शुक्रवार, 11 मार्च 2011

दस्तावेज


’ले - मिज़ेराबल’ के इटैलियन रूपांतर के प्रकाशक
एम.डाएल्ली के नाम विक्तोर ह्यूगो का पत्र

’ले-मिज़ेराबल’ वह आईना है----’

महोदय,

आपका यह कहना बिल्कुल ठीक है कि ’ले-मिज़ेराबल’ दुनिया के सभी देशों के लिए लिखा गया है. मैं नहीं जानता कि दुनिया के सभी लोग इसे पढ़ेंगे या नहीं, पर लिखा तो मैंने इसे निश्चित ही दुनिया के सभी लोगों के लिए है. यदि एक ओर यह संबोधित किया गया है इंग्लैंड को तो दूसरी ओर स्पेन को भी; एक ओर इटली को तो दूसरी ओर फ्रांस को भी; एक ओर जर्मनी को तो दूसरी ओर आयरलैंड को भी; एक ओर गुलामी से बजबजाते लोकतत्रों को तो दूसरी ओर बेगारी बजानेवाले बेमुंह के लोगों के धनी साम्राज्यों को भी. सामाजिक समस्याएं देशों की सीमाओं से नहीं बंधतीं. मानव-जाति के नासूर पूरे ग्लोब पर रिस रहे हैं. वे नक्शों पर खिंची लाल या नीली रेखाओं पर आकर रुक या ठहर जाने वाले नहीं. आज जहां भी आदमी जाहिल है, निराश है, टूटा हुआ है; आज जहां भी औरत पेट की रोटी के लिए अपना सौदा करती है; और, आज जहां भी किसी बच्चे के पास लिखने-पढ़ने को किताबें और तापने को चूल्हे की आग नहीं है, वहीं ’ले-मिज़ेराबल’ दरवाजे़ पर दस्तक देता है और कहता है ---’दरवाज़ा खोलो, मैं हूं---- तुम्हारे लिए ही तो यहां तक आया हूं.’

आज हम सभ्यता के जिस दौर से गुज़र रहे हैं, उसका आगे का रास्ता काफ़ी घुंधला है; और इस यात्रा के इस मोड़ पर ’मिज़ेराबल’ का नाम आदमी है, इंसान है. यह आदमी, यह इंसान आज हर हवा-पानी में दर्द पर दर्द सह रहा है और हर भाषा में कराह रहा है.

मैंने माना कि हमारा फ्रांस संकटों का शिकार है, पर आपका इटली भी इससे मुक्त नहीं. आप जिस इटली की इतनी प्रशंसा और सराहना करते हैं, उसके तो चेहरे पर ही जाने कितने दुख-दर्दों के दाग और झुर्रियां हैं. क्या आपके पहाड़ी इलाक़े, ग़रीबी की और भी गई---बीती स्थिति, लूटमार के अजायबघर नहीं? कॉन्वेंटों (महिला-मठों) के जिस औंधे फोड़े के अंदर मैंने झांकने की चेष्टा की है, उसने जितना ज़हर इटली के बदन में घोला है, उतना ज़हर शायद ही दुनिया के और देशों के शरीर में घोला हो. आपके पास रोम,मिलान, नेपिल्स, पालेरमो, तूसि, फ्लोरेंस, सियेन्ना, पीसा, मंतुआ, वोलोगना, फेरारा, जेनोआ और वेनिस हैं; आपके पास पराक्रमों से भरा इतिहास, आपके पास लाजवाब, शानदार खंडहर हैं; और, आपके पास दर्शनीय नगर हैं, पर इन सभी बातों के बावजूद आप बिल्कुल हमारे जैसे हैं—दीन-हीन. आप चमत्कारों, करिश्मों और ज़हरीलें कीड़ों से घिरे औरे ढंके हुए हैं. इसमें कोई संदेह नहीं कि इटली का सूरज इटली का सूरज होता है, पर इटली के आसमान के धुले, नीले बादल आदमी के शरीर पर झूलते चिथड़े, झटके से हटा कर दूर नहीं कर सकते.

बिल्कुल हमारे यहां की तरह ही आपके यहां भी रूढ़ियां हैं. अंधविश्वास हैं, अत्याचार हैं, धार्मिक-उन्माद हैं और अंधे का़नून हैं; और यह सभी मिलकर हाथ मज़बूत करते हैं, बुद्धि और विवेक से शून्य रीति-रिवाज़ों के, रीतियों-नीतियों के. आप अतीत के रंगों के बिना न वर्तमान की कल्पना कर सकते हैं, और न मंगलमय भविष्य का कोई रेखाचित्र तैयार कर सकते हैं. आपके यहां गंवार हैं, साधु-सन्यासी हैं, जंगली जातियों के लोग हैं और अछूत भिखारी-भिकारिनें हैं. सामयिक प्रश्न आपके सामने भी वही हैं जो हमारे सामने. आपके यहां अगर हमारे यहां से कुछ कम लोग भूख से मरते हैं तो हमारे यहां से कहीं अधिक लोग जूड़ी-बुखार से दम तोड़ते हैं. आपके यहां सामाजिक स्वास्थ्य-विज्ञान की स्थिति हमारे यहां से कोई बहुत अधिक बीस नहीं है. जो साये इंग्लैंड में प्रोटेस्टेंट कहे जाते हैं, वही इटली में कैथॉयिक के नाम से पुकारे जाते हैं. वैसे नाम अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन ’वेस्कोवों’ ’बिशप’ का ही दूसरा रूप है; और, इसका मतलब सदा एक होता है, और वह होता है – घनघोर अंधेरा--- इस छोर से उस छोर तक बिछी रात. फ़िर, गुण की दृष्टि से भी इनमें कोई विशेष अंतर नहीं होता. जो व्यक्ति बाइबिल की व्याख्या ढंग से नहीं कर पाएगा, वह पिता-यीशु या उनके शिष्यों के धर्मोंपदेशों को समझने का दावा भी नहीं कर सकेगा.

क्या आवश्यक है कि इस बात पर और अधिक बल दिया ही जाए? क्या इस भयानक समानता को पूरी तरह साबित करना ही होगा? क्या आपके यहां नंगे-भूखे-अपाहिज नहीं हैं? ज़रा नीचे देखिए, क्या आपके यहां दूसरों की ज़िंदगियां चाटकर ख़ुद लंबी-लंबी उम्रों तक जीने वाले नहीं हैं? ज़रा ऊपर निगाह कीजिए. जिस भयानक तराजू के दो पलड़े---परोपजीवन और कंगाली दांत भींच कर आपस में जैसे-तैसे एक-दूसरे को साधे रहते हैं, क्या वह आपके सामने वैसे ही नहीं हिलती रहती, जैसे हमारे सामने? सभ्यता जिस एकमात्र सेना को मान्यता प्रदान करती है, स्कूली मास्टरों की आपकी वह सेना कहां है?

आपके मुफ्त लिखाई-पढ़ाई वाले सारे-के-सारे स्कूल कहां हैं? आपके वे स्कूल कहां हैं, जहां हर एक को अनिवार्य शिक्षा दी जाती है? क्या दांते और माइकेल एंजेलो के देश में हर एक कुछ-न-कुछ लिख-पढ़ सकता है? क्या आप अपनी फ़ौजी बैरकों को आम जनता के स्कूलों में बदल सके हैं? क्या हमारी तरह आपके यहां भी लड़ाई के खर्च का बजट लंबा –चौड़ा और लिखाई-पढ़ाई के ख़र्च का बजट कुछ नहीं सा नहीं होता? क्या आपके यहां भी लोगों को, बिना आह-ऊह का अवसर दिए, इस तरह हुक्म मानना नहीं सिखाया जाता कि होते-होते वे हुक्म बजा लाने के ऎसे आदी हो जाएं, जैसे फौ़जी? उस पर फौज, फौज के क्या कहने हैं! क्या यही फ़ौज क़ानून को रबड़ की तरह खींच-खींचकर वहां नहीं ले जाती, जहां गैरीबाल्डी पर यानी स्वयं इटली के सांस लेते सम्मान पर और स्वयं इटली की जीती-जागती प्रतिष्ठा पर गोली चला दी जाती है? आइए, ज़रा आपकी सामाजिक व्यवस्था को कसौटी पर कसें; उसे वहां ले चलकर खड़ा करें, जहां वह है, और उसे उस हालत में खड़ा करें, जिस हालत में सचमुच वह है. आइए, उसके नंगे कारनामों पर एक उड़ती नज़र डालें. ज़रा मुझे अपने यहां की कोई औरत और अपने यहां का कोई बच्चा दिखलाइए. आप इन दो निर्बल प्राणियों की सुरक्षा की व्यवस्था जिस सीमा तक कर सकेंगे, हम आपको उस सीमा तक सभ्य मानेंगे. क्या नारियों को अपने शरीर बेचते देखकर नेपल्स में कुछ कम कलेजा फटता है, और पेरिस में कुछ ज़्यादा? आपके क़ानूनों से सच्चाई किस सीमा तक उभर कर ऊपर आती है और आपकी अदालतों में कहां तक न्याय होता है. क्या आप ऎसे क़िस्मत वाले हैं कि आम जनता के सामने होने वाले मुक़दमों, क़ानून के काले चेहरों, जेलों-हवालातों, गले में फ़ंदा डालने वाले कसाइयों और जीते जी मौत की सज़ा पाने वाले लोगों, आदि की करुण-कथाएं आपके कानों में न पड़ती हों?--- इटली के लोगों, हमारी तरह आपके लिए भी ’बिस्सारिया’* मर चुका है, और ’फेरिनेस’* ज़िंदा है. यही नहीं, आइए, ज़रा उन कारणॊं पर विचार करें, जो आपके देश की इस स्थिति के मूल में हैं.

क्या आपके यहां ऎसी सरकार है, जो नैतिकता और राजनीति को एक-दूसरे में पिरोती हो? आप तो आज वहां आ गए हैं, जहां आप देश के लिए जान हथेली पर रखने वालों को अपराधी ठहराते और फ़िर उन्हें माफ़ी देकर जेल की दीवारों से बाहर निकालते हैं. ऎसा ही कुछ हमारे यहां फ्रांस में भी हुआ है. तो, सुनिए, आइए इन संकटों पर दृष्टि डालते हुए इनकी बगल में गुज़रें और अपने-अपने कंधे की गरुई गठरी एक जगह खोलें. सचमुच आप भी उतने ही गांठ के पक्के हैं, जितने हम! क्या हमारे यहां की तरह आपके यहां भी दो प्रकार के दंड-विधान नहीं हैं --- यानी, एक तो वह दंड जो धर्म के नाम पर पादरी देता है और दूसरा वह दंड जो समाज के नाम पर जज देता है. ओह, महान देश इटली, तुम अपनी बुनावट और बनावट में महान देश फ्रांस से कितने मिलते-जुलते हो! उफ, मेरे इटेलियन भाइयों, आप भी बिल्कुल हमारी ही तरह हैं---- किस्मत के मारे हैं!


आप अंधेरे की गहराइयों में रहते हैं, और आपको वहां से दूर ईडेन के, आंखों में चकाचौंध पैदा करने वाले, सिंहद्वार कुछ हमसे ज़्यादा साफ़ नहीं टीपते. ग़लत बातें तो महज़ यह पादरी करते हैं. सच तो यह है कि ईडेन के यह पावन-पूत सिंह-द्वार हमारे ऎन सामने हैं, हमारी पीठ के पीछे नहीं.

मैं यह मानकर चलता हूं कि ’ले-मिज़ेराबल’ वह आईना है, जिसमें जितने साफ़ चेहरे हमारे झलकते हैं, उतने ही आपके भी कुछ लोग, कुछ विशेष वर्ग इस कृति का विरोध करते हैं, इसके विरुद्ध विद्रोह का स्वर ऊंचा करते हैं. बात मेरी समझ में आती है, आईने का काम है सच्चाई के ऊपर से पर्दा उठा देना, इसलिए स्वाभाविक है कि लोग उससे घृणा करें, पर इस नफ़रत से कहीं कोई ऎसी रोक तो लगती नहीं कि लोग आईने का इस्तेमाल करना बंद कर दें.

