शनिवार, 21 अगस्त 2010

वातायन - अगस्त,२०१०



अकस्मात हुई व्यस्तता के कारण इस बार वातायन प्रकाशित करने में अप्रत्याशित विलंब हुआ. कुछ मित्रों ने शिकायत की . यह वातायन की प्रतिष्ठा का प्रमाण है. प्रारंभ से ही मेरा उद्देश्य साहित्यिक राजनीति, गुटबन्दी- दलबन्दी से अलग रहते हुए निष्पक्ष-भाव से रचनाओं का प्रकाशन रहा है. वरिष्ठ रचनाकारों से लेकर बिल्कुल नए और युवा रचनाकारों को बिना किसी भेदभाव के इसमें प्रकाशित किया गया. भविष्य में भी मेरा यह प्रयास जारी रहेगा.

वातायन में यदाकदा मैंने अपने संस्मरण, जीवनी, और साक्षात्कार प्रकाशित किए, लेकिन कभी कहानी प्रकाशित करने के विषय नहीं सोचा. लेकिन इसबार कुछ समय पूर्व लिखी अपनी कहानी - ’वह चुप हैं’ प्रकाशित करने का मोह संवरण नहीं कर पा रहा हूं. इस कहानी के प्रकाशन की भी एक कहानी है. लिखने के तुरंत बाद यह कहानी किसी पत्रिका में प्रकाशनार्थ न भेजकर मैंने सुश्री पूर्णिमा वर्मन की ई पत्रिका -’अभिव्यक्ति’ को भेजा. लंबी प्रतीक्षा के बाद मैंने उन्हें कहानी की वस्तुस्थिति जानने के लिए पत्र लिखा जिसमें यह भी लिखा कि यदि कहानी प्रकाशित करने में उन्हें संकट प्रतीत हो रहा है तो मैं उसे अन्यत्र भेज दूं. दूसरे दिन ही उनका पत्र आया कि मैं इसे अन्यत्र प्रकाशित करवा लूं. मैंने उसे ’सृजनगाथा’ को भेजा जिसे मानस जी ने तीसरे दिन ही प्रकाशित कर दिया. इस कहानी को पूर्णिमा जी ने न प्रकाशित करने का निर्णय क्यों किया होगा, यह कहानी पढ़कर पाठक स्वयं समझ जाएगें. ’अभिव्यक्ति’ में पूर्णिमा जी मेरी दो कहानियां प्रकाशित कर चुकी थीं, इसलिए स्पष्ट है ’वह चुप हैं’ की थीम शायद उन्हें पसंद नहीं आयी होगी . उत्तर से मैं प्रसन्न हुआ था, क्यों उसमें एक सम्पादकीय ईमानदारी थी. जबकि उन्हीं दिनों गर्भनाल के श्री आत्माराम शर्मा के व्यवहार से मैं हत्प्रभ और खिन्न था . श्री शर्मा को मैंने अपनी ’खतरा’ कहानी भेजी थी . कहानी मिलने के दो दिनों के अंदर ही कहानी की प्रशंसा करते हुए उनका पत्र मिला कि कहानी गर्भनाल के अंक ४२ में प्रकाशित होगी. लेकिन अंक ४२ में उस कहानी का कहीं अता-पता नहीं था और आगामी अंक के लिए भी उसकी घोषणा नहीं थी. मैंने उन्हें कहानी कभी न प्रकाशित करने के लिए पत्र लिखा . बाद में मुझे एक मित्र से ज्ञात हुआ कि गर्भनाल का एक धागा अमेरिका के किसी साहित्यकार से संचालित है, जिन्होंने मुझे अपमानित करने का निर्णय किया हुआ था. ’खतरा’ को अंक ४२ में प्रकाशित करने के आशय का पत्र लिखने के बाद भी उसे प्रकाशित न करना और इस विषय में मुझे सूचित भी न करना मित्र की बात को सही सिद्ध कर रहे थे. ’खतरा’ इस घटना के तुरंत बाद ही ’सृजनगाथा’ में प्रकाशित हुई थी.

गर्भनाल के संदर्भ में ही मेरे एक मित्र के साथ घटी घटना याद आ रही है, जो उन्होंने मेरी कहानी की कहानी सुनने के बाद बतायी थी. श्री आत्माराम शर्मा जी ने उन्हें लघुकथाएं भेजने के लिए आग्रहपूर्ण पत्र लिखा. मित्र ने लघुकथाएं भेजीं. लंबे समय तक चुप्पी के बाद जब मित्र ने उनसे वस्तुस्थिति जाननी चाही तब श्री शर्मा ने उनसे पूछा कि वह गर्भनाल के लिए क्या सहायता कर सकते हैं. मित्र ने जब किसी भी प्रकार सहायता से इंकार किया आत्माराम जी ने चुप्पी साध ली. इस घटना को दो वर्ष बीत गए वे लघुकथाएं आज तक प्रकाशित नहीं हुईं. इन घटनाओं से प्रिण्ट पत्रिकाओं की भांति कुछ ई पत्रिकाओं में व्याप्त राजनीति को समझा जा सकता है.
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वातायन के इस अंक में ’हम और हमारा समय’ के अंतर्गत प्रस्तुत है सुधा ओम ढींगरा का आलेख और वरिष्ठ कथाकार/पत्रकार बलराम की कविता, जिसे कभी श्री विष्णु खरे ने ’नवभारत टाइम्स’ में प्रकाशित करने से इंकार कर दिया था.
आशा है अंक आपको अवश्य पसंद आएगा.

6 टिप्‍पणियां:

सुभाष नीरव ने कहा…

भाई चन्देल, प्रिंट में जो गन्दी राजनीति चलती है, वह अब वेब पत्रिकाओं/ब्लॉगों में भी प्रवेश करती जा रही है, यह दुखद है। सब जानते हैं पर कहने लिखने का साहस नहीं करते। तुमने यह साहस दिखाया, तुम्हारे साह्स को नमन !

बलराम अग्रवाल ने कहा…

आपकी बातें पढ़कर यही लगता है कि मैं इस दुनिया में निरा बच्चा हूँ, एकदम अबोध। क्या-क्या प्रपंच 'ई'(इलेक्ट्रॉनिक) और 'पी'(प्रिंट)साहित्यिक हलकों में रचे जा रहे हैं और हम हैं कि आगे बढ़ने के सपने आँखों में पाले सोये पड़े हैं! विष्णु भी जब खरे न रह गये हों, 'ऐसे में आदमी' क्या करे, हे प्रभो!!

बेनामी ने कहा…

प्रिय भाई, आपकी कहानी और उसकी कहानी पढ़ी. यह समय है ही ख़राब. आप सिर्फ कहानी पर ध्यान दें. कहानी से इतर चीजों को रहने ही दें. कहानी सुन्दर है.

Mahesh Darpan

बेनामी ने कहा…

रमाकांत जी की लघुकथाएं छापकर आपने अच्चा काम किया.

महेश दर्पण

Rahul Singh ने कहा…

ई पत्रिकाओं का भी अपना-अपना चरित्र, सीमा और अर्थ-व्‍यवस्‍था है, यह प्रकाशकीय नैतिकता पर भारी पड़ती है. लेकिन आपकी इस और इस तरह की अन्‍य पोस्‍ट ब्‍लॉगर रचनाकारों के लिए जरूर सहायक होंगी. मेरा अधिक अनुभव इस क्षेत्र में नहीं है, लेकिन आपकी पोस्‍ट पढ़ कर लगा कि रचनाओं को क्‍यों न स्‍वयं के ब्‍लॉग पर पोस्‍ट किया जाए, इसके बाद बाकी मीडिया की मर्जी. यह मैं अपने संक्षिप्‍त अनुभव के आधार पर सोच रहा हूं, क्‍योंकि मेरे ब्‍लॉग पोस्‍ट का इस्‍तेमाल बाद में प्रिंट, वेब और इलेक्‍ट्रानिक मीडिया में अक्‍सर हुआ लेकिन (शायद संयोगवश) कभी किसी गंभीर शिकायत की नौबत नहीं आई.

सुनील गज्जाणी ने कहा…

chandel saab
prnama !
sahi hai aaj sahitya me bhi raaj neety haavi ho gayi hai agar sahitykaar agar raajneety yaa koot neety karne lage to sahitya ka samaj ka visagtyon dunia ke ssamne kou rakhega . aaj sahitya masoom na ho kar nirdai banta jaa raha hai . jaane kaise sudhrega .
saadar