थक-हारकर बैठ जाना उनकी प्रकृति में नहीं था
बलराम अग्रवाल
अरुण प्रकाश से
मेरा परिचय 2004 में हुआ था। मैंने उनके आवास पर आने की अनुमति माँगने के लिए एक
दिन उन्हें फोन किया था। मुझे वह नहीं जानते, ऐसा मेरा मानना था और यह भी कि बहुत
सम्भव है कि मेरा नाम भी मेरे बताने पर उन्होंने तभी सुना हो जब पहली बार फोन पर
मैंने उन्हें बताया था; लेकिन मेरी धारणा को ध्वस्त करते-से वह बोले थे—“आपकी लघुकथाएँ
कभी-कभार पढ़ता रहता हूँ। मेरे घर आने के लिए आपको अनुमति लेने की जरूरत नहीं है
बलराम जी, आप नि:संकोच आइए।”
“अनुमति की जरूरत दरअसल यह जानने के
लिए भी है कि मैं किस दिन और किस समय आऊँ ताकि आपको असुविधा न हो।” मैं बोला। यह कहते हुए मुझे यह
आश्चर्य भी होता रहा कि अधिकांशत: लम्बी कहानियाँ लिखने वाला यह व्यक्ति छोटे आकार
की कथा-रचनाएँ भी न केवल पढ़ता है बल्कि उनके रचनाकारों के नाम से भी परिचित है।
“मैं इन दिनों घर पर ही रहता हूँ।” उन्होंने कहा था,“फिर भी, आने से पहले फोन कर लोगे तो
आपको भी असुविधा नहीं होगी।”
“आज ही आ जाऊँ?” मैंने पूछा।
“किस समय आओगे?” उन्होंने पूछा।
“दोपहर बाद।”
“आ जाओ।”
उसी दिन
मैं दिलशाद गार्डन स्थित उनके आवास पर पहुँच गया था। कॉल बेल की आवाज़ सुनकर दरवाज़ा
उनकी पत्नी ने खोला था या किसी बच्चे ने, याद नहीं। दरवाज़ा खोलकर एक कामचलाऊ
खूबसूरत पार्टीशन के पीछे मुझे उनके कमरे की ओर भेज दिया गया था। उस समय अपने कमरे
में बैठे वह किसी उपन्यास की समीक्षा लिखने में व्यस्त थे। कमरे में बहुत खुलापन नहीं था। बैठने की जगह तक
मुझे जाने का रास्ता देने के लिए उन्हें अपनी जगह
से खड़े होना पड़ा था शायद। खड़े होकर पूरी आत्मीयता से उन्होंने मेरा स्वागत किया,
जल लाने के लिए आवाज़ दी और मुझसे कहा—“आइए, कैसे हैं?”
पहली ही
मुलाकत में ऐसी अनौपचारिकता! स्पष्ट था कि वे सम्बन्धों में मिठास के पक्षधर अधिक
थे, गणितीय गुणा-भाग के कम; जबकि आज के फ्रीलांसर्स में इसका उलट देखने को मिलता
है। जवाब में मैंने “अच्छा हूँ” कहा और अपने कथा-संग्रह ‘चन्ना चरनदास’ की एक
प्रति उनकी ओर बढ़ाकर बोला,“अपना नया
कथा-संग्रह आपको भेंट करने के लिए आया हूँ।”
यह
निश्चित रूप से पुस्तक के प्रति उनके सम्मान का द्योतक था कि मेरे हाथ से ‘चन्ना चरनदास’ को लेते
ही उन्होंने अपने माथे से लगाया जैसाकि बचपन में हमारे अध्यापकों और माता-पिता ने
हमें सिखाया था। मैं किंचित चौंका। पुस्तक को ऐसा सम्मान तो स्वयं मैंने भी
प्रकाशक के हाथ से उसकी प्रति प्राप्त करते हुए नहीं दिया था।
इस बीच
मेरे लिए पानीभरा गिलास आ गया था।
लाने वाले से उन्होंने तुरन्त ही कहा था,“एक-एक कप चाय और ले आना।”
मैं पुन:
चौंका। मुझ नवागन्तुक से वे कुछ पूछ ही नहीं रहे थे। आम तौर पर, ‘जल लेंगे?’, ‘गरम लेंगे या ठंडा?’ जैसे औपचारिक सवाल तो आगन्तुक से हर
व्यक्ति करता ही है। अरुण प्रकाश ने ऐसा कुछ नहीं किया। उन्होंने परिवारवालों को
सीधे आदेश दिया। मुझे यह कहने का कि ‘भाईसाहब, रहने दीजिए, मैं चाय नहीं पीता’ अवसर ही नहीं दिया; और न यह कि ‘चाय नहीं, ठंडा ठीक रहेगा’। सीधी बात थी कि घर में जो आसानी से उपलब्ध
हैं—जल और चाय—ये दो ही आपको स्वीकारने होंगे। दूसरी
बात यह कि उन्होंने ‘एक कप’ नहीं, ‘एक-एक कप’ कहा था जबकि उनके पास पहले ही रखे कप
में कुछ चाय अभी भी बाकी थी! इस बात के भी दो मतलब थे—पहला यह कि हो सकता है, वे लिखते समय
लगातार चाय पीते रहने के शौकीन रहे हों जैसे कि डॉ॰ विनय को लिखने की मेज़ पर मैंने
लाइट पैग़ रखकर बैठते देखा था और दूसरी यह कि ‘मैं तो आपके सामने यह पी ही रहा हूँ’ कहकर अकेले आगन्तुक को चायपान की ओर
ठेल देने की टालू औपचारिकता से ऊपर वे उसका साथ निभाने के पक्षधर रहे हों।
बलराम अग्रवाल
उस दिन
हमारे बीच बहुत-सी बातें हुईं। यह अलग बात थी कि उनमें अधिकतर बातें उनकी ओर से
आईं, मेरी ओर से केवल ‘हाँ’ ‘हूँ’ होता रहा।
समीक्षा लिखने के अपने तरीके को स्पष्ट करते हुए उन्होंने बताया था कि—“किसी भी पुस्तक की
समीक्षा/आलोचना उसे आधी-अधूरी या कहीं-कहीं से पढ़कर कभी मत करो। इससे उसके प्रति
आप न्याय नहीं कर पाएँगे। दूसरे, आलोचना की भाषा में कम से कम एक शब्द ऐसा ज़रूर
डालो जो प्रचलित शब्दों से किंचित अलग हो और पढ़ने वाले उसके अर्थ तलाशने के लिए
शब्दकोशों में डुबकियाँ लगाने को विवश हो जाएँ।” मैं आज भी
नहीं जानता कि वे किस तरह ऐसे शब्दों का प्रयोग आलोचना की अपनी भाषा में करते थे।
बहरहाल, आलोचना लिखने के और-भी अनेक गुर वे बताते थे।
अरुण
प्रकाश ने होटल प्रबंधन की शिक्षा प्राप्त की थी और बरौनी फर्टिलाइज़र कार्पोरेशन
में गेस्ट हाउस के मैनेजर हो गए थे। वहीं पर उन्हें रहने के लिए आवास मिला हुआ था।
अच्छा-खासा जीवन था। उनके पिता राज्यसभा के सांसद हुए थे लेकिन बहुत कम समय में ही
उनका निधन अथवा हत्या हो गई थी। शुरु में अरुण जी कविताएँ लिखा करते थे और उनकी
पहली प्रकाशित पुस्तक भी कविता संग्रह ही थी—‘रक्त के बारे में’। यों कहानियाँ लिखना भी उन्होंने बरौनी में रहते हुए ही
शुरू कर दिया था। ‘बेला एक्का लौट रही है’ या ‘कफन 1984’ जैसी कहानियाँ काफी चर्चित हो चुकी
थीं। उनकी कहानी ‘जल प्रांतर’ भी सम्भवत: उन्हीं दिनों आ गई थी।
बरौनी में रहते हुए ही उन्होंने हिन्दी अधिकारी की विभागीय अंतरिम परीक्षा दी और
उत्तीर्ण होकर बरौनी से दिल्ली आ गए। यहाँ आकर उन्होंने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले
ली। सेवानिवृत्ति के बाद वे कमलेश्वर के साथ जुड़ गए और लगभग हर उस जगह रहे जहाँ
कमलेश्वर गए। उनके अतिरिक्त ‘जागरण’,‘राष्ट्रीय सहारा’ आदि
पत्रों से भी अरुण प्रकाश जुड़े। जीविका के लिए उन्होंने अंग्रेजी से हिन्दी
अनुवाद, फिल्मों और टेलीविज़न धारावाहिकों का स्क्रिप्ट लेखन, विदेशी फिल्मों की
हिन्दी सब-टाइटिलिंग आदि अनेक कार्य किए। उनके साहित्यिक जीवन का अत्यन्त
महत्वपूर्ण कार्य सम्भवत: साहित्य अकादमी, नई दिल्ली की हिन्दी पत्रिका ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ का संपादक
बनना था जिसे अपनी रुग्णावस्था के चलते भी उन्होंने पूरी निष्ठा, दायित्व, कुशलता
और श्रम के साथ निभाया।
तनावग्रस्त
व्यक्ति को या तो एकदम गुमसुम देखा जाता है या फिर निरर्थक रूप से वाचाल। गुमसुम
व्यक्ति को देखते ही आप पूछते हैं—किस सोच में हैं? और
निरर्थक रूप से वाचाल व्यक्ति को अक्सर अनदेखा, नज़रअन्दाज़ कर देते हैं। लेकिन
रचनाशील व्यक्ति जब तनावग्रस्त होता है तब उसकी चुप्पी में भी रचनाशीलता होती है
और वाचालता में भी। त्रिलोचन शास्त्री के बाद अरुण प्रकाश दूसरे रचनाकार थे जिनकी
वाचालता में मुझे तनाव की गहरी छाया महसूस होती थी। हालाँकि त्रिलोचन जी की
वाचालता जितनी रोचक अरुण जी की वाचालता
नहीं होती थी तथापि जीवन से जुड़े अनेक ग्लोरियस प्रसंग वे गढ़ लेते थे। वस्तुत:
लेखन और पत्रकारिता में अपनी जिस तीक्ष्णता को सिद्ध करने की दृष्टि से उन्होंने
सेवानिवृत्ति ली थी, वह तीक्ष्णता सिद्ध करने का भरपूर मौका कभी वे पा नहीं सके और
इस असफलता ने उन्हें क्षोभ से भर दिया था। लेकिन इस क्षोभ को कभी भी उन्होंने
हताशा में नहीं बदलने दिया, रचनात्मक बनाए रखने का भरपूर प्रयास किया। वे सिगरेट
भी शायद बहुत पीते थे और जैसा कि उनके कुछेक मित्रों से मैंने सुना अस्थमा से
पीड़ित रहने के बावजूद भी उन्होंने सिगरेट पीना कम नहीं किया था। उनके इस कृत्य को
भी मैं तज्जनित तनाव से ही जोड़कर देखता हूँ।
उनकी
विनोदी प्रकृति का जिक्र इस बीच किसी ने किया हो, याद नहीं; लेकिन स्वस्थ विनोद
उनके स्वभाव में था। एक दिन जब मैं उनसे मिलने गया तो बातचीत के दौरान बोले—“बलराम, आपने कछुए
और खरगोश की कहानी पढ़ी है?”
“बचपन में पढ़ी थी।” मैंने कहा।
“यही तो।” वे बोले, “पाठ्यक्रम तैयार करने वालों को अक्ल
ही नहीं है कि उस कहानी का मैसेज बच्चों के लिए तो है ही नहीं, जवानों के लिए है।”
“मैसेज तो साफ है…” मैं बोला।
“जो मैसेज साफ है वह आपमें फीड किया
गया है, आपका शोधा हुआ नहीं है।” वे बोले।
“शोधा हुआ क्या है?” मैंने पूछा।
“अरे सीधी-सादी सेक्स की कहानी है यह।” वे बोले, “जो तेज़ दौड़ेगा, वो साला बीच में
ही टाँय-टाँय फिस् हो जाएगा। सो जाएगा थक-हारकर। मुकाम तक पहुँचना है तो धीरे-धीरे
चलो…कछुए की तरह…” यह कहकर उन्होंने चमकभरी आँखों से
मुस्कराते हुए मुझे देखा। बोले, “इसे कहते हैं शोध…आलोचक की समझ…किसी साले को अक्ल ही नहीं
है कि…”
अरुण
प्रकाश जी के अधिकतर मित्रों-परिचितों का मानना है कि वे स्वास्थ्य के प्रति कम,
कार्य के प्रति अधिक जिम्मेदार थे। रुग्णता के दिनों में भी वे लगातार लेखन कार्य
करते रहे, आक्सीजन मास्क हटाकर बोलते-बतियाते रहे। मेरा मानना है कि रुग्णता की
गंभीरता में भी काम में लगे रहना उनकी जिजीविषा थी। अपनी दबंग प्रकृति और स्पष्ट
दृष्टि के कारण उन्होंने मित्रों के बीच ही अमित्रों का निर्माण कर लिया था। इस
संबंध में मुझे एक वाकया याद है। नई दिल्ली स्थित गाँधी शांति प्रतिष्ठान में
कथाकार रूपसिंह चंदेल के उपन्यास ‘पाथर टीला’ के लोकार्पण और उस पर चर्चा का अवसर
था। अनेक विचारकों ने उक्त उपन्यास की कथावस्तु, शिल्प, शैली आदि पर अपने विचार
रखे। मैत्रेयी पुष्पा ने अपने वक्तव्य में कहा कि—“ ‘पाथर टीला’ के लेखक को भारतीय गाँवों की जानकारी
नहीं है। इस उपन्यास में वर्णित गाँव काल्पनिक है।” मुझे नहीं
पता कि अरुण प्रकाश का नाम उस अवसर पर वक्ताओं की सूची में था या नहीं, लेकिन वे
मंच पर गए और मैत्रेयी पुष्पा के बयान को कड़ाई के साथ नकारते हुए उन्होंने कहा कि—“हिन्दी के अधिकतर
आलोचक गाँव के वास्तविक जीवन, उसके रहन-सहन और राजनीति के बारे में भ्रम का शिकार
हैं। उन्होंने वस्तुत: गाँव देखे नहीं, केवल पढ़े हैं, वह भी प्रेमचंद की कहानियों
और उपन्यासों में वर्णित गाँव। इसीलिए जब प्रेमचंद से इतर कोई गाँव उन्हें किसी
कहानी या उपन्यास में पढ़ने को मिल जाता है तो वह उन्हें अविश्वसनीय लगता है।” स्पष्ट है कि मैत्रेयी के बयान का
विरोध उस समय मंचस्थ राजेन्द्र यादव को भी अवश्य ही नागवर गुजरा होगा जिनके
अनुमोदन पर मैत्रेयी का नाम वक्ताओं की सूची में जोड़ा गया था।
अभिव्यक्ति के मामले में अपनी इस दबंगई के चलते ही वे मुकाम-दर-मुकाम कमलेश्वर
सरीखे साथियों और हितैषियों द्वारा भी अलगाए जाते रहे। आज का समय स्वस्थ आलोचना का
इसलिए रह ही नहीं गया है, परन्तु उन्होंने अपने हितों की चिन्ता न करके आलोचना के ‘स्वास्थ्य’ को ध्यान
में रखा। उन्होंने दैहिक रूप से मरना स्वीकार किया लेकिन अपने ज़मीर को मरने देना
तो अलग, कभी झुकने तक नहीं दिया।
मुझे लगता
है कि स्वस्थ रहते हुए जिस मुकाम को अरुण प्रकाश न पा सके, उसे अस्वस्थ होने के
कारण बीच में छोड़ देना वे नहीं चाहते थे। विपरीत परिस्थितियों से समझौता कर लेना
और थक-हारकर बैठ जाना उनकी प्रकृति में नहीं था।
-0-0-0-0-0-
संपर्क : एम-70, उल्धनपुर, दिगम्बर जैन मन्दिर के सामने,
नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032

1 टिप्पणी:
बलराम अग्रवाल का अरुण प्रकाश पर एक अच्छा संस्मरण। इस संस्मरण के बहाने अरुण प्रकाश जी जुड़ी कुछ नई बातें पता चलीं जो मुझे पहले नहीं मालूम थीं और जो उनके खरेपन और उनकी खुद्दारी को स्पष्ट करती हैं…
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