गुरुवार, 2 अक्तूबर 2008

कहानी




लट्टू

द्रोणवीर कोहली

हम दोनों दिन-भर लट्टू की तरह घूमते रहे, लेकिन लट्टू नाम की चीज़ हमें कहीं नहीं मिली. हम जिस भी दुकानदार से जाकर पूछते, वह एक ही बात बोलता ,"आजकल लट्टू कौन चलाता है, साहिब. रखकर क्या करेंगे! पहले प्राइमर में बच्चों को ल से लट्टू, ठ से ठठेरा सिखाते थे. अब वह सब बदल गया है, तो लट्टू कैसे रहेगा!"

इस तरह जब लट्टू प्राप्त करने में हमें कामयाबी हासिल नहीं हुई, तो पत्नी ने दुकानदार से यह बात कही,"हमारा नाती हठ कर रहा है. कहता है, लट्टू लेना है. कहीं मिलता नहीं. कहां ढूंढ़ें."

वह बोला, "आप बालक को हमारे स्टोर में ले आइए. ये सारे खेल-खिलौने देखेगा, तो लट्टू भूल जाएगा."

"नहीं , वह आ नहीं सकता." मैंने कहा.

"ऎसी क्या बात है!"

इस पर अनायास ही मेरी पत्नी के मुख से वह बात निकल गई जिसे हम पोशीदा रखना चाहते थे. डरते थे कि यदि दुकानदार को पता चल गया, तो एक लट्टू के दुगुने-चौगुने क्या, सौगुना दाम मांगने से भी गुरेज़ नहीं करेगा.

"भइया, नाती हमारा अमेरिका में रहता है." पत्नी ने भेद खोल दिया. हिंदुस्तानी चीजो़ से लगाव है उसे. दो साल पहले गिली-डंडा भी भिजवाया था."

दुकानदार बोला, "अचरज, अमेरिका में लट्टू नहीं मिला! उस देश में तो दुनिया की ऎसी कोई वस्तु नहीं जो इंपोर्ट न की जाती हो."

"वहां लट्टू मिलते हैं, लेकिन इलेक्ट्रानिक . वैसे नहीं मिलते, जैसे कील वाले हिंदुस्तानी-पाकिस्तानी लट्टू होते हैं. सूत-लत्ती से चलने वाले. वही मंगाया है उसने."


"तब तो समस्या बड़ी गंभीर है. हिंदुस्तान में तो अब वैसे लट्टू चलाने का रिवाज ही नहीं रहा! अब तो शायद ही कहीं बनते होंगे."

"आखि़र , दिल्ली जैसे शहर में कहीं तो मिलेगा. यहां तो लट्टू चलाने की प्रतियोगिताएं हुआ करती थीं."

और मुझे याद आया कि बचपन में हम किस तरह लट्टू के खेल के पीछे पागल रहते थे. ज़मीन पर लट्टू चलाने के मुकाबले होते थे. दूसरे के चलते लट्टू पर अपना लट्टू स्थापित करने की भी होड़ लगती थी या ज़मीन पर तेज़ी से चलते लट्टू को उछाल कर हथेली पर रखने और उसे ज्यादा से ज्यादा समय तक चलाए रखने के करतब भी हम किया करते थे और कील की चुभन तक महसूस नहीं होती थी. क्या मज़ेदार दिन थे वे भी बचपन के. जरूर ही हमारे नाती ने कहीं लट्टू चलता देखा जो इतना इसरार कर रहा है.

"धूम-फिर लीजिए." दुकानदार ने सलाह दी. "शायद किसी के पास पुराना पड़ा हो. वैसे, कोई बनाता नहीं है अब."

"भइया , हम तो साउथ एक्स हो आए हैं, डेफ़ कोल़ भी गए, लाजपत नगर की मार्केट में गए, सरोजिनी नगर की मार्केट भी घूम आए. जिसने जो जगह बताई, पूछ आए हैं. दिन-भर भटकते-भटकते करीब बीसेक लिटर पेट्रोल तो फूंक ही दिया होगा. फिर भी, लट्टू कहीं नहीं मिला. हमने उतने चक्कर तो लगाए ही होगें जितने लट्टू लगाता है."

"फिर तो मजबूर-----" कहते-कहते दुकानदार रुका. बोला, "एक काम करो. इस वक्त आप शंकर मार्केट में खड़े हो. पहाड़गंज कुछ ही फासले पर हैं. वहां किसी न किसी दुकान पर मिल सकता है. वहां नहीं मिलता, और अभी हिम्मत थोड़ी बची है, और आपको एक अदद लट्टू चाहिए ही, तो चांदनी चौक में दरीबा में या बल्लीमारान में या फिर सदर बाजार के तेलीवाड़ा में पता लगाइए. शायद किसी दुकान वाले के पास पुराना लट्टू पड़ा हो. या फिर इंपोर्टिड माल बेचने वाले किसी दुकानदार से मिल जाए. इंपोरटिड मिलेगा भी सस्ता. चीन में या थाइलैंड में बनी बल्ब-बैटरियां वगैरह तो आने ही लगी हैं. वहां से कोई लट्टू भी इंपोर्ट करता ही होगा."


