गुरुवार, 8 जुलाई 2010

कहानी




बैंड मास्टर

ज्ञानप्रकाश विवेक

छोकरा अपनी मस्ती में था. होठों पर फ़िल्मी गाना. हाथ में छीका. छीके में छह गिलास. गिलासों में चाय . छोकरे का पांव एक कुर्सी से उलझा और औंधे मुंह जा गिरा. गिलास टूटे. चाय बिखरी. ग्राहक, कुछ हंसे, कुछ तरस खाने लगे.

काउण्टर पर बैठे लाला ने सारा दृश्य देखा. दृश्य क्या देखा, नुकसान देखा. वो तमतमाया. वो बुदबुदाया. वो उठा और उसने छोकरे को पांच-सात थप्पड़ जड़ दिए.

छोकरा रो पड़ा. रोते हुए चिल्लाया, ’नीं करणी तेरी नौकरी . ---- कर दे मेरा हिसाब.’

हिसाब-किताब तो ख़ैर क्या होना था, लाला और ज्य़ादा गुस्से में आ गया. उसने छोकरे को गर्दन से पकड़ा और घकेल दिया परे.

उस्ताद चाय पीने आया था. वो देखता रहा सारा मंज़र. उसने चाय का इरादा छोड़ दिया. उठाया छोकरे को. उसकी पीठ थपथपाते हुए बोला, "चल मेरे साथ. यहां रह के जूठे बरतन धोएगा और मार भी खाएगा."

छोकरे ने अपनी मैली-पुरानी कमीज़ के आस्तीन से आंसू पोंछते हुए पूछा, "कहां ?" कहां कहते हुए उसने हिचकी ली. चकित हो कर उस्ताद की तरफ़ देखा.

"मेरे साथ और कहां ? मेर बैण्ड है. मैं बैण्ड मास्टर हूं----. सूरज बैण्ड का बैंड मास्टर."

उस्ताद आगे. छोकरा थोड़ा पीछे. और फिर उस्ताद सूरज बैण्ड के सामने खड़ा था. और उसके साथ खड़ा था छोकरा. भौंचक नज़रों से सूरज बैण्ड के बोर्ड को देखता हुआ.

यह एक छोटी-सी दूकान थी. लेकिन उस्ताद इसे दूकान नहीं, दफ्तर कहता था.

इस दूकान या फिर दफ़्तर के दरवाजे़ पुराने, रंगत बदज़ेब थी. एक खिड़की थी जिसकी सलाखों में कई ज़मानों की ग़र्द चढ़ी थी. दरवाज़ा खुलने बन्द होने पर कई तरह की आवाज़ें निकालता था --- जैसे यह भी किसी राग की बन्दिश हो. दरवाज़े के ऎन ऊपर सूरज बैण्ड का बोर्ड टंगा था. बाहर एक रेहड़ी खड़ी थी. रेहड़ी रंग-बिरंगी थी--- जिसके चारोम तरफ़ सूरज बैण्ड लिखा था.

इस सूरज बैण्ड से कुछ दूर सड़क थी. दूकान के साथ एक गली थी. जो शुरू में खुली थी. बाद में संदरी हो जाती थी.

दूकान के भीतर कई सारी खूंटियां थीं. खूटियों पर वर्दियां टंगी हुई थीं और पीतल के चमचमाते बैंड भी.

दूकान के बीचो-चीच एक मेज़ थी. एक कुर्सी एक तरफ़ . दो कुर्सियां दूसरी तरफ़. दूकान की दीवारों के साथ-साथ बैंच बिछे थे. यहां सूरज बैंड पार्टी के लोग बैठते भी थे और कई नई फ़िल्मी गानों की धुन निकालने का अभ्यास भी करते---- फ़िलहाल एक सांवली रंगत का अधेड़ आदमी, बैण्ड को होठों से लगाए कोई धुन निकाल रहा था.

"बैठ जा." उस्ताद ने बैंच की तरफ़ इशारा करते हुए छोकरे से कहा.

छोकरा हैरान था. सहमा हुआ भी था. वो डरते-डरते बैठ गया और चकित भाव से बैण्ड, ढोल, ड्रम और खूंटियों को देखने लगा.

चाय की दूकान पर चाय के गिलास थे. मक्खियां थीं. ग्राहकों की बातें थीं. बीड़ियों का धुआं और लाला की फटकार थी. यहां मिज़ात दूसरा था. कौतूहल पैदा करता और संशय भी.

छोकरा सचमुच संशयग्रस्त जऩर आता था. बैण्ड बजाने वाले सांवले रंग के आदमी ने बैण्ड को होंठों से हटारे हुए पूछा, "उस्ताद जी, किसे पकड़ लाए---?" अब ये बी अपणी पार्टी में बैण्ड बजाएगा?"

"बैण्ड नईं---- रेहड़ी खीचेगा-----जग्गन और बीरे के साथ मिल कर." फिर उस्ताद उस आदमी को समझानेवाले लहज़े में बोला, "बंसी, तू तो जानता ही है घर की बीरान मिट्टी हो जी है. जोरू गठिया-चा, की मरीज , अर अपणी ईसी-तीसी . यो छोकरा, घर के बी छोए-मोटे काम कर दिया करेगा."

बंसी ने छोकरे को ऊपर से नीचे तक देखा--- चौदह पौन्द्रह का छोकरा---- या फिर इससे कुछ कम उम्र का. पतला, लम्बा, रूखे बाल, चेहराज़ सख़्त , आंखें काली-----कुछ तलाश करती हुईं सी. चेहरे पर उदासी , कुछ संशय, कुछ जिज्ञासा.

‌"क्या नाम है तेरा ?" बसी ने पूछा.

"सत्ती." छोकरे ने जवाब दिया.

और इस तरह सत्ती सूरज बैण्ड में शामिल हो ग अया. बारात में शामिल होने से पहले उसमें बारातियों जैसा उत्साह और जोश होता, जबकि खीचत था वो सूरज बैंड की रेहड़ी. रेहड़ी से कुछ दूर बाराती पुरी मस्ती में नाच रहे होते. और रेहड़ी के पास खड़ा सत्ती, एक्दम तटस्थ होता. एक तरफ़ बैण्ड की धुन, ढोलक की थाप, ड्रम की बीट्स, बारातियों के कपड़े, कपड़ों से फूटरी इत्र की ख़ुशबुएं और उन सबका सड़क छाप नाच! ---- दूसरी तरफ़ सत्ती !

सत्ती मस्ती भरे महौल में, एक पल के लिए सब कुछ भूल जाता. रेहड़ी के पास खड़े-खड़े, थिरकने लगता. हंसने लगता. बैण्ड पार्टी जिस फि़ल्मी गाने की धुन निकालती, उसे गाने लगता---- लेकिन सत्ती का यथार्थ दूसरा था--- पैरों में हवाई चप्पल, पुराने-कपड़े और रेहड़ी को खीचने वाले सख़्त हाथ.

इधर उस्ताद होता--- कभी स्टील का चमचमाता बैण्ड तो कभी ख्लेरनेट मुंह में दबाए, एक हाथ इंस्ट्रूमेंट के बटनों पर तो दूसरा हाथ निर्देश देता हुआ, नचनियों को नचाता हुआ और ख़ुद भी ड्र्म की गूंज पर थिरकता हुआ. मदहोश, मस्त, नशे में चूर ! बारातियों के हाथों से नोट कपड़ता अपने कोट की जेब तें ठूंसता हुआ उस्ताद.

उस्ताद अपने धन्धे में माहिर था/ वो नाचते हुए बारातियों से नोट ’कैच’ कर लेता. लेकिन कई बरे नचनिए इतने जोश में आ जाते कि वो करकरे नोटों को हवा में उछाल देते.

तब, तब एक भीड़-सी झपट पड़ती नोटों पर. सड़क पर नाचते बराती. बैण्ड की धुन. घोड़ी पर दूल्हा. गीत गाती औरतें और एक भीड़---- नोटों पर गुत्थम-गुत्थ. इस भीड़ में गैस-हण्देवाले छोकरे---- बाहर के ग़रीब बच्चे होते. घोड़ीवाला भी कभी-कभी इस भीड़ में शामिल हो जाता.

सत्ती बारातियों को देखता. वो सब उसे सपने जैसे लगते. नोटों पर झपट पड़ती भीड़ उसे अपने जैसी लगती . कई बार उसका भी मन करता. रेहड़ी की हत्थी छोड़ कर, पिल्ल पड़ती भीड़ में शामिल हो जाए. उसके हाथ में भी हों---- दो के, पांच के या दस के करकरे नोट.

एक बार उसने देखा, उस्ताद बैण्ड बजाने में मस्त था.उसने रेहड़ी छोड़ी. ज्योंही किसी नचनिए ने नोट हवा में उठाए, भीड़ उन नोटों पर झपट पड़ी . उस भीड़ में सत्ती भी शामिल हो गया. कीड़े-मकोड़ों कीतरह एक दूसरे पर गिरते लड़के. आपस में गुत्थम -गुत्थ. नोटों तक पहुंचते. खीचतान और कई तरह की बेतरीब आवाज़ें.

