शुक्रवार, 2 मार्च 2012

वातायन-मार्च,२०१२



हम और हमारा समय

साहित्य, राजनीति और हसन जमाल


रूपसिंह चन्देल

हाल ही में एक वेब पत्रिका में प्रकाशित अधकचरे आलेख पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए मैंने कहा कि आलेख में न केवल आलेखकार की अज्ञानता प्रकट हुई बल्कि आलेख साहित्यिक राजनीति का शिकार भी हुआ है. उस पर मेरी प्रतिक्रिया पर देश-विदेश के कुछ हिन्दी लेखकों में तीखी प्रति-प्रतिक्रिया हुई. फोन घनघनाए और कुछ मुझ तक भी आए. चार पंक्तियों की उस प्रतिक्रिया की सफाई भी दी गई लेकिन सफाई देने का जो उपयुक्त मंच था अर्थात वह पत्रिका जिसमें आलेख प्रकाशित हुआ था और जिसमें मैंने अपनी प्रतिक्रिया प्रकाशित करवाई थी, वहां चुप्पी पसरी रही. आलेखकार के समर्थन में फोन पर मेरी भर्त्सना करने वालों ने वहां कुछ नहीं कहा. इसका अर्थ स्पष्ट है. ऎसा नहीं कि मेरी प्रतिक्रिया पर प्रति-प्रतिक्रिया देने वाले इस बात से अनजान हैं कि साहित्य में राजनीति होती है. वे अनजान नहीं बल्कि राजनीति की पेंगे भरने वाले लोग हैं और उनकी तीखी प्रतिक्रिया का कारण यह था कि उनके किसी मित्र के अधकचरे आलेख पर मैंने उंगली उठायी थी---आंख में उंगली गड़ाकर सच दिखाना चाहा था.

साहित्य में राजनीति आज की देन नहीं---यह आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रादुर्भाव काल से है---प्रेमचंद युग भी इससे अछूता नहीं था. निराला की अर्द्धविक्षप्तावस्था का कारण उनके विरुद्ध की गई राजनीति ही थी. उन्हें सम्मानित किया गया--- एक निश्चित राशि का लिफाफा सम्मानस्वरूप दिया गया, लेकिन वह मात्र लिफाफा था----राशि उसमें नहीं थी. कवि-मन आहत हुआ था और वही उनकी अर्द्धविक्षप्तिता का कारण बना था. ’नई कहानी’ के पुरोधा कितनी ही प्रतिभाओं की भ्रूणहत्या के दोषी हैं---वे स्वीकार भले ही न करें.

साहित्य की राजनीति नई कहानी आन्दोलन की अपेक्षा आठवें दशक में कहीं अधिक दिखाई दी. नई कहानीकारों के लिए ’स्व’ की चिन्ता में केवल साहित्य अर्थात कहानी केन्द्र में थी और वे अपनों के अतिरिक्त दूसरों को खारिज करते रहे, लेकिन आठवें दशक में साहित्य दूसरे स्थान पर आ गया था. प्रथम स्थान पर पद-प्रतिष्ठा और पूंजी थी. जिसके पास ’ये’ सब थे उसकी रचनाओं की अधिकाधिक चर्चा की जाती रही. यह स्थिति दिनों दिन विद्रूप होती गई और आज यह भयंकरतम रूप में है. कितने ही सक्षम और सक्रिय साहित्यकार हाशिए पर धकेले जाते रहे/जा रहे हैं. हसन जमाल उनमें से एक नाम है.

’पाठ’ त्रैमासिक (सम्पादक – देवांशु पाल, विनाबा नगर, बिलासपुर (छत्तीस गढ़), फोन नं. ०-९९०७१२६३५०) ने जनवरी-मार्च,२०१२ (अंक २९) हसन जमाल पर केन्द्रित किया है. हसन जमाल पर लिखते हुए अनेक लेखकों ने इस मुद्दे पर चर्चा की है. सुरेश पंडित अपने आलेख – ’लेखकों की भीड़ का हसन जमाल भी एक हिस्सा हैं’ में लिखते हैं – “मैं समझता हूं कि हसन जमाल का सबसे बड़ा अपराध यही है कि वे बिना किसी गाड फादर का वरदहस्त पाए एक अच्छा लेखक बनना चाहते हैं. इसी के चलते उनकी कहानियों का सही मूल्याकंन तो हुआ ही नहीं बहुत से लोग यह भी नहीं जानते कि वे एक बढ़िया सम्पादक के साथ-साथ बढ़िया कहानीकार भी हैं. मैंने किसी लेखक का उनकी कहानी पर कुछ भी लिखा देखा या पढ़ा नहीं है. न ही किसी को इनका रेफ्रेंस देते पाया है.”

हितेश व्यास अपने आलेख – ’जमालुद्दीन छीपा से हसन जमाल तक’ में कहते हैं – “उन्हें भवभूति के इस कथन पर विश्वास रखना चाहिए कि काल अनन्त है और पृथ्वी व्यापक. कोई तो समानधर्मा होगा जो उनकी कद्र करेगा. मेरी दृष्टि में हसन जमाल कथा-साहित्य के अन्ना हजारे हैं.”

उपरोक्त दो उदाहरण इसलिए कि हसन जमाल नाम के लेखक ने न केवल उल्लेखनीय कहानियां लिखीं बल्कि ’शेष’ जैसी महत्वपूर्ण पत्रिका भी निकालते हैं. नासिरा शर्मा ने अपने आलेख में उनकी दो कहानियों ’जमील अहमद की बीबी’ और ’क्या मेरी बीबी से मुहब्बत करोगे’ का उल्लेख किया है. ’आजमाइश’, ’मॉमु’, ’प्लेटफार्म’ आदि कहानियां हसन जमाल को अपने समकालीनों में शीर्ष का हकदार बनाती हैं, लेकिन ------ और इस लेकिन के पीछे है साहित्य की राजनीति. हसन जमाल न ही चाटुकारिता कर पाते हैं और न ही किसी दरबार में हाजिरी दे पाते हैं. न ही वे ऊंचे पद पर रहे और न ही पूंजीपति हैं. आज जहां किसी पूंजीपति कथा-लेखिका को उसके पहले उपन्यास पर सरकारी और गैर सरकारी संस्थाएं पुरस्कृत कर रही हैं वहां हसन जमाल जैसे अक्खड़ की पूछ होने का सवाल ही नहीं उत्पन्न होता. अक्खड़ता उनकी पहचान है, लेकिन वह अक्खड़ता किसी मठाधीस का प्यादा होकर उसका वरदहस्त प्राप्त होने से नहीं उपजती. वह उनके अति-संवेदनशील और ईमानदार रचनाकार के परिणाम-स्वरूप जन्मती है. प्यादे जब किसी को साहित्य में खारिज करने की धमकी देते हैं तब हंसी आती है. राजेन्द्र यादव को उनके लिखे पत्रों को यदि राजेन्द्र जी ने सुरक्षित रखा होगा तो वह एक महत्वपूर्ण संग्रह होगा. साधनहीन और ईमानदार रचनाकार पत्र लिखकर ही अपनी बात कह सकता है और पत्र लिखना हसन जमाल की कमजोरी है.

कुछ लोगों का कहना है कि हसन जमाल अपना मानसिक संतुलन खो बैठे हैं. लेकिन यह सत्य नहीं है. ’शेष’ जैसी उत्कृष्ट पत्रिका मानसिक संतुलन खोया व्यक्ति नहीं निकाल सकता (जिसकी प्रशंसा करते हुए राजेन्द्र यादव नहीं थकते) और न ही वह बेहतरीन कहानियां लिख सकता है. हां, उनकी स्थिति कमोवेश निराला जैसी है और इस स्थिति को उन्होंने स्वीकार कर लिया है.

’पाठ’ ने हसन जमाल पर अंक केन्द्रित कर स्तुत्य कार्य किया है. ’पाठ’ को इस परम्परा को आगे बढ़ाना चाहिए और हाशिए पर पड़े समर्थ रचनाकारों पर केन्द्रित अंक आगे भी प्रकाशित करने चाहिए.

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वातायन का यह अंक स्व. द्रोणवीर कोहली पर केन्द्रित है. आगामी अंक वरिष्ठ कथाकार सुधा अरोड़ा पर केन्द्रित होगा.
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संस्मरण



संस्मरण

सशक्त-सक्रिय रचनाकार थे द्रोणवीर कोहली

रूपसिंह चन्देल

“भई नाराज हो.” यह आवाज २४ जनवरी, २०१२ से निरंतर मेरे कानों में गूंज रही है. फोन पर उनका जो पहला वाक्य सुनाई देता वह यही होता. सधी और खनकती आवाज और उसके बाद “बहुत दिन हो गए थे आपकी आवाज सुने हुए---सोचा शायद कुछ नाराजगी है.”

“आपसे नाराजगी---मैं स्वप्न में भी नहीं सोच सकता.” मैं कहता.

ऎसा तब होता जब हमारे मध्य लंबे समय तक संवाद नहीं होता. महीने में एक-दो बार हम अवश्य बातें करते. कभी-कभी तीसरे-चौथे दिन भी, लेकिन तभी जब कुछ विशेष बात होती. अंतराल तब होता तब हम दोनों ही किसी न किसी काम में व्यस्त होते. फोन पर बातें चाहे तीसरे-चौथे दिन हुईं या पन्द्रह-बीस दिनों में या दो-चार माह बाद---लंबी बातें होतीं. चालीस-पैंतालीस मिनट से कम नहीं. बीच-बीच में हमारे ठहाके लगते. शिष्ट मजाक उनके स्वभाव में था, और हम आयु की सीमाएं भूल जाते. वार्तालाप के विषय प्रायः साहित्यिक होते---देश-विदेश का साहित्य. वे जो पढ़ रहे होते उसकी चर्चा करते या जो लिख रहे होते उसकी. साहित्य की चर्चा हो और साहित्यिक राजनीति की न हो ऎसा कैसे हो सकता था. वह भी होती.

हम एक-दूसरे से कब मिले या संवाद कब प्रारंभ हुआ सही वर्ष-तारीख याद नहीं, लेकिन अनुमान है कि १९९४ की बात थी. उनका उपन्यास ’तकसीम’ प्रकाशित हुआ था और मेरा ’रमला बहू’. मुझे याद है कि एक रात उनका फोन आया था और मेरे ’हलो’ कहते ही उन्होंने कहा था, “मैं द्रोणवीर कोहली बोल रहा हूं---आपने मेरा नाम सुना होगा.“ उनकी विनम्रता ने मुझे उनकी ओर आकर्षित किया था. उन दिनों वह ग्रेटर कैलाश में रह रहे थे. बातों और फिर मिलने का सिलसिला चल निकला था. यह तो मुझे बहुत बाद में ज्ञात हुआ कि धर्मयुग के बुनियाद अली वही थे. आठवें दशक के उत्तरार्द्ध के दिनों की बात थी. धर्मयुग में बुनियाद अली के नाम से एक पाक्षिक धारावाहिक स्तंभ प्रकाशित होता था जो दिल्ली की साहित्यिक गतिविधियों पर केन्द्रित होता था. उसे जिस रूप में प्रस्तुत किया जाता वह इतना आकर्षक होता कि उन दिनों उसी स्तंभ के लिए मुझे धर्मयुग की प्रतीक्षा रहती थी. तब मैं दिल्ली में नही रहता था और न ही मेरे मित्रों को यह जानकारी थी कि बुनियाद अली नामका व्यक्ति कौन था. हम इस पर चर्चा करते और अनुमान लगाने का प्रयत्न करते परन्तु अनुमान कोहली जी के आसपास भी नहीं फटक पाता था. लेकिन दिल्ली के साहित्यकार जान चुके थे और उस स्तंभ ने कितने ही लोगों को कोहली जी का शत्रु बना दिया था. उस स्तंभ में वह जो लिख रहे थे वह कड़वा सच था लेकिन हिन्दी साहित्य में कड़वाहट पैदा करने वाले देश के भ्रष्ट राजनेताओं की भांति अपनी चमक पर दाग दिखाया जाना बर्दाश्त नहीं कर सकते. परिणामतः कोहली जी के उत्कृष्ट अवदान की ओर सबने ठंडी नजरों से देखा या आंखें मूंद लीं और उनके समकालीनों ने, जो दसियों वर्ष पहले लेखन से मुख मोड़ चुके थे, नाक-भौं भी सिकोड़ी लेकिन उन्होंने उस सबकी परवाह नहीं करते हुए निरंतर लिखा और जीवन के अंतिम दिनों तक लिखते रहे.

द्रोणवीर जी का जन्म पाकिस्तान में १९ जनवरी, १९३२ को हुआ था. उन्हें अपनी सही जन्म तिथि ज्ञात नहीं थी. वह प्रायः कहते कि वह १९३२-३३ में कभी जन्मे थे, लेकिन सरकारी नौकरी में थे तो वहां कोई निश्चित जन्म तिथि दर्ज होनी ही थी. उनके एक मित्र ने मृत्यु की सूचना देते हुए कहा था, “१९ जनवरी को वह अस्सी वर्ष के हुए थे.” अर्थात यही तिथि सरकारी रिकार्ड में दर्ज थी. वह केन्द्र सरकार के ’सूचना एवं प्रसारण’ विभाग में थे. इसका विशद उल्लेख उन्होंने अपने उपन्यास ’ध्रुव सत्य’ में किया है. छः सौ पृष्ठों से अधिक का यह उपन्यास एक प्रकार से उनका आत्मकथात्मक उपन्यास है. किस्सागोई शैली और आकर्षक भाषा में इस उपन्यास की गतिशीलता इसे एक उल्लेखनीय उपन्यास बनाती है. इसके विषय में जब मैंने उनसे चर्चा की कि इसके नायक के रूप में मुझे वह स्वयं दिखाई देते रहे तब हंसकर उन्होंने कहा था, “सारा भोगा हुआ यथार्थ है”, लेकिन इसे आत्मकथा मत समझ लेना ---है यह उपन्यास ही. उनके सभी उपन्यासों में किस्सागोई शैली परिलक्षित है.

उनके उपन्यास ’वाह कैंप’ में उनका स्वयं के भोगे यथार्थ के साथ देखा यथार्थ भी अभिव्यक्त हुआ है. उनका यह उपन्यास विभाजन पर यशपाल के ’जूठा सच’ के बाद दूसरा उत्कृष्ट उपन्यास है. कुछ लोग भीष्म साहनी के ’तमस’ को दूसरे क्रम में रख सकते हैं---लेकिन ऎसा वे ही करेंगे जिन्होंने ’वाह कैंप’ नहीं पढ़ा होगा. विभाजन की त्रासदी को व्यक्तिगत रूप से न यशपाल ने भोगा था और न ही भीष्म जी ने, जबकि ’वाह कैंप’ के लेखक ने उसे स्वयं भोगा और निकट से देखा था. उनके अनुसार वह स्वयं ’वाह कैंप’ में रहे थे. यद्यपि किसी रचना की उत्कृष्टता की कसौटी किसी त्रासदी को स्वयं भोगकर लिखे जाने में निहित नहीं है---पढ़-सुनकर अंतर्मथंन कर रचनाकार उसे उत्कृष्टता प्रदान करता है. चीजों को वह जितना ही आत्मसात करता है रचना उतनी ही उत्कृष्ट होती है. ’झूठा सच’ इसका प्रमाण है. तथापि यदि भोगे यथार्थ को कोई रचनाकार लंबे समय के अंतर्मथंन के बाद लिखता है और डूबकर लिखता है तब वह ’वाह कैंप’ जैसी उल्लेखनीय कृति को जन्म देता है.

कोहली जी कुछ भी लिखने से पहले चीजों का गहनता से अध्ययन करते थे---लंबे समय तक उसपर अतंर्मथंन करते और जब लिखते तब पूरे धैर्य का परिचय देते. पहले वह सीधे टाइपराइटर पर लिखते थे लेकिन जब कंप्यूटर का ज्ञान प्राप्त कर लिया तब उसपर लिखने लगे थे और कहते थे, “आप भी कंप्यूटर पर लिखा करो, क्योंकि उसमें संशोधन आसान होता है.” वह उपन्यास पर कई-कई बार कार्य करते और जब संतुष्ट हो लेते तभी उसे प्रकाशक को सौंपते. अपने लिखे के प्रति वह इतना आस्थावान थे कि किसी का तर्कहीन संशोधन उन्हें स्वीकार नहीं होता था. ऎसा न करके उन्होंने एक प्रकाशक के असाहित्यिक सलाहकार की नाराजगी मोल ले ली थी और परिणामतः वहां से अपने अगले उपन्यास की वापसी की पीड़ा भी सही थी. लेकिन अपनी इसी नीति के लिए अपने प्रकाश्य उपन्यास पर राजपाल एंड संस के विश्वनाथ जी की प्रशंसा भी पायी थी.

कोहली जी लंबे, मेरे अनुमान से पांच फीट ग्यारह इंच के लगभग---बिल्कुल स्लिम-ट्रिम—पूर्ण स्वस्थ व्यक्ति थे. पहली मुलाकात से अंतिम तक उनके चेहरे पर दाढ़ी देखी. उन्होंने आकाशवाणी से समाचार सम्पादक के पद से बावन वर्ष की आयु में स्वैच्छिक सेवावकाश ग्रहण किया था. सामान्य से सम्पन्नता तक की उनकी यात्रा अनेक कठिन मार्गों से होकर गुजरी थी. उन्होंने ग्रेटर कैलाश के मकान से लेकर गुड़गांव में पांच सौ गज में मकान बनाने की दास्तान सुनाते हुए भाभी जी की ओर इशारा कर कहा था, “ सब इनके कारण संभव हुआ…वर्ना मैं तो क्लर्क था.” जबकि भाभी जी भी सामान्य स्कूल अध्यापिका ही थीं. दरअसल वह जीवन और साहित्य में संतुलन और बेहतर प्रबंधन का परिणाम था. “जीवन भी एक प्रबंधन है.” वह कहा करते.

गुड़गांव के मकान में पहुंचने के बाद उनकी लेखनी की गति बढ़ गयी थी और वह एक के बाद दूसरा उपन्यास हिन्दी जगत को देने लगे थे. जब अपना मौलिक कुछ न लिख रहे होते तब अनुवाद करते. उन्होंने ज़ोला के एक उपन्यास का अनुवाद किया और पिछले दिनों भी एक अनुवाद उन्होंने पूरा किया था. मुझे कहते, “स्वैच्छिक सेवाकाश इसलिए नहीं लिया कि खाली समय नष्ट करें---आपने भी काम करने के लिए स्वैच्छिक सेवाकाश लिया और मैंने भी---कुछ रचनात्मक नहीं कर रहे तो मनपसंद पुस्तक का अनुवाद ही करो---कुछ करो---कभी अपने को खाली मत रहने दो. अनुवाद भी रचनात्मक कार्य ही होता है. उससे हम बहुत कुछ सीखते हैं.”

उनकी सीख का ही परिणाम कहूंगा कि स्वैच्छिक सेवाकाश लेने के बाद मैंने जो पहला काम किया वह महान रूसी लेखक लियो तोलस्तोय के अंतिम उपन्यास ’हाज़ी मुराद’ के अनुवाद का था. उसके बाद मैंने कितना ही काम किया. जब भी फोन पर बात होती वह यह अवश्य पूछते, “क्या लिख रहे हो---लिखते हुए मैंने डिस्टर्ब तो नहीं किया” ---और यदि मैंने यह कहा कि इन दिनों कुछ नहीं कर रहा तो वह समझाते, “भई, हमें लिखने के अलावा जब कुछ आता ही नहीं तब वह मत रोको---कुछ करते रहो. हम राजनीति कर नहीं सकते---चाटुकारिता स्वभाव में नहीं---कि एक उपन्यास कालजयी बना दिया जाये या दो-चार कहानियों के बल पर दुनिया में चर्चा होने लगे.”

उन्होंने जमकर काम किया. ”मुल्क अवाणों का’, ’हवेलियों वाले’, ’चौखट’ , ’तकसीम’, ’नानी’ और हाल में नया ज्ञानोदय में प्रकाशित उनका उपन्यास जिसमें अमेरिका में बस गए एक परिवार की वास्तविकता रेखांकित की गई थी. राजपाल एण्ड संस से प्रकाश्य उपन्यास के बाद वह एक और उपन्यास पर कार्य कर रहे थे. वह बहुआयामी प्रतिभा के धनी साहित्यकार थे. बाल-साहित्य, कहानी, उपन्यास, रिपोर्ताज, साक्षात्कार, यात्रा संस्मरण आदि अनेक विधाओं में उन्होंने कार्य किया. सूचना एवं प्रसारण सेवा में कार्यरत रहते हुए वह भारत सरकार के प्रकाशन विभाग की पत्रिका ’बाल भारती’ के सम्पादक रहे थे. ’ध्रुव सत्य’ में ’बाल भारती’ के प्रारंभिक दौर का अच्छा चित्रण उन्होंने किया है. वह ’सैनिक समाचार’ के सम्पादक भी रहे और आकाशवाणी नई दिल्ली में समाचार सम्पादक पद को भी सुशोभित किया. उन्होंने केवल लेखन के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के कारण स्वैच्छिक सेवावकाश लिया था. दरअसल नौकरी सरकारी हो या निजी संस्थान की, एक खुद्दार लेखक उसे कभी अपने अनुकूल नहीं पाता. कुछ विवशता में करते हैं. यह विवशता आर्थिक होती है. लेकिन कुछ ऎसे भी लेखक हैं जो सरकारी नौकरी को उत्सवजनित ढंग से आजीवन करते हैं. वे सत्ता या व्यवस्था से ताल-मेल ही नहीं बैठा लेते बल्कि उसका हिस्सा बनकर सुख-सुविधा और सम्पन्नता हासिल करते रहते हैं. पद को साहित्य में अपनी पहुंच के लिए इस्तेमाल करते हैं और सफल लेखक होने की मानसिक संतुष्टि पाते हैं. कोहली जी भी साधारण पद पर नहीं थे. अवकाश ग्रहण न करते तो और बड़े पद पर पहुंचते, लेकिन उन जैसे लेखक सत्ता और व्यवस्था का हिस्सा बनने से इंकार करते हैं जहां चंद सुविधाओं के लिए अपने ज़मीर को मारना होता है.

स्वैच्छिक सेवावकाश लेने के बाद उन्होंने वह लिखा जो वह लिखना चाहते थे और बीच के कुछ समय के व्यवधान को छोड़कर (जब वह बेटी और अपना मकान गुड़गांव में बनवा रहे थे) वह निरतंर सक्रिय रहे. उनकी बेटी-दामाद अमेरिका में डॉक्टर हैं अतः वर्ष में एक बार डेढ़-दो महीने के लिए वहां अवश्य जाते रहे, लेकिन उसके अतिरिक्त भी उन्होंने योरोप के अनेक देशों की यात्राएं की थीं. दुबई आदि की यात्राएं भी उन्होंने कीं. अर्थात वह एक भ्रमणशील रचनाकार थे.