"आपने भली कही. दूसरे देशों में लट्टू चलाने का रिवाज ही नहीं है. सो, वे लट्टू बनाना जानते ही नहीं होंगे."

वह हंस दिया. बोला, "आप लोग बड़े भोले हैं. चीन वाले गणेश की, शिव की, कृष्ण की पूजा नहीं करते. लेकिन हमारे देवी-देवताओं की मूर्तियां बना कर यहां मिट्टी के मोल बेच रहे हैं, तो लट्टू क्यों नहीं बनाएंगे? जा कर दरियाफ्त तो करो. अगर लट्टू उन्होंने अभी नहीं बनाया, तो आप जैसे दो-चार लोग लट्टू की फ़रमाइश करेंगे और चीनी लोगों को भनक पड़ गई, तो हिंदुस्तान के सारे बाजा़र लट्टुओं से पाट देंगे."

"साहब, आप तो ऊंची अर्थशास्त्र की बातों में पड़ गए. हमें तो मामूली-सा एक लट्टू चाहिए. चलिए, आपकी नसीहत को पल्ले बांधकर पुरानी दिल्ली के बाज़ारों की खा़क छानते हैं. बच्चे को खुश तो करना ही है न!"

अब खुद ड्राइव करने की हिम्मत नहीं थी. सो, हमने गाड़ी पार्किंग में ही छोड़ी और टैक्सी कर ली दिन-भर की -पांच सौ रुपए में. उन बाजा़रों में जाकर एक-एक दुकान पर दरियाफ्त किया. कुछेक तो हंसे, कुछेक चकित हुए कि सन २००५ में भी किसी बच्चे की दिलचस्पी इलेक्ट्रानिक खिलौनों को छोड़कर लट्टू जैसी पुरानी चीज़ में हो सकती है.

"साहेब जी, आपका बच्चा एक्स्ट्रा-आर्डिनरी है."

"एक्स्ट्रा-आर्डिनरी नहीं, साहब, अमेरिकन है. वहां की आबोहवा में पला है."

"किसी तरीके से उसे कंविंस करिए कि हिन्दुस्तान में लट्टू का रिवाज उसी तरह ख़त्म हो गया है जिस तरह अब घर में सुराही रखने का रिवाज जाता रहा है."

"नहीं, भाई, यह अमेरिकन जि़द है. लड़का जब तक पूरी नहीं करवा लेगा, चैन से न बैठेगा, न बैठने देगा."

एक दुकानदार ने तो यहां तक कहा, "अगर अमेरिका में लट्टू नहीं मिलता, तो दुनिया के किसी कोने में नहीं मिल सकता. उनके यहां तो सिर्फ़ हथियार बनते हैं. बाकी सारा सौदा-सुल्फ, सब्जी़-भाजी, फल-फ्रूट, खेल-खिलौने, वस्त्र विदेशों से मंगाते हैं. आप नाहक परेशान हो रहे हैं. इस उम्र में मुसीबत मोल ले ली. ऎसा भी क्या! बच्चे को समझा दीजिए. यह लट्टू का ज़माना नहीं, 'लोटो' का ज़माना है."


"भली कही, लेकिन , हम मान नहीं सकते कि हिन्दुस्तान से लट्टू जैसी चीज़ गा़यब हो सकती है. यहां का कोई नेता, अभिनेता, क्लर्क, चपरासी, अफ़सर ऎसा नहीं होगा जिसने बचपन में लट्टू न चलाया हो. एक बार जो चीज़ यहां आती है, वह जाती नहीं. देखा नहीं, रिश्वत की बान जाती ही नहीं."

"सत्य वचन, महाराज." दुकानदार ने हाथ जोड़ कर कहा,"आप ढूंढ़िये. शायद बटेर कहीं हाथ लग जाए."

सो, हमने दिल्ली का कोई बाजा़र, कोई माल, कोई गली-कूचा नहीं छोड़ा जहां जाकर दरियाफ्त न किया हो, लेकिन लट्टू हमें कहीं नहीं मिला. बाजा़र में खड़े-खड़े ही मोबाइल से हमने अमेरिका फ़ोन करके सोते हुए बालक को जगा कर समझाया कि लट्टू की जगह कोई दूसरी चीज़ मंगा लो, हम भिजवा देंगे. लेकिन बालक अड़ा रहा. अमेरिकन लहज़े में बोला, "नाना-नानी, तुम मुझसे प्यार करते हो, तो कहीं से भी लट्टू लेकर भिजवाओ."