कुछ देर बाद सत्ती भीड़ में से निकला. उसके चेहरे पर खरोंचें थीं और क़मीज़ के दो बटन टूट चुके थे. लेकिन अपनी मुट्ठी में दो-दो के दो और एक पांच का नोट देख कर वो ख़ुश हुआ. अपनी पैंण्ट की जेब में नोट डालने लगा ही था कि उस्ताद काए क थप्पड़ उसके गाल पर पड़ा. सिहर उठा सत्ती.कांप-सा गया. आंखों में तैर आए आंसूं.

उस्ताद ने बड़ी हिक़ारत से कहा, "भिकारी कहीं का." और इसी के साथ उसने सत्ती के हाथ से नोट खीच लिए. अपने कोट की जेब में ठूंस दिए.

उस्ताद को गुस्सा इस बात का भी था, नचनिए नाचते तो उसके सुर ताल पर थे लेकिन नोट उसके हाथ में देने के बजाए, हवा में उछाल देते. उस्ताद ख़ाली का खा़ली. इसलिए उसने छीन लिए सत्ती के हाथ से नोट अ

सत्ती खड़ा रहा ऎसे जैसे पर्थर का हो गया पल भर में. न उसने अपने गाल सहलाए, न आंसूं पोंशे. उसने अपनी कमीज़ के टूटे बटनों को भी नहीं देखा था. वो ऎसे खड़ा था जैसे उसे कोई गाड़ कर चला गया हो.

सामने बैण्ड बजाता उस्ताद था. नाचते हुए बाराती थे. बारात एक रोशनी का शहर थी----छोटा-सा रोशनी का शहर. लेकिन वो इस रोशनी के शर में हो कर भी कितनी दूर था. ये तमाम रोशनियां पराई. बारात भी पराई. नाचते हुए लोग भी पराए. सारा आलम पराया. अपना लगथा था तो सिर्फ एक उस्ताद. लेकिन आज वो भी कितना पराया नज़र आ रहा था.

सत्ती की फिर हिम्मत नहीं हुई कभी कि वो नोटों पर झपटे. जग्गन और बीरे की बात दूसरी थी. वो कोई मौक़ा नहीं जूदते थे. वो बारातियों से पिटते. वो उस्ताद से भी मार खाते. इसके बावजूद वो अपनी आदत से बाज़ नहीं आते थे और हर बारात में दस-पन्द्रह रुपए ’बना’ ही लेते.


सत्ती था तो मुंहफट्ट. चायवाले रेस्तोरेंट में वो गाता रहता. हंसता रहता और ’ग्राहकों’ से भी उसकी छेड़छाड़ चलती रहती.

लेकिन यहां आ कर वो एक्दम ख़ामोश हो गया था. पता नहीं, उस्ताद का अहसान था या फिर बारातों की रोशनी से पैदा हुआ भय---- सत्ती कभी सहज नहीं हो पाया था.

उस्ताद ने जिस रात उसको थप्पड़ मार कर रुपए खींचे थे, उसके बाद तो सत्ती ऎसे चुप हुआ मानो उसके मुंह में ज़बान ही न हो.

इस बात को उस्ताद ने भी महसूस किया था. जब सत्ती थोड़ा और बड़ा हो गया तो उसे दो झुनझुने थमा दिए. बोला उस्ताद, "बैण्ड पार्टी में शामिल कर लिया तेरे को. उलटा-सीधा बजाता रहियो."

सत्ती को एक उम्र हो गई थी यहां काम करते. काम भी क्या नौकरी. नौकरी भी क्या चाकरी ! पगार कितनी तीन सौ. जिसमें दो सौ रुपए उस्ताद जमा कर लेता. सौ रुपए रखता सत्तीके हाथ पर और कहता, "जा ऎश कर."

’ऎश’ शब्द बैण्डवालों के साथ बिलकुल भी नहीं जुड़ता था. लाल पीली, नीली बीसियों बटनों वाली वर्दी और छज्जेवआळी टोपी डाल कर, सजधज कर, बारात के साथ, बैण्ड बजाते हुए या फिर जुनझुनों से झनझन करते हुए, निकल पड़ना क्या ऎश करना होता है ? बारात को सजे हुए पण्डाल के गेट तक छोड़ कर लौट आना क्या ऎश करना होता है ?

