हम और हमारा समय
बलबीर माधोपुरी पंजाबी के बेहद चर्चित समकालीन कवि, पत्रकार और लेखक हैं। इनके तीन कविता संग्रह छ्प चुके हैं। इन दिनों अपनी दलित आत्मकथा “छांग्या रुक्ख” के कारण भारत व भारत से बाहर चर्चा का विषय बने हुए हैं। “छांग्या रुक्ख” के पंजाबी भाषा में पाँच संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। अभी हाल ही में इसका हिंदी अनुवाद “वाणी प्रकाशन” से प्रकाशित हुआ है जिसका हिंदी अनुवाद हिंदी के कथाकार-कवि सुभाष नीरव ने किया है। इस आत्मकथा का अनुवाद न केवल भारतीय भाषाओं में हो रहा है, बल्कि अंग्रेजी अनुवाद भी आक्सफोर्ड से शीघ्र प्रकाशित होने वाला है। ‘हम और हमारा समय’ के अंतर्गत हम इनकी पाँच कविताएं प्रस्तुत कर रहे हैं…
पाँच पंजाबी कविताएं : बलबीर माधोपुरी
मूल पंजाबी से हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव
मूल पंजाबी से हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव
(1) उसने कहा
उसने कहा
मैं चिरकाल से
तुम्हारे पीछे चला आ रहा हूँ
अब तुम, मेरे पीछे चलो ।
उन्होंने कहा
हमारे पास मुँह है
और तेरे पास पैर
पैरों का धर्म चलना होता है।
उसने कहा
मैंने बहुत देर तक
‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिलाई है
अब मेरे बोल सुनो।
उन्होंने कहा
ज़बान हमारे पास है
और कान तुम्हारे पास
कानों का धर्म सुनना होता है।
उसने कहा
तुमने मुझे बेघर किया है
मेरा घर मुझे वापस दो।
उन्होंने कहा
आदिवासियों का घर जंगल है
हम जंगल की हवा फैलाएंगे
हवा के खिलाफ जाना पाप है।
उसने कहा
मैं हूँ–आँखों पर पट्टी बंधा बैल
थके–हारे को अब करने दो आराम
और खोलो मेरी आँखें।
उन्होंने कहा
तुम्हारा धर्म देखना नहीं
देख कर अनदेखा करना है।
उसने कहा
मैं हवा के खिलाफ चलूँगा
तुम्हारे शब्द बनेंगे
मात्र गुम्बद की आवाज़ ।
उन्होंने कहा
हवा को थामना
आवाज़ को रोकना
अब बिलकुल असंभव है, असंभव है।
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उसने कहा
मैं चिरकाल से
तुम्हारे पीछे चला आ रहा हूँ
अब तुम, मेरे पीछे चलो ।
उन्होंने कहा
हमारे पास मुँह है
और तेरे पास पैर
पैरों का धर्म चलना होता है।
उसने कहा
मैंने बहुत देर तक
‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिलाई है
अब मेरे बोल सुनो।
उन्होंने कहा
ज़बान हमारे पास है
और कान तुम्हारे पास
कानों का धर्म सुनना होता है।
उसने कहा
तुमने मुझे बेघर किया है
मेरा घर मुझे वापस दो।
उन्होंने कहा
आदिवासियों का घर जंगल है
हम जंगल की हवा फैलाएंगे
हवा के खिलाफ जाना पाप है।
उसने कहा
मैं हूँ–आँखों पर पट्टी बंधा बैल
थके–हारे को अब करने दो आराम
और खोलो मेरी आँखें।
उन्होंने कहा
तुम्हारा धर्म देखना नहीं
देख कर अनदेखा करना है।
उसने कहा
मैं हवा के खिलाफ चलूँगा
तुम्हारे शब्द बनेंगे
मात्र गुम्बद की आवाज़ ।
उन्होंने कहा
हवा को थामना
आवाज़ को रोकना
अब बिलकुल असंभव है, असंभव है।
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(2) वे कब चाहते हैं
वे कब चाहते हैं
कि चंदन के बूटे वृक्ष बनें
बिखेरें सुंगधियाँ
बाँटे महक दसों दिशाओं में
अभागे समय में
दूषित वातावरण में ।
वे तो चाहते हैं
नीरों को बाँटना
पीरों का बाँटना ।
वे चाहते हैं, लहू-लुहान गलियों में
शकुनी नारद चले
साझे चूल्हे की मढ़ी पर
एक चौमुखा दिया जले।
वे कब चाहते हैं
पेड़ों के झुरमुट हों
बढ़ें, फलें, फूलें
वे चाहते हैं
वन में वृक्ष हों अकेले-अकेले
या फिर रगड़ते रहे बाँस आपस में
और लगती रहे आग !
वे कब सहन कर पाते हैं
दूसरों के सिरों पर रंगीन छतरियाँ
ठंडे-शीत मौसमों में कोई गरमाहट
आँगनों में गूँजती, खनखनाती हँसियाँ ।
वे तो चाहते हैं
पीछे लौट जाए
चढ़ा हुआ पानी
दूध में उबाल की तरह
भ्रूण में ख़याल की तरह
निगली जाएं शिखर दोपहरियाँ
दरख्तों के साये
धरती के जाये
बेटों के पते।
वे कब चाहते हैं
त्रिशूल-तलवार को ढाल
बनाएं हलों की फाल
निकालें कोई नई राह
वे तो चाहते हैं
भोथरी कर देना
तीखी इनकी धार !
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वे कब चाहते हैं
कि चंदन के बूटे वृक्ष बनें
बिखेरें सुंगधियाँ
बाँटे महक दसों दिशाओं में
अभागे समय में
दूषित वातावरण में ।
वे तो चाहते हैं
नीरों को बाँटना
पीरों का बाँटना ।
वे चाहते हैं, लहू-लुहान गलियों में
शकुनी नारद चले
साझे चूल्हे की मढ़ी पर
एक चौमुखा दिया जले।
वे कब चाहते हैं
पेड़ों के झुरमुट हों
बढ़ें, फलें, फूलें
वे चाहते हैं
वन में वृक्ष हों अकेले-अकेले
या फिर रगड़ते रहे बाँस आपस में
और लगती रहे आग !
वे कब सहन कर पाते हैं
दूसरों के सिरों पर रंगीन छतरियाँ
ठंडे-शीत मौसमों में कोई गरमाहट
आँगनों में गूँजती, खनखनाती हँसियाँ ।
वे तो चाहते हैं
पीछे लौट जाए
चढ़ा हुआ पानी
दूध में उबाल की तरह
भ्रूण में ख़याल की तरह
निगली जाएं शिखर दोपहरियाँ
दरख्तों के साये
धरती के जाये
बेटों के पते।
वे कब चाहते हैं
त्रिशूल-तलवार को ढाल
बनाएं हलों की फाल
निकालें कोई नई राह
वे तो चाहते हैं
भोथरी कर देना
तीखी इनकी धार !
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(3) धारा
सोचता हूँ-
अचानक आए तूफान में
टूटे-गिरे पौधे को देखकर
करीब खड़े पुराने दरख़्तों पर
क्या–क्या न बीती होगी।
और याद आता है
दरख़्तों का जीवट
अपने आप ही फिर
कदमों में आ जती है फुर्ती
मुरझाये मन का परिन्दा
फिर से भरने लगता है
ऊँची उड़ाने।
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सोचता हूँ-
अचानक आए तूफान में
टूटे-गिरे पौधे को देखकर
करीब खड़े पुराने दरख़्तों पर
क्या–क्या न बीती होगी।
और याद आता है
दरख़्तों का जीवट
अपने आप ही फिर
कदमों में आ जती है फुर्ती
मुरझाये मन का परिन्दा
फिर से भरने लगता है
ऊँची उड़ाने।
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(4) कविता की तलाश
कविता को आजकल
मैं यों तलाशता हूँ
जैसे रेगिस्तान में मनुष्य
तलाशता है कोई दरख़्त।
हमारे समय में
कविता कितनी हो गयी है संवेदनहीन
सचमुच ही दिशाहीन
सामाजिक सराकोरों से विलग
भूल भुला गयी है
अपनी गौरवमयी विरासत
तख़्त से जूझती
तख़्ते पर झूल गयी भावना
दर्दमंदों के लिए कामना।
यह कैसा समय है समकालीनों!
