मंगलवार, 8 सितंबर 2009

कहानी

सती
अरविन्द कुमार सिंह
दरवाजे की ओट से झांकती उसकी आंखें देख हमारी बांछें खिल उठीं. पढ़ाई-लिखाई और दूसरे काम-धाम से हमारा मन उचट गया था. हम ताक में थे कि कैसे बिल्लियों जैसी उन आंखॊं के साथ हो लें. भाई पर सख्त नजर रखी जा रही थी, उस साल उनकी हाईस्कूल की पढ़ाई थी. वे शरारती तो माने ही जाते थे. भाई ने इशारा किया. मेरे नजरंदाज करने पर वे मुझे मनाने लगे. उनकी इच्छा का मुझे चुपचाप पालन करना पड़ा - झांकने वाले लड़के को बाग की तरफ ले गया. पीछे भाई भी आ गये.

उस लड़के का नाम नक्कू था.यह नाम उसे जन्म से ही मिला होगा. उसकी नाक पैदाइशी जो आधी थी. हमारे घर से नक्कू को और भी कुछ उपनाम मिले थे. ये नाम उसे और उसके घर को नहीं, हमारे लोगों को मन बहलाने वाली हंसी और सुकून देते थे. ’हंडिया’ कहने से उसका निकला हुआ पेट सामने दिखाई देता. ’नकबहने’ से होठ तक झूलती नाक. कलुआ और नट्टू उसके रंग और कद को जाहिर करते हुए नाम थे. हाथ-पैर पतले होने से मां उसे सीका कहतीं. वह बतातीं , सींका यानी नक्कू अब ज्यादा दिन नहीं जियेगा, उसे सूखा रोग है. हालांकि वह हमारे ही हलवाहे का भतीजा था. उसकी मां बगैर नागा हमारे घर जानवरों का गोबर उठाने आती. फिर भी, मां उन दोनों से घृणा करती थी.

हम तीनों बाग में पहुंचे. भाई ने आम की एक ऊंची डाल नक्कू को पकड़ा दी और खुद अलग हटकर खड़े हो गये. नक्कू का सिर चकरा गया. फटी-फटी आंखों से वह जमीन को ताकने लगा. डर के मारे चेहरा काठ हो गया. वह लाश की तरह अधर में लटका हुआ था और हम मजा लेते हुए शोर मचा रहे थे, फिकरे कस रहे थे. हम उसके गिरने की प्रतीक्षा कर रहे थे. भाई के सब्र का बांध जल्दी टूट गया. तब उन्होंने डाल हिलाना शुरू कर दिया. ’धम्म’ की आवाज हुई और जक्कू जमीन पर आ गिरा . मगर वह फिर भी नहीं रोया. जबकि हमारी हंसी थक कर बेजान हो गयी.

ऎसी घटनाएं अक्सर घटती ही थीं और यह हमारा शगल हो गया था. कई बार हममें जालिमाना गुस्सा उतर आता. हम उसके बदन में कांटे चुभाते, आंखों में हरे नींबू का रस निचोड़ देते. कान ऎंठते. कभी-कभी मुर्गा भी बनाते. इसके बाद भी हम हार जाते. उसमें सिसकियां तक न उभरतीं, न ही आंसू आते.

भाई ने मान लिया था कि यह पिछले जनम में घाघ चोर था, पुलिस पीटते-पीटते थक जाती थी, फिर भी वह जुबान नहीं खोलता था. नक्कू अपने बारे में खुद भी बड़े चाव से सुनता.

उसकी मां मेरे भाई से चिढ़ती थी. उन्हें शैतान और बदमाश कहती थी. भाई नक्कू को पीटकर बदला ले लेते थे. उस समय उनका चेहरा गुस्से से तमतमाया होता. वे तय करते, एक दिन साले को रुलाकर ही रहूंगा. हमारी हरकत को मां अनदेखा कर जातीं. मां सोचती थी कि तंग आकर वह एक दिन घर आना छोड़ देगा. लेकिन नक्कू को हमारे घर से बची-खुची बासी रोटियां मिलती थीं. फटे कपड़े मिलते थे. पुराने-टूटे खिलौने और हमारा साथ. फिर उसका आना भला कैसे रुकता.

गर्मी की एक सुनसान दुपहरी. बाग का एकान्त. भाई ने पके आम की डाल हिलाई थी. अब आम को चूसकर हम दोनों गुठलियां खाट के नीचे डालते जाते थे. तभी किसी के आने की आहट हुई. पेड़ के पीछे से झांकती वही दो आंखें दिखाई दीं. ये वही आंखें थीं जो हमें हसरत से ताकतीं और हम समान रूप से उसे सताने में मजा लेते. भाई मुस्कराकर मुझे देख रहे थे. मैंने उसे नजदीक आने का इशारा किया. वह नहीं आया. उसकी लुका-छिपी कुछ देर तक चलती रही.

भाई ने आम खाना छोड़ पेड़ की तरफ निगाहें टिका दीं. बिल्लियों वाली आंखें जैसे ही दिखीं, भाई का अचूक निशाना नक्कू के मुंह पर था. वह एक खटैले पेड़ का ज्यादा पका हुआ आम था. जो उसके चेहरे पर छितरा गया था. हंसते हुए मैं पेड़ तक गया, नक्कू को घसीटते हुए मैंने उसे भाई के सामने लाकर खड़ा कर दिया.

वह सिर झुकाए जैसे हमारी अगली सजा की प्रतीक्षा करने लगा.

’भगा इसे, अब पेट खराब हुआ.’ भाई ने दिखावटी हिकारत से कहा.

भाई की आशंका में मां का डर दिखाई दिया.

पहले मैंने आम की गुठलियों की तरफ देखा, फिर आम से भरी बाल्टी को. कुछ भी छिपाना अब व्यर्थ था. नक्कू की निगाहें उन्हीं पर ठहरी थीं.

इन्हीं निगाहों में मां ने एक दिन इनसानी भूख और ’हाय’ देखी थी. फिर घृणा की गांठ हमेशा के लिए बांध ली. तभी से हम मां की चिंता, हिदायत और डांट सुनते आ रहे थे. खाते समय हमें नक्कू और उसकी मां की निगाहों से बचना होता. कभी घर के अन्दर उसका अचानक आना होता और हम खाते रहते तो अपनी-अपनी थाली उठा ओसारे या आंगन से कमरे के एकान्त कोने में भागते.

हमारी हरकत पर मां एक बार परेशानी में पड़ गई थीं. पड़ोस की एक बुआ घर में आयीं और हम थाली लेकर भागे. बुआ ने हमें और मां को भला-बुरा सब सुना दिया. मां ने उन्हीं के सामने मुझे और भाई को समझाया, ’मजदूरों’ की छूत और नजर से बचा करो.

भाई ने प्रश्न किया, ’सिर्फ उनसे ही क्यों ?’

बुआ भी अब मां के साथ थीं. भाई को डांटा, बड़ों से सवाल नहीं करते. मां ने कहा, ’वे दरिद्र और भूखे होते हैं. नक्कू और उसकी मां को ही देखो, कितनी तेज नजर है!’ जब भी हम बीमार होते , दस्त या उल्टियां होती, सर्दी-जुकाम या बुखार होता- मां गुस्सा करतीं, ’नक्कू और उसकी मां की नजर लग गई है.’ वे कहतीं.

नजर की काट भी मां के पास थी. पहले तो वे बस्ती की एक आजी से नजर झड़वातीं. फायदा होने में देर दिखती तो खुद भी टोना-टोटका करतीं. खड़े नमक के कुछ ढोंके ले चूल्हे की आग में डालते हुए कहतीं, ’अगनी माई, नकुआ और उसकी महतारी की नजर को जला दे.’ आग से पटाखे जैसी आवाजें होतीं, जो हमें अच्छी लगतीं. मां के साथ हम भी खुश होते, ’लो नजर जल गईं.’

अब हमारे यहां जब भी किसी को ऎसी बीमारी होती हम आग में नमक डालना शुरू कर देते. गांव में जिससे भी हमें घृणा होती, लड़ाई होती, हम उसका नाम आग के हवाले कर देते. कभी लड़ाई-झगड़े में भाई मेरा नाम लेते तो मैं भाई का. अम्मा गुस्सा करतीं तो हम उनका भी नाम लेते. यहां तक कि हम प्रदेश के मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री तक को आग में जला चुके थे. अम्मा जान चुकी थीं कि पटाखे जैसी आवाजें सुनने के लिए ही हम तमाशा करते हैं. वे नमक का डिब्बा हमसे छिपाकर रखने लगी थीं.

आम देख नक्कू के मुंह में पानी आ चुका था. अब हमें उल्टी-दस्त या कुछ भी होने का डर था. मां कभी-कभी नक्कू की मां को बासी-बची रोटियां देकर उसकी भूख और बेबसी को दूर किया करती थीं. शायद भाई ने भी इसीलिए नक्कू से पूछा, ’आम लेगा?’ नक्कू की चुप्पी में से भी ’हां-ना’ के संकेत समझे जा सकते थे. जैसा चाहो, खुद तय कर लो.

भाई एक शर्त पर आम देने को तैयार थे, खाट के नीचे पड़ी गुठलियों को वह फिर से चाटे.

वह जमीन पर बैठ गया. फेंकी गयी गुठलियों को एक-एक कर उठाने लगा. हम मजे लेने के मूड में थे ही. बाल्टी से आम उठाते, आधा तिहाई चाटते और गुठलियां उसके आगे फेंकते जाते थे. बीच-बीच में भाई उसे डांट भी देते, ’पूरी तरह चाटा कर, हरामी.’

नक्कू की मां जाने कब आ गयी. गुठलियां चाटते हुए बेटे को उसने देख लिया था. हमारी बेफिक्री, मस्ती और शरारत को भी उसने देखा ही होगा. हालांकि हम चौकस हो गये थे और नक्कू को गुठलियां चाटने से मना करने लगे थे. फिर भी नक्कू नहीं मान रहा था. अपनी मां को भी वह नहीं देख पाया था.

उसकी मां को हमारी हरकत बुरी लगी. आंखों में घृणा और गुस्से की आग जलने लगी. तो भी हम डरे नहीं, शातिर अपराधियों की तरह बेशर्मी से तने रहे. उसे चिढ़ाने के लिए फिर से गुठलियां फेंकने लगे.

उसकी मां बर्दाश्त नहीं कर सकी और नक्कू पर पिल पड़ी, ”भूखा दरिद्दर है, तो मिट्टी खा ले. घास-गोबर खाया कर.’ उसने नन्नू के कान उमेठते हुए दो-तीन झापड़ लगा दिये. बेटे को ठोंकने-पीटने के बाद वह कमजोर पड़ गयी. लेकिन हमारे प्रति उसका गुस्सा वैसा ही बना रहा, ’दो जून रोटी मिलने लगी है तो राजा मत समझो खुद को. बड़े-बड़े को बिलाते देखा है हमने. बड़े घर के दुलरुआ हो तो अपनी औकात में रहो, हमसे मत लगो.’ भाई ने आज शराफत दिखाई और गुस्सा नहीं किया. पीछे मां जो आ खड़ी थी. मां का चेहरा खिंच गया ’चमारिन का जात, तू हमें औकात बतायेगी ? औकात में तू रहना सीख. भूखा दरिद्दर नहीं है तो क्यों लाती है इसे अपने साथ !’

मां अब नक्कू की मां की सफाई और आरोप को भी सुनने को तैयार नहीं थी. दोनों में कुछ देर तक वाकयुद्ध चलता रहा. आखिर में पता नहीं मां जीती कि वह. मां सबक सिखाने की धमकी देते हुए घर की ओर मुड़ी. वह भी रोते और बड़बड़ाते चली गयी. जाते-जाते यह पैसला भी सुना गयी थी कि कोई दूसरी गोबर उठाने वाली ढूंढ़ लेना.

पहली बार हमारे घर में उसकी जरूरत को समझा गया. शाम को दोपहर वाली घटना का जिक्र मां ने पिताजी से किया. पिताजी पहले नक्कू की मां पर ही क्रोधित हुए. मजदूरों की अकड़ वे भी सह नहीं पाते. उन्होंने हमें भी नसीहतें दीं, कल से गोबर खुद उठाओगे तो सारी शेखी और लफंगई निकल आयेगी. मां ने हमारा पक्ष लिया तो पिताजी ठंडे पड़ गये. उनकी चिन्ता अगले मजदूर को लेकर थी, जिसका तुरत-फुरत मिल पाना मुश्किल लग रहा था.

’यही सोचकर तो चुप कर गई. नहीं तो आज उसका मुंह चप्पल से न पीट देती.’ मां का बचा-खुचा गुस्सा था या अपनी गलती का एहसास -उनके उखड़े स्वभाव से यह तय कर पाना संभव नहीं था. मैं और मेरा भाई मां के साथ चिपके खड़े थे. ’कल से नहीं आती तो न आये, हमारी बला से. हम खुद गोबर उठा लेंगे.---- उस दिन दवा के लिए पैसे मांग रही थी, अच्छा हुआ नहीं दिए.’ भाई ने सुकून की सांस ली लेकिन मां तनकर बोली, ’पैसे! वह खाट पर तड़पती रहे तो भी न दूं.’

अगली सुबह हमारी आंखों मे हैरत थी. विश्वास ही नहीं हो पा रहा था कि वह काम करने फिर से चली आयेगी. हमने दौड़कर घर में मां को सूचना दी, नक्कू की मां आ गई है. वह तो दो दिन भी हमारे बिना नहीं रह सकती.

मां चुप ही रही. सिर्फ एक ठंडी निगाह मुझ पर डालकर अपने काम में लग गईं. हम निराश हुए-- साथ में नक्कू नहीं था. भाई ने कहा, पूछ नक्कू के बारे में. लेकिन मेरी हिमत नहीं हुई . अब नक्कू कभी नहीं आता. हमारी शरारतें तो जैसे उसी के लिए थीं, धीरे-धीरे वे कम होने लगीं. हमने नक्कू की परवाह करनी ही छोड़ दी.
***

जाड़े की एक शाम. हमारे घर में उदासी घिर आई. पिताजी दुखद सूचना लेकर आये थे. पहले उन्होंने मां को बुलाया, जैसा कि उनकी आदत थी. फिर उस दुख और संकट का खुलासा किया जिसका सबंध हमारे घर से था. क्षण भर के लिए हम सभी काठ से बने रहे. पिता की खबर बेचैन करने वाली थी-- नक्कू का बाप मर गया था और मां सती होने जा रही थी.

’सती?’ मां का मुंह खुला रह गया. विस्मय से पिताजी को देखा.

पिताजी ने फिर अपनी बात दुहरा दी. सती होने की बात मां को कबूल नहीं हुई, सफेद झूठ लग रही थी. वह घाट-घाट का पानी पी चुकी है, फिर कैसी पतिव्रता ? किसके लिए सती हो रही है वह ? क्यों मरने जा रही है ?’ मां की तकलीफ उपहास के रूप में प्रकट हो रही थी.

’वह कहां मरने जा रही है, उसे तो मारा जा रहा है .’ पिताजी की आवाज में तल्खी थी.

’क्यों?’ मां ने हैरानी और उत्सुकता के साथ पूछा . नक्कू के बाप को छूत की बीमारी थी. इसका इलाज ही नहीं था. ट्रकों पर बेलदारी की. जाने किस शहर से यह बीमारी ले आया. औरत को भी दे गया है. विधवा जवान शरीर, कल जाने किसको यह बीमारी वह दे बैठे. उसका घर पास-पड़ोस, टोला-- सभी तो सती होने को उसे मजबूर कर रहे हैं. गांव में और भी कई लोग साथ हैं.’

’कोई रोक नहीं रहा ?’ मां ने पूछा.

’सब तमाशा देखना चाहते हैं, सभी तो जिंदगी से ऊबे हुए हैं.’

’गांव में सब हिजड़े ही हैं, तो वह क्यों नहीं जुबान खोलती. वह तो गरब और गरूर की भी तेज थी.’ मां की आवाज पहली बार सख्त होती हुई दिखी.

’उसे धतूरे का बीज खिला दिया गया. होश में नहीं है.’ पिताजी ने गहरी सांस ली. धीरे-धीरे पिताजी भी असहाय और निरीह होते दिखाई दिये. उनका भी कहना था कि उसका मर जाना ही ठीक है. अब है कौन उसका ! कल को लोग मारें, पीछे ताने कसें और दस लांछन लगाएं.

’तो क्या उसे जिंदा आग में झोंक दोगे ?’ मां ने हिकारत से पिताजी को देखा.

पिताजी ने कोई जवाब नहीं दिया. चुपचाप बैठे रहे. फिर कल की चिंता करने लगे, ’माघ का महीना है. जेठ से पहले कोई गोबर उठाने वाली तो मिलने से रही.’

’तो इस साल उपले भी नहीं बनेंगे. मैं नहीं पाथने वाली.’ मां गुस्से में उठीं. उनका गुस्सा पता नहीं उसके सती होने को लेकर था या पिता की कमजोरी और तटस्थता पर या गोबर उठाने वाली के न मिल पाने से.

आधी रात को मां कसमसा कर बैठ गईं. नदी वाले बाग से आवाजें आने लगीं थीं. ढोल और नगाड़ों की आवाज सुनाई दी. जयकारे, हलचल और हल्ले में बदल गए.

मां ने आप ही से कहा, ’वह सती हो गई है.’

स्तब्ध, खामोश और मूर्ति जैसी जड़ मुद्रा में मां के कान उठ रहे शोर की तरफ लगे रहे. फिर न जाने क्या हुआ, वह घुटने में सिर डालकर सुबकने लगीं. मां के टूटने में सिर्फ मोह ही नहीं, अतीत की गलतियां, वर्तमान का सच और भविष्य की चिंता ही रही होगी. हमारी भी नींद टूट चुकी थी और हम मां से सटे हुए उनके चुप होने का इन्तजार कर रहे थे. भाई ने मुझे छेड़ते हुए कहा, ’कल से गोबर तुझे उठाना है.’ मैंने इनकार कर दिया. फिर मां से पूछा, ’अम्मा तुम भी सती हो जाओगी?’

आंसुओं से भीगा मां का चेहरा ऊपर उठा, ’आग लगे तेरी जुबान को.’ उन्होंने कहा.

दूसरे दिन वही हुआ जिसकी शंका पिता को पहले से थी. धुंध छंटने से पहले वे घर छोड़ चुके थे. यही हाल गांव के हर मर्द का था. कुछ दिनों के लिए औरतें ही घर की मुखिया थीं. यह भी सबको पता ही था कि पुलिस, प्रशासन और नेताओं का ड्रामा कुछ दिन तक चलेगा ही.

गांव का वातावरण धीरे-धीरे बदल रहा था. पुलिस की उपस्थिति अब जलने की जगह तक सीमित रह गई थी. धूप में खाट डाले दो-चार सिपाही गप में लगे रहते. उनकी तरफ से सिर्फ़ जयकारों की मनाही थी. हालांकि उसका भी बीच-बीच में उल्लंघन होता रहता था. दर्शनार्थियों के लिए सती महान थी. दूर-दूर से लोग दर्शन करने आ रहे थे. पिता जी भी दर्शन कर आये थे.

एक सुबह मां जल्दी उठीं. हमें भी नहाकर तैयार होने को कहा. हमारी जानने की उत्सुकता पर मां डांट लगा देती. हमें इतना ही पता था कि कहीं घूमने जाना है. फिर भी हम उत्साह में थे. भाई ने मां के मन की बात पकड़ ली. मेरे कान में बता, ’नक्कू की मां जहां सती हुई है, आज हम वहीं चलेंगे.’ कौतूहल अब और बढ़ गया. मां ने नयी साड़ी पहनी. बिन्दी और सिंदूर लगाया. हमने भी धुले कपड़े पहने. मां ने एक थाली में लाल कपड़े के नीचे कुछ चीजें रखीं. वह फूल, अगरबत्ती, लौंग, कपूर, सिन्दूर, बताशा और नारियल था. मां ने भाई को देखने के लिए कहा, कुछ भूल तो नहीं रही. भाई ने एक-एक कर सबका फिर नाम लिया. माचिस की याद भाई ही ने दिलायी. मां वह केला भी उठा लाई; जिसे पिछली शाम हमारी नजर से बचाकर जाने कहां रख छोड़ था. अब हम दौड़ते हुए नदी वाली बगिया की तरफ जा रहे थे, जहां नक्कू की मां सती हुई थी.

वहां पहुंचकर हमारा कौतूहल अब ठंडा पड़ चुका था. वहां जलती हुई चिता नहीं थी. समाधि के नाम पर चार-छह ईंटें जोड़ दी गई थीं, जिसके नीचे राख दबी रही होगी. ऊपर ढेर सारा चढ़ावा. हमें पता चला कि पुलिस यहां समाधि नहीं बनाने दे रही है. कुछ दूरी पर गड़े बांस के ऊपरी सिरे पर बंधा एक लाल कपड़ा दिखाई दिया. जिसे हम मंदिर की मुंडेरों पर देखा करते थे. कीर्तनिया पार्टी ने फिर भजन गाना शुरू कर दिया था. उनकी पुलिस के साथ नोक-झोंक चल रही थी. पुलिसवाले चिता से पांच सौ मीटर दूर बैठने को कह रहे थे. गांव के ही एक पंडित जी मिले. मां को एक परची देते हुए बोले, ’माता जी, दो रुपया दान में दीजिए. यहां सती के लिए मंदिर बनेगा.’

मां ने साड़ी की टोंग से दो रुपया निकालकर पंडितजी के हवाले किया और परची को टोंग में बांध लिया. मां समाधि के साथ बैठ गईं. अगरबत्ती जलायी. एक खुली ईंट को सिंदूर का टीका लगा दिया. लौंग, फूल और बताशा चढ़ाये, फिर नारियल तोड़ा. मां के होंठ कुछ क्षण तक बुदबुदाते रहे. उठने से पहले मां ने सामाधि पर फिर से सिर नवाया. हमें भी ऎसा करने को कहा. हमने भी मां के साथ समाधि के चक्कर लगाये. कुछ भी बोलने और पूछने के लिए मां पहले ही मना कर चुकी थीं. चलने से पहले मां ने समाधि की मिट्टी का टीका मुझे, भाई और खुद को भी लगा लिया.

