हम और हमारा समय
मैं क्यों लिखता हूं
अशोक गुप्ता
लिखते हुए इतने बरस बीते, इस बीच यह प्रश्न खुद मेरे सामने कई कई बार आ कर खड़ा हुआ और हर बार सोच का सिलसिला शुरू होकर किन्हीं व्यतिक्रम में अधूरा ही टूट गया. इस तरह अलग अलग सिरों से चल कर अलग - अलग मनःस्थितियों के उत्तर मुझे खुद से मिलते रहे और मुझे हर बार लगता रहा कि अभी कुछ और भी जान पाना बाकी रह गया है.
शायद उस बाकी रह गये की खोज भी मुझसे कुछ लिखवा ले जाती है.
हर आदमी अपनी दुनिया को अपनी नज़र से देखता समझता है. मेरे साथ भी ऎसा ही है. मैं भी देखे हुए के संकेतों को अपने भीतर बटोरता चलता हूं और वह संकेत मेरे भीतर कॊई न कोई तस्वीर रचते रहते हैं. जब कभी उस तस्वीर में कोई ऎसा उद्दीपन दिख जाता है जो दूसरों को नहीं नज़र आता या वह उन्हें इतना क्षीण लगता है कि वह उसके प्रति उदासीन बने रहते हैं तब मेरे अंदर एक अजी़ब किस्म की बेचैनी होती है और शायद वही लेखन की शक्ल ले लेती है.
वह उद्दीपन किसी भावी ख़तरे का, किसी बेहद महत्वपूर्ण मूल्य के निरंतर क्षरण का, या किसी गहरे आनन्दकारी पलों का हो सकता है जिसकी ओर सबका ध्यान दिलाना मुझे जरूरी लगता है, ऎसा समझें -=-- एक सड़क, जिस पर एक बेतहाशा भीड़ बदहवास सी गुज़र रही हो, उस पर एक ख़तरनाक गढ्ढा या खुला हुआ मैन होल है जिसमें गिर जाना जान लेवा हो सकता है, उसे देख कर कम से कम मैं अनदेखा नहीं कर सकता . अक्सर मेरा लेखन वह लाल कपड़े का चिथड़ा होता है, मेरे भीतर की उस बेचैनी का नतीजा, जिसके केन्द्र में जन सरोकार की भावना होती है, इसलिए मैं इतना तो बेझिझक कह सकता हूं कि मैं इसलिए लिखता हूं क्यों कि people fascinate me.
एक और छोर से आने वाली दूसरी बात भी है. शायद मेरे भीतर एक छुपी हुई सी आंख है जो वहां से भी आनन्द-अतिरेक की लहर खोज लेती है, जहां से लोग अनमने बदहवास दिन-रात गुजरते रहते हैं. वह लहर मुझे बेबस कर देती है कि मैं उसकी तरंग को किसी के साथ बांटूं. फिर 'किसी' की तलाश में मैं लोगों में विलय होने लगता हूं. इस दौर में मुझे दो तरह के लोग मिलते हैं. एक तो वह जिनमें आनन्द अतिरेक की प्यास तो है लेकिन उनकी दृष्टि तक नहीं पहुंच पा रही है, दूसरे वह जिनके भीतर किन्हीं दबावों के चलते आनन्द की तृष्णा ही सुन्न हो गई है. मैं कुछ को उनकी उंगली पकड़ कर उस कोने में ले जाता हूं, जहां पानी के मीटर के पीछे एक बेहद सुन्दर फूल खिला है, या बाबा के चाय के उस खोके पर, जिसे बाबा रेटायरमेंट के बाद अम्मा के साथ बरसों से चला रहे हैं. क्या ठहाके हैं बाबा के.....! दूसरे किस्म के लोगों के भीतर उतर कर मैं जाल बिछाने का उपक्रम करता हूं, जो उनके वह दबाव मेरी पकड़ में आएं जिन्होंने उनकी आनन्द की तृष्णा को निस्पंद कर रखा है. मनुष्य के भीतर आनन्द की तृष्णा को उन्मुक्त करना और जीवन में संचरित आनन्द को मुखर हो कर समेटना मुझे उतना ही जरूरी लगता है जितना आनन्द और लिप्सा में फ़र्क करने की समझ पैदा करना. आनन्द सार्वजनीन होता है और लिप्सा स्वार्थगत. आनन्द किसी जीवन मूल्य, किसी मानवीयता का उल्लंघन नहीं करता. मैं इस समझ को जन में हमेशा बांटता रहना चाहता हूं और यह भी शायद मेरे लिखने का कारण बनता है.
यहा एक यह सवाल भी मायने रखता है कि मैं किसके लिए लिखता हूं क्योंकि इस पर उंगली धरे बगैर मैं क्यों लिखता हूं का समूचा उत्तर सामने नहीं आ सकता.
यह तो मैंने कहा कि मैं उन लोगों के लिए लिखता हूं जो अर्जुन बने चिड़िया की आंख के पीछे बदहवास भागे जा रहे हैं, जिन्हें न सड़क पर खुला मैनहोल सूझ रहा है, न सड़क पार करता बच्चा. ऎसे लोग खुद ख़तरे की तरफ़ बेखबर बढ़ रहे हैं और दूसरों के लिए भी खतरा बन रहे हैं. ऎसा सायास भी हो रहा है और अनायास भी.
बताता हूं कैसे---
महाभारत का दिया हुआ एक सफलता का सूत्र है जो कहता है कि व्यक्ति को बस अपना लक्ष्य सूझे, अन्यत्र कुछ नहीं. लक्ष्य , अर्थात अपना निजी स्वार्थ, शेष कुछ न सूझे, न छुए न भिगोए. अपने एक टके के जायज़ नाजायज़अ लाभ के लिये दूसरे के दस टके पर पानी फेर देना जायज़ है. भले ही यह सच हो कि हमारा यह जीवन-संग्राम महाभारत ही है, तब भी मैं इस सोच , सयानेपन की इस विरासत को घोर अमानवीय मानता हूं. इसलिये मैं लिखने के जरिये समाज में एक कृष्ण रचता रहता हूं. सांवला, मयूरपंखी, बांसुरी वाला सखीधर्मा, चरित्र जो संवेदना के वेश में विचार का पक्षधर है. इस बात को मैं यूं भी कह सकता हूं, कि मैं प्रेम और न्याय की संस्कृति बनाए रखने के लिये भी लिखता हूं. मेरे मन में बिना प्रेम के आनन्द की कोई अवधारणा नहीं बनती और प्रेम का औदार्य न्याय की ज़मीन पर ही टिकता है.
एक और भ्रामक-सा आधा-अधूरा सिद्धान्त समाज को भटकाता है, वह है चार्ल्स डॉरविन का Survivala of the fittest . यह सिद्धान्त फ़िट होने को जिन्दा बने रहने की शर्त के रूप में तो पेश करता है, लेकिन न तो फ़िटनेस का पैमाना बताता है, न ही यह कि किस काम के लिए फ़िटनेस----- कुमार गंधर्व और सचिन तेंदुलकर दोनों ही अकाउण्टेट के रूप में अनफ़िट साबित होंगे यह तय है, लेकिन यह न केवल जी गये बल्कि ज़िन्दादिली की जिन्दगी की राह भी खोल गये. तो, यहां चूकता है डॉरविन और ज़ोर दे कर नहीं कहता कि हर इंसान किसी न किसी करिश्मे के लिये बेहद फ़िट होता है और वहां उसके लिये जीवन का अनंत फलक होता है. प्रश्न केवल यह है कि व्यक्ति अपने भीतर उतर कर खु़द को सुनें और परखे कि उसके लिये जिन्दगी का छोर किस मंच पर खुलता है---- वह परख कर उधर रुख किया तो वह सचिन तेंदुलकर बन गया वरना अनफ़िट बने रह कर मारे गये. मैं इसलिये भी लिखता हूं कि मैं लोगों में अपनी निजता परखनें की ललक पैदा कर सकूं, उनको इतना निर्भीक बना सकूं कि वह अपने निजता के बोध को बिना किसी लोक लाज के स्वीकार कर सकें, इसलिये, कह सकता हूं कि मेरे लिखने का एक कारण यह है कि मैं उसके जरिये व्यक्ति में किसी कन्फ़्यूजन की संभावना को कम से कमतर कर सकूं और व्यक्ति के निर्णयतंत्र में उसकी निजता को स्थान दिला सकूं. इस तरह कहा जा सकता है कि मेरा लेखन व्यक्ति को ऎसे बहुत से बाहरी प्रतिबंधों से मुक्त कराने का प्रकल्प है, जो उसकी निजता को बाधित करता हैं. मैं तर्क और विचारहीन यथास्थिति के खिला़फ़ अपना जरूरी हस्तक्षेप लिख कर करता हूं. मेरे लेखन की परिधि में न कोई मान्यता अंतिम है और न कोई निषेध इतना दुर्निवार कि जिस पर पुनर्विचार न हो सके. इसलिये लिखना मेरे लिये एक खुलेपन का आग्रह निभाना है.
