मंगलवार, 30 नवंबर 2010

कविताएं





नागार्जुन की छः कविताएं


जेष्ठ पूर्णिमा, १९११ - ५.११.१९९८
(१)

कालिदास

कालिदास, सच-सच बतलाना !
इंदुमती के मृत्युशोक से
अज रोया या तुम रोए थे ?
कालिदास, सच-सच बतलाना

शिवजी की तीसरी आंख से
निकली हुई महाज्वाला में
घृतमिश्रित सूखी समिधा-सम
कामदेव जब भस्म हो गया
रति का क्रंदन सुन आंसू से
तुमने ही तो दृग धोए थे ?
कालिदास, सच-सच बतलाना
रति रोई या तुम रोए थे ?

वर्षा रितु की स्निग्ध भूमिका
प्रथम दिवस आषाढ़ मास का
देख गगन में श्याम घन-घटा
विधुर यक्ष का मन जब उचटा
खड़े-खड़े तब हाथ जोड़कर
चित्रकूट के सुभग शिखर पर
उस बेचारे ने भेजा था
जिनके ही द्वारा संदेशा
उन पुष्करावर्त मेघों का
साथी बनकर उड़नेवाले
कालिदास,सच-सच बतलाना
परपीड़ा से पूर-पूर हो
थक-थककर औ’ चूर-चूर हो
अमल-धवल गिरि के शिखरों पर
प्रियवर, तुम कब तक सोए थे ?
रोया यक्ष कि तुम रोए थे ?
कालिदास, सच-सच बतलाना

(१९३८)



(२)

बहती है जीवन की धारा

बहती है जीवन की धारा !
मलिन कहीं पर विमल कहीं पर,
थाह कहीं पर अतल कहीं पर .
कहीं उगाती, कहीं डुबोती,
अपना दोनों कूल-किनारा .

बहती है जीवन की धारा !

तैर रहे कुछ सीख रहे कुछ
हंसते हैं कुछ, चीख रहे कुछ.
कुछ निर्भर हैं लदे नाव पर
खेता है मल्लाह बिचारा.

बहती है जीवन की धारा !

सांस-सांस पर थकने वाले,
पार नहीं जा सकने वाले .
उब-डुब उब-डुब करने वाले ,
तुम्हें मिलेगा कौन सहारा .

बहती है जीवन धारा !
(१९४१)



(३)

सिन्दूर तिलकित भाल

घोर निर्जन में परिस्थिति ने दिया है डाल !
याद आता तुम्हारा सिंदूर तिलकित भाल !
कौन है वह व्यक्ति जिसको चाहिए न समाज ?
कौन है वह एक जिसको नहीं पड़ता दूसरे से काज ?
चाहिए किसको नहीं सहयोग ?
चाहिए किसको नहीं सहवास ?
कौन चाहेगा कि उसका शून्य में टकराय यह उच्छ्वास ?
हो गया हूं मैं नहीं पाषाण
जिसको डल दे कोई कहीं भी
करेगा वह कभी कुछ न विरोध
करेगा वह कुछ उअहीं अनुरोध
वेदना ही नहीं उसके पास
फिर उठेगा कहां से निःश्वास
मैं न साधारण, सचेतन जंतु
यहां हां—ना—किन्तु और परन्तु
यहां हर्ष-विषाद-चिंता-क्रोध
यहां है सुख-दुःख का अवबोध
यहां हैं प्रत्यक्ष औ’ अनुमान
यहां स्मृति-विस्मृति के सभी के स्थान
तभी तो तुम याद आतीं प्राण,
हो गया हूं मैं नहीं पाषाण !
याद आते स्वजन
जिनकी स्नेह से भींगी अमृतमय आंख
स्मृति-विहंगम की कभी थकने न देगी पांख
याद आता मुझे अपना वह ’तरउनी’ ग्राम
याद आतीं लीचियां, वे आम
याद आते मुझे मिथिला के रुचिर भू-भाग
याद आते धान
याद आते कमल, कुमुदिनि और तालमखान
याद आते शस्य-श्यामल जनपदों के
रूप-गुण-अनुसार ही रक्खे गये वे नाम
याद आते वेणुवन वे नीलिमा के निलय, अति अभिराम

धन्य वे जिनके मृदुलतम अंक
हुए थे मेरे लिए पर्यंक
धन्य वे जिनकी उपज के भाग
अन्न-पानी और भाजी-साग
फूल-फल औ’ कंद-मूल, अनेक विध मधु-मांस
विपुल उनका ऋण , सधा सकता न मैं दशमांश
ओग, यद्यपि पड़ गया हूं दूर उनसे आज
हृदय से पर आ रही आवाज-
धन्य वे जन, वही धन्य समाज
यहां भी तो हूं न मैं असहाय
यहां भी व्यक्ति औ’ समुदाय

किन्तु जीवन-भर रहूं फिर भी प्रवासी ही कहेंगे हाय !
मरूंगा तो चिता पर दो फूल देंगे डाल
समय चलता जायगा निर्बाध अपनी चाल
सुनोगी तुम तो उठेगी हूक
मैं रहूंगा सामने (तस्वीर में) पर मूक
सांध्य नभ में पश्चिमांत-समान
लालिमा का जब करुण आख्यान
सुना करता हूं, सुमुखि उस काल
याद आता तुम्हारा सिंदूर तिलकित भाल !

(१९४३)

(४)

कांग्रेस तो तेणे कहिए-----

कांग्रेसजन तो तेणे कहिए, जे पीर आपणी जाणे रे
पर दुःख में अपना सुख साधे, दया भाव न आणे रे
तीन भुवन मां ठगे सभी को, शरम न राखे केनी रे
टोपी-कुर्ता-धोती खद्दर, धन-धन जननी तेनी रे
समदर्शी बनी लज्जा त्यागे, सुदृढ़ तिरंगी ढाले रे
जिह्वा थकी, सत्य ना बोलै, पर धन अपनो माने रे
माया-मोह न छूटे छन-भर, लोभ बस्यो जेहि मनमां रे
जैसे-तैसे वोट बटोरे, पिछली कीर्ति बखाणै रे
बड़े-बड़े सेठन के हितमां, अपणा हित पहचाणे रे
भूखे रखि-रखि लाख जनन को, हौले-हौले मारे रे
भण नर सैंया कमा-कमा नित कुल इकहत्तर तारे रे
कांग्रेसजन तो तेणे कहिए-----

१७ दिसम्बर, १९५१







(५)

आओ, इसे जिन्दा ही कब्र में गाड़ दें !

शांति का हिरन, अहिंसा की गाय –
बाघ ने दोनों को दबोच लिया हाय !
किसका हिरन, किसकी गाय ?
नेहरू का हिरन, गाय गांही की थी हाय !
कौन था बाघ, कौन था खूंखार ?
माओ-चाओ-शाओ की कम्युनिस्ट सरकार !
दुख हुआ मार्क्स को, स्टालिन मुसकाया !
गांधी के मुंह पर फीकापन छाया !!

चेहरा तिलक-सुभाष का तमतमाया---
भगतसिंह की आंखों में खून उतर आया !

लहू की सिंचाई है, अमन की खेती है---
लेनिन की लाश जंभाई नहीं लेती है !
सपने इन्कलाब के यहां-वहां भर गया ;
वो माओ कहां है ? वो माओ मर गया !!
यह माओ कौन है ? बेगाना है यह माओ !
आओ, इसको नफ़रत की थूकों में नहलाओ !!

आओ, इसके खूनीं दांत उखाड़ दें !
आओ, इसे जिंदा ही कब्र में गाड़ दें !!

(धर्मयुग, २६ जनवरी, १९६३)

(६)

भारत-भूमि में प्रजातंत्र का बुरा हाल है

लालबहादुर नीचे, ऊपर कामराज है
इनक़िलाब है नीचे, ऊपर दामराज है
दम घुटता है लोकसभा के मेंबरान का
बन जाए न अचार कहीं इस संविधान का !
लौह-पुरुष के चार शीश हैं, आठ हाथ हैं
देख रहा वह कोटि-कोटि जन कहां साथ हैं
अन्न-संकट में अस्सी प्रतिशत म्ख कुम्हलाए
इन आंखों की चमक कौन फिर वापस लाए !
जंतर-मंतर में नेहरू की रूह कैद है
पता न चलता क्या काला है, क्या सुफ़ेद है !
कहां गया मेनन, मुरार जी क्यों हैं गुमसुम
वह उंगली क्या हुई, कहां है गीला कुमकुम ?

कामराज क्या दामराज है ?
दामराज क्या रामराज है ?
रामराज क्या कामराज है ?
कामराज क्या दामाराज है ?

क्या चक्कर है –
जनता मुझसे पूछ रही है, क्या बतलाऊं ?
जनकवि हूं मैं साफ़ कहूंगा, क्यों हकलाऊं ?
नेहरू को तो मरे हुए सौ साल हो गए
अब जो हैं वो शासन के जंजाल हो गए
गृह-मंत्री के सीने पर बैठा अकाल है
भारत-भूमि में प्रजातंत्र का बुरा हाल है !

(जनशक्ति, २१ फरवरी १९६५)

2 टिप्‍पणियां:

सुभाष नीरव ने कहा…

नागार्जुन मेरे प्रिय कवि रहे हैं। तुमने उनकी जिन कविताओं का चयन किया है, वह बहुत अच्छा है। पर तुम्हें उनकी 'अकाल' वाली कविता अवश्य लगानी चाहिए थी। यह कविता जितनी बार भी पढ़ो, सुनो, मन को मथती है। कुछ माह पूर्व जब इंडिया इंटरनेशनल सेंटर' में मुझे अपनी पसन्द की कविताओं को सुनाने का सुअवसर मिला था तो मैंने बाबा की यही कविता सुनाई थी और सभागार में उपस्थित सभी श्रोताओं ने पूरे मन से इस कविता को सुना था…
इस प्रकार की प्रस्तुतियों से तुम्हारा यह ब्लॉग 'वातायन' नि:संदेह हिंदी का एक महत्वपूर्ण और सार्थक ब्लॉग बन गया है। बधाई !

बलराम अग्रवाल ने कहा…

बाबा जनप्रिय कवि हैं। उन्होंने उपन्यास भी बहुत अच्छे लिखे हैं और उनमें भारत का आम जन-जीवन साकार होता है। उनके कथाकार को क्यों पीछे छोड़ दिया गया, पता नहीं। बहरहाल, आपने उनकी ऐसी रचनाएँ चुनकर दी हैं(विशेषत: चौथी, पाँचवीं और छठी कविता) कि आज का राजनीतिक परिदृश्य उनके रचनाकाल की पुनरावृत्ति जैसा लगता है। मुझे लगता है कि आपको उनके किसी उपन्यास के अंश को भी दे देना चाहिए। बाबा की 'अकाल' कविता बहुश्रुत और बहुपठित है इसलिए मुझे लगता है कि उसकी बजाय आपने अन्य आज के राजनीतिक परिदृश्य को चित्रित करने में सक्षम कविताओं का चुनाव करके ढर्रे पर चलने से अलग श्रमशील संपादक का दायित्व-निर्वाह किया है।