दूर धूप में बैठा हमें नक्कू दिखा. वही झांकने वाली आंखें, बुझा चेहरा, मुंड़ाया हुआ सिर और शरीर से कमजोर. सूखा रोग जैसे धीरे-धीरे उसमें बढ़ रहा था. उसके सामने बिछे अंगोछे पर फल, बताशे और घी में तली टिकरियां थीं. कुछ मूंगफली के दाने भी थे. जिसे दयावश लोग डाल गये थे. हमारे पीछे मां भी आ गईं. मां ने थाली से प्रसाद का केला उठाकर उसके अंगोछे पर रख दिया. साड़ी की टोंग खोली, एक सिक्का नक्कू के हाथ में दिया. पैसा देख भाई की आंखें चमक उठीं. मां की नजर बचा भाई ने नक्कू के सिर पर एक मुक्का दे मारा. क्षण भर में ही सिक्का भाई की मुट्ठी में था. लेकिन, तभी एक हैरत भरी घटना हुई, जो हमारी उम्मीद और नक्कू के स्वभाव के विपरीत थी. रुंधे स्वर में दर्द से कराहते हुए नक्कू ने भाई की ओर देखा. विक्षोभ में आंखें सिकुड़ गईं. होंठ फिर हिले - शब्द अंदर ही घुटते हुए. शरीर उसका कांप रहा था. अचानक पागलों जैसी सनक उठी . मां का दिया हुआ केला उठाकर उसने समाधि की ओर फेंक मारा. अंगोछे को उठाकर हवा में उछाल दिया. सब कुछ बिखर चुका था -- टिकरियां, मूंगफली के दाने, फल और बताशे.


हम डरे-सहमे नक्कू को देख रहे थे. वह रुका तो हमने राहत की सांस ली. लेकिन वह फिर हिंस्र जानवर की तरह भाई की तरफ पलटा. भाई चीख उठे. भाई की हथेली पर नक्कू ने अपने दांत गड़ा दिये थे. सिक्का अब नक्कू की मुट्ठी में था और भाई की हथेली पर खून.

सिक्का हाथ में आते ही नक्कू शांत और स्थिर हो गया. अब वह हमसे दूर जा बैठा. वह लगातार सिक्के को घूरे जा रहा था.

चोट खाए, हतप्रभ खड़े भाई बदला लेने के लिए आगे बढ़ते, किन्तु मां ने रोक दिया. मां ने शंकित होकर अगल-बगल देखा. हम किसी की नजर में नहीं थे. मां ने प्रसाद की थाली मुझे दी . फिर हम दोनों की बाहें पकड़े हुए मां हमें घर की तरफ ले जाने लगी.

मां अब वहां एक क्षण भी रुकने को तैयार नहीं थीं ....’नक्कू की हरकत हमारे लिए अपशकुन है. सब सती मैया का कोप है. जल्दी चलो.’

मां ने एक बार फिर समाधि की ओर देखा, ’सती मैया, मेरे बच्चों की रक्षा करो.’ मां की आंखों में आंसू आ गये.

चिंता, बेचैनी और भय से हम सभी के चेहरे मलिन थे.
***


अरविन्द कुमार सिंह का जन्म उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिला के बरवारीपुर गांव में ११ जुलाई, १९६२ को हुआ था.
हिन्दी में स्नाकोत्तर अरविन्द की कहानियां विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं. अब तक उनके दो कहानी संग्रह १. बिरादरी का कटघरा और २. उसका सच प्रकाशित हुए हैं.
’दिशा’ पत्रिका का कुछ समय तक सम्पादन और स्व. मान बहादुरसिंह की कविताओं का सम्पादन -’आदमी का दुख’ शीर्षक से किया है.
पुरस्कार/सम्मान : ’सती’ कहानी पर रमाकान्त स्मृति पुरस्कार.
सम्प्रति : एच.सी.एल.इन्फोसिस्टम्स लि. (नोएडा) से सम्बद्ध.
सम्पर्क : सी-५/४४ ए, गली नी. २, सादतपुर विस्तार,
दिल्ली : ११० ०९४
मोबाइल नं. ०९९७१८९८७०९

1 टिप्पणी:

Dr. Sudha Om Dhingra ने कहा…

यथार्थ दर्शाती कहानी...
बधाई .