बैण्डवालों का कभी स्वागत नहीं हुआ था. हमेशा तिरस्कृत हुए थे बैण्डवाले. अपनी वेदना को वर्दी के अन्दर छुपा लेने की तरकीब जान गए थे सब. बाराती, आपसी बातचीत में बैण्डवालों को कभी छोटी-जात का कह रहे होते तो कभी नीच जात का. औरतें बैण्ड की धुन पर नाचतीं और बैण्डवालों से सतर्क भी रहतीं. जैसे बैण्डवाले न हों, टपोरियों, मवालियों और चेन स्नेचरों का गिरोह हों.

बारातियों को छोड़ो----वो तो सब पराए ----चेगाने धनवान और निस्संग. उस्ताद भी कौन-सा कम निकला.

हुआ यूं कि एक दिन सत्ती सूरज बैण्ड की दूकान में अकेला बैठा था. न जग्गन, न बीरे, न बंसी काका, न ताराचन्द, न चुल्लीचन्द, न फ़्कीरा और तो और उस्ताद भी नहीं था. अकेला, एक्दम अकेला सत्ती.

सत्ती उए झुनझुन बजाए. मन नहीं लगा. उसने एक बैण्ड को होठों से लगाया. हवा भरी तो बेतरतीब-सी बैं---- की आवाज़ निकलती चली गई. उसने वो बैण्ड रख दिया. अचानक उसके मन में कोई भाव उठा. वो मुस्कराया. आंखों में चमप-सी पैदा हुई. उसने उस्ताद की कपड़े में लिपटी कलैरनेट को उठाया. कलैरनेट बजाने का उसका हमेशा मन करता था. वो उस्ताद को कलैरनेट बजाते देखता और कलैरनेट बजाने का सपना -सा बुनता. आज सपना सच हो रहा था. कलैरनेट उसके हाथ में थी. वो कलैरनेट को, उसके बटनों को, और होठों पर लगानेवाली छोटी पतली और चपटी पाइप को देखता रहा. समझता रहा. फिर कलैरनेट को उसने अपने होठों से लगाया. उंगलियां को उसने कलैरनेट के बटनों पर रखा. मुंह से हवा भरी. पी------की आवाज़ निकली और एक जो़र का थप्पड़ उसके गाल पर पड़ा.

चकरा गया सत्ती. इससे पहले कि वो कुछ समझता, एक और थप्पड़ झन्नाटेदार--- ऎसा थप्पड़ कि वो ज़रा-सा लुढ़क गया. देखा तो सामने उस्ताद खड़ा था. तमतमाता. गुस्साता. गालियां बकता, "हरामज़ादे! मेरी कलैरनेट को मूं लगाएगा....? तू बजाएगा मेरी कलैरनेट ."

"उस्ताद जी, ग़लती हो गई. अब कब्बी हाथ बी नईं. लगाऊंगा." सत्ती बोल रहा था. दुख की पपड़ियां टूट कर गिर रही हों जैसे. "साले, न तेरे बाप का पता, न तेरी मां का----. पता नईं किस हराम का बीज----. जूठी कर दी मेरी कलैरनेट----. खबरदार, जो कब्बी फेर हाथ लगाया." उस्ताद गुस्से में बहुत कुछ कह गया. उसने सत्ती को हराम तक का कह दिया.

मन मसोस कर रह गया सत्ती. उसे उस्ताद की मार का दुख नहीं था . दुख था तो इस बात का कि उस्ताद ने उसे गाली दी----हराम की औलाद कहा था.

जवान, गबरू, अच्छी क़द-काठी सत्ती की. उसके अन्दर आक्रोश की लपट-सी लहराती चली गई. चाहता तो एक मिनट में चित कर देता उस्ताद को. लेकिन कोई शर्म थी, कोई लिहाज था, कोई आदर भी था शायद, सत्ती उस्ताद की मार खा गया. हराम का बीज जैसी गाली भी सुन गया, फिर भी चुप रहा.----- चुप ऎसा कि मुंह से एक शब्द भी नहीं. हमेशा एक बेचैनी------एक तड़प कि वो हराम का कैसे हो गया?

सत्ती हमेशा द्वग्रस्त रहता. बोलना तो उसने सबसे छोड़ दिया था. उसने सोच लिया था, अब छोड़ देगा सूरज बैण्ड. क्या धरा है ? बस , पहली तारीख़ को उस्ताद से कहेगा---"मेरा हिसाब कर दे...." फिर चला जाएगा छोड़ कर. कहीं दूसरी जगै ढूंढ़ लेगा नौकरी.

