गुरुवार, 4 अक्तूबर 2012

संस्मरण

                                            दौड़ती साइकिल  पर राजेन्द्र यादव(जमशेदपुर -चिल्का झील के रास्ते-1955)  


खुदी को कर बुलंद इतना... - एक यारबाश हरफनमौला इंसान

 रामलुभाया अरोड़ा

सन् 1954 । कलकत्ता । राजेंद्र यादव से मेरा पहली बार परिचय कमलाकांत द्विवेदी के माध्यम से हुआ । कमलाकांत बेहद ज़हीन शालीन, मितभाषी लड़का था। उसका चचेरा भाई श्रीराम द्विवेदी मेरा लंगोटिया यार था । कानपुर से उसके पिता कलकत्ताा आये थे और बड़ा बाज़ार में उनकी थोक में साबुन बेचने की एक लंबी सी दूकान थी जहां बाहर की ओर घंटी बजा बजाकर, चार आने सेर की हांक लगाकर साबुन बेचा जाता था । तब तक मेरी साबुन की लक्ष्मी सोप फैक्टरी थोक क्रेताओं में काफी चलती थी । एक तो हमारा साबुन सस्ता होता था और क्वालिटी दूसरों के मुकाबले बहुत अच्छी थी । फैक्टरी से निकलने के बाद मैं जब श्रीराम की दूकान पर आता तो थोड़ी देर वहीं बैठ जाता । श्रीराम कानपुर के स्कूल से सातवीं-आठवीं पास कर पढ़ाई छोड़ चुका था । मैं स्कॉटिश चर्च कॉलेज से बी.कॉम पास करके पंजाब नेशनल बैंक में कुछ महीने नौकरी करने के बाद अपने व्यवसाय में रम गया था । पढ़ाई की असमानता के बावजूद हम दोनों में दांत काटी रोटी का रिश्ता था । कुछ साल बाद श्रीराम के पिता ने कलकत्ता छोड़कर इटावा में बसने का निर्णय ले लिया । जाते जाते श्रीराम ने मेरी पहचान अपने चचेरे भाई कमलाकांत से करवा दी जो आई.ए.एस. की तैयारी कर रहा था । कमलाकांत उम्र में मुझसे छोटा था और मुझे लुभाये भैया कहकर संबोधित करता था । कमलाकांत के पिता टाटानगर में ऊंची पोस्ट पर नौकरी कर रहे थे और कमलाकांत कलकत्ता के खिदिरपुर इलाके में डायमंड हार्बर रोड की एक बाई लेन के मोड़ पर किराये के एक छोटे से फ्लैट में कृष्णाचार्य के साथ रहता था। जब राजेंद्र  ( यादव ) सन् 1954 में कलकत्ता आया तो वह भी उन दोनों बैचलर के साथ टिक गया। पहली बार जब राजेंद्र को देखा, वह ऊंची पेशानी वाला काफी तेजस्वी युवक था । खूब सारा देशी विदेशी साहित्य उसने पढ़ रखा था और उसकी बातें किया करता था । राजेंद्र का तब तक एक उपन्यास छप गया था और हिन्दी साहित्य के लोगों में वह एक जाना माना नाम था । मेरी भी साहित्य में रुचि थी । विशाल भारत, चांद, हंस, विप्लव सभी पत्रिकाएं मेरे पास आती थीं । हम लोग इधर उधर की खूब बातें करते । कृष्णाचार्य और यादव ही इस साहित्य चर्चा में ज़्यादा हिस्सा लेते, मैं और कमलाकांत तो श्रोता की ही भूमिका अदा करते । कृष्णाचार्य को कुछ महीनों बाद नेशनल लायब्रेरी के हिन्दी विभाग के निदेशक की सरकारी नौकरी मिल गई थी ।