एक खुफ़िया बात मैं सबसे बाद में कह रहा हूं. लिखना मुझे सुख देता है, और लिख लेने के बाद का सुख फिर फिर लिखने की भूमिका बनता है. इस तरह यह क्रम कभी खण्डित नहीं होता, प्रवाह जारी रहता है.
कहते हैं कि झरने से गिरने वाला पानी हमेशा पीने लायक नहीं होता. लेकिन अगर यह मौसम मौसम की बात है तो प्यास की बात भी है----- और फिर झरना तो झरना है . यही बात मेरे लिखने पर भी लागू है. आखिर कोई तो ग्लैशियर है जो पिघल कर पहाड़ से नीचे उतरता है...... इस पर न पहाड़ का बस है न उस समुद्र का जो उसे बहरहाल झेलता है----- यह अलग बात है कि एक छोर पर झरना चीख़ता है और दूसरे छोर पर समुद्र-----.
लिखना भी तो एक चीख ही है न .......!!
अशोक गुप्ता
लिखते हुए इतने बरस बीते, इस बीच यह प्रश्न खुद मेरे सामने कई कई बार आ कर खड़ा हुआ और हर बार सोच का सिलसिला शुरू होकर किन्हीं व्यतिक्रम में अधूरा ही टूट गया. इस तरह अलग अलग सिरों से चल कर अलग - अलग मनःस्थितियों के उत्तर मुझे खुद से मिलते रहे और मुझे हर बार लगता रहा कि अभी कुछ और भी जान पाना बाकी रह गया है.
शायद उस बाकी रह गये की खोज भी मुझसे कुछ लिखवा ले जाती है.
हर आदमी अपनी दुनिया को अपनी नज़र से देखता समझता है. मेरे साथ भी ऎसा ही है. मैं भी देखे हुए के संकेतों को अपने भीतर बटोरता चलता हूं और वह संकेत मेरे भीतर कॊई न कोई तस्वीर रचते रहते हैं. जब कभी उस तस्वीर में कोई ऎसा उद्दीपन दिख जाता है जो दूसरों को नहीं नज़र आता या वह उन्हें इतना क्षीण लगता है कि वह उसके प्रति उदासीन बने रहते हैं तब मेरे अंदर एक अजी़ब किस्म की बेचैनी होती है और शायद वही लेखन की शक्ल ले लेती है.
वह उद्दीपन किसी भावी ख़तरे का, किसी बेहद महत्वपूर्ण मूल्य के निरंतर क्षरण का, या किसी गहरे आनन्दकारी पलों का हो सकता है जिसकी ओर सबका ध्यान दिलाना मुझे जरूरी लगता है, ऎसा समझें -=-- एक सड़क, जिस पर एक बेतहाशा भीड़ बदहवास सी गुज़र रही हो, उस पर एक ख़तरनाक गढ्ढा या खुला हुआ मैन होल है जिसमें गिर जाना जान लेवा हो सकता है, उसे देख कर कम से कम मैं अनदेखा नहीं कर सकता . अक्सर मेरा लेखन वह लाल कपड़े का चिथड़ा होता है, मेरे भीतर की उस बेचैनी का नतीजा, जिसके केन्द्र में जन सरोकार की भावना होती है, इसलिए मैं इतना तो बेझिझक कह सकता हूं कि मैं इसलिए लिखता हूं क्यों कि people fascinate me.