कविता ने सीख लिया है
नदी की तरह
किनारों के बीच बहना
किसी बैलगाड़ी की तरह
पहली लकीर पर चलना
अन्धेरी सुरंग अगर है मुख्यधारा
‘चेतन’ शब्दों का भला क्या है करना
‘अर्थों’ के पल्ले रह गया बस कसकना।
यह कैसी ‘होनी’ है
माँ तेरी कविता की
म्यान में कृपाण की तरह
जंग खा गया इसके अर्थों को
कम्प्यूटर-वायरस की तरह
‘काम-कीट’ खा गए शब्दों को
मैं फिर भी तलाशता हूँ
दुर्बल से, लाखे रंग के
दबे-कुचले आदमी के लिए कविता
मोहनजोदड़ों जैसी सभ्यता।
अंतरिक्ष यान की तरह
धरती से दूर न जा
मेरी प्यारी कविता
निरे मुहब्बत-हादसे
रख न सुरक्षित
शब्दों के वास्ते।
और तू, फिर यों लौट आ
जैसे रुंड-मुंड दरख़्तों पर
हरी-भरी टहनियाँ-पत्ते
घास पर ओस की बूंदें।
कविता को आजकल
मैं यों तलाशता हूँ
जैसे रेगिस्तान में मनुष्य
तलाशता है कोई दरख़्त।
कविता को आजकल
मैं यों तलाशता हूँ
जैसे रेगिस्तान में मनुष्य
तलाशता है कोई दरख़्त।
हमारे समय में
कविता कितनी हो गयी है संवेदनहीन
सचमुच ही दिशाहीन
सामाजिक सराकोरों से विलग
भूल भुला गयी है
अपनी गौरवमयी विरासत
तख़्त से जूझती
तख़्ते पर झूल गयी भावना
दर्दमंदों के लिए कामना।
यह कैसा समय है समकालीनों!
कविता ने सीख लिया है
नदी की तरह
किनारों के बीच बहना
किसी बैलगाड़ी की तरह
पहली लकीर पर चलना
अन्धेरी सुरंग अगर है मुख्यधारा
‘चेतन’ शब्दों का भला क्या है करना
‘अर्थों’ के पल्ले रह गया बस कसकना।
यह कैसी ‘होनी’ है
माँ तेरी कविता की
म्यान में कृपाण की तरह
जंग खा गया इसके अर्थों को
कम्प्यूटर-वायरस की तरह
‘काम-कीट’ खा गए शब्दों को
मैं फिर भी तलाशता हूँ
दुर्बल से, लाखे रंग के
दबे-कुचले आदमी के लिए कविता
मोहनजोदड़ों जैसी सभ्यता।
अंतरिक्ष यान की तरह
धरती से दूर न जा
मेरी प्यारी कविता
निरे मुहब्बत-हादसे
रख न सुरक्षित
शब्दों के वास्ते।
और तू, फिर यों लौट आ
जैसे रुंड-मुंड दरख़्तों पर
हरी-भरी टहनियाँ-पत्ते
घास पर ओस की बूंदें।
कविता को आजकल
मैं यों तलाशता हूँ
जैसे रेगिस्तान में मनुष्य
तलाशता है कोई दरख़्त।
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(5) मेरी ज़िन्दगी
जब से वह मेरे संग है
एक और एक ग्यारह हैं
धरती पर लगते नहीं पैर
और बहुत पीछे छोड़ आया
घोर उदासियों के जंगल
नफ़रतों के खंड-मंडल
फेंक दिये हैं उसकी मुहब्बत के सामने
शिकवे-गिलों के हथियार
वैरभाव के विचार।
बो दिये हैं उसने
मेरे मन में
रोष-विद्रोह से भरे चेतन बीज
जैसे पल रहा है
उसके तन-मन के अन्दर
हमारे भविष्य का वारिस।
ढक दिया है उसने
मेरे अवगुणों-ऐबों का तेंदुआ-जाल
जैसे चमड़ी ने
ढंक रखे हैं तन के नाड़ी और तंतु-जाल
पर खूब नंगा करती है वह
उन पैरों के सफ़र को
जिन्होंने फलांगे थे गड्ढ़े-टीले
दायें-बायें, पीछे-आगे
और तैर कर पार किए थे चौड़े पाट के दरिया
निडर होकर कही थी बात
बीच लोगों के।
रक्त में रचे ख़यालों की तरह
बहुत राजदार है वह
कभी-कभी क्या
अक्सर ही
मुझे ‘कृष्ण’
और खुद को ‘राधा’ कहती है
मुझे ‘शिव’
अपने को ‘पार्वती’ बताती है
आर्य-अनार्य के बीच
पुल बनती लगती है
और वजह से
उसने बहुत कुछ समो लिया है
अपने अन्दर
जैसे धरती के विषैले रसायन
जब देखने जाते हैं
किराये का मकान
धार्मिक स्थानों पर होता अपमान
सवालिया नज़रों से वह
तलाशती है मनुष्य का ईमान
और फिर धूप की तरह
और ज्यादा चमकती है
हमारे अंशों का मेल
हमारे वंशों का सुमेल
अम्बर को धरती पर लायेगा
जनता के लिए पलकें बिछायेगा।
मैं फटी आँखों से
उसकी ओर निहारता हूँ
और अतीत में से
वर्तमान और भविष्य को देखता हूँ।
जब से वह मेरे संग है
एक और एक ग्यारह हैं
धरती पर लगते नहीं पैर
और बहुत पीछे छोड़ आया
घोर उदासियों के जंगल
नफ़रतों के खंड-मंडल
फेंक दिये हैं उसकी मुहब्बत के सामने
शिकवे-गिलों के हथियार
वैरभाव के विचार।
बो दिये हैं उसने
मेरे मन में
रोष-विद्रोह से भरे चेतन बीज
जैसे पल रहा है
उसके तन-मन के अन्दर
हमारे भविष्य का वारिस।
ढक दिया है उसने
मेरे अवगुणों-ऐबों का तेंदुआ-जाल
जैसे चमड़ी ने
ढंक रखे हैं तन के नाड़ी और तंतु-जाल
पर खूब नंगा करती है वह
उन पैरों के सफ़र को
जिन्होंने फलांगे थे गड्ढ़े-टीले
दायें-बायें, पीछे-आगे
और तैर कर पार किए थे चौड़े पाट के दरिया
निडर होकर कही थी बात
बीच लोगों के।
रक्त में रचे ख़यालों की तरह
बहुत राजदार है वह
कभी-कभी क्या
अक्सर ही
मुझे ‘कृष्ण’
और खुद को ‘राधा’ कहती है
मुझे ‘शिव’
अपने को ‘पार्वती’ बताती है
आर्य-अनार्य के बीच
पुल बनती लगती है
और वजह से
उसने बहुत कुछ समो लिया है
अपने अन्दर
जैसे धरती के विषैले रसायन
जब देखने जाते हैं
किराये का मकान
धार्मिक स्थानों पर होता अपमान
सवालिया नज़रों से वह
तलाशती है मनुष्य का ईमान
और फिर धूप की तरह
और ज्यादा चमकती है
हमारे अंशों का मेल
हमारे वंशों का सुमेल
अम्बर को धरती पर लायेगा
जनता के लिए पलकें बिछायेगा।
मैं फटी आँखों से
उसकी ओर निहारता हूँ
और अतीत में से
वर्तमान और भविष्य को देखता हूँ।
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कवि सम्पर्क :
आर ज़ैड ए-44, महावीर विहार
पालम, नई दिल्ली-110045
ई मेल : madhopuri@yahoo.co.in.
दूरभाष : 011-25088112(निवास)
09350548100(मोबाइल)
आर ज़ैड ए-44, महावीर विहार
पालम, नई दिल्ली-110045
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दूरभाष : 011-25088112(निवास)
09350548100(मोबाइल)
2 टिप्पणियां:
Hi Chandel,
Congratulation for the outstanding work being done by you through Vaatayan. Your March edition is excellent. Keep it up.
I. BURMAN
भाई, बधाईयाँ ! रचनाओं के सुंदर संयोजन-संकलन के लिए .../
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