उस्ताद ने भी महसूस किया था. इतना ज्या़दा चुप तो सत्ती कभी नहीं रहता था. न हंसता है, न बोलता है. हमेशा व्याकुल-सा नज़र आता है. उस्ताद को पछतावा हुआ. थप्पड़ तो मारे. हराम का भी कह दिया उसे. इतना जवान लड़का. अपमान-सा महसूस किया होगा उसने---. मेरी अपणी कोई औलाद नईं. मेरे अपणे बेटे जैसा ही तो है सत्ती. कलैरनेट को ज़रा-सा मूं. लगा दिया था तो क्या हुआ ? कोई संगीन जुर्म तो नईं किया था उसने.

एक दिन उस्ताद सुबह-सबेरे दूकान पर पहुंच गया था. सत्ती, सूरज बैण्ड की रेहड़ी पर सोया हुआ था. उस्ताद ने उसे उठा. कहा, "जा, जल्दी से नहा-धो के आ."

सत्ती परेशान-सा . कुछ समझ ही नहीं पाया था, अचानक इतनी जल्दी क्यूं उठा दिया उसे. दिशा-फ़रागत. नहाना धोना. कपड़े बदलना---. काफ़ी वक्त लग गया था सत्ती को.

सत्ती उस्ताद के सामने खड़ा था और उस्ताद जी भर कर देख रहा था सत्ती को. जैसे सचमुच अपने बेटे को देख रहा हो. सत्ती के कन्धे को धपथपाते हुए उस्ताद ने जज़्बाती लहज़े में कहा, "उस दिन की बात तूने अपने मन में रख ली. बावला है तूं, सत्ती.... मैं नशे में बक गया. तेरा बाप है. बराबर है तेरा बाप. मैं तेरा बाप, अर मेरी जोरू तेरी मां."

सत्ती अवाक ! भौंचक. चुप.

उस्ताद ने अपनी जेब में हाथ डाला. इक्यावन रुपए निकाल कर सत्ती को देते हुए कहा, "वो जो बैंच पर साफ़ा पड़ा है....उठा उसको. साफा़ और इक्यावन रुपए तू मेरी झोली में डाल---गुरु दक्खिना के रूप में. ---आज से तेरे को मैं सिखाऊंगा बैण्द बजाना---पैले बैण्ड----फिर कलैरनेट. ---समजे! ----तेरे को इस पार्टी का बैण्ड मास्टर बणाऊंगा. मैं तो उस्ताद----तूं बैण्ड मास्टर---! मेरा छोरा सत्ती----बैण्ड मास्टर !" हंसा उस्ताद. आंखें छलक पड़ी सत्ती की.

उस्तद ने धूप जलाई. अपने गुरु का नाम लिया. फिर अपना चमचमाता पीतल का बैण्ड उथाया. बैण्ड को मौली बांधी. सत्ती को मौली बांधी और उस्ताअद ने अपने आपको भी वो लाल धागा बांधते हुए कहा, "सत्ती बेटे, ये बैण्ड म्हारी इबादत है----पूजा है ये बैण्ड . इसका सनमान करता रहियो."

उस्ताद ने बैण्ड के आगे सीस निवाया. फिर सत्ती ने भी वैसा किया.

उसके बाद उस्ताद ने एक बार जी भर के देखा सत्ती को. कन्धा थपथपाया. सिर पे हाथ रखा. उस्ताद की आंखें थोड़ी नम हो गईं. बोला उस्ताद, "खुशी के आंसूं हैं ये." उसने आंखों को पोंछते हुए कहा, "बैण्ड उठा, सत्ती. होठों पर रख पाइप और उंगलियां बटनों पर..... सारा खेल हवा का है. सारा खेल, जैसे ज़िन्दगी में सांस का होता है, वैसे बैण्ड में हवा भरने का. ---बैण्ड को बी सांस की ज़रूरत होती है. इसी से लय बनती है. इसी से लय बिगड़ती है. जितना रियाज़ करेगा, उतनी ज्य़ादा धुन पकड़ में आएगी. वरना, बैण्ड पे फिल्मी गानों की धुन निकालना कोई बड़ी बात नईं. बड़ी बात सुर की है----राग विधा को जानने की है."

उस्ताद बहुत देर तक बोलता रहा. कम ;बोलनेवाला उस्ताद, आज बहुत देर तक बोलता रहा. जैसे आज ही उसे अपने मन की बात कहने का मौक़ा मिला हो.

सत्ती, उस्ताद की सारी बातों को ध्यानपूर्वक सुनता रहा. उस्ताद की सब बातें, सत्ती के लिए गुरु बचन की तरह थीं.

उसके बाद सुर साधना. घण्टों रियाज़. धुन की समझ. सांसों का उतार-चढ़ाव . कहां बैण्ड को मुंह में रखना. कहां. हटाना. सत्ती तो डुबता चला गया. यही तो वो चाहता था. बैण्ड उसके लिए सपना था और बैण्ड उसके लिए पिरारथना !

सत्ती ने ख़ूब मेहनत की. मेहनत रंग लायी . सात महीने में ट्रेण्ड हो गया सत्ती. दूसरे बैण्ड बजाने वाले हैरान हुए और कुछेक के मन में जलन भी हुई. उस्ताद का तो पूछो मत. वो तो निहाल हो कर बोला, "मेरा बैण्ड मास्टर, मेरा बांका बैण्ड मास्टर."

सत्ती बेशक सांवले रक का था लेकिन आकर्षक लगता था. वो लम्बा था. उसका माथा चौड़ा. आंखें गहरी काली. बाल घने. चेहरा लम्बा. लेकिन भरा-भरा. वो जब बैंड मास्टर वाली वर्दी पहन कर निकलता तो उस्ताद उसे देखता रह जाता.

बारात से आगे सूरज बैण्ड होता. दो तरफ़ कतार में खड़े बैंडवाले होते. बीच में, एक छोर पर उस्ताद होता दूसरे छोर पर सत्ती----सत्ती बैण्ड मास्टर.

नाचनेवाले नौजवान और युवा लड़कियां ही नहीं, पैंतीस-चालीस की स्त्रियां भी सत्ती की तरफ़ खिंचीचली आतीं. सत्ती बेशक उस्ताद जैसा परिपक्व नहीं हुआ था. लेकिन वो नौजवान था. बलिष्ठ और सुन्दर दिखता था. वो लहराते हुए, झूमते हुए बैण्ड को बजाता तो खो-सा जाता. वो आकर्षण का केन्द्र बन जाता. वो थिरकता. नाचता. एक हाथ को हवा में लहराता और बैण्ड को आसमान की ज़ानिब उठाते हुए धुन बिखेरता चला जाता. अजीब बात थी. नौजवान उसके आसपास नोट लुटा रहे होते. शराब की कीमती बोतलों के मुंग खोल कर सत्ती को भी दावत दे रहे होते. खूबसूरत लड़कियां, नई पोशाकों में खुशबुओं के आबसार बिखेरती उसके आसपास नाचतीं. जैसे सत्ती बैण्ड मास्टर ही नहीं, कोरियोग्रफ़र भी हो या फिर कुछ और भी.... सत्ती के लिए कई बार सख्त् इम्तेहान जैसा होता. लेकिन वो हर बर नशे में धुत्त अमीरज़ादोम और अमीरज़ादियों से खु़द को बचा लेता.

लेकिन एक बारात में मामला बिगड़ गया. सत्ती जैसे साफ़ दिल नौजवान का बैण्ड बजाना, वारदात में बदल गया. इस वारदात में किसी का कुछ न बिगड़ा. बस, ग़रीबी खू़ब रोई. अमीरी ने ठहाके लगाए.

आम बारात की तरह इस बारात में भी दूल्हा था. बाराती थे. बैण्ड था. बैण्ड की धुन थी. ट्यूबलाइटों को उठाए ग़रीब लड़के थे. रंगीनी थी. मस्ती थी. जोश था. उमंग थी. सबसे बड़ी बात यह कि इस बारात में सम्पन्नता का अहंकार था जो दिखाई भी देता था और महसूस भी होता था. यह अहंकार, अपने सामने की हर शय को हिक़ारत से देखता था.

नाचनेवाले नौजवानों ने पी रखी थी. यह आम बात थी. वो रास्ते में भी कहीम रुकते. किसी कार की डिक्की में पड़ी बोतल से शराब निकाल पी जाते और फिर नाचने चले आते. यह भी आम बात थी. ख़ास बात यह थी कि अधिकांश युवतियों ने भी पी रखी थी. पता नहीं, उन्होंने ख़ुद पी थी या उन्हें पिलाई गई थी. बहरहाल, सब नशे में थे. सब मस्त थे.

इस बारात में एक और बात थी जो ख़ास थी. नाचनेवाले और नाचनेवाली युवतियां, किसी --’नच्च बलिए’ टी.वी. प्रोग्राम की तरह जोड़े बना कर नाच रहे थे. जोड़े बनते. जोड़े बिखर जाते. फिर जोड़े बनते. जोड़े बनते तो देह की कई सारी मुद्राओं में गड्डमड्ड हो जाते.

सत्ती बैण्ड बजाता . हाथ लहराता. बैण्ड को आसमान की तरफ़ उठा कर धुन निकालता. वो इनसे बचता. कभी पीछे हटता तो कभी दूर चला जाता. नाचनेवाले उसके क़रीब आ जाते.

