शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

बातचीत













कन्नड़ के वरिष्टतम लेखक एस.एल. भैरप्पा को बिरला फाउण्डेशन की ओर से ’सरस्वती सम्मान’ प्रदान किए जाने की घोषणा की गई है. भैरप्पा मेरे पसंदीदा लेखक हैं . उनके अधिकांश उपन्याशों का संग्रह मेरे पास है. भैरप्पा के उपन्यासों मे उनकी वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टि परिलक्षित है. ’पर्व’, ’साक्षी, उल्लंघन’, वंश वृक्ष, गृहभंग, आधार, गोधूलि, छोर, निराकरण ,तन्तु आदि उपन्यास इसके उदाहरण हैं. कन्नड़ में उन्हें लेकर विवाद रहा है और लेखकों का एक वर्ग उन पर अश्लीलता के आरोप मढ़ता रहा है, जो कि सच नहीं है. लेखक समय-सापेक्ष होता है और भैरप्पा के उपन्यासों में ऎसा कुछ नहीं जो अपने समय से साक्षात नहीं करवाता.

अक्टूबर, १९९३ में मैं सपरिवार बंगलौर, मैसूर और ऊटी की यात्रा पर गया था. मेरे साथ मित्र अशोक आंद्रे और श्रीमती बीना आंद्रे भी थे. हम १६ अक्टूबर को मैसूर पहुंचे. डी.आर.डी.ओ. गेस्ट हाउस में ठहरे, जो चामुण्डा हिल के सामने है. भैरप्पा जी से मिलने के लिए मैंने पत्र लिखकर दिन और समय पहले ही तय कर लिया था, लेकिन एक बार फोन करना आवश्यक था. १७ को सुबह मैंने उन्हें फोन किया तो फोन उन्होंने ही उठाया . सुबह दस बजे के लगभग मैं और अशोक आंद्रे उनसे मिलने उनके निवास पर पहुंचे. दुबले-पतले, गोरे मध्यम कद के भैरप्पा जी मेरी कल्पना से बाहर सहज-सरल थे. मैंने उनसे लंबी बातचीत की . वह हिन्दी कम बोल पा रहे थे, अतः बातचीत अंग्रेजी में हुई.

प्रस्तुत है भैरप्पा जी के साथ हुई बातचीत.

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लेखन में किसी ’केस हिस्ट्री’ को आधार नहीं बनाता :एस.एल. भैरप्पा

रूपसिंह चन्देल : आजकल आप कोई नया उपन्यास लिख रहे हैं ?

भैरप्पा : हाल ही में एक उपन्यास प्रकाशित हुआ है – ‍’तन्तु’ . यह एक बड़ा उपन्यास है. कन्नड़ में लगभग ९०० पृष्टों का. इसमें स्वातंत्र्योत्तर भारतीय जीवन को चित्रित किया गया है---- विशेषरूप से इन्दिरा गान्धी के समय को. इसमें मैंने राजनैतिक और सांस्कृतिक भ्रष्टाचार को उद्घाटित करने का प्रयास किया है. (बाद में मैंने इस उपन्यास की समीक्षा ’इंडिया टुडे’ के लिए लिखी थी ).

रूपसिंह चन्देल : अर्थात यह एक राजनैतिक उपन्यास है !

भैरप्पा : वास्तव में यह मात्र राजनैतिक उपन्यास ही नहीं है. इसकी पृष्ठभूमि राजनैतिक है अवश्य; किन्तु यह एक सामाजिक उपन्यास है. सामाजिक और वैयक्तिक जीवन का चित्रण है इसमें.

रू.सिं.च. : हिन्दी में इसका सही अर्थ----

भैरप्पा : इसका साहित्यिक अर्थ है तार-धागा.

रू.सिं.च. : यह संस्कृत शब्द है.

भैरप्पा : जी हां.

रू.सिं.च. : इस उपन्यास का हिन्दी अनुवाद होगा ?

भैरप्पा : जी हां, हिन्दी में अनुवाद होगा. श्री बी.आर.नारायणन करेंगे.

रू.सिं.च. : आपके अधिकांश उपन्यासों का हिन्दी अनुवाद उन्होंने ही किया है.

भैरप्पा : हां, ’पर्व’, ’गोधूलि’, ’आधार’, और----.

रू.सिं.च.: ’उल्लघंन’ .

भैरप्पा : उल्लघंन का नहीं. उल्लधंन का अनुवाद पुत्रन ने किया है.

रू.सिं.च. : और ’छोर’---?

भैरप्पा : ’छोर’ का अनुवाद शेट्टी ने किया है.

रू.सिं.च. : आपने ’छोर’ में ’चामुण्डा हिल’ (मैसूर) को चित्रित किया है. आपकी पात्रा अमृता चामुण्डा पहाड़ी पर और जंगल में दिन और रात में (प्रायः हर दूसरी रात) जाती है.

भैरप्पा : जी हां.

रू.सिं.च.: ’छोर’ में अमृता का चरित्र पाठकों को आकर्षित करता है. उपन्यास में मनोवैज्ञानिक चित्रण हमें मिलता है.

भैरप्पा : हां.

रू.सिं.च. : आपने लेखक बनने का ही निर्णय क्यों किया. ? उसके पीछे क्या कारण थे ?

भैरप्पा : इसके पीछे मेरी पारिवारिक पृष्ठभूमि थी. मैं एक गांव से आया था. मेरा परिवार बहुत ही गरीब था--- बहुत ही गरीब. मेरी मां कुछ साहित्यिक अभिरुचि की थीं. कन्नड़ में ’भारत’ को (यहां शायद महाभारत से आभिप्राय है) ’कुमार व्यास भारत’ के नाम से जाना जाता है, जिसका प्रणयन चौदहवीं शताब्दी में किया गया था. यह अत्यधिक प्रभावपूर्ण महाकाव्य है. व्यास भारत का कन्नड़ ’वर्जन’ ’भामिनी सत्पथी काव्य’ में लिखा गया है. मेरी मां ’कुमार व्यास भारत’ को पढ़ती रहती थीं और वह स्वयं भी कुछ कविताएं लिखती थीं. लेकिन वह सब ग्रामीण स्तर तक ही सीमित था. उनकी कोई पहचान न थी. मैं सोचता हूं, मेरी मां से ही मुझे साहित्यिक प्रेरणा प्राप्त हुई थी. जब मैं ११ वर्ष का था, मेरी मां की मृत्यु हो गयी थी. और जब मैं ९ वर्ष का था, मेरे बड़े भाई और बड़ी बहन की मृत्यु हो गयी थी. वह भी एक ही दिन. उन दिनों ’प्लेग’ भयानक रूप से फैलता था. ’क्लोरोमाइसिटिन’ तब तक इज़ाद नहीं हुई थी.

रू.सिं.च. : शायद आपका एक उपन्यास इसी---.

भैरप्पा : ’गृहभंग’ . सच तो यह है कि मैं भी ’प्लेग’ की पकड़ में आ गया था. लेकिन यह एक प्रकार का चमत्कार ही था कि मैं बच गया. भाई और बहन की एक ही दिन हुई मृत्यु से मैं बुरी तरह विचलित हो उठा था. और जब मेरी मां की मृत्यु हुई मैं पूर्णरूप से अनाथ हो गया और किसीने भी मेरी परवाह नहीं की.

रू.सिं.च. आपके पिता जी ---?

भैरप्पा : मेरे पिता जी आवारा किस्म के व्यक्ति थे. उन्होंने कभी जिम्मेदारी अनुभव नहीं की. यही (सब कारण) पृष्ठभूमि थी. उसके बाद (जीविका और अध्ययन के लिए) मैं एक शहर से दूसरे शहर भटकता रहा. कमाते हुए पढ़ाई जारी रखने के लिए मैंने सभी प्रकार के काम किए. उदाहरण के लिए मैं होटल में ’सप्लायर’ था, तो सिनेमा थियेटर में ’गेटकीपर’ रहा---.

रू.सिं.च. (आश्चर्यान्वित स्वर में) ऎसा ?

भैरप्पा : हां! यही नहीं, मैं मैसूर से अगरबत्ती खरीदता और उन्हें कुछ खास स्थानों में जाकर बेचता था. इस प्रकार कुछ पैसे कमाकर पढ़ाई जारी रखने की कोशिश करता रहा. यह मेरे जीवन के प्रारंभिक अनुभव थे. जब मैंने इण्टरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण की तब तक मैं बेहद अन्तर्मुखी हो चुका था और मृत्यु क्या है --- मृत्यु के पश्चात आत्मा कहां जाती है जैसे प्रश्न मेरे मस्तिष्क में घूमने लगे थे.

(कुछ रुकावट)

मैंने बी.ए. में दर्शनशास्त्र पढ़ने का निर्णय किया. केवल यह जानने के उद्देश्य से कि आत्मा, परमात्मा, मृत्यु आदि सब क्या हैं? मैंने दर्शन में एम.ए. किया और प्राध्यापक हो गया. प्राध्यापक होकर मैं सरदार पटेल विश्वविद्यालय गुजरात चला गया.

रू.सिं.च. आपने मैसूर विश्वविद्यालय से ही शिक्षा प्राप्त की थी ?

भैरप्पा : एम.ए. और उससे पूर्व की शिक्षा मैसूर विश्वविद्यालय से ही प्राप्त की. जब मैं हाई स्कूल में था, मैंने स्कूल छोड़ दिया था और सेना में भर्ती होने गया था. सेना में मेरा चयन भी हो गया था, लेकिन मैं ’एयर फोर्स’ में जाना चाहत था. उन्होंने मुझे ’एयर फोर्स’ में लेने से इंकार कर दिया, क्योंकि मैं हाई स्कूल नहीं था. ’नॉन मैट्रिक’ को वे ’एयर फोर्स’ में नहीं लेते थे. उन्होंने मुझे थल सेना के लिए कहा, लेकिन वह मुझे पसन्द नहीं था और मैं नहीं गया. उसके बाद मैं बम्बई गया. मेरे पास पैसे नहीं थे. मैं हुबली तक ट्रेन से गया. मैं बिना टिकट था. टिकट चेकर आया और मैं पकड़ा गया. क्रोधित स्वर में वह बोला, “बिना टिकट यात्रा करते तुम्हे शर्म नहीं आती ?” मैंने वास्तव में शर्मिन्दगी अनुभव की और पैदल ही बम्बई जाने का निर्णय किया.

(कुछ याद करते हुए)

मैं बम्बई क्यों गया ? (चेहरे पर गंभीर भाव--- कुछ सोचते हुए) क्योंकि कुछ लोगों ने मुझे कहा था कि तुम बम्बई जाओ. बम्बई एक ऎसी जगह है जहां भिखारी भी लखपती हो जाता है. मैंने सोचा, मैं भी लखपती बनूंगा. मैं पांच महीने तक वहां रुका. वहां, बम्बई सेण्ट्रल रेलवे स्टेशन पर कुली का काम करने लगा और वहीं रहने लगा. एक दिन मैंने दो लोगों को कन्नड़ भाषा में बातें करते सुना. मैं उनके पास गया और कन्नड़ में उनसे बात की. ज्ञात हुआ वे तांगावाले थे और मेरी ओर के --- मेरे क्षेत्र के थे. उस अनजान जगह पर अपने क्षेत्र के लोगों से मिलकर मुझे जो खुशी हुई होगी, उसका अंदाजा आप लगा सकते हैं. उन दोनों ने मुझसे पूछा, “मैं वहां क्या कर रहा हूं ?” मैंने बताया तो वे बोले, “हमारे साथ चलो.”

मुझे वे अपनी चाल में ले गए. आप जानते हैं बम्बई में चाल क्या होती है?

रू.सिं.च. : हां आ.

भैरप्पा : (द्विविधा भांपकर अपने कमरे की ओर संकेत कर ---जिस कमरे में हम बातें कर रहे थे वह १०X१२ के लगभग था.) इस कमरे से कुछ बड़ी जगह होती है और लगभग पन्द्रह लोग उसमें रहते थे. मैं भी उस व्यवस्था का अंग बन गया. उन दोनों ने आश्वस्त किया कि वे ’तांगावाला’ बनने में मेरी सहायता करेंगे. वे मुझे तांगा चलाना सिखायेंगे. और तांगा चलाने के लिए लाइसेंस प्राप्त करने में मेरी मदद करेंगे. बम्बई में उन दिनों तांगा को ’विक्टोरिया’ कहा जाता था. मुझे लाइसेस नहीं मिला. मैं उन सभी के लिए खाना अवश्य पकाने लगा. सभी पन्द्रह लोगों के लिए. उनमें से कुछ तांगावाले थे, कुछ कुली और कुछ मिलों में मजदूर थे. मुझे भोजन पकाना आता था और मैंने सहर्ष वह काम स्वीकार कर लिया. उसके बदले मेरा रहना और खाना मुफ्त था. उस चाल के निकट ही एक पुस्तकालय था. खाली समय मैं पुस्तकालय में पुस्तकें पढ़ते हुए बिताने लगा. पांच महीने पश्चात वहां तीन ’मेटीकेट्स’ (साधू) –अवधूत किस्म के साधू आए. जो एक स्थान से दूसरे स्थान में घूमते रहते थे. उन दिनों दर्शन प्रतिक्षण मेरे मस्तिष्क को विकल किए रहता था. मैं उन अवधूतों के साथ हो गया और लगभग एक माह तक उनके साथ मैं गांव-गांव घूमता फिरा. वे गांव-गांव भीख मांगते थे. भीख मांगने का यह अर्थ नहीं कि दरवाजे –दरवाजे जाकर मांगते थे. वे किसी मंदिर में जाकर डेरा जमाते थे, कोई न कोई उन्हें भोजन पहुंचाता था और वे लोग भजन-कीर्तन करते थे और गांजा फूंकते थे. मैं भी वह सब करने लगा. लेकिन एक माह पश्चात मैं उस जीवन से ऊब गया. वापस लौटकर मैंने अपनी पढ़ाई पुनः जारी रखने का निर्णय किया. उन्हें छोड़कर मैं मैसूर आ गया. पढ़ाई प्रारंभ की और मैट्रिक किया. उस समय तक मेरा लक्ष्य स्पष्ट हो चुका था--- अर्थात मुझे पढ़ना था. उसके तुरन्त बाद मैंने कॉलेज ज्वाइन किया. कठिन से कठिन काम करते हुए मैंने पढ़ाई जारी रखी.

रू.सिं.च. ’पार्ट टाइम’ काम भी किया----किसी फर्म आदि में?

भैरप्पा : हां. और इस प्रकार मैंने बी.ए. में दर्शन का अध्ययन किया. जबकि मेरे मित्रों ने कहा कि दर्शन के स्नातक के लिए जॉब लेना कठिन होगा. इसका व्यासायिक मूल्य नहीं है. मैंने उत्तर दिया कि मुझे जॉब की चिन्ता नहीं है. बाद में मैंने दर्शन में ही एम.ए. किया और हुबली के एक निजी कॉलेज में मुझे काम भी किल गया. वहां से गुजरात गया. एक विद्यार्थी के रूप में मैं सदैव ’मेरिट’ में रहा था और विश्वविद्यालय में मैं प्रथम श्रेणी में प्रथम था.

रू.सिं.च. निश्चित ही उन दिनों प्राध्यापक पद के लिए आज जैसी आपा-धापी भी न थी.

भैरप्पा : जी हां, मुझे सहजता से प्राध्यापकी मिल गयी थी. मैंने बड़ौदा विश्वविद्यालय से पी-एच.डी. की. मेरी पी-एच.डी. ’सत्य और सौन्दर्य’ पर है.

रू.सिं.च.: क्या यह हिन्दी में प्रकाशित हुई है ?

भैरप्पा : यह अंग्रेजी और कन्नड़ में प्रकाशित हुई है. पी-एच.डी. के बाद मैंने सौन्दर्यशास्त्र पर ही डी.लिट करने का निर्णय किया. डी.लिट .करते हुए एक पुस्तक लिखने का विचार आया. इसी दौरान मैंने दो उपन्यास लिखे.

रू.सिं.च.: आपने अपना पहला उपन्यास कब लिखा ?

भैरप्पा : मेरा पहला उपन्यास था ’ धर्मश्री’ जो १९५८ में लिखा गया. एम.ए. करने के कुछ दिनों पश्चात ही.

रू.सिं.च.: क्या उसका अनुवाद हिन्दी में हुआ है ?

भैरप्पा : नहीं.

रूपसिंह चन्देल : आपका दूसरा उपन्यास ?

भैरप्पा : दूसरे का अनुवाद भी हिन्दी में नहीं हुआ. क्योंकि मेरी दृष्टि में वे साधारण उपन्यास हैं. लेकिन जैसे ही मैंने पी-एच.डी. का शोध प्रबन्ध प्रस्तुत किया, मैंने ’वशवृक्ष’ लिखा. कथानक तो मेरे दिमाग में था ही. उपन्यास लिखा और पाण्डुलिपि रखकर भूल गया.

रू.सिं.च.: नारी प्रधान चरित्रवाला उपन्यास, जो पढ़ने के लिए प्रतिदिन मैसूर आती-जाती है--- डेली पैसेन्जर और जो प्रायः वृन्दावन गार्डन जाती है…..

भैरप्पा : हां---हां---वही. उपन्यास लिखकर मैं अपने डी.लिट के काम में व्यस्त हो गया था. उसमें मैं ढाई वर्ष व्यस्त रहा. ’वंशवृक्ष’ की पाण्डुलिपि के विषय में स्मरण ही नहीं रहा. उस समय मैं गुजरात में था. मेरा प्रकाशक हुबली में था. उसने मुझे पत्र लिखा कि ढाई वर्ष पहले आपने बताया था कि आपने ’वंशवृक्ष’ उपन्यास लिखा था. बाद में उसके विषय में आपसे कुछ सुनने को नहीं मिला. आपने माण्डुलिपि क्यों नहीं भेजी ? उसने पाण्डुलिपि मांगी. मुझे अब साफ प्रति तैयार करनी थी. उन दिनों कन्नड़ टाइपिंग की सुविधा न थी. मैंने पाण्डुलिपि निकाली और उसे पढ़ना प्रारंभ किया. जब मैंने पाण्डुलिपि पढ़नी शुरू की, मुझे उससे प्यार होता गया. मैं उसमें डूब गया. मैंने उसे बार-बार पढ़ा और बार-बार ठीक किया. और साफ प्रति तैयार कर प्रकाशक को भेज दी. उसके पश्चात मैं पुनः डी.लिट. के शोधकार्य में लग गया. लेकिन मैं अपने को दोबारा उस ओर ’कन्सट्रेट नहीं कर सका. सोचने लगा, मैं क्या कर रहा हूं ! मेरा क्षेत्र तो साहित्य है---- रचनात्मक लेखन. जो जीवन में रस दे सकेगा और मुझे पहचान भी. सौन्दर्यशास्त्र में हम केवल रस पर चर्चा कर सकते हैं. वह रचनात्मक कार्य न होगा. इसलिए मैं साहित्य की ओर उन्मुख हुआ. लेकिन मैंने कभी साहित्य का औपचारिक अध्ययन नहीं किया था. केवल सामान्य अध्ययन ही था. अतः मुझे साहित्य का अध्ययन करना चाहिए, मैंने सोचा. मैंने अपने एक मित्र से संपर्क किया, जो अंग्रेजी विभाग में थे, क्योंकि मैं अध्यापन के साथ एम.ए. अंग्रेजी की पढ़ाई करना चाहता था. ’’क्या आप अपने विभाग में अनुमति देंगे?” मैंने उनसे पूछा, “आप मुझे इस प्रकार एडजस्ट करें, जिससे मैं अपने विभाग में पढ़ा सकूं और आपकी क्लास में आकर पढ़ सकूं.” उन्होंने इस विषय में अपने सहयोगियों से चर्चा की. उनके सहयोगियों ने कहा, “भैरप्पा दर्शन विभाग में प्राध्यापक हैं और सौन्दर्यशास्त्र में पी-एच.डी. हैं. यदि वे हमारी कक्षा में विद्यार्थी होकर बैठेगें तो हम अपने को बाधित अनुभव किए बिना न रह सकेंगे.”

(समवेत हंसी)

उसके बाद मेरे मित्र, जो अंग्रेजी विभागाध्यक्ष थे, बोले, “आप अंग्रेजी में एम.ए. क्यों करना चाहते हैं ? एम.ए.(अंग्रेजी) में आपको उसका इतिहास, काव्य, आलोचना आदि पढ़ना होगा, जबकि (मेरे विचार से ) आपका उद्देश्य एक उपन्यासकार बनना है. इसके बजाए आप विश्वप्रसिद्ध क्लासिक उपन्यास , जैसे रशियन उपन्यासकारों में तोल्स्तोय, दॉस्तोएव्स्की, तुर्गनेव आदि, फ्रेंच लेखकों में विक्टर ह्यूगो, बाल्जाक आदि--- और कुछ अंग्रेजी तथा स्पेनिश लेखकों को पढ़ें. पहले आप उपन्यास पढ़ें, फिर उन पर आलोचना. एक दिन आप स्वतः अनुभव करेंगे कि आप कहां खड़े हैं. यदि आप चाहेंगे तो मैं आपका दिशा निर्देश कर सकूंगा.”

इसप्रकार मैंने विश्व-साहित्य का अध्ययन प्रारंभ किया—श्रेष्ठ उपन्यासों का. और इस प्रकार मैं धीरे-धीरे साहित्य में डूबता चला गया. मैं सोचता हूं कि वह मेरे जीवन का ’टर्निंग पाइण्ट’ था. दर्शनशास्त्र से मैं साहित्य में आया. दर्शन में मैं अधिक मौलिक न रह पाता, क्योंकि तब मैं दर्शन का विद्वान मात्र बनकर रह जाता. वास्तव में उस समय मेरी अभिलाषा थी डी.लिट. करके किसी अमेरिकन विश्वविद्यालय में प्राध्यापिकी हासिल करने की. वहां अध्यापन करने और वहीं व्यवस्थित होकर दर्शन की पुस्तकें लिखने और उन्हें अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त प्रकाशक से प्रकाशित करवाने की. मेरे आदर्श थे डॉ. राधाकृष्णन. मैं नाम, यश और अच्छा वेतन चाहता था. शायद मेरी गरीब पृष्ठभूमि के कारण. अच्छा वेतन मेरी प्रमुख इच्छा थी. लेकिन जब मेरा झुकाव साहित्य की ओर हुआ तो मेरे मस्तिष्क में एक द्वन्द्व प्रारंभ हो गया. लगभग छः महीनों तक मैं द्वन्द्व में जीता रहा. मैं सोचता, मैं कन्नड़ में उपन्यास लिखता हूं--- मुझे मान्यता कैसे मिलेगी? मैं कर्नाटक से बाहर गुजरात में हूं--- मुझे प्रोत्साहन के अवसर कहां मिलेंगे ? इसी तरह के सवालों में मैं उलझ गया. लेकिन आंतरिक दबाव इतना अधिक था कि मैंने तय किया कि भले ही मुझे एक ’लेक्चरर’ के रूप में ही क्यों न अवकाश ग्रहण करना पड़े ( और मैं था भी लेक्चरर)--- लेकिन मुझे अब अपने को केवल साहित्य में केन्द्रित करना चाहिए, क्योंकि मैं एक ऎसे बिन्दु पर पहुंच चुका हूं, जहां मनोवैज्ञानिक तौर पर उपन्यास लिखने के अतिरिक्त और कुछ कर ही नहीं सकता. इसलिए मैंने वही निर्णय किया.

रू.सिं.च. आपने मैसूर विश्वविद्यालय कब ज्वाइन किया ?

भैरप्पा : मैसूर विश्वविद्यालय नहीं. लगभग छः वर्षों तक मैं गुजरात में था. वहां से एन.सी.आर.टी. नई दिल्ली आया.

रू.सिं.च. : किस रूप में ?

भैरप्पा : रीडर होकर. उन दिनों इसे ’वरिष्ठ अनुसंधान अधिकारी’ कहा जाता था.

रू.सिं.च. : किस वर्ष ?

भैरप्पा : जनवरी, १९६७ से जून १९७१ तक मैं वहां था, लगभग साढ़े चार वर्ष. वहां से यहां मैसूर में एक कॉलेज है – ’रीजनल कॉलेज ऑफ एजूकेशन’ (जो एन.सी.आर.टी. के अधीन आता है) में स्थानांतरण के लिए अनुरोध किया और मैं यहां आ गया. बीस वर्षों तक इस कॉलेज में सेवा करने के बाद मैंने अवकाश ग्रहण किया.

रू.सिं.च. : तो आजकल आप अपने को केवल साहित्य सृजन में केन्द्रित किए हुए हैं.

भैरप्पा : हां. (कुछ रुककर) दूसरे विषयों के पढ़ने में भी मेरी रुचि है, जैसे, इतिहास, समाजशास्त्र, विज्ञान आदि. दर्शन तो मेरा प्रोफेशनल विषय रहा ही है.

रू.सिं.च. : साहित्यकार को अधिकाधिक विषयों को पढ़ना चाहिए----.

भैरप्पा : हां---

रू.सिं.च. : आपकी पत्नी---?

भैरप्पा : वह मात्र गृहणी हैं. आजकल वह यहां नहीं हैं--- बद्री, केदार और गंगोत्री की यात्रा पर गयीं हुई हैं.

रू.सिं.च. : आपके बच्चे क्या कर रहे हैं ?

भैरप्पा : मेरे दो बच्चे हैं. दोनों इंजीनियर हैं. बड़ा लड़का मस्कट में है.

रू.सिं.च. : स्थायी नौकरी में ?

भैरप्पा : स्थाई नहीं.

रू.सिं.च. : कांट्रैक्ट में ?

भैरप्पा : हां---- और मेरा दूसरा बेटा हैदराबाद में है.

रू.सिं.च. : आजकल आप अकेले हैं. अतः आप अधिक एकाग्रतापूर्वक लेखन कर पा रहे होंगे.

भैरप्पा : नहीं---- ऎसा नहीं है. जब मेरे बच्चे साथ होते हैं तब भी मैं किसी को यह अनुमति नहीं देता कि कोई मेरी एकाग्रता को भंग करे. मेरी पत्नी पारिवारिक मसलों को नियंत्रित करती है और मैं अपने को लेखन, अध्ययन और यात्रा में ’कन्सण्ट्रेट’ करता हूं.

रू.सिं. च.: यात्राएं आपको पसंद हैं ?

भैरप्पा : (मुग्धस्वर में) बहुत.

रू.सिं.च.: आपने किन-किन स्थानों की यात्राएं की हैं ?

भैरप्पा : भारत में लगभग सभी स्थानों की यात्रा मैंने की है. जैसा कि बता चुका हूं मैं गुजरात और दिल्ली में था. कई बार विभागीय कार्यों से मुझे देश के भिन्न-भिन्न स्थानों में जाना पड़ा. इसके अतिरिक्त मैं अपने खर्च पर भी यात्रा करता रहा हूं. हिमालय में मेरी विशेष रुचि है. अनेक बार मैंने हिमालय की यात्रा की है. और मैंने कैलाश –मानसरोवर की यात्रा भी की है. जब १९८१ में पहली बार चीन ने अनुमति दी थी, मैंने यात्रा के लिए आवेदन किया. मैं चुना गया और वहां गया. मैंने बहुत से दूसरे देशों की यात्रा भी की है. सम्पूर्ण योरोपीय देशों में मैं दो बार घूमा हूं.

रू.सिं.च.: निजी खर्च से या----.

भैरप्पा : कभी किसी सम्मेलन में या अन्य कार्य से जाता रहा हूं.

रू.सिं.च.: एन.सी.आर.टी. के काम से !

भैरप्पा : एन.सी.आर.टी. की ओर से नहीं. कुछ साहित्यिक सम्मेलनों में भाग लेने--- और कभी निजी खर्च से. मैंने इस तरह यात्रा की ---- मान लो मैं किसी सम्मेलन में भाग लेने के लिए जर्मनी गया--- वहां कार्य सम्पन्नकर अपने खर्च पर मैं पड़ोसी देशों में घूमने निकल जाता रहा. मैंने धन खर्च किया और यात्राएं कीं. मैंने योरोप, कनाडा और अरब देशों की यात्राएं कीं. मैंने चीन, जापान, सिंगापुर, और हांगकांग आदि की भी यात्राएं कीं. सच तो यह हि कि भ्रमण मेरा शौक है---- मेरी कमजोरी है यात्रा----.

रू.सिं.च.: आपने ’पर्व’ लिखने की योजना कब बनायी ? जब आप दिल्ली में रहते थे ?

भैरप्पा : जब मैं दिल्ली में था, ’पर्व’ की ’थीम’ मेरे मस्तिष्क में थी. लेकिन जब मैं मैसूर आ गया, मैंने ’पर्व’ पर गंभीरतापूर्वक शोध प्रारंभ किया. छः से सात वर्ष तक मैंने ’पर्व’ से सम्बन्धित सामग्री की खोज में लगा दिए. इसमें सभी ऎतिहासिक तथ्य, परम्परांए, व्यवहार आदि के विषय में जानना था. मैं उन स्थानों में गया, जिनका सम्बन्ध महाभारत से था. जैसे द्वारका, विराटनगर, कुरुक्षेत्र और जरासंध का स्थान ’राजगृह’ (राजगीर), हस्तिनावती और हिमालय के निचले स्थान, यथा – पाण्डुकेश्वर (जोशीमठ और बद्रीनाथ के मध्य एक जगह है, जिसे पाण्डुकेश्वर कहते हैं). वहां यह मान्यता है कि पाण्डु ने वहीं निवास किया था, जब वह अपनी पत्नियों के साथ गया था. इस प्रकार मैंने ’अध्ययन यात्राएं’ कीं और तब ’पर्व’ लिखा.

रू.सिं.च. हिन्दी लेखकों में आपने किन्हें पढ़ा है ?

भैरप्पा : मेरी समस्या यह है कि मैं हिन्दी तो पढ़ सकता हूं, लेकिन मेरी गति बहुत कम है. मैंने जयशंकर प्रसाद को पढ़ा है.

रू.सिं.च. : प्रेमचन्द को पढ़ा ?

भैरप्पा : प्रेमचन्द को मैंने कन्नड़ में पढ़ा है. मूल हिन्दी में मैंने ’गुनाहों का देवता’ पढ़ा है.

रू.सिं.च.: डॉ. धर्मवीर भारती का उपन्यास ….

भैरप्पा : हां. इसके अतिरिक्त मैंने एकाध और पुस्तकें पढ़ी हैं.

रू.सिं.च.: अनुवाद में केवल प्रेमचन्द को ही आपने पढ़ा ?

भैरप्पा : नहीं और भी मैंने पढ़ा. इस समय वह सब याद नहीं आ रहा है. लेकिन जब भी कुछ उपलब्ध होता है, मैं पढ़ता हूं.

रू.सिं. च.: मुझे महसूस होता है कि हिन्दी से कन्नड़ अनुवाद में कुछ समस्या है शायद ! क्या कोई भी हिन्दी उपन्यासों का कन्नड़ में अनुवाद करने के लिए उत्साहित नहीं होता ?

भैरप्पा : नहीं, ऎसा नहीं है. बहुत लोग अनुवाद करना चाहते हैं और बहुतों का हुआ भी है. कुछ ऎतिहासिक उपन्यासों का अनुवाद हुआ है.

(कुछ व्यवधान)

(भैरप्पा जी उठकर जाते हैं. जिस डाक्टर को आना था, वह आ गयी थीं. वे लौटकर, सरलतापूर्वक बताते हैं कि वह महिला अतिथि किस प्रकार बेअगांव से मैसूर पहुंचीं.)

रू.सिं.च. : कृपया अपने ’छोर’ उपन्यास के विषय में बताएं! इसके कथानक की प्रेरणा आपको कहां से मिली ? इसकी पृष्ठ्भूमि में कोई ऎसा वास्तविक चरित्र था जिसे आप जानते थे ?

भैरप्पा : नहीं---नहीं---. प्रायः मैं वास्तविक चरित्रों को आधार नहीं बनाता. होता क्या है, जहां हम वास्तविक चरित्र को आधार बनाते हैं, वह उपन्यास कभी अच्छा नहीं हो सकता. यह बात मैं अपने व्यक्तिगत लेखन-अनुभव के आधार पर कह रहा हूं. जब कल्पना पूर्णरूप से स्वतंत्रतापूर्वक कार्य करती है तब एक अच्छे उपन्यास का जन्म होता है --- भले ही वह काल्पनिक होता है. ’छोर’ वास्तव में मेरे उपन्यास ’साक्षी’ का विकास है. आपने साक्षी पढ़ा है ?

रू.सिं.च. : जी हां.

भैरप्पा : ’साक्षी’ में एक व्यक्ति केवल औरतों और सेक्स के पीछे दौड़ता रहता है. वह, मंजय्या यह नहीं जानता कि वह चाहता क्या है ? लेकिन वह एक औरत से दूसरी औरत की ओर दौड़ता रहता है. एक नारी चरित्र है सरोजाक्षी. मंजय्या उसके पीछे होता है और एक रात वह अवसर आ भी जाता है. सरोजाक्षी उसे उत्तेजित कर देती है और उत्तेजित हो मंजय्या कुछ करता, इससे पहले ही वह उसे रोककर कहती है, “ उत्तेजित मत हो. कुछ करने से पूर्व हम क्यों न कुछ देर बातें करें. और तब वह प्रश्न पूछती है. “अपने जीवन में तुम कितनी औरतों के साथ सोये हो ? क्रिकेट के खिलाड़ी की भांति कितने शतक पूरे किए ? मैं जानती हूं कि तुमने बहुत सारी औरतों कॊ ’हिट’ किया है, लेकिन जानना चाहती हूं कि तुम एक औरत से दूसरी औरत तक क्यों भटकते रहे ? तुमने क्या पाया ? क्या मिला तुम्हें ? क्या पाना चाहते हो ?” सरोजाक्षी ने विनम्र होकर कहा, “कृपया मेरे प्रश्न का उत्तर दो.” और तब वह रिफ्लेक्टिव हो गया. सरोजाक्षी ने उसे उत्साहित करने की कोशिश की, लेकिन वह पुनः उत्तेजित नहीं हुआ. वह उसके साथ कुछ नहीं कर सका. तब सरोजाक्षी ने कहा, “आप पुरुष हैं? नहीं, वास्तव में आप पुरुष नहीं हैं.” आदि आदि.

(कुछ रुककर)