वह जितने अच्छे लेखक थे वक्ता उतने अच्छे नहीं थे. उम्र के अंतिम पड़ाव तक मंच पर जाकर बोलने में उन्हें संकोच होता था. जब भी कहीं बुलाए गए, बोले अवश्य और जब उस प्रकरण की चर्चा की तब हंसकर बताया , “भई, मुझे बहुत साहस जुटाना पड़ा था बोलने के लिए.” उनकी दूसरी कमी थी कि वह अपनी प्रकाशित पुस्तक मित्रों को देने में संकोच करते थे. पूछने पर कहा, “कोई मित्र पढ़ने का अनावश्यक दबाव न माने---इसलिए.” प्रायः स्वयं कभी किसी पत्रिका को पुस्तक समीक्षार्थ नहीं भेजते थे. प्रकाशक को पत्र-पत्रिकाओं की सूची दे देते थे. उनकी इस उदासीनता का परिणाम होता कि उनकी पुस्तकों की एक-दो से अधिक समीक्षाएं प्रकाशित नहीं होती थीं. पिछले दिनों उन्होंने एक अलोचक का उल्लेख बहुत दुखी भाव से किया. किसी मित्र के सुझाव और दबाव देने पर उन्होंने ’ध्रुवसत्य’ की एक प्रति आलोचक महोदय को भेज दी. आलोचक जी एक समीक्षा पत्रिका से संबद्ध थे. कुछ दिनों बाद फोन किया तो आलोचक जी बोले, “मैं किसी लेखक की भेजी पुस्तक कभी नहीं पढ़ता.” निश्चित ही कोहली जी उनके उत्तर से आहत हुए थे, जबकि वास्तविकता यह है कि विश्वविद्यालय के कुछ साहित्यकारनुमा प्राध्यापकों और छुटभैया लेखकों की पुस्तकों को आलोचक जी कंधे पर लादते रहे, पढ़ते और लिखते रहे हैं.

कोहली जी नफासत पसंद खांटी पंजाबी थे. जिसप्रकार तनकर चलते उसीप्रकार तनकर रहते और लिखते थे. लोगों को उनका यह ढंग पसंद नहीं था---खासकर उनके समकालीनों को. कॉफी हाउस आते, लेकिन निन्दापुराण का हिस्सा नहीं बनते थे. लोग इसे उनका आभिजात्य- अहंकार मानते थे. लेकिन हकीकत यह थी कि उनके समकालीन ही नहीं उनके बाद की पीढ़ी भी उनकी लेखकीय सक्रियता से आतंकित थी और इसे हिन्दी साहित्य का दुर्भाग्य ही माना जाएगा कि प्रायः सक्रिय रचनाकारों के प्रति साहित्यकार-आलोचक चुप्पी साध लेते हैं—एक षडयंत्र के तहत. यह क्षुद्र राजनीति है. जगदीश चन्द्र भी इस क्षुद्र राजनीति का शिकार रहे और द्रोणवीर कोहली भी. यह संयोग ही कहा जाएगा कि दोनों ही एक ही विभाग से थे. लेकिन उन्होंने अपनी रचनाओं में समय के जिस सच को अभिव्यक्ति प्रदान की है वह अमिट है---समय स्वयं उनका मूल्याकंन करेगा.

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आलेख




द्रोणवीर कोहली: परम संकोची, परम संतोषी

डॉ. वीरेन्द्र सक्सेना

१९ जनवरी, १९३२ को जन्मे द्रोणवीर कोहली अपनी आयु की अमृत जयंती और अपने लेखन की स्वर्ण जयंती भी मना चुके हैं, लेकिन वे ’सेलिब्रिटि’ नहीं बन पाए, इसीलिए कभी चर्चा के केन्द्र में भी नहीं रहे! अतः अब इस बात का श्रेय ’संचेतना’ के संपादक डॉ. महीप सिंह को ही देना होगा कि उन्होंने कुछ महीने पहले ’संवाद’ की गोष्ठी में द्रोणवीर कोहली द्वारा कहानी-पाठ कराया और अब ’संध्या-छाया’ के अंतर्गत संचेतना के माध्यम से उन्हें चर्चा के केन्द्र में न सही, पर चर्चा की परिधि में लाने का प्रयास तो किया ही है.

इसमें कोई शक नहीं कि जो लोग किसी भी क्षेत्र में, किसी भी कारण से (कभी-कभी विवादास्पद हो जाने पर भी) ’सेलिब्रिटी’ बन जाते हैं, वे स्वतः चर्चा के केन्द्र में आ जाते हैं. इसीलिए, साहित्य के क्षेत्र में भी, जो साहित्यकार कोई बड़ा पुरस्कार मिल जाने के कारण, किसी नए आंदोलन का सूत्रपात करने के कारण, कोई बड़ा पद पा जाने के कारण या किसी बड़ी पत्रिका का संपादक बन जाने के कारण ’सेलिब्रिटी’ बनते गए, वे चर्चा के केन्द्र में भी आते गए. इस तरह चर्चा के केन्द्र में आते ही उनके साहित्य का तटस्थ मूल्यांकन भले न हो पाया हो, पर वे ’सुप्रतिष्ठित साहित्यकार’ मान लिए गए और उन्हें कई बड़े पुरस्कार भी प्राप्त होते गए.
इस संबन्ध में जहां तक द्रोणवीर कोहली का सवाल है, वे अब तक ’सुप्रतिष्ठित’ तो क्या, एक ’प्रतिष्ठित’ साहित्यकार तक नहीं बन पाए, यद्यपि मेरी दृष्टि में उनके साहित्य में वे सभी गुण मौजूद हैं, जो श्रेष्ठ और सार्थक साहित्य में होने चाहिए और जिनके कारण उन्हें एक ’प्रतिष्ठित साहित्यकार’ भी मान लिया जाना चाहिए था. उदाहरण के लिए मैं यहां उनके उपन्यास ’वाह कैंप’ का जिक्र करना चाहूंगा, जिसमें भारत-विभाजन की पूरी त्रासदी को बड़े ही सशक्त ढंग से चित्रित किया गया है, अतः विभाजन से संबन्धित उपन्यासों की श्रंखला में ’वाह कैंप’ को भी उचित स्थान दिया जाना चाहिए था. इसी तरह अमेरिका में रहने वाले भारतीय मूल के परिवारों की विडंबनाओं और विषमताओं को बड़े ही रोचक और व्यंग्यात्मक तरीके से उनके उपन्यास ’नानी’ में चित्रित किया गया है, किंतु किसी भी समीक्षा या चर्चा में ’नानी’ का भी यथोचित मूल्यांकन नहीं हो पाया, परिणामतः यह उपन्यास भी अपने ’प्राप्य’ से वंचित रह गया.

द्रोणवीर कोहली ने आरंभ में ’हवेलियों वाले’, ’आंगन कोठा’ और ’काया स्पर्श’ शीर्षकों से विभाजन-पूर्व भारत के पश्चिमी पंजाब की पृष्ठभूमि और परिवेश पर तीन उपन्यास लिखे थे. उसमें उन्होंने वहां की कुछेक स्थानीय बोलियों और मुहावरों आदि का भी प्रयोग किया था, लेकिन उन उपन्यासों पर भी कहीं भी वैसी चर्चा या समीक्षा नहीं हुई, जैसी कि अपेक्षित थी. इसी तरह सात्र और सिमोन दि बुआ के पारस्परिक संबन्धों पर आधारित उपन्यास ’चौखट’ का भी उल्लेख किया जा सकता है, जो अगर कोई ’सेलिब्रिटी’ लिखता तो अवश्य ही चर्चा के केन्द्र में रहता, पर चूंकि कोहली ने लिखा, इसलिए ’सेलिब्रिटीज’ पर लिखा होने के बावजूद ’अनसेलिब्रिटीड’ ही रह गया.

यहीं प्रश्न उठ सकता है कि आखिर द्रोणवीर कोहली की कृतियों के साथ ऎसा क्यों हुआ कि उनका उचित मूल्यांकन नहीं हो पाया और वे अपने प्राप्य से वंचित रहीं? लेकिन इस प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए मुझे कोहली के व्यक्तित्व की भी छानबीन करनी होगी, (जो मैं आगे करूंगा) इसलिए पहले उनके कृतित्व की शेष छानबीन पूरी कर ली जाए.

अस्तु, कृतित्व की छानबीन करते हुए यह बताना भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि कोहली ने भारत-विभाजन की त्रासदी पर ’वाह कैंप’ से पहले भी एक उपन्यास लिखा था, जिसका शीर्षक था – ’तकसीम’. और अब वे जो अपना नया उपन्यास ’ध्रुवसत्य’ लिख रहे हैं, वह भी भारत-विभाजन और उसके बाद की स्थितियों के संदर्भ में एक युवक की संघर्ष कथा पर आधारित है. इस तरह यह भी माना जा सकता है कि उन्होंने स्वयं भी अपने जीवन में विभाजन की त्रासदी और उसके बाद जो संघर्ष किया है, वह भी कहीं प्रत्यक्ष और कहीं परोक्ष रूप से उन उपन्यासों में चित्रित है. अतः ये तीनों उपन्यास, जीवनी परक उपन्यासों के रूप में भी व्याख्यायित या विश्लेषित किए जा सकते हैं.

उपन्यासों के अलावा द्रोणवीर कोहली ने अब तक लगभग २० कहानियां भी लिखी हैं, जो यथा समय विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं और बाद में ’बारह बरस बीते’ तथा ’जमा-पूंजी’ शीर्षकों के कहानी-संग्रहों में भी संकलित हुईं. इसके अलावा उन्होंने बच्चों के लिए भी कई पुस्तकें लिखीं’ जिनमें ’मोर के पैर’, ’करामी कद्दू’, ’जंगली मंगली’ तथा ’टप्पर गाड़ी’ (किशोरों के लिए) का विशेष उल्लेख किया जा सकता है.

कोहली भारत-विभाजन की त्रासदी को झेलते हुए जब सन १०४९ में पाकिस्तान से भारत आए, तब केवल दसवीं कक्षा तक शिक्षित थे, अतः उन्हें अपने जीवन यापन की शुरूआत एक मामूली क्लर्क की नौकरी से करनी पड़ी. लेकिन उसी नौकरी में रहते हुए उन्होंने एम.ए. तक अपनी शिक्षा पूरी की और बाद में ’भारतीय सूचना सेवा’ में भी चुन लिए गए. इस सेवा में आने के बाद वे आकाशवाणी में तो रहे ही, ’बाल भारती, ’आजकल’ तथा ’सैनिक समाचार’ जैसी प्रमुख पत्रिकाओं के संपादक भी रहे.

जहां तक मुझे स्मरण है सन १९७० के दशक में जब दिल्ली में रहने वाले सभी लेखक, पत्रकार और संपादक शाम को कनॉट प्लेस स्थित ’कॉफी हाउस’ में मिला करते थे, तब द्रोणवीर कोहली भी वहां आया करते थे और मेरा उनसे पहला परिचय वहीं हुआ था. उन्हीं दिनों वे ’आजकल’ पत्रिका के संपादक भी नियुक्त हो गए थे और ’बुनियाद अली’ के छद्मनाम से ’धर्मयुग’ में एक ’कॉलम’ भी लिखा करते थे. इस ’कॉलम’ के कारण कुछ लोग उनसे डरने भी लगे थे कि कहीं वे उनके बारे में कुछ उलटा-पुलटा न लिख दें, पर मेरी नजर में वे एक सीधे-सरल व्यक्ति थे, अतः डरने की कोई बात नहीं थी.

इस सीधे-सरल व्यक्तित्व के कारण ही, वे ’कॉफी हाउस’ में आने वाले लेखकों तथा अन्य लोगों से आत्मीय व्यवहार करते थे और उनके सुख-दुख में उनके सहभागी भी बनते थे. तब उन्हीं दिनों, जब मैं ’काम-संबंधों में यथार्थ और समकालीन हिन्दी कहानी’ पर शोधकार्य के दौरान ’सारिका’, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, तथा ’संचेतना’ जैसी प्रमुख पत्रिकाओं में समीक्षाएं लिखने लगा था, कोहली ने ’आजकल’ के लिए भी कई पुस्तकों की समीक्षाएं मुझसे लिखवाईं. अनंतर ’आजकल’ के बाद जब वे ’सैनिक समाचार’ के संपादक बने, तो उसके लिए भी वे नियमित रूप से मुझसे अनेक पुस्तकों की समीक्षाएं लिखवाते रहे. इसी क्रम में, जब मैं १९७८ में बंबई चला गया और वहां ’माधुरी’ के लिए सिनेमा संबन्धित लेखादि लिखने लगा, तो उन्होंने ’सैनिक समाचार’ के लिए भी सिनेमा संबंधी कई लेख मुझसे लिखवाए और उहें ’सैनिक समाचार’ में अभिनेता-अभिनेत्रियों के चित्रों के साथ प्रकाशित किया. बंबई-प्रवास के दौरान, उन्होंने अपने एक संबन्धी भीमसेन से भी मुझे परिचित कराया, जिन्होंने ’घरौंदा’ और ’दूरियां’ जैसी श्रेष्ठ फिल्में निर्देशित की थीं.

उक्त सारे विववरण से यह तथ्य स्वतः स्पष्ट है कि ’बाल भारती’, ’आजकल’ और ’सैनिक समाचार’ जैसी प्रमुख सरकारी पत्रिकाओं के संपादक रहते हुए भी द्रोणवीर कोहली ने कभी अपने हित में उनका उपयोग नहीं किया, बल्कि हमेशा पत्रिकाओं के हित में ही सोचा और उनमें ज्यादा विविधता लाने की कोशिश की. उदाहरण के लिए ’सैनिक समाचार’ जो मात्र सैनिकों के समाचार प्रकाशित करने वाली बुलेटिन थी, कोहली के संपादन-काल में समकालीन साहित्य और समकालीन सिनेमा से संबन्धित समीक्षाओं, परिचर्चाओं और लेखों आदि के समावेश से सैनिकों के बीच तो लोकप्रिय हुई ही, अन्य पाठकों द्वारा भी सराही जाने लगी.

अब मैं उस प्रश्न पर आता हूं कि द्रोणवीर कोहली की विविध प्रकार की श्रेष्ठ कृतियों का उचित मूल्यांकन क्यों नहीं हो पाया और उसके परिणाम स्वरूप ही स्वयं द्रोणवीर कोहली अब तक अपने ’प्राप्य’ से वंचित रहे. इस प्रश्न का पहला उत्तर तो यही है कि कोहली ने अनेक प्रमुख पदों पर रहते हुए भी अपने हित में उनका उपयोग कभी नहीं किया. दूसरा उत्तर यह है कि कोहली स्वभाव से बड़े संकोची व्यक्ति हैं और अपने मित्रों से भी अपनी कृतियों का जिक्र नहीं करते. नतीजा यह होता है कि जब भी कोई नयी पुस्तक छपती है, उसकी जानकारी काफी देर से मित्रों तक पहुंच पाती है, और वे उससे प्रभावित होने पर भी उसके प्रभाव को अन्य लेखकों, समीक्षकों या पाठकों तक नहीं पहुंचा पाते. इसी जानकारी के अभाव में न तो उनकी किसी प्रकाशित कृति पर अभी तक कोई विचार-गोष्ठी आयोजित हुई है, न ही उनका ५०वां, ६०वां, ७०वां, या ७५वां जन्मदिन किसी प्रकाशक या साहित्यिक संस्था ने मनाया है. और यही हाल रहा, यानी द्रोणवीर कोहली यों ही परम संकोची और परम संतोषी बने रहे, तो उनका शेष जीवन भी यों ही गुजर जाएगा.

अतः इस लेख के माध्यम से मैं सीधे-सरल और परम संकोची स्वभाव के द्रोणवीर कोहली से यह अवश्य कहना चाहूंगा कि वे अपनी हर नयी कृति की सूचना अपने मित्रों को अवश्य दिया करें और यदि संभव हो सके, तो उस कृति की आवश्यक प्रतियां प्रकाशक से प्राप्त करके मित्रों को भेंट स्वरुप दिया करें. इससे इतना तो अवश्य होगा कि मित्र-गण अपनी प्रतिक्रिया से उन्हें अवगत करा देंगे और यदि संभव हुआ तो किसी पत्र-पत्रिका में लिखित समीक्षा के रूप में, अपने विचार भी व्यक्त कर देंगे. इससे किसी न किसी रूप में पुस्तक के बारे में आवश्यक जानकारी आम पाठकों तक भी पहुंचेगी और द्रोणवीर कोहली ’सेलिब्रिटी’ या ’सुप्रतिष्ठित साहित्यकार’ भी बन सकेंगे और मैं समझता हूं, हर लेखक इतना तो चाहता ही है और यह चाहना अनुचित या अनैतिक भी नहीं है कि वह अधिकाधिक पाठकों तक पहुंच सके और अपनी कृतियों के माध्यम से संप्रेषित होकर अधिकाधिक पाठकों के बीच ’सुपरिचित’ बन सके और ’सुप्रतिष्ठित’ हो सके.

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कहानी



चिट्टी दाढ़ी

द्रोणवीर कोहली

(इसरचना में आंचलिक बोली ‘अवाणकारी’ अथवा ‘अवाणकी’ का प्रयोग हुआ है, जो सिन्धु नदी के पश्चिमी तट के विशाल क्षेत्र में बोली जाती है. यह वह इलाक़ा है जहां अष्टाध्यायी-प्रणेता पाणिनि का जन्मस्थान शलातुर होने की बात कही जाती है. ‘अवाणकी’ में तत्सम-तद्भव शब्दों के साथ-साथ पालि के शब्दों का प्रचुर प्रयोग होता है.)

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थोहा मार्हम खां का मौसम भी कमाल का मौसम था.

जेठ-आषाढ़ में जब मैदानी इलाक़े तप रहे होते, तो थोहे का मौसम बड़ा खुशगवार होता. दोपहर की बेला में, घंटे-दो घंटे थोड़ी तपिश ज़रूर हो जाती थी, उसके प्श्चात दिन धीरे-धीरे ठंडा पड़ने लगता था- इतना ठंडा कि रात को खुले में कपड़ा ओढ़ कर सोने की ज़रूरत पड़ती थी.

गणपत अमूमन खुली छत पर खाट डालता था. लंबे-चैड़े आंगन में रसोईघर के आगे खुले चैके के साथ लकड़ियों वाला पुराना कोठा था, जिस में से निकलकर पिछवाड़े वाली हवेली में आते-जाते थे. यह कोठा इतना झिक्का (नीचा) था कि गण्पत चैके को सीमांकित करने वाली कधौली (कंधे जितनी ऊंची दीवार) पर पैर रखकर छत पर चढ़ जाता था.

रामरक्खी आंगन में सुफ़े (हाल कमरा) की दीवार के साथ खाट बिछाती थी और कस्तूरी उस के साथ सोता था. इसी दीवार पर गाय का ढंगा (लौना) लटकता रहता था, जिससे एक दिन गणपत ने रामरक्खी को चमड़ी उधेड़ कर रख दी थी.

उस रात रामरक्खी अपनी खाट पर सो रही थी. किसी वक्त परे कोने में खूंटे से बॅंधी गाय की गलघंटी से रामरक्खी की नींद उचट गई. काली अंधेरी रात थी.खाट से पैर लटकाए थोड़ी देर देखती रही. फिर उठी और ‘छोटी’ ((लघशंका) के लिए वहां जा बैठी जहां कभी सतभिराई बलण (ईंधन) सॅंजो कर रखती थी. रामरक्खी बैठी ही थी कि लकड़ियों वाले कोठे में किसी के पैरों की आहट सुनकर चैंकी. उसे लगा जैसे कोई दबे पांव चलकर आ रहा है. पिछली हवेली में दरवेश पावली (जुलाहा) की गिरस्ती थी. अमूमन दरवेश और उस की त्रियमत (मेहरारू) आलमां ही इस कोठे के रास्ते आते-जाते थे. मगर काली रात में डरावने कोठे को लांघ कर इस वक्त कौन आ रहा है?

‘‘कोर एक?’’ रामरक्खी एकदम त्रस्त होकर खड़ी हो गई.
उसके बाद जो हुआ, वह एकदम अविश्वसनीय एवं अप्रत्याशित था. रामरक्खी खड़ी देखती रह गई. गणपत लकड़ियों वाले कोठे के झिक्के दरवाज़े से निकलकर आ रहा था.
‘‘कोर एक?’’ रामरक्खी ने एक बार फिर भयभीत स्वर में पूछा.
‘‘भिराजीवी’, मैं!’’ गणपत ठिठका और कमर सीधी कर के हौले से इस तरह बोला जैसे कोई अपराध करके आया हो.
‘‘मैं, कोर?’’
हैरान रामरक्खी जल्दी-जल्दी चलकर आई और अंधेरे में खड़े पति को हैरत से देखते हुए बोली इस वक्त वह लकड़ियों वाले कोठे में क्या कर रहा है--‘‘इत्थे के प्या करेनां?’’
गणपत के हाथों में चारखाना खेस था, जिसे ओढ़ कर वह छत पर सोया था. दिखा कर बोला, ‘‘खेस हवा से उड़कर नीचे दरवेश की हवेली में जा गिरा था.’’

छह बरस का कस्तूरी भी जाग गया था और बैठा-बैठा नितंब खुजला रहा था. अचानक नींद खुल जाने से चिढ़ा हुआ था. रोनी शक्ल बनाकर लगा दादा को पुकारने, ‘लाऽऽला जी!’

गणपत चकित रामरक्खी को वहीं छोड़ जल्दी-जल्दी चलकर आया और कस्तूरी की खाट के निकट खड़ा होकर बोला, ‘जाग क्यों गया? रात अभी बाक़ी है. सो जा!’

रामरक्खी शंकित-सी खड़ी देखती रही. आधी रात थी. इस वेला लकड़ियों वाले कोठे में से गुज़र कर जाना बड़ी जान-जोखों का काम था. पता नहीं किस ज़माने की लकड़ियां इस कोठे में चुनी रखी थीं. शायद ही कभी किसी ने निकाली हों. कहते थे, गणपत के लकड़दादा तक भी यह बताने की स्थिति में नहीं थे कि किन वक्तों की लकड़ी इस कोठे में जुड़ी पड़ी थी. इन्हीं लकड़ियों में अक्सर ये लोग ज़मीन में ‘टोहा’ (गड्ढा) खोद कर नकदी और गहने वगै़रह का डोला गाढ़ देते थे. पता नहीं, कैसी-कैसी बलाएं लकड़ियों में कुरबुल-कुरबुल करती रहती थीं. दिन में भी वहां अंधेरा रहता था और गुज़रते हुए डर लगता था. क्या पता कब पैरों के नीचे कोई सम्म-वठूआं (सांप-बिच्छू) आ जाए! और गणपत इसी डरावने कोठे में से निकलकर रात इस वेला आया था!

उस दिन बात आई-गई हो गई. मगर इस की एक-दो बार पुनरावृत्ति हुई, तो रामरक्खी का माथा ठनका. गणपत ने पिछवाड़े वाली उजाड़ हवेली में दरवेश को बैठा रखा था. दरवेश बीसेक बरस का नौजवान था और उस की त्रियमत आलमां तेईस-चैबीस बरस की औरत थी. पांच-छह बच्चों की मां बन चुकी थी. मगर बछेरी की तरह चुस्त-दुरुस्त और चुलबुली. हवेली में आने से पहले दरवेश दंदी के सिरे पर जुलाहों-तेलियों के टोले में बाप के साथ रहता था. मगर जब दरवेश का बाप दूसरी औरत उधाल (भगा) लाया, तो दरवेश-आलमां का दाना-पानी उस घर से उठ गया. अगले दिन ही सौतेली ने दरवेश-आलमां को दरवाजा़ दिखा दिया था और वे रिरियाते बच्चों के साथ रड़े (खुले) मैदान में पड़े थे. उन्हें इस हालत में देखकर गणपत कोहल के मन में दया उपजी और वह उन्हें अपने साथ ले आया और अपनी पिछली हवेली खोल दी. दरवेश अच्छा जुलाहा था- बहुत बढ़िया खेस बुनता था. गणपत ने सोचा कि एक तो सारी हवेली की रखवाली करेगा, फिर खड्डी पर घर के लिए कपड़ा-वपड़ा बुन दिया करेगा. फिर दरवेश था भी बड़ा सेवाभावी युवक. सांझ होते ही गणपत के पास जा बैठता और उस की टांगें-बांहें दबाते हुए अग-जग के किस्से सुनाता. दबा-दबा कर हल्का-फुल्का कर देता. दरवेश पावली के आगमन से गणपत चिद्दू नाई को भूल गया. दरवेश की औरत आलमां भी बड़ी हलीम, नेकबख्त और खुशफ़हम औरत थी. अकसर रामरक्खी का हाथ बॅंटाने आ जाती. जुलाहा इन्हें चाचा-चाची कह कर संबोधित करते. दोनों इतने कृतज्ञ कि गणपत-रामक्खी एक आवाज़ देते, तो दौड़े आते, ‘चाचा, हुकुम!’ दरवेश हाथ बांधे खड़ा हो जाता. वास्तव में रामरक्खी गणपत को दरवेश-आलमां में बेटा-बेटी मिल गए थे.