एक नाचनेवाले युवती अपना जोड़ा तोड़ कर सत्ती के पास चली आई थी. उसकी नौजवान से कहासुनी हो गई ती. एक छोटा-सा झगड़ा, जिसमें ईगो त्घी और दूसरे को कुछ न समझने का भाव भी. युवती गुस्से में थी. युवती स्नॉब थी. युवती ख़ूबसूरत थी और वो अपने आपको विशिष्ट और श्रेष्ठ मान रही थी.

वो बिलकुल उसी तरह लहराते हुए सत्ती के पास आई जैसे सत्ती से लिपट जाएगी. सत्ती दूर हट गया. स्त्री को अपमानजनक लगा. वो सत्ती से लिपट कर कोई नई तरह का ’ईवेण्ट’ पेश करना चाहती थी. लेकिन यह नहीं हो पाया था. वो बौखला उठी थी. दांत पीसते हुए बोली, "मास्टर, बैण्ड को आसमान की तरफ़ नहीं, मेरे पैरों की तरफ़ बजाओ----मेरे सैण्डिलों को देखते हु..... तुम्हारे बैण्ड को आसमान नहीं सुनेगा----मेरे पैर सुनेंगे----लिसन."

वो स्नॉब , गुस्सैल युवती, सत्ती के इतने पास थी कि बैण्ड की बहुत सारी आवाजों के बावजूद, सत्ती ने उसकी बात सुन ली थी. चिढ़ गया था. सच बात तो ये कि घबरा गया था. क्या जवाब दे ? फिर भी उसने हिम्मते जुटा कर कहा, "मेमसॉब, बैण्ड मेरी इबादत है. मैं इसे आसमान की तरफ़ उथा कर बजा सकता हूं, किसी के पैर की तरफ़ नईं."

सत्ती की बात सुन कर युवती त्मतमा उठी. एक अदना-सा बैण्ड बजानेवाला उसका निरादर करे. उसकी ये उक़ात. युवती गुस्से में थी. युवती नशे में थी. युवती अपने जोड़ीदार से झगड़ कर आई थी और यहां सत्ती से तक़रार.

"ओ मिरासी." युवती ने अपने दायें हाथ की उंगली से सत्ती को देखते हुए कहा, "मिरासी कहते हैं न तुम लोगों को...." मेरे पैरों की तरफ़ मत बजा बैण्ड." युवती ने कहा. वो थोद़्आ लड़खड़ाई. खु़द को संभाला उसने. फिर बोली, "यहां, यहां मेरी ब्रेस्ट के बिलकुल पास बजा अपना बैण्ड..... बजा..... यहां...... यहां पर." युवती ने अपने हाथ के इशारे से कहा.

डर गया सत्ती. ज़मीन सरकती चली गई हो जैसे पांव के नीचे से. वो बहुत मुश्किल से बोल पाया, "नई----- बिलकुल बी नहीं. " यह टूटा-फूटा वाक्य बोल कर उसने बैण्ड को मुंह से लगाया. पीछे हटने लगा तो युवती उसके बैण्ड को हाथ में पकड़ते हुए ज़ोर से चीखी, "यू बास्टर्ड----छेड़ता है मुझे.... मेरा हाथ पकड़ता है---- तेरी ये मजाल." कहकर उसने सत्ती को ज़ोर का झपड़ मारा. बस फिर क्या था ! ग़रीब का सच दब गया. अमीरों की हेकड़ी, अमीरों का नशा, अमीरों का मान-सम्मान उभर आया.

सत्ती पिटता रहा. उन नौजवानों से पिटता रहा जो बहुत पी चुके थे. उन नौजवानों से पिटरा रहा जो नाचते हुए बेहद अश्लील मुद्राएं बना लेते थे. उन नौजवानों से पिटरा रहा, जिन्होंने हक़ीक़त को न आंख से देखा थ< न कान से सुना था.

सत्ती पिटता रहा. स्री वोदका पीती रही. ारात ठिठकी रही. बैण्ड थम गया.

फिर जगमगाती रोशनियों के साथ बारात चली गई. चोड़ गई अंधेरे का जज़ीरा. जज़ीरा, जिसमें सत्ती था, कुलबुलाता. सिसकता. कराहता.

वो बीस प्च्चीस दिन तक पड़ा रहा बिस्तर पर. गुमसुम. चुप. उदाद----- ज़ख्म तो ठीक हो गए लेकिन मन ? सत्ती के मन को कौन समझाएगा ? बैण्ड को देखता है तो थर्रा जाता है सत्ती. बारात के नाम पर सिहर उठता है.

यही सत्ती था. बारात की बुकिंग होती तो कितने जोश में होता था प्रेस की हुई वर्दी को देखता. बाक़ी बैण्डवाले तो मैली वर्दियां पहन कर भी निकल पड़ते. लेकिन सत्ती हर बारात में कलफ़ लगी, प्रेस की हुई वर्दी पहनता. उसे वर्दी ख़ूब फ़बती. और वो ख़ुद इतना इतराता जैसे बैण्ड मास्टर न हो, ख़ुद दूल्हा हो.

लेकिन अब !

उस्ताद ज़बरदस्ती ले आता है सत्ती को बारात मे. उस्ताद समझता है सत्ती की वेदना. लेकिन क्या करे ? ग़रीब आदमी को सान्त्वना भी तो दुख की शरण में आ कर मिलती है. उस्ताद बहुत इसरार के साथ सत्ती को अपने साथ ले जाता है. जानता है उस्ताद. सत्ती यूं ही पड़ा रहा तो काठ होजाएगा. उस्ताद चाहता है, सत्ती खूब बजाए बैण्ड. और अपना सारा दुख, बैण्ड की धुन के ज़रिए बाहर निकाल दे.

सत्ती बैण्ड बजाता है. उदास-सी धुन निकलती है. बाराती, सत्ती की उदास धुन पर थिरकते हिं. यही विडम्बना है. किसी का दुख, किसी अन्य का शगल हो जाता है.

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हार्परकॉलिंस पब्लिशर्स इंडिया,
ए-५३, सेक्टर-५७, नोएडा-२०१३०१ से प्रकाशित कहानी संग्रह
’बदली हुई दुनिया’ से साभार


३० जनवरी, १९४९ को जन्में वरिष्ठ कथाकार ज्ञानप्रकाश विवेक ने हिन्दी में एम.ए. करने के पश्चात लंबे समय तक ओरियण्टल इंश्योरेंस कम्पनी में कार्य कर वहां से स्वैच्छिक सेवा अवकाश ग्रहण किया. अब तक उनके नौ कहानी संग्रह, चार उपन्यास, चार गज़ल संग्रह और एक कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. शीघ्र ही एक उपन्यास प्रकाश्य है.

नवें दशक के उत्तरार्द्ध में सारिका में प्रकशित कहानी - ’पिताजी चुप रहते हैं’ से अपनी पहचान बनाने वाले ज्ञान ने कहानियों में निरन्तर प्रयोग किए हैं और अनेक उल्लेखनीय कहानियां लिखी हैं. ’गली नम्बर तेरह’, ’अस्तित्व’ और ’आखेट’ उपन्यासों में उनका रचनात्मक कौशल दृष्टव्य है. हिन्दी गज़ल में वह एक समादृत हस्ताक्षर हैं. हिन्दी ग़ज़लों पर आलोचनात्मक पुस्तक - ’हिन्दी ग़ज़ल की विकास यात्रा’ लिखकर उन्होंने एक महत्वपूर्ण कार्य किया है.

सम्प्रति : स्वतन्त्र लेखन.

मोबाइल : 09813491654

4 टिप्‍पणियां:

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

बहुत मार्मिक और संवेदनशील कहानी ..गरीब का सच ऐसे ही दब जाता है

निर्मला कपिला ने कहा…

शिल्प शैली कथानक सभी उमदा हैं। श्री ग्यानप्रकाश जी को बधाई।

सुभाष नीरव ने कहा…

ज्ञान प्रकाश विवेक की यह कहानी किसी पत्रिका में मैंने पढ़ी थी और तुमसे भी इसे अवश्य पढ़ने का आग्रह किया था। नि:संदेह यह कहानी पाठक को अपनी गिरफ़्त में लेने की भरपूर शक्ति रखती है। इसकी मार्मिकता देखने लायक है। भरपूर मानवीय संवेदना से रची-पगी यह कहानी विवेक की श्रेष्ठ कहानियों में गिनी जा सकती है।

Dr. Sudha Om Dhingra ने कहा…

ज्ञान प्रकाश विवेक जी की कहानी पढ़ी. आप की कई कहानियाँ पहले भी पढ़ीं हैं. वे कहानियाँ मुझे बेहद पसन्द आईं. रूप भाई से बात भी की थी. आप की कहानियाँ पाठकों को अपने साथ बहा ले जाती हैं. बैंड मास्टर बहुत मार्मिक और संवेदनशील कहानी है. रूप भाई एक अच्छी कहानी पढ़वाने के लिए धन्यवाद.