एक और छोर से आने वाली दूसरी बात भी है. शायद मेरे भीतर एक छुपी हुई सी आंख है जो वहां से भी आनन्द-अतिरेक की लहर खोज लेती है, जहां से लोग अनमने बदहवास दिन-रात गुजरते रहते हैं. वह लहर मुझे बेबस कर देती है कि मैं उसकी तरंग को किसी के साथ बांटूं. फिर 'किसी' की तलाश में मैं लोगों में विलय होने लगता हूं. इस दौर में मुझे दो तरह के लोग मिलते हैं. एक तो वह जिनमें आनन्द अतिरेक की प्यास तो है लेकिन उनकी दृष्टि तक नहीं पहुंच पा रही है, दूसरे वह जिनके भीतर किन्हीं दबावों के चलते आनन्द की तृष्णा ही सुन्न हो गई है. मैं कुछ को उनकी उंगली पकड़ कर उस कोने में ले जाता हूं, जहां पानी के मीटर के पीछे एक बेहद सुन्दर फूल खिला है, या बाबा के चाय के उस खोके पर, जिसे बाबा रेटायरमेंट के बाद अम्मा के साथ बरसों से चला रहे हैं. क्या ठहाके हैं बाबा के.....! दूसरे किस्म के लोगों के भीतर उतर कर मैं जाल बिछाने का उपक्रम करता हूं, जो उनके वह दबाव मेरी पकड़ में आएं जिन्होंने उनकी आनन्द की तृष्णा को निस्पंद कर रखा है. मनुष्य के भीतर आनन्द की तृष्णा को उन्मुक्त करना और जीवन में संचरित आनन्द को मुखर हो कर समेटना मुझे उतना ही जरूरी लगता है जितना आनन्द और लिप्सा में फ़र्क करने की समझ पैदा करना. आनन्द सार्वजनीन होता है और लिप्सा स्वार्थगत. आनन्द किसी जीवन मूल्य, किसी मानवीयता का उल्लंघन नहीं करता. मैं इस समझ को जन में हमेशा बांटता रहना चाहता हूं और यह भी शायद मेरे लिखने का कारण बनता है.
यहा एक यह सवाल भी मायने रखता है कि मैं किसके लिए लिखता हूं क्योंकि इस पर उंगली धरे बगैर मैं क्यों लिखता हूं का समूचा उत्तर सामने नहीं आ सकता.
यह तो मैंने कहा कि मैं उन लोगों के लिए लिखता हूं जो अर्जुन बने चिड़िया की आंख के पीछे बदहवास भागे जा रहे हैं, जिन्हें न सड़क पर खुला मैनहोल सूझ रहा है, न सड़क पार करता बच्चा. ऎसे लोग खुद ख़तरे की तरफ़ बेखबर बढ़ रहे हैं और दूसरों के लिए भी खतरा बन रहे हैं. ऎसा सायास भी हो रहा है और अनायास भी.
बताता हूं कैसे---
महाभारत का दिया हुआ एक सफलता का सूत्र है जो कहता है कि व्यक्ति को बस अपना लक्ष्य सूझे, अन्यत्र कुछ नहीं. लक्ष्य , अर्थात अपना निजी स्वार्थ, शेष कुछ न सूझे, न छुए न भिगोए. अपने एक टके के जायज़ नाजायज़अ लाभ के लिये दूसरे के दस टके पर पानी फेर देना जायज़ है. भले ही यह सच हो कि हमारा यह जीवन-संग्राम महाभारत ही है, तब भी मैं इस सोच , सयानेपन की इस विरासत को घोर अमानवीय मानता हूं. इसलिये मैं लिखने के जरिये समाज में एक कृष्ण रचता रहता हूं. सांवला, मयूरपंखी, बांसुरी वाला सखीधर्मा, चरित्र जो संवेदना के वेश में विचार का पक्षधर है. इस बात को मैं यूं भी कह सकता हूं, कि मैं प्रेम और न्याय की संस्कृति बनाए रखने के लिये भी लिखता हूं. मेरे मन में बिना प्रेम के आनन्द की कोई अवधारणा नहीं बनती और प्रेम का औदार्य न्याय की ज़मीन पर ही टिकता है.
एक और भ्रामक-सा आधा-अधूरा सिद्धान्त समाज को भटकाता है, वह है चार्ल्स डॉरविन का Survivala of the fittest . यह सिद्धान्त फ़िट होने को जिन्दा बने रहने की शर्त के रूप में तो पेश करता है, लेकिन न तो फ़िटनेस का पैमाना बताता है, न ही यह कि किस काम के लिए फ़िटनेस----- कुमार गंधर्व और सचिन तेंदुलकर दोनों ही अकाउण्टेट के रूप में अनफ़िट साबित होंगे यह तय है, लेकिन यह न केवल जी गये बल्कि ज़िन्दादिली की जिन्दगी की राह भी खोल गये. तो, यहां चूकता है डॉरविन और ज़ोर दे कर नहीं कहता कि हर इंसान किसी न किसी करिश्मे के लिये बेहद फ़िट होता है और वहां उसके लिये जीवन का अनंत फलक होता है. प्रश्न केवल यह है कि व्यक्ति अपने भीतर उतर कर खु़द को सुनें और परखे कि उसके लिये जिन्दगी का छोर किस मंच पर खुलता है---- वह परख कर उधर रुख किया तो वह सचिन तेंदुलकर बन गया वरना अनफ़िट बने रह कर मारे गये. मैं इसलिये भी लिखता हूं कि मैं लोगों में अपनी निजता परखनें की ललक पैदा कर सकूं, उनको इतना निर्भीक बना सकूं कि वह अपने निजता के बोध को बिना किसी लोक लाज के स्वीकार कर सकें, इसलिये, कह सकता हूं कि मेरे लिखने का एक कारण यह है कि मैं उसके जरिये व्यक्ति में किसी कन्फ़्यूजन की संभावना को कम से कमतर कर सकूं और व्यक्ति के निर्णयतंत्र में उसकी निजता को स्थान दिला सकूं. इस तरह कहा जा सकता है कि मेरा लेखन व्यक्ति को ऎसे बहुत से बाहरी प्रतिबंधों से मुक्त कराने का प्रकल्प है, जो उसकी निजता को बाधित करता हैं. मैं तर्क और विचारहीन यथास्थिति के खिला़फ़ अपना जरूरी हस्तक्षेप लिख कर करता हूं. मेरे लेखन की परिधि में न कोई मान्यता अंतिम है और न कोई निषेध इतना दुर्निवार कि जिस पर पुनर्विचार न हो सके. इसलिये लिखना मेरे लिये एक खुलेपन का आग्रह निभाना है.
एक खुफ़िया बात मैं सबसे बाद में कह रहा हूं. लिखना मुझे सुख देता है, और लिख लेने के बाद का सुख फिर फिर लिखने की भूमिका बनता है. इस तरह यह क्रम कभी खण्डित नहीं होता, प्रवाह जारी रहता है.
कहते हैं कि झरने से गिरने वाला पानी हमेशा पीने लायक नहीं होता. लेकिन अगर यह मौसम मौसम की बात है तो प्यास की बात भी है----- और फिर झरना तो झरना है . यही बात मेरे लिखने पर भी लागू है. आखिर कोई तो ग्लैशियर है जो पिघल कर पहाड़ से नीचे उतरता है...... इस पर न पहाड़ का बस है न उस समुद्र का जो उसे बहरहाल झेलता है----- यह अलग बात है कि एक छोर पर झरना चीख़ता है और दूसरे छोर पर समुद्र-----.
लिखना भी तो एक चीख ही है न .......!!
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29 जनवरी 1947 को देहरादून में जन्म। इंजीनियरिंग और मैनेजमेण्ट की पढ़ाई। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में पढाई के दौरान ही साहित्य से जुड़ाव ।अब तक सौ से अधिक कहानियां, अनेकों कविताएं, दर्जन भर के लगभग समीक्षाएं, दो कहानी संग्रह, एक उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। एक उपन्यास शीघ्र प्रकाश्य। बेनजीर भुट्टो की आत्मकथा Daughter of the East का हिन्दी में अनुवाद।सम्पर्क : बी -11/45, सेक्टर 18, रोहिणी, दिल्ली - 110089मोबाईल नं- 09871187875
1 टिप्पणी:
एक खुफ़िया बात मैं सबसे बाद में कह रहा हूं. लिखना मुझे सुख देता है, और लिख लेने के बाद का सुख फिर फिर लिखने की भूमिका बनता है. इस तरह यह क्रम कभी खण्डित नहीं होता, प्रवाह जारी रहता है.
sacha main hi ekdam khupiya baat hai
shambhu choudhary
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