शुक्रवार, 2 मार्च 2012

कहानी



चिट्टी दाढ़ी

द्रोणवीर कोहली

(इसरचना में आंचलिक बोली ‘अवाणकारी’ अथवा ‘अवाणकी’ का प्रयोग हुआ है, जो सिन्धु नदी के पश्चिमी तट के विशाल क्षेत्र में बोली जाती है. यह वह इलाक़ा है जहां अष्टाध्यायी-प्रणेता पाणिनि का जन्मस्थान शलातुर होने की बात कही जाती है. ‘अवाणकी’ में तत्सम-तद्भव शब्दों के साथ-साथ पालि के शब्दों का प्रचुर प्रयोग होता है.)

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थोहा मार्हम खां का मौसम भी कमाल का मौसम था.

जेठ-आषाढ़ में जब मैदानी इलाक़े तप रहे होते, तो थोहे का मौसम बड़ा खुशगवार होता. दोपहर की बेला में, घंटे-दो घंटे थोड़ी तपिश ज़रूर हो जाती थी, उसके प्श्चात दिन धीरे-धीरे ठंडा पड़ने लगता था- इतना ठंडा कि रात को खुले में कपड़ा ओढ़ कर सोने की ज़रूरत पड़ती थी.

गणपत अमूमन खुली छत पर खाट डालता था. लंबे-चैड़े आंगन में रसोईघर के आगे खुले चैके के साथ लकड़ियों वाला पुराना कोठा था, जिस में से निकलकर पिछवाड़े वाली हवेली में आते-जाते थे. यह कोठा इतना झिक्का (नीचा) था कि गण्पत चैके को सीमांकित करने वाली कधौली (कंधे जितनी ऊंची दीवार) पर पैर रखकर छत पर चढ़ जाता था.

रामरक्खी आंगन में सुफ़े (हाल कमरा) की दीवार के साथ खाट बिछाती थी और कस्तूरी उस के साथ सोता था. इसी दीवार पर गाय का ढंगा (लौना) लटकता रहता था, जिससे एक दिन गणपत ने रामरक्खी को चमड़ी उधेड़ कर रख दी थी.

उस रात रामरक्खी अपनी खाट पर सो रही थी. किसी वक्त परे कोने में खूंटे से बॅंधी गाय की गलघंटी से रामरक्खी की नींद उचट गई. काली अंधेरी रात थी.खाट से पैर लटकाए थोड़ी देर देखती रही. फिर उठी और ‘छोटी’ ((लघशंका) के लिए वहां जा बैठी जहां कभी सतभिराई बलण (ईंधन) सॅंजो कर रखती थी. रामरक्खी बैठी ही थी कि लकड़ियों वाले कोठे में किसी के पैरों की आहट सुनकर चैंकी. उसे लगा जैसे कोई दबे पांव चलकर आ रहा है. पिछली हवेली में दरवेश पावली (जुलाहा) की गिरस्ती थी. अमूमन दरवेश और उस की त्रियमत (मेहरारू) आलमां ही इस कोठे के रास्ते आते-जाते थे. मगर काली रात में डरावने कोठे को लांघ कर इस वक्त कौन आ रहा है?

‘‘कोर एक?’’ रामरक्खी एकदम त्रस्त होकर खड़ी हो गई.
उसके बाद जो हुआ, वह एकदम अविश्वसनीय एवं अप्रत्याशित था. रामरक्खी खड़ी देखती रह गई. गणपत लकड़ियों वाले कोठे के झिक्के दरवाज़े से निकलकर आ रहा था.
‘‘कोर एक?’’ रामरक्खी ने एक बार फिर भयभीत स्वर में पूछा.
‘‘भिराजीवी’, मैं!’’ गणपत ठिठका और कमर सीधी कर के हौले से इस तरह बोला जैसे कोई अपराध करके आया हो.
‘‘मैं, कोर?’’
हैरान रामरक्खी जल्दी-जल्दी चलकर आई और अंधेरे में खड़े पति को हैरत से देखते हुए बोली इस वक्त वह लकड़ियों वाले कोठे में क्या कर रहा है--‘‘इत्थे के प्या करेनां?’’
गणपत के हाथों में चारखाना खेस था, जिसे ओढ़ कर वह छत पर सोया था. दिखा कर बोला, ‘‘खेस हवा से उड़कर नीचे दरवेश की हवेली में जा गिरा था.’’

