
हम और हमारा समय
साहित्य, मुख्यधारा और अस्तित्व संकट
रूपसिंह चन्देल
आजकल साहित्य में एक शब्द प्रायः सुनाई देने लगा है -- ’मुख्यधारा’. यह शब्द मुझमें उसीप्रकार की उलझन पैदा करता है जैसे ’उत्तरआधुनिकतावाद’ करता रहा है. मुझे नहीं मालूम कि ’उत्तरआधुनिकतावाद’ की भांति ’मुख्यधारा’ बाहर से आयातित शब्द है या यह यहां ही कुछ लोगों (साहित्यकारों-आलोचकों) की खोज और मुझे यह भी नहीं मालूम कि इसका जन्म-श्रोत क्या है. यह किसी एक ही व्यक्ति की सोच का परिणाम है या कुछ लोगों की सोच का----- लेकिन इससे एक राजनैतिक गंध अवश्य महसूस होती है.
प्रायः राजनीतिज्ञों को उग्रवादियों के विषय में इस शब्द का प्रयोग करते सुना-पढ़ा है. कश्मीर, उल्फा और अब माओवादियों को मुख्यधारा से जोड़ने की बात की जाती है - की जाती रही है, क्योंकि वे भटके हुए और दिग्भ्रमित युवक हैं, जिन्हें देश-समाज की मुख्यधारा से जोड़कर उनकी सकारात्मक सक्रियता सुनिश्चित की जा सके. यहां दो धाराओं की बात समझ में आती है, लेकिन साहित्य में ’मुख्यधारा’ --- इसकी अवधारणा भ्रमात्मक है. क्या साहित्य में भी भटके हुए -दिग्भ्रमित लोग हैं ? साहित्य स्वयं में एक धारा है ---- सतत प्रवहमान और साहित्य लिखनेवाला हर व्यक्ति उस धारा में तैर रहा है. यह तो तैरनेवाले की क्षमता और कौशल पर निर्भर है कि वह डूबता है या अपने को बचा लेता है.
साहित्य में ’मुख्यधारा’ शब्द ने पहली बार मेरा ध्यान आकर्षित किया और सोचने के लिए विवश किया जब वरिष्ठ कथाकार कृष्ण बिहारी के अतिथि सम्पादन में प्रकाशित ’शब्द संगत’ के वरिष्ठ कथाकार रजेन्द्र राव पर केन्द्रित अंक में उनका सम्पादकीय पढ़ा. दूसरी बार गर्भनाल के सितम्बर अंक में कवयित्री-कथाकार सुधा ओम ढींगरा की रम्य रचना ’छाप तिलक की तलाश’ में इसकी चर्चा देखी.
’शब्द संगत’ के सम्पादकीय में कृष्ण बिहारी कहते हैं - "मुझे सोचना पड़ा कि साहित्य की मुख्यधारा कौन-सी है ? मैं यह भी सोचने के लिए विवश हुआ कि साहित्यकारों की यह कौन-सी जमात है जो अपने अलावा किसी अन्य को मुख्यधारा का रचनाकार मानने को तैयार नहीं या शायद गोलबंद होकर उनमें अपनी टीम के अलावा किसी अन्य साहित्यकार को देखने और सहने की भी शक्ति नहीं है. इस मामले पर हरि का कहना था कि ऎसा कुछ समय से अभियान के रूप में शुरू हुआ है. पहले भी ऎसा होता था लेकिन आज पहले से कुछ अधिक है. मुझे आश्चर्य इस बात पर हुआ कि जिन लोगों ने मेरे सामने राजेन्द्र राव को मुख्यधारा से बाहर का लेखक बताया, क्या वे जानते हैं कि वे स्वयं किस धारा में हैं ? बीस साल बाद किस धारा में रहेंगे ? क्या अपनी हकीकत उन्हें पता है ? क्या वे जानते हैं कि उनके पांवों के नीचे जो जमीन है वह कितनी ठोस है ? क्या उनका एकालाप उन्हें जिन्दा रख सकता है ? मेरा सवाल है कि क्या उद्योगपति साहित्यकार मुख्यधारा का है ? क्या प्रशासनिक पदों पर बैठे सुविधाभोगी साहित्यकार मुख्यधारा के हैं ? क्या साल में एक कार्यक्रम कराने वाले आयोजक साहित्यकार मुख्यधारा के हैं ? या किसी को निमंत्रित करके उसकी स्वीकृति पाने के बाद उसका नाम सूची में से काटकर अपनी मर्जी से उसके सार्वजनिक अपमान की इच्छा को हृदय में बसाकर पर पीड़ा में सुख पाने वाले तथाकथित साहित्यकार मुख्यधारा के हैं ? या किसी पत्रिका के प्रोपराइटर उर्फ़ संपादक बने वे लोग जो अपने को ही इस दुनिया का मुख्य कुम्हार मानकर संतुष्ट हैं वे मुख्यधारा के हैं ? कौन हैं वे लोग जो किसी का क़द तय करते हैं ? पेशेवर आलोचक या कि अनवरत घूमने वाला काल का पहिया -- समय ."