एक घटना आज भी मेरे दिमाग़ में पूरे विस्तार से दर्ज़ है । कमलाकांत के छोटे भाई कृष्णकांत का टाटानगर में यज्ञोपवीत संस्कार था । श्रीराम अपने परिवार का प्रतिनिधि बनकर टाटा जाने से पहले कलकत्ता आये । वह कमलाकांत के साथ टाटा जाने वाला था । कहने लगा - तुम दोनों भी चलो । मुझे चिल्का लेक देखने का चाव था । राजेंद्र भी साथ हो लिया । उन दिनों राजेंद्र कई बार बिल्कुल उखड़ा उखड़ा सा दिखाई देता था । एक दिन मैंने और श्रीराम ने जब घेर घार कर उसे पूछा तो उसने बताया कि पिछले कई सालों से एक लड़की से उसकी बड़ी घनिष्ठता चल रही थी । पढ़ाई के दौरान ही उसने उससे शादी के सपने देखे थे । पर इस बीच एक हादसा हो गया । राजेंद्र को स्पोर्ट्स से बहुत लगाव था । हॉकी, क्रिकेट उसके पसंदीदा खेल थे । एक दिन हॉकी खेलते समय उसने एक गोल कर दिया । दूसरी टीम के लड़के ने भागते हुए राजेंद्र की एक टांग पर हॉकी स्टिक से जोर का वार किया । पैर की हड्डी टूट गई थी । तब राजेंद्र अपने किसी चाचा या ताऊ के पास पढ़ाई के लिये टिके हुए थे । चाचा वैसे ही खेल कूद में इतना समय बर्बाद करने के लिये जब तब प्रवचन देने बैठ जाते थे । डर के मारे राजेंद्र ने अपने पैर की तकलीफ के बारे में बताया ही नहीं । टूटे हुए पैर के साथ बाहर जाना मुश्कि था ही । सो घर में बैठकर पढ़ाई करते रहे । इधर टांग सूजती चली गई । अब सबकी निगाह पड़नी ही थी । जब पैर खूब सूज गया तो पिता को बुलाया गया । राजेंद्र के पिता डॉक्टर थे । उन्होंने हड्डियों के एक बड़े विषेषज्ञ को दिखाया लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी । डॉक्टर ने बताया कि टांग की हड्डी का एक हिस्सा पूरी तरह गल चुका है और या तो एक टांग काटनी पड़ेगी या वह हड्डी  निकाल दी जाएगी । टांग तो बचा ली गई पर हड्डी के पूरे गले हुए हिस्से का ऑपरेशन कर उसे निकाल दिया गया । एक पैर छोटा हो गया । ठीक होने के बाद एक बैसाखी का सहारा लेना पड़ा । जब उस बैसाखी के सहारे अपनी दोस्त तक पहुंचे तो उसने शादी से इन्कार कर दिया । बस , फिर उस शहर में राजेंद्र का मन नहीं लगा और वह कलकत्ता चला आया । हम सबके मन में राजेंद्र के प्रति दोहरी सहानुभूति पैदा हो गई । तब मालूम नहीं था कि टाटानगर की यात्रा के दौरान हमारा साबका एक और दुर्घटना से पड़ने वाला है ।

       सुधा अरोड़ा के पिता रामलुभाया अरोड़ा जी, बहन इंदु और सुधा अरोड़ा 


कमलाकांत के साथ हमलोग टाटानगर पहुंचे । मैंने पहली बार यज्ञोपवीत संस्कार का इतना भव्य आयोजन देखा था । यह भी मैने पहली बार देखा कि उस आयोजन से पहले लड़के को गव्यामृत पीना पड़ता था । पंचामृत तो मैंने सुन रखा था पर गव्यामृत गाय के गोबर, गोमूत्र, दूध, दही और गाय के दूध से बने घी को मिलाकर बनाया जाता था । मैंने भी वह चखा । आयोजन धूमधाम से संपन्न हुआ । इसके बाद हमलोग शहर देखने के लिये रवाना हुए । हम तीनों - राजेंद्र , श्रीराम और मैंने तीन साइकिलें उठाईं और चिल्का झील देखने निकल पड़े । मैंने दोनों हाथ छोड़कर पहली बार इतनी दूर तक ऐसी रफ्तार में साइकिल चलाई । ताज्जुब की बात यह कि एक टांग छोटी होने के बावजूद राजेंद्र कई बार साइकिल रेस में मुझसे आगे निकल जाता । उसमें गज़ब का जीवट था । हमलोगों ने साइकिल से लंबा रास्ता तय किया । चिल्का लेक बहुत शानदार लंबी-चैड़ी और खूबसूरत झील है । हमने रास्ते भर खूब मस्ती की। लौटते समय जंगल में रुक गये । श्रीराम ने इटावा में एक रिवॉल्वर खरीदा था और उसके पास ऑल इंडिया लेवल का लाइसेंस था । रास्ते में जब सुस्ताने के लिये रुके तो उसने वह पिस्तौल निकाल कर दिखाई । फिर राजेंद्र से उसने कहा - चलो , एक निशाना लगा कर देखो । राजेंद्र ने कहा - हटाओ ,यह सब क्या देखना है । उसने पिस्तौल मुझे थमा दी । फिर कहा - पेड़ पर निशाना लगाओ । मैंने तने पर निशाना लगाया और धांय की आवाज़ के साथ गोली छूटी । मैंने पास जाकर देखा तो पेड़ के तने पर छेद हो गया था और तने की छाल उधड़ गई थी । गोली अंदर कहीं धंस गई होगी पर उस छेद के साथ उधड़ी हुई छाल पर एक लंबी फांक सी बन गई थी और अगल बगल गुलाबी लाल सा रंग फैल गया था । गुलाबी रंग ने मुझे पहली बार इस तरह डराया । उसे छूकर देखते हुए मेरे हाथ कांप गये । मुझे लगा, जैसे मैंने उस पेड़ की हत्या कर दी है । श्रीराम अब दूसरे निशाने के लिये उस पिस्तौल को तैयार कर रहा था । मैं जैसे ही वापस पहुंचा, उसने पिस्तौल मेरे हाथ में थमायी - ले लुभाया , अब दूसरा निशाना लगा । मैंने कहा - बस , एक ही बहुत है , मुझे नहीं लगाना । उसने राजेंद्र से पूछा । राजेंद्र ने कुढ़ कर कहा - साले , अपने रकीब पर आजमाना, बेचारे पेड़ को क्यों छलनी कर रहे हो ! हमलोग साइकिल चलाते हुए वापस घर आ गये ।

घर लौटकर हमलोगों ने चाय वगैरह पी । कमलाकांत द्विवेदी के घर की बैठक के एक लंबे सोफे पर हम तीनों बैठे थे । कमलाकांत भी पास आ बैठा । राजेंद्र ने जंगल में तो पिस्तौल को हाथ में लेने से इन्कार कर दिया था, अब श्रीराम को कहने लगा - ‘‘ बताओ , इसमें गोली कैसे भरते हैं । ’’ श्रीराम को अपनी नयी नयी चीज़ें दिखाने का शौक था । पिस्तौल ऐसे दिखा रहा था जैसे किसी बच्चे के हाथ में खिलौना हो । घुमा फिरा कर उसने गोली भरी, दिखाया कि ऐसे गोली भरते हैं और ये ..... । उसने ट्रिगर पर हाथ रखा ही था कि वह दब गया । जोर की आवाज़ आई और इसके साथ ही राजेंद्र की जोर की कराह - ‘‘अरे, मार डाला।’’ देखा तो गोली सोफे की लकड़ी को दो जगह से छीलती हुई राजेंद्र के पाजामे में छेद कर रही थी । उस जगह पर पायजामा लाल हो गया था पर ऐसा नहीं था कि खून के फव्वारे छूटे हों । राजेंद्र की टांग में गोली धंस गई थी । अभी पेड़ के तने पर पड़े छेद, उखड़ी हुई छाल और लकीर के आसपास के गुलाबी रंग की दहशत से निकला नहीं था कि यह हादसा हो गया । हम सब घबरा गये । कमलाकांत ने कहा - तुरंत अस्पताल चलो, गोली निकलवानी पड़ेगी । हम टैक्सी में बैठे तो मैंने कहा - यह तो पुलिस का मामला बन जाएगा, अगर तुमने सच कह दिया कि श्रीराम के हाथ से गोली चली । श्रीराम ने भी कहा - मेरा तो लाइसेंस कैंसल हो जाएगा, तुम यही कहना कि पिस्तौल को मैं देख रहा था कि अनजाने में घोड़ा दब गया । हम सब अस्पताल पहुंचे । पुलिस तो खैर राजेंद्र के बयान से एक ओर हो गई । जब डॉक्टर आया तो उसने हम लोगों को देखकर पूछा कि गोली लगी किसको है ? क्योंकि राजेंद्र न  कराह रहा था , न उसके चेहरे पर दर्द की कोई शिकन थी, सब मजे में बातें कर रहे थे । डॉक्टर ने जांच पड़ताल की तो पता चला कि गोली जांघ से सरकती हुई कूल्हे की हड्डी के नीचे जाकर रुक गई है । ऑपरेशन से गोली को निकाल दिया गया । हम लोगों ने राहत की सांस ली कि गोली ने हड्डी में कहीं कोई फ्रैक्चर नहीं किया था, जांघ के मांस में धंसकर वह जगह बनाती हुई कूल्हे तक जाकर रुक गई थी । डॉक्टर ने कहा कि गोली तो निकल गई है लेकिन कम से कम एक सवा महीने इस पैर को बिल्कुल हिलाना डुलाना नहीं है , सीढ़ियां भूल कर भी नहीं चढ़नी है । आखिर गोली ने मांस को इतनी दूर तक जो छीला है , वह घाव प्राकृतिक रूप से ही भरेगा इसलिये पांव पर कोई वज़न नहीं पड़ना चाहिये , ज्यादा से ज़्यादा उठ कर बाथरूम तक जा सकते हैं।