छह बरस का कस्तूरी भी जाग गया था और बैठा-बैठा नितंब खुजला रहा था. अचानक नींद खुल जाने से चिढ़ा हुआ था. रोनी शक्ल बनाकर लगा दादा को पुकारने, ‘लाऽऽला जी!’

गणपत चकित रामरक्खी को वहीं छोड़ जल्दी-जल्दी चलकर आया और कस्तूरी की खाट के निकट खड़ा होकर बोला, ‘जाग क्यों गया? रात अभी बाक़ी है. सो जा!’

रामरक्खी शंकित-सी खड़ी देखती रही. आधी रात थी. इस वेला लकड़ियों वाले कोठे में से गुज़र कर जाना बड़ी जान-जोखों का काम था. पता नहीं किस ज़माने की लकड़ियां इस कोठे में चुनी रखी थीं. शायद ही कभी किसी ने निकाली हों. कहते थे, गणपत के लकड़दादा तक भी यह बताने की स्थिति में नहीं थे कि किन वक्तों की लकड़ी इस कोठे में जुड़ी पड़ी थी. इन्हीं लकड़ियों में अक्सर ये लोग ज़मीन में ‘टोहा’ (गड्ढा) खोद कर नकदी और गहने वगै़रह का डोला गाढ़ देते थे. पता नहीं, कैसी-कैसी बलाएं लकड़ियों में कुरबुल-कुरबुल करती रहती थीं. दिन में भी वहां अंधेरा रहता था और गुज़रते हुए डर लगता था. क्या पता कब पैरों के नीचे कोई सम्म-वठूआं (सांप-बिच्छू) आ जाए! और गणपत इसी डरावने कोठे में से निकलकर रात इस वेला आया था!

उस दिन बात आई-गई हो गई. मगर इस की एक-दो बार पुनरावृत्ति हुई, तो रामरक्खी का माथा ठनका. गणपत ने पिछवाड़े वाली उजाड़ हवेली में दरवेश को बैठा रखा था. दरवेश बीसेक बरस का नौजवान था और उस की त्रियमत आलमां तेईस-चैबीस बरस की औरत थी. पांच-छह बच्चों की मां बन चुकी थी. मगर बछेरी की तरह चुस्त-दुरुस्त और चुलबुली. हवेली में आने से पहले दरवेश दंदी के सिरे पर जुलाहों-तेलियों के टोले में बाप के साथ रहता था. मगर जब दरवेश का बाप दूसरी औरत उधाल (भगा) लाया, तो दरवेश-आलमां का दाना-पानी उस घर से उठ गया. अगले दिन ही सौतेली ने दरवेश-आलमां को दरवाजा़ दिखा दिया था और वे रिरियाते बच्चों के साथ रड़े (खुले) मैदान में पड़े थे. उन्हें इस हालत में देखकर गणपत कोहल के मन में दया उपजी और वह उन्हें अपने साथ ले आया और अपनी पिछली हवेली खोल दी. दरवेश अच्छा जुलाहा था- बहुत बढ़िया खेस बुनता था. गणपत ने सोचा कि एक तो सारी हवेली की रखवाली करेगा, फिर खड्डी पर घर के लिए कपड़ा-वपड़ा बुन दिया करेगा. फिर दरवेश था भी बड़ा सेवाभावी युवक. सांझ होते ही गणपत के पास जा बैठता और उस की टांगें-बांहें दबाते हुए अग-जग के किस्से सुनाता. दबा-दबा कर हल्का-फुल्का कर देता. दरवेश पावली के आगमन से गणपत चिद्दू नाई को भूल गया. दरवेश की औरत आलमां भी बड़ी हलीम, नेकबख्त और खुशफ़हम औरत थी. अकसर रामरक्खी का हाथ बॅंटाने आ जाती. जुलाहा इन्हें चाचा-चाची कह कर संबोधित करते. दोनों इतने कृतज्ञ कि गणपत-रामक्खी एक आवाज़ देते, तो दौड़े आते, ‘चाचा, हुकुम!’ दरवेश हाथ बांधे खड़ा हो जाता. वास्तव में रामरक्खी गणपत को दरवेश-आलमां में बेटा-बेटी मिल गए थे.

मगर आज उसी आलमां को लेकर रामरक्खी के मन में संशय उत्पन्न हुआ था.

कुछ दिन बाद आधी रात को छत पर धमक-सी सुनाई पड़ी, तो रामरक्खी उठकर बैठ गई. चांद की मद्धम रोशनी फैली थी. कान खड़े करके आहट लेती रही. फिर अचानक मन में क्या समाई कि पड़सांग कोठे के साथ लगा कर छत पर जा चढ़ी.

गणपत की खाट खाली पड़ी थी.

रामरक्खी हैरान-सी खड़ी एकालाप कर उठी, ‘‘चिट्टी दाढ़ी, और ये कसब!’

नीचे दरवेश की हवेली में से किसी बालक के रोने की आवाज़ आ रही थी. रामरक्खी जल्दी-जल्दी चलकर घड़े जितने ऊंचे मुंडेर तक आई. नीचे झांककर देखा, तो दीवार के साथ पड़सांग लगा था और उसार के नीचे गणपत और दरवेश तथा आलमां बातें कर रहे थे.

रामरक्खी का संदेह पक्का हो गया. मन किया कि मुंडेर पर खड़ी होकर चिल्लाए और खाविंद को शरमिंदा करे. मगर यह सोच कर चुप लगा गई कि आधी रात को सारा ‘शहर’ सुनेगा. बात निकल गई, तो मंदा होगा. इसलिए चुपचाप लौटी और आकर गणपत की खाट पर बैठ गई.

थेड़ी ही देर बाद पड़सांग पर किसी के चढ़कर आने की आहट सुनाई पड़ी. गणपत दमे का मरीज़ था. पड़सांग पर चढ़ते-चढ़ते उस की फूली हुई सांस को रामरक्खी खाट पर बैठी सुन सकती थी. भीतर ही भीतर डर रही थी. तभी चांदनी में गणपत का नंगा सिर नमूदार हुआ. इसके साथ ही गणपत ने भी पत्नी को ऊपर खाट पर बैठे देखा. पड़सांग के दोनों सिरों पर हाथ टिकाए वह ठगा-सा खड़ा देख रहा था. फिर एकदम थूकते हुए वहीं से बोला, ‘‘इत्थे बैठी के पइ करेनी-एं?’’

रामरक्खी को लगा जैसे उसका पति नहीं, कोई गोह या नेवला गर्दन उठाए देख रहा था.

‘‘मैं पुछ्या इत्थे क्यों बैठी-एं?’’ गणपत ने एक सीढ़ी ऊपर चढ़कर कहा.

रामरक्खी भरी-पीती बैठी थी. उसे और कुछ नहीं सूझा, तो लगी पति की भर्सना करने, ‘‘शरुम कर. चिट्टी दाढ़ी होई तैंडी. शरुम कर...’’

गणपत जैसे फुदककर छत पर आ गया. सांस बुरी तरह फूल रही थी. एकदम आपे से बाहर होकर बोला, ‘‘कुत्तिए रन्ने (कुतिया औरत) के पेइ अखेनी-एं (क्या कह रही है तू)?’’

रामरक्खी अंधेरे में पति के तेवर नहीं देख सकती थी. फिर जैसे उसे और कोई बात सूझ ही नहीं रही थी. वही बात दुहरा रही थी, ‘‘शुरुम कर! चिट्टी दाढ़ी होई तैंडी!’’

गणपत कूल्हों पर हाथ रखे हांफ रहा था. पत्नी ने जब दुबारा-तिबारा वही बात कही, तो व्यंग्यपूर्वक बोला, ‘‘क्यों, मैं कइ नी रन उधाली ए (मैंने किसी की लुगाई भगाई है क्या)? और आवेश में आकर यह बात भी जोड़ दी कि वह उस के भाई जैसा नहीं जो घर की ही बेटी को उधाल कर ले गया था.
बस, इस ताने से रामरक्खी का रहा-सहा धीरज भी जाता रहा. लगी आंसू बहाने और कहने, ‘‘मैंडा प्यो-भिरा नांह पुण...’’ और सीत्कार-सा करते हुए रोने लगी, ‘‘मैंडा प्यो-नांह पुण...’’

नीचे आंगन में सोया कस्तूरी उठकर खाट पर बैठ गया था और सहमा-सहमा-सा दादा-दादी के बीच होने होने वाला यह संवाद सुन रहा था. रामरक्खी ने आवाज़ ऊंची की तो गणपत ने एकदम डपटते हुए गाली दी, --चुप कर, मां-याविए!’’ और इस तरह हिला जैसे अभी झपट कर बुढ़िया का झोंटा पकड़ लेगा.

नीचे कस्तूरी ने एकाएक रोना शुरू कर दिया और लगा ’भाबी-भाबी’ (दादी और मां को ‘भाबी’ भी कहते हैं) कहकर दादी को पुकारने. फिर एकदम रोना छोड़कर बोला, ‘‘भऽऽबी! तू रोनी क्यों पइ-ए?’’

रामरक्खी आंसू बहाती उठी और पड़सांग से नीचे उतर आई और जैसे कस्तूरी को भूल कर खाट पर बैठ गई और घुटने पर ठुड्डी रख कर लगी बिसूरने. कस्तूरी बिटर-बिटर देख रहा था. धीरे से उस ने दादी की बांह हिलाते हुए फिर वही सवाल किया, ‘‘भाबी, जू रो क्यों रही है?’’

रामरक्खी एकदम तैश में आकर बोली, ‘‘अपने कर्मों को राती हूं, रे...’’ फिर पोते को झिड़कते हुए कह उठी, ‘‘रंडीछोड़! तू क्यों उठ बैठा?’’


रामरक्खी इतने जोर से बोली थी कि बालक कस्तूरी का त्राह ही निकल गया. वैसे ही मरियल-सा था.और इस समय डरा हुआ. इसके बाद उस के मुंह से आवाज निकली.

बाकी रात रामरक्खी ने कलपते-बिसूरते हुए बिताई- लेटी-लेटी गसकती रही और अपने भाग्य को कोसती रही.

सवेरे गणपत बहुतेरी सफाई देनी चाही कि रात को दरवेश के बालक के पेट में शूल उठा था और दरवेश-आलमां के बुलावे पर ही वह उन की हवेली में गया था. मगर रामरक्खी के मन में गांठ पड़ गई थी. बोली, “यों क्यों नहीं कहते कि दरवेश के बालक की मां के पेट में शूल उठा था.” फिर एकाएक बिफर पड़ी, “ऊ कुत्ती रन! घरहाई. कदां ऊ तदांह सदेनी-ए (कभी वह तझे बुलाती है) कदी तू थले हुर वैनां.”

अब तो गणपत के बरदाश्त के बाहर की बात हो गई. बड़ी मुश्किल से उसने अपना हाथ रोका. मगर रामरक्खी अपनी पर आ जाए, तो आगा-पीछा नहीं देखती. अब लगी तानें मारने कि इसीलिए दरवेश को बेटा बना कर हवेली में बैठाया था, “शरुम कर. चिट्टी दाढ़ी होई तंड़ी.”

“बस, बउं हो गया!” गणपत ने एक्दम आक्रामक रुख अपनाते हुए आंखें तरेरीं, “हुण बक-बक करेसें, तां देसां हिक----“ और बायां हाथ झटके से इस तरह दाएं कंधे तक ले गया जैसे अभी खींच कर झांपड़ मारेगा.

मगर रामरक्खी तो इसके लिए भी तैयार बैठी थी. एकदम भड़ककर बोली, “हां, मार! मार! ई कसुर बाकी आ. ई वी पूरी कर घिन !”

गणपत बड़ी मुश्किल से अपने ऊपर नियंत्रण रख पा रहा था. भड़ककर बोला, “हुण तु बक-बक बंद करेसें कि न करेसें? चुप न होसें?”

“नांह!” रामरक्खी तुनुककर बोली, “मैं चुप नांह होसां---“

“क्यों नशुर करेसें?” गणपत ने अब निष्क्रिय आक्रोश से कहा, जैसे इस स्त्री से पार न पा सकने के कारण वह हथियार डालने को तत्पर हो.

“हां, मैं तुदांह नशुर करेसां!” रामरक्खी ने तुर्की-बतुर्की जवाब दिया. बोली कि उसे भंड कर रख देगी----“मैं तदांह भंडेसां!”

गणपत ने व्यंग्यपूर्वक कहा, “क्यों, शहरों बाहर कढ आसें?”

रामरक्खी ने हाथ भांजते हुए कहा, “मैं होर वी मंदा करेसां.”

निकट खड़ा कस्तूरी खुजलाते हुए मुंह उठाए कभी दादा की तरफ देखता, कभी दादी की तरफ. गणपत बेबस क्रोध से खड़ा कांप रहा था. एकदम उबल कर उस उए पत्नी को गाली दी, “कजंरिए! ज़बान नांह चला.”

“मैं चलैसां!” रामरक्खी थोड़ी कांपी थी, फिर भी बोलने से बाज नहीं आई थी.

“मैं अखेनां ( कहता हूं)चुप हो वंज….”

“नांह होसां!”

अब तो गणपत जैसे हत्या पर तुल गया. मगर जैसे आखिरी बार खबरदार करते हुए बोला, “मैं तैंडे पासे भन सतेसां ( मैं तेरी पसलियां तोड़कर रख दूंगा) ---तैंड्डियां-पसलियां त्रोड़ सटेसां.”(तोड़ डालूंगा).

रामरक्खी जैसे इस सब के लिए भी तैयार बैठी थी. बोली, “ई वी कर वेख----“ और फिर लगी पति को ताने मारने कि पहले भी तो हड्डिया-पसलियां तोड़ते रहे हो. अगर आज तोड़ोगे, तो कोई अनोखी बात नहीं होगी---और यह बात कहते-कहते उसने दाएं हाथ में बाएं की कलाई पकड़कर दिखाई, “आपणी करतूत देख.”

बरसों पहले पति-पत्नी में तकरार हुई थी, जब गणपत थोड़ा दारू पीकर बैठा था. सिर घूम रहा था और रामरक्खी ने कोई ताना मारा था. बस, एकदम उठकर गणपत ने ऊपर कील से लटकता गाय का ढंगा उतार लिया था और बहू और पोतों के सम्मुख उस ने रामरक्खी को सटाक-सटाक मारा था. फिर भी रामरक्खी चुप नहीं हुई, तो गणपत ने फटी डंगोरी उठा ली थी और उस के वार को रामरक्खी ने अपनी कलाई पर झेला था. आज भी उस चोट का निशान रामारक्खी की कलाई पर नुमायां था, जिसे दिखाकर वह पति को लज्जित करना चाहती थी.

रामरक्खी ने जब कलाई उठाई, गणपत उसी तरह भड़का जिस तरह माटाडोर के हाथों में लाल कपड़ा देख सांड़ भड़कता है. जल्दी से मुड़ा और पेड़ के नीचे कस्तूरी की टूटी तख्ती उठा लाया. निकट खड़ा बदहवास पोता चीखता हुआ दादी के आगे ढाल बन कर खड़ा हो गया. दादा की तरफ निरीह आंखों से देखते हुए अभ्यर्थना के स्वर में बोला, “नांह मारो, लाला जी, नां∙∙ह मारो …”

गणपत ने पोते को एक तरफ धकेला और सटाक से एक तख्ती रामरक्खी के घुटने पर और एक तख्ती उस की पीठ पर मारी. रामरक्खी चिल्लाई, “हाय, मार सट्यास!” फिर जैसे एकदम तनकर बैठ गई. गर्दन उठा, छाती उघाड़ चुनौती के स्वर में बोली, “मार, होर मार, सारी कसुर पूरी कर घिन. मार….”

कस्तुरी परे जा कर गिरा था, और बैठा-बैठा नितंब खुजलाते हुए अरज कर रहा था, “नांह मारो, लाला जी, नां∙∙ह मारो…”

गणपत ने एकदम चीखते हुए पोते को तख्ती दिखाई और गाली दी, “चुप ओए, यद्दी न्या!”

रामरक्खी अब पसरकर बैठ गई और लगी ऊंचा-ऊंचा विलाप करने और बोल बोलने- “ऊंचे कुल का जन्मया, करनी ऊंच न होय----“

पिछली हवेली में दरवेश पसार के सिरे पर टांड़ी से लटकती रस्सी पकड़े खड़ा था. आलमां एक बालक को गोद में लिटाए छाती पिला रही थी. दोनों ने एक-दूसरे की तरफ देखा. दरवेश ने तत्काल आंखें झुका लीं.

गणपत निर्वीर्य आक्रोश से खड़ा देख रहा था और रामरक्खी थी कि चुप नहीं हो रही थी. रोते और बोलते हुए, क्षणांश के लिए थमती और फिर आंसू बहाने लगती और होंठ भींच कर सिसकारी-सी भर कर बोलने लगती:

“ढोल दमामा दूकड़ी, संहाई संख फेर.
इक्सर चले बजाई के, है कोई राखा फेर.”

गणपत तख्ती हाथ में लिए उस के सिर पर खड़ा था, मगर रामरक्खी के दिल से जीवन और मौत का सारा डर निकल गया था:

“जिस मरने से जग डरे, मेरे मन आनंद
मरने से ही पाइए, पूरन परमानंद.”

रामरक्खी थी तो निपट निरक्षर, लेकिन पता नहीं इस तरह के कितने ही दोहे-कवित्त उसे कंठस्थ थे. गणपत के सामने अब हथियार डालने के सिवा और कोई चारा नहीं था. तख्ती उस ने बेरी के नीचे उछाल दी और बड़बड़ाता हुआ खाट तक गया जहां उस की जूती पड़ी थी. उसे झाड़ कर उस ने पैरों में डाला और बुदबुदाता हुआ घर से बाहर निकल गया.

कस्तूरी जैसे इसी प्रतीक्षा में खड़ा था. धीरे-धीरे चलकर आया और दादी के निकट आकर सहानुभूति जताते हुए बोला, “भावी! रो नई---“ और फफक पड़ा.

मगर रामरक्खी जैसे उस की उपस्थिति से अनभिज्ञ अपनी रौ में बही जा रही थी:

“कबीरा तेरी झोंपड़ी, गलकटियन के पास,
करनगे सो भरनगे, तू क्यों भए उदास…”

और इस कथन के साथ विक्षिप्तों की नाईं हाथ इस तरह फेंकने लगी जैसे किसी मृतक के सामने बैठी विलाप कर रही हो.

गणपत ने पत्नी पर हाथ उठा तो दिया था, मगर भीतर ही भीतर ग्लानि से भरा जा रहा था. टबरी (घरवाली) के साथ उसे ऎसा व्यवहार नहीं करना चाहिए था. पोतों वाली है, और उन के सामने ही पिटती है!...

घर से निकलकर वह हाट की तरफ चला आया. हट्टियों पर बैठे एक-दो जनों ने टोपी-साफी (चिलम) पीने का न्योता दिया, मगर जरूरी काम का बहाना कर के वह आगे निकल गया. बाजार से होता हुआ वह उत्ती पांडी की तरफ मुड़ गया. वहां थोड़ी देर भटकने के बाद कल नहीं पड़ी, तो घर की तरफ लौट पड़ा. एकाएक उस के मन में यह डर घर कर गया कि कहीं रामरक्खी आवेश में कुछ कर न बैठे. बस, उन्हीं पैरों लौट आया. बाहर का दरवाजा वैसा ही खुला था, जैसा छोड़ गया था. दबे आंगन में आया. सुफे में झांका, तो रामरक्खी मुंग-सिर लपेटे पड़ी थी और रोया हुआ कस्तूरी सिरहाने बैठा था. कस्तूरी की नजर दहलीज पर ठिठके दादा पर पड़ी तो एकदम त्रस्त होकर कांप-सा गया.

“ओय, तू मदरसे नहीं गया?” गणपत ने वहीं से झिड़कते हुए पूछा.

कस्तूरी भयभीत आंखों से दादी की तरफ देख रहा था. रामरक्खी पूर्ववत बिसूरती हुई लेटी थी—न हिली, न डुली.

“चल, उठ!” गणपत ने भीतर आकर बालक को बांह से पकड़कर उठाया, “वंज (जा) मदरसे.” मगर तभी उसे खयाल आया कि शायद बालक को कुछ खाने को नहीं मिला, इसीलिए मदरसे नहीं गया. तत्काल जा कर रसोईघर में देखा. रोटियों वाला छकोरे (टोकरा) खाली पड़ा था. तो आज रोटी नहीं पकी घर में. चूल्हा भी ठंडा पड़ा है---सोच-सोच कर गणपत को अपनी करनी पर पछतावा हुआ, “मुझे ऎसा नहीं करना चाहिए था.”

रसोई के कोने में टीन-कनस्तर रखा था. उसे खोला, तो उस में मुरुंडे भरे थे. गणपत ने दो मुरुंडे लिए और सुफे की दहलीज में खड़े कस्तूरी के हाथ में पकड़ाए और कहा, “वंज, भज के वंज, मदरस्से.”

कस्तूरी मुरुंडे पाकर खुश हो गया. दादी की तकलीफ जैसे एकदम भूल गया और उसके साथ थोड़ी देर पहले जो सहानुभूति उपजी थी, वह भी मुरुंडे पाकर जैसे एकदम तिरोहित हो गई थी. दादी मांगने पर भी रुला-रुलाकर एक-आध मुरुंडा ही देती थी. आज दादा ने बिन मांगे दो मुरुंडे दे दिए थे.

“रस्तेव (रास्ते में) रुके नै!” दादा ने तनबीह की, ’नै तां मरसऊं.(मारूंगा)”.

कस्तूरी ने अभी मुंह तक नहीं धोया था. पता नहीं, हगने भी गया था या नहीं. कपड़े बदलने की बात ही नहीं थी, क्योंकि बच्चे एक ही कुर्ते-कमीज में हफ्ता-हफ्ता गुजारे देते थे.

सुफे के किवाड़ के पीछे दीपदान के साथ उसका बस्ता रखा था. उसे इस तरह उठाया जैसे दादी को ज्ञान न हो, और फिर बाहर निकलकर भागा मदरसे की तरफ. मुरुंडा शै ही ऎसी थी.

गणपत ने पीछे आकर अड़ाड़ वाले दरवाजे को बंद करने से पहले मलिकों की हवेली के आते रेत में पैर रपट कर चलते पोते को ताकीद की, “सीधा मदरस्से जाना. रास्ते में खेलते नहीं रहना.”

गणपत दरवाजा भेड़ कर भीतर आया. सुफे में पलंग (बड़ी खाट) पर लेटी रामरक्खी के सिरहाने थोड़ी देर चुपचाप खड़ा रहा. फिर कुछ बुदबुदाते हुए रसोईघर में गया और घी-हल्दी तैयार करके ले आया. जानता था कि तख्ती की चोट काफी जोर की लगी थी. इसलिए हल्दी की कटोरी हाथ में लिए रामरक्खी के सिरहाने खड़ा होकर इस तरह बोला जैसे सारे कांड के लिए दोषी रामरक्खी ही थी.

“उठ, ध्यो-हरदी लगवा घिन!”

दीवार की तरफ मुंह कर के लेटी रामरक्खी ने दांतों में पल्ला दबा लिया, ताकि रुलाई न फूटे. गणपत कुछ देर पत्नी की तरफ देखते हुए जैसे गुन रहा था. फिर पलंग की बाही पर नितंब टिका कर धीरे से बैठा, तो खाट चरमरायी. रामरक्खी ने माथे के आगे बांह रखी हुई थी. उसे जबरदस्ती हटाते हुए झांककर गणपत इस तरह बात करने लगा जैसे कहना चाहता हो कि जो हुआ, अब उस पर झाड़ू मारो.

“हुण छोड़!” गणपत ने यह बात कही तो सही, मगर स्वर में अब भी दबंगपना था.

गणपत ने हाथ आगे किया, तो रामरक्खी ने उसे झटक दिया.

गणपत को आवेश तो आया, मगर अपने ऊपर जब्त रखे बैठा रहा. फिर पत्नी की पीठ पर से पेपणी उठा कर घी-हल्दी लगाने को उद्यत हुआ, तो रामरक्खी ने उसी उग्रता से हाथ झटक दिया, और बिफर कर बोली,

“मैंडे नाल कलाम न कर !”

पीठ पर से पेपणी क्षण-भर के लिए हटी थी. गणपत का तो जैसे त्राह ही निकल गया था. इतना बड़ा नील पड़ गया था. लगा पछताने कि इतनी बेदर्दी से नहीं मारना चाहिए था.

थोड़ी देर बैठा पश्चात्ताप करता रहा. फिर धीरे से बोला, “हुण छोड़ वी. मैं पच्छॊताया. धो-हरदी लगवा घिन.”

“…..”

“लगवा घिन!” गणपत ने एक क्षण प्रतीक्षा के बाद एकदम असहिष्णु स्वर में कहा, और फिर जैसे धमकाते हुए बोला, “नै तां होर मरसऊं!”

रामरक्खी एकदम उफन पड़ी. बोली, “कसूर छोड़ी आ? पूरी कर घिन.”

हाथ में कटोरी पकड़े गणपत व्यग्र-व्याकुल-सा उसकी ढकी पीठ की तरफ देख रहा था. फिर जैसे खिसियाया हुआ-सा अपने आप से कह उठा : यह औरत हमेशा ताने मारती है. और कोई बस नहीं चला, तो मेरे चाल-चलन पर ही इल्जाम लगाने बैठ गई. कोई पूछे इस शख्स्याणी से, मेरी उम्र है यह कसब करने की? फिर हमेशा एक ही बात कहती है, “तैंडी चिट्टी दाढ़ी होई, तैंडी चिट्टी दाढ़ी होई….”

थोड़ी देर वह इसी तरह बुदबुदाता रहा. फिर धीरे से उस ने पेपणी उठाई. अब के रामरक्खी ने कोई विरोध नहीं किया और गणपत ने नील वाली जगह पर घी-हल्दी चुपड़ी. रामरक्खी चुपचाप लेटी रही. हिली-डुली तक नहीं.

अब गणपत उस के घुटने पर भी घी-हल्दी लगाना चाहता था. मगर औरतें इतने तंग पांयचे की सुथण-सलवार पहनती थीं कि पिंडलियों से ऊपर पांयचा उठता नहीं था. इसलिए गणपत बोला, “उठके सूथण उतार.”

रामरक्खी बोली तो नहीं, मगर सुथण उतारने की बात सुन उसकी हंसी फूट पड़ती यदि उसने मुंह में कपड़ा न ठूंस लिया होता.

अब के गणपत ने ज्यादा जोर देना उचित नहीं समझा. उठा और घी-हल्दी की कटोरी जाले में रखकर चुपचाप बाहर निकल गया.

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सुभाष नीरव ने कहा…

कोहली जी की यह कहानी मैंने पहली बार पढ़ी और दंग रह गया इतनी प्यारी कहानी पढ़कर। इस कहानी में जो आंचलिक शब्द आए हैं, विशेषकर संवादों में बहुत ही खूबसूरत और स्वाभाविक लगे हैं। पंजाबी मेरी मां-बोली रही हैं, परन्तु मैं इस कहानी में प्रयुक्त अवाणकारी बोली के शब्दों को पढ़कर इस बोली की मिठास का आनंद मैंने महसूस किया है…संवादों के बाहर भी द्रोणवीर जी ने पंजाबी के कई शब्दों को ज्यों का त्यों रखा है जबकि हिंदी में इनसे जुड़े शब्द उपलब्ध हैं… जैसे 'त्राह' 'कुरबुल-कुरबुल' 'सुथण' और भी कई शब्द हैं… पंजाबी कहानियों में जब इस तरह के शब्द आते हैं तो मेरे जैसे अनुवादक हिंदी अनुवाद करते हुए इन शब्दों से जुड़े हिंदी शब्द ही प्राय: रखा करते हैं। पर यहां लगा कि नहीं, यह उस भाषा की खुशबू को भी लेकर हिंदी में आ रहे हैं और हिंदी को समृद्ध कर रहे हैं… कोहली जी के उपन्यासों में भी अपने क्षेत्र की बोली का बखूबी प्रयोग हमें मिलता है। बहरहाल, एक बहुत ही टची कहानी पढ़ने को तुमने उपलब्ध कराई, इसके लिए तुम्हें बधाई !