कृष्ण बिहारी के सम्पादकीय के इस अंश को उद्धृत करने का मात्र उद्देश्य यह है कि मेरे हिस्से की बहुत-सी बातें इसमें कही जा चुकी हैं.
’मुख्यधारा’ की बात करने वाले लोग भी जानते हैं कि यह केवल उनकी राजनीति है और काल का अनवरत घूमने वाला पहिया -- समय - ही सबसे बड़ा निर्णायक होता है.
जैसा कि मैंने कहा ’मुख्यधारा’ एक राजनैतिक शब्द है और मेरा अनुमान है कि साहित्य की राजनीति करने वालों ने इसे अपने को और अपने लोगों को स्थापित करने और दूसरों को ( जो वाद-विवाद और राजनीति से दूर रहकर लेखनरत हैं ) हाशिए पर डालने के लिए अपनाया है. ये लोग जब बेशर्मी से गांव पर केन्द्रित किसी उपन्यास (जिसमें गांव अपनी सम्पूर्णता के साथ उपस्थित हो ) के बारे में यह कहते हैं कि इसमें तो उन्हें कहीं गांव नजर ही नहीं आया तब आश्चर्य नहीं होता क्योंकि ऎसा कहकर ही उस उपन्यास को खारिज किया जा सकता है या उस उपन्यासकार को हाशिए पर डाला जा सकता है या उनके अनुसार मुख्यधारा से बाहर का लेखक सिद्ध किया जा सकता है.
वास्तविकता यह है कि मुख्यधारा की बात करने वाले लोग स्वयं के ’अस्तित्व संकट’ से ग्रस्त हैं . वे हड़हड़ी में हैं --- हड़बड़ी अपने को स्थापित कर लेने की . यह शब्द ऎसे ही लोगों के संगठित प्रयास का प्रतिफलन प्रतीत होता है. वे अपने गुट से बाहर वालों के बारे में या तो चुप्पी साध लेते हैं या ’वह लेखक मुख्यधारा का लेखक नहीं’ जैसे फतवे देते हैं. हिन्दी साहित्य के इन खोमैनियों के लिए समय स्वयं निर्णय करेगा.
****
’वातायन’ के सितम्बर अंक में अपनी पुस्तक ’दॉस्तोएव्स्की के प्रेम’ की भूमिका पुनः प्रकाशित कर रहा हूं. इसे पुनः प्रकाशित करना इसलिए आवश्यक लगा क्योंकि लियो तोल्स्तोय के अंतिम उपन्यास हाजी मुराद के अनुवाद ने मुझे एक अनुवादक की भी पहचान दी. हाल में उन पर उनके रिश्तेदारों, मित्रों, लेखकों और रंगकर्मियों के लगभग पैंतीस संस्मरणॊं (जो अनेक पत्र-पत्रिकाओं के साथ अंतर्जाल पत्रिकाओं में भी प्रकाशित हुए और हो रहे हैं ) के अनुवाद ने इस पहचान को और सुदृढ़ किया और ’दॉस्तोएव्स्की के प्रेम’ के विषय में कुछ पाठकों को भ्रम हुआ. वे इस पुस्तक को भी मेरा अनुवाद मान बैठे. अतः यह बताना आवश्यक लगा कि यह पुस्तक मेरा मौलिक कार्य है . इस पर मैंने पूरे एक वर्ष कार्य किया था. विभिन्न पुस्तकालयों से सामग्री एकत्रित की और उस दौरान अन्य साहित्यिक कार्य स्थगित रखे. दॉस्तोएव्स्की के तीन प्रेम ’मारिया’, ’अपोलिनेरिया’ और ’अन्ना’ ही प्रसिद्ध हैं. दॉस्तोएव्स्की के बारे में अध्ययन करते समय उनके अन्य अनेक संबन्धों की जानकारी मुझे मिली और जब मैंने पुस्तकालयों को खंगाला तब उनके जीवन संबन्धी आश्चर्यजनक तथ्य उद्घाटित हुए. २३२ पृष्ठों की इस पुस्तक में उनके बचपन से लेकर मृत्यु तक के विवरण दर्ज हैं. उस महान लेखक के प्रेम संबन्धों पर केन्द्रित होते हुए भी यह एक जीवनीपरक पुस्तक है. प्रस्तुत आलेख उन पर संक्षिप्त प्रकाश डालता है.
इसके अतिरिक्त प्रस्तुत है वरिष्ठ गीतकार - कवि राजेन्द्र गौतम की रचनाएं और युवा कहानीकार अरविन्द कुमार सिंह की कहानी.
आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी.
रूपसिंह चन्देल
आजकल साहित्य में एक शब्द प्रायः सुनाई देने लगा है -- ’मुख्यधारा’. यह शब्द मुझमें उसीप्रकार की उलझन पैदा करता है जैसे ’उत्तरआधुनिकतावाद’ करता रहा है. मुझे नहीं मालूम कि ’उत्तरआधुनिकतावाद’ की भांति ’मुख्यधारा’ बाहर से आयातित शब्द है या यह यहां ही कुछ लोगों (साहित्यकारों-आलोचकों) की खोज और मुझे यह भी नहीं मालूम कि इसका जन्म-श्रोत क्या है. यह किसी एक ही व्यक्ति की सोच का परिणाम है या कुछ लोगों की सोच का----- लेकिन इससे एक राजनैतिक गंध अवश्य महसूस होती है.
प्रायः राजनीतिज्ञों को उग्रवादियों के विषय में इस शब्द का प्रयोग करते सुना-पढ़ा है. कश्मीर, उल्फा और अब माओवादियों को मुख्यधारा से जोड़ने की बात की जाती है - की जाती रही है, क्योंकि वे भटके हुए और दिग्भ्रमित युवक हैं, जिन्हें देश-समाज की मुख्यधारा से जोड़कर उनकी सकारात्मक सक्रियता सुनिश्चित की जा सके. यहां दो धाराओं की बात समझ में आती है, लेकिन साहित्य में ’मुख्यधारा’ --- इसकी अवधारणा भ्रमात्मक है. क्या साहित्य में भी भटके हुए -दिग्भ्रमित लोग हैं ? साहित्य स्वयं में एक धारा है ---- सतत प्रवहमान और साहित्य लिखनेवाला हर व्यक्ति उस धारा में तैर रहा है. यह तो तैरनेवाले की क्षमता और कौशल पर निर्भर है कि वह डूबता है या अपने को बचा लेता है.
साहित्य में ’मुख्यधारा’ शब्द ने पहली बार मेरा ध्यान आकर्षित किया और सोचने के लिए विवश किया जब वरिष्ठ कथाकार कृष्ण बिहारी के अतिथि सम्पादन में प्रकाशित ’शब्द संगत’ के वरिष्ठ कथाकार रजेन्द्र राव पर केन्द्रित अंक में उनका सम्पादकीय पढ़ा. दूसरी बार गर्भनाल के सितम्बर अंक में कवयित्री-कथाकार सुधा ओम ढींगरा की रम्य रचना ’छाप तिलक की तलाश’ में इसकी चर्चा देखी.
’शब्द संगत’ के सम्पादकीय में कृष्ण बिहारी कहते हैं - "मुझे सोचना पड़ा कि साहित्य की मुख्यधारा कौन-सी है ? मैं यह भी सोचने के लिए विवश हुआ कि साहित्यकारों की यह कौन-सी जमात है जो अपने अलावा किसी अन्य को मुख्यधारा का रचनाकार मानने को तैयार नहीं या शायद गोलबंद होकर उनमें अपनी टीम के अलावा किसी अन्य साहित्यकार को देखने और सहने की भी शक्ति नहीं है. इस मामले पर हरि का कहना था कि ऎसा कुछ समय से अभियान के रूप में शुरू हुआ है. पहले भी ऎसा होता था लेकिन आज पहले से कुछ अधिक है. मुझे आश्चर्य इस बात पर हुआ कि जिन लोगों ने मेरे सामने राजेन्द्र राव को मुख्यधारा से बाहर का लेखक बताया, क्या वे जानते हैं कि वे स्वयं किस धारा में हैं ? बीस साल बाद किस धारा में रहेंगे ? क्या अपनी हकीकत उन्हें पता है ? क्या वे जानते हैं कि उनके पांवों के नीचे जो जमीन है वह कितनी ठोस है ? क्या उनका एकालाप उन्हें जिन्दा रख सकता है ? मेरा सवाल है कि क्या उद्योगपति साहित्यकार मुख्यधारा का है ? क्या प्रशासनिक पदों पर बैठे सुविधाभोगी साहित्यकार मुख्यधारा के हैं ? क्या साल में एक कार्यक्रम कराने वाले आयोजक साहित्यकार मुख्यधारा के हैं ? या किसी को निमंत्रित करके उसकी स्वीकृति पाने के बाद उसका नाम सूची में से काटकर अपनी मर्जी से उसके सार्वजनिक अपमान की इच्छा को हृदय में बसाकर पर पीड़ा में सुख पाने वाले तथाकथित साहित्यकार मुख्यधारा के हैं ? या किसी पत्रिका के प्रोपराइटर उर्फ़ संपादक बने वे लोग जो अपने को ही इस दुनिया का मुख्य कुम्हार मानकर संतुष्ट हैं वे मुख्यधारा के हैं ? कौन हैं वे लोग जो किसी का क़द तय करते हैं ? पेशेवर आलोचक या कि अनवरत घूमने वाला काल का पहिया -- समय ."