बड़ी मुश्किल में पड़े. सुबह जो खाकर निकले थे, उसी में दिन गुजा़र दिया था. बाजा़री खाना पचता नहीं था. पानी पी-पी कर गुजा़रा किया. खड़े-खड़े एकाएक यह बात सूझी. चूंकि यह कहानी सच्ची है, इसलिए जिन लोगों से मैंने इस सिलसिले में संपर्क किया, उनके नाम लेने में मैं संकोच नहीं कर रहा.

सबसे पहले मुझे अपने पुराने सहयोगी पंकज का ध्यान आया. उसे फ़ोन लगाया और सीधे-सीधे पूछ लिया, "पंकज, मुझे एक लट्टू की दरकार है. कहीं से मिल नहीं रहा. बता सकते हो, कहां से मिल सकता है?"

पंकज ठहाका मारकर हंसा. "ऎसी ज़रूरत क्या आन पड़ी है जो ग्लोबलाइजेशन के ज़माने में तुम लट्टू जैसी आब्सोलीट चीज़ की फरमाइश कर रहे हो."

"यार , मजा़क में बात उड़ाओ नहीं. कहीं से एक लट्टू दिलवाओ."

"लट्टू चलाने का यह क्या शौक चर्राया है तुम्हें?"


मैंने कहा, "मैं इस उम्र में क्या लट्टू चलाऊंगा! तुम तो जानते ही हो. मेरी बेटी अमेरिका में बस गई है. वहां से मेरे नाती ने लट्टू भिजवाने की फरमाइश की है, और वह कहीं से मिल नहीं रहा. नई दिल्ली , पुरानी दिल्ली, सब जगह पता लगा लिया. कहीं नहीं मिला. अब तुम्हीं मदद कर सकते हो. तुम्हारे बेटे के पास पुराना लट्टू रखा हो, तो उसी से काम चला लेंगे."

"मेरे बच्चे पहाड़ी हैं. पहाड़ की ऊबड़-खाबड़ ज़मीन पर कोई लट्टू नहीं चलाता. रुको."

लगा पंकज सोचकर कोई हल निकालेगा. थोड़ी देर बाद तनिक गंभीर स्वर में कहता है, "आप एक काम करो. राजेन्द्र जी को फोन करो. वह बड़े खिलाड़ी और ज्ञानी-ध्यानी हैं. हर क्षेत्र में माहिर हैं. ऎसी चीज़ों की जानकारी उन्हें रहती है. फिर वह कई लट्टू एक साथ घुमाने की हिकमत जानते हैं."

"कौन राजेन्द्र जी!" मैंने कहा. "यहां ईंट उखाड़ों, तो सैकड़ों राजेन्द्र मिल जाएंगे."

"अरे, वही."

"अच्छा!!!" मैं बड़ी देर बाद समझा. "ठीक है. गुड सजेशन. उन्हीं को फोन मिलाता हूं."

सो, मैंने राजेन्द्र जी को फोन मिलाया. मैं उनका चेहरा तो देख नहीं सकता था. लेकिन मेरी बात सुनकर जिस तरह वह स्थिर हो गए, उससे लगा कि मेरी यह बात सुन जरूर भन्ना गए होंगे. लगा कि बात नहीं करेंगे. लेकिन जैसे जुगाली करने के बाद एकदम बोल पड़े, "ऎसा करो, कमलेश्वर को फो़न करो. वह लट्टू चलाया करते थे बचपन में. ज़रूर बताएंगे कि कहां से तुम्हें लट्टू मिल सकता है."

""नहीं, राजेन्द्र जी, कमलेश्वर लट्टू नहीं चलाते थे, कंचे खेला करते थे. मुझे याद पड़ता है, भैरव जी ने कहीं लिखा भी है कि जब वह उनके गांव गए थे, तो कमलेश्वर गली में कंचे खेल रहे थे. मैं ग़लत तो नहीं कह रहा न! कोई और स्रोत बताइए. बस, एक अदद लट्टू की दरकार है."


राजेन्द्र जी चिड़्चिड़ाकर बोले, "साले, तुमने थोड़ी देर कर दी. गुलेरी, मोहन राकेश, उपेन्द्रनाथ अश्क, भीष्म साहनी वगैरह-वगैरह हिन्दी में लिखने वाले सब साले पंजाबी लेखक लट्टू ही तो चला कर बड़े हुए थे. उनसे तो अब कोई गुफ्तगू तुम्हारी हो नहीं सकती....."

