सोमवार, 31 दिसंबर 2012

कटाक्ष और कविता




कटाक्ष
बोलने की आजादी!
कबीर दास

यह तो हद हो गयी. बेचारे अभिजीत बाबू को माफी मांगनी पड़ गयी. ऊपर से हलक में हाथ डालकर बहन लोगों ने वादा करा लिया कि पार्टी कहेगी तो लोकसभा की सीट से भी इस्तीफा दे देंगे. अरे, इस देश में अभिव्यक्ति वगैरह की स्वतंत्रता भी है या नहीं. माना रेप-वेप की स्वतंत्रता नहीं है. यही हाल रहा तो देखिएगा, एक दिन छेड़छाड़ तक की स्वतंत्रता खतरे में पड़ जाएगी. शोहदा संस्कृति का नाम विलुप्त संस्कृतियों के रजिस्टर में चढ़ जाएगा और लुप्त कलाओं की सूची में सीटी बजाने की कला का नाम गिना जाएगा. फिल्मों में पटने-पटाने के दृश्यों पर वैधानिक चेतावनी लगानी पड़ जाएगी कि ये स्टंट विशेषज्ञों द्वारा किए गए हैं, इनका अनुकरण न करें वरना हवालात की हवा खानी पड़ सकती है. खैर! जब कानून और समाज ही कला-संस्कृति के खिलाफ हो जाए, तो कोई क्या शिकायत करे और किससे? लेकिन, बोलचाल वाली अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तो कानून में है, फिर उसका क्यों गला घोटा जा रहा है? और जब एक सांसद की अभिव्यक्ति ही सुरक्षित नहीं है, फिर मामूली लोगों की तो बात ही क्या करना!


अरे, यही तो कहा था कि गैंगरेप के मामले को लेकर राजपथ पर हो रहा हो-हल्ला जैनुइन नहीं था. जब हो-हल्ला करने वाले जैनुइन नहीं थे, फिर हो-हल्ला जैनुइन होता भी तो कैसे? लगता है, अभिजीत बाबू ने भीड़ में दूर से ही पहचान लिया कि मम्मियां, कॉलेज स्टूडेंट बनने की कोशिश कर रही हैं. क्यों न हो, वह भी कॉलेज में पढ़े हैं. उन्हें कोई बताने की कोशिश न करे कि कौन असली छात्राएं थीं, कौन नहीं? यह भी बताने की कोशिश न हो कि फैशन के लिए दिन में जिंदाबाद-मुर्दाबाद करने वाले स्टूडेंट रात को क्या करते हैं? पढ़ाई की छोड़िए, रात को नाइट क्लब, दिन में प्रदर्शन करेंगे तो फिर सोएंगे कब! पूरी नींद न लेना युवा पीढ़ी के लिए ठीक नहीं है!

अरे, अभिजीत बाबू का युवाओं को तेचाना कैसे गुनाह हो गया. यह याद दिलाना कैसे गलत हो गया कि नाइट क्लब और बोट क्लब, दो-दो नावों पर साथ सवारी करना यथार्थवादी नहीं है. स्वास्थ्य चौपट हो सकता है. रही बात ’डेंटेट-पेंटेड’ की तो उसके लिए उन्होंने माफी मांग तो ली है. वैसे भी यह बात उन्होंने नकली छात्राओं के बारे में कही थी, जो डेंटिंग-पेंटिंग के सहारे असली बनने की कोशिश कर रही थीं. बाकी हर चीज में नक्कालों से सावधान करना अच्छा है, तो इसी मामले में क्यों नहीं! फिर, यह क्यों भूल जाते हैं कि अभिजीत बाबू की असली बात न तो डेंटिंग-पेटिंग की शिकायत है और न रात में नाइट क्लब के बाद दिन में राजपथ के फैशन की शिकायत. डर था कि मिस्र के तहरीर चौक की नकल के चक्कर में यहां छोकरा-छोकरी देश की चलती गाड़ी में, डंडा न अड़ाएं. खैर, नासमझ बच्चों को यह समझाना क्या गुनाह है कि बदल दो, बदल दो की उनकी मांग यथार्थवादी नहीं है. मोहम्मद तुगलक की तरह राजधानी बदलवाने की जिद न करें, हर लिहाज से बलात्कार की राजधानी के पद के लिए सबसे उपयुक्त दिल्ली ही है.


हमने सिर्फ कहने के लिए नहीं कहा था कि जब सांसद की अभिव्यक्ति सुरक्षित नहीं है, तो बाकी की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का कौन पुछवैया है. एक नहीं, बेशुमार मिसालें आ भी चुकी हैं. बोट क्लब की भीड़ का डर दूर-दूर तक यह स्वतंत्रता छीन रहा है. आंध्र प्रदेश में सत्ताधारी पार्टी के एक नेता ने सिर्फ इतना याद दिलाया था कि देश आधी रात को स्वतंत्र हुआ था, औरतें नहीं. उनकी वह दुर्गत हुई कि पूछिए मत. यूपी के एक सांसद ने औरतों को बुर्के-चादर में तन ढांपकर रखने की सलाह क्या दे दी, हाय-हाय के नारे लगने लगे. और तो और, मध्य प्रदेश में महिलाओं के प्रति संवेदनशीलता बढ़ाने के लिए पुलिस के बुलाए सेमिनार में एक महिला वैज्ञानिक ने इतना क्या कहा कि हाथ-पांव में दम ही नहीं था तो लड़की रात में दस बजे बाहर निकली ही क्यों, और निकली भी तो फ्रेंड के साथ क्यों निकली. फ्रेंड के साथ ही निकली, तो छह-छह बलात्कारियों से घिरने के बाद विरोध क्यों किया? विरोध न करती तो आंतें तो सलामत रहतीं. महिला वैज्ञानिक ने वैज्ञानिक सत्य बताया और सफाई बेचारे पुलिस अधिकारियों को देनी पड़ रही है. वाह री अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तेरा क्या होगा!
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२९ दिसम्बर,२०१२ के राष्ट्रीय सहारा से साभार

राजसत्ता, पितृसत्ता मुर्दाबाद. तुम्हारी क्षय हो....

पाश
हम लड़ेंगे साथी, उदास मौसम के लिये
हम लड़ेंगे साथी, गुलाम इच्छाओं के लिये
हम चुनेंगे साथी, ज़िन्दगी के टुकड़े
हथौड़ा अब भी चलता है, उदास निहाई पर
हल अब भी चलता हैं चीखती धरती पर
यह काम हमारा नहीं बनता है, प्रश्न नाचता है
प्रश्न के कंधों पर चढ़कर
हम लड़ेंगे साथी
कत्ल हुए ज़ज्बों की कसम खाकर
बुझी हुई नज़रों की कसम खाकर
हाथों पर पड़े घट्टों की कसम खाकर
हम लड़ेंगे साथी.....
....
हम लड़ेंगे जब तक
दुनिया में लड़ने की ज़रुरत बाकी है
जब तक बंदूक न हुई, तब तक तलवार होगी
जब तलवार न हुई, लड़ने की लगन होगी
लड़ने का ढंग न हुआ, लड़ने की ज़रुरत होगी
और हम लड़ेंगे साथी
हम लड़ेंगे
कि लड़े बगैर कुछ नहीं मिलता
हम लड़ेंगे
कि अब तक लड़े क्यों नहीं
हम लड़ेंगे
अपनी सजा कबूलने के लिए
लड़ते हुए जो मर गए

उनकी याद ज़िन्दा रखने के लिए
हम लड़ेंगे
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2 टिप्‍पणियां:

Ila ने कहा…

कुछ रचनायें कालातीत होती है | यह भी वैसी ही है जिसे सही समय पर आपने प्रकाशित किया है|
सादर
इला

सुभाष नीरव ने कहा…

पाश की यही कविता नहीं, बहुत सी कविताएं कालातीत हैं। पंजाबी के जो कवि मुझे बहुत प्रिय रहे हैं, उनमें पाश भी है। पाश की कविता का मुहावरा अपने समकलीन कवियों से जुदा रहा और वह समाज, व्यवस्था और सत्ता की निरंकुशता को कविता के घेरे में लाने से कभी नहीं हिचका, जबकि कई कवि ऐसा करने से डरते रहे। कुछ वर्ष पहले मैंने भी अपने ब्लॉग 'सेतु साहित्य' पर पाश की कविताएं लगाई थीं जिनमे यह कविता भी शामिल थी।