हम और हमारा समय
हिन्दी साहित्य और कीचड़ उछाल राजनीति
रूपसिंह चन्देल
हिन्दी साहित्य में राजनीति की बात कोई नई नहीं है. साहित्य के राजनीतिक इतिहास में दर्ज है कि लोग एक-दूसरे को धराशायी करने के नायाब हथकंडे अपनाते रहे हैं. परिणामतः कितने ही प्रतिभाशाली रचनाकार इसकी बलि चढ़े और कितने ही मध्यम-छोटे कद के चर्चित हो गये. यह इस बात पर निर्भर करता है कि राजनीति करने वाले के साथ कितने लोग खड़े हुए हैं --- लोग यानी साहित्यकार, जिसे इस रूप में भी कहा जा सकता है कि क्या वह किसी संगठन का हिस्सा है ! सांगठनिक रूप से किसी पर प्रहार अधिक कारगर साबित होता है और सामनेवाले को धराशायी करने के लिए तब एक साथ कितनी ही कलमें चल रही होती हैं. यदि नहीं भी चल रही होतीं हैं, तब भी वक्त जरूरत पर साथ देने के लिए उसके पीछे लामबद्ध रहती हैं. जिसे धराशायी किया जाना है यदि वह ’एकला चलो रे” पर विश्वास करने वाला साहित्यकार है और धराशायी करने की राजनीति करने वालों के समक्ष घुटने टेक देता है तब तो उसके लिए खोदी गयी कब्र में उसके न जाने की संभावना बहुत क्षीण होती है. प्रायः ऎसा ही होता है. बच वही पाता है जो अपनी रचनात्मक निरंतरता बनाए रखता है और बेशर्मी से लेखन की दुनिया में जमा रहता है. अर्थात उसकी लेखकीय जिजीविषा ही उसे बचा सकती है और ऎसे अनेक उदाहरण हिन्दी साहित्य में विद्यमान हैं जहां अपने विरुद्ध राजनीति करने वालों को रचनाकार के रचनात्मक नैरन्तर्य के समक्ष मुंह की खानी पड़ी है.
इन स्थितियों से सभी साहित्यकार परिचित हैं और अब वे हथकंडे पुराने भी पड़ चुके हैं और शायद अप्रभावी भी. ऎसे में शातिर दिमागों ने नई खोजें की. उन्हें खोजने के लिए अधिक दिमाग खपाने की आवश्यकता भी नहीं थी. भारतीय राजनीति में वह फार्मूला धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा था. किसी भी राजनीतिक का कद छोटा करने के लिए उसे हिन्दूवादी/साम्प्रदायिक घोषित कर देना ही पर्याप्त होता है. भाइयों ने उस फार्मूले को हिन्दी साहित्य में भी चालू कर दिया और देखते–देखते शैलेश मटियानी, निर्मल वर्मा और शिवप्रसाद सिंह पर हिन्दूवादी होने के आरोप मढ़ दिए गए. उदयप्रकाश भी ऎसे आरोपों की जद में आए और उन्हें अपने ब्लॉग में लंबी सफाई देने पड़ी.
हाल में ’परिवेश’ पत्रिका के जुलाई-दिसम्बर,२०१० के अंक में कुछ ऎसा ही आरोप वरिष्ठ कथाकार हृदयेश पर उनकी आत्मकथा ’जोखिम’ के बहाने प्रतिष्ठित क्रान्तिकारी लेखक सुधीर विद्यार्थी ने लगाए हैं. सुधीर ने अपनी पत्रिका ’संदर्श’ का तीसरा अंक हृदयेश पर केन्द्रित किया था, जिसका ’जोखिम’ में बाकायदा उल्लेख है. यही नहीं शाहजहांपुर में ज्ञानरंजन द्वारा हृदयेश के लिए आयोजित पहल सम्मान का संयोजन भी सुधीर ने किया था. संभव है कि तब तक उन्हें उन बातों की जानकारी न रही होगी, जिन्हें लेकर उन्होंने हृदयेश पर आरोप लगाए हैं. लेकिन आलेख में तिथिवार दिए गए विवरण यह सिद्ध करते हैं कि उन्हें जानकारी थी. तो प्रश्न उठता है कि तब सुधीर चुप क्यों रहे थे. उसी समय उन्होंने हृदयेश के साम्प्रदायिक -हिन्दूवादी व्यक्तित्व को बेनकाब क्यों नहीं किया था? और अब अचानक ऎसा क्या हो गया कि क्रान्तिकारियों के जीवन पर महत्वपूर्ण शोधपरक कार्य करने वाले सुधीर विद्यार्थी को अपनी बात कहने के लिए अशालीन भाषा का सहारा लेना पड़ा. यह सब उनके कद को बड़ा नहीं करता और न ही इससे हृदयेश के कथाकार का कद छोटा होता दिखता है—वैसे ही जैसे कि भयंकर आक्रमणॊं के बावजूद शैलेश मटियानी, शिवप्रसाद सिंह और निर्मल वर्मा हिन्दी पाठकों के बीच उतना ही समादृत हैं जितना वे पहले थे.
आलेख में गेहूं के साथ घुन की तरह विद्यार्थी जी ने वरिष्ठ आलोचक मधुरेश को भी नहीं बक्शा. उनपर भी कटु टिप्पणी कर डाली, क्योंकि ’जोखिम’ के परिशिष्ट में मधुरेश का आलेख – छोटे शहर का लेखक’ जो नत्थी है.
कहीं ऎसा तो नहीं कि हृदयेश और मधुरेश छोटे शहर की कुंठित राजनीति का शिकार बन गए हैं.
मेरा शहर कानपुर इस बात के लिए पहले से ही प्रसिद्ध रहा है. दूसरे शहरों की हिन्दी साहित्य की राजनीति भी चर्चा में रही है, अब उसमें शाहजहांपुर और बरेली का नाम भी जुड़ता दिखाई दे रहा है.
हृदयेश पर उपेक्षा का निरन्तर रोना रोकर अपनी रचनात्मक ऊर्जा नष्ट करने की बात करते हुए सुधीर विद्यार्थी यह भूल गए कि वह भी अपनी ऊर्जा ही नष्ट कर रहे थे.
*****
वातायन के इस अंक में प्रस्तुत है वरिष्ठ कथाकार मृदुला गर्ग का आलेख -’शिरीष, शोकग्रस्त कोयल और चैरी के बौर’ , वरिष्ठ कवि-कथाकार सुभाष नीरव के हाइकु और हृदयेश की आत्मकथा – ‘जोखिम’ का एक अंश.
आशा है अंक आपको अवश्य पसंद आएगा.
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इन स्थितियों से सभी साहित्यकार परिचित हैं और अब वे हथकंडे पुराने भी पड़ चुके हैं और शायद अप्रभावी भी. ऎसे में शातिर दिमागों ने नई खोजें की. उन्हें खोजने के लिए अधिक दिमाग खपाने की आवश्यकता भी नहीं थी. भारतीय राजनीति में वह फार्मूला धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा था. किसी भी राजनीतिक का कद छोटा करने के लिए उसे हिन्दूवादी/साम्प्रदायिक घोषित कर देना ही पर्याप्त होता है. भाइयों ने उस फार्मूले को हिन्दी साहित्य में भी चालू कर दिया और देखते–देखते शैलेश मटियानी, निर्मल वर्मा और शिवप्रसाद सिंह पर हिन्दूवादी होने के आरोप मढ़ दिए गए. उदयप्रकाश भी ऎसे आरोपों की जद में आए और उन्हें अपने ब्लॉग में लंबी सफाई देने पड़ी.
हाल में ’परिवेश’ पत्रिका के जुलाई-दिसम्बर,२०१० के अंक में कुछ ऎसा ही आरोप वरिष्ठ कथाकार हृदयेश पर उनकी आत्मकथा ’जोखिम’ के बहाने प्रतिष्ठित क्रान्तिकारी लेखक सुधीर विद्यार्थी ने लगाए हैं. सुधीर ने अपनी पत्रिका ’संदर्श’ का तीसरा अंक हृदयेश पर केन्द्रित किया था, जिसका ’जोखिम’ में बाकायदा उल्लेख है. यही नहीं शाहजहांपुर में ज्ञानरंजन द्वारा हृदयेश के लिए आयोजित पहल सम्मान का संयोजन भी सुधीर ने किया था. संभव है कि तब तक उन्हें उन बातों की जानकारी न रही होगी, जिन्हें लेकर उन्होंने हृदयेश पर आरोप लगाए हैं. लेकिन आलेख में तिथिवार दिए गए विवरण यह सिद्ध करते हैं कि उन्हें जानकारी थी. तो प्रश्न उठता है कि तब सुधीर चुप क्यों रहे थे. उसी समय उन्होंने हृदयेश के साम्प्रदायिक -हिन्दूवादी व्यक्तित्व को बेनकाब क्यों नहीं किया था? और अब अचानक ऎसा क्या हो गया कि क्रान्तिकारियों के जीवन पर महत्वपूर्ण शोधपरक कार्य करने वाले सुधीर विद्यार्थी को अपनी बात कहने के लिए अशालीन भाषा का सहारा लेना पड़ा. यह सब उनके कद को बड़ा नहीं करता और न ही इससे हृदयेश के कथाकार का कद छोटा होता दिखता है—वैसे ही जैसे कि भयंकर आक्रमणॊं के बावजूद शैलेश मटियानी, शिवप्रसाद सिंह और निर्मल वर्मा हिन्दी पाठकों के बीच उतना ही समादृत हैं जितना वे पहले थे.
आलेख में गेहूं के साथ घुन की तरह विद्यार्थी जी ने वरिष्ठ आलोचक मधुरेश को भी नहीं बक्शा. उनपर भी कटु टिप्पणी कर डाली, क्योंकि ’जोखिम’ के परिशिष्ट में मधुरेश का आलेख – छोटे शहर का लेखक’ जो नत्थी है.
कहीं ऎसा तो नहीं कि हृदयेश और मधुरेश छोटे शहर की कुंठित राजनीति का शिकार बन गए हैं.
मेरा शहर कानपुर इस बात के लिए पहले से ही प्रसिद्ध रहा है. दूसरे शहरों की हिन्दी साहित्य की राजनीति भी चर्चा में रही है, अब उसमें शाहजहांपुर और बरेली का नाम भी जुड़ता दिखाई दे रहा है.
हृदयेश पर उपेक्षा का निरन्तर रोना रोकर अपनी रचनात्मक ऊर्जा नष्ट करने की बात करते हुए सुधीर विद्यार्थी यह भूल गए कि वह भी अपनी ऊर्जा ही नष्ट कर रहे थे.
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वातायन के इस अंक में प्रस्तुत है वरिष्ठ कथाकार मृदुला गर्ग का आलेख -’शिरीष, शोकग्रस्त कोयल और चैरी के बौर’ , वरिष्ठ कवि-कथाकार सुभाष नीरव के हाइकु और हृदयेश की आत्मकथा – ‘जोखिम’ का एक अंश.
आशा है अंक आपको अवश्य पसंद आएगा.
3 टिप्पणियां:
इन पन्नों पर हृदयेश को पढ़कर और आपका आलेख पढ़कर तो ऐसा ही लगता है कि यह सच है कि कई लेखक इस राजनीति के शिकार होते रहते हैं और लेखन में निरंतरता के सिवा कोई विकल्प नहीं |
सादर
इला
यह सच लिखा है तुमने कि हिन्दी साहित्य में ओछी राजनीति के चलते यदि किसी सतत रचनाशील और ईमानदार लेखक को ऐसे लोग गिराना अथवा ध्वस्त करना चाहते हैं तो उसे 'हिंदुवादी' करार दे देते हैं। लेकिन सच्चा लेखक अपने निरन्तर लेखन और अच्छे लेखन से ऐसे लोगों का मुंह भी बन्द कर देता है। ऐसे लोग दूसरों पर कीचड़ उछालने से पूर्व अपने गिरेबां में झांक लें, तो ये नौबत ही ना आए।
ek sachchai ko vyakt kartaa hua tumhaara aalekh padaa abhi iska ant nahi hua hai yeh nirantar kai anant sambhavnaon ke saath urjaavan lekhniyon ko dhraashaai karne ke liye gtimaan hota jaa rhaa hai ye log nahii samajh pate ki is tarah se poore samaaj ko bhee nuksaan phunchaate rehte hain ek achchha v sashakt lekhan hii samaaj ko nai dishaa dene me saksham hota hai iskaa oodhahran hame kai deshon men hue krantiyon ke dwaara pataa chaltaa hai n ki vyarth kii laphphaji.
priya chandel tumhaare is aalekh ke liye sadhuvaad v aabhaar
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