एकाएक फो़न पर ही कुछ चहकते स्त्री स्वर सुनाई पड़े. राजेन्द्र जी कहते हैं, "अच्छा, तो बाद में बात करेंगे."

"धन्यवाद, राजेन्द्र जी! यु हैव बिन सो हेल्पफुल! नमस्कार."

सुबह घर से निकले थे और अब सूरज अस्ताचल की ओर प्रस्थान कर रहा था. घर लौटने के लिए हम शंकर मार्केट की पार्किंग में खड़ी गाड़ी निकालने चले. अभी दरवाज़ा खोला ही था कि एकाएक यह बात सूझी. मैंने पत्नी से कहा, "नानी! तुम बैठो. अंतिम प्रयास कर देखता हूं. अभी आया."

शंकर मार्केट के बराम्दे में दो अनाथ-से दिखने वाले बालक खड़े थे. मैंने जल्दी-जल्दी जाकर दोनों की हथेलियों पर एक-एक अठन्नी रखी और कहा, "बच्चो! बता सकते हो, लट्टू कहां से मिल सकता है."

दोनों छूटते ही बोले, 'मिल सकता हैं."

"कहां?" मैंने उल्लसित होकर कहा. "बताओ, कहां मिल सकता है?"

"बहुत दूर है." एक लड़का बोला.

"कितनी दूर?"

"बहुत दूर."

मैंने धीरज रखते हुए कहा, "कोई बात नहीं . हम चले जाएंगे."

जो लड़का पहले बोला था, वह अठन्नी को आगे-पीछे से देखते हुए उचककर उंगली के इशारे से बताता है, "इस सीधी सड़क पर जाओ. आगे बाएं हाथ घूम जाओ, जहां फल बेचने वाले बैठते हैं. आगे जाओ, तो टेशन से जी़ने से उतरकर आते हैं न, उसके बाईं ओर एक खुली दुकान है. वह लट्टू रखता है....."


"बाईं तरफ़ नहीं, दाईं तरफ़ ." दूसरा लड़का बोला.

पहले लड़के ने उसे झिड़का, "बहन ---- इधर से जाओ, तो दाईं और. जी़ना उतरकर आओ, तो बाईं ओर."

"यही मैं कह रहा हूं."

"ठीक है, ठीक है, " मैंने दोनों के रूखे बालों को सहलाते हुए कहा, "मैं पता लगा लूंगा."

इन बालकों ने जिस रास्ते को 'बहुत दूर' बताया था--- ज़रूर ही मेरी उम्र का लिहाज़ करते हुए-- वह मुश्किल से तीन मिनट का पैदल रास्ता था. मैं जल्दी-जल्दी चल कर गया, तो सचमुच, रेलवे स्टेशन के बाहर दाईं ओर ज़मीन पर फड़ी लगाए दुकानदार बैठा था. मोमजामे पर ढेर सारी फैली विविध वस्तुओं में एक लट्टू भी रखा था. मुझे लगा, वह लट्टू नहीं, समुद्र-मंथन से निकला मणि है जो देवताओं को जद्दोजहद के बाद प्राप्त हुआ था.
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जन्म १९३२ के आसपास रावलपिण्डी के निकट एक दुर्गम एवं उपेक्षित ग्रामीण क्षेत्र में हुआ. देश-विभाजन के उपरान्त दिल्ली आगमन जहां किशोरावस्था बीता और शिक्षा-दीक्षा हुई. भारतीय सूचना सेवा के दौरान विभिन्न पदों पर काम करने के अतिरिक्त, 'आजकल', 'बाल भारती', 'सैनिक समाचार' जैसी पत्रिकाओं का सम्पादन किया. कुछ समय तक आकाशवाणी में वरिष्ठ संवाददाता तथा हिन्दी समाचार विभाग के प्रभारी सम्पादक भी रहे. आजकल स्वतन्त्र लेखन.

प्रकाशित कृतियां : *काया-स्पर्श, चौखत, तकसीम, वाह कैंप, नानी, ध्रुवसत्य, उम्मीद है (उपन्यास).

*जो़ला के उपन्यास 'जर्मिनल' का अविकल हिन्दी अनुवाद - आएगा वह दिन.
* जमा-पूंजी. (कहानी संग्र).
*टप्पार गाड़ी, देवताओं की घाटी, डाक बाबू का पर्सल, कंथक (किशोरोपयोगी/बालोपयोगी).
*मोर के पैर (लोककथाएं).
संपर्क : एस-२३/६ डी.एल.एफ. सिटी,
गुणगांव- १२२००२
हरियाणा.

मोबाइल : ०९८१०८१५७९१

1 टिप्पणी:

Anastácio Soberbo ने कहा…

Hello, I like this blog.
Sorry not write more, but my English is not good.
A hug from Portugal