गुरुवार, 6 सितंबर 2012

उपन्यास अंश









  • उपन्यास अंश


एक  थी  छवि
सूरज प्रकाश

आज मेरी नौकरी का आखिरी दिन है। ये कहना शायद ज्‍यादा सही होगा कि आज नौकरी का आखिरी दिन था। बीत गया दिन तो। 31 जनवरी 2012। आज ही के दिन मेरा साठवां जनम दिन भी है। तीनों काम एक साथ हो गये। जनमदिन, सठियाने की शुरुआत और लगभग 33 बरस के कैरियर पर फुल स्‍टाप। सबने ढेर सारी शुभकामनाओं, फूलों, गुलदस्‍तों, उपहारों और आंसुंओं के साथ विदा कर दिया। कॉलेज से भी और कुछ हद तक अपने-अपने जीवन से भी। जितनी तारीफें की गयीं, मेरे गुणगान किये गये और मेरे लिए टेसुए बहाये गये, उनके पीछे की सच्‍चाई तो मैं ही जानती हूं। मैं भी मुक्‍त हुई। बहुत सारे चाहे-अनचाहे रिश्‍तों से।

सबके अपने-अपने कारण होते हैं विदाई के ऐसे मौकों पर खुश या उदास होने के। और इस तरह की उदासी या खुशी के पीछे निश्चित ही हाल ही का कोई अनुभव काम कर रहा होता है या कोई बहुत पुराना अनुभव या नासूर। अपने बारे में सारे सच जानती हूं। कहीं पढ़ा था – मेक यूअर प्रेजेंस एंड एबसेंस फेल्‍ट। अपने आप को ऐसा बनायें कि आप जहां हों, वहां आपकी मौजूदगी महसूस की जाये और जब आप किसी सीन से गैर-हाजिर हों तो वहां आपकी गैर-मौजूदगी महसूस की जाये। लेकिन हम जान बूझ कर सच्‍चाई से मुंह मोड़े रहते हैं। हम अच्‍छी तरह से जाते हैं कि लोग कई बार हमारी मौजूदगी में कितने असहज होते हैं और हमारी गैर मौजूदगी में कितने सहज रहते हैं। बल्कि हमें गैर-हाजि़र पा कर खिल उठते हैं। कम से कम नौकरी के मामले में तो यही होता है।
 मुझे अपने बारे में कभी कोई गलतफहमी नहीं रही। अपनी मौजूदगी के मायने भी मैं जानती थी और अपनी गैर-मौजूदगी के भी। आज विदाई समारोह में खचाखच भरे हुए हॉल में मेरी मौजूदगी में बारी-बारी से सब लोगों ने जब मेरी तारीफों के पुल बांधे, बहुत मेहनत से लड़कियों ने खूबसूरत फ्रेम में मढ़वा कर मेरे लिए जो भावुक और सीधे दिल से निकले मनभावन कसीदे पढ़े, मैं निर्विकार भाव से हवा में टंगते जाते खोखले शब्‍द सुन रही थी। जानती थी, वे शब्‍द थोड़ी देर हवा में गूंजेंगे, तालियों की गड़गड़ाहट में बदलेंगे और धीरे-धीरे हॉल की गर्द के साथ नीचे बैठ जायेंगे। कौन नहीं जानता उनकी सच्‍चाई। व्‍यक्ति बदलने पर तारीफ के इन गुलदस्‍तों में हर बार सिर्फ पाने वाले का नाम बदल जाता है। पिछली प्रधानाचार्य के लिए भी तो यही शब्‍द थे, यही भावनाएं थीं, इतने ही आंसू थे और करुणा पूरित भाव थे। वही सब कुछ मेरे लिए दोहराया गया।
 याद करती हूं पिछली प्रधानाचार्य को रिटायर होने के दिन की घटना। तब मैं हैड थी अपने विभाग की और मेरे सामने ही उनकी विदाई हुई थी। उनके रिटायरमेंट पर ही तो मैं प्रधानाचार्या बनी थी। उनका मानपत्र भी तो मुझसे फाइनल कराया गया था। उस मानपत्र में और मेरे मानपत्र में नाम बदलने के अलावा क्‍या बदला। कुछ भी तो नहीं। अब आज मुझे दिये गये मानपत्र की एक फोटोकॉपी सहेज कर रख ली जायेगी जो अगली प्रधानाचार्य की विदाई के समय सिर्फ नाम बदल कर काम में लायी जायेगी। मेरा मानपत्र बनाने के लिए भी तो पिछले मानपत्र की कॉपी ढूंढी गयी होगी।
 सोच-सोच कर अब हँसी आ रही है कि मुझसे पहले वाली प्रधानाचार्या बेहद लद्धड़ किस्‍म की औरत थी। उसका हर काम करने का तरीका बाबा आदम के ज़माने का हुआ करता था और उसी के समय के दौरान के पैंडिंग कामों को पटरी पर लाने में ही मुझे दो बरस लग गये थे। लेकिन उसके लिए पढ़ा गया मानपत्र और मेरे लिए पढ़ा गया मानपत्र नाम भर बदलने के अलावा जस का तस था। पता नहीं कितनी पीढि़यों पहले तैयार किया गया होगा और आगे कितनी पीढि़यों तक काम में लाया जाता रहेगा।

रिटायरमेंट एक तरह का मुक्ति पर्व है। एक तरह से अच्‍छा ही लग रहा है ये मुक्तिपर्व।  बेशक नौकरी की आपाधापी से मुक्ति‍ पाये अभी पांच घंटे भी नहीं हुए हैं लेकिन खुलेपन और कल से अपने समय का मास्‍टर होने का जो सुखद अहसास है, वह रोमांचित कर रहा है। जीवन में कितना कुछ तो है जो पैंडिंग चलता रहता है। रिटायरमेंट के दिन का इंतज़ार करता रहता है। कई बार हम पूरी जिंदगी कई कामों को टालते रहते हैं। जब उन्‍हें करने का समय मिलता है तो इतनी देर हो चुकी होती है कि चीजें कोई मायने ही नहीं रखतीं। अब बेशक कितनी भी सूचियां बनाऊं बकाया कामों की, उनकी प्राथमिकताएं तय करूं या हर दिन के लिए बेशक टाइम टेबल बनाने में माथापच्‍ची करूं, होगा कुछ और ही। कई काम अभी भी पेंडिंग चलते ही रहेंगे। कई सूचियां बनेंगी, कई टाइम टेबल बनेंगे और कई शेड्यूल बनेंगे लेकिन गाड़ी को नयी पटरी पर आने में समय तो लगेगा ही। रिटायरमेंट ब्‍लूज़ शायद इसी को कहते हैं। आने वाले नये जीवन के लिए एक छोटे बच्‍चे की तरह अपने आपको ढालना। वक्‍त तो लगेगा।
 ऑफिस से आया अपना पर्सनल सामान देखती हूं। पिछले दिनों अपने चैम्‍बर की अलमारियों में से अपना पर्सनल सामान निकालते समय दूसरी ढेर सारी चीज़ों के साथ मुझे ये डायरी और पैन भी मिले थे। सुमित की ओर से दिये गये गिफ्ट। पता नहीं कब से वहीं रखे रह गये थे। याद ही नहीं रहा था घर लाना। एक बार अलमारी के हवाले हुए तो बंद ही रह गये उसमें। उस समय तो दोनों चीज़ें बैग में ठूंस दी थीं। अब देर रात इन्‍हें निकाल कर देख रही हूं। लेदर के कवर वाली बेहद खूबसरत डायरी जो किसी बेल्जियम कंपनी का प्राडक्‍ट है और उस पर सुनहरी अक्षरों में मेरा नाम एम्‍बॉस किया हुआ है - डॉक्‍टर छवि मेहता। पैन क्रॉस कंपनी का है।
डायरी खोलते ही पहले पन्‍ने पर लिखा पढ़ती हूं -
 अपनी छवि को
अपनी कहानी लिखने के लिए
सुमित।
 याद करने की कोशिश करती हूं सुमित ने ये उपहार मुझे कब दिये थे। शायद तब जब वह पहली बार मेरे कॉलेज में बिन बताये ही मिलने चला आया था। कुछ-कुछ याद आ रहा है। याद ही नहीं आ रहा कितने बरस हो गये होंगे इस बात को। शायद सोलह या ज्‍यादा। बाप रे, तब के दिये उपहार मैं आज खोल कर देख रही हूं। पैन की रिफिल तो कब की सूख चुकी होगी। अगर रिटायर न हो रही होती तो पता नहीं कब तक अलमारी में बंद पड़े रह जाते।
याद करती हूं, तब हमारी कोर्टशिप को ज्‍यादा अरसा नहीं हुआ था। उस दिन के बारे में कुछ-कुछ याद आ रहा है। उस वक्‍त मैं एक बेहद ज़रूरी स्‍टाफ मीटिंग में व्‍यस्‍त थी और वह पूरे डेढ़ घंटे तक मेरे चैम्‍बर में मेरी राह देखते बैठा रहा था। बाद में उसी ने बताया था। उसके इस तरह से कॉलेज चले आने से हम दोनों के बीच बहुत कहा-सुनी हो गयी थी। मेरे मना करने के बावजूद वह कॉलेज चला आया था। बिन बताये। जब उसे पता चला था कि मैं मीटिंग में हूं तो उसे वापिस चले जाना चाहिये था लेकिन वह वहीं पसर कर बैठ गया था। उसने वहां पर बैठे ज़रा-सा भी नहीं सोचा था कि उसका इस तरह से आना, बैठना, मेरी चपरासिन से चाय मंगाना, उससे गप्‍पें मारना मेरे लिए कितने असुविधाजनक रहे होंगे। इतने बरस में मेरे चैम्‍बर में आने वाला और वहां पसर कर बैठ जाने वाला वह पहला और शायद आखिरी भी बाहरी शख्‍स था, वरना क्‍या मज़ाल किसी की कि प्रिंसिपल मै'म के चैम्‍बर में बिना पूछे या बिना काम के बैठने की जुर्रत कर सके। कोई सोच भी नहीं सकता था कि मै'म के चैम्‍बर में कोई ऊंची आवाज़ में बात भी कर सके। हँसना-खिलखिलाना तो दूर की बात है। जब मैं मीटिंग से लौटी थी तो वह खिलखिला कर चपरासिन से बात‍ कर रहा था।
