शुक्रवार, 9 मई 2008

वातायन – मई 2008

हम और हमारा समय
अपनी पीढ़ी के कवियों में राधेश्याम तिवारी लगभग अकेले ऎसे कवि हैं जिनकी कविताएं एक साथ गांव एवं शहर - दोनों से हमें जोड़ती हैं। गहरे जीवनानुभवों से उपजी उनकी कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता जीवन के प्रति इनका सकारात्मक नजरिया है। यही कारण है कि बुरे से बुरे समय में भी जीने का रास्ता ये कविताएं तलाश लेती हैं।
अपने शिल्प में ये कविताएं जितनी बोधगम्य लगती हैं भीतर से उतनी ही अर्थ-गर्हित हैं। यही कारण है कि राधेश्याम तिवारी उन कवियों से अलग नजर आते हैं जो सिर्फ शब्दाडम्बर में उलझकर पाठकों को कविता से दूर करते हैं। प्रस्तुत हैं उनकी पांच कविताएं-


राधेश्याम तिवारी की कविताएं

सेवक की इच्छा

सेवक हूं आपका
आपकी बराबरी भला
कैसे कर सकता मैं
आपकी पवित्र जूठन को
मानता हूं महाप्रसाद
छाया की तरह चलता हूं
आपके पीछे-पीछे
आप हंसते हैं, तो मैं हंसता हूं
रोते हैं, तो रोता हूं,
मैं देह नहीं, सिर्फ कंधा हूं
जिस पर आपका
बोझ ढोता हूं
फिर भी जन्म अकारथ ही गया मेरा
कि इस जन्म में मैं सेवा से
कर न सका आपको संतुष्ट
इसके लिए मुझे
लेना पड़ेगा दूसरा जन्म
पर, दूसरा जन्म
कब, कहां, किस रूप में लूंगा
यह भी तो तय
आप ही करेंगे स्वामी
वैसे तो मुझे
अपने बारे में सोचने का
नहीं है अधिकार
फिर भी सोचता हूं
कि कितना अच्छा होता
अगर अगले जन्म में मैं पैदा होता
मछ्ली के रूप
तब आप मुझे
मिर्च-मसाला डालकर
तेल में तलते
और आराम से पीते हुए
मजे ले लेकर खाते
पर, डर है एक बात का स्वामी
कि अपनी तीव्र भूख के कारण
कहीं आप मुझे
कच्चा ही न चबा जाएं
इससे आपका हाजमा
हो सकता है खराब
जिसे शराब
पहले ही बहुत ज्यादा
बिगाड़ चुकी है
अभी तो आपको
बहुत कुछ खाना है स्वामी
आपको कष्ट होगा
तो मेरी आत्मा को
कैसे मिलेगी शांति ?
लेकिन एक डर और है
कि अगर आपने मुझे
ठीक से तल भी लिया
तो भी मेरे
कांटे तो बचे ही रह जाएंगे
जो मौका पाते ही
आपके गले में फस जाएंगे
उस समय आप
मुझे उस तरह नहीं खा पाएंगे
जैसे अभी अजगर की तरह
निगल रहे हैं।


झरही

मेले में भटकी हुई
किसी बच्ची की तरह
अपनी नदी मां से
बिछड़ गई होगी झरही
और भटकते-भटकते
चली आई होगी
'गौत्तमा' और 'बिसुनपुरा' के बीच
यहां जरूर मिली होगी उसे
घर से भागी हुई कोई औरत
जिसके दुःख से
झरने लगी होंगी उसकी आंखें
और तभी से इसका नाम
पड़ गया होगा झरही

कहने को तो यह नदी है
लेकिन संकोची इतनी
कि आसाढ़-सावन में भी
]इसमें कभी बाढ़ नहीं आती
अपने में सिमटी
यह बहती रहती है चुपचाप
जिसे भीतर तक महसूस कराती हैं
गांव-जवार की औरतें

गर्मी में तो रह जाती है
केवल इसकी निशानी
पानी बस इतना
कि धोबी घाट के पाट से
कपड़े पटकने
आती रहे आवाज
झरही को
इतने से संतोष है

झरही घाट का रामचन्दर माझी
गर्मी में अपना जाल समेटकर
चला जाता है परदेश कमाने
जमीन पर पड़ी उसकी नाव को
देखती रहती है उसकी मेहरारू

झरही की मुर्दघटी में
जब जलती है कोई लाश
उस समय मृतक के साथ
आये लोग
झरही को भी कर लेते हैं याद
कि किस तरह यह बार-बार
सूख कर फिर भर जाती है

सोचता हूं
कभी रही से पूछूं
कि कब और कहां से आई हो तुम
और कहां तुमको जाना है
लेकिन यह पूछते हुए
लगता है डर
कि कहीं मेरा ही प्रश्न
उसने कर दिया मेरी ओर
तो क्या दूंगा इसका उत्तर?


लौटकर जब हम आएंगे

लौटकर जब हम आएंगे
तो यही नहीं रहेंगे
उस समय तक हमारे बाल
कुछ सफेद हो चुके होंगे
गालों की लाली भी
कुछ कम हो चुकी होगी
और चलने की गति में भी
कुछ परिवर्तन हो चुका होगा
लेकिन ये परिवर्तन
इस बात पर भी निर्भर करेगा
कि तब तक हमारे घुटने
और दिल का दर्द कैसा है

लौटकर जब हम आएंगे
तो यह भी बतलाएंगे
कि चिकित्सक के निर्देशानुसार
हम भोजन में नमक और चीनी
कितनी मात्रा में ले रहे हैं
लेकिन यह इस बात पर भी
निर्भर करेगा
कि तब तक मधुमेह और रक्तचाप की
क्या स्थिति है

लौटकर जब हम आएंगे
तो जरूरी नहीं कि
आप मुझे देखकर
इसी तरह मुस्कराएंगे
यह इस बात पर भी
निर्भर करेगा कि
तब तक आप के पास
खुशी कितनी बची हुई है

लौटकर जब हम आएंगे
तो उस समय तक
घर के सामने खाली प्लाटों में
बहुत से प्रियजनों के मकान
बन चुके होंगे
उन बड़े-बड़े मकानों में
टेलीफोन भी लग चुके होंगे
लेकिन संवाद इस बात पर
निर्भर करेगा कि तब तक
प्रेम की पूंजी उनके पास
कितनी बची हुई है.


किसी ने भी नहीं मानी उसकी बात

उसने धरती से
सिर्फ अपने लिए मांगी जगह
लेकिन धरती ने
नहीं मानी उसकी बात
और फैला दिया सबके लिए
अपना हरित आंचल,
नदी से उसने कहा-
तुम सिर्फ मेरे लिए बहो
पर, नदी भी कब मानने वाली थी
उसने सबके लिए बहा दिया
शीतल जल,
सूरज से उसने कहा-
मेरे सिवा मत दो किसी और को उजाला
सूरज ने मुस्कराते हुए
बिखेर दिया सबके लिए उजास,
गगन से उसने कहा-
तुम सिमट जाओ मेरी सीमा में
मगर कहां मानने वाला था आकाश
हवा से उसने कहा-
प्रिये, तुम मेरी सांसों में समा जाओ
हवा बिना कुछ कहे ही सरसराती हुई
सबकी सांसों में समा गई
वह जिनसे बना था
उनमें से किसी ने भी नहीं मानी उसकी बात
सबने मिलकर
उसे बनाया था सबके लिए
अंत में वह हो गया इतना अकेला
कि कुछ भी नहीं बचा उसके पास,
न पृथ्वी, न जल, न अग्नि, हवा, न आकाश!

ऎसा भी क्या

आए हो तो
मिलो सबसे जाकर
देखो, कितने सारे लोग हैं यहां
हो सके तो बांटो सबका दुख-दर्द
देखो उन जंगली फूलों को भी
जो मुस्करा रहे हैं तुम्हें देखकर
जिन्हें नहीं है इसका मलाल
कि राष्ट्रपति भवन की वाटिका में
नहीं मिली उन्हें जगह
आए हो तो
इनसे भी कुछ सीख लो
कि किस तरह सबमें
बिखेर रहें हैं सुगंध-केवड़ा, गुलाब और बेला,
ऎसा भी क्या
कि अकेले आए-गए
और जो थोड़े समय के लिए ठहरे हो
उसमें रहना चाहते हो अकेला
0
युवा कवि-पत्रकार राधेश्याम तिवारी का जन्म देवरिया जनपद (उत्तर प्रदेश) के ग्राम परसौनी में मजदूर दिवस अर्थात १ मई, १९६३ को हुआ।

अब तक दो कविता संग्रह - 'सागर प्रश्न' और 'बारिश के बाद' प्रकाशित. हिन्दी की लगभग सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।

सम्पादन - 'पृथ्वी के पक्ष में' (प्रकृति से जुड़ी हिन्दी कविताएं)
पुरस्कार : राष्ट्रीय अज्ञेय शिखर सम्मान एवं नई धारा साहित्य सम्मान .

संपर्क : एफ-119/1, फ़ेज -2,
अंकुर एनक्लेव
करावल नगर,
दिल्ली-110094
मो० न० – 09313565061

कोई टिप्पणी नहीं: