बुधवार, 26 मई 2010

वातायन - जून,२०१०



हम और हमारा समय

कंधों पर परम्पराओं का शव
रूपसिंह चन्देल

दो वर्ष पहले बाहरी दिल्ली के गांवों के जाट समुदाय ने कम से कम प्रदर्शन के साथ दिन में विवाह करने का ऐतिहासिक और अनुकरणीय निर्णय किया था । निर्णय पर कितना अमल हो रहा है, यह स्पष्ट नहीं है , लेकिन ऐसे निर्णय बिना गहन सामाजिक चिन्तन के संभव नहीं हैं । सगोत्रीय संबन्धों का विरोध करने वाली इस कौम के इस निर्णय को एक आदर्श निर्णय इसलिए कहना होगा क्योंकि इसमें वैवाहिक कार्यक्रमों के रात्रि प्रदर्शन पर होने वाले धन के दुरुपयोग को रोकने की इच्छाशक्ति अंतर्निहित थी । सिख समुदाय के वैवाहिक कार्यक्रम ही नहीं, अन्य सामाजिक कार्यक्रम भी दिन में सम्पन्न होते हैं और वह भी प्रायः गुरुद्वारों में । व्यवसायों के शिखर पर विराजमान सिखों की जनसंख्या का बड़ा भाग बड़े और चमक-दमक वाले पण्डालों का खर्च वहन करने की क्षमता रखते हैं, लेकिन गुरुद्वारों में पारिवारिक-सामाजिक कार्यक्रमों के पीछे धन के अपव्यय पर अंकुश लगाना ही उनका मुख्य ध्येय होगा ।
बात मात्र वैवाहिक कार्यक्रमों से जुड़े अपव्यय और अर्थहीन हो चुके अनुष्ठानों से मुक्ति का ही नहीं है , बात बदलती जीवन स्थितियों , परिवेश, और वातावरण के अनुकूल अपने को ढालने और बदलने का भी है । आज कितने ही ..... बल्कि कहना होगा अस्सी प्रतिशत से अधिक परिवार पुरानी परम्पराओं के शव कंधों पर लादे चल रहे हैं । कई बार ऐसी अनुभूति होती है कि उस शव से मुक्ति के बजाय वे उसे और अधिक अपने से चिपटाने का प्रयत्न करने लगे हैं यह जानते हुए भी कि उनके जीवन-विकास में वे कितनी बड़ी बाधा हैं ।

इन परम्पराओं और अनुष्ठानों का सर्वाधिक दुष्प्रभाव नारी जीवन पर पड़ता है । भारतीय समाज में कम से कम नव्वे प्रतिशत परिवारों में नारी का स्थान दोयम है । पुरुष वर्चस्व उसे अपने समकक्ष समझने को तैयार नहीं है । उसे आज भी अनुगामिनी ही माना जाता है , भले ही वह पति से अच्छी नौकरी करती हो और उससे अधिक पढ़ी-लिखी हो । अच्छे-भले ..पढ़े -लिखे परिवारों की यह स्थिति है । कुछ दिन पहले एक श्रीवास्तव जी टकराए ... उच्च ”शिक्षित परिवार , लेकिन सोच अठारहवीं शताब्दी वाली । बोले , ‘‘पत्नी को पति के पीछे ही चलना होता है .... वह आगे कैसे चल सकती है ! भारतीय परम्परा यही है । ’’ दूसरा उदाहरण :
मुगलसराय में रेलवे के एक ट्रेड यूनियन नेता से कॉफी हाउस में मुलाकात हुई । यूनियन की किसी मीटिगं में आए थे । दिल्ली में उनके दो बेटे पत्रकार हैं ...अच्छे पत्र समूहों से जुड़े हुए । पत्नी प्रसंग में बोले , ‘‘ पत्नी पति की पी.ए. की भांति होती है ।’’ दरअसल , इन लोगों ने परम्परा से यही सीखा था और उनकी पत्नियों ने भी । शायद ही उन लोगों ने कभी विरोध किया होगा । इनके बच्चे भी उसी परम्परा के वाहक होंगे .... आगे की पीढ़ी के बारे में सोचा जा सकता है ।

कहने के लिए हम ग्लोबलाइज हो रहे हैं , लेकिन इस वैश्वीकरण से हमारे समाज के ऐसे परिवार कुछ बुरी आदतों में इज़ाफा अवश्य कर रहे हैं, परन्तु अपनी बुरी परम्पराओं से मुक्त नहीं हो पा रहे । नयी पीढ़ी ड्रिंक और स्मोक को जीवन के हिस्से के रूप में अपना रही है । परिधानों के मामलों में महानगरीय-नगरीय और कस्बाई जीवन में युवाओं में परिवर्तन हुआ है , लेकिन लड़कियों के मामलों में यह परिवर्तन तभी तक स्वीकार्य है जब तक वह अपने मां-पिता के घर होती है । शादी के बाद उसके परिधान उसकी ससुराल वाले तय करते हैं (इस मामले में उच्च वर्ग में शायद कुछ छूट होती होगी ) । ससुराल वाले यदि बहुत उदार हुए तभी बहू अपनी मर्जी के कपड़े पहन सकती है, अन्यथा उसे पति-सास-ससुर की आंखों को प्रिय लगने वाले और आस-पास पड़ोस के लोंगो की नजरों में न चुभने वाले (जिससे ससुराल की नाक नीची न हो) कपड़े ही पहनने होते हैं ।
मुम्बई हाई कोर्ट ने 11 मई , 2010 को साड़ी पहनने को लेकर एक ऐतिहासिक फैसला दिया जो सोचने के लिए विवश करता है । यद्यपि माननीय जस्टिस ए.पी. देशपाण्डे और रेखा सोदंर्बल्दोता की खंडपीठ ने एक याचिकाकर्ता की याचिका पर सुनवाई करते समय निर्णय दिया कि ‘हिन्दू विवाह अधिनियम’ के तहत सास-ससुर के दबाव में घर में साड़ी पहनने को बर्बरता नहीं स्वीकार किया जा सकता । अर्थात् याचिकाकर्ता को सास-ससुर की इच्छा का सम्मान करते हुए घर में साड़ी ही पहननी चाहिए । माननीय जजों ने यह भी निर्णय दिया कि इस आधार पर पति के साथ याचिकाकर्ता का संबंध विच्छेद उचित नहीं होगा । हालांकि अपील में पति के विवाहेतर संबन्धों की बात भी कही गयी थी ।

मुम्बई हाई कोर्ट का फैसला इस बात को स्पष्ट करता है कि ‘हिन्दू विवाह अधिनियम’ किसी स्त्री को उसकी इच्छा के विरुद्ध कपड़े पहनने के लिए बाध्य करता है । यह अधिनियम देश की आजादी के पश्चात् 1955 में बना था । उन दिनों कथाकार यशपाल के ‘झूठा सच’ की कनक की भांति कामकाजी महिलाओं की संख्या नगण्य थी । आज जब न केवल पढ़ी-लिखी लड़कियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है, बल्कि हर क्षेत्र में उनकी भागीदारी पुरुषों से कम नहीं है तब भी क्या ‘हिन्दू विवाह अधिनियम’ के वही नियम लागू रहने चाहिए ?
माना कि साड़ी भारत की सांस्कृतिक पहचान है । उसे पहनकर एक स्त्री का सौंदर्य द्विगुणित हो जाता है , लेकिन सांस्कृतिक पहचान की रक्षा के लिए किसी नारी को उसे पहनने के लिए विवश होना पड़े , यह उचित नहीं । हर स्त्री अपने सौंदर्य और आवश्यकता के प्रति जागरूक होती है । लेकिन वह यह भी जानती है कि क्या पहनना उसके लिए सुविधाजनक है । एक महिला उच्च अधिकारी , राजनेत्री अथवा पूंजीपति महिलाओं के लिए साड़ी सुविधाजनक परिधान हो सकता है , क्योंकि उन्हें गाड़ी-ड्राइवर की सुविधा प्राप्त होती है , जबकि बस में यात्रा करने वाली, घर पहुंचकर किचन-घर संभालने वाली महिला के लिए सलवार-कुर्ता ही सुविधाजनक होगा । फिर पचपन वर्ष पुराने ‘हिन्दू विवाह अधिनियम’ में परिवर्तन की आवश्यकता क्यों अनुभव नहीं की गयी ?
परम्पराओं की लाश कंधे पर लटकाए घूमने का एक और भोंडा उदाहरण याद आ रहा है । एक राष्ट्रीय अंग्रेजी दैनिक ने लड़कियों में सर्वे कर उनके अनुभव प्रकाशित किए । अधिकांश एक या दूसरे कारण से वैवाहिक जीवन से दूर थीं । एक लड़की ने तब अपनी सगाई तोड़ दी जब उसे पता चला कि उसकी ससुराल में परम्परा है कि पहली रात लड़की को पति के पैर धोने होंगे , फिर साग्रह उसे पलंग तक हाथ पकड़कर ले जाना होगा । ये सब बातें क्या यह नहीं सिद्ध करतीं कि हम आज भी आज से दो सौ वर्ष पीछे जी रहे हैं । हमारा समाज यह स्वीकार करने को क्यों तैयार नहीं कि महिलाएं पुरुषों से कंधा से कंधा मिलाकर चल रही हैं और कितने ही ऐसे क्षेत्र हैं जहां वे पुरुषों से आगे हैं । यहां यह स्मरणीय है कि अलेक्षेन्द्र से लेकर अंग्रेजों तक युद्धों में हारने के अन्य जो भी कारण थे, लेकिन उनमें एक प्रमुख कारण भारतीय सैनिकों के परिधान भी थे ।

आजाद भारत में सभी को अपनी सुविधा के वस्त्र चयन की स्वतंत्रता और अधिकार होना चाहिए बशर्तें उसमें भोंडापन न हो । भोजन और कपड़ों पर प्रतिबंध से उपजी कुण्ठा परिवार और समाज के लिए घातक हो सकती है ।
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वातायन के इस अंक में प्रस्तुत हैं स्व. देवेन्द्र सत्यार्थी के जन्म दिन पर (विशेष) पंजाबी के युवा कवि तरसेम की कविता और पंजाबी कथाकार स्व. रामस्वरूप अणखी की कहानी (दोनो रचनाओं के अनुवाद - सुभाष नीरव) .
अंक पर आपकी प्रतिक्रिया की अपेक्षा रहेगी.
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कविता


पंजाबी कविता

[देवेन्द्र सत्यार्थी जी के जन्म दिवस (२८ मई २०१०) पर विशेष ]


कोट उदास है

-तरसेम

हिंदी रूपांतर : सुभाष नीरव

खूंटी पर टंगा कोट उदास है
कि मेरे अंदर का आदमी किधर गया
जिसके कंधों पर
मैं खस्ता हाल में भी था

मैंने तो उस आदमी के साथ
धरती के हर कोने को छुआ
हर आवाज़ को सुना
हर गीत को पहचाना
मैंने उसकी हँसी में भी नमी देखी है
मैं उसके संग
लाखों कोस पैदल चला हूँ
उसके हर सांस के साथ धड़का हूँ
वह धड़कन सरीखा व्यक्ति कहाँ गया ?
‘भदौड़’ की मिट्टी में खेलता
लाहौर की सड़कें नापता
किसी शरारती बच्चे की तरह
दिल्ली की बुक्कल में आ घुसा
जहाँ ग़ालिब भी चलता फिरता था
बावा1 भी यहाँ की तेज धूपों का शिकार हो गया
हरिभजन2 तो अभी राह में ही होगा
टगौर, बेदी, मंटो का प्यारा कहाँ गया ?

वह तो चलता-फिरता दरख़्त था
जो भी करीब आया, उसे छांव दी
स्वयं धूप में जला
कोहरे में ठिठुरा
दु:खों के मौजू उड़ाता
दाढ़ी वाला ॠषि कहाँ गया ?

सच, फ़कीर था वह तो
रिज़क कैसे बनता है
कहाँ जानता था वो
यह तो ‘लोकमाता’3 जानती थी
धुन का पक्का
लोक गीत खोजता-खोजता
लोक गीत ही बन गया
भला तुम ही बताओ
कभी लोक गीत भी मरा करते हैं…
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1-बावा बलवंत(पंजाबी कवि),
2-डा0 हरिभजन सिंह(प्रसिद्ध पंजाबी कवि)
3-सत्यार्थी जी की पत्नी जिसे लोग ‘लोकमाता’ कहकर बुलाया करते थे।
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जन्म : 21 जुलाई 1967, बरनाला(पंजाब)।

शिक्षा : एम.ए.(पंजाबी,हिंदी), बी.एड.

कृतियाँ : दो कविता संग्रह -'खुली अक्ख दा सुपना' और 'माया', बाल कहानी संग्रह-'हरी किश्ती' । इसके अतिरिक्त 'महाकवि संतोख सिंह : जीवन ते रचना', साक्षात्कार की दो पुस्तकें - 'मंथन' और 'रू-ब-रू', तीन संपादित पुस्तकें - 'सतरां दे रंग(कविता)', 'अदबी मुहांदरे(लेखकों के पैन स्कैच)', 'साहित सिरजणा और समीखिया(डा. सतिंदर सिंह नूर की मुलाकातें)'। लगभग दस पुस्तकों का हिंदी से पंजाबी व पंजाबी से हिंदी में अनुवाद।

संप्रति : अध्यापन।
संपर्क : बी-IV/814, दशमेश गली, गांधी आर्य हाई स्कूल के पास,
बरनाला-148101 (पंजाब)
फोन : 098159-76485
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वरिष्ठ कथाकार , कवि और अनुवादक सुभाष नीरव का जन्म २७ दिसम्बर, १९५३ को मुरादनगर, गाजियाबाद (तब मेरठ) में हुआ था.

* नीरव के अब तक दो कविता संग्रह, तीन कहानी संग्रह, लघुकथा संग्रह, बाल कहानी संग्रह सहित सात पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं.

** पंजाबी भाषा से अब तक पन्द्रह पुस्तकों का अनुवाद, जिनमें ’काला दौर’, ’कथा पंजाब-२’, ’पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं’, ’रेत’ (हरजीत अटवाल) और ’छांग्या रुक्ख’ ( वरिष्ठ पंजाबी कवि और पत्रकार बलबीर मधोपुरीI की आत्मकथा ) अधिक चर्चित. आलोचकों ने ’छांग्या रुक्ख’ को भारतीय भाषाओं में सर्वश्रेष्ठ दलित आत्मकथा माना है.
संप्रति :भारत सरकार के परिवहन मंत्रालय में अनुभाग अधिकारी.
ईमेल : subhashneerav@gmail.com
Mob. No. 09810534373

कहानी



पंजाबी कहानी

लोहे का गेट

राम सरूप अणखी

हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

और उस दिन लोहे का गेट बनकर पूरी तरह तैयार हो गया। मैंने सुख की साँस ली। चलो, आज तो लग ही जाएगा गेट। नहीं तो पिछले पंद्रह दिनों से घर का दरवाजा खुला पड़ा था। हालांकि दरवाजे के दोनों किनारों के बीच आदमी के कंधे बराबर ऊँची ईंटों की अस्थायी दीवार बना दी गई थी जिससे कोई ढोर-डंगर अन्दर नहीं आता था। गली में घूमते सुअर नहीं आते थे। फिर भी रात में कुत्ते दीवार फांद कर अन्दर आ जाते और आँगन में पड़े जूठे बर्तन चाटते घूमते। कुत्तों से अधिक मुझे चोर का डर सताता था। दीवार पर से कूद कर कोई अन्दर आ सकता था। इसीलिए मुझे रात को आँगन में सोना पड़ता। गरमी का महीना था, बेशुमार मच्छर थे। गेट बन्द हो तो अन्दर कमरे में बिजली के पंखे के नीचे आराम से सोया जा सकता था। कमरे में तो कूलर भी था। हर रोज़ मैं खीझता, ''यह कमबख्त लोहार गेट बनाकर देता क्यों नहीं ? जब भी जाओ, नया बहाना गढ़ देगा। गेट का फ्रेम बनाकर रख छोड़ा है।'' पूछो तो कहेगा-''बस, कल आपका ताला लगवा देंगे।'' इसी तरह कई कल बीत चुके थे। कोई और बहाना नहीं चलता तो पूछने लगता, ''गेट का डिजाइन कैसा रखना है ?'' मैं जलभुन जाता, ''बाबा जी, डिजाइन तो पहले दिन ही आपकी कॉपी पर नोट करा दिया था। अब दोबारा पूछने का क्या मतलब ? यह तो वही बात हुई कि किसी टेलर के पास इकरार वाले दिन अपनी कमीज़ लेने जाओ और वह पूछने लगे- कॉलर कैसे बनाने हैं ? बटन कितने लगाएँ ? जेबें दो या एक ?''
असल बात यह थी कि वे आसपास के गाँवों से आने वाले लोगों का काम करके दिए जा रहे थे और मैं अपने गाँव का ही था। मुझे किधर जाना था। मेरा काम तो कभी भी करके दे सकते थे। मेरी तो उनसे कुछ जान-पहचान भी थी। दूसरा कोई होता तो कह देता -''नहीं बनाकर देना गेट तो ना बनाओ, मैं कहीं और से बनवा लेता हूँ।'' लेकिन उनके सामने मेरी आँखों की शर्म मुझे रोके थी। और फिर गेट का फ्रेम बनाकर सामने रखा पड़ा था।
बूढ़ा बाबा एक कुर्सी लेकर सामने बैठा रहता, काम तो चार अन्य आदमी किया करते थे। इनमें से एक अधेड़ उम्र का था और तीन जवान थे। वे महीने की तनख्वाह लेते थे। बाबा का बेटा भी था। वह ऊपर के काम के लिए स्कूटर लेकर शहर में घूमता रहता। वर्कशाप में लोहे के गेट और खिड़कियों की ग्रिलें बनतीं। बेटा ग्राहक के घर जाकर गेट और खिडक़ी का नाप लेता। फिर बाज़ार से लोहा खरीद कर लाता। कभी-कभार किसी बड़े शहर में भी चला जाता।
जवान मिस्त्रियों में सबसे छोटा था- चरनी। सब उससे मजाक किया करते। बाबा उसे झिड़की भी देता, पर वह हँसता रहता। वह किसी बात पर गुस्सा नहीं करता था। बूढ़ा बाबा ज्यादा तो उस पर तब खीझता जब वह बातें करते वक्त अपने हाथ में लिया हुआ काम छोड़कर बैठ जाता।
कोई ग्राहक गेट बनवाने की खातिर पूछने आता तो बाबा सवाल करता, ''कितना चौड़ा, कितना ऊँचा ?'' या फिर ,''मकान यहीं है या पास के किसी गाँव में ?''
ऐसे समय, चरनी सिर उठाकर ग्राहक की ओर देखने लग जाता और सवाल कर बैठता, ''कितने कमरे हैं मकान के ?''
बाबा टूट कर पड़ता, ''ओए, तूने क्या कमरों से छिक्कू लेना है ? हमें तो गेट तक मतलब है, कमरों तक जाकर क्या करना है तुझे ?''
या कोई आता और मकान बता कर खिड़कियों की बात करता तो चरनी का सवाल होता- ''मकान पर कितने हजार खर्च आ गया ?''
''ओए, तुम अपना काम करो...'' बाबा खीझ उठता। दूसरे मिस्त्री छिपकर मंद मंद हँसते। बाबा पर भी और चरनी पर भी।
अधेड़ उम्र के मिस्त्री कुंढा सिंह को जब कभी चरनी को कोई काम समझाना होता तो वह उसे 'जंडू साहब' कहकर बुलाता। कभी कहता, ''मिस्त्री गुरचरन सिंह जी...।'' कभी खीझ रहा होता तो बोलता, ''पत्ती कसकर पकड़ ओए जुंडल। साले के मारूँगा एक चांटा।''
गेट आठ फीट चौड़ा था, सात फीट ऊँचा। पाँच फीट चौड़ा दायाँ पल्ला था और तीन फीट का बायाँ पल्ला। पाँच फीट वाले पल्ले पर मैंने कहकर लोहे की एक प्लेट अलग से लगवाई थी ताकि उस पर अपना नाम लिखवाया जा सके। यह बड़ा वाला पल्ला आमतौर पर बन्द ही रहना था। घर के दरवाजे पर नेम-प्लेट तो ज़रूर होनी चाहिए, नहीं तो नये आदमी के लिए शहर में मकान ढूँढ़ना बहुत मुश्किल हो जाता है। यह नेम प्लेट दो पेचों की मदद से पल्ले पर कसी हुई थी। पेच निकाल कर अकेली प्लेट को मुझे पेंटर के पास ले जाना था और उस पर अपना नाम लिखवाकर प्लेट को पुन: गेट पर पेंच कसकर फिट कर देना था।
गेट को लगाने दो मिस्त्री आए थे। कुंढा सिंह और चरनी। आधा घंटा वे दोनों पल्लों को ऊपर-नीचे और इधर-उधर करते रहे। जब सबकुछ ठीक हो गया तो मेरी घरवाली दुकान पर लड्डू लेने चली गई। मकान की सूरत तो गेट लगने पर ही बनी थी। गेट था भी बहुत भारी और देखने में सुन्दर भी था। गेट ने तो मकान को कोठी यानी बंगला बना दिया था। घर में खुशी थी, लड्डू तो जरूरी थे। लड्डुओं के इंतज़ार में हम तीनों दो चारपाइयाँ बिछाकर बैठ गए। मेरे बच्चे इधर-उधर नाच-उछल रहे थे। वे स्कूल से लौटे थे और गेट की खुशी में अपने बस्ते उन्होंने आँगन में ही फेंक दिए थे। कुंढा सिंह चरनी से छोटे-छोटे मजाक कर रहा था। उसके मजाक मोह-प्यार के हल्के अंश भी लिए थे।
चरनी इधर-उधर कमरों की ओर देख रहा था। आँखों ही आँखों में वह कुछ देख-परख कर रहा था। उसका ध्यान कुंढा सिंह की तरफ नहीं था। एकाएक उसने पूछ ही लिया, ''कब बनाया था यह मकान ?''
''इसे बने तो दस साल हो गए गुरचरन सिंह, बस तुम्हारे हाथों गेट ही लगना था।'' मानो मैं भी उससे मीठा मजाक कर बैठा था।
''कमरे तीन हैं क्या ?'' इधर उधर गर्दन घुमाकर उसने पूछा।
''हाँ तीन कमरे हैं। यह बरामदा, बाथरूम, स्टोर और किचन। स्कूटर रखने को शेड, ये भी सब गिन लो।''
''मकान इतना तो होना ही चाहिए।'' चरनी ने कहा।
कुंढा सिंह फिर मुस्कराया, मूंछो में। बोला- ''असल में जी क्या है, जंडू साहब ने खुद भी बनाना है अब एक मकान।''
उसकी बात पर चरनी की आँखों में जैसे एकाएक रोशनी के दीपक जल उठे हों। उसके चेहरे पर एक उमंग और भरी-पूरी हसरत थी।
''अच्छा, पहले क्या कोई मकान नहीं है ?'' हैरानी में मैंने पूछा।
''पहले कहाँ जी, वहीं बैठा है यह बेचारा, खोले में।''
''क्यों, ऐसा क्यों ?''
चरनी खुद बताने लग पड़ा, ''हमारा घर जी कभी यहाँ सबसे ऊपर हुआ करता था, अब सब नीचे लगे बैठे हैं। मैं अकेला हूँ, बस एक मेरी माँ है। हमारे यहाँ भी इसी तरह मिस्त्री रखे हुए थे।''
उसकी बात को बीच में काट कर कुंढा सिंह बताने लगा, ''इसका बाप, भाई साहब, क्या मिस्त्री था ! वह लोहे के हल बनाया करता था! उन दिनों लोहे का हल नया-नया ही चला था। ट्रैक्टर तो किसी-किसी के घर में होता। अब वाली बात नहीं थी। लकड़ी का हल था, पर चऊ की जगह लोहे का ही सारा ढांचा फिट कर दिया था इसके बाप ने। टूट पड़े गाँवों के गाँव। बस, यह देख लो, एक दिन में बीस हल चल जाते, तीस भी और किसी-किसी दिन तो पचास हल बेच लेता था इसका बाप। इनके यहाँ मैं भी मिस्त्री रहा हूँ। मैंने अपनी आँखों से सब देखा है। बहुत कमाई की इसके बाप ने। पर जी, सब बर्बाद हो गया।''
''क्यों, वह कैसे ?''
''शराब पीने की आदत पड़ गई थी जी उसे।'' कुंढा सिंह ने ही बताया।
''अच्छा ।''
''शराब पीने का भी ढंग होता है भाई साहब। पर वह तो तड़के ही शुरू हो जाता। दिन में भी, शाम को भी, काम की तरफ उसका ध्यान कम हो गया। और फिर माल पूरा तैयार नहीं हो पाता था। दूसरे मिस्त्रियों ने भी यही काम शुरू कर दिया।''
''फिर ?''
''फिर जी, समय ही बदल गया। ट्रैक्टर बढ़ने लगे। लोहे के हलों की मांग कम हो गई। इसके बाप का काम तो समझो, बन्द ही हो गया। लेकिन उसकी शराब उसी तरह जारी थी। मरे बन्दे की बुराई नहीं करनी चाहिए लेकिन उसने भाई साहब, घर में तिनका भी नहीं छोड़ा। औजार तक बेच दिए। चरनी की माँ चरनी को लेकर मायके जा बैठी। चार-पाँच बरस का था यह बस।''
चरनी मेरे लड़के के बस्ते में से एक स्लेटी लेकर आँगन के फर्श पर हल की तस्वीर बनाने लगा था। तभी मेरी घरवाली लड्डुओं का लिफाफा लेकर आ गई। हमारी बातें वहीं रह गईं। हमें दो-दो लड्डू देकर उसने एक एक लड्डू बच्चों को दिया और फिर पड़ोस के घरों में बांटने चली गई।
दोनों मिस्त्रियों ने अपने औजार उठाये और मुझे 'सत्श्री अकाल' कहकर चले गए।
कुछ देर मैं आँगन में बैठा रहा। फिर बाहर निकलकर गली में जा खड़ा हुआ यह देखने के लिए कि बाहर से लोहे का गेट कैसा लगता है।
मैंने देखा, गेट की नेम-प्लेट पर स्लेटी से लिख हुआ था - ''गुरबचन सिंह जंडू।''
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जन्म : 28 अगस्त 1932, निधन : 14 फरवरी 2010
तीन सौ से अधिक कहानियों और अनेक उपन्यासों के रचयिता राम सरूप अणखी जितना पंजाबी भाषा में अपने लेखन के लिए जाने जाते हैं, उससे कहीं अधिक हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं में अनूदित होकर लोकप्रिय हैं। इनके उपन्यास “कोठे खड़क सिंह” वर्ष 1987 का साहित्य अकादमी पुरस्कार। कई वर्षों तक “कहाणी पंजाब” (त्रैमासिक) पत्रिका का संचालन/संपादन।

गुरुवार, 6 मई 2010

वातायन-मई,२०१०


वातायन के इस अंक में प्रस्तुत है ’हम और हमारा समय’ के अंतर्गत वरिष्ठ लेखक, पत्रकार और अंतराष्ट्रीय मामलों के कूटिनीति विशेषज्ञ डॉ० वेदप्रताप वैदिक का आलेख - ’काश, यह भारत ने किया होता’, वरिष्ठ कवि भगवत रावत की तीन कविताएं, क्रान्ति दिवस (१० मई) पर मेरा आलेख - ’तीसरी आजादी की लड़ाई’, वरिष्ठ कथाकार-पत्रकार बलराम की कहानी - ’गोवा में तुम’ और वरिष्ठ कथाकार बद्री सिंह भाटिया की कहानी - ’घुग्घू’.
आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी.
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हम और हमारा समय
मुद्दा
काश, यही काम भारत करता !
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कई बार मैं सोचता हूं कि क्या दुनिया में ईरान जैसा भी कोई देश है ? इतना निडर, इतना निष्पक्ष और इतना सच बोलनेवाला देश ईरान के अलावा कौनसा है ? किसी ज़माने में माना जाता था कि गांधी और नेहरू का भारत निष्पक्ष है, निडर है और सत्यनिष्ठ है इस मान्यता के बावजूद जवाहरलाल नेहरू की नीतियां किस मुद्दे पर कितनी लोच खा जाती थीं, यह अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विद्यार्थी भली-भांति जानते हैं लेकिन ईरान में जबसे इस्लामी क्रांति हुई है, ईरान ने अंतरराष्ट्रीय राजनीति में बहादुरी का नया रेकार्ड कायम किया है इस्लामी क्रांति के पिता आयतुल्लाह खुमैनी कहा करते थे कि अमेरिका बड़ा शैतान है और रूस छोटा शैतान है हम दोनों शैतानों से अलग रहना चाहते हैं एक अर्थ में ईरान ने दुनिया को बताया कि सच्ची निर्गुटता क्या होती है अब जबकि गुट खत्म हो गए हैं, ईरान अकेला देश है, जो विश्व अंत:करण की आवाज़ बन गया है काश कि यह काम भारत करता ! ईरान ने सारे परमाणु शस्त्र को खत्म करने का शंखनाद कर दिया है
ईरान की हिम्मत देखिए कि उसने तेहरान में परमाणु निरस्त्रीकरण सम्मेलन कर डाला अभी ओबामा के वाशिंगटन-सम्मेलन की स्याही सूखी भी न थी कि तेहरान ने वही मुद्दा उठाया और नारा लगाया कि परमाणु ऊर्जा सबको और परमाणु हथियार किसी को नहीं जैसा सम्मेलन अमेरिका ने किया, वैसा ही ईरान ने भी कर दिया लेकिन ईरान के सम्मेलन में 60 देश पहुंचे जबकि अमेरिका में 47 ! यह ठीक है कि वाशिंगटन में राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों की भीड़ थी और तेहरान में ज्यादातर विदेश मंत्री और अफसरगण थे लेकिन तेहरान के भाषणों और प्रस्ताव पर गौर करें तो हम चकित रह जाते हैं
वाशिंगटन सम्मेलन की मूल चिंता ईरान थी और तेहरान सम्मेलन की अमेरिका ये दोनों सम्मेलन एक-दूसरे के विरूद्घ थे अमेरिका ने ईरान को नहीं बुलाया लेकिन ईरान ने अमेरिका को बुलाया ईरानी सम्मेलन में अमेरिका शामिल हुआ अन्य परमाणु महाशक्तियों के प्रतिनिधि भी आए भारत और पाकिस्तान के प्रतिनिधि भी ! ईरान को अमेरिका ने इसलिए नहीं बुलाया कि वह सम्मेलन परमाणु प्रसार के खिलाफ था और ईरान के बारे में अमेरिका को गहरा शक है कि वह परमाणु हथियार बना रहा है अमेरिकी सम्मेलन का दूसरा प्रमुख लक्ष्य परमाणु हथियारों को आतंकवादियों के हाथों में जाने से रोकना था इन दोनों लक्ष्यों का उल्लंघन करनेवाला पाकिस्तान वाशिंगटन में बुलबुल की तरह चहक रहा था उसके प्रधानमंत्री ने अपने देश की कारस्तानियों के लिए क्षमा मांगने की बजाय परमाणु-सुरक्षा के बारे में तरह-तरह के उपदेश झाड़े ओबामा उनसे अलग से मिले भी ! अमेरिकी सम्मेलन में अनेक मीठी-मीठी बातें कही गईं दुनिया को परमाणु-शस्त्र् रहित बनाने की बातें भी कही गईं लेकिन किसी भी परमाणु-शक्ति ने यह नहीं बताया कि वे अपने शस्त्र्-भंडार में कहां तक कटौती कर रहे हैं यह ठीक है कि अमेरिका और रूस ने आठ अप्रैल को चेक राजधानी प्राहा में एक संधि पर दस्तखत किए, जिसके तहत वे अपने परमाणु-शस्त्र में 30 प्रतिशत की कटौती करेंगे लेकिन जो शेष 70 प्रतिशत शस्त्र् हैं, वे इस समूची दुनिया का समूल नाश कई बार करने में समर्थ हैं यह भी सराहनीय है कि कुछ राष्ट्रों ने अपने-अपने परमाणु-ईंधन के भंडारों को घटाने का भी वादा किया है लेकिन अमेरिका में आयोजित यह विश्व सम्मेलन कुछ इस अदा से संपन्न हुआ कि मानो कुछ बड़े पहलवान अपनी चर्बी घटाने के नाम पर अपने बाल कटवाने को तैयार हो गए हों
ऐसा लगता है कि ओबामा ने यह सम्मेलन अपनी चौपड़ बिछाने के लिए आयोजित किया था हमले की चौपड़ ! ईरान पर हमला करने के पहले वे शायद विश्व जनमत को अपने पक्ष में करने की जुगत भिड़ा रहे हैं वे नहीं जानते कि वे क्लिंटन और बुश से भी ज्यादा दुर्गति को प्राप्त होंगे ईरान इराक नहीं है क्या वे भूल गए कि राष्ट्रपति जिमी कार्टर को ईरान ने कितना कड़ा सबक सिखाया था ? दुनिया के देश ईरान पर हमले का घोर विरोध तो करेंगे ही, वे उस पर कठोर प्रतिबंध लगाने के भी विरूद्घ हैं भारत, रूस, चीन, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका जैसे महत्वपूर्ण राष्ट्रों ने प्रतिबंधों का तीव्र विरोध किया है भारत और रूस चाहते हैं कि ईरान परमाणु अप्रसार संधि का उल्लंघन नहीं करे लेकिन अगर अमेरिका इन दोनों राष्ट्रों पर दबाव डालेगा तो उसे निराशा ही हाथ लगेगी ईरान ऐसा राष्ट्र नहीं है कि जिसे कोई ब्लेकमेल कर सके अमेरिका की खातिर भारत और रूस ईरान को क्यों दबाएंगें? ईरान को दबाया नहीं जा सकता उसे समझाया जा सकता है
ईरान कैसा राष्ट्र है, इसका अंदाज़ सर्वोच्च नेता आयतुल्लाह अली खामेनई, राष्ट्रपति अहमदीनिजाद और विदेश मंत्र्ी मुत्तकी के भाषणों से ही हो जाना चाहिए इन नेताओं ने अमेरिका को दुनिया का सबसे बड़ा दुश्मन घोषित किया है खामेनई ने पूछा है कि मानव जाति के इतिहास में परमाणु बम-जैसा पापपूर्ण हथियार सबसे पहले किसने बनाया और किसने उसे चलाया ? अमेरिका ने ! इस्लाम के मुताबिक यह 'हराम' है ऐसा काम करनेवाले देश को विश्व के सभ्य समाज से निकाल बाहर क्यों नहीं किया जाए ? ऐसा धांसू बयान तो निकिता ख्रुश्चेव ने महासभा में जूता बजाते समय भी नहीं दिया था
अहमदीनिजाद ने मांग की है कि सुरक्षा परिषद में पांचों महाशक्तियों को वीटो से वंचित किया जाए या अन्य महत्वपूर्ण देशों को भी यह अधिकार दिया जाए अमेरिका को क्या अधिकार है कि वह जून में परमाणु-अप्रसार सम्मेलन बुलवाए ? जिस देश ने परमाणु प्रसार में सबसे कुटिल भूमिका अदा की, जिसने इस्राइल जैसे देश को गुपचुप मदद की, वह राष्ट्र अंतरराष्ट्रीय परमाणु उर्जा एजेंसी का सदस्य रहने के काबिल नहीं है विदेश मंत्री मुत्तकी ने मांग की है कि कुछ ईमानदार राष्ट्र मिलकर परमाणु अप्रसार संधि के प्रावधान चार और छह को लागू करवाने पर ज़ोर दें ताकि हम सचमुच परमाणु शस्त्र्रहित विश्व का निर्माण कर सकें
वास्तव में 40 साल पहले संपन्न हुई यह संधि घोर सामंती है भारत इसका सदस्य नहीं बना लेकिन उसने इसका कड़ा विरोध भी नहीं किया यह परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्रों को हथियार बढ़ाने की पूरी छूट देती है लेकिन परमाणु शक्ति रहित राष्ट्रों का गला घोंट देती है ईरान की कमजोरी यह है कि उसने इस संधि पर उस समय दस्तखत कर दिए थे और अब वह इसका विरोध कर रहा है इस मामले में भारत का पक्ष कहीं अधिक मजबूत है वास्तव में भारत को चाहिए था कि परमाणु शक्ति बनते ही वह परमाणु विश्व-निरस्त्रीकरण का शंखनाद करता 1959 में नेहरू ने जिस पूर्ण और व्यापक निरस्त्रीकरण की बात महासभा में कहीं थी, उसे अमली जामा पहलाने का सही वक्त यही है जो झंडा आज ईरान उठाए हुआ है, वह आज भारत के हाथ में होता तो बात ही कुछ और होती !
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कविता


भगवत रावत की तीन कविताएं
(१)
नया साल
कितना अच्छा रहा कि पिछले पूरे एक वर्ष में
आपको कभी किसी बात पर क्रोध नहीं आया
कितना अच्छा हुआ कि किसी भी घटना से
आया नहीं आपके रक्त में रत्ती भर उबाल
कितना अच्छा रहा कि आप समयानुकूल
बुरी से बुरी ख़बर पर भी उत्तेजित नहीं हुए
कितना अच्छा रहा कि इस वर्ष भी आपके मन में
उठा नहीं कोई उल्टा-सीधा सवाल,
कितना अच्छा रहा कि आप कहीं फंसे नहीं
बुद्धिमानी से काटे आपने अपने सारे जाल
कितना अच्छा रहा कि सरकारी ख़र्चे पर आप भी हो आये विदेश
वेतन के अलावा भी निरन्तर बढ़ी आपकी आय
पिछले वर्ष की ही तरह आप फले-फूले इस बरस भी
इसी तरह आपको मुबारक हो नया साल
रहें सदा आप इसी तरह, झंझटों-टण्टों से दूर
दूर से ही भांपते रहें, क़रीब आने वाले की चाल
समझदारी से का़यदे-कानूनों के भीतर सब काम करें
आने नहीं दें अपने ऊपर कोई आंच, उठने नहीं दें कोई बवाल
सरकारें आयें-जायें, बवण्डर उठें, आते रहें भूचाल
आप खड़े रहें वहीं धैर्य से अविचलित
इस वर्ष भी रहें आप सदा की तरह निर्लिप्त-निर्विकार
पिछले वर्ष से भी अधिक मंगलमय हो आपका यह वर्ष.
(२)
मेधा पाटकर
करुणा और मनुष्यता की ज़मीन के
जिस टुकड़े पर तुम अपने पांव जमाये
खड़ी हुई हो अविचलित
वह तो कब का डूब में आ चुका
मेधा पाटकर
रंगे सियारों की प्रचलित पुरानी कहानी में
कभी न कभी वह पकड़ा ज़रूर जाता था
अब बदली हुई पटकथा में
उसी की होती है जीत, उसी का जय-जयकार
मेधा पाटकर
जीवन देकर भी तुम जिसे बचाना चाहती हो
तुम भी तो जानती हो कि वह न्याय
कब दोमुंही भाषा की बलि चढ़ चुका
मेधा पाटकर
हमने देखे हैं जश्न मनाते अपराधी चेहरे
देखा है उन्हें अपनी क्रूरता पर गर्व से खिलखिलाते
पर हार की कगार पर
एक और लड़ाई लड़ने की उम्मीद से
’बुद्ध’ की तरह मुस्कुरते सिर्फ़ तुम्हें देखा है
मेधा पाटकर
तुम्हारे तप का मज़ाक उड़ाने वाले
आदमखोर चेहरों से अश्लीलता की बू आती है
तुम देखना, उन्हें तो
नर्मदा भी माफ़ नहीं
मेधा पाटकर
सारी दुनिया को गांव बनाने की फ़िराक़ में
बड़ी-बड़ी कम्पनियां न जाने कब से
तुम्हें शो-केस में सजाकर रखने के लिए
मुंह बाये बैठी हैं इन्तज़ार में
कुछ उनकी भी सुनो
मेधा पाटकर
खोखले साबित हुए हमारे सारे शब्द
झूठी निकली प्रतिबद्धताएं
तमाशबीनों की तरह दूर खड़े-खड़े
गाते रहे हम दुनिया बदलने के नक़ली गीत
हम सबके
सर झुके हुए हैं
मेधा पाटकर
(३)
शायद वह एक कवि था
उस आदमी के बारे में कहीं कोई
दस्तावेज़ नहीं मिलेगा
इतिहास हमेशा की तरह चुप रहेगा
सौ साल बाद हो सकता है शायद कभी
कोई बूढ़ा खरोंचता हुआ अपना दिमाग़
बताए उस अजूबे के बारे में
किसी को
कि उसके बचपन के ज़माने में
एक अध्यापक था जो भाषा पढ़ाता था
साहित्य और समाज जैसे विषयों में
उसकी गहरी रुचि थी
इसलिए उस ज़माने में भी वह
अज्ञानी और मूर्ख
कहलाता था
उसकी कई और कठिनाइयां थीं
जैसे यही कि वह अपने समय में
हिन्दुओं में मुसलमान और मुसलमानों के बीच
हिन्दू समझा जाता था
उसकी परेशानी यह भी थी कि वह
एक ही जाति में रहने को विवश था
अपने ही देश के कुछ मुहल्लों में
सिमट कर रहने को विवश था
अपने ही देश में दब-छिपकर
रहने को विवश था
वह जीवन भर किसी ऎसी जगह की
तलाश में रहा जहां वह
जैसा है वैसा ही रह सके
जैसा वह चाहे वैसा हो सके
हालांकि उसका देश आज़ाद था
और देश में लोकतन्त्र बहाल था
पर पूरे देश में उसके लिए
कहीं कोई जगह नहीं थी
उसके मां और बाप की एक जाति थी
एक धर्म था
एक भाषा थी
और उसे एक नाम दिया गया था
इन सबका होते हुए भी वह
इन सबके बाहर भी रहना चाहता था
वह इन सबसे बाहर रहते हुए भी सबके
भीतर तक जाना चाहता था
लोग कहते हैं उसकी अक़्ल मारी गयी थी
इसीलिए वह भटकता रहा दर-ब-दर जीवन भर
पर उसे कहीं रहने को जगह नहीं मिली
जहां-जहां उसने रहने की कोशिश की
वहीं-वहीं उसे बेरहमी से मारा गया
पूरे देश में कोई ऎसा शहर नहीं बचा
जहां उसकी हत्या नहीं हुई
पर किसी ने उसे शहीद नहीं कहा
किसी भी जगह उसका कोई स्मारक नहीं बना
वह हिन्दू नहीं था
लेकिन हर बार उसे हिन्दुओं की तरह जलाया गया
वह मुसलमान नहीं था लेकिन हर बार उसे
मुसलमानों की तरह दफ़नाया गया
वह ईसाई नहीं था उसे हर बार चर्च तक ले जाया गया
वह सिक्ख भी नहीं था
पर हर बार उसे गुरुद्वारा दिखाया गया
वह एक अध्यापक था
और अपनी अंतिम यात्रा में
किसी स्कूल तक जाना चाहता था
शायद वह एक कवि था
और एक कवि की तरह चुपचाप मरना चाहता था.
*****
जन्म : 13 सितम्बर 1939, जिला–टीकमगढ़, मध्यप्रदेश।
शिक्षा : एम.ए. बी.एड।1983 से 1994 तक.
* हिन्दी के रीडर पद पर कार्य के बाद दो वर्ष तक ‘मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी’ के संचालक। 1998 से 2001 तक क्षेत्रीय शिक्षा संस्थान, भोपाल में हिन्दी के प्रोफेसर तथा समाज विज्ञान और मानिविकी शिक्षा विभाग के अध्यक्ष।
**साहित्य अकादमी, मध्यप्रदेश परिषद् के निदेशक रहे एवं मासिक पत्रिका ‘साक्षात्कार’ का संपादन किया।
प्रकाशित कृतियाँ : कविता संग्रह – समुद्र के बारे में(1977), दी हुई दुनिया(1981), हुआ कुछ इस तरह(1988), सुनो हिरामन(1992), सच पूछो तो(1996), बिथ-कथा(1997), हमने उनके घर देखे(2001), ऐसी कैसी नींद(2004), निर्वाचित कविताएं(2004)। आलोचना– कविता का दूसरा पाठ(1993)। मराठी, बंगला, उडि़या, कन्नड़, मलयालम, अंग्रेजी तथा जर्मन भाषाओं में कविताएं अनूदित।
सम्मान : दुष्यंत कुमार पुरस्कार(1979), वागीश्वरी पुरस्कार(1989), शिखर सम्मान(1997–98)
सम्पर्क : 129, आराधना नगर, भोपाल–462 003
फोन : 0755–2773945
मोबाइल : ०९८२६६१४३९२

आलेख


क्रान्तिदिवस (10 मई ) के अवसर पर

आजादी की तीसरी लड़ाई
रूपसिंह चन्देल
10 मई ,1857 को ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ एक क्रांतिकारी जंग प्रारंभ हुई, जिसकी लपटों में लाखों भारतीयों ने अपनी कुर्बानी दी । अंग्रेजों ने इसे गदर कहकर उसके महत्व को कमकर सिद्ध करने का प्रयत्न किया तो अंग्रजीपरस्त भारतीय इतिहासकारों ने उसे राज-विद्रोह कहा -- अर्थात् वह कुछ राजाओं, जमींदारों और जागीरदारों द्वारा अपने अधिकारों के लिए अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध किया गया विद्रोह मात्र था । किसी ही इतिहासकार ने उसे जनक्रान्ति कहा । आश्चर्य होता है जब आज भी कुछ लेखक उसके लिए ‘गदर’ या ‘विद्रोह’ शब्द प्रयोग करते हैं , जबकि वास्तविकता यह थी कि वह एक जनक्रान्ति थी , जिसमें राजाओं , जमींदारों, जागीरदारों के सैनिकों के साथ ब्रिटिश सेना में नियुक्त सैनिकों ने जितने उत्साह से भाग लिया था उससे कम सक्रियता या उत्साह जनता में नहीं था । यदि वह जनक्रान्ति नहीं थी तो अंग्रेज सेनापतियों ने बर्बरता का प्रदर्शन करते हुए ग्रामीणों को पेड़ों से लटकाकर फांसी क्यों दी थी या उन्हें तोपों के मुंह से बांधकर गोलों से मौत के घाट क्यों उतारा था ! ऐसा उन्हें केवल इसलिए करना पड़ा , क्योंकि क्रान्तिकारी सैनिकों के साथ उन्हें किसानों /ग्रामीणों का विरोध/प्रतिरोध झेलना पड़ रहा था ।
क्रान्ति का एक दृश्य
नाना साहब के हाथों कानपुर के पतन की सूचना मिलने पर जनरल हैवलाक ने , जो उन दिनों इलाहाबाद में था , एक बड़ी सेना के साथ कानपुर के लिए प्रस्थान किया था । उसकी सेना में पर्याप्त सिख सैनिक थे जिनका दुरुपयोग उसने ग्रामीणों को दण्डित करने के लिए किया । इतिहास में यही एक मात्र ऐसा उदाहरण हमें मिलता है जब अपने विलासी राजाओं के निर्देश पर सिखों ने अंग्रेजों का साथ दिया था ।
हैवलाक इलाहाबाद से शेरशाह शूर मार्ग ( जिसे अंग्रेजों ने बाद में ग्राण्ड ट्रंक रोड (जी.टी. रोड) नाम दिया और शेरशाह शूर द्वारा कलकत्ता से पेशावर तक बनवाया गया यह मार्ग इतिहास के पन्नों में दर्ज होकर रह गया ) कानपुर के लिए चला और मार्ग के दोनों ओर पड़ने वाले गांवों में उसने जो विनाश लीला रची उससे शायद बर्बरता भी शर्मसार हुई होगी ।
उसने बच्चों,बूढ़ों,जवानों -- जो भी पुरुष पकड़ में आए उन्हें मार्ग के दोनों ओर खड़े पेड़ों से फांसी पर लटका दिया था । बीच-बीच में उसे उनके जिस प्रतिरोध का सामना करना पड़ा था उसे रोकने और उनमें आतंक पैदा करने के लिए उसे यह करना ही था । महिलाओं के साथ खुले खेतों में बलात्कार किया गया । विरोध करने वाली महिलाओं के साथ बलात्कार के बाद उनके गुप्तांगों में संगीनें घोंप उनकी हत्या भी उन्होंने की । इस बर्बर सेनापति ने गांवों में ताण्डव के लिए सैनिकों को खुली छूट दे दी थी । केवल हैवलाक ही ऐसा कर रहा था ऐसा नहीं - - जहां - जहां क्रान्ति की ज्वाला प्रज्वलित थी अंग्रेजों ने वहां यही किया था । कहते हैं बाद में हफ्तों लाशें पेड़ों से लटकी रही थीं। जिन्होंने हॉवर्ड फास्ट का ‘स्पार्टकस’ पढ़ा होगा उन्हें सूली पर लटकाए गए गुलामों के विवरण याद होंगे ।
अतः ये तथ्य यह बताते हैं कि वह जनक्रान्ति ही थी । जनता अंग्रेजों से इतना त्रस्त थी कि अपने राजाओं के आह्वान पर उसे उठ खड़े होने में ही अपनी मुक्ति दिखी होगी । अंग्रेजों ने किसानों का रक्त चूसने के लिए इतने बिचौलिए पैदा कर दिए थे , जिनके कारण आए दिन किसानों की जर, जोरू और जमीन दांव पर लगे रहते थे । जंग में राजा के साथ से उन बिचौलियों से मुक्ति का मार्ग भी उन्हें दिख रहा था ।
गांव के किसानों की भांति शहरों में भी आम-जन अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ रहा था । कानपुर की अजीजन बाई और उसकी सहेलियां युद्ध के दौरान न केवल क्रान्तिकारी सैनिकों में मेवा बांट रही थीं.... जल पहुंचा रही थीं ,बल्कि हाथ में तलवार लहराती क्रान्तिकारियों का उत्साहवर्धन भी कर रही थीं और सामने पड़ने वाले अंग्रेज की गर्दन भी नाप रही थीं । अजीजन वेश्या थी और उसके घर में क्रान्तिकारियों की गुप्त बैठकें होती थीं,जिनमें अजीमुल्ला खां, शमस्सुद्दीन , टीकासिंह जैसे योद्धा और रणनीतिकार भाग लेते थे ।
यहां यह बताना आवश्यक है कि 1857 की जनक्रान्ति का सारा श्रेय अजीमुल्ला खां को था , इतिहासकारों ने जिसकी घोर उपेक्षा की है । शायद इसलिए कि वह एक मुसलमान थे ।
‘1857 का प्रथम स्वातंत्र्य समर’ में विनायक दामोदर सावरकर ने स्पष्ट लिखा है कि ‘‘यदि अजीमुल्ला खां नहीं होते तब वह क्रान्ति नहीं हुई होती ।’’
सावरकर ने यह पुस्तक तब लिखी थी जब वह मात्र बाईस वर्ष के थे । बाद में वह कट्टर हिन्दूवादी हो गए थे।यदि बाद में उन्होंने यह पुस्तक लिखी होती तब वह निष्पक्ष रहे होते या नहीं कहना कठिन है ।
लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि जिनकी कुर्बानियों के कारण आज हम स्वतंत्र देश में सांस ले रहे हैं .... शासन ने उन्हें भुला दिया । कृतघ्न उत्तर प्रदेश सरकारों ने (कांग्रेस से लेकर बसपा तक ) इन वीरों के एक भी वास्तविक बुत नहीं लगवाए । हैवलाक ने कानपुर जीतने के बाद नाना के राज्य बिठूर की ओर प्रस्थान किया था । (कानपुर से 25 कि.मी. दूर) । उसने नाना की हवेली को तोपों से जमींदोज करवा दिया था । इससे भी जब उसकी आत्मा को शांति नहीं मिली , उसने हवेली की जगह हल चलवा दिया । हवेली के नाम पर दीवार का एक खण्डहर टुकड़ा वहां खड़ा है । अपनी , कांशीराम और अपने चुनाव चिन्ह हाथी की मूर्तिंयां गढ़वाने और उन्हें स्थापित करवाने में आम जनता की गाढ़ी कमाई के हजारों करोड़ रुपए खर्च करने वाली मायावती का ध्यान इस ओर क्यों नहीं गया ? बिठूर में नाना की हवेली की जगह कोई म्यूजियम क्यों नहीं बनाया जा सका , जहां 1857 संबन्धी समस्त चीजें सुरक्षित,संरंक्षित और उपलब्ध होतीं ।
ऐसी दुखद स्थितियों में मुझे कानपुर के क्रान्तिकारी हलधर बाजपेई के वे शब्द याद आ रहे हे हैं जो वह अपने मित्रों से कहा करते थे , ‘‘हम आजाद हैं कहां ! देश को अभी तीसरी आजादी की लड़ाई लड़नी होगी ।’’ वास्तव में--- हम यानी आम आदमी आजाद कहां है. आजादी केवल दस प्रतिशत लोगों के हाथों कैद है. करोड़ों लोग गरीबी रेखा के नीचे जी रहे हैं. दरअसल यह आजादी मात्र सत्ता का हस्तांरण थी--- गोरे अंग्रेजों के हाथों से काले अंग्रेजों के हाथों. देश को कल के राजे, जमींदार जैसे लोग ही संचालित कर रहे हैं और जो आम लोगों के बीच से सत्ता में आए वे उनसे भी अधिक भ्रष्ट हो गये.
हलधर बाजपेई चन्द्रशेखर आजाद और भगतसिंह के साथियों में थे और आजाद के बाद वह दूसरे क्रान्तिकारी थे जो दोनों हाथों से एक साथ पिस्तौल से दुश्मन पर गोलियां दागते थे ।
तो क्या तीसरी लड़ाई की शुरूआत नक्सलवादियों ने कर दी है । शायद यह बात सही नहीं है अन्यथा नक्सलवाद के पुरोधा कानु सान्याल को उनके दिग्भ्रमित होने की बात न कहनी पड़ती । बेशक उसकी शुरूआत आदिवासियों को पीड़ा-शोषण से निजा़त दिलाने के लिए हुई , लेकिन आज वे उन आदिवासियों की लड़ाई कम (गौतम नौलखा के अनुसार छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के छः सौ गांवों को सरकार ने इसलिए जलाकर राख कर उन्हें विस्थापित कर दिया जिससे उस जमीन को वह बहुराष्ट्रीय कंपनियों को दे सके ) अपने लिए अधिक लड़ रहे हैं ...... अर्थात अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने की लड़ाई । झारखंड और छत्तीसगढ़ में वे समान्तर सरकारें चला रहे हैं । यदि वे आदिवासियों की लड़ाई लड़ रहे होते तब उनके निशाने पर सामान्य सिपाही नहीं होते , आदिवासियों की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार ठेकेदार , भ्रष्ट अफसर और स्विस बैंकों में धन जमा करने वाले नेता होते ।
तब फिर आजादी के लिए यह तीसरी लड़ाई कौन लड़ेगा और कब लड़ी जाएगी यह लड़ाई ! लड़ी भी जाएगी या नहीं । लड़ी गई तो उसका स्वरूप क्या होगा ! अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगी , लेकिन अमीरी-गरीबी , शोषक-शोषित , और ऊंच-नीच के बीच की खाईं जिसप्रकार निरंतर बढ़ती जा रही है उससे स्पष्ट है कि कभी न कभी यह लड़ाई लड़ी अवश्य जाएगी ।
*****

कहानी



चित्र : देव प्रकाश चौधरी
गोवा में तुम
बलराम
धरती के स्वर्ग गोआ के आकर्षण में बंधे हम दोनों ऎसे मौसम में दूसरी बार आ गए थे, जब यहां कोई नहीं आता. पहली बार तब आए थे, जब एक वर्ष का ईशान हमेशा-हमेशा के लिए हमसे बिछ्ड़ गया था और हम दुख के घने अंधेरे में फंस गए थे. दूसरी बार अब आए हैं, जब जौथा मिस्कैरेज होने पर एकदम से टूट गई सुप्रिया का रो-रोकर बुरा हाल हो गया . उसे लग रहा है कि अब वह भी मां नहीं बन सकेगी. मिस्कैरेज के बाद कई दिनों तक मित्र-परिजन आते और हमें सांत्वना देकर चले जाते रहे, लेकिन सुप्रिया का दुख था कि कम होने का नाम ही नहीं ले रहा था. रह-रह कर जिस-तिस के कंधे पर सिर रखकर फफक पड़ती थी. ऎसे में भाईजी ने हमें गोआ का रिटर्न टिकट थमाते हुए कहा था, कुछ दिन के लिए दिल्ली से दूर चले जाओ, अन्यथा दोहरे दुख का साया यहां तुम लोगों का पीछा नहीं छोड़ेगा. यह घना दुख उतनी दूर गोआ तक तुम लोगों का पीछा नहीं कर पाएगा, कहीं बीच में ही छूट जाएगा. और हां, लौटते समय खुशनुमा यादें ही साथ लाना और कुछ नहीं."
और सचमुच, भाईजी की युक्ति फलदायी साबित हुई. चालीस घंटे की लंबी यात्रा कर तब हम गोआ एक्सप्रेस से वास्को उतरे तो दुख का वह घनापन काफी कम हो गया था, ईशान की कुछ अच्छी यादें भर बची थीं और यह उम्मीद भी कि यहां धरती के इस स्वर्ग में शायद ईशान से हमारी मुलाकात फिर हो और वह एक बार फिर हमारे ही घर में जन्म ले ले, पुनर्जन्म . इस उम्मीद के साथ न जाने क्यों तुमसे मिलने की इच्छा भी मन में वेग से उठी थी, लेकिन क्यों, सिर्फ तुमसे ही क्यों ! इधर के वर्षों में ’घर’ कुछ इस कदर मेरे चारों ओर लिपटा रहा कि दूर हो चुके मित्रों से मुखातिब होने का न होश रहा, न कोई खास अवसर ही मिल सका. ऎसे में यहां ईशान की वापसी की उम्मीद के साथ तुम, सिर्फ तुम्हीं क्यों याद आ रहे हो राज! ऎसा भी नहीं है कि जब से तुम दिल्ली छोड़कर गए हो, हमें याद ही नहीं आए. तुम हमें खूब-खूब याद आए हो, जिंदगी की हर खुशी तुम्हारे बिना अधूरी-अधूरी-सी लगती रही है और हर गम, गम का पहाड़, जैसे तुम होते तो शायद गम के हर पहाड़ को तर्जनी पर उठा लेते.
यहां गोआ में ;तुम्हारे इस तरह याद आने की एक वजह शायद यह भी है कि यहां से सिर्फ एक रात के फासले पर हो, रेल से जाएं तो, बस से जाएं तो और समुद्र के रास्ते जा सकें तो भी तुम तक हमारा पहुंचना कठिन नहीं है. फोन कर देते तो शायद दो-तीन दिन के लिए तुम यहां आ भी सकते थे. इस समय हमारे साथ होते तो गोआ के इस खूबसूरत बीच पर हम लोग तुम्हारे मस्ती भरे गीत सुनते . तब हमारी सुबहें, हमारी शामें और हमारी रातें ठहाकों से भरी कितनी-कितनी आनंदमय और खुश-खुश होतीं !
उदास और गमज़दा होने से बचने का एक तरीका संघर्ष भरे उन दिनों में हमने तलाश लिया था, जिससे हम उदासियों से बच जाया करते थे, लेकिन दिल्ली से तुम्हारे चले जाने के बाद वह मुझसे सध नहीं सका. दारू पीकर ठहाकों में सब कुछ भूल और भुला देने का तरीका और सलीका तुमने तो सीख लिया था, लेकिन मैं उसे सीख नहीं पाया. तुम्हारे साथ कुछ बरस और रहा होता तो शायद हर स्थिति में ठहाके लगाना सीख गया होता, मगर तुम हमें छोड़कर चले गए. आज तुम शायद यह कहना चाहो कि तुमने नहीं, हमने ही तुम्हें छोड़ दिया है और यह कहकर तुम शायद मुझे एक अप्रिय सच कहने से बचा लोगे. सच है कि हमने ही तुम्हें छोड़ा है, क्योंकि तुमने मेरी बहन को छोड़ दिया था. उसके भावात्मक लगाव को अंतिम हद तक बढ़ाकर तुमने उसे ऎसी जगह मारा कि फिर वह कहीं की न रही और संवेदन शून्य-सी हो गयी. उसकी चेतना को जैसे काठ मार गया. आज वह मेरे साथ यहां नहीं है तो सिर्फ और सिर्फ तुम्हारी वजह से और तुमसे मेरा लगाव नहीं रह गया तो भी शायद उसी की वजह से. बहन ने आत्महत्या नहीं की, यही गनीमत रही. संवेदन शून्य हो जाना ही शायद उसके हक में है. अब वह काठवत जी लेगी और समय से पहले मरेगी नहीं, लेकिन कभी-कभी जब वह पोखरा चलने की बात करती है तो मैं डर जाता हूं.
अच्छा, तुम्हीं बताओं, तुम्हारे बिना क्या उसे सपनों जैसी उस यात्रा पर ले जा सकता हुं ? पोखरा में झील के उस पार डूबते सूरज के साथ अगर वह भी डूब गई तो मैं क्या करूंगा !
तुम्हें ;याद होगा, भारत से बाहर की किसी भूमि पर पहली बार तब हमने पांव धरे थे तो नोमेंसलैंड को पार करते हुए कितने-कितने रोमांचित हो उठे थे. बार-बार भारत से नेपाल और नेपाल से भारत की भूमि पर आए-गए थे. कोई वीजा, कोई पासपोर्ट नहीं. शाम को टिके थे भारत के बढ़नी में और विदेशी सामान की तलाश में देर शाम तक भटकते रहे थे नेपाली कृष्णा नगर बाजार में. इधर से उधर जाते-आते लगा ही नहीं था कि हम विदेश में हैं. विदेश में होकर भी विदेश में न होने की अनिर्वचनीय अनुभूति. काश! दुनिया के सारे देश भारत और नेपाल की तरह मुक्त सरहद वाले होते. काफी समय तक हमारे-तुम्हारे संबंध भी कुछ इसी तरह के रहे, लेकिन फिर न जाने क्यों हमारे बीच चाइना बॉर्डर पसर गया था, एक-दूसरे की जड़ और जमीन पर कब्जे की आशंका में डूबा गुआ. ! जैसे हमारा तवांग चीन की दुखती रग है, वैसे ही उसका मानसरोवर हमें अपना लगता है. मेरी बहन तुम्हारी कुछ लगती है, वैसे ही तुम्हारी पत्नी भी मेरी कुछ है, लेकिन फिर वह सब किसी सपने जैसा क्यों हो गया ?
कसमें तुमने बहुत खाई और भूल गए. कसमें खाना और भूल जाना तुम्हारी तरह मैं सीख नहीं पाया और इसी कारण तुम्हारे प्रति कहीं भीतर ही भीतर हिंस्र होता रहा, लेकिन हर हाल में ठहाके लगाने के तुम्हारे गुण का कायल भी रहा और उसी के कारण शायद तुमसे ईर्ष्या भी करता था
तानसेन और पोखरा जैसी खूबसूरत जगहों पर जाना अब शायद तुम्हारे साथ कभी संभव न हो. संभव हो भी तो शायद जाना न चाहूं. हां, तुम यहां गोआ आ पाते तो शायद एक बार को सब कुछ भूल-भाल कर हम ठहाकों भरे फुर्सत के कुछ दिन-रात एंजॉय कर सकते थे, लेकिन बार-बार किए गए तुम्हारे वादे और तोड़े गए सपने हमें भयाक्रांत कर चुके हैं. इसी कारण फोन कर तुम्हें गोआ बुला नहीं सके.
पहली बार गोआ आए थे तो ईशान को यमुना की बाहों में सौंप कर आए थे. लाल किले के पीछे बहती यमुना ने कैसे तो उसे लपक लिया था, जैसे वह हमारा नहीं, उसका ही बेटा रहा हो. पम्मी से तुम्हें मीना ने भी कुछ ऎसे ही छीन लिया था, जैसे तुम उसके कभी कुछ रहे ही नही !
ईशान के न रहने पर पहली बार गोआ हमारे लिए शरण्य बना था. धरती का स्वर्ग वह चाहे हो या न हो, लेकिन शांति और सुकून देने वाली जगह वह हमें जरूर लगी थी, पर तारों भरी रात में दूध सागर फाल्स की ओर जाने वाली नौका यात्रा पर हम नहीं गए थे, जिसमें लोग रात भर नाच-गाना करते हैं. आमोद-प्रमोद में तब हम डूब भी कैसे सकते थे ! हम तो होटल में ईशान को याद करते हुए उसके पुनर्जन्म की उम्मीद में ऊभ-चूभ होते रहे थे, तुमसे पुनर्मिलन की कामना करते हुए, लेकिन न तो ईशान का पुनर्जन्म हुआ, न ही तुमसे पुनर्मिलन संभव हो सका. अब तो कभी-कभी लगता है कि जैसे ईशान की यादों के सहारे ही जीवन कटना है, वैसे ही तुम भी सिर्फ स्मृतियों में ही हमारे पास आओगे.
याद है तानसेन की वह सुबह, जब बादल के कुछ टुकड़े होटल की खिड़की तक टहलते चले आए थे और तुम किसी बच्चे की तरह कोई अजूबा पा लेने के आल्हाद से पुलकित हो बोल पड़े थे, ’काश! पम्मी भी यहां होती . पम्मी यहां होती तो बादलों से हमारे इस साक्षात को रोमांच कुछ और होता, ऎसा कि गम उसे जीवन भर लूटते रहते तो भी खत्म न होता, लेकिन तुम्हें शायद यह सब याद ही न हो. तुम्हें तो शायद यह भी याद न हो कि पोखर में झील के किनारे खड़े होकर डूबते सूरज को देखते हुए तुमने कहा था, "पम्मी यहां होती तो नाव से झील के उस पार चलते और----."
"धत्त!" मैं बोल पड़ा था.
"क्यों ?" तुमने बड़ी मासूमियत से पूछा था, मनो तुम्हें कुछ मालूम ही न हो.
"उधर स्लम्स हैं, जहां घरेलू और इज्जतदार लोग नहीं जाते."
"तू होगा इज्जतदार, मैं तो वाइल्ड हूं, वाइल्ड अ बीस्ट, हर जगह घुस कर खा-पी और जी लेने वाला प्राणी."
"इसीलिए तो उनके साथ उधर नहीं जाते."
"चलो, नहीं जाते, लेकिन उनके बिना यात्रा अधूरी-सी नहीं लग रही ?"
"लग क्यों नहीं रही----ऎसा करते हैं , उनके साथ अगले साल हम फिर यहां आते हैं." मैंने प्रस्ताव रखा था.
"क्यों नहीं." तुमने समर्थन किया था.
"तो फिर अगले साल यहां आना पक्का , उन दोनों के साथ ?"
"पक्का." कहते हुए हमने एक-दूसरे से वादा लिया था. और राज, तुमने वह वादा निभाया नहीं. मैं जब चाहूं, निभा सकता हूं, मगर जब तक हम चारों एक साथ न हों, वादा पूरा नहीं हो सकता और अब हम चारों एक साथ होने से रहे----
हम चारों एक साथ जैसे पोखरा नहीं जा सकते, वैसे ही गोआ में भी चारों कभी एक साथ नहीं हो सकते. अब तो हम तुम्हें याद भर कर सकते हैं, तुम्हारे संग-साथ की कामना करते हुए, मगर वैसा संग-साथ कभी पा नहीं सकते, क्योंकि पल-पल बदलती दुनिया में शाश्वत कुछ भी नहीं है: न रिश्ते, न नाते, न ही यारियां-दोस्तियां! फिर यहां गोआ के बा़अमोला बीच पर तुम्हारी इतनी याद क्यों! मेरे पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है राज, मेरे पास इस सवाल का भी कोई जवाब नहीं है कि अच्छे-भले अनेक मित्रों के बावजूद यहां गोआ में तुम, सिर्फ तुम्हीं क्यों याद आ रहे हो! इस बार और पिछली बार भी तुम्हारे संग-साथ की कामना ही क्यों हमारे साथ यहा टहलती रही ?
जीवन के इस रहस्य को समझने की कोशिश कर रहा हूं कि दु:ख और यातना के बीच भी बेदर्द लोगों की यादें ही क्यों मनुष्य का पीछा करती हैं, जब बीते हुए समय में डूबकर वह यातनाओं से मुक्त होने की कोशिश कर रहा होता है ? मरते दम तक तुम्हारे जैसे दुष्ट ही याद आ-आकर क्यों सताते रहते हैं ? सताते तो खूब हैं, मगर पास आने पर सांत्वना के दो मीठे बोल तक नहीं बोलते, उल्टे कोई उल्टी-सीधी बात कहकर घावों को कुरेद जरूर देते हैं. अपने होते तो नहीं हैं, लेकिन अपनेपन का भ्रम जरूर देते रहते हैं.
गोआ में इस बार भी ईशान की स्मृतियां ही हम पर हावी हैं, शायद इसलिए कि उसने पुनर्जन्म नहीं लिया. लिया भी हो तो हमारे घर न आकर कहीं और चला गया हो. सोचकर दु:ख होता है कि यदि उसे हमारा नहीं होना था तो फिर वह हमारे घर आया ही क्यों, वैसे ही, जैसे तुम ! तुम भी तो सिर्फ कुछ समय के लिए ही हमारे हुए थे. तुम्हें शायद पता था कि हमारे साथ बहुत दिन नहीं रहोगे. उतने साथ में ही हमसे जितना ले सकते थे, तुमने ले लिया, बहन तक से . किस तरह तो वह तुममें डूब गयी थी, लेकिन एक झटके में उससे ही नहीं, हमसे भी नाता तोड़ लिया. ईशान के न रहने पर सुप्रिया कई दिनों तक खूब-खूब रोयी थी, मगर बहन शायद उतनी बावरी नहीं थी या शायद वह कुछ ज्यादा ही बावरी थी कि सब कुछ भूल गयी , यहां तक कि खुद को भी. तुम्हारे साथ बीते समय को उसने माथे पर छलक आए पसीने की तरह पोंछ डाला. सुप्रिया भी शायद ऎसा कर पाती, अगर उसकी कोख अब तक छूंछी न रहती. कोख और दिल में आकर चले जाने वाले तभी तक बहुत याद आते हैं, जब तक उनकी जगह कोई और आ नहीं जाता. बहन के दिल में तुम शायद अब भी हो, लेकिन पहले की तरह नहीं----
ईशान गुजरा न होता तो अब तक कितना बड़ा हो गया होता ! वह होता तो गोआ की यह यात्रा कितनी-कितनी सुखद होती, लेकिन बार-बार हुए मिस्कैरेज ने सुप्रिया को वही नहीं रहने दिया, जो वह हुआ करती थी: दुनिया की सबसे खुशमिजाज लड़की, मंद-मंद मुस्कान से सबको मोहित कर लेने वाली युवती, स्कूल-कॉलेज में साल-दर-साल गोल्डमेडल और दक्षकन्या का खिताब हासिल करती स्टुडेंट, पिता की सबसे अच्छी बेटी और फिर हमारे घर में खुशी बिखेरती धवल-वसना परी जैसी पत्नी, जिसके मुस्कराने भर से सारा घर रोशनी से नहा और खुशबू से महमहा उठता. बहुत गंभीर और समझदार स्त्री में ढल गयी सुप्रिया की गोद लेकिन अब तक सूनी क्यों है, यह सवाल उसे भीतर ही भीतर घुन की तरह खाता रहता है, अहर्निश. इसीलिए अब उसकी हर खुशी क्षणिक होती है और हर सुख क्षणभंगुर.
सुप्रिया फिर से मां बन पाती तो शायद हमारा जीवन कुछ और होता. तुम्हारा कोई विकल्प हमें मिल गया होता तो शायद तुम भी हमारी स्मृतियों में इस कदर छाये न रहते. अपने जीवन से निकालकर हम किसी और को तुम्हारी जगह रख नहीं पाते, क्योंकि हमारे चिथड़ा-चिथड़ा अतीत के साक्षी रहे हो तुम ! उसके बरक्स हमारे वर्तमान को देखते तो शायद आश्चर्यचकित रह जाते, लेकिन एक ईशान के न रहने भर से जो दु:ख हमारे भीतर-बाहर पसर गया है, कुछ दिन के लिए ही सही, अगर तुम गोआ आ जाते तो शायद वह कुछ कम हो गया होता. पम्मी आ पाती तो भी सुप्रिया को सुख मिलता, ऎसा लेकिन सिर्फ दिल को लगता है, दिमाग तो कहता है कि ’गहरी मार कबीर की, दिल से दिया उतार----’ जो हमारे साथ नहीं हैं, जो हमारे साथ हो नहीं सकते, उनके संग-साथ के लिए क्या रोना.
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बलराम समकालीन कथाकारों में एक महत्वपूर्ण नाम.
बहुचर्चित कहानी संग्रह ’कलम हुए हाथ’ के बाद दूसरा संग्रह ’गोआ में तुम’ .
लघुकथा संग्रह ’मृगजाल’ तथा उपन्यास ’जननी-जन्मभूमि’ प्रकाशित.
’कहानी का सफर’ , ’आधे-अधूरे परिचय’ तथा ’आंगन खड़ा फकीर’(समीक्षा) के अलावा ’वैष्णवों से वार्ता’ तथा ’पत्रकारिता के आयाम’ जैसी पत्रकारीय कृतियां भी छपी हैं.
कुछ रचनाएं आकाशवाणी तथा दूरदर्शन से प्रसारित और कुछ अन्य भाषाओं में अनूदित.
दैनिक ’आज’ के चीफ-रिपोर्टर और ’नवभारत टाइम्स’ के चीफ-सब रह चुके बलराम ने ’सारिका’ के अलावा ’शिखर’ और ’शब्दयोग’ का भी संपादन किया. बस्तर (छत्तीसगढ़) के आदिवासियों पर संदर्भ ग्रंथ ’इंद्रावती’ के अलावा ’विश्व लघुकथा कोश’ आदि एक दर्जन से अधिक पुस्तक श्रृंखलाओं के साथ प्रेमचंद रचनावली का भी संपादन किया.
एनसीईआरटी की पाठ्यक्रम और पुरस्कार समितियों के सदस्य रहे. हिन्दी अकादमी, दिल्ली तथा उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लघनऊ से कुछ कृतियां पुरस्कृत. हिन्दी अकादमी से साहित्यकार सम्मान.
सम्प्रति : राष्ट्रीय समाचार पत्रिका ’लोकायत’ के कार्यकारी सम्पादक.

कहानी


चित्र - देवप्रकाश चौधरी

घुग्घू
बद्री सिंह भाटिया
रतना अब बढ़ोह गांव जाना नहीं चाहती। क्यार के रास्ते तो बिल्कुल भी नहीं। बढ़ोह जाने के नाम से ही वह सिहर उठती है। मगर रिश्तेदारी, बिरादरी की अदृश्य डोरों से बन्धी अनिवार्यताओं के दृष्टिगत उसे कभी-कभार जाना ही पड़ता है। बढ़ोह जाने का दूसरा रास्ता भी था। छोटा परन्तु विकट। लगभग एक किलोमीटर लम्बी धार के एक ओर की ढलान पर घना जंगल था। किसी ने न जाने कब इसके बीच से वह रास्ता खोजा होगा। उस रास्ते से जाने के लिए पहले नाला, फिर बड़ी खड्ड और तब घनी झाडि़यों के बीच से गुजरती संकरी पगडण्डी से एक किलोमीटर चढ़ कर उपर धार पर पीपल की छाँव में सुस्ताए और फिर वहाँ से आधा किलोमीटर उतराई। क्रोन्दे और दाड़ू के कान्टेदार बौने पेड़ हरवक्त एक एहसास दिलाते कि जरा सी चूक, किसी गोल, बेडौल पत्थर पर पैर रखने से बिगड़ा सन्तुलन गिराएगा नहीं तो हाथ में कांटे जरूर चुभो देगा। और कहीं रीछ, लक्कड़बग्घा मिल गया तो और खतरा। अब यह रास्ता रहा ही नहीं, न रहा वह पीपल का पेड़। सब समा गये पत्थरखोर कम्पनी के पेट में।
हुआ यह कि इलाके में सड़क आने पर सरकार को पता चला कि इस धार में सीमेन्ट का उच्च कोटि का पत्थर है। इस पर इसके उपयोग का विचार बना। सारी खोजबीन और परीक्षणों के बाद विश्वव्यापी निविदाएँ दी गईं और देश की सबसे बड़ी सीमेन्ट उत्पादन कम्पनी को ठेका मिल गया। कम्पनी ने जमीन का अधिग्रहण किया और खदान शुरू। बढ़ोह को धार से होता रास्ता बंद। धार धीरे-धीरे नीचे उतरने लगी। रास्ता बचा तो क्यार वाला। बहुत लम्बा। धार की तराई में धान के खेत, अर्ध गोलाकार में फैले हुए। इन खेतों के उपर से विकर्णाकार पगडण्डी एक हद तक और फिर लम्ब की तरह चढ़ाई। किसी ने एक तिर्यक रास्ता भी बनाया है, परन्तु वह भी कंटीला है।
कभी यह रास्ता खूब चलता था-इसकी चैड़ाई भी ठीक थी। मगर कम्पनी के आने और आवागमन के दूसरे तरीके निकलने से इस रास्ते का रूप बदला गया। दूसरा कारण यह भी कि इस रास्ते कभी-कभार धार पर से पत्थर लुढ़कते रहते हैं- सो जीवन को खतरा बना रहता है। कम्पनी कब ब्लास्ट कर दे। पहाड़ हिले और पत्थर लुढ़कने लगे। ऊपर पहाड़ पर चल रही जे.सी.बी., बुलडोजर भी पत्थर गिराते रहते हैं। कभी-कभार आने-जाने वालों को खतरा ही खतरा। और यदि आना-जाना ही हो तो प्रतिदिन होने वाले धमाके के बाद या तब जब मशीनें धार के दूसरे खण्ड में कार्यरत हों।
उस दिन बढ़ोह में रतना के एक निकट रिश्तेदार की मृत्यु होने पर उसे शोक सभा में जाना अनिवार्य हो गया। पहले इस प्रकार के कार्य पति निपटा दिया करता था। मगर जब से वह नहीं रहा, समाज के ये सारे कर्म उसके सिर पर आ गये थे- उस दिन उसने गाँव की दो औरतों, अपने देवर, देवरानी को साथ चलने को कहा। वे राजी हो गए थे।
हवाघाटी पार करते ही उसकी नजर ढलान मे नीचे अपने क्यार पर पड़ी। आस-पास के सभी खेतों में गेहूं की फसल लहलहा रही थी। खड्ड से बहते पानी का शोर उपर घाटी तक आ रहा था। इन्हीं खेतों के बीच तीन छोटे सीढ़ीनुमा क्षत-विक्षत खेत सूखी घास से चमक रहे थे। भूरे-भूरे। खेतों की टूटी दीवारों, उनमें पड़े पत्थरों के ढेर देख वह ठिठक गई। उसे वह दिन याद हो आया जब इन खेतों की मेंडें टूटी थीं। कितने खेत तहस नहस हो गये थे। उस दिन तो वह यह देख ही नहीं पाई थी। यह सब बाद में पता चला था.....उस दिन तो उसकी दुनिया ही उजड़ गई थी।
वह खड़ी सोचती रही। लोगों ने अपने खेतों की टूटी दिवारों को चिन कर फिर से खेत तैयार कर फसल लगानी शुरु कर दी और उसने यहाँ आना ही छोड़ दिया।
उसके साथी हवाघाटी के उस ओर सुस्ताने को बैठ गये। यह सोच कि उसने कहीं शौचादि के लिए किसी ओट में बैठना होगा। एक स्त्री ने कहा भी-‘कहीं ऐसे बैठना जहां उपर से पत्थर न आए।’ आज घुग्घु भी नहीं सुनाई दिया।’ वह उपर धार देखने लगी थी। यह आभास पाने कि कम्पनी का बुलडोजर, शॉवल और सुरंग छेदने की मशीन की आवाज तो नहीं आ रही। उनका क्या, कभी भी कहीं भी काम करने लग जाते हैं। अब सारी धार उनकी है, तराई तक। इन पारम्परिक रास्तों के उपभोक्ता चलें अपने जोखिम पर। कम्पनी वाले तो ब्लास्ट के समय मात्र घुग्घु बजा देते हैं...। एक हल। रतना ने मन ही मन कहा-‘उसे गाँव से चलते मशीनों को देख लेना चाहिए था। पर अब क्या हो सकता है। पहाड़ पर जहाँ काम चल रहा है बहुत उपर है। यहाँ से तो काम का छोर भी पता नहीं चलता।
और रतना की आँखों में वह दिन उतर आया था। धान लगाने का समय गुजर रहा था। पति अपने दौरे से नहीं लौटा था। उसकी तकलीफ यह थी कि जब वह घर से निकलता तो कई दिनों के बाद ही लौटता। वह टोकती-‘ऐसा क्यों करते हो? घर की सुध ही नहीं रहती।’ तब वह हंसकर कहता-’रतना पेट की खातिर। तेरे लिए, इन दो बच्चों के लिए और बूढ़े माता-पिता के लिए। ... पैसा कमाना आसान नहीं होता। तू बोल....।’ वह कहती-‘क्या बोलूं, फसल लगाने का समय हो गया है। नीचे क्यार में....।’
‘ अरे! क्यार में जाना तो छोड़ देना चाहिए। साला कब चट्टाने आ जाएँ पता नहीं चलता। कम्पनी का डेंजर जोन है यह।‘
‘तो क्या, दूसरे लोग भी तो काश्त करते हैं। हर वक्त पत्थर थोड़े ही आते रहते हैं।’
‘पिछली बार देखा कितने पत्थर आए थे। खेत भर गये थे।’
‘वो तो नीचे वालों के थे-हमारे खेतों में तो एक भी कंकर नहीं आया था।’
‘सो तो है।’
और इस ’सो तो है’, की धारणा पर अगले रविवार को धान लगाने के लिए खेत तैयार करने चले गये। इससे पहले रतना बच्चों के साथ वहाँ जाकर सारी कंटीली झाडि़याँ साफ कर आई थीं। उसके तीनों खेत उजले दिख रहे थे। दूसरे खेतों में घास काटती औरतों ने कहा भी था।- रतना चान्दी बना देती है। ‘बीड़’ में क्या ‘माश’ लगाने है?’
‘हाँ! करना पड़ता है, वर्ना चूहे खेत को नुक्सान पहुँचाते हैं।’
‘अरे! अभी तो पानी है... पानी में थोड़े भी आता है चूहा।’
‘बरसात के बाद भी तो आता है, जब क्यार का पानी सूख जाता है-
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रविवार की सुबह वे हल, जुआ, सुहागा लेकर खेत में पहुँचे। खेत पानी से भरे थे। दूसरे खेतों में लोग हल चलाने लग गये थे। अपने देर से पहुँचने पर वह बुदबुदाई-‘उठी तो वह तड़के थी। सोचा था कि सबसे पहले पहुँचेगी पर ये लोग... मुए जाने यहीं सोये थे। उसने एक खेतवाली को आवाज दे ही दी-‘ यहीं सोई थी क्या? रात भी खुलने नहीं दी ।’ खेतों की मेंड़ों से छर-छर करते पानी और खड्ड के शोर के बीच उसने सुना-‘भई अब काम डर के करना पड़ता है -कम्पनी कब क्या कर दे किसको पता।’
उसका मानना था कि दोपहर तक खेत में हल चलाकर फारिग हो जाएँगे। जितने में कम्पनी के ब्लास्ट का समय होगा; वे खेत खाली कर घर निकल जाएँगे। दोपहर को आराम करेंगे। कुछ काम बचेगा तो शाम की पारी में कर लेंगे।
रतना जब भी इन खेतों में काम करने आती उसके मन में कई सवाल उठते। वह मानवीय प्रकृति के बारे में ज्यादा सोचती। वह उन लोगों को दोषी ठहराती है जिन्होंने बिचौलिए बन लोगों की भूमि का सौदा कराया। उसे जमीन अधिग्रहण से लेकर वर्तमान समय तक याद हो आता। उनके ये खेत भी दफा-चार की अधिसूचना में थे। अब वे इस जमीन के मालिक थे तो ऐतराज करना तो लाजिमी था। कम्पनी भूसे से भी सस्ते भाव जमीन खरीद रही थी-उन्हें कल करोड़ों का लाभ होगा पर वे तो भूमिहीन हो जाएँगे। इसकी किसी को फिक्र ही नहीं थी। सो अपना पक्ष सरकार के आगे रखा। संभवतः यह उस प्रतिवेदन का प्रभाव हुआ होगा कि जब दफा-छः के नोटिस आए तो उनकी यह जमीन और उपर का सारा ढलुआँ क्षेत्र अधिग्रहण की सूचना में नहीं था। एक बार तो वह खुश हुई। अपनी खुशी पति से बाँटी तो उसे पता चला कि यह जमीन जानबूझ कर छोड़ी गई है। इस ओर के आपत्तिकर्ता काफी तेज हैं। उनकी वजह से अधिग्रहण की प्रक्रिया में अन्तर आएगा। सो काट दी। अब ये लोग वार्ता और अधिग्रहण प्रक्रिया में शामिल नहीं होंगे। कम्पनी कल इनमें डर पैदा करेगी और फिर प्रेशर बनाकर या कोई हाथकण्डा अपना कर या मजबूरी पैदा कर जमीन ले ही लेगी। यह भी हो सकता है कि इन लोगों ने ही कम्पनी के साथ गुप्त समझौता किया हो कि बाद में थोड़ा अधिक दाम ले कर इस ढलान को उसके नाम कर दिया जायेगा....पति ने यह भी बताया कि इस समय जाने कितने लोग कम्पनी ने अपने पक्ष में कर लिए हैं। अनेक तरीके अपनाए जा रहे हैं। वे कम्पनी से अनेक लाभ उठा रहे हैं और कम्पनी के गुण गा रहे हैं। देर-सवेर ये खेत कभी भी कम्पनी के समझो।
कालान्तर में अधिग्रहण हुआ तो खेतों के उपर के प्लाट धारकों के साथ अलग समझौता हुआ। उन्हें औरों से अधिक पैसे दिए गये हैं।....अब जमीन कम्पनी की हो गई है तो धार पर बुलडोजर जेसीबी आदि मजे से चलने लगे।
