गुरुवार, 6 मई 2010

कहानी



चित्र : देव प्रकाश चौधरी
गोवा में तुम
बलराम
धरती के स्वर्ग गोआ के आकर्षण में बंधे हम दोनों ऎसे मौसम में दूसरी बार आ गए थे, जब यहां कोई नहीं आता. पहली बार तब आए थे, जब एक वर्ष का ईशान हमेशा-हमेशा के लिए हमसे बिछ्ड़ गया था और हम दुख के घने अंधेरे में फंस गए थे. दूसरी बार अब आए हैं, जब जौथा मिस्कैरेज होने पर एकदम से टूट गई सुप्रिया का रो-रोकर बुरा हाल हो गया . उसे लग रहा है कि अब वह भी मां नहीं बन सकेगी. मिस्कैरेज के बाद कई दिनों तक मित्र-परिजन आते और हमें सांत्वना देकर चले जाते रहे, लेकिन सुप्रिया का दुख था कि कम होने का नाम ही नहीं ले रहा था. रह-रह कर जिस-तिस के कंधे पर सिर रखकर फफक पड़ती थी. ऎसे में भाईजी ने हमें गोआ का रिटर्न टिकट थमाते हुए कहा था, कुछ दिन के लिए दिल्ली से दूर चले जाओ, अन्यथा दोहरे दुख का साया यहां तुम लोगों का पीछा नहीं छोड़ेगा. यह घना दुख उतनी दूर गोआ तक तुम लोगों का पीछा नहीं कर पाएगा, कहीं बीच में ही छूट जाएगा. और हां, लौटते समय खुशनुमा यादें ही साथ लाना और कुछ नहीं."
और सचमुच, भाईजी की युक्ति फलदायी साबित हुई. चालीस घंटे की लंबी यात्रा कर तब हम गोआ एक्सप्रेस से वास्को उतरे तो दुख का वह घनापन काफी कम हो गया था, ईशान की कुछ अच्छी यादें भर बची थीं और यह उम्मीद भी कि यहां धरती के इस स्वर्ग में शायद ईशान से हमारी मुलाकात फिर हो और वह एक बार फिर हमारे ही घर में जन्म ले ले, पुनर्जन्म . इस उम्मीद के साथ न जाने क्यों तुमसे मिलने की इच्छा भी मन में वेग से उठी थी, लेकिन क्यों, सिर्फ तुमसे ही क्यों ! इधर के वर्षों में ’घर’ कुछ इस कदर मेरे चारों ओर लिपटा रहा कि दूर हो चुके मित्रों से मुखातिब होने का न होश रहा, न कोई खास अवसर ही मिल सका. ऎसे में यहां ईशान की वापसी की उम्मीद के साथ तुम, सिर्फ तुम्हीं क्यों याद आ रहे हो राज! ऎसा भी नहीं है कि जब से तुम दिल्ली छोड़कर गए हो, हमें याद ही नहीं आए. तुम हमें खूब-खूब याद आए हो, जिंदगी की हर खुशी तुम्हारे बिना अधूरी-अधूरी-सी लगती रही है और हर गम, गम का पहाड़, जैसे तुम होते तो शायद गम के हर पहाड़ को तर्जनी पर उठा लेते.
यहां गोआ में ;तुम्हारे इस तरह याद आने की एक वजह शायद यह भी है कि यहां से सिर्फ एक रात के फासले पर हो, रेल से जाएं तो, बस से जाएं तो और समुद्र के रास्ते जा सकें तो भी तुम तक हमारा पहुंचना कठिन नहीं है. फोन कर देते तो शायद दो-तीन दिन के लिए तुम यहां आ भी सकते थे. इस समय हमारे साथ होते तो गोआ के इस खूबसूरत बीच पर हम लोग तुम्हारे मस्ती भरे गीत सुनते . तब हमारी सुबहें, हमारी शामें और हमारी रातें ठहाकों से भरी कितनी-कितनी आनंदमय और खुश-खुश होतीं !
उदास और गमज़दा होने से बचने का एक तरीका संघर्ष भरे उन दिनों में हमने तलाश लिया था, जिससे हम उदासियों से बच जाया करते थे, लेकिन दिल्ली से तुम्हारे चले जाने के बाद वह मुझसे सध नहीं सका. दारू पीकर ठहाकों में सब कुछ भूल और भुला देने का तरीका और सलीका तुमने तो सीख लिया था, लेकिन मैं उसे सीख नहीं पाया. तुम्हारे साथ कुछ बरस और रहा होता तो शायद हर स्थिति में ठहाके लगाना सीख गया होता, मगर तुम हमें छोड़कर चले गए. आज तुम शायद यह कहना चाहो कि तुमने नहीं, हमने ही तुम्हें छोड़ दिया है और यह कहकर तुम शायद मुझे एक अप्रिय सच कहने से बचा लोगे. सच है कि हमने ही तुम्हें छोड़ा है, क्योंकि तुमने मेरी बहन को छोड़ दिया था. उसके भावात्मक लगाव को अंतिम हद तक बढ़ाकर तुमने उसे ऎसी जगह मारा कि फिर वह कहीं की न रही और संवेदन शून्य-सी हो गयी. उसकी चेतना को जैसे काठ मार गया. आज वह मेरे साथ यहां नहीं है तो सिर्फ और सिर्फ तुम्हारी वजह से और तुमसे मेरा लगाव नहीं रह गया तो भी शायद उसी की वजह से. बहन ने आत्महत्या नहीं की, यही गनीमत रही. संवेदन शून्य हो जाना ही शायद उसके हक में है. अब वह काठवत जी लेगी और समय से पहले मरेगी नहीं, लेकिन कभी-कभी जब वह पोखरा चलने की बात करती है तो मैं डर जाता हूं.
अच्छा, तुम्हीं बताओं, तुम्हारे बिना क्या उसे सपनों जैसी उस यात्रा पर ले जा सकता हुं ? पोखरा में झील के उस पार डूबते सूरज के साथ अगर वह भी डूब गई तो मैं क्या करूंगा !
तुम्हें ;याद होगा, भारत से बाहर की किसी भूमि पर पहली बार तब हमने पांव धरे थे तो नोमेंसलैंड को पार करते हुए कितने-कितने रोमांचित हो उठे थे. बार-बार भारत से नेपाल और नेपाल से भारत की भूमि पर आए-गए थे. कोई वीजा, कोई पासपोर्ट नहीं. शाम को टिके थे भारत के बढ़नी में और विदेशी सामान की तलाश में देर शाम तक भटकते रहे थे नेपाली कृष्णा नगर बाजार में. इधर से उधर जाते-आते लगा ही नहीं था कि हम विदेश में हैं. विदेश में होकर भी विदेश में न होने की अनिर्वचनीय अनुभूति. काश! दुनिया के सारे देश भारत और नेपाल की तरह मुक्त सरहद वाले होते. काफी समय तक हमारे-तुम्हारे संबंध भी कुछ इसी तरह के रहे, लेकिन फिर न जाने क्यों हमारे बीच चाइना बॉर्डर पसर गया था, एक-दूसरे की जड़ और जमीन पर कब्जे की आशंका में डूबा गुआ. ! जैसे हमारा तवांग चीन की दुखती रग है, वैसे ही उसका मानसरोवर हमें अपना लगता है. मेरी बहन तुम्हारी कुछ लगती है, वैसे ही तुम्हारी पत्नी भी मेरी कुछ है, लेकिन फिर वह सब किसी सपने जैसा क्यों हो गया ?
कसमें तुमने बहुत खाई और भूल गए. कसमें खाना और भूल जाना तुम्हारी तरह मैं सीख नहीं पाया और इसी कारण तुम्हारे प्रति कहीं भीतर ही भीतर हिंस्र होता रहा, लेकिन हर हाल में ठहाके लगाने के तुम्हारे गुण का कायल भी रहा और उसी के कारण शायद तुमसे ईर्ष्या भी करता था
तानसेन और पोखरा जैसी खूबसूरत जगहों पर जाना अब शायद तुम्हारे साथ कभी संभव न हो. संभव हो भी तो शायद जाना न चाहूं. हां, तुम यहां गोआ आ पाते तो शायद एक बार को सब कुछ भूल-भाल कर हम ठहाकों भरे फुर्सत के कुछ दिन-रात एंजॉय कर सकते थे, लेकिन बार-बार किए गए तुम्हारे वादे और तोड़े गए सपने हमें भयाक्रांत कर चुके हैं. इसी कारण फोन कर तुम्हें गोआ बुला नहीं सके.
पहली बार गोआ आए थे तो ईशान को यमुना की बाहों में सौंप कर आए थे. लाल किले के पीछे बहती यमुना ने कैसे तो उसे लपक लिया था, जैसे वह हमारा नहीं, उसका ही बेटा रहा हो. पम्मी से तुम्हें मीना ने भी कुछ ऎसे ही छीन लिया था, जैसे तुम उसके कभी कुछ रहे ही नही !
ईशान के न रहने पर पहली बार गोआ हमारे लिए शरण्य बना था. धरती का स्वर्ग वह चाहे हो या न हो, लेकिन शांति और सुकून देने वाली जगह वह हमें जरूर लगी थी, पर तारों भरी रात में दूध सागर फाल्स की ओर जाने वाली नौका यात्रा पर हम नहीं गए थे, जिसमें लोग रात भर नाच-गाना करते हैं. आमोद-प्रमोद में तब हम डूब भी कैसे सकते थे ! हम तो होटल में ईशान को याद करते हुए उसके पुनर्जन्म की उम्मीद में ऊभ-चूभ होते रहे थे, तुमसे पुनर्मिलन की कामना करते हुए, लेकिन न तो ईशान का पुनर्जन्म हुआ, न ही तुमसे पुनर्मिलन संभव हो सका. अब तो कभी-कभी लगता है कि जैसे ईशान की यादों के सहारे ही जीवन कटना है, वैसे ही तुम भी सिर्फ स्मृतियों में ही हमारे पास आओगे.
याद है तानसेन की वह सुबह, जब बादल के कुछ टुकड़े होटल की खिड़की तक टहलते चले आए थे और तुम किसी बच्चे की तरह कोई अजूबा पा लेने के आल्हाद से पुलकित हो बोल पड़े थे, ’काश! पम्मी भी यहां होती . पम्मी यहां होती तो बादलों से हमारे इस साक्षात को रोमांच कुछ और होता, ऎसा कि गम उसे जीवन भर लूटते रहते तो भी खत्म न होता, लेकिन तुम्हें शायद यह सब याद ही न हो. तुम्हें तो शायद यह भी याद न हो कि पोखर में झील के किनारे खड़े होकर डूबते सूरज को देखते हुए तुमने कहा था, "पम्मी यहां होती तो नाव से झील के उस पार चलते और----."
"धत्त!" मैं बोल पड़ा था.
"क्यों ?" तुमने बड़ी मासूमियत से पूछा था, मनो तुम्हें कुछ मालूम ही न हो.
"उधर स्लम्स हैं, जहां घरेलू और इज्जतदार लोग नहीं जाते."
"तू होगा इज्जतदार, मैं तो वाइल्ड हूं, वाइल्ड अ बीस्ट, हर जगह घुस कर खा-पी और जी लेने वाला प्राणी."
"इसीलिए तो उनके साथ उधर नहीं जाते."
"चलो, नहीं जाते, लेकिन उनके बिना यात्रा अधूरी-सी नहीं लग रही ?"
"लग क्यों नहीं रही----ऎसा करते हैं , उनके साथ अगले साल हम फिर यहां आते हैं." मैंने प्रस्ताव रखा था.
"क्यों नहीं." तुमने समर्थन किया था.
"तो फिर अगले साल यहां आना पक्का , उन दोनों के साथ ?"
"पक्का." कहते हुए हमने एक-दूसरे से वादा लिया था. और राज, तुमने वह वादा निभाया नहीं. मैं जब चाहूं, निभा सकता हूं, मगर जब तक हम चारों एक साथ न हों, वादा पूरा नहीं हो सकता और अब हम चारों एक साथ होने से रहे----
हम चारों एक साथ जैसे पोखरा नहीं जा सकते, वैसे ही गोआ में भी चारों कभी एक साथ नहीं हो सकते. अब तो हम तुम्हें याद भर कर सकते हैं, तुम्हारे संग-साथ की कामना करते हुए, मगर वैसा संग-साथ कभी पा नहीं सकते, क्योंकि पल-पल बदलती दुनिया में शाश्वत कुछ भी नहीं है: न रिश्ते, न नाते, न ही यारियां-दोस्तियां! फिर यहां गोआ के बा़अमोला बीच पर तुम्हारी इतनी याद क्यों! मेरे पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है राज, मेरे पास इस सवाल का भी कोई जवाब नहीं है कि अच्छे-भले अनेक मित्रों के बावजूद यहां गोआ में तुम, सिर्फ तुम्हीं क्यों याद आ रहे हो! इस बार और पिछली बार भी तुम्हारे संग-साथ की कामना ही क्यों हमारे साथ यहा टहलती रही ?
जीवन के इस रहस्य को समझने की कोशिश कर रहा हूं कि दु:ख और यातना के बीच भी बेदर्द लोगों की यादें ही क्यों मनुष्य का पीछा करती हैं, जब बीते हुए समय में डूबकर वह यातनाओं से मुक्त होने की कोशिश कर रहा होता है ? मरते दम तक तुम्हारे जैसे दुष्ट ही याद आ-आकर क्यों सताते रहते हैं ? सताते तो खूब हैं, मगर पास आने पर सांत्वना के दो मीठे बोल तक नहीं बोलते, उल्टे कोई उल्टी-सीधी बात कहकर घावों को कुरेद जरूर देते हैं. अपने होते तो नहीं हैं, लेकिन अपनेपन का भ्रम जरूर देते रहते हैं.
गोआ में इस बार भी ईशान की स्मृतियां ही हम पर हावी हैं, शायद इसलिए कि उसने पुनर्जन्म नहीं लिया. लिया भी हो तो हमारे घर न आकर कहीं और चला गया हो. सोचकर दु:ख होता है कि यदि उसे हमारा नहीं होना था तो फिर वह हमारे घर आया ही क्यों, वैसे ही, जैसे तुम ! तुम भी तो सिर्फ कुछ समय के लिए ही हमारे हुए थे. तुम्हें शायद पता था कि हमारे साथ बहुत दिन नहीं रहोगे. उतने साथ में ही हमसे जितना ले सकते थे, तुमने ले लिया, बहन तक से . किस तरह तो वह तुममें डूब गयी थी, लेकिन एक झटके में उससे ही नहीं, हमसे भी नाता तोड़ लिया. ईशान के न रहने पर सुप्रिया कई दिनों तक खूब-खूब रोयी थी, मगर बहन शायद उतनी बावरी नहीं थी या शायद वह कुछ ज्यादा ही बावरी थी कि सब कुछ भूल गयी , यहां तक कि खुद को भी. तुम्हारे साथ बीते समय को उसने माथे पर छलक आए पसीने की तरह पोंछ डाला. सुप्रिया भी शायद ऎसा कर पाती, अगर उसकी कोख अब तक छूंछी न रहती. कोख और दिल में आकर चले जाने वाले तभी तक बहुत याद आते हैं, जब तक उनकी जगह कोई और आ नहीं जाता. बहन के दिल में तुम शायद अब भी हो, लेकिन पहले की तरह नहीं----
ईशान गुजरा न होता तो अब तक कितना बड़ा हो गया होता ! वह होता तो गोआ की यह यात्रा कितनी-कितनी सुखद होती, लेकिन बार-बार हुए मिस्कैरेज ने सुप्रिया को वही नहीं रहने दिया, जो वह हुआ करती थी: दुनिया की सबसे खुशमिजाज लड़की, मंद-मंद मुस्कान से सबको मोहित कर लेने वाली युवती, स्कूल-कॉलेज में साल-दर-साल गोल्डमेडल और दक्षकन्या का खिताब हासिल करती स्टुडेंट, पिता की सबसे अच्छी बेटी और फिर हमारे घर में खुशी बिखेरती धवल-वसना परी जैसी पत्नी, जिसके मुस्कराने भर से सारा घर रोशनी से नहा और खुशबू से महमहा उठता. बहुत गंभीर और समझदार स्त्री में ढल गयी सुप्रिया की गोद लेकिन अब तक सूनी क्यों है, यह सवाल उसे भीतर ही भीतर घुन की तरह खाता रहता है, अहर्निश. इसीलिए अब उसकी हर खुशी क्षणिक होती है और हर सुख क्षणभंगुर.
सुप्रिया फिर से मां बन पाती तो शायद हमारा जीवन कुछ और होता. तुम्हारा कोई विकल्प हमें मिल गया होता तो शायद तुम भी हमारी स्मृतियों में इस कदर छाये न रहते. अपने जीवन से निकालकर हम किसी और को तुम्हारी जगह रख नहीं पाते, क्योंकि हमारे चिथड़ा-चिथड़ा अतीत के साक्षी रहे हो तुम ! उसके बरक्स हमारे वर्तमान को देखते तो शायद आश्चर्यचकित रह जाते, लेकिन एक ईशान के न रहने भर से जो दु:ख हमारे भीतर-बाहर पसर गया है, कुछ दिन के लिए ही सही, अगर तुम गोआ आ जाते तो शायद वह कुछ कम हो गया होता. पम्मी आ पाती तो भी सुप्रिया को सुख मिलता, ऎसा लेकिन सिर्फ दिल को लगता है, दिमाग तो कहता है कि ’गहरी मार कबीर की, दिल से दिया उतार----’ जो हमारे साथ नहीं हैं, जो हमारे साथ हो नहीं सकते, उनके संग-साथ के लिए क्या रोना.
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बलराम समकालीन कथाकारों में एक महत्वपूर्ण नाम.
बहुचर्चित कहानी संग्रह ’कलम हुए हाथ’ के बाद दूसरा संग्रह ’गोआ में तुम’ .
लघुकथा संग्रह ’मृगजाल’ तथा उपन्यास ’जननी-जन्मभूमि’ प्रकाशित.
’कहानी का सफर’ , ’आधे-अधूरे परिचय’ तथा ’आंगन खड़ा फकीर’(समीक्षा) के अलावा ’वैष्णवों से वार्ता’ तथा ’पत्रकारिता के आयाम’ जैसी पत्रकारीय कृतियां भी छपी हैं.
कुछ रचनाएं आकाशवाणी तथा दूरदर्शन से प्रसारित और कुछ अन्य भाषाओं में अनूदित.
दैनिक ’आज’ के चीफ-रिपोर्टर और ’नवभारत टाइम्स’ के चीफ-सब रह चुके बलराम ने ’सारिका’ के अलावा ’शिखर’ और ’शब्दयोग’ का भी संपादन किया. बस्तर (छत्तीसगढ़) के आदिवासियों पर संदर्भ ग्रंथ ’इंद्रावती’ के अलावा ’विश्व लघुकथा कोश’ आदि एक दर्जन से अधिक पुस्तक श्रृंखलाओं के साथ प्रेमचंद रचनावली का भी संपादन किया.
एनसीईआरटी की पाठ्यक्रम और पुरस्कार समितियों के सदस्य रहे. हिन्दी अकादमी, दिल्ली तथा उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लघनऊ से कुछ कृतियां पुरस्कृत. हिन्दी अकादमी से साहित्यकार सम्मान.
सम्प्रति : राष्ट्रीय समाचार पत्रिका ’लोकायत’ के कार्यकारी सम्पादक.

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