शुक्रवार, 15 नवंबर 2024

शीर्ष से सतह तक की यात्रा

 

शीर्ष से सतह तक की यात्रा

सीढ़ियां चढ़कर मैं पहली मंजिल पर उनके कमरे के दरवाजे पर पहुंचा. दरवाजा बंद था. कमरे में टेलीविजन ऊंचे वाल्यूम में चल रहा था. कई बार खटखटाया, लेकिन कोई उत्तर नहीं . काफी प्रातीक्षा और प्रयास के बाद दरवाजा खुला. भाभी जी थीं. मुझे देखकर हत्प्रभ. "अन्दर आइये" कहकर पीछे मुड़ीं और उंची आवाज में बोलीं, "अरे देखो तो कौन आया है?" लेकिन उन्होंने सुना नहीं और आंखे टी.वी. पर गड़ाये रहे. भाभी जी ने टी.वी. धीमा कर दिया और बोलीं,"चन्देल जी आये हैं."

बनियाइन और पायजामे में वह लेटे हुए टी.वी. देख रहे थे. पत्नी के साथ मुझे देखकर तपाक से उठे और "अरे आप!" कहते हुए नीचे उतरे. चप्पलें नहीं मिलीं तो नंगे पैर मेरे पास आये, "सभी मुझे भूल गये." एक मायूसी उनके चेहरे पर तैर गयी, "चलिए आपने याद तो रखा." स्वर में शिकायत थी.

"आपने वायदा किया था कि नये घर में जाकर मुझे पता और फोन नम्बर देंगे."  आवाज कुछ ऊंची करके बोलना पड़ा. जबसे उनके मस्तिष्क में कीड़े हुए थे, उन्हें कम सुनाई देने लगा था. इसीलिए वह ऊंची आवाज में टी.वी. सुन रहे हैं, मैंने सोचा, लेकिन उनके यहां टी.वी. सदैव ऊंची आवाज में ही सुना जाता था. जब भी उनके विश्वासनगर वाले घर गया नीचे से ही टी.वी. की ऊंची आवाज सुनाई दे जाती थी. ऊपर पहुंचने पर कहना पड़ता कि टी.वी. धीमा कर दें.

मैं कमरे का जायजा ले रहा था. वह चौदह बाई दस का कमरा रहा होगा, जिसमें एक डबल बेड और तीन कुर्सियां, एक आल्मारी और कुछ अन्य सामान रखा हुआ था. सामने छोटी-सी रसोई और उससे आगे बाल्कनी, जिसपर उन्होंने टीन-शेड डलवा रखी थी. दिल्ली के लम्बे-चौड़े दो-मंजिला मकान में रहने वाले (जिसमें नीचे हिस्से में उनके प्रकाशन की पुस्तकों का भण्डार और कार्यालय था, और ऊपर रिहायश. उससे ऊपर भी एक कमरा था) श्रीकॄष्ण जी का जीवन नोएडा के उस छोटे-से जनता फ्लैट में सिमटकर रह गया था.

 

श्रीकृष्ण जी से मेरी पहली मुलाकात 1984 के आसपास हुई थी. मैं लेखन के शुरूआती दौर से गुजर रहा था. कभी-कभार पत्र-पत्रिकाओं में जाया करता. प्रायः शनिवार को. उस दिन हिन्दुस्तान टाइम्स में 'साप्ताहिक हुन्दुस्तान' में हिमांशु जोशी से मिलने गया था. हिमांशु जी उन दिनों वहां विशेष संवाददाता  के अतिरिक्त साहित्य भी देखते थे.

 

जब मैं हिमांशु जोशी जी के कमरे में पहुंचा उनके पास दो सज्जन पहले से ही बैठे हुए थे. एक सज्जन औसत कद, गोरे, स्लिम और दूसरे नाटे, सांवले और दुबले. मैं दोनों को ही नहीं जानता था. हिमांशु जी ने उनके परिचय दिए. गोरे सज्जन थे आबिद सुरती और दूसरे थे पराग प्रकाशन के श्री श्रीकृष्ण जी. परिचय के आदान- प्रदान के दौरान श्रीकृष्ण जी पूरे समय मुस्कराते रहे थे. बाद में पता चला कि श्रीकृष्ण जी ने हिमांशु जी का तब तक का लगभग पूरा साहित्य प्रकाशित किया था. कुछ लोगों के अनुसार साहित्य जगत में पुस्तकाकार रूप में उन्हें प्रकाशित करने वाले पहले प्रकाशक श्रीकृष्ण जी थे. जोशी जी की भांति नरेन्द्र कोहली के बहुचर्चित उपन्यास 'दीक्षा' आदि को सर्वप्रथम 'पराग' ने ही प्रकाशित किया था. बाद में हिमांशु जी ने अपनी पुस्तकें पराग से वापस ले ली थीं. एक समय ऎसा भी आया जब किसी बात पर उनके मध्य विवाद भी हुआ और जोशी जी ने पराग को वकील का नोटिस भी भेजा. श्री कृष्ण जी मुझे सब बताते और चाहते कि मैं मध्यस्थता करूं लेकिन मैं मध्यस्थता की स्थिति में न था. वकील की नोटिस से श्रीकृष्ण जी बहुत आहत थे. अन्ततः मध्यस्तता सत्येन्द्र शरत जी ने की थी और उसी रात श्रीकृष्ण जी ने मुझे फोन करके सारा प्रकरण बताने के बाद कहा था, "आज एक बहुत बड़े टेंशन से मुक्त हो गया हूं, लेकिन मैंने उनसे (हिमांशु जी) ऎसी आशा नहीं की थी." हिमांशु जी की तरह ही नरेन्द्र कोहली ने भी अपने उपन्यास पराग से लेकर दूसरे प्रकाशकों को दे दिए थे. एक विश्व पुस्तक मेला में भावना प्रकाशन में नरेन्द्र कोहली जी से मुलाकात हो गयी. वह वहां पहले से ही बैठे हुए थे. मैं और बलराम अग्रवाल साथ पहुंचे और कोहली जी के अगल-बगल कुर्सियों पर बैठ गए. बातचीत में श्रीकृष्ण जी का प्रसंग आया तो कोहली जी बोले, “जब मैंने अपने उपन्यास पराग से वापस लिए तब श्रीकृष्ण की पत्नी ने कहा, ’भाई साहब, हम आपके पहले प्रकाशक हैं, एक-दो उपन्यास हमारे पास भी रहने दें.’ उस मूर्ख औरत पर मुझे बहुत क्रोध आया. उसकी शिकायत मैंने योगेन्द्र कुमार लल्ला से की थी.”

श्रीमती श्रीकृष्ण जी के बारे में कोहली जी का उद्गार सुनकर मैंने और बलराम अग्रवाल ने एक दूसरे की ओर देखा था. आश्चर्य था. श्रीमती श्रीकृष्ण की बात में ऎसा आपत्तिजनक क्या था कि कोहली जी उनके बारे में अपमानजन भाषा में बात कर रहे थे. कोहली जी अहंकारी व्यक्ति थे. वह कभी भी और कहीं भी किसी का भी अपमान कर देते थे. उन्होंने इतिहास और पुराणों का केवल पिष्टपेषण किया है. व्यवहार और लेखन से वह बड़े लेखक नहीं थे.    

श्रीकृष्ण जी से परिचय के समय तक मेरी दो पुस्तकें - एक बाल कहानी संग्रह और एक अपराध विज्ञान की पुस्तक ही प्रकाशित हुई थीं, ऎतिहासिक कहानियों का संग्रह ’पेरिस की दो कब्रें’ की पाण्डुलिपि किताबघर के पास प्रकाशनार्थ था.  हिमांशु जी के कार्यालय में श्रीकृष्ण जी से परिचित होने के बाद उनसे अगली मुलाकात 1986 या 87 में हुई. मैं किसी के साथ  उनके घर कर्ण गली, विश्वासनगर गया था. उन दिनों तक 'पराग प्रकाशन' हिन्दी के महत्वपूर्ण प्रकाशकों में अपनी अलग पहचान बना चुका था. पराग को ही अमृता प्रीतम की 'रसीदी टिकट' प्रकाशित करने का पहला अवसर मिला था, जिसकी बहुत चर्चा हुई थी. नरेन्द्र कोहली के रामचरित मानस पर आधारित उपन्यास भी चर्चा बटोर चुके थे. पराग प्रकाशहन की स्थिति यह थी कि अधिकांश युवा लेखक वहां छपना चाहते और पराग ने अनेकों को छापा भी था. लेकिन कुछ लेखकों ने उन्हें बाद में परेशान भी किया था. उन दिनों श्रीकृष्ण जी ने जिससे भी - स्थापित या नये लेखकों से पाण्डुलिपियां मांगी, शायद ही किसी ने उन्हें निराश किया था. उसका सबसे बड़ा कारण था उनका 'प्रोडक्शन'. एक बार चर्चा के दौरान उन्होंने बताया था कि उनके प्रोडक्शन से राजकमल प्रकाशन की शीला सन्धु इतना प्रभावित थीं कि उन्होंने प्रकाशन के वरिष्ठ अधिकारी श्री मोहन गुप्त को पराग के कवर दिखाते हुए कहा था - "मोहन जी इस मामले में हमें श्रीकृष्ण जी से सीखना चाहिए. अकेले दम पर प्रकाशन चला रहे हैं और प्रोडक्शन इतना गजब का !" पराग प्रकाशन को प्रोडक्शन के लिए पहला राष्ट्रपति पुरस्कार भी मिला था. 1995 के आसपास उन्हें अपने प्रकाशन का नाम बदलकर ’अभिरुचि प्रकाशन’ रखना पडा था. दरअसल उन्होंने उसका अपने नाम से रजिस्ट्रेशन नहीं करवाया था. वह नाम किसी अन्य प्रकाशक ने अपने नाम से रजिस्टर्ड करवा लिया था.      