कृष्ण बिहारी के सम्पादकीय के इस अंश को उद्धृत करने का मात्र उद्देश्य यह है कि मेरे हिस्से की बहुत-सी बातें इसमें कही जा चुकी हैं.
’मुख्यधारा’ की बात करने वाले लोग भी जानते हैं कि यह केवल उनकी राजनीति है और काल का अनवरत घूमने वाला पहिया -- समय - ही सबसे बड़ा निर्णायक होता है.
जैसा कि मैंने कहा ’मुख्यधारा’ एक राजनैतिक शब्द है और मेरा अनुमान है कि साहित्य की राजनीति करने वालों ने इसे अपने को और अपने लोगों को स्थापित करने और दूसरों को ( जो वाद-विवाद और राजनीति से दूर रहकर लेखनरत हैं ) हाशिए पर डालने के लिए अपनाया है. ये लोग जब बेशर्मी से गांव पर केन्द्रित किसी उपन्यास (जिसमें गांव अपनी सम्पूर्णता के साथ उपस्थित हो ) के बारे में यह कहते हैं कि इसमें तो उन्हें कहीं गांव नजर ही नहीं आया तब आश्चर्य नहीं होता क्योंकि ऎसा कहकर ही उस उपन्यास को खारिज किया जा सकता है या उस उपन्यासकार को हाशिए पर डाला जा सकता है या उनके अनुसार मुख्यधारा से बाहर का लेखक सिद्ध किया जा सकता है.
वास्तविकता यह है कि मुख्यधारा की बात करने वाले लोग स्वयं के ’अस्तित्व संकट’ से ग्रस्त हैं . वे हड़हड़ी में हैं --- हड़बड़ी अपने को स्थापित कर लेने की . यह शब्द ऎसे ही लोगों के संगठित प्रयास का प्रतिफलन प्रतीत होता है. वे अपने गुट से बाहर वालों के बारे में या तो चुप्पी साध लेते हैं या ’वह लेखक मुख्यधारा का लेखक नहीं’ जैसे फतवे देते हैं. हिन्दी साहित्य के इन खोमैनियों के लिए समय स्वयं निर्णय करेगा.
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’वातायन’ के सितम्बर अंक में अपनी पुस्तक ’दॉस्तोएव्स्की के प्रेम’ की भूमिका पुनः प्रकाशित कर रहा हूं. इसे पुनः प्रकाशित करना इसलिए आवश्यक लगा क्योंकि लियो तोल्स्तोय के अंतिम उपन्यास हाजी मुराद के अनुवाद ने मुझे एक अनुवादक की भी पहचान दी. हाल में उन पर उनके रिश्तेदारों, मित्रों, लेखकों और रंगकर्मियों के लगभग पैंतीस संस्मरणॊं (जो अनेक पत्र-पत्रिकाओं के साथ अंतर्जाल पत्रिकाओं में भी प्रकाशित हुए और हो रहे हैं ) के अनुवाद ने इस पहचान को और सुदृढ़ किया और ’दॉस्तोएव्स्की के प्रेम’ के विषय में कुछ पाठकों को भ्रम हुआ. वे इस पुस्तक को भी मेरा अनुवाद मान बैठे. अतः यह बताना आवश्यक लगा कि यह पुस्तक मेरा मौलिक कार्य है . इस पर मैंने पूरे एक वर्ष कार्य किया था. विभिन्न पुस्तकालयों से सामग्री एकत्रित की और उस दौरान अन्य साहित्यिक कार्य स्थगित रखे. दॉस्तोएव्स्की के तीन प्रेम ’मारिया’, ’अपोलिनेरिया’ और ’अन्ना’ ही प्रसिद्ध हैं. दॉस्तोएव्स्की के बारे में अध्ययन करते समय उनके अन्य अनेक संबन्धों की जानकारी मुझे मिली और जब मैंने पुस्तकालयों को खंगाला तब उनके जीवन संबन्धी आश्चर्यजनक तथ्य उद्घाटित हुए. २३२ पृष्ठों की इस पुस्तक में उनके बचपन से लेकर मृत्यु तक के विवरण दर्ज हैं. उस महान लेखक के प्रेम संबन्धों पर केन्द्रित होते हुए भी यह एक जीवनीपरक पुस्तक है. प्रस्तुत आलेख उन पर संक्षिप्त प्रकाश डालता है.
इसके अतिरिक्त प्रस्तुत है वरिष्ठ गीतकार - कवि राजेन्द्र गौतम की रचनाएं और युवा कहानीकार अरविन्द कुमार सिंह की कहानी.
आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी.