शुक्रवार, 1 जनवरी 2010

पंजाबी कहानी


सन्नाटा
बलविंदर सिंह बराड़
अनुवाद : सुभाष नीरव
जैसे ही गाड़ी स्टेशन पर आकर रुकी, प्लेटफार्म पर खड़ी भीड़ के संमदर में लहरों ने जोर मारा। रंग-बिरंगी पगड़ियों वाले सिर गाड़ी की ओर लपके। लोग डिब्बों के दरवाजों से चिपट गये। एक-दूसरे से पहले चढ़ने के लिए धक्का-मुक्की करने लगे। उतरने वाले यात्री जबकि बार-बार कह रहे थे, ''पहले हमें तो उतर जाने दो।''
लेकिन, इस शोर-शराबे में उनकी कोई नहीं सुन रहा था। दूसरे दर्जे के स्लीपर डिब्बों में भी लोग अपने झंडों और डंडों के साथ जबरन घुसे जा रहे थे। अंदर वाले कई यात्री कह रहे थे, ''यह रिजर्वेशन वाला डिब्बा है...इधर कहाँ घुसे जा रहे हो।''
एक व्यक्ति ने तीन-चार बार दोहराया, ''यह डिब्बा रिजर्व है।'' तो उसके साथी ने उसे सलाह दी, ''तू चुप कर। तेरी कौन सुनता है यहाँ...यहाँ तो अंधेरगर्दी मर्ची है।''
इन लोगों के हुलिये और हाथों में पकड़े हुए झंडों से साफ पता चलता था कि यह भीड़ किसी किसान-रैली से आई है। रात के करीब दस बजे का समय था। कई यात्री सो चुके थे और कई सोने की तैयारी कर रहे थे। लेकिन, यह जो भीड़ अंदर घुस आई थी, इससे सोये हुए लोगों की नींद भी खराब हो गई थी। भीड़ में से कई लोग नीचे की बर्थों पर सोये लोगों की टांगों के पास जा बैठे। कई लोग चीखने-चिल्लाने लगे, ''यह मेरी रिजर्व सीट है, उठो यहाँ से।'' कइयों ने कोई हील-हुज्जत नहीं की, बैठे रहने दिया उन्हें। अंदर घुसी भीड़ में से बहुत सारे लोग सीटों के बीच वाली खाली जगह पर नीचे कपड़ा बिछाकर बैठने लगे। भीड़ इतनी थी कि दरवाजों के पास भी लोग एक-दूजे में फँसे खड़े थे।
डिब्बे में बंद हुई बत्तियाँ फिर से जल उठीं। डिब्बे में खूब भीड़-भड़क्का और शोर-शराबा था। ऐसा प्रतीत होता था मानो किसी बाड़े में हद से ज्यादा भेड़ें घुसा दी गई हों या दड़बे में एक साथ बहुत सारे मुर्गे ठूँस दिए गये हों। कोई आवाजें लगाकर अपने साथी को बुला रहा था और कोई धक्के मारता हुआ भीड़ में से अपने लिए रास्ता बना रहा था।
डिब्बे के अंदर गर्मी थी, उमस भी।
दस-पंद्रह मिनट रुकने के बाद ट्रेन चल पड़ी। ट्रेन अभी चली ही थी कि एक अधेड़-सा बाबू हाथ में सूटकेश थामे, भीड़ को चीर कर रास्ता बनाता हुआ आगे बढ़ता हुआ दिखाई दिया। ऐनक को ठीक करता, आसपास की सीटों पर निगाहें दौड़ाता वह अपनी सीट ढूँढ़ रहा था, ''सैंतालीस नंबर कहाँ है?''
''आगे है, आगे।'' किसी ने भारी आवाज में जवाब दिया।
बड़ी मुश्किल से वह सैंतालीस नंबर सीट के पास पहुँचा, जिस पर पहले से ही चार-पाँच आदमी बैठे हुए थे।
''चलो, उठो भाई... यह सीट मेरी है।'' उसने बैठे हुए आदमियों को उठने का इशारा करते हुए कहा।
''तेरी सीट है! ये सीट रोकी हमने है, तेरी कैसे हो गई? तेरी मोहर लगी है इस पर ?'' बैठे हुए लोगों में से लाल पगड़ी वाला आदमी अपने खुरदरी दाढ़ी पर हाथ फेरता हुए बोला।
''हाँ जी। मेरी मोहर ही लगी हुई है सीट पर...यह सीट मैंने रिजर्व करवाई हुई है।'' बाबू उन्हें समझाने के लहजे में बोला।
''अगर तूने रिजरब कराई है तो जा कहीं और बैठ जा। हम तो नहीं उठते।'' लाल पगड़ी वाले की दायीं तरफ बैठा सफेद दाढ़ी वाला बोला। उसकी नासमझी वाली बात सुनकर कई हँस पड़े और कई मुस्कराने लगे।
''कमाल है यार, कमाल! मैं जिसके नाम पर सीट रिर्जव है, कहीं और बैठ जाऊँ और तुम जो लगता है, बिना टिकट चढ़े हो, ठाठ के साथ मेरी सीट पर बैठो। वाह! यह क्या बात हुई भला ?'' बाबू थोड़ा तल्खी से बोला।
''मैं तुझे बताऊँ अभी कि बात क्या हुई ?...न, तू हमारी टिकट की बात करता है, तू टी.टी. लगा है ?... मैं तेरी ये जुल्फें सी उखाड़कर तेरे हाथ में पकड़ा दूँगा... कहीं बनता फिरता हो... दो मारूँगा तेरे मुँह पर खींचकर।'' लाल पगड़ी वाला गुस्से में भड़क उठा।
''ऐसे कैसे मारेगा तू मुँह पर ?''
''बताऊँ तुझे अभी...'' लाल पगड़ी वाले ने खड़ा होकर बाबू को गर्दन से पकड़ लिया। एकदम हो-हल्ला मच गया। दो-तीन लोग बाबू को छुड़ाने लगे। उन्हें शांत कराने लगे। आसपास की सीटों वाले लोग भी उठकर खड़े हो गये। रैली वाले आदमी भी एक-दूजे को धकियाते झगड़े वाली जगह की ओर बढ़े।
भीड़ में से कोई कह रहा था, ''छोड़ो भई, छोड़ो... लड़ो न। लड़ाई में कोई फायदा नहीं।''
''तुझे नहीं पता, हम पहले ही बहुत सताये हुए हैं... एक तो सरकार हमें फसलों के अच्छे दाम नहीं देती... ऊपर से हम सारा दिन रैली में धक्के खाकर आये हैं, भूखे-प्यासे... और अब तू हमें टिक कर बैठने ही नहीं देता।'' लाल पगड़ी वाले के साथ बैठा घसमैली-सी पगड़ी वाला एक आदमी बोल रहा था। वह अभी भी सीट पर बैठा हुआ था जबकि बाकी सब झगड़े के कारण उठकर खड़े हो गये थे।
''पकड़ लो इसको... लगा दो ठिकाने।'' दूर से ही भीड़ में एक निहंग 'सिंह' ऊँचे स्वर में बोला।
''देखना बाबा, अपना बरछा संभाल के। तुम तो मेरी आँख ही निकाल देते।'' ऊपर वाली सीट पर बैठा एक व्यक्ति निहंग सिंह के खड़े किये हुए बरछे को हाथ से दूर हटाते हुए कह रहा था।
लाल पगड़ी वाला और उसके साथी फिर सीट पर बैठ गये थे। बाबू के पक्ष में ऊपर की सीट पर बैठा सिर्फ एक मोटा-सा बंदा बोल रहा था, ''यह बात गलत है। जिस बंदे ने रिजर्वेशन करवा रखी है, उसे तुम बैठने ही नहीं देते। इस तरह तो तुम लोग थोड़ी देर में हमें भी सीटों पर से उठा दोगे।''
दूसरे दल के लोगों की संख्या अधिक होने के कारण डर का मारा दूसरा कोई उन्हें कुछ नहीं कह रहा था।
उनमें से ही एक नरम स्वभाव वाला लम्बा-सा आदमी बोला, ''वैसे ये बैठने को कब रोकते हैं। बिठा लो जी बेचारे को अपने साथ। खिसको भई थोड़ा-सा।''
''साथ बैठने से हमने कब रोका ?...यह तो उल्टा कहता है- तुम उठो। हमें कैसे उठा देगा ये ?'' सफेद दाढ़ी वाला ढीला पड़ते हुए बोला।
दूसरों के कहने पर उन्होंने थोड़ा-सा खिसक कर जगह बनाते हुए बाबू को अपने साथ बिठा लिया।
डिब्बे में थोड़ी शांति-सी हो गई। जो लोग इकट्ठा हो गये थे, अपनी-अपनी जगह पर जाने लगे। शोर-शराबा घटते-घटते गाड़ी के पहियों की आवाज में दबकर रह गया। कभी-कभी किसी के मोबाइल फोन की रिंग बजती और 'हैलो-हैलो' की आवाज उभरती। एक-एक करके कई बत्तियाँ बन्द होती चली गईं। डिब्बे के अंदर रोशनी कम होती चली गई।
बहुत से लोग सीटों के बीच वाली जगह पर नीचे ही लेट गये थे। किसी को टाँगे फैलाकर लेटने की जगह मिल गई थी। कई जगह न मिलने के कारण टाँगें सिकोडे हुए ही लेटे थे। कइयों को देखकर यह कहना कठिन था कि ये बैठे हैं या लेटे हुए हैं।
गाड़ी की रफ्तार कम होने लगी। गाड़ी अगले स्टेशन पर रुक गई। बाबू को प्लेटफार्म पर खड़ा टी.टी. दिखाई दिया तो उसने खिड़की में से टी.टी. को पुकारा, ''टी.टी. साहब, सर मेरी यह सीट खाली करवाओ। कुछ लोग मेरी रिजर्व सीट पर कब्जा किये बैठे हैं।''
''मैं बस इसी डिब्बे में आ रहा हूँ।'' टी.टी. की आवाज आई।
लाल पगड़ी वाला फिर भड़क उठा, ''जा, बुला ले अपने जिस टी.टी. बाप को बुलाना है। हम नहीं छोड़ते सीट... तेरे टी.टी. को और तुझे चलती गाड़ी से नीचे फेंक देंगे।''
''ऐसे कैसे फेंक दोगे बाहर ?...तुम्हारे बाप का राज है ?'' बाबू बोला।
''तू बैठता है आराम से कि नहीं... तेरे दो मारूँगा गर्दन पर।'' लाल पगड़ी वाला दांत पीसता हुआ बोला।
लड़ाई फिर छिड़ गई। कई लोग कच्ची नींद में उठकर बैठ गये। डिब्बे की आधी बत्तियाँ जो बन्द हो गई थीं, फिर से जल उठीं।
''मैंने तुझे पहले ही कहा है कि हम बड़े सताये हुए हैं। सरकार हमें फसलों के ठीक से दाम नहीं देती। हम गले-गले तक कर्जे में डूबे हुए हैं।... हम मरने-मारने पर आये पड़े हैं।...ऊपर से तू हमें परेशान न कर।'' घसमैली पगड़ी वाला फिर बोला।
''परेशान मैं कर रहा हूँ कि तुम कर रहो हो... एक तो तुम लोग जबरदस्ती रिजर्वेशन वाले डिब्बे में घुस आये हो। दूसरा, मेरी सीट पर कब्जा किए बैठे हो। मैं रेलवे पुलिस से शिकायत करुँगा।'' बाबू बोला।
''ठहर, तेरी तो... तू तो जब शिकैत करेगा, तब करेगा... मैं तुझे अभी बताता हूँ शिकैत कैसे की जाती है।'' लाल पगड़ी वाले ने फिर बाबू की गर्दन में हाथ डाल दिया।
''छोड़ दो, छोड़ दो। लड़ो मत, लड़ो मत।'' एक साथ कई आवाजें आईं। सैंतालीस नंबर सीट के पास फिर लोगों की भीड़ लग गई। अधिकतर लोग लाल पगड़ी वाले के साथी थे। बाबू के पक्ष में कोई नहीं बोल रहा था।
''तुझे हो क्या रहा है ? तू आराम से बैठ नहीं सकता ? '' उनमें से कोई एक अपने सिर पर लिए डिब्बीदार अंगोछे को ठीक करते हुए बाबू को घूर रहा था।
कुछ देर में उन्हें फिर से चुप करवाकर साथ-साथ बिठा दिया गया। लोग फिर अपनी-अपनी जगहों पर जाकर बैठने लगे। सोये हुए लोग जो उठकर बैठ गये थे, फिर से सोने की कोशिश करने लगे। डिब्बे में बत्तियों का प्रकाश फिर मद्धम होने लगा।
गाड़ी पूरी रफ्तार पकड़ चुकी थी।
डिब्बे में कोई टी.टी. नहीं आया।
बमुश्किल अभी घंटा भर ही बीता था कि फिर शोर होने लगा। सोये हुए लोग हड़बड़ाकर उठ खड़े हुए। बत्तियाँ जल उठीं। डिब्बा फिर प्रकाश और शोर-शराबे से भर उठा।
''यह सीट मैंने अपने सोने के लिए रिजर्व करवाई है। पैसे दिए है रिजर्वेशन के।... तुमने मुझे सोने तो क्या देना था, बैठे हुए को भी साथ नहीं लगने देते। क्या हुआ जो तेरे कंधे से मेरा सिर लग गया तो ?'' बाबू बोल रहा था।
''फिर तू सीधा होकर बैठ...अगर पैसे दिए है तो हमारे ऊपर बैठकर तो नहीं जाना।'' लाल पगड़ी वाला कह रहा था।
''अब क्या बात हो गई यार ?'' ऊपर 43 नंबर वाली सीट वाला चिड़चिड़ा-सा मुँह बनाकर पूछ रहा था।
''बात क्या होनी थी। मुझे बैठे-बैठे को ज़रा नींद आ गई और मेरा सिर इसके कंधे से लग गया। इसने तो मुझे धक्का देकर नीचे ही गिरा दिया।'' बाबू बता रहा था, '' और यह जो नीचे लेटा है, ये मेरे गले पड़ गया कि हमारे ऊपर क्यों गिरता है?...कहाँ से वास्ता पड़ गया अनपढ़-बेवकूफों से...।''
''ठहर तो ज़रा... तू हमें अनपढ़ बताता है... ओए, पूरी चार जमातें पढ़ी हैं। तुझ बी.ए.पास की माँ को तो.... ऊपर से बेवकूफ बताता है हमें... बताता हूँ तुझे तो मैं...।'' लाल पगड़ी वाले ने उठकर तीन-चार थप्पड़ बाबू के मुँह पर जड़ दिए। बाबू की ऐनक नीचे गिर पड़ी। बाबू भी अब हाथ चला रहा था।
''मैंने तुझे पहले ही कहा था। भाई, हम बड़े ही सताये हुए हैं। गोरमिंट हमें फसलों के दाम नहीं देती ठीक से... मंहगी खाद, मंहगे सपरे(स्प्रे), मंहगे बीज-डीजल ने हमारी कमर पहले ही तोड़ रखी है। कर्जों ने हमारा बुरा हाल किया हुआ है... हम मरने-मारने पर आये हुए हैं।'' घसमैली पगड़ी वाला भर्रायी आवाज़ में बोला।
''चलो साले को फेंकें, चलती गाड़ी से बाहर।'' यह कहते हुए लाल पगड़ी वाले ने बाबू को बांहों में कस लिया और धकेलने लगा।
''ओ रहने दे... रहने दे...।''
''ओ छोड़ दे.... छोड़ दे...।''
फिर भीड़ में से कई आवाजें उभरीं।
बाबू को लोगों ने छुड़वा दिया।
ऊपर 38 नंबर वाला ऐनक खोजते बाबू को बोला, ''बाबू जी, छोड़ो आप। आप ऊपर आ जाओ मेरे पास। हम दोनों सो जाएँगे पतले-पतले। यों ही लोगों की नींद खराब किये जाते हो। सब परेशान हो रहे हैं। आधी रात हो गई है। बेकार का स्यापा डाल रखा है... आ जाओ ऊपर।''
एक-दो अन्य व्यक्तियों ने कह-सुनकर बाबू को ऊपर 38 नंबर वाले के साथ लिटा दिया।
घसमैली पगड़ी वाला भीड़ में से पखाने की ओर चल पड़ा। वह बड़बड़ा रहा था, ''कहते हैं, हम किसानों को कैडट कारड देंगे। कर्जा लेना आसान हो जाएगा... बात कर्जा लेने की नहीं, कर्जा उतारने की है। कर्जे ने तो पहले ही मार रखा है...फसलों के भाव तुम्हारा बाप देगा।''
लोग फिर अपनी-अपनी जगह पर लौटने लगे। कइयों ने नींद खराब होने के कारण बुरा और चिड़चिड़ा-सा मुँह बना रखा था। कई तमाशबीन लड़के मुस्करा रहे थे। एक लड़का जिसकी मूंछें फूट रही थीं, अपनी पगड़ी पर हाथ फेरता हुआ कुटिल-सी हँसी हँसता हुआ लाल पगड़ी वाले की नकल उतारता बोला, ''हम अनपढ़ नहीं हैं... यूं तो मैं भी सात जमातें पास हूँ...आठवीं से हटा हूँ।''
उसका साथी बोला, ''पड़ा रह, पड़ा रह चुप होकर अगर तू आठवीं से हटा है। तुझे पता है, बी.ए. पास ने चार थप्पड़ खाये हैं। इसका मतलब है, दो थप्पड़ खाने का तेरा भी हक है।''
उसकी बात सुनकर आसपास के सभी लोग हँस पड़े।
एकाएक, दरवाजे के पास शोर मचा। एक साथ कई आवाजें उभरीं।
''अरे! यह क्या ?''
''पकड़ो, पकड़ो।''
''बस, गया वो तो...।''
''क्या हुआ ?... छलांग लगा दी ?''
''हाँ, छलांग लगा दी...''
''किसने ?''
''कौन था ?''
''किसने छलांग लगा दी ?''
लोग दरवाजे की ओर भागे।
''मैं पकड़ने लगा... बस, पगड़ी का किनारा ही मेरे हाथ में आया। पगड़ी रह गई मेरे हाथ में।'' एक आदमी खुली हुई घसमैली पगड़ी को इकट्ठा करते हुए बता रहा था। उसके चेहरे का रंग मारे घबराहट के उड़ा हुआ था।
''वही... जो कहता था- हम बड़े सताये हुए हैं। मरने-मारने पर आये हुए हैं।''
''हैं !''
''चेन खींचो!''
''ओए जंजीर खींचो!''
किसी ने गाड़ी की चेन खींच दी। कई झटके लगे। इमरजेंसी ब्रेकों की 'चीं-चीं' की आवाज आई। गाड़ी की गति तेज होने के कारण गाड़ी रुकते-रुकते काफी आगे निकल गई थी।
गाड़ी अब रुक चुकी थी।
लोग खिड़कियों और दरवाजों के बीच से बाहर झांक रहे थे। कुछ लोग नीचे उतर गये थे।
बाहर, खेत घुप्प अंधकार में डूबे हुए थे। कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था।
बाहर भयानक सन्नाटा था।
एक सन्नाटा अब डिब्बे के अंदर भी छा गया था।
00
बलविंदर सिंह बराड़
जन्म : 5 अगस्त 1966
शिक्षा : एम ए, बी एड, पीजी डिप्लोमा इन जर्नलिज्म एंड मास कम्युनिकेशन
प्रकाशन : कहानी लेखन क्षेत्र में पिछले कुछ वर्षों से सक्रिय। अब तक एक दर्जन कहानियाँ। कई कहानियाँ पंजाबी की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। कुछ कहानियों का हिंदी अनुवाद प्रकाशित। आकाशवाणी में प्रसारण के लिए लेखन।
एक कहानी संग्रह शीघ्र प्रकाश्य।
संप्रति : ट्रांसमिशन एक्जूक्यूटिव(स्क्रिप्ट), पंजाबी अनुभाग, आकाशवाणी, संसद मार्ग, नई दिल्ली-110001
सम्पर्क : फ्लैट नंबर -77, पोकेट नंबर- 7, सैक्टर- 12, द्वारका, नई दिल्ली-110078
फोन : 9868427527, 28034819(निवास)
ईमेल :
balwinderbrar930@yahoo.co.in

3 टिप्‍पणियां:

सुरेश यादव ने कहा…

सन्नाटा कहानी के लिए बल विंदर सिंह बराड़ एवं सुन्दर अनुवाद के लिए नीरव जी को हार्दिक बधाई.और नव वर्ष की शुभ कामनाएं. 9818032913

निर्मला कपिला ने कहा…

बलविन्दर सिंह बराड् जी की कहानी बहुत अच्छी लगी। धन्यवाद कहानी पढवाने के लिये और नीरव जी का धन्यवाद अनुवाद के लिये

बेनामी ने कहा…

Balinder Brar ki kahani "Sannata" ne mujhe bheetar tak hila diya. Main bhi ek kishan parivar se hun. Kishanon ki samasya par sarkar ne kabhi gambhirta se nahi socha. Jo yojnayen sarkar ne kishano ke hit ke naam par banayee, ve sabhi kagazi nikli. Yun hi to nahi kishan aatamhatyen kar rahe. Ek lekhak ke naate balvinder ji ne apni kahani mein kam se se unki baat to ki.
Sukhvinder
Patiala (Pb)
p