एक दिन रतना की पड़ौसिन अपने प्लाट में पशु चरा रही थी। कि उपर से चट्टानें लुढ़कने की आवाज सुनाई दी। खड्ड से दूसरी तरफ की ढलान में काम कर रहे लोगों ने उसे अगाह किया भी मगर तब भागने का कोई अवसर नहीं था। छोटी-बड़ी, जाने कितनी चट्टाने नीचे लुढ़क रही थीं। वह इस आशा में थी कि आज मर तो जाना ही है एक दाड़ूदाने की झाड़ी के नीचे आंखें बन्द कर बैठ गई। भाग्य अच्छा था कि उसकी ओर छोटे पत्थर आए और झाड़ी में उलझ गये। मगर दो विशाल चट्टाने पास से भारी वेग के साथ लुढ़क कर नीचे चली गईं। एक का वेग तो इतना था कि वह काफी चैड़ी खड्ड पार कर दूसरी ओर के खेतों में जा पड़ी। फसल का काफी नुक्सान हुआ। उसने जब आँखें खोली तो दिल धक-धक कर भारी गति से चल रहा था। उसकी नजर पशुओं की ओर गई। वे ढलान की दूसरी तरफ दौड़ कर चले गये थे और चरने लग पड़े थे। उसने प्रभु का आभार व्यक्त किया और धीरे-धीरे पशुओं की ओर बढ़ी। दिल की धड़कन अभी शान्त नहीं हुई थी।
ढलान से पत्थर लुढ़कने की खबर गाँव में पहुँची । पड़ौसिन के वहाँ पशुओं के साथ होने का भी पता चला। वे दौड़े आये। उसे सुरक्षित पा वे आश्वस्त हुए। वे कम्पनी पर नाराज हो गालियाँ बकने लगे। सबकी जुबान पर एक ही बात कि बिना चेतावनी के ब्लास्ट क्यों किया । ये तो शुक्र मनाओ कि रास्ते में कोई चल नहीं रहा था। पर यह औरत तो थी। पशु थे। चेतावनी देते तो यह समय पर वहाँ से निकल जाती। यह तो कम्पनी की ज्यादती है।’ फिर किसी प्रत्यक्षदर्शी ने बताया कि वे तो धार पर मशीन के लिए जगह बना रहे थे। एक पत्थर को जेसीबी का धक्का लगा, चालक उसे नहीं सम्भाल पाया और...। शाम को गाँव में वार्ता हुई और अगले दिन लोग कम्पनी के खनन अधिकारी के पास शिकायत कर अपना रोष प्रकट कर आये। अधिकारी ने घटना पर अफसोस प्रकट किया और आगे को सजग रहने का आश्वासन दिया।
इस प्रकार दो-तीन बार और पत्थर आए। एक बार रतना के खेतों की ओर भी लुढ़के। आस-पास के गाँव के लोगों ने कम्पनी से फिर बात की कि इन खेतों का अधिग्रहण कर लोगों को खतरे से बचाया जाए। तब कहीं यह तय हुआ कि कम्पनी द्वारा बाउण्डरी के साथ लगते क्षेत्र को डेंजर जोन बना दिया जाएगा। इस प्रकार लोग अपनी फसल का मुआवजा ले सकते हैं। यह भी कि इन खेतों को बंजर छोड़ दिया जाए। लोगों ने बात मान ली।
डेंजर जोन बनने के बाद लोग फिर भी खेतों में काश्त करते रहे। यह सोच कि रोज तो उस ओर पत्थर आते नहीं। फिर काम अभी काफी उपर है-छः हजार बीघा की इस धार पर कभी काम इस ओर तो कभी उस ओर होता है। एक बैड उतरते समय तो लगता है-सो खेत क्यों उजाड़ छोड़े जाएँ ? दोहरा लाभ है- फसल भी और मुआवजा भी।
काम की गति से खनन क्षेत्र में रोज धमाके होते। इससे कभी ढलान से पत्थर गिरते कभी नहीं। कभी ब्लास्ट से दूर तक भी जाते। इससे चलते लोगों को तंगी होने लगी। वार्ता फिर चली और तय हुआ कि धमाके से आधा घण्टा पहले घुग्घु बजाया जाएगा, ताकि तराई में बनी पगडण्डियों पर चलने वाले, घासनियों से घास लाने वाले और खेतों में काम करने वाले लोग सुरक्षित स्थान पर चले जाएँ।
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अब घुग्घू कभी धार के इस छोर पर बजता कभी उस छोर पर। घुग्घू बजते ही धार-नाल घुग्घु की आवाज से गूँज जाते। जिससे धार के दोनों तरफ के लोग चौंक जाते। जो घरों के भीतर होते वे कच्चे घरों में हिल्लण के साथ स्लेटों और टीन का बजना महसूस करते।
घुग्घू बजने से पूर्व हुए धमाकों के भारी वेग के कारण जाने कितने कच्चे-पक्के घरों की दीवारें, लैन्टल दो फाड़ हो गये थे। इससे क्षुब्ध लोग कम्पनी तक गए, फलस्वरूप अब कम वेग का ब्लास्ट होने लगा। मगर धरती के अन्दर ही अन्दर फिर भी हिलने से घरों में धागे की मोटाई की दरारें फिर भी आ रहीं जो पक्के घरों और आँगनों में देखी जा सकती है। लोग कम्पनी प्रबन्धको को सूचित करते हैं मगर उनके कारिन्दे इन दरारों को घरों की बनावट का ठीक न होना बताकर कन्नी काट जाते हैं।
रतना ठण्डी निःश्वास छोड़ती है। बुदबुदाई,‘भाग्य ने इस जमीन के बारे और यहाँ के लोगों के बारे जाने क्या लिखा है।’ ...घुग्घु बजने के साथ राह में चलते लोग तेज कदम चलकर माइन के एरिया से बाहर होने की कोशिश करते हैं, डर यह कि क्या पता कहाँ से पत्थर लुढ़क कर आ जाए और बचना मुश्किल हो या कोई सुरंग के फटने से उछल कर उन पर न गिर जाए। आखिर जान तो सभी को प्यारी होती है। इधर-उधर खेतों, घासनी या कहीं दूर राह में चलने वाले धार की ओर कान कर लेते हैं कि जब धमाका होगा तो वे पत्थरों की वर्षा और धूल के गुब्बार को देखेंगे- डेंजर जोन में काम करने वाले लोग भी दूर हटने की तैयारी करते-पूरे वातावरण में एक डर सा व्याप्त हो जाता। घुग्घू बजने के बाद पहाड़ पर घूंऽ, घर्र करती मशीनें भी रुक जातीं और जब ब्लास्ट होता तो एक धूल का गुब्बार बरगद के वृक्ष का सा आकार बनाता उपर उठता। उसके साथ छोटे बड़े पत्थर अपने-अपने वेग के साथ इधर-उधर बिखर जाते। धूल हवा के साथ कभी खेतों की ओर तो कभी खनन क्षेत्र में ही विलीन हो जाती। कुछ देर बाद धार फिर मशीनों की आवाज से सराबोर हो जाती। घाटी में जीवन फिर चलने लगता।
एक बार धार पर एक स्थान पर लिपाई की मिट्टी निकली थी। रतना गांव की अन्य औरतों के साथ मिट्टी लाने चली गई थी। वह हैरान रह गई थी। नुकीली धार पर अब लम्बे चैड़े मैदान बने हैं। मैदानों से उपर लम्बे खेत से भी थे जिन पर गाडि़यों के टायरों के निशान थे। धार काफी नीचे उतर गई थी। घर आकर उसने पति को सारा वृतांत बताया- पति ने बताया कि यह नियोजित खनन है। एक बैड के बाद दूसरा बनाया जाता है। पहले सबसे उपर वाला खेत भी लम्बा चैड़ा मैदान था। कम्पनी का एक सिस्टम है। वह चरणबद्ध ढँग से पहाड़ कुतर रही है। उसने यह भी बताया कि उसकी योजना है कि जब पहाड़ डेंजर जोन तक खनन में आ जायेगा और कम्पनी यहाँ काम करना बन्द करने वाली होगी तो वह यहाँ एक झील बनाने का प्रस्ताव करेगा। एक लम्बी झील जिसमें तरह-तरह की मछलियां हों, उसमें साईबेरिया के पक्षी आएँ और..... इससे यहाँ के जलवायु पर भी प्रभाव पड़ेगा..।
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रतना यादों के समन्दर से बाहर आई। रास्ते में आगे बढ़ी। परन्तु उसकी नजर रह-रह कर अपने उजाड़ खेतों की ओर उठती रही। वे ऐसे ही गिरे, बिगड़े थे जैसे उस दिन बिगड़े थे। आस-पास के खेतों में लोगों ने फसल लगाई हुई थी। दुःख की बात यह कि उस दिन के बाद इस ओर ऐसी चट्टानें कभी नहीं आईं। मगर इधर के जोन में जो खेत हैं वहां घुग्घू डर का प्रतीक बन गया है। उपर घुग्घू बजा कि लोगों ने बैल खोलने शुरू कर दिए। खेत जितना कात हुआ उतना छोड़ना पड़ता। क्या पता कौन सा पत्थर उनकी ओर आ जाये। कहीं उनकी गति भी रतना के पति की तरह न हो। रतना का पति एक उदाहरण बन गया है.... वे जल्दी-जल्दी नाला पार निकलने की कोशिश करते। कई बार वे काम छोड़ घर ही आ जाते.... बाद में जब फिर आते तो आधे कात खेत में दुबारा बीज डालना पड़ता क्योंकि तब तक पहले का बीज चिडि़यों का भोजन बना होता.....
यादें उसे फिर झिंझोड़ती है। वह सोचती है अपने बारे...। उस रविवार को वे तड़के खेत में आ गये थे। फटाफट हल चलाया जा रहा था। मगर पानी के बीच हल चलाना काफी दक्षता का काम है। इसलिए समय तो लगना ही था। फिर तीन खेत। रतना के पति ने जब दूसरा खेत जोत कर तीसरे की ओर रुख किया तो रतना ने कहा, ‘बस करो अब, शाम को देखेंगे। घुग्घु बजने वाला है-कहीं, पत्थर-वत्थर आ गये तो ठीक नहीं होगा। उसने ब्लास्ट की मशीन धार के इस ओर देखी है। पति ने कहा-’अभी काफी समय है। खेत छोटा है। काम पूरा हो जाएगा” मगर भाग्य-वह अभी आधा खेत ही काश्त कर पाया था कि घुग्घू बजा। रतना ने पति को कहा कि काम बन्द करे। दूसरे खेतों वाले बैल खोल कर खड्ड पार कर घर चले गये हैं- मगर वह छप-छप कर पानी में हल चलाता रहा। यह मान कि अभी आधा घण्टा है, दूसरा घुग्घू बजते ही वह बैल खोल देगा।
दूसरा घुग्घू बजते ही खेत जुत गया था। उसने बैल खोले और जल्दी-जल्दी खतरे की सीमा से बाहर जाने लगे। वे खड्ड पार कर गये थे। तभी ध्यान आया कि बैलों का जुआ वहीं रह गया है। उसने लड़के से कहा कि दौड़ कर जुआ ले आए। और लड़का दौड़ा चला गया। वह भी जुए के पास पहुँचा ही था कि उपर भारी धमाका हुआ। पूरा पहाड़ ही हिल गया। मानो भूकम्प आया हो। यह खड्ड से इधर के लोगों ने भी महसूस किया। कहते हैं कि उस दिन कम्पनी ने पहले से दुगुना ब्लास्ट मैटिरियल डाला था। देखते-देखते ढलान से विभिन्न आकार के सैकड़ों पत्थर नीचे खेतों की ओर लुढ़कने लगे। रतना के पति ने बच्चे को खतरे में देख उस ओर दौड़ लगाई।
उपर से पत्थरों के लुढ़कने का आभास बच्चे को भी हो गया। वह जुआ उठाकर खेतों के एक ओर मेंड के साथ हो लिया। डरा सा। उसे यह ध्यान नहीं रहा कि पिता उसे बचाने के लिए भी दौड़ा है।
तभी उसे एक चीख सुनाई दी। उसकी माँ की खड्ड के पार और इधर पिता की। उनके साथ घर को जाते दूसरे लोगों की भी... हजारों पत्थर उनके खेतों को बीचों-बीच से तोड़ते खड्ड में चले गये थे, पीछे धूल और खेतों का पानी और खेतों की गाद टूटी दीवारों से बहने लगे थे। घर को जाते लोग पीछे हट कर अपने खेतों की दुर्दशा देखने हटने लगे। लड़का मेंड के नीचे से बाहर आया।
रतना ने आवाज लगाई- ‘तेरा पिता कहाँ है?’ बच्चा उस ओर बढ़ा। पिता तीसरे खेत की मेंड़ के पास एक चट्टान के नीचे दबा पड़ा था। बच्चे की चीख निकली और वह चट्टान हटाने लगा। बच्चे की चीख सुन रतना उस ओर दौड़ी दूसरे लोग भी दौड़े। उसने भी चट्टान को धक्का दिया मगर विशाल चट्टान उनके बस की नहीं थी।
थोड़ी देर में इधर-उधर के गाँवों के लोगों का जमघट उनके गिर्द खड़ा हो गया। रतना धान के खेत वाले कीचड़ में लतपथ पहचानी नहीं जा रही थी। वह खूब ऊँचे रो रही थी। साथ में बच्चा भी रो रहा था। लोगों के साथ उसकी लड़की, सास-ससुर भी आ गये थे। मगर अब क्या शेष था। पति जा चुका था। वहाँ तो बस एक लाश थी। लोगों ने झब्बल से किसी तरह मृत शरीर को बाहर निकाला-
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जाने कितनी कार्रवाइयों से गुजरी रतना। उस सब कुछ के बारे में सोचती सिहर जाती है। जब भी कहीं जाती, पति के स्थान पर उसे किसी रिश्तेदार को साथ ले जाना पड़ता। बेशक वह पढ़ी-लिखी थी मगर पति के होते वह निश्चिंत थी-घर के काम के इलावा बाहर के सारे काम वहीं करता था- और अब। पति की मृत्यु पर जिस दिन मुआवजा मिला था-वह बुदबुदाई थी-क्या पैसा आदमी की कमी पूरी कर लेगा-उसके शेष जीवन के खालीपन को भर पायेगा?
मन ही मन एक प्रण ले लिया था- अब इन खेतों में चाहे सोना भी उपजे वह वहाँ नहीं जाएगी। बल्कि उस ओर जाना भी स्थगित कर देगी। भरी जवानी में पति की लाश उठी। वह बच्चे को नहीं खोना चाहती। कल बच्चे को कुछ हो गया तो...
और जाने कितने बरस बाद वह इधर से गुजर रही थी। यदि बढ़ोह में उसके रिश्तेदार के यहाँ शोक न हुआ होता और उसका जाना जरूरी न होता तो वह इधर आती ही नहीं। वह सोचती आगे बढ़ती रही। अपने खेतों की सीमा पार करते ही उसके कानां में घुग्घू की आवाज पड़ी। वह चौंकी . आवाज धार पर कहीं दूर से आई थी। वह तेज कदमों से आगे चलने लगी। उसकी साथी औरतें, मर्द आगे निकल गये थे। वह उन्हें पार करती आगे बढ़ी, बोली, घुग्घू बज गया है-दूर हटो, क्या पता आज भी वैसा ही हो... और वह आगे निकल गई, घबराई सी। एक साथिन ने कहा- घुग्घू दूर बोला है। पत्थर इस ओर नहीं आएँगे।
उसके साथियों में से एक ने कहा-’जब भी धार पर घुग्घू बोलता है-रतना बहुत डर जाती है। वह कहीं भी हो, दूर हट जाती है। दूर से तब तक धार ताकती रहती है जब तक धमाका नहीं हो जाता। धमाके के साथ उठते वटवृक्ष की तरह धूल के गुब्बार के साथ उठे पत्थरों को देखती है-कि आज कहाँ-कहाँ गिरे ? बड़ी देर तक डरी सी वहीं रुकी रहती है।’
तभी एक ने बताया- ‘इसको मालूम नहीं कि अब धमाका धरती के भीतर ही होता है-पत्थर नहीं गिरते। बाहर मात्र धूल आती है या छोटे-मोटे पत्थर।’
‘पर हिल्लण से धरती के उपर के पत्थर तो खिसक सकते हैं न?’
‘हां! पर वे कितने होते हैं?’
‘मौत के लिए एक भी काफी है।’
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रतना साथियों की बातों से बेखबर, आगे एक मोड़ पर खड़ी धमाका सुनने की मुद्रा में खड़ी हो गई थी। यहां से बढ़ोह के लिए सीधी चढ़ाई शुरू होती है। खड़े-खड़े रतना को खयाल आया। यदि इस इलाके में सड़क नहीं आती तो उसकी तबाही नहीं होनी थी। न कम्पनी आनी थी न बजना था घुग्घू। उसकी तबाही की जिम्मेवारी यहाँ सड़क लाने वाले परधान पर हैं। वह उसे गाली देती है-‘मुआ, बड़ा आया विकास करने वाला।- मेरा तो भट्ठा ही गुल कर गया।’
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उन्हे बढ़ोह से लौटते देर हो गई थी। रतना घर आई तो मवेशियों के काम में उलझ गई। वह किसी से नहीं मिल पाई। रसोई में आई तो आम दिनों की तरह चाय बनाने लगी। देखा तो पत्ती नहीं है। दुकान जाना पड़ेगा। सोचा उसने। बच्चे पड़ौस में थे। ससुर को भेजना उचित नहीं था। उसने पाकेट में पैसों के लिए हाथ डाला तो पाया कि बीड़ी भी नहीं है। वह उठी और स्वयं दुकान की ओर चली गई। दुकान पर काफी लोग थे। उनमें प्रधान भी था। उसे देख उसका पारा चढ़ गया। मन ही मन उसे गाली दी। फिर उसने उसकी ओर पीठ कर दुकानदार से सौदा माँगा। तभी उसके कानों में हरिये के शब्द पड़े-‘मुए साइरन बजाते तो...ये तो पहले तय है कि...ये गुप्त धमाका करना तो ठीक नहीं ।’ वह मुड़ी। पूछा-‘क्या हुआ?’
‘होना क्या, आज फिर पत्थर आये। ये तो शुक्र मनाओ उस ओर कोई रास्ता नहीं है। सारे पत्थर धान के खेतों में जा पड़े। देविए के तो सारे खेत ही भर गये।’
‘कहाँ?’
‘इधर हवाणी को ओर। सूरतू बता रही थी कि उसने सारा नजारा देखा। एकाएक छोटी-बड़ी चट्टाने ढलान से लुढ़कने लगी। वह तो ऊँध रही थी। पर जब हड़ड़ का शोर उत्तरोत्तर बढ़ने लगा तो चौंकी।’
‘आज घुग्घू नहीं बजा।’
‘बजाया होगा। इधर तो किसी ने नहीं सुना।’
‘मरेंगे लोग। मरेंगे। ये कम्पनी कुछ लालची लोगों की देन है। इनको तो ठेके चाहिए। किसी का घर उजड़े इससे उन्हे क्या?’ उसने प्रधान को इंगित कर कहा।
इधर दुकानदार ने कहा-‘भई नुकसान के लिए कम्पनी को फोन करो। काफी दिन हो गये कम्पनी से बात किए। तुम सीधे लोगों तो कम्पनी ने भगा देना यहाँ से बिना मुआवजा लिए।’
‘नुक्सान तो वे दे देंगे। पर खतरे के बारे में सोचना जरूरी है।’ एक बोला।
दूसरे ने कहा-‘फोन कर दिया है। बोले कल देखेंगे। मैनेजर बड़ी लापरवाही से बोला था। जब जोर से कहा तो बोला-भाई कम्पनी काम कर रही है। पत्थर तो आयेंगे ही। इसी लिए हमने डेंजर जोन बनाया है। आप लोग सेफ्टी बरता करो...’
‘माना डेंजर जोन बनाया है। पर सार्वजनिक रास्ता तो वहीं से गुजरता है।’ दुकानदार बोला।
‘सो तो है। पर अब क्या किया जा सकता है? हमसे पहले ही चूक हो गई है।’ हरिया बोला। चर्चा में दम न देख रतना सौदा लेकर घर आ गई। चलते-चलते उसके भीतर घुग्घू बजने लगा था। सारी आवाजें एक साथ सुनाई देने लगी थी। उन आवाजों के साथ वह घर की ओर बढ़ने लगी। दुकान पर चर्चा जारी थी।
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जीवन वृत्त
बद्री सिंह भाटिया का जन्म 4 जुलाई, 1947 को सोलन जिले की अर्की तहसील के गांव ग्याणा में।
शिक्षाः स्नात्कोत्तर (हिन्दी) तथा लोक सम्पर्क एवं विज्ञापन कला में डिप्लोमा।
प्रकाशित कृतिया: ठिठके हुए पल, मुश्तरका जमीन, छोटा पड़ता आसमान, बावड़ी तथा अन्य कहानियां,यातना शिविर, कवच, और वह गीत हो गई (सभी कहानी संग्रह), पड़ाव(उपन्यास), कंटीली तारों का घेरा(कविता संग्रह), सूत्रगाथा और धन्धा (कहानी संग्रह, सहयोगी सम्पादन)। इसके इलावा अनेक सम्पादित संग्रहों में कहानिया संकलित तथा देश की अनेक पत्रिकाओं में प्रकाशित, कुछ कहानियां अनूदित भी।
* पहली सरकारी नौकरी के समय में मेडिकल कालेज शिमला की कर्मचारी यूनियन की पत्रिका तरु-प्रछाया का सम्पादन, कालान्तर में सूचना एवं जन सम्पर्क विभाग में नौकरी के साथ साप्ताहिक पत्र ’गिरिराज’ और मासिक पत्रिका”हिमप्रस्थ’में सम्पादन सहयोग।
**सम्मानः साहित्यिक यात्रा में हि. प्र. कला,संस्कृति एवं भाषा अकादमी द्वारा पड़ाव (उपन्यास, 1987) तथा कवच (कहानी संग्रह, 2004) पुरस्कृत। हिम साहित्य परिषद मण्डी द्वारा 2001 में साहित्य सम्मान तथा हिमोत्कर्ष साहित्य, संस्कृति एवं जन कल्याण परिषद ऊना द्वारा 2007 में हिमाचल श्री साहित्य पुरस्कार से सम्मानित।
***अन्यः अर्की-धामी ग्राम सुधार समिति और ग्याणा मण्डल विकास संस्था के अध्यक्ष पद पर रहते हुए समाज सेवा तथा विभिन्न कर्मचारी यूनियनो, एसोसिएशनों में अनेक गरिमामय पदों पर सक्रिय भागीदारी।
**** अर्पणा(साहित्यिक एवं वैचारिक मंच) के अध्यक्ष पद पर भी कार्य।सम्प्रतिः हि. प्र. सूचना एवं जन सम्पर्क विभाग, शिमला से सम्पादक पद पर से फरवरी,2005 में सेवा निवृत के पश्चात स्वतंत्र लेखन और पैतृक गांव ग्याण में कृषि कार्य में संलग्न.
सम्पर्कः (1) 2-हरबंस काटेज, संजौली, शिमला-171006।
(2) गांव ग्याणा, डाकधर मांगू, वाया दाड़ला घाट, तहसील अर्की, जिला सोलन, हि. प्र. मोबाइलः 094184-78878