मगर आज उसी आलमां को लेकर रामरक्खी के मन में संशय उत्पन्न हुआ था.

कुछ दिन बाद आधी रात को छत पर धमक-सी सुनाई पड़ी, तो रामरक्खी उठकर बैठ गई. चांद की मद्धम रोशनी फैली थी. कान खड़े करके आहट लेती रही. फिर अचानक मन में क्या समाई कि पड़सांग कोठे के साथ लगा कर छत पर जा चढ़ी.

गणपत की खाट खाली पड़ी थी.

रामरक्खी हैरान-सी खड़ी एकालाप कर उठी, ‘‘चिट्टी दाढ़ी, और ये कसब!’

नीचे दरवेश की हवेली में से किसी बालक के रोने की आवाज़ आ रही थी. रामरक्खी जल्दी-जल्दी चलकर घड़े जितने ऊंचे मुंडेर तक आई. नीचे झांककर देखा, तो दीवार के साथ पड़सांग लगा था और उसार के नीचे गणपत और दरवेश तथा आलमां बातें कर रहे थे.

रामरक्खी का संदेह पक्का हो गया. मन किया कि मुंडेर पर खड़ी होकर चिल्लाए और खाविंद को शरमिंदा करे. मगर यह सोच कर चुप लगा गई कि आधी रात को सारा ‘शहर’ सुनेगा. बात निकल गई, तो मंदा होगा. इसलिए चुपचाप लौटी और आकर गणपत की खाट पर बैठ गई.

थेड़ी ही देर बाद पड़सांग पर किसी के चढ़कर आने की आहट सुनाई पड़ी. गणपत दमे का मरीज़ था. पड़सांग पर चढ़ते-चढ़ते उस की फूली हुई सांस को रामरक्खी खाट पर बैठी सुन सकती थी. भीतर ही भीतर डर रही थी. तभी चांदनी में गणपत का नंगा सिर नमूदार हुआ. इसके साथ ही गणपत ने भी पत्नी को ऊपर खाट पर बैठे देखा. पड़सांग के दोनों सिरों पर हाथ टिकाए वह ठगा-सा खड़ा देख रहा था. फिर एकदम थूकते हुए वहीं से बोला, ‘‘इत्थे बैठी के पइ करेनी-एं?’’

रामरक्खी को लगा जैसे उसका पति नहीं, कोई गोह या नेवला गर्दन उठाए देख रहा था.

‘‘मैं पुछ्या इत्थे क्यों बैठी-एं?’’ गणपत ने एक सीढ़ी ऊपर चढ़कर कहा.

रामरक्खी भरी-पीती बैठी थी. उसे और कुछ नहीं सूझा, तो लगी पति की भर्सना करने, ‘‘शरुम कर. चिट्टी दाढ़ी होई तैंडी. शरुम कर...’’

गणपत जैसे फुदककर छत पर आ गया. सांस बुरी तरह फूल रही थी. एकदम आपे से बाहर होकर बोला, ‘‘कुत्तिए रन्ने (कुतिया औरत) के पेइ अखेनी-एं (क्या कह रही है तू)?’’

रामरक्खी अंधेरे में पति के तेवर नहीं देख सकती थी. फिर जैसे उसे और कोई बात सूझ ही नहीं रही थी. वही बात दुहरा रही थी, ‘‘शुरुम कर! चिट्टी दाढ़ी होई तैंडी!’’

गणपत कूल्हों पर हाथ रखे हांफ रहा था. पत्नी ने जब दुबारा-तिबारा वही बात कही, तो व्यंग्यपूर्वक बोला, ‘‘क्यों, मैं कइ नी रन उधाली ए (मैंने किसी की लुगाई भगाई है क्या)? और आवेश में आकर यह बात भी जोड़ दी कि वह उस के भाई जैसा नहीं जो घर की ही बेटी को उधाल कर ले गया था.
बस, इस ताने से रामरक्खी का रहा-सहा धीरज भी जाता रहा. लगी आंसू बहाने और कहने, ‘‘मैंडा प्यो-भिरा नांह पुण...’’ और सीत्कार-सा करते हुए रोने लगी, ‘‘मैंडा प्यो-नांह पुण...’’

नीचे आंगन में सोया कस्तूरी उठकर खाट पर बैठ गया था और सहमा-सहमा-सा दादा-दादी के बीच होने होने वाला यह संवाद सुन रहा था. रामरक्खी ने आवाज़ ऊंची की तो गणपत ने एकदम डपटते हुए गाली दी, --चुप कर, मां-याविए!’’ और इस तरह हिला जैसे अभी झपट कर बुढ़िया का झोंटा पकड़ लेगा.

नीचे कस्तूरी ने एकाएक रोना शुरू कर दिया और लगा ’भाबी-भाबी’ (दादी और मां को ‘भाबी’ भी कहते हैं) कहकर दादी को पुकारने. फिर एकदम रोना छोड़कर बोला, ‘‘भऽऽबी! तू रोनी क्यों पइ-ए?’’

रामरक्खी आंसू बहाती उठी और पड़सांग से नीचे उतर आई और जैसे कस्तूरी को भूल कर खाट पर बैठ गई और घुटने पर ठुड्डी रख कर लगी बिसूरने. कस्तूरी बिटर-बिटर देख रहा था. धीरे से उस ने दादी की बांह हिलाते हुए फिर वही सवाल किया, ‘‘भाबी, जू रो क्यों रही है?’’

रामरक्खी एकदम तैश में आकर बोली, ‘‘अपने कर्मों को राती हूं, रे...’’ फिर पोते को झिड़कते हुए कह उठी, ‘‘रंडीछोड़! तू क्यों उठ बैठा?’’


रामरक्खी इतने जोर से बोली थी कि बालक कस्तूरी का त्राह ही निकल गया. वैसे ही मरियल-सा था.और इस समय डरा हुआ. इसके बाद उस के मुंह से आवाज निकली.

बाकी रात रामरक्खी ने कलपते-बिसूरते हुए बिताई- लेटी-लेटी गसकती रही और अपने भाग्य को कोसती रही.

सवेरे गणपत बहुतेरी सफाई देनी चाही कि रात को दरवेश के बालक के पेट में शूल उठा था और दरवेश-आलमां के बुलावे पर ही वह उन की हवेली में गया था. मगर रामरक्खी के मन में गांठ पड़ गई थी. बोली, “यों क्यों नहीं कहते कि दरवेश के बालक की मां के पेट में शूल उठा था.” फिर एकाएक बिफर पड़ी, “ऊ कुत्ती रन! घरहाई. कदां ऊ तदांह सदेनी-ए (कभी वह तझे बुलाती है) कदी तू थले हुर वैनां.”

अब तो गणपत के बरदाश्त के बाहर की बात हो गई. बड़ी मुश्किल से उसने अपना हाथ रोका. मगर रामरक्खी अपनी पर आ जाए, तो आगा-पीछा नहीं देखती. अब लगी तानें मारने कि इसीलिए दरवेश को बेटा बना कर हवेली में बैठाया था, “शरुम कर. चिट्टी दाढ़ी होई तंड़ी.”