आप कहानी जानते हैं. तब एक विचार मेरे मस्तिष्क में था, “आदमी जीवन में क्या पाता है ? जीवन क्या है ?” यही प्रश्न था. उपन्यास ’छोर’ में उस प्रश्न के दो रूप उभरते हैं. ’छोर’ की नायिका ’अमृता’ जो प्यार की आकांक्षिणी है और एक आदमी है (सोम शेखर) जो उसे प्यार देना चाहता है. लेकिन अमृता उसी के साथ दुर्व्यवहार करती है और वह अपनी सहिष्णुता प्रदर्शित करता उसे बर्दाश्त करता है. जबकि कोई भी उस महिला (अमृता) के साथ अपना संबन्ध बरकरार नहीं रख सकता था. लेकिन सवाल यह है कि अमृता सोमशेखर के साथ क्रूर व्यवहार क्यों करती है ? उसने क्या गलती की है ?दूसरों ने तो अमृता के साथ गलतियां की थी, जबकि सोमशेखर ने नहीं. लेकिन वह उन सबका प्रतिशोध उससे लेना चाहती है, जो उसे प्यार करता है. यही प्यार का वास्तविक रूप है. इस प्रकार मैंने प्यार को व्याख्यायित-चित्रित करने का प्रयास किया है. ’साक्षी’ से ’छोर’ तक मैंने किसी खास ’केस हिस्ट्री’ का अनुसरण नहीं किया . यह कोई मनोवैज्ञानिक उपन्यास ही नहीं है. यह प्रणय की प्रकृति को चित्रित करता है. इसके अतिरिक्त सम्पूर्ण व्यवस्था (सामाजिक) के विरुद्ध कुछ विषयों का खुलासा करता है. जैसे किसी युवक –युवती पर परिवार द्वारा विवाह का थोपा जाना. वह (अमृता) इसी बात के विरुद्ध विद्रोह करती है. वह कहती है कि उसका विवाह उसके साथ किया गया एक फ्राड था. वह एक प्रकार का धोखा था. अतः वह उससे बोझ की भांति फेककर मुक्त हो जाती है.

(बाहर कहीं कौओं की कांव-कांव सुनाई पड़ती है. बीच-बीच में सड़क पर चलती गाड़ियों का हार्न भी सुनाई दे जाता है.)

रू.सिं.च. : आपके अनेक उपन्यास नारी प्रधान हैं, जैसे कि ’वंशवृक्ष’, ’छोर’, ’उल्लघंन’--- जिनमें नारी चरित्रों को केन्द्र में रखा गया है. इसका कारण ?

भैरप्पा : कई पुरुष पात्र भी तो हैं. सशक्त पुरुष चरित्र. उदाहरण स्वरूप ---’वंशवृक्ष’. उसमें भी सशक्त पुरुष पात्र हैं. होता क्या है, जब आप वास्तविक जीवन में देखते हैं कि पुरुष सशक्त हो जाता है-- उसका विकास बौद्धिकता और वैचारिकता की ओर अधिक होता है. लेकिन नारी की शक्ति का आधार होता है प्यार और आकर्षण. मैं सोचता हूं, यह प्रकृति प्रदत्त होता है. ’पर्व’ में कुन्ती का चरित्र ऎसा ही है. दूसरे चरित्र भी हैं. द्रौपदी भीम से अधिक शक्तिशाली है. कुन्ती दूसरे पात्रों की अपेक्षा अधिक सशक्त है. वास्तविक जीवन में आप पुरुष और नारी की प्रकृति पर विचार करें तो पाएगें कि जहां पुरुष बौद्धिक स्तर पर शक्ति अर्जित करता दिखता है, वहीं नारी भावुकता के स्तर पर अधिक सशक्त होती है.

रू.सिं.च.: आपने कहानियां भी लिखी हैं ?

भैरप्पा : मैंने केवल दो कहानियां लिखी हैं.

रू.सिं.च.: दो के आगे क्यों नहीं लिख पाए ?

भैरप्पा : मैं ;समझता हूं हर लेखक का एक मनोधरम---प्रकृति होती है--- तो मैंने अनुभव किया कि मैं जो भी कहना चाहता हूं उसे ’शार्ट स्टोरी’ में कहना मेरे लिए कठिन है.

(घड़ी पर नजर डालता हूं, बारह बजने वाले हैं. कई आवश्यक कार्य कर दो बजे गेस्ट हाउस पहुंचना था. शैलानियों के लिए समय सदैव महत्वपूर्ण होता है. मैं भैरप्पा जी के प्रति क्रुतज्ञता ज्ञापित करता हूं और प्रणाम कर बाहर निकल आता हूं. बाहर खिलखिलाती धूप मेरा स्वागत करती है. मैं आंद्रे के साथ सड़क पर उतर जाता हूं भैरप्पा जी के विषय में सोचता हुआ, जिन्हें कुवेम्पुनगर (मैसूर) का बच्चा-बच्चा जानता है.

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3 टिप्‍पणियां:

विजय गौड़ ने कहा…

bahut hi mahtwpurn baatchit hai ye tou, sahajne laayak. bherappa ji ko maine padha bhi hai.

PRAN SHARMA ने कहा…

Behtreen sanwaad ke liye aapko
badhaaee aur shubh kamna.

सुभाष नीरव ने कहा…

कन्नड़ के वरिष्ट लेखक भैरप्पा से लिया गया तुम्हारा इंटरव्यू आज इत्मीनान से पढ़ा। भले ही यह इंटरव्यू तुमने कई वर्ष पहले लिया था लेकिन यह आज भी बहुत प्रासंगिक और विचारणीय है। लेखक को एक लेखक द्वारा प्रश्न दर प्रश्न खोलते चले जाना और उसके भीतर से जो सार्थक और महत्वपूर्ण उत्तर निकलवा लेना, मैं समझता हूँ, यह इंटरव्यू लेने वाली का कौशल ही है। उन्हें बिरला फाउण्डेशन की ओर से 'सरस्वती सम्मान' से नवाज़ा जा रहा है, इसके लिए भैरप्पा जी को बहुत बहुत बधाई !