रविवार, 8 जून 2008

कहानी

अभिशप्त
तेजेन्द्र शर्मा

आज का दिन बाकी दिनों से कोई भिन्न नहीं है। रजनीकांत आज भी सुबह सवा छः बजे उठा; सुबह के कामों से निवृत्त हुआ, अपने लिए चाय बनाई और रात की बची रोटियों के साथ उसे गटक गया। रात की बची ठंडी रोटियां खाना रजनीकांत के लिए कोई मजबूरी नहीं है, बस सोचता है - कौन गरम करे! अंदर बेडरूम में बिजली-चालित कंबल की गरमी में आराम की नींद सो रहे हैं - निशा और हैरी।
हर रोज़ यही तो होता है। रजनीकांत पहले स्वयं उठकर तैयार होता है; नाश्ता करता है और काम पर जाने से पहले निशा को जगा देता है। निशा अलसाई-सी उठती है। आधी बंद आंखों से ही अपने काम निबटाती है। हैरी को जगाने में ही आधा घंटा लग जाता है। वह नख़रे करता है, ठुनकता है, रोता है, बिलबिलाकर उठता है और नन्हे-नन्हे हाथों से स्कूल जाने की तैयारी करता है। गोरा, चिट्टा गब्दू सा लगता है हैरी - हर्षद! निशा और रजनीकांत का पुत्र। निशा काम पर जाते-जाते कार से पुत्र को स्कूल छोड़ती जाती है।
रजनीकांत बस से अपने वेयर-हाउस चला जाता है।
आज भी हुआ तो यही सब। रजनीकांत 'हैरो-वील्ड' से बस में बैठा; फिर 'हैरो ऑन द हिल' से बस बदली और अपने वेयर-हाउस पहुंच गया। वहां दिन-भर बोझा ढोया और ओवर-टाइम करके रात नौ बजे वापस घर पहुंचा। घर आकर नहाया। लंदन में रात को नहाने की प्रथा का पहले-पहल रजनीकांत मज़ाक उड़ाया करता था। परंतु धीरे-धीरे उसे भी समझ में आने लगा कि गीले बालों के साथ सुबह-सुबह बाहर निकलना बीमारी को खुली दावत देना है, इसलिए अब वह रात को ही नहाता है, और हां नहाने के बाद पूजा अवश्य करता है। वही उसने आज भी किया। फिर आदत के अनुसार उसने बीयर का डिब्बा खोला और ठंडी बीयर को अपने शरीर में उतारने लगा।
किंतु आज दो डिब्बे बीयर पीने के बाद भी वह तरो-ताज़ा महसूस नहीं कर रहा था। जैसे एक बोझ उसे दबाए जा रहा था। वह बोझ कई बार रजनीकांत के दिलो-दिमाग़ को झकझोरता रहता है; और उसे इस हद तक परेशान कर देता है कि वह रात-भर करवटें बदलता रहता है। निशा और रात के होते हुए भी रजनीकांत सो नहीं पाता।
जब से लंदन में 'ज़ी' चैनल टेलीविजन पर दिखाया जाने लगा है, रजनीकांत रात को कुछ समय तक हिंदी के कार्यक्रम अवश्य देखता है। आज भी टेलीविजन पर हिंदी फ़िल्म चल रही है। रजनीकांत ने फिल्म बीच में से देखनी शुरू की है। कलाकारों और गीत से अदांज़ लगाने की कोशिश कर रहा है कि फ़िल्म का नाम क्या हो सकता है। वैसे नाम पता चल जाने से क्या होगा? सभी हिंदी फिल्में अंतत: होती तो एक सी ही हैं। उनमें कोई बदलाव तो आने से रहा, ठीक रजनीकांत के अपने जीवन की तरह।
रजनीकांत ने बीयर के खाली डिब्बे की ओर देखा और कचरे के डिब्बे में फेंक दिया। टेलीविज़न पर चल रहे दर्द-भरे गीतों के साथ अपना सुर मिलाता रहा। फिर एक झटके से उठा और स्कॉच की बोतल निकाल ली। गिलास में बर्फ़ के टुकड़े डाले और उन पर व्हिस्की उंड़ेलने लगा। उसे 'ग्लेन फिड़िश', 'आन दी राक्स' ही अच्छी लगती है। गांव में कहां शराब पीता था, वहां तो 'बा' थी, 'बापूजी' थे। वहां तो शराब के बारे में सोचना भी पाप था। वहां तो छाछ पीता था, या फिर चाय। समय और स्थान के साथ-साथ पेय भी बदल जाते है, और पीने वाले भी।