ऑपरेशन के बाद मैं और श्रीराम राजेंद्र को ऐसी हालत में ट्रेन में कलकत्ता तक ले आये । अब सवाल यह था कि उसे कहां ठहराया जाए। वह खिदिरपुर वाले जिस घर में था, वह भी दूसरे तल्ले पर था और वहां कोई देखभाल करने वाला भी नहीं था । मैं शंभुनाथ पंडित स्ट्रीट के रतन भवन के तीसरे तल्ले पर रहता था जो कहने को तीन तल्ले पर था पर उसकी सीढ़ियां इतनी ऊंची-ऊंची थीं कि उन्हें चढ़ना मुश्किल था, फिर हम आठ लोगों का परिवार था पर कमरे दो ही थे ।  एक लंबा बरामदा, कमरे जितनी लंबी रसोई जरूर थी पर वहां ठहराने का सवाल ही नहीं था । बहुत सोचने के बाद यह निर्णय लिया कि राजाबाज़ार की सोप फैक्ट्री में उसे ठहराया जाए , जहां एक दीवान भी है जिसपर बिस्तर बिछाया जा सकता है , बाथरूम का दरवाज़ा एकदम सटा हुआ है , कुछ कारीगर जनक सिंह और सीताराम वहीं फैक्टरी में ही रहते थे जो बाहर से बिस्किट नमकीन लाकर दे सकते हैं, चाय बनाकर पिला सकते हैं । मेरा खाना रोज़ घर से टिफिन में आता ही है , अब एक की जगह दो का खाना आ जाया करेगा । मैं सुबह दस बजे घर से निकलकर अपने कॉलेज स्ट्रीट वाले ऑफिस में जाता और वहां से करीब एक बजे राजाबाजार वाली फैक्ट्री में पहुंच जाता , जहां हम दोनों मिलकर घर से आया खाना खाते । हर तरह का खाना वह चटखारे ले लेकर उंगलियां चाट-चाट कर खाता । आटे के बिस्कुट और खारी के पैकेट वगैरह उसके पास पड़े रहते । सुराही में पानी भी था । रैक पर उसने किताबें और लिखने पढ़ने की सामग्री जुटा ली थी । यह राजेंद्र के लिये काफी मुश्किल समय था पर वह बहुत ज़्यादा अकॉमॉडेटिंग था । कैसे भी कमरे में, कैसे भी माहौल में वह हमेशा खुश ही दिखाई देता वर्ना राजाबाज़ार की फैक्ट्री में अंदर साबुन और बाहर चमड़े के कारोबार की वज़ह से कई बार जो गंध का भभका उठता था, उसकी मुझे तो खैर आदत हो गई थी पर बाहर के लोगों के लिये वहां बैठना आसान नहीं था । राजेंद्र सवा महीना वहां रहा और मुझे याद नहीं आता कि उसने कभी कोई षिकायत की हो । उसके पैर का घाव भर गया था । इसके बारे में विस्तार से उसने अपनी किताब ‘‘मुड़ मुड़ के देखता हूं’’ में लिखा है ।

सवा महीने फैक्ट्री में रहने के बाद उसे घर के (मेरी पत्नी वीणा जिसके हाथ का खाना आज भी सब याद करते हैं ) खाने का स्वाद लग गया था । पांव का ज़ख़्म ठीक होने के बाद उसका हमारे रतन भवन में आना बढ़ गया था । कम से कम हर इतवार को तो उसका आना तय था जब वीणा सोया आलू या गोभी के परांठे बनाती थी, मैं भी छुट्टी के दिन घर में होता था । अक्सर परांठों का स्वाद लेते हुए वह कहता - भाभी, मेरी शादी होगी तो बीवी को कुछ दिन तुम्हारे पास छोड़ जाऊंगा, उसे बिल्कुल ऐसे ही परांठे बनाना सिखा देना ! दोपहर का खाना खाने के बाद वह कुछ देर आराम करता, उसके बाद चाय पीकर हमलोग सपरिवार विक्टोरिया मेमोरियल की ओर निकलते । सूरज ढलने तक वहां रहते । कभी कभी परांठे टिफिन में डालकर विक्टोरिया के मैदान में ही दही के साथ खाते । पिकनिक हो जाती । बच्चे तब छोटे थे । दोनों जुड़वां बेटे तो तब पैदा ही नहीं हुए थे । प्रदीप गोद में था । बच्चे विक्टोरिया के मैदान में गेंद खेल रहे होते और राजेंद्र और मैं टहलते-टहलते बेंच पर जाकर बैठ जाते जहां राजेंद्र अक्सर दुनिया जहान की बातें करता रहता । वहीं पर उसने मुझे एक शेर सुनाया था:

खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तदबीर से पहले,
खुदा बंदे से खुद पूछे, बता तेरी रज़ा क्या है !

यह दो लाइनें मेरे दिमाग़ में जम कर बैठ गईं । मैं इन्हें कभी नहीं भूला । आज हमारे उस समय के सब लोग चले गये । सबसे पहले श्रीराम अचानक दिल के दौरे से चला गया । कृष्णाचार्य का जाना भी अचानक ही हुआ । कमलाकांत से मैं बहुत बाद में भी दिल्ली में मिलता रहा । पर राजेंद्र से मिलना तभी बंद हो गया, जब मन्नू से उसकी पहचान हुई ।  1957 में मन्नू ने अपने स्कूल में, जहां वह पढ़ाती थी, राजेंद्र को 1857 के सौ साल पूरे होने के उपलक्ष्य में बुलाया था । राजेंद्र का दायरा बहुत बढ़ गया था । वह नामचीन हो गया था । उसके बाद कौन पुराने दोस्तों को याद रखता है । अपनी शादी में भी उसने हम तीनों में से किसी को नहीं बुलाया । उसके बाद तो आधी सदी बीत गई । पचास साल बाद उसकी खबर मुझे सुधा से ही मिलती है या कभी टी.वी. पर देख लेता हूं । लेकिन यह ज़रूर मानूंगा कि वह एक यारबाश , ज़िंदादिल और हरफनमौला इंसान था जिसने अपनी खुदी को तो बुलंद किया ही , मुझे भी वे दो लाइनें ऐसे थमायीं जो मेरे जीवन का आज भी मूलमंत्र हैं और नब्बे साल पूरे करने के बाद भी मैं अपने आप को युवा महसूस करता हूं । 

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रामलुभाया अरोड़ाअरोड़ा निकेतन, नीलकोठी, 13, धीरेंद्र नाथ घोष रोड, भवानीपुर, कोलकाता - 700025 . फोन - 033 2454 7208 / 093397 65648 

        

2 टिप्‍पणियां:

ashok andrey ने कहा…

aadarniya Rajendr Yadav jee ko is sansmaram ke sahare bahut kareeb se janne ka mouka milaa,unse jude kaee anchhue pehluon ko bhee jaana.bahut sundar.

PRAN SHARMA ने कहा…

RAJENDRA YAADAV BHALE HEE NAAMCHEEN
HO GAYE HAIN LEKIN UNKO SHREDDHEY
SHREE RAM LUBHAYA ARORA KAA YAH
SANSMARAN AWASHYA HEE PADHNAA CHAAHIYE . ARORA JI , AAKAA YAH LIKHNA MAN PAR ANKIT HO GAYAA HAI ---
" PURAANE DOSTON KO KAUN YAAD KARTA
HAI ? "