 मुझे याद आ रहा है उस दिन स्‍टाफ मीटिंग में किसी मुद्दे को ले कर कुछ टीचर्स से नोंक-झोंक हो गयी थी और मैं बहुत खराब मूड में अपने चैम्‍बर में आयी थी। मूड वैसे ही खराब था। आते ही सुमित को सोफे पर पसरे हुए देखा था तो मेरा दिमाग भन्‍ना गया था। कहां तो उसे इतने दिन बाद देख कर मुझे खुश होना चाहिये था, मैं कब से उससे मिलने के लिए बेचैन हुई जा रही थी और कहां उसे देखते ही मैं फट पड़ने को हो आयी थी।
 ये तो सुमित की किस्‍मत अच्‍छी थी कि मीटिंग से मेरे साथ वाइस प्रिंसिपल और दो-एक टीचर्स भी चली आयी थीं, सो सुमित मेरी किसी भी तरह की नाराज़गी से बच गया था। मैंने भरसक अपनी आवाज़ को धीमे रखते हुए पूछा था - कब आये, पानी वगैरह पीया या नहीं। सुमित ने शायद भांप लिया था – उसे दे‍खते ही खिल उठने वाला मेरा मूड कम से कम उस समय तो बिल्‍कुल नहीं था। धीरे से बताया था उसने – हां, चाय पी ली है। इससे पहले कि वीपी और दूसरी टीचर्स से उसका परिचय कराने की जहमत से मैं अपने आपको बचाने के बारे में सोच पाती, राह खुद सुमित ने ही निकाल दी थी - चलता हूं छवि जी, आपको ये पैकेट देना था, सोचा मुलाकात भी हो जायेगी। अब चलता हूं। मिलते हैं, और बिना एक भी पल गंवाये सुमित चेम्‍बर से बाहर हो गया था।
 मैंने ठंडी सांस ली थी। बहुत अच्‍छा हुआ था कि सुमित मुझे असमंजस में डालने वाली किसी भी तरह की स्थिति के आने से पहले ही पहले ही चला गया था। मैंने कनखियों से देखा था, केबिन में उपस्थित सबके चेहरों पर प्रश्‍न चिह्न टंगे हुए थे। मैं किसी तरह की सफाई देने या सबसे सुमित का परिचय कराने की औपचारिकता से बच गयी थी।
 सुमित ने डायरी पर लिखा है-
 अपनी छवि को
अपनी कहानी लिखने के लिए
सुमित।
 क्‍या है मेरी कहानी! क्‍या लिखी जा सकेगी कहानी मेरी। क्‍या कहानी है भी मेरी कोई। अगर है तो क्‍या इस लायक है कि उसे दर्ज करूं इस डायरी में। किसी को क्‍या दिलचस्‍पी हो सकती है मेरी कहानी पढ़ने में। फिर ये बात तो सुमित ने इतने बरस पहले लिखी थी। कहानी लिखने वाली बात। तब से अब तक तो मेरी जिंदगी में कितने तूफान आ चुके हैं। सुमित खुद भी मेरी जिंदगी में आ कर लौट चुका। इस बात को भी कितना अरसा हो चला।
 तब हमें मिले हुए ज्‍यादा अरसा नहीं हुआ था। लेकिन हम जितना भी मिले थे, जितना एक दूजे को जान पाये थे, हम दोनों को ही लगा था कि जीवन तो अब शुरू हुआ है। अब तक हम जी ही कहां रहे थे। एक दूसरे को पा कर हम दोनों ही जैसे निहाल हो गये थे। कितना कुछ जो था जो बाहर आने को कब से राह देख रहा था। हम दोनों ही तब बरसाती सोतों की तरह बह निकले थे। मैं बोलती रहती थी और वह सुनता रहता था और वह बोलता रहता था, मैं पलकें झपकाये बिना उसकी बातें सुनती रहती थी।
 मेरी अंतहीन बातें सुन कर ही सुमित को डायरी देने और अपनी कहानी कहने के लिए प्रेरित करने की सूझी होगी। तब बेशक न रही हो मेरी कहानी सबसे शेयर करने लायक, अब तो कितना कुछ जुड़ गया है। कहानी नहीं, ग्रंथ लिखे जा सकते हैं अब तो। कितना कुछ तो है अनकहा मेरी जिंदगी में, जो किसी से कहा जाना है। कब से किसी से मन की बात ही नहीं की है। हँसी आती है - मिला ही कहां कोई जिससे अपने मन की बात कहती। 
 कितने बरसों के बाद आज ये पहली बार हो रहा है कि मैं अकेली बैठी हूं और इस तरह के सवाल अपने आप से पूछ रही हूं। किसकी कहानी, कैसी कहानी, कहां से शुरू होगी और कहां खत्‍म होगी, खत्‍म तो क्‍या ही होगी। अगर सब कुछ लिखना शुरू कर दूं तो पता नहीं ऐसी कितनी डायरियों की ज़रूरत पड़ेगी। हँसती हूं अपने आप पर। एक डायरी के भर जाने पर आखिरी पन्‍ने पर लिखना होगा - टू बी कंटीन्‍यूड। कहानी जारी रहेगी, और तब सुमित से मजबूरन कहना पड़ेगा, ऐसी दस-बीच डायरियां और ला दे। कहानी अभी बाकी है। सुमित से यही कहना ही तो नहीं हो पायेगा। ऐसे संबंध बचे ही कहां हैं। बचे होते तो ...।
 हमारी जि़न्ददगी में कितने ऐसे तो... आते हैं जिनका कोई जवाब नहीं होता। इस तो.. का भी नहीं है।
 फिर भी लिखूंगी अपनी कहानी। सुमित ने यही तो चाहा था कभी कि अपनी कहानी लिखूं इस डायरी में। लिखना शुरू तो करूं। आगे की आगे देखी जायेगी। पता नहीं कहानी पहले पूरी होगी या डायरी। वैसे भी कल से मेरी दिनचर्या पूरी तरह से बदल जाने वाली है। यही किया जाये सबसे पहले। अजीब स्थिति है। डायरी में कहानी लिखने के लिए कहा था सुमित ने। कहानी डायरी के रूप में लिखी जाये या डायरी कहानी के रूप में भरी जाये। लेकिन डायरी तो तारीख के हिसाब से लिखी जाती है ना। सिलसिलेवार। यहां तो कोई तरतीब ही नहीं है। न जीवन की, न दु:खों की, न हादसों की। पता ही नहीं चला क्‍या-क्‍या कब और कैसे होता चला गया। बेतरतीब-सा। कभी मुड़ कर पीछे देखने की फुर्सत ही नहीं मिली। अब पीछे मुड़ कर देखना भी चाहूं तो तकलीफ ही हिस्‍से में आने वाली है। अपनी राह खुद बना कर चलने वालों के साथ यही तो होता है। एक भी तो मंज़र नज़र नहीं आता जहां घड़ी भर सुकून से बैठे हों और उन पलों को याद करके खुश हो लें।
 कहां से शुरू करूं अपनी कहानी? पीछे से शुरू करते हुए आगे बढ़ते हुए या आगे से शुरू करते हुए पीछे लौटते हुए। शुरू कहीं से भी करूं, तकलीफों के अंतहीन रेगिस्‍तान मुझे पार करने ही होंगे। बीच-बीच में बेशक सुख के कुछ नखलिस्‍तान ति‍तलियों की तरह पर हिलाते नज़र आ कर तुरंत लोप हो गये हों।
 तो बात फिर वहीं अटक गयी। कहां से शुरू करूं अपनी कहानी? सुमित से, शिशिर से, भरतन से, अशोक से, देव और फिर कॉलेज से होते हुए बचपन की तरफ लौटूं या बचपन से शुरू करते हुए कॉलेज का रूट अपनाते हुए सुमित से जुड़ने और उससे अलग होने की कहानी कहूं? बात फिर वहीं आ जाती है। यहां से वहां जाऊं या वहां से चल कर यहां तक पहुंचूं, बात तो एक ही है। रास्‍ता तो वही ही है। पार तो मुझे ही करना होगा।
 या ये भी हो सकता है, एक कोलाज की तरह अपनी कहानी लिखती चलूं। जैसी कहानी खुद चले। मैं उसके साथ-साथ चलती चलूं।

-0-0-0-0-0-

उम्र की गुल्लक
भरते रहते हैं हम
उम्र की गुल्लक
अल्लम गल्लम चीजों से
कोई सिलसिला नहीं रहता
भरने का
तारीखें
पाठ
सिर फुट्टौवल
गलबहियां
न जाने क्या क्या भरता रहता है
उम्र की गुल्लक में

हमें याद ही नहीं रहता
कब उसमें डाली थी
दोस्ती की इक्कनी
मास्टर जी की मार का छेद वाला पैसा
या किसी काका के दुलार की अट्ठनी

सब कुछ भरता रहता है
उम्र की गुल्लक में

चाहे अनचाहे

जाने अनजाने

अच्छा लगता है
गुल्लक की फांक में  झांकना
उसे हिलाना
सलाई से टटोलना
क्या पता
कोई खोया कलगीदार सिक्का
खुशियों भरा
छपाक से हमारी गोद में आ गिरे
उम्र की गुल्लक से

सूरज प्रकाश

  • मैंने बेशक देर से लिखना शुरू किया लेकिन इतना काम कर लिया है ‍कि अब देरी से लिखने का मलाल नहीं सालता। बेशक चालीस के करीब कहानियां लिखी होंगी अब तक मेरे दो कहानी संग्रह हैं - अधूरी तस्वीर (1992) और छूटे हुए घर – (2002)
  • तीसरा और चौथा कहानी संग्रह चार बरस से प्रकाशकों  के पास अटका हुआ है।
  • मेरे दो ही उपन्‍यास हैं- हादसों के बीच (1998) और देस बिराना (2002)
  • तीसरा उपन्‍यास एक- थी छवि लिख रहा हूं।
  • इनके अलावा मेरा एक व्‍यंग्‍य संग्रह है - ज़रा संभल के चलो जो 2002 में छपा था।
  • दूसरा ललित रचना संग्रह दाढ़ी में तिनका 2010 में आया।
  • मेरा एक कहानी संग्रह गुजराती में भी है - साचा सर नामे जो 1996 में छपा था।
  • मूल लेखन के अलावा मैंने गुजराती और अंग्रेज़ी से बहुत अनुवाद किये हैं और इस काम में मुझे संतोष भी बहुत मिला है।
  • अंग्रेज़ी से जो अनुवाद किये, वे हैं - जॉर्ज आर्वेल का उपन्यास एनिमल फार्म, गैब्रियल गार्सिया मार्खेज के उपन्यास Chronicle of a death foretold का अनुवाद, चार्ली चैप्लिन की आत्म कथा का अनुवाद जो 2006 में आधार प्रकाशन से छपा। चार्ल्स डार्विन की आत्म कथा का अनुवाद जो NCERT से 2009 में छपा। मिलेना (जीवनी) का अनुवाद 2004 में छपा। ऐन फ्रैंक की डायरी का अनुवाद 2002 में छपा। इनके अलावा कई विश्व प्रसिद्ध कहानियों के अनुवाद प्रकाशित होते रहे।
  • इन दिनों Helen keller की आत्‍मकथा का अनुवाद कर रहा हूं।
  • गुजराती से अनुवादों में व्यंग्यकार विनोद भट की तीन पुस्तकें, गुजराती के महान शिक्षा शास्‍त्री गिजू भाई बधेका की दो पुस्तकें दिवा स्वप्न और मां बाप से का तथा दो सौ बाल कहानियां अनुवाद के जरिये हिंदी पाठकों तक पहुंचीं। दिनकर जोशी के उपन्यास प्रकाशनो पडछायो का अनुवाद किया। ये उपन्‍यास गांधी जी के बड़े बेटे हरिलाल के जीवन पर आधारित है।
  • महात्‍मा गांधी की आत्‍मकथा का अनुवाद किया जो राजकमल प्रकाशन से छपा।
  • मैंने लगभग 9 पुस्‍तकों का संपादन किया है। साहित्‍य के अलावा 6 पुस्‍तकों का संपादन अपनी नौकरी के सिलसिले में किया। बंबई 1, बंबई पर आधारित कहानियों का संग्रह है, कथा लंदन यूके में लिखी जा रही हिन्दी कहानियों का संग्रह है और कथा दशक कथा यूके से सम्मानित 10 रचनाकारों की कहानियों का संग्रह है।

  • रिज़र्व बैंक के लिए जिन 6 पुस्‍तकों का सम्‍पादन किया, वे हैं 1. लघु वित्‍त 2. रिटेल बैंकिंग3. एसएमई 4. कृषि व्‍यापार एवं निर्यात, 5. नेतृत्‍व और 6. ग्राहक सेवा
  • मेरे लिखे शब्‍दों को जो सम्‍मान मिले, वे हैं गुजरात साहित्य अकादमी का सम्मान और महाराष्ट्र अकादमी का सम्मान। इनके अलावा 2009 में मुंबई की संस्‍था आशीर्वाद की ओर से सारस्‍वत सम्‍मान।
  • रेडियो पर प्रसारण लगभग 30 बरस से अनवरत। कई कहानियों का रेडियो पर प्रसारण
  • दूरदर्शन के कई केन्‍द्रों पर साक्षात्‍कार आदि का प्रसारण। इनके अलावा छोटे नवाब और बड़े नवाब तथा डर कहानियों का दूरदर्शन पर फिल्‍म के रूप में प्रदर्शन
  • ऑडियो के रूप में उपन्‍यास देस बिराना का नेशनल इंस्‍टीट्यूट फार ब्‍लाइंड द्वारा दृष्टिहीनों के लिए रिकार्डिंग तथा प्रसारण और यही उपन्‍यास देस बिराना लंदन की एक संस्‍था एशियन कम्‍यूनिटी आर्ट्स द्वारा ऑडियो सीडी के रूप में जारी।
·                     कई शहरों में गोष्ठियों और मित्र मंडलियों में कहानी पाठ
  • विशेष उपलब्धियों में
    कहानी संग्रह छूटे हुए घर पर रोहतक विश्‍वविद्यालय की छात्रा द्वारा एम फिल के लिए शोधकार्य
  • उपन्‍यास देस बिराना पंजाब विश्‍वविद्यालय और चेन्‍नै विश्‍वविद्यालय की दो छात्राओं द्वारा पीएच डी के लिए शोध कार्य में शामिल । तीसरी पीएचडी के लिए काम हो रहा है।
  • कहानियां विभिन्न संग्रहों में प्रकाशित
  • कहानियों के दूसरी भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित
  • अनुवाद से निकट का नाता
  • आजकल सिर्फ पढ़ना और लिखना ही असली काम।
मेरे शौक हैं-घूमना, ट्रैकिंग, संगीत सुनना, फिल्‍में देखना, आत्‍मकथाएं और प्रेम कहानियां पढ़ना और अपने अकेलेपन में मस्‍त रहना
परिवार में पत्‍नी मधु और दो बेटे अभिजित और अभिज्ञान
0-0-0-




कोई टिप्पणी नहीं: