शनिवार, 21 अगस्त 2010

कविता



ऎसे में आदमी

बलराम

कैसा समय आ गया है प्रभो
कि श्रम के गाल पर पड़ता तमाचा रोज
कि कर्त्तव्य होता पद-दलित हर बार
कि कर्म का मतलब हो गया है आत्म-गान
और श्वान-वृत्ति निष्ठा का
व्यर्थ हुए बलिदान

पुत्रों की आहुति
स्वजनों का रक्त
करने लगे आस्था का भाष्य
चारण और भाट
विश्वासों का हो गया ठेका
बोली में बिक गया है सत्य
सरे बाजार लुट गया है शिव
विरूप हो गया है सुन्दरम भी
देखने में जिसे
लगने लगी है घिन
ऎसे में
आदमी के पास
रह गए हैं बस
थोड़े से विकल्प
चुप्पी, चीख या फिर आर्त्तनाद

चुप रहकर आदमी
खो जाने दे खुसी
और अपना गम
चीखकर परिवेश में भर दे सिहरन
या फिर आर्त्तनाद में डुबो दे दसों दिशाएं
कंपित कर दे न्याय-पिता का आसन
जो शायद कहीं है ही नहीं
एक मिथ भर है
टूट चुका कब का वह भी
ऎसे में आदमी क्या करे
क्या करे प्रभो !

****


लब्ध-प्रतिष्ठ कथाकार बलराम अपनी विशिष्ट लेखन शैली के लिए विख्यात हैं. मित्रजीवी व्यक्ति हैं और नवभारत टाइम्स दिल्ली से स्वैच्छिक अवकाश ग्रहण करने के बाद राजनीतिक पाक्षिक पत्रिका ’लोकायत’ के कार्यकारी सम्पादक पद पर कार्यरत हैं. लोकायत में उनका स्तंभ ’अपना पन्ना’ चर्चा का विषय है, क्योंकि उसमें बलराम हिन्दी साहित्य के पुलिस महानिदेशकों से मुठभेड़ में संलग्न हैं. पिछले कई अंकों उनकी यह मुठभेड़ वरिष्ठतम कथाकार राजेन्द्र यादव के साथ जारी रही . अंततः राजेन्द्र जी को यह लिखना पड़ा कि ’इतनी नाराजगी अच्छी नहीं.’

इन दिनों अशोक बाजपेई के साथ उनकी मुठभेड़ चल रही है----देखें परिणाम क्या होता है. लेकिन इतना तय है कि इन मुठभेड़ों की सी.बी.आई. जांच नहीं होगी. फिर भी मुझ जैसे मित्र को उनकी साहित्यिक सुरक्षा की चिन्ता अवश्य है.

4 टिप्‍पणियां:

شہروز ने कहा…

विष्णु खरे ने कविता प्रकाशन से हाह क्यों खींच लिया प्रबु जाने !! लेकिन अपन इतना जानते हैं की वर्तमान दो मुंहेपन और किंचित खोखले रिश्ते और हरेक तरफ पसरी साम,दाम,दड भेद की सडांध से कोई बच कैसे सकता है!!! यही कविता को बड़ा बनाता है.
अंक खूब बन पड़ा है !

माओवादी ममता पर तीखा बखान ज़रूर पढ़ें:
http://hamzabaan.blogspot.com/2010/08/blog-post_21.html

PRAN SHARMA ने कहा…

SEDHEE - SAADEE BHASHA MEIN KAVI
BALRAM JEE KE SEEDHE - BHAAV MAN
KO CHHOO GAYE HAIN.POOREE KAVITA
ZORDAAR HAI.

सुभाष नीरव ने कहा…

मैं तो चौंक गया भाई चन्देल, बलराम की कविता पढ़कर। मैंने आज तक इनकी कोई कविता नहीं पढ़ी। तुमने इनका यह सृजनात्मक रूप भी दिखाया, सुखद लगा। कविता जानदार है,अगर विष्णु खरे जी ने इसे प्रकाशित करने से कभी मना कर दिया था तो इसका अर्थ यह नहीं कि कविता बेकार है। अच्छी और दमदार कविता है।

Subhash Rai ने कहा…

चन्देल भाई, बलराम जी की कविता अच्छी लगी. इसमे कुछ ऐसा नही है, जो खरे साहब ने इसे छापने से मना कर दिया. उनकी सम्पादकी पर तरस ही आना चहिये.