बुधवार, 4 अप्रैल 2012

आकलन



‘‘टेल मी मोर‘‘ की अपेक्षा देती किताब ‘‘एक औरत की नोटबुक’’

0 डॉ. दीपक शर्मा

वरिष्ठ कथाकार सुधा अरोड़ा की नयी पुस्तक ‘‘ एक औरत की नोटबुक ’’नारीवाद के एक महत्वपूर्ण सूत्र ‘‘ द पर्सनल इज़ पॉलिटिकल ‘‘ को वाणी देती है - जहां स्त्री के वैयक्तिक यथार्थ का विस्तार समाज की नीतिसम्मत सत्ता से जा जुड़ता है । इस पुस्तक के आलेख अगर पुरुष वर्चस्व और स्त्री सशक्तीकरण के चिन्तन को अपना विषाय बनाते हुए स्त्री को उसके ‘क्लोज़ेट’ (बंद कमरे) से बाहर लाने का प्रयास करते हैं तो इसकी कहानियां उस ‘क्लोज़ेट’ के अंदर डरी सहमी बैठी स्त्री की त्रासद दशा का जीवंत प्रस्तुतिकरण करती हैं - सुधा अरोड़ा के एक्टिविस्ट सरोकार के साथ साथ उनकी सृजनात्मक प्रतिभा को प्रदर्शित करती हुई ।

पुस्तक दो खंडों में विभाजित है - जिसमें आमुख के रूप में दो लंबे आलेख हैं - घरेलू हिंसा के खिलाफ और मानसिक यातना के खिलाफ । पहले आलेख के विषय पर केंद्रित लेखिका की चार कहानियां और उनका तथ्यपरक विश्लेषण है और दूसरे आलेख के विशय पर केंद्रित लेखिका की छह कहानियां , उदाहरणों और कविताओं के टुकड़ों के साथ सूक्ष्म प्रताड़ना की बारीक छानबीन करती हैं।

आलेख , कहानी , कविता , साक्षात्कार - सभी विधाओं की छतरी तले स्त्री विमर्श के विविध कोणों के वितान समेटे और एक रोचक अंदाज में स्त्री मुद्दों और समस्याओं के कारण , परिणाम और समाधानों के साथ ,एक गंभीर विशय को आम पाठक के बीच ले जाने का यह प्रयोग - ‘‘ एक औरत की नोटबुक ’’ निस्संदेह एक स्वागत योग्य कदम है ।

पुस्तक के पहले आलेख ‘‘आक्रामकता के खिलाफ: एक आम औरत की आवाज़ ’’ में घरेलू हिंसा के भौतिक पहलू पर चर्चा की गयी है । इस हिंसा की शिकार स्त्री अनपढ़ है या कम पढ़ी लिखी है - साधन विहीना । इस समस्या की सटीक प्रस्तुति के बाद सुधा अरोड़ा इसके समाधान के रूप में स्त्री को आर्थिक आत्मनिर्भरता का संदेश देती हैं तथा हम जानते हैं , उनका यह संदेश अर्थवान और लाभदायक सिद्ध होगा भी और फिर आर्थिक सहायता के लिए ऐसी पीड़ित स्त्रियों को सरकारी/गैर सरकारी संस्थाओं एवं संगठनों से सहयोग भी उपलब्ध कराया जा सकता है ।

