में उनसे कई मुलाकातें हुईं। साहित्‍य  अकादमी में, उनके घर पर या किसी कार्यक्रम में। मैंने हमेशा उन्‍हें उतना ही आत्‍मीय, मिलनसार, सामने वाले को भी हमेशा बराबरी पर समझने वाला पाया। वे अपनी कहानियों पर कम ही बात करते और किस्‍से सुनाने में ही उनका मन रमता था। कुछ किस्‍से तो हम हंस पत्रिका में आये उनके आत्‍मकथ्‍य के ज़रिये जान ही चुके थे लेकिन उनके सुनाने का अंदाज़ निराला ही होता था और इससे किस्‍से का मज़ा और ही बढ़ जाता था।
रूपसिंह चन्देल और सूरज प्रकाश

एक बार बता रहे थे कि किसी सरकारी नौकरी में चयन हो जाने के बावजूद उन्‍हें इस कारण नहीं लिया गया था कि उनके पैर में तकलीफ थी और वे सामान्‍य रूप से चल नहीं पाते थे। मुझे नहीं पता कि लंगड़ा कर चलने के पीछे क्‍या वज़ह रही होगी, पूछने का मतलब नहीं था। तब वे अपने मामले को ले कर राष्‍ट्रपति तक गये थे। अगर मैं गलत नहीं हूं तो सरकारी नौकरियों में शारीरिक रूप से विकलांग व्यक्तियों के लिए कुछ प्रतिशत पद रखने की शुरूआत के पीछे राष्‍ट्रपति महोदय से उनकी इसी मुलाकात का हाथ था। जब राष्ट्रपति के सचिव ने पूछा कि राष्ट्र्पति को आपसे क्यों मिलना चाहिये तो अरुण जी का जवाब था - क्योंकि वे देश के प्रथम नागरिक हैं और मैं देश का आम नागरिक हूं। इसी बात पर उन्हें राष्ट्रपति से मुलाकात की अनुमति मिल गयी थी। वे मिले थे और अपनी बात रखी थी।

पता नहीं वह सरकारी नौकरी उन्‍हें मिली या नहीं या मिलने पर भी उन्‍होंने की या नहीं, लेकिन एक नयी सोच का रास्‍ता उन्‍होंने जरूर खोला था कि शारीरिक रूप से विकलांग व्‍यक्ति को भी सरकारी नौकरी पाने का हक है और दूसरी बात कि अगर आपकी बात में दम है तो आपको अपना मुद्दा ले कर राष्‍ट्रपति तक भी जाना चाहिये।

ये बात सब जानते ही हैं कि वे अपने लेखन को ले कर भी कितने खुद्दार थे। एक बार हंस से उनकी कहानी राजेन्द्र यादव जी ने यह कह कर लौटा दी थी कि कहानी का शीर्षक बदल दो तो हम कहानी छापेंगे तो अरुण जी ने जवाब दिया था कि मैं कहानी का शीर्षक बदलने के बजाये अपनी कहानी के लिए संपादक बदलना पसंद करूंगा। और वह कहानी उन्होंने हंस से ले कर कहीं और छपवायी थी।

अब याद नहीं आ रहा कि ये किस्‍सा उन्‍होंने खुद बताया था या मैंने कहीं पढ़ा था। हो सकता है, मेरी याददाश्‍त इस समय पूरी तरह मेरा साथ न दे रही हो।

होटलों में काम करने वाले वेटरों, किचन स्‍टाफ और फ्रंट स्‍टाफ के काम काज को ले कर उनकी एक लम्‍बी और महत्‍वपूर्ण कहानी है जिसका नाम मैं भूल रहा हूं।

अब ये भी याद नहीं कि इस कहानी को लि‍खने के मसकद से वे उन दिनों होटल की नौकरी कर रहे थे या होटल की नौकरी करने के कारण इस कहानी का जनम हुआ था। अभी कोई बता रहा था कि वे उन दिनों होटल मैनेजमैंट का कोई कोर्स कर रहे थे इसलिए होटल से जुड़े हुए थे।

तो किस्‍सा ये बताया जाता है कि उनके वाले होटल में अज्ञेय जी और इला जी खाना खाने आये। अरुण जी की ड्यूटी उसी मेज पर थी। निश्चित रूप से अज्ञेय जी ने अरुण जी को और अरुण जी ने अज्ञेय जी को पहचान लिया होगा लेकिन एक मर्यादा होती है हर संबंध की, स्‍थान और परिवेश की, जिसका पालन दोनों ही कर रहे थे और मौजूदा परिस्थिति में अपनी-अपनी हैसियत और जरूरत के हिसाब से व्‍यवहार कर रहे थे। खाने के दौरान अज्ञेय जी ने इला जी को अरुण प्रकाश के कहानीकार होने के बारे में बताया होगा।

बिल अदायगी के समय इला जी ने एक मोटी रकम अरुण जी के लिए टिप के रूप में छोड़नी चाही लेकिन अज्ञेय जी ने साफ मना कर दिया – आप उसे टिप दे कर उसे सचमुच का वेटर मत बनाइये। मर्यादा इसी में है कि उसका मान रखने के लिए कोई टिप न छोड़ी जाये। न कम न ज्‍यादा।

उनसे जुड़ी तमाम बातें याद आ रही हैं। उनके लेखन,  आत्‍मीय व्यवहार, बेलौस जीवन, खूब काम करने का माद्दा, और संबंधों में एक अलग ही तरह का अपनापन, एक कशिश रहा करती थी और उनसे मिलने के बाद उनसे घंटों बतियाया जा सकता था। वे हमें कहीं भी छोटा महसूस नहीं होने देते थे। हमें यही तसल्ली है कि अरुण जी ने एक जुझारू, खांटी और ईमानदार लेखक का जीवन जीया। एक हाड़-तोड़ मज़दूर की तरह अपने काम में पूरी निष्ठा से लगे रहे और एक शानदार लेखकीय जीवन की मिसाल छोड़ गये।

अपनी कहानियों के लिए उन्‍होंने जो विषय उठाये हैं, चाहे वह बेला एक्‍का लौट रही है, जल प्रांतर, भैया एक्‍सप्रेस हो, भासा हो, सारी की सारी कहानियां उनकी मैच्‍योर सोच और अपने वक्‍त, समाज और समाज की विसंगतियों के प्रति उनके सरोकारों की कहानी ही कहती हैं।

हमारी विनम्र स्मृति।

सूरज प्रकाश
mail@surajprakash.com
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