पानी में तिड़कती-पिघलती बर्फ़, बाहर आसमान से रुई के फाहे सी गिरती बर्फ़; रजनी और निशा के संबंधों में पैठी बर्फ़ - हर तरफ ठंड-ही-ठंड - एक सर्द......भयानक सर्द सन्नाटा ! शायद बर्फ़ सी ठंडी स्कॉच रजनीकांत के जिस्म को थोड़ी गर्मी और दिमाग़ को सुकून दे सके ! ......सोच उसका पीछा नहीं छोड़ती......स्कॉच ने बीयर के साथ मिलकर उसके दिमाग में हलचल मचा दी है।
रह-रहकर एक ही प्रश्न उसे मथे जा रहे था - मैं यहां इस देश में क्या कर रहा हूं? ......क्यों कर रहा हूं? ......अपनों से दूर......इतनी दूर......! मैं यहां करने क्या आया था? ऐसे ही न जाने कितने प्रश्न उसे परेशान किये रहते हैं।
परेशानी ने उसका साथ पिछले सात वर्षों में कभी नहीं छोड़ा। अब तो हालत यह हो गई है कि यदि किसी परेशानी ने उसे न घेर रखा हो तो वह बेचैन हो उठता है कि कोई परेशानी है क्यों नहीं। एक बार फिर वह अतीत की गलियों में खो गया था।
......बापूजी तो आनंद में भी मज़दूरी ही किया करते थे। अपने रजनी का जीवन संवारने की चाह ने उन्हें मजबूर कर दिया कि किसी भी तरह रजनी को कॉलेज भेजने का जुगाड़ करें, और किया भी। गुजराती माध्यम से रजनीकांत बी.ए. पास हो गया - इतिहास और राजनीति शास्त्र में बी.ए. की डिग्री से नौकरी का जुगाड़ होता भी तो कैसे। नौकरी उसे कोई नहीं मिली। भला बापूजी अपने पढ़े-लिखे पुत्र को मजदूरी कैसे करने देते!
अब रजनीकांत भी सोचने लगा कि वह अपने गांव से कहीं दूर चला जाए, इतनी दूर कि उसे पहचानने वाला कोई न हो। वहां और कुछ नहीं तो कम से कम पेट पालने के लिए मज़दूरी तो कर पाएगा। दूर की बहन गांव आई है। बहुत दूर रहती है - लंदन! बापूजी अपनी चिंता उसके सामने लेकर बैठ जाते हैं, 'बेटी, मुझे तो रजनी की चिंता खाए जा रही है। उसकी यह बी.ए. की डिग्री तो गले की फांस बनती जा रही है।......समझ नही नहीं आता कि क्या करूं?'
'करना क्या है मौसाजी, बस हमारे साथ लंदन भेज दीजिए, बाकी हम पर छोड़ दीजिए, वहीं इसकी शादी करवा देंगे। देख लीजिएगा, एक बार वहां पहुंच गया तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखेगा।'
बापूजी परेशान! पुत्र को सदा के लिए खो दें या यूं ही भटकने दें। रजनीकांत ने भी दूर की बहन की बात दूर से सुन ली थी। लंदन में विवाह! तो फिर स्नेहा का क्या होगा? स्नेहा भी तो रजनीकांत के साथ सपने देख रही है! ......रजनी की नौकरी लगेगी तभी तो स्नेहा की मां आकर 'बा' से बात शुरू करेंगी। क्या लंदन वाले रजनीकांत के जीवन में स्नेहा के लिए कोई स्थान होगा?अभी तो काफ़ी समय है। पासपोर्ट बनेगा, वीज़े के लिए मुंबई जाना होगा। क्या स्नेहा के प्रेम को अभी से भूलना होगा? यदि विवाह किसी और से होना है तो क्या स्नेहा से प्रेम करना उचित होगा? क्या विवाह प्रेम की कसौटी है? क्या प्रेम केवल शारीरिक संबंध या वासना ही है? किंतु रजनीकांत ने तो आज तक स्नेहा को वासना की दृष्टि से छुआ तक नहीं।
उसका प्रेम तो बस एक-दूसरे के साथ बैठने या बोलने तक ही सीमित है। उसने तो आज भी स्नेहा से मिलने के लिए समय तय कर रखा है - पतली, छरहरी और गोरी-सी स्नेहा! माता-पिता की इकलौती संतान, कॉलेज में पढ़ रही है। गृह-कार्य में दक्ष है। क्या पासपोर्ट, वीजा और लंदन के बोझ के नीचे उसकी स्नेहा दम तोड़ देगी?
निशा उठकर कमरे से बाहर आ गई है। 'क्या कर रहे हो? ......यह क्या? अभी खाना खुरू भी नहीं किया?'
'अभी तो गरम ही नहीं किया।'
'क्या कर रहे हो इतनी देर से? ......अभी तक ड्रिंक खत्म नहीं हुआ?'
'बस यूं ही, ज़रा फ़िल्म देखने बैठ गया था।'
'अच्छा तुम बैठो, खाना मैं गरम कर लाती हूं।'
'नहीं, तुम क्यूं नाहक परेशान होती हो, मैं ख़ुद ही गरम करके खा लूंगा, जाओ, तुम सो जाओ।'
'तुम्हें पता तो है, जब तक तुम बिस्तर में नहीं आ जाते मुझे नींद नहीं आती! ......मैं खाना गरम कर लाती हूं।'
अजीब संबंध हैं, रजनीकांत और निशा के बीच। चाहे दिन-भर एक दूसरे से बात भी न करें, किंतु रात को बिस्तर में निशा को जब तक उसका हक ना मिल जाए, उसे तृप्ति नहीं होती। वह प्यार भी तर्क की कसौटी पर चाहती है। निशा की बात ने रजनीकांत की भूख ही उड़ा दी है।
निशा अपनी सफ़ेद झीनी नाइटी पहने रजनीकांत का भोजन ले आई। रजनीकांत को एक विचित्र सी आदत है। वह खाने के साथ, पानी के स्थान पर ठंडा दूध पीता है।......भारत में भी तो दूध के वतन में ही रहता था।......निशा की नाइटी उसकी मांसलता को ढक नहीं पा रही है। हैरी के जन्म के निशान निशा के शरीर पर साफ़ दिखाई दे रहे हैं। इन सबसे बेखबर रजनीकांत भोजन शुरू कर देता है।
दूध के गिलास में स्नेहा दिखाई देती है, तो सामने साक्षात निशा दिखाई दे रही है। निशा चाह रही है कि रजनीकांत शीघ्रता से भोजन समाप्त करे और उसे अपनी बाहों में भर ले, लेकिन रजनीकांत के चिंताग्रस्त दिमाग को न तो भोजन में रूचि है और न ही निशा में। मन-ही-मन वह जानता है कि अपना कर्तव्य तो उसे निभाना ही पड़ेगा, नहीं तो, अगले दो दिन लड़ाई-झगड़े की भेंट चढ़ जाएंगे......निशा के हिसाब से जैसे सुबह का नाश्ता, दोपहर और रात का भोजन और नींद आवश्यक है; उसी तरह हर रात बिस्तर का आनंद भी आवश्यक है, और फिर वह सोचती है कि वह यह सब अपने पति से ही तो मांगती है, व्याभिचार तो नहीं करती। अच्छा है कल रविवार है, कल रजनीकांत देर तक सोएगा और......नाश्ता भी गरम और ताज़ा करेगा।
नाश्ते से पहले रात की नींद रजनीकांत को सपनों के उड़नखटोले पर बिठाकर वतन वापस ले आई। वहां वह सब कुछ देख सकता है, महसूस कर सकता है। उसकी छोटी बहन शालिनी मां के साथ अपने दु:ख-दर्द बांट रही है। शालिनी का पति उसकी गोद में दो बच्चियां डालकर, उसे इस संसार की कठोर सच्चाइयों का सामना करने के लिए अकेली छोड़ गया है। आज मां के जिस पत्र ने उसे परेशान कर रखा है, उसमें यही तो लिखा है।
रजनीकांत पत्र का उत्तर पाने की मां की बेचैनी को महसूस करता है......।
'शालिनी बेटी, डाकिया आया था क्या?'
'हां मां, वह तो पांच बजे ही चक्कर लगा गया था।'
'रजनी की कोई चिट्ठी-पत्री आई?'
'नहीं मां, आज तो कोई भी चिट्ठी नहीं आई।'
'मैंने उसे लिखा है बेटी, कि तेरी बच्चियों की यूनिफ़ार्म सिलवानी है और फिर छत भी ठीक करवानी है। पिछली बरसात में तो बहुत पानी टपक रहा था।'
'मां, भैया को क्या वहां कम दिक्कतें होंगी ? जितना बड़ा शहर होगा, मुसीबतें भी तो उतनी ही अधिक होंगी।'
'वो तो मैं भी समझती हूं बेटी, मगर इस वक्त उसके अलावा मदद की उम्मीद और कहां से कर सकती हूं। अब तो उसे गए कई साल हो गए। अब तक तो सैटल हो गया होगा।''......मां, मैं कल दूध की सोसायटी में गई थी, शायद मुझे वहां काम मिल जाए।'
'अच्छा!.. .. मैं तो कहती हूं जहां रहे सुखी रहे, कभी कोई परेशानी उसे छुए भी नहीं।'
परेशानी तो रजनीकांत को बिस्तर पर करवटें बदलने को मजबूर कर रही थी।......बेबस और लाचार रजनीकांत! निशा अपने हिस्से का सुख पाकर कितनी चैन की नींद सो रही है। अब यदि रजनीकांत बिस्तर छोड़कर सारी रात दूसरे कमरे में भी बैठा रहे, तो भी निशा को कुछ पता नहीं चलेगा।
यह सब रजनीकांत के ही साथ क्यों हो रहा है? महेश, नयन, प्रफुल्ल और महेंद्र सभी तो उस जैसा जीवन जी रहे हैं। फिर वो लोग क्यों नहीं परेशान होते? ......क्यों वही उलझनों के धागों में फंसा रहता है? क्या उन सबकी पत्नियां भिन्न प्रकृति की हैं? किंतु ऐसा भी तो नहीं है। कम-से-कम उसे यह तसल्ली तो है कि वह निशा का पहला पति है, दीपक की पत्नी का तो यह तीसरा विवाह है, दीपक कह भी रहा था, 'रजनी भाई, तुम मेरी दिक्कत नहीं समझोगे। मैं सेकेंड-हैंड से भी गया गुजरा हूं। मेरे पास तो थर्ड-हैंड पत्नी है।......लंदन में बसने की समस्या न होती तो जल्दबाज़ी में यह विवाह कभी नहीं करता। मन में इतनी कचोट उठती है कि बरदाश्त से बाहर हुई जाती है।'
नादान है दीपक भी। इतना भी नहीं समझता कि मनुष्य चाहे पांचवीं मंज़िल से नीचे गिरे या फिर सातवीं मंज़िल से, चोट एक जैसी ही लगती है, और फिर हम शापित लोगों की विडंबना तो यह है कि हम अपने दिल की चोट किसी को दिखा भी नहीं सकते। हमें तो सब यूं ही सहना है, और जीवित भी रहना है।
कहने को तो महेश भी ठीक ही कहता है, 'यह जीवन किसी ने हम पर थोपा तो नहीं हैं हमने सब कुछ सोच-समझकर यह जीवन चुना है। फिर शिकायत कैसी? ......अपने वतन में तो ग्रेजुएट होकर भी किसी नौकरी का जुगाड़ नहीं कर पा रहे थे। यहां तो कुलीगिरी करके ही, ओवर-टाइम मिला के दो हज़ार पाउंड महीना कमा लेते हैं।......एक लाख बीस हजार रुपए एक महीने में! ......अपने देश में तो इतना एक साल में भी नहीं कमा सकते थे। बात जब सीधी-सीधी अर्थशास्त्र की हो तो हालात से समझौता तो करना ही पड़ेगा। घर से इतनी दूर केवल परेशान होने तो नहीं आए हैं।'
वतन से दूर! ... दूर की तो बहन थी, जीजा तो बहुत दूर का था। जब लंदन के हवाई अड्डे 'हीथ्रो' पर उतरा था तो दंग रह गया था। इतना विशद्-विशाल एयरपोर्ट! मुंबई का हवाई अड्डा तो उसके सामने बच्चा-सा महसूस होने लगा था। बहन और जीजा उसे अपनी बड़ी-सी कार में लेने आए थे। मन-ही-मन लड्डू बनाने लगा था, 'कल मेरी भी ऐसी बड़ी-सी कार होगी......।' जीजा का घर वैम्बले में है। लंदन की सड़कों को देखते, गोरी मेमों को निहारते और एक जैसे दिखने वाले मकानों के सामने से गुजरते रजनीकांत वैम्बले पहुंच गया। वैम्बले की सड़कों पर तो भारतीय ही अधिक दिखाई दे रहे थे या फिर अफ्रीकी।...... क्या यह लंदन है!
आवभगत दो दिन तक चली, फिर जीजा ने दुकान दिखाने की पेशकश रखी। जीजा की दुकान है जिसमें सिगरेट, चाकलेट, कार्ड, समाचार-पत्र, जूस, अंडे, बिस्कुट, न जाने क्या-क्या बिकता है। एक कोना हरी सब्जियों का भी है। गांव में तो सब्ज़ीवाले सड़क किनारे टोकरी में सजाकर सब्ज़ियां बेचते थे; बहुत हुआ तो रेहड़ी लगा ली। यहां सब्ज़ियां बंद छत के नीचे......।
बंधुआ मज़दूरों की सिर्फ कहानियां सुना करता था रजनीकांत। यदि प्रेमचंद जीवित होते तो रजनीकांत के जीवन पर भी एक नया 'गोदान' लिख देते। बस चार महीने बीते थे। वो चार सालों जैसे क्यों लग रहे थे! उन चार महीनों का एक पल भी तो रजनीकांत का अपना नहीं था। रजनीकांत......बी.ए. पास, सात समुद्र पर, इतनी दूर, अपनी दूर की बहन के घर मुंडू बन गया था......मुंडू!
एक चिंता और भी थी। वीज़ा के केवल दो महीने बाकी थे। यदि इन दो महीनों में विवाह नहीं हुआ तो घर वापस लौट जाना होगा। टिकट के पैसे भी व्यर्थ जाएंगे......जीजा तो जीजा, यह बहन भी उसके विवाह के बारे में बात नहीं करती। अभी तक तो उसे एक बार भी पगार नहीं मिली। बस, जेब-ख़र्च से ही काम चलाना होता है। वैसे तो उसे भी ख़र्चने का समय कहां मिलता था। उस पर स्नेहा की याद हर समय उसके मन के भीतर एक अपराध-बोध का नासूर पालने लगी। उसकी रवानगी के समय स्नेहा की आंसुओं से भरी आंखें रजनीकांत के साथ लंदन आ गई थीं। वे एक जोड़ी आंखें कभी किसी दीवार पर चिपककर उसे घूरती रहतीं तो कभी दुकान में रखी हर वस्तु आंखें बनकर सवाल पूछने लगतीं, कभी बिस्तर आंखें बनकर काटने लगता और कभी जब वह शीशा देखता जिसमें चेहरा तो उसका अपना होता किंतु आंखें स्नेहा की दिखाई देतीं।
इतनी परेशानियों से जूझते रजनीकांत को संयोग से निशा के माता-पिता मिल गए। एक विवाह की दावत में बहन और जीजा उसे साथ ले गए थे। वहां बातों ही बातों में माता-पिता ने रजनीकांत को पसंद कर लिया। निशा को तो रजनीकांत गांव का भोंदू ही लगा था। फिर रजनीकांत वय में भी तो निशा से करीब तीन वर्ष छोटा था। एक ओर वीज़ा का बचा डेढ़ महीना, दूसरी ओर तीन वर्ष बड़ी पत्नी! मां-बाप के जीवन-स्तर को ऊंचा उठाने की चाह ने, लंदन में बसने की मजबूरी ने सप्ताह-भर बाद ही रजिस्ट्रार के दफ्तर में विवाह के प्रमाण-पत्र पर हस्ताक्षर करवा दिए। पार्टी का सारा खर्चा भी निशा के माता-पिता ने ही वहन किया। बहन और जीजा तो बस अतिथियों की तरह आए और चले गए। रजनीकांत के माता-पिता, भाई-बहन कोई भी नहीं पहुंच पाया।
......रजनीकांत ही कहां पहुंच पाया, जब अचानक उसके पिता चल बसे। यह अपराध-बोध प्रेत बनकर उसे कचोटता रहता है। वह किसी को भी दोष नहीं दे पाता।......बस हालात......! कब तक हालात की ढाल के पीछे छिपता रहेगा? क्या कभी मर्द बनकर हालात को बदलने की चेष्टा की है उसने? वह एक कमज़ोर मध्यवर्गीय जीव है।
निशा को तो इस विवाह में कोई रुचि थी ही नहीं । उसने साफ़-साफ़ अपने माता-पिता को अपने मन की बात बता दी। मां-बाप की चिंता दूसरी ही थी। बेटी तीस पार कर चुकी है। विवाह की उम्र तो निकलती जा रही है। बिरादरी में काबिल लड़के मिलते ही कहां हैं! लड़की कहीं ग़लत राह पर न निकल जाए। हसु भाई की छोकरी तो एक गोरे के साथ भाग गई थी और दस महीने बाद ही तलाक हो गया। केशव भाई की पुत्री जो घर से भागी तो सीधी पाकिस्तान जाकर रुकी। इन ख़तरों से बचने का एकमात्र उपाय उन्हें रजनीकांत में ही दिखाई दिया। उन्होंने बेटी को समझा भी दिया, 'निशा बेटी, शादी होते ही अलग घर ले लेना। पांच साल से पहले रजनीकांत ब्रिटिश पासपोर्ट के लिए एप्लाई नहीं कर सकता। तब तक उसे तुम्हारा ग़ुलाम बनकर रहने की आदत हो जाएगी।'
बस, यही तो नहीं हो पाया! दास का जीवन जीने के बावजूद रजनीकांत के भीतर का स्वाभिमानी इन्सान अभी भी जीवित है। उसकी अंतरात्मा अभी भी उसे कचोटती रहती है। गांव के घर की चूती हूई छत में से टपकते हुए पानी की बूंदें आज भी उसके सीने पर अंगारों की तरह गिरती हैं।
वह यह सोचकर परेशान होता रहता है कि उसके और उसके पुत्र हर्षद के बीच रिश्तों का कोई तंतु भी नहीं जुड़ पा रहा है। यहां तक कि निशा उसे इस नाम से बुलाती तक नहीं। वह तो उसे हैरी ही कहकर पुकारती है। रजनीकांत को ऐसे नाम कुत्तों के लिए ही ठीक लगते हैं।
'अगर तुम्हें अपने बेटे का नाम हैरी पसंद नहीं तो अपनी मां से शिकायत करो मुझसे नहीं।'
'मां से?'
'हां, उसी से! मैंने तो उस वक्त भी कहा था कि हर्षद नाम लंदन में नहीं चलेगा। कोई माडर्न नाम रख लेते हैं पर तुम्हें तो अपनी मां का हुक्म, क्वीन एलिजाबेथ का फरमान लगता है न! ......भुगतो अब!'
भुगत ही तो रहा है। कई बार सोच चुका है कि वह तो पुत्र को हर्षद कहकर ही बुलाएगा; ......किंतु इस नाम से बेटा उत्तर ही नहीं देता। निशा ने उसके दिमाग में बैठा दिया है कि उसका नाम हैरी है......बस! ......निशा की एक विशेषता का लोहा तो रजनीकांत भी मानता है। बला की तशक्ति की मालकिन है निशा! उसके तर्कों के सम्मुख हर बार रजनीकांत मुंह ताकता रह जाता है।
'देखो रजनी, मुझे इमोशनली ब्लैकमेल करने की कोशिश मत किया करो। हर बात का कोई-न--कोई कारण तो होता ही है। इसलिए या तो मुझसे अपनी बात मनवा लो या फिर मेरी बात मान जाओ। यह ढुलमुल काम नहीं चलेगा।'
रजनीकांत अपनी पत्नी को यह नहीं समझा पाता कि जीवन दो-जमा-दो चार की तरह सरल नहीं है। विवाह के बंधनों के बाद मनुष्य को जीवन में कई समझौते करने पड़ते हैं। और यह समझौते एकतरफ़ा नहीं हो सकते। पति-पत्नी दोनों को मिल-जुलकर विवाहित जीवन को संवारना होता है। समझौतों के बिना विवाह नाम की संस्था चल ही नहीं सकती। रजनीकांत इस मामले में भी निशा को ग़लत क़रार नहीं कर पाता क्योंकि वह अपने माता-पिता को भी तर्क की कसौटी पर ही खरा सोना साबित करती है। रजनीकांत अपनी मां और बहन के प्रति उठाई गई तर्क की लड़ाई हर बार हार जाता है और अभी भी हार रहा है। रजनीकांत यह तय नहीं कर पा रहा कि मां को पैसे भेजे तो कैसे? उसकी तो पगार भी बैंक के 'ज्वाइंट एकाउंट' में आती है। वहां से अगर पैसे निकलवाता है तो निशा को तो पता चलेगा ही।...... फिर बढ़ेगा तनाव!
कल हर्षद का जन्मदिन है। यदि उसने पैसे भेजने की बात की तो सुबह से ही घर का माहौल तनाव से भर जाएगा। वह समझ नहीं पाता कि पुत्र के जन्मदिन को लेकर वह उत्साहित क्यों नहीं हो पाता? क्यों उसे हैरी विरोधी पार्टी का सदस्य-सा लगता है? ......वह नन्हीं जान तो उसका कुछ नहीं बिगाड़ता।
जब से लंदन में विवाह हुआ है, किश्तों का जीवन जीने को अभिशप्त है रजनीकांत।......मकान की किश्त, टी.वी, फ़्रिज, कार, बीमा और क्रेडिट कार्ड - सबकी किश्तें! ......इतरी सारी किश्तों में बंटकर रह गया है रजनीकांत! ......किश्तों-किश्तों जीवन!
उसके जीवन का ढर्रा भी अपने मित्रों से कुछ विशेष भिन्न नहीं है। फिर भी, एक मूलभूत अंतर तो है कि उसके मित्र इस जीवन से प्रसन्न तो हैं, पर रजनीकांत परेशान! वह जानता है, पत्नी सुबह से ही हर्षद के जन्मदिन की गहमागहमी में व्यस्त हो जाएगी। यदि ऐसे में पैसे भेजने की बात करेगा तो बहस तो होगी ही।
'अरे, आज भी मुंह फुलाए बैठे हो, आज तो हैरी का जन्मदिन है; आज तो तुम्हें खुश होना चाहिए!......क्या बात है?'
'कोई ख़ास बात नहीं।'
'तो आम बात ही बता दो।'
'कुछ भी तो नहीं।'
'तुम्हें पता है रजनी, आज हैरी का केक, क्रिकेट-बैट के शेप में बनवाया है, बड़ा होकर हमारा बेटा इंग्लैंड की क्रिकेट टीम का मेम्बर बनेगा।'
'केक की शेप से भी भला कभी कोई खिलाड़ी बना है?'
'तुम्हें तो जीने का कोई शौक ही नहीं है। बूढ़े हो गए हो इस भरी जवानी में।'
'मां की चिट्ठी आई है।'
'ओह! तो यह बात है......अबकी बार क्या लिखा है मांग-पत्र में?'
'निशा, ढंग से बात करो।'
'जो लोग मेरे पुत्र के जन्मदिन की खुशी में पलीता लगाएं, वो लोग ही बेढंगे हुए। उनके लिए क्या ढंग की बात हो सकती है?'
'निशा, जबसे छोटी विधवा हुई है मां का तनाव और जिम्मेदारी दोनों बढ़ गईं हैं मां की थोड़ी जिम्मेदारी तो हमें बांटनी चाहिए ना?'
'चलो, अभी तो जन्मदिन की तैयारी करो। इस बारे में कल बात करेंगे।'
रजनीकांत जानता है, कल तक निशा तर्कों की एक पूरी फौज तैयार कर लेगी। बात कल भी लटकने वाली ही है। उसे अच्छी तरह पता है कि वह निशा के तर्कों के सामने टिक नहीं पाएगा। जब-जब वह निशा को प्यार का वास्ता देता है तो वह तुनककर जवाब देती है, 'तुम्हारे प्यार के बदले में मैं भी तो तुम्हें प्यार देती हूं।......' विवशता की छटपटाहट रजनीकांत को सांस नहीं लेने देती। वह उठकर कमरे से बाहर आ जाता है। एक बार फिर से गिलास में व्हिस्की डालने की सोचता है फिर एक झटके से उस विचार को दिमाग़ से बाहर निकाल फेंकता है।
निशा के दिमाग़ में अभी तक कुछ बातें घर किए बैठी हैं। रजनीकांत आज तक उन बातों का समाधान नहीं कर पाया।
'तुम्हारी मां ने तो मुंह-दिखाई तक नहीं दी, और तो और हैरी के मुंडन पर भी अपने पर्स में हाथ नहीं डाला। हमारा तो एक ही पुत्र है।'
निशा तो अपनी सास को अपने परिवार का हिस्सा तक मानने को तैयार नहीं। उसके अनुसार उनका परिवार तो बस उन तीनों को लेकर ही है। जब-जब रजनीकांत निशा से शिकायत करता है कि वह हर्षद और उसके बीच संबंध नहीं बनने देती तो तर्क उसके चेहरे पर चिपक जाता है, 'ज़िम्मेदारी कभी सौंपी नहीं जाती......उसे आगे बढ़ कर अपने सिर लेना होता है।'
अचानक स्नेहा आकर उसके सामने खड़ी हो जाती है। रजनीकांत उन आंखों का सामना नहीं कर पाता है। अब तो स्नेहा का समाचार भी नहीं मिलता, कहां होगी?
'मैं निशा को तलाक दे दूंगा'। मन-ही-मन एक नया संकल्प कर लेता है रजनीकांत। अब तो ब्रिटिश पासपोर्ट मिल चुका है। निशा मेरा क्या बिगाड़ सकती है? अब यह जीवन नहीं जिया जाता। समुद्री फेन की तरह संकल्प ढह भी जाता है। रजनीकांत अपने मध्यवर्गीय बौड़मपन की उड़ान को अच्छी तरह पहचानता है। वह कुछ नहीं कर पाएगा, हालात से समझौते करता जाएगा।
स्नेहा एक बार फिर सामने आ खड़ी होती है। गांव की मिट्टी की सुगंध, सरसों के पीले फूल और खेत-सभी अपनी तरफ बुला रहे हैं। रजनीकांत बुड़बुड़ाने लगता है, 'अब तो यहां एक पल भी नहीं रहूंगा, मैं वापस जाऊंगा। मूझे नहीं खाना क्रिकेट बैट वाला केक - मुझे बाजरे की रोटी और पालक का साग ही चाहिए।...... यह दुनिया, यह लोग सब मेरे लिए अजनबी हैं...... मेरा गांव मुझे बुला रहा है।'
रजनीकांत का बुड़बुड़ाना रुका तो सामने शीशे में से उसका अपना ही चेहरा बोलता दिखाई दिया, 'रजनीकांत, तुम कुछ नहीं करोगे, न तो तुम अपनी पत्नी को छोड़ोगे और न यह देश - तुम और तुम्हारे दोस्त यह जीवन जीने के लिए अभिशप्त हो।......अपनी-अपनी पत्नियों के साथ रहना तुम्हारी नियति बन गया है, तुम चाहकर भी इस जीवन की सुविधाओं को छोड़ नहीं सकते। तुम उन लोगों में से हो जो रोज़ शाम को शराब के गिलास पर सवार होकर अपने देश वापस चले जाते हैं और सुबह होते ही जब नशा उतर जाता है ठंडी रोटी खाकर वेयर-हाउस पहुंच जाते हैं। गांव और मुल्क, अब सिर्फ़ तुम्हारे ख़यालों में रह सकते हैं। तुम्हारी वापसी अब मुमकिन नहीं। तुम्हें यहीं जीना है और एक दिन मर भी जाना है।'
रजनीकांत को कुछ सुनाई नहीं दे रहा......!

जन्म : 21 अक्टूबर 1952 को पंजाब के शहर जगरांव
शिक्षा : दिल्ली विश्विद्यालय से बी.ए. (ऑनर्स) अंग्रेज़ी, एवं एम.ए. अंग्रेज़ी, कम्पयूटर कार्य में डिप्लोमा ।
प्रकाशित कृतियाँ : काला सागर (1990) ढिबरी टाईट (1994), देह की कीमत (1999) यह क्या हो गया ! (2003), बेघर आंखें (2007) -सभी कहानी संग्रह। ये घर तुम्हारा है... (2007 - कविता एवं ग़ज़ल संग्रह) ढिबरी टाइट नाम से पंजाबी, इँटों का जंगल नाम से उर्दू तथा पासपोर्ट का रंगहरू नाम से नेपाली में भी उनकी अनूदित कहानियों के संग्रह प्रकाशित हुए हैं। अंग्रेज़ी में : 1. Black & White (biography of a banker – 2007), 2. Lord Byron - Don Juan (1976), 3. John Keats - The Two Hyperions (1977)
कथा (यू.के.) के माध्यम से लंदन में निरंतर कथा गोष्ठियों, कार्यशालाओं एवं साहित्यिक कार्यक्रमों का आयोजन । लंदन में कहानी मंचन की शुरू‏आत वापसी से की। लंदन एवं बेज़िंगस्टोक में, अहिंदीभाषी कलाकारों को लेकर एक हिंदी नाटक हनीमून का सफल निर्देशन एवं मंचन ।
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