जहां तक मेरा प्रश्न है, मैंने यह उपन्यास सबके लिए लिखा है, पर, इसे लिखते समय भी मेरे मन में अपने देश फ्रांस के लिए अनंत प्यार रहा है. यों ऎसा नहीं हुआ है कि इस रचना-क्रम में मैंने किसी और देश से अधिक महत्व फ्रांस को दिया हो. मैं अपने जीवन-पथ पर ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता गया हूं, त्यों-त्यों अधिक सहज होता गया हूं और मेरे देश-प्रेम की सीमाएं संपूर्ण मानवता के प्रति प्रेम तक लहराती गई हैं.

कहना न होगा कि यह प्रवृत्ति हमारे इस युग की अपनी विशेषता है. दूसरी ओर, फ्रांसीसी-क्रांति से उपलब्ध विवेक का भी अपना एक विधान है. यदि अब साहित्यिक कृतियों को, सभ्यता के विकास के अनुपात में, अपने को व्यापक बनाना होगा, तो वे भविष्य में फ्रेंच, इटेलियन, जर्मन, स्पेनिश या इंगलिश न होकर योरपीय होंगी--- मैं तो इसके एक क़दम आगे जाकर कहना चाहूंगा कि भविष्य में वे संपूर्ण मानव-समाज की होंगी.

यही कारण है कि अब कला की भी अपनी तईं तर्क-विधि होगी और रचना के सुरुचि और भाषा जैसे अपेक्षित तत्वों को, शेष तत्वों की भांति ही, कहीं अधिक विकसित होना होगा, अपना कहीं अधिक विस्तार करना होगा. रचना की यह अपेक्षाएं हर स्थिति पर अपना प्रभाव डालती हैं, पर, खेद का विषय है कि इनकी दृष्टि अब तक बहुत ही संकीर्ण रही है.

मुझे बड़ी प्रसन्नता है कि फ्रांस में कुछ आलोचकों ने काफ़ी बुरा-भला कहा, और मुझ पर आरोप लगाया है कि वे जिसे ’प्रांसीसी अभिरुचि’ कहते हैं, मैंने उसकी मर्यादा-रेखा लांघी है. काश कि उनके इस ’गुणगान’ में सत्व होता! होता तो मुझे हार्दिक सुख और संतोष का अनुभव होता.

संक्षेप में यह कि मैं जो कुछ भी कर सकता हूं, कर रहा हूं. मैं वही यातना और संत्रास झेल रहा हूं, जो दुनिया के तमाम लोग झेल रहे हैं. मैं अपनी यंत्रणा भूलकर उन्हें धीरज बंधाता हूं. मैं उनके दुख-दर्द में हिस्सा बंटाना और उसे कम करना चाहता हूं. मगर, साधन और सामर्थ्य की दृष्टि से मनुष्य बहुत ही बौना होता है, और मैं भी बहुत ही बौना हूं. इसीलिए तो सभी को गुहार रहा हूं कि करो, कृपा कर मेरी सहायता करो.

श्रीमान, मुझे बस यही कहना है, और आपका पत्र पढ़ने के बाद मुझे यह सब कहना पड़ा है. कहा भी मैंने यह सब आपके लिए है, और आपके देश के लिए है. अगर मेरी बात में कहीं कटुता आ गई है तो उसके लिए ज़िम्मेदार आपके पत्र के कुछ वाक्य हैं. आपने लिखा है –“दुनिया में एक देश इटली भी है और इटली के लोगों की गिनती भी ऎसी कुछ कम नहीं है. उनका कहना है – “ले-मिज़ेराबल’ फ्रेंच कृति है. हमारा उससे किसी तरह का कोई संबन्ध नहीं है, इसलिए फ्रांस के लोग उसे इतिहास समझकर पढ़ें, हम तो उसे रोमांस मानकर पढ़ते हैं.’”--- कमाल है! मैं यह बात दुबारा ज़ोर देकर कहना चाहता हूं कि हम चाहे इटैलियन हों और चाहें फ्रांसीसी, विपन्नता-आपदा-विपदा के मारे हम सब हैं. जब से इतिहास लिखा जाने लगा है, और जब से दर्शन ने मध्यस्थता करने का कार्य आरंभ किया है, तब से आज तक मानव-जाति दुख-दारिद्र्य से अपना तन ढंकती रही है. लेकिन, आज आख़िरकार वह क्षण आ गया है, जब हमें इन चिथड़ों को तार-तार कर देना होगा, और इंसानों को अतीत की इन सड़ी-गली धज्जियों से छुटकारा दिला देना होगा. हमें इन तमाम नंग-धंड़ग इंसानों के हाथ-पैरों को ढंकना होगा सुनहरे विहान के रतनारे परिधानों से.

श्रीमंत, यदि आपको मेरा यह पत्र उपयोगी लगे और ऎसा अनुभव हो कि इसे पढ़ने के बाद कुछ लोगों के मनो के भ्रम दूर होंगे, और उनके पूर्वाग्रह कटेंगे, तो आप इसे बिना संकोच के प्रकाशित कर-करा सकते हैं.

अंत में मैं आपको एक बार फ़िर आश्वस्त करना चाहता हूं कि मेरे मन में आपके देश के लिए, आपके देश के लोगों के लिए और आपके लिए अपार स्नेह है. कृपया मेरा आदर-भाव स्वीकार करें.

आपका—

१८ अक्टूबर,१८६२ विक्तोर ह्यूगो
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*बस्सारिया : यह व्यक्ति बहुत विद्वान था तथा उसने अपराध-विज्ञान तथा विधिशास्त्र पर अनेक पुस्तकों की रचना की थी. उसका मत था कि अपराधी को सुधरने का मौक़ा मिलना चाहिए ताकि वह समाज की मुख्य धारा में सम्मिलित हो सके. वह मृत्युदंड दिए जाने के सख़्त ख़िलाफ था.

* फेरीनेस : अत्यंत दीन-हीन व्यक्ति था , जिसके पास तीन बच्चों और ख़ुद को पालने के लिए पर्याप्त साधन नहीं थे. रोटी चुराने के इल्ज़ाम में उसे छह वर्ष का कारावास मिला. उसको भूख बहुत लगती थी तथा खाना पर्याप्त नहीं होता था. जेलर से और खाना मांगने पर हमेशा इंकार ही मिलता. उसकी कोठरी में एक लड़का आया, वह भी चोरी के ही इल्ज़ाम में लाया गया था. लड़का अपने खाने में से आधा फेरीनेस को दे देता. इस तरह दोनों मित्र बन गए. जेलर को यह बर्दाश्त न हुआ. उसने दोनों को अलग-अलग कोठरियों में बंद कर दिया. फेरीनेस फिर भूखा रहने लगा. जेलर से की गई प्रार्थना भी बेकार गई. अंत में फेरीनेस ने तंग आकर जेलर की हत्या करने का निश्चय किया. उसने कपड़ों में जेल के कारखाने से चुरायी एक छोटी कुल्हाड़ी छिपा ली. जेलर के सामने जाकर अत्यंत गंभीर और शांत स्वर में उसने कहा कि यदि उसे उस लड़के के साथ नहीं रखा गया तो वह जेलर की हत्या कर देगा. फेरीनेस की दृढ़ता और संकल्प शक्ति के आगे जेलर को हार माननी पड़ी और अंततः दोनों को पुनः एक ही कोठरी में रख दिया गया.
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अनुवाद : गोपीकृष्ण गोपेश
सम्पादक : आलोक श्रीवास्तव

’विपदा के मारे’ (ले-मिज़ेराबल) –
हिन्दी अनुवाद : स्व. गोपीकृष्ण गोपेश से साभार
संवाद प्रकाशन,
आई-४९९, शास्त्रीनगर,
मेरठ-२५० ००४
मूल्य : ६५०/-

1 टिप्पणी:

ashok andrey ने कहा…

अरे भाई चंदेल तुमने विक्तोर हुगो के पत्र पढ़वाकर बहुत बड़ा उपकार किया है मै तो इन पत्रों को पढ़ कर उनके विचारों से अती प्रभावित हुआ हूँ क्योंकि उनके विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक है जितने की उस वक्त. आज भी लगभग वैसे ही हालातों से तथा सामाजिक सोचों से झूज रहें हैं. इसको पढवाने के लिए मै तुम्हारा तथा आलोक श्रीवास्तव जी का आभार व्यक्त करता हूँ.