मंगलवार, 31 जनवरी 2012

लघुकथाएं



इला प्रसाद की दो लघुकथाएं

जिम्मेवार


रुचि को वह शुद्ध गोपिका लगती जब भी वह इस्कॉन मंदिर जाती, उसे वह जरुर मिलती सुन्दर , माथे पर चन्दन- टीका और अच्छी- सी साड़ी पहने वह कृष्ण मूर्ति के सामने भजन पर औरों के साथ नृत्य करती जीवन से भरपूर .... दीपावली पर तो वह दर्शनीय होती इतने सुन्दर वस्त्र- आभूषण ! उसका रूप- सौन्दर्य फटा पड़ता उसकी माँ से रूचि ने जाना कि उसकी यह सुंदरी बेटी परित्यक्ता है और पोस्ट आफिस में नौकरी करती है जो उन दोनों के भरण- पोषण लिए पर्याप्त हैरूचि को उसकी हँसी तब और लुभाती कई सालों तक वह इसी तरह हँसती , दिवाली समारोह में अपने सबसे सुन्दर आभूषण और साड़ियों में उसे मिलती रही रूचि उसकी माँ से बातें करती माँ परेशान कि इसकी फिर से शादी हो जाए तो वह निश्चिन्त मर सके मंदिर भारतीयों का मिलन स्थल भी है इस गोपी को कोई कृष्ण मिल जाए .. वह उसके लिए मन ही मन मंगलकामना करती रिश्ते खोजती ... उसकी माँ को बताती ....फिर यह क्रम अचानक रुक गया पति को दूसरे शहर में नौकरी मिली वह कई वर्षों तक उस मंदिर में नहीं गई चार वर्षों के बाद इस साल फिर रूचि का उस मंदिर में जाना हुआ ... वही दिवाली की रात वह थी वहाँ सलवार -सूट और हलके आभूषण पहने फीकी सी नजर आ रही थी कहाँ गई इसकी ऊर्जा ! रूचि ने सोचा ...और हठात उसके मन में उभरा - उसकी मर गई आशा के लिए कहीं वह भी तो जिम्मेवार नहीं!उसकी माँ मिले, इससे पहले वह सामने से हट गई

शिक्षा का मूल्य


प्रौढ़-शिक्षा की कक्षाओं में मैंने उन दिनों नया- नया पढ़ाना शुरू किया था। सुबह आठ बजे से कक्षायें आरम्भ होतीं। मेरे लिये गर्मी की छुट्टियों का यह सार्थक उपयोग था।
अठारह से लेकर अट्टाइस वर्ष की उम्र की छात्रायें इन कक्षाओं के माध्यम से बिहार बोर्ड की माध्यमिक परीक्षा के लिये तैयार हो रही थीं। पचास छात्राएं क्लास में। सभी आदिवासी। राँची और उसके आसपास के क्षेत्रों से आई हुई। कुछ ऐसी कि कभी स्कूल का मुँह नहीं देखा था, इससे पहले । कुछ ने बीच में पढ़ाई छोड़ दी थी। इन सबको भौतिकी जैसे कठिन माने जाने वाले विषय को पढ़ाने का दायित्व मेरा। कभी भौतिकी के प्रारम्भिक ज्ञान से आरम्भ कर गणित भी समझाना होता क्योंकि उनमें से कई को दशमलव के जोड़- घटाव भी नहीं आते थे। मैं पूर्ण मनोयोग से उन्हें विषय समझाने की कोशिश करती, लेकिन अक्सर ही खीझ जाती जब पहली पंक्ति में चौथी बेंच पर बैठी उस छात्रा को हर रोज सोता पाती। मेरी तमाम कोशिशें बेकार रहीं- उसकी बेंच के करीब जाकर, बेंच थपथपाकर उठाने की कोशिश, जोर से बोलना… किसी चीज का असर ही न होता। वह हर रोज जैसे सोने के लिये ही क्लास में आती थी। आखिर एक दिन मेरा धीरज छूट गया-
“यह क्लास में आती क्यों है, जब इसे सोना है सारे वक्त? घर पर सोया करे।“ मैंने बाकी कक्षा की ओर उन्मुख हो कर हवा में प्रश्न उछाला।
“मैडम, ई बहुत थकी रहती है, इसीलिये सो जाती है। हर रोज तीन बजे उठती है, घर का सब काम करती है – पानी लाना, गोबर पाथना, घर लीपना, भात पकाना, सब करके आती है। घर में माँ आउर छोटा भाई- बहन है। पन्दरह किलोमीटर है, इसका घर यहाँ से। सुबह चार बजे चलना शुरू करती है, तब पहुँचती है। थक जाती है।“ उसकी बगल की बेंच पर बैठी लड़की ने मेरे प्रश्न का उत्तर दिया।
“ लेकिन इस तरह तो पढ़ाई होने से रही। आने की जरूरत क्या है?”
“ इसको यहाँ आके पढ़ने का जो पैसा मिलता है, उसी से घर का खर्चा चलता है, मैडम। घर में खाने को भी नहीं है।“
-०-०-०-

1 टिप्पणी:

ashok andrey ने कहा…

Ila jee ki laghu kathaon se gujarna achchha laga unki doosri rachna jayaada prabhav shali ban padi hai,sundar.