इस पहले खंड में प्रस्तुत सुधा अरोड़ा की चार विश्लेषित कथाएं हैं । इन छोटी छोटी कहानियों में पहली कथा है -‘‘अन्नपूर्णा मंडल की आखिरी चिट्ठी ’’, जिसमें बांकुड़ा जैसे कस्बे की निम्नमध्यवर्गीय परिवार की लड़की अन्नपूर्णा मंडल का अपने सारे सपनों के साथ ब्याह के बाद मुंबई आना , उसके सपनों का टूटना , संत्रास और इस संत्रास को अपने माता पिता के सामने खोलकर न कह पाने की टूटन का मर्मविदारक चित्रण है जहां आर्थिक रूप से अपने पति पर निर्भर होने को ही यातना का मूल बताया गया है । ‘‘ताराबाई चाॅल: कमरा नम्बर एक सौ पैंतीस ’’ की अनामवासिनी का अपने मृत पति की आखिरी सिगरेट से आखिरी कश खींचकर अपने को पति के साथ होने की त्रासदी में वापस लौटाना स्थितियों का एक रोंगटे खड़े कर देने वाला विलोम प्रस्तुत करता है । ‘‘तीसरी बेटी के नाम: ये ठंडे , सूखे , बेजान शब्द ’’ में अपनी तीसरी मृत बेटी सुनयना की मां का उसके हिस्से के आसमान का सपना देखने का आग्रह - पुरानी पीढ़ी की स्त्री का अपनी युवा होती पीढ़ी को मोर्चे पर डटे रहने का सकारात्मक संकेत देता है और इस खंड की चैथी और अंतिम कहानी ‘‘ बड़ी हत्या , छोटी हत्या ’’ एक लड़की की भ्रूण में ही हत्या करवा देने का क्रूर सांकेतिक बयान है जो लड़की के बड़े होने के बाद की सामाजिक विसंगतियों की ओर तीखा प्रहार करता है और बताता है कि कन्या भ्रूण हत्या के कारण कहां छिपे हैं।

विकटता दूसरे आलेख की स्त्री के साथ है जो पढ़ी लिखी है , साधन सम्पन्न है फिर भी समस्याओं से घिरी है । आकार में अपेक्षाकृत विस्तृत इस आलेख का शीर्षक है - ‘‘ जिसके निशान नहीं दिखते यानी मानसिक प्रताड़ना के खिलाफ ’’ । इसमें स्त्री पुरुष के पारस्परिक सत्ता को केन्द्रबिन्दु बनाकर संभवतः सुधा अरोड़ा उस समस्या को बाकायदा नाम देकर चिह्नित कर रही हैं जिसे सन् साठ के दशक में बेटी फ्रेडन ने ‘अ प्राॅब्लम विदाउट अ नेम ’ की संज्ञा दी थी।

अपनी व्याख्या में सुधा अरोड़ा ने इस स्त्री समस्या के सामाजिक , मनोवैज्ञानिक और परिवेशगत कारण के साथ साथ जिन तनावजनित व्याधियों तथा केस हिस्ट्रीज़ के दृष्टान्त प्रस्तुत किए है, वे अत्यंत दुखद और भयावह हैं । इसमें कोई संदेह नहीं कि सुधा की चिन्ता और विश्लेषण में उनकी अन्तर्दृष्टि ही नहीं , समस्याओं की तह तक पहुंचने की उनकी गहरी संवेदना भी शामिल है । पीड़ित स्त्रियों की स्थितियां तथा उत्पीड़क पुरुषों के शस्त्र उन्होंने जिस गहन सरोकार से प्रस्तुत किए हैं , वह सराहनीय हैं । परन्तु समाधान स्वरूप उनकी ओर से जो सुझाव आया है अर्थात् - ‘‘ जिस दिन एक औरत यह समझ लेगी कि उसकी अपनी ज़िंदगी और उसके अपने मूड का भी एक मूल्य है और इससे खेलने का अधिकार उस व्यक्ति को तो बिल्कुल नहीं है , जो उससे प्रेम नहीं करता , उस पर शासन और नियंत्रण करना चाहता है । इस समझ के बाद स्थितियां खुद ब खुद उलझी हुई गांठों को सुलझाने में कामयाब हो जाएंगी । वह जिस दिन अपने पति के इंगित से परिचालित होना बंद कर देगी और अपना एक स्वतंत्र दायरा - जिसकी पहली शर्त आर्थिक आत्मनिर्भरता है - गढ़ लेगी , जिस दिन वह अपने मन पर सिर्फ अपना नियंत्रण स्वीकार करेगी , स्थितियां ऊध्र्वमुखी होने लगेंगी । ’’

यह सुझाव विकट है । यह सच है कि वही पत्नी इस मार्ग का वरण करेगी जिसके पति ने अपने पति-धर्म , पिता-धर्म ,समाज-धर्म एवं मानव-धर्म को भी तिलांजलि दे रखी है लेकिन क्या बड़े पैमाने पर इस वरणाधिकार की पैरवी करते समय समाज एक ‘‘ स्टैट्यूटरी वाॅर्निंग ’’ - सांविधिक चेतावनी भी जारी नहीं करेगा - ‘‘ बाल कल्याण के लिए हानिकारक ! मार्ग जोखिम भरा ! ’’ .......?

यहां जूलिया क्रिस्तेवा के ‘वुमेन्स टाइम ’ में प्रकाशित चर्चित आलेख का यह हवाला भी अप्रासंगिक नहीं होगा जिसमें समाज के लिए एक नये नीतिशास्त्र की मांग करती हुई क्रिस्तेवा स्त्रियों को एक कड़ी चेतावनी देती हैं - ‘‘ अगर वे अपनी एन्टिटी ( सत्ता ) बचाने के लिए सामाजिक संविदा को नष्ट करती हैं तो न केवल अपने वैयक्तिक संतुलन बल्कि सामाजिक संतुलन को भी संकट में डाल देती है ।

इस दूसरे खंड में प्रस्तुत सुधा अरोड़ा की छह छोटी कहानियों का विश्लेषण है जिसमें पहली उनकी बहुचर्चित कहानी ‘‘ रहोगी तुम वही ’’ है जिसमें पति का एकालाप है पर पत्नी की चुप्पी ज्यादा मारक तरीके से पाठक को झकझोरती है ,जिसके बारे में लेखिका का स्पष्टीकरण है कि यह सूक्ष्म प्रताड़ना की ही कहानी है । ‘‘ सत्ता संवाद ’’की कमाऊ औरत का क्रोधावेग सिक्के के दूसरे पहलू को दरशाता है जहां अर्थसत्ता के कंधे पर चढ़कर ही चुप्पी टूटती है । ‘‘ डेज़र्ट फोबिया ’’ की छवि की अपने खोते अस्तित्व से अचानक मुठभेड़ होती है और बाहर हरहराते समुद्र का सारे बांध तोड़कर खिड़की से भीतर चले आना एक आम औरत की अस्मिता को सामने लाकर खड़ा कर देता है । ‘‘ करवाचैथी औरत ’’ का संवेदना शून्य परिवार घर में पालतू कुतिया के वर्चस्व तले घरेलू गृहिणी औरत की औकात को रेखांकित कर हमारे मन में अपनी अमिट छाप छोड़ता ही है लेकिन जिन दो कहानियों में सुधा अरोड़ा की सृजन क्षमता हमें चैंका देती है , वे हैं ‘‘ एक औरत: तीन बटा चार ’’ और ‘‘ डर ’’ ।

‘‘ एक औरत: तीन बटा चार ’’ में सुधा भारतीय समाज की हर एक गृहिणी के अवचेतन के ‘‘ फ्रेग्मेंन्टेड सेल्फ ’’( खंडित अस्तित्व ) को चेतना के दायरे में लाने का काम जिस मौलिकता से करती हैं , वह एकदम ताजगी से भरा है , विशिष्ट है । दूसरी कहानी ‘‘डर’’ - ‘‘मिनिमलिज़्म’’ - अल्पतमवाद का एक सफल प्रयोग है । इस कहानी के कथन में सुधा ‘‘ मिनिमलिस्ट’’ लेखन की उस परिकल्पना को साकार करती हैं जहां ‘‘ लेस इज़ मोर ’’( कम भी ज्यादा है ) के अन्तर्गत वे कथ्य के सार को सारभूत तक सीमित रखती हुई रेमन्ड कार्वर की इस उक्ति का स्मरण दिला देती हैं - ‘‘ आय कट माय वर्क टू द मैरो , नॉट जस्ट द बोन ! ’’( अपने लेखन में मैं हड्डी ही नहीं , मज्जा तक कटाव करता हूं ) लेखिका द्वारा शाब्दिक आडम्बरों और फैलावों की यही उपेक्षा पाठक को यह कहने पर मजबूर भी करती है -‘‘ टेल मी मोर ’’ ( मुझे और बताओ ! )
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