मेरे मन में भी पराग से प्रकाशित होने की ललक मुझे उनके यहां तक खींच ले गयी. बहरहाल,  उनसे मिलने का सिलसिला चल निकला और कई मुलाकातों के बाद मैंने उनसे अपना कहानी संग्रह प्रकाशित करने का आग्रह किया, जिसे उन्होंने सहजता से स्वीकार कर लिया. 1990 में 'आदमखोर तथा अन्य कहानियां' प्रकाशित हुआ. उसके पश्चात श्रीकृष्ण जी की जो आत्मीयता मुझे मिली उसे व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं हैं. रॉयल्टी को लेकर मुझे कभी उनसे शिकायत नहीं रही. उन्हीं दिनों मेरा परिचय उनके मित्र श्री योगन्द्रकुमार लल्ला से हुआ. लल्ला जी 'रविवार' पत्रिका में संयुक्त सम्पादक थे. लल्ला जी ने बताया  कि उन्होंने और श्रीकृष्ण जी ने अपने कैरियर की शुरुआत एक साथ ’आत्माराम एण्ड सन्स’ से की  थी. दोनों ही मेरठ से थे और बच्चों के लिए लिख रहे थे.

श्रीकृष्ण जी बहुत उत्साही व्यक्ति थे. प्रकाशन की डांवाडोल स्थिति के बावजूद वह मोटी -मोटी पुस्तकें प्रकाशित कर रहे थे. उन्होंने मेरा कहानी संग्रह ’एक मसीहा की मौत’ 1995 में प्रकाशित किया. 1996 में  एक दिन फोन करके मुझे बुलाया और बोले- "आपसे एक काम करवाना चाहता हूं." पूछने पर बताया कि वह सभी विधाओं पर शताब्दी का उत्कृष्ट साहित्य प्रकाशित करना चाहते हैं और चूंकि मैंने आंचलिक कहानियां और उपन्यास लिखें हैं अतः मुझसे 'बीसवीं शताब्दी की उत्कृष्ट आंचलिक कहानियां' का सम्पादन करवाना चाहते हैं. मैंने सहर्ष स्वीकृति दे दी. 1997 में दो खण्डों में वह कार्य 800 पृष्ठों में प्रकाशित हुआ जिसकी न केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी चर्चा हुई. उन्होंने मुझे सम्पादक के रूप में बारह हजार से अधिक रॉयल्टी दी थी, जिसकी कल्पना मैं किसी बड़े प्रकाशक से नहीं कर सकता था.

उनके अति-उत्साह, बढ़ती उम्र और बिक्री की समुचित व्यवस्था के अभाव (क्यॊंकि वह अकेले थे--- उनके सात बेटियां थीं  और सभी की शादी हो चुकी थी) के कारण प्रकाशन चरमरा रहा था. उनके आर्थिक संकट में फंसने का एक कारण और भी था. उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह जी के नेतृत्व में पहली भाजपा सरकार बनी तब रामकुमार भ्रमर नामके के लेखक ने दिल्ली के कितने ही प्रकाशकों को वहां पुस्तकें खरीद करवाने का सब्जबाग दिखाकर उनसे मोटी रकमें ली थीं. उन्होंने सभी प्रकाशकों को कहा कि उनकी पहुंच ऊंचे तक है और वह उनकी लाखों रुपयों की पुस्तकें वहां खरीद करवा देंगे. वह धन रिश्वत के रूप में न लेकर अपनी बेटी के विवाह के बहाने उधार के रूप में लिया. श्रीकृष्ण जी ने किसी से एक लाख रुपए उधार लेकर उस लेखक को दिए थे. परिणामस्वरूप उन पर कर्ज का बोझ बढ़ गया था, लेकिन पुस्तकें प्रकाशित करने के उनके उत्साह में कोई कमी नहीं आ रही थी. बिक्री की समुचित व्यवस्था नहीं थी. उन्होंने मेरठ के अपने दामाद को कुछ समय के लिए अपने व्यवसाय से जोड़ा लेकिन उसमें भी उन्हें सफलता नहीं मिली.

आर्थिक संकट के बावजूद वह लगातार एक के बाद दूसरी योजनाएं बना रहे थे प्रकाशन भी कर रहे थे.  'मेरी तेरह कहानियां' नाम से कहानी संग्रहों की एक श्रृखंला प्रारम्भ की और कई लेखकों को छाप डाला. अंतिम कड़ी में, कमलेश्वर, प्रेमचन्द, और मुझ सहित पांच लेखकों को प्रकाशित किया. लेकिन इसी दौरान वह भयंकर बीमारी का शिकार होकर लम्बे समय तक शैय्यासीन रहे. उनके मस्तिष्क में कीड़े हो गये थे, जो आज एक आम बीमारी होती जा रही है. कहते हैं बन्ध-गोभी खाने वालों को इस बीमारी का शिकार होने की अधिक सम्भावना होती है.

अन्ततः स्थिति यह हुई कि श्रीकृष्ण जी को प्रकाशन बन्द करना पड़ा. यही नहीं उन्हें मकान भी बेच देना पड़ा. एक दिन उन्होंने मुझे बुलाया और मेरी पुस्तकों की बची प्रतियां मेरी गाड़ी में रखवा दीं, जिसमें 'मेरी तेरह कहानियां' की तीस प्रतियां और 'वीसवीं शताब्दी की उत्कृष्ट आंचलिक कहानियां' की लगभग 44 प्रतियां थीं. "इतनी पुस्तकों का मैं क्या करूंगा.?" पूछने पर सहज- भाव से बोले थे, "मित्रों में बांट दीजिएगा."

उन्होंने मकान बेचने की बात बताते हुए कहा था, "जाने के बाद आपको नयी जगह का पता और फोन नम्बर दूंगा. आप जैसे कुछ ही लेखक हैं जो निस्वार्थ मुझसे सम्पर्क बनाए रहे--- उन्हें कैसे भूल सकता हूं." लेकिन या तो वह अपनी असाध्य बीमारी के कारण भूल गये या उन्हें अपना नया पता बताने में संकोच हुआ था. बात जो भी हो. व्यस्तता के चलते एक वर्ष तक मैं भी उनसे सम्पर्क नहीं कर सका. मुझे इतनी जानकारी थी कि नोएडा में कहीं जनता फ्लैट लेकर वह रह रहे हैं. एक वर्ष बाद किसी कार्यवश मुझे नोएडा जाना पड़ा. उनका पता किससे मिल सकता है यह सोचता रहा. उनकी सबसे बड़ी बेटी श्यामलाल कॉलेज,दिल्ली में हिन्दी प्राध्यापक थीं, लेकिन उनका फोन नंबर मेरे पास नहीं था. बलराम अग्रवाल से पूछा, उन्होंने कहा कि डॉ हरदयाल मेरी सहायता कर सकते हैं. डॉ. हरदयाल से श्रीकृष्ण जी का पता लेकर मैं जब नोएडा के उनके जनता फ्लैट में पहुंचा तब उन्हें देखकर विश्वास ही नहीं हुआ कि यह वही श्रीकृष्ण जी थे जो कभी हिन्दी प्रकाशन जगत में छाये हुए थे. कहां विश्वासनगर में उनका बड़ा मकान और कहां जनता फ्लैट!

मैं लगभग डेढ़ घण्टा उनके साथ रहा था. वह गदगद थे. उस हालत में भी उनका लेखन कार्य चल रहा था. बच्चों के लिए कुछ लिख रहे थे. उनकी लगभग पचास पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी थीं, जिनमें 14 पुस्तकें बड़ों के लिए थीं. उन्हें देखकर मैं सोचने के लिए विवश हुआ कि ईमानदारी और बिना छल-छद्म के प्रकाशन व्यवसाय चलाने वाले व्यक्ति का भविष्य श्रीकृष्ण जैसा हो सकता है. मुझे 1982-83 के आसपास  भीष्म साहनी जी की साप्ताहिक हिन्दुस्तान में प्रकाशित कहानी याद हो आयी जिसमें लेखक की स्थिति तो नहीं बदलती--- वह जैसा होता है वर्षों-वर्षों लिखने के बाद भी वैसा ही बना रहता है, जबकि एक प्रकाशक कुछ वर्षों में ही पूंजीपति हो जाता है. लेकिन ऎसे प्रकाशकों के मध्य अपवादस्वरूप श्रीकृष्ण जी जैसे प्रकाशक भी थे, जो अपनी ईमानदारी के कारण वह जीवन जीने के लिए विवश थे जिसकी उन्होंने कभी कल्पना नहीं की थी. लेकिन वह इस बात से दुखी नहीं थे---उनका दुख इस बात का था कि प्रकाशन जगत में भ्रष्टाचार गहराई तक फैल चुका था. उन्होंने कहा, “चन्देल जी, आज बड़े -बड़े प्रकाशक नये लेखकों से पैसे लेकर पुस्तकें छाप रहे हैं. कुछ ऎसे भी हैं जो अप्रवासी हिंदी-पंजाबी लेखकों की अनभिज्ञता का लाभ उठाकर उनसे मोटी रकमें लेकर उनकी पुस्तकें प्रकाशित कर रहे हैं. उनके बल पर विदेश की यात्राएं कर रहे हैं. खरीद में बैठे अधिकारी का कुछ भी छाप रहे हैं. ऎसे अधिकारी मालामल भी हो रहे हैं और लेखक भी बन रहे हैं. परिणामतः हिन्दी साहित्य का स्तर गिर रहा है.”

जब मैं चलने लगा तब उन्होंने पूछा, “बलराम जी से आपका संपर्क है?”

“है क्यों नहीं. कई बार उनसे नवभारत टाइम्स में मिलने जाता हूं.”

“वह भी मेरे प्रिय हैं. उन्हें कहेंगे कि एक दिन समय निकालकर मिलने आ जाएं.”

मैंने बलराम को उनका संदेश दिया. उनकी मृत्यु के बाद जब मैंने बलराम से उनसे मिलने जाने के बारे में पूछा तब उन्होंने खेद व्यक्त करते हुए कहा कि व्यस्ततावश वह जा नहीं पाए थे.

श्रीकृष्ण जी मेरे मिलने जाने के बाद बलराम अग्रवाल उनसे मिलने गए थे. उनसे मिलने के बाद बलराम अग्रवाल ने अपने ब्लॉग ’अपना दौर’ में लिखा, “मिलने आने वालों की बात चली तो पति-पत्नी दोनों को मात्र एक नाम याद आया—योगेन्द्र कुमार लल्ला जी का। रजनी (उनकी बेटी) ने भी कहा कि लल्ला जी अंकल कभी-कभार आते हैं। श्रीकृष्ण जी ने कहा—‘जिस-जिस की भी अपने भले दिनों में खूब मदद की थी, उनमें से कोई नहीं मिलने आया। किसी और की क्या कहूँ, खुद मेरा सगा भाई भी अभी तक मुझे देखने नहीं आया है। ठीक ही कहा है कि जो पेड़ कितने ही परिन्दों को आश्रय और पथिकों को छाया व फल देता है, बुरे वक्त में वे सब उसका साथ छोड़ जाते हैं। आप लोग मिलने आ गये, यह बहुत बड़ी बात है…कौन आता है!…नरेन्द्र कोहली कहते थे कि मेरा नाम पराग प्रकाशन की देन है, लेकिन अब वे भी…।

ब्लॉग के अन्तिम पैरा में बलराम अग्रवाल ने लिखा"प्रकारान्तर से रामकुमार भ्रमर का नाम भी उनकी जुबान पर आया। बहुत तरह से पति-पत्नी बहुत लोगों को याद करते हैं। उनके अनुसार, हिमांशु जोशी आदि अनेक प्रतिष्ठित साहित्यकारों के वे प्रथम प्रकाशक रहे हैं। अतीत की बातें सुनाते हुए कभी वे खुश होते हैं, कभी उदास हो जाते हैं.''

 

मेरे मिलने जाने के कुछ दिनों बाद श्रीकृष्ण जी का स्वास्थ्य अधिक खराब हो गया था. वह पास में रहने वाली अपनी बेटी रजनी के पास शिफ्ट हो गए थे. रजनी और उनका परिवार ही नोएडा उनके शिफ्ट होने के बाद उनकी देखभाल कर रहा था. लेकिन अब वह बेटी के पास ही शिफ्ट हो गए थे. बलराम अग्रवाल उनसे मिलने वहां गए थे. वहीं उनकी मृत्यु 7 दिसम्बर,2011 को हुई थी, लेकिन उनकी मृत्यु से साहित्य जगत लंबे समय तक अनभिज्ञ रहा था. 15 अगस्त,2012 को उनकी धर्मपत्नी श्रीमती कमला देवी भी संसार से विदा हो गयी थीं.

 

श्रीकृष्ण जी



श्रीमती कमला देवी




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