“बस, बउं हो गया!” गणपत ने एक्दम आक्रामक रुख अपनाते हुए आंखें तरेरीं, “हुण बक-बक करेसें, तां देसां हिक----“ और बायां हाथ झटके से इस तरह दाएं कंधे तक ले गया जैसे अभी खींच कर झांपड़ मारेगा.

मगर रामरक्खी तो इसके लिए भी तैयार बैठी थी. एकदम भड़ककर बोली, “हां, मार! मार! ई कसुर बाकी आ. ई वी पूरी कर घिन !”

गणपत बड़ी मुश्किल से अपने ऊपर नियंत्रण रख पा रहा था. भड़ककर बोला, “हुण तु बक-बक बंद करेसें कि न करेसें? चुप न होसें?”

“नांह!” रामरक्खी तुनुककर बोली, “मैं चुप नांह होसां---“

“क्यों नशुर करेसें?” गणपत ने अब निष्क्रिय आक्रोश से कहा, जैसे इस स्त्री से पार न पा सकने के कारण वह हथियार डालने को तत्पर हो.

“हां, मैं तुदांह नशुर करेसां!” रामरक्खी ने तुर्की-बतुर्की जवाब दिया. बोली कि उसे भंड कर रख देगी----“मैं तदांह भंडेसां!”

गणपत ने व्यंग्यपूर्वक कहा, “क्यों, शहरों बाहर कढ आसें?”

रामरक्खी ने हाथ भांजते हुए कहा, “मैं होर वी मंदा करेसां.”

निकट खड़ा कस्तूरी खुजलाते हुए मुंह उठाए कभी दादा की तरफ देखता, कभी दादी की तरफ. गणपत बेबस क्रोध से खड़ा कांप रहा था. एकदम उबल कर उस उए पत्नी को गाली दी, “कजंरिए! ज़बान नांह चला.”

“मैं चलैसां!” रामरक्खी थोड़ी कांपी थी, फिर भी बोलने से बाज नहीं आई थी.

“मैं अखेनां ( कहता हूं)चुप हो वंज….”

“नांह होसां!”

अब तो गणपत जैसे हत्या पर तुल गया. मगर जैसे आखिरी बार खबरदार करते हुए बोला, “मैं तैंडे पासे भन सतेसां ( मैं तेरी पसलियां तोड़कर रख दूंगा) ---तैंड्डियां-पसलियां त्रोड़ सटेसां.”(तोड़ डालूंगा).

रामरक्खी जैसे इस सब के लिए भी तैयार बैठी थी. बोली, “ई वी कर वेख----“ और फिर लगी पति को ताने मारने कि पहले भी तो हड्डिया-पसलियां तोड़ते रहे हो. अगर आज तोड़ोगे, तो कोई अनोखी बात नहीं होगी---और यह बात कहते-कहते उसने दाएं हाथ में बाएं की कलाई पकड़कर दिखाई, “आपणी करतूत देख.”

बरसों पहले पति-पत्नी में तकरार हुई थी, जब गणपत थोड़ा दारू पीकर बैठा था. सिर घूम रहा था और रामरक्खी ने कोई ताना मारा था. बस, एकदम उठकर गणपत ने ऊपर कील से लटकता गाय का ढंगा उतार लिया था और बहू और पोतों के सम्मुख उस ने रामरक्खी को सटाक-सटाक मारा था. फिर भी रामरक्खी चुप नहीं हुई, तो गणपत ने फटी डंगोरी उठा ली थी और उस के वार को रामरक्खी ने अपनी कलाई पर झेला था. आज भी उस चोट का निशान रामारक्खी की कलाई पर नुमायां था, जिसे दिखाकर वह पति को लज्जित करना चाहती थी.

रामरक्खी ने जब कलाई उठाई, गणपत उसी तरह भड़का जिस तरह माटाडोर के हाथों में लाल कपड़ा देख सांड़ भड़कता है. जल्दी से मुड़ा और पेड़ के नीचे कस्तूरी की टूटी तख्ती उठा लाया. निकट खड़ा बदहवास पोता चीखता हुआ दादी के आगे ढाल बन कर खड़ा हो गया. दादा की तरफ निरीह आंखों से देखते हुए अभ्यर्थना के स्वर में बोला, “नांह मारो, लाला जी, नां∙∙ह मारो …”

गणपत ने पोते को एक तरफ धकेला और सटाक से एक तख्ती रामरक्खी के घुटने पर और एक तख्ती उस की पीठ पर मारी. रामरक्खी चिल्लाई, “हाय, मार सट्यास!” फिर जैसे एकदम तनकर बैठ गई. गर्दन उठा, छाती उघाड़ चुनौती के स्वर में बोली, “मार, होर मार, सारी कसुर पूरी कर घिन. मार….”

कस्तुरी परे जा कर गिरा था, और बैठा-बैठा नितंब खुजलाते हुए अरज कर रहा था, “नांह मारो, लाला जी, नां∙∙ह मारो…”

गणपत ने एकदम चीखते हुए पोते को तख्ती दिखाई और गाली दी, “चुप ओए, यद्दी न्या!”

रामरक्खी अब पसरकर बैठ गई और लगी ऊंचा-ऊंचा विलाप करने और बोल बोलने- “ऊंचे कुल का जन्मया, करनी ऊंच न होय----“

पिछली हवेली में दरवेश पसार के सिरे पर टांड़ी से लटकती रस्सी पकड़े खड़ा था. आलमां एक बालक को गोद में लिटाए छाती पिला रही थी. दोनों ने एक-दूसरे की तरफ देखा. दरवेश ने तत्काल आंखें झुका लीं.

गणपत निर्वीर्य आक्रोश से खड़ा देख रहा था और रामरक्खी थी कि चुप नहीं हो रही थी. रोते और बोलते हुए, क्षणांश के लिए थमती और फिर आंसू बहाने लगती और होंठ भींच कर सिसकारी-सी भर कर बोलने लगती:

“ढोल दमामा दूकड़ी, संहाई संख फेर.
इक्सर चले बजाई के, है कोई राखा फेर.”

गणपत तख्ती हाथ में लिए उस के सिर पर खड़ा था, मगर रामरक्खी के दिल से जीवन और मौत का सारा डर निकल गया था:

“जिस मरने से जग डरे, मेरे मन आनंद
मरने से ही पाइए, पूरन परमानंद.”

रामरक्खी थी तो निपट निरक्षर, लेकिन पता नहीं इस तरह के कितने ही दोहे-कवित्त उसे कंठस्थ थे. गणपत के सामने अब हथियार डालने के सिवा और कोई चारा नहीं था. तख्ती उस ने बेरी के नीचे उछाल दी और बड़बड़ाता हुआ खाट तक गया जहां उस की जूती पड़ी थी. उसे झाड़ कर उस ने पैरों में डाला और बुदबुदाता हुआ घर से बाहर निकल गया.

कस्तूरी जैसे इसी प्रतीक्षा में खड़ा था. धीरे-धीरे चलकर आया और दादी के निकट आकर सहानुभूति जताते हुए बोला, “भावी! रो नई---“ और फफक पड़ा.

मगर रामरक्खी जैसे उस की उपस्थिति से अनभिज्ञ अपनी रौ में बही जा रही थी:

“कबीरा तेरी झोंपड़ी, गलकटियन के पास,
करनगे सो भरनगे, तू क्यों भए उदास…”

और इस कथन के साथ विक्षिप्तों की नाईं हाथ इस तरह फेंकने लगी जैसे किसी मृतक के सामने बैठी विलाप कर रही हो.

गणपत ने पत्नी पर हाथ उठा तो दिया था, मगर भीतर ही भीतर ग्लानि से भरा जा रहा था. टबरी (घरवाली) के साथ उसे ऎसा व्यवहार नहीं करना चाहिए था. पोतों वाली है, और उन के सामने ही पिटती है!...

घर से निकलकर वह हाट की तरफ चला आया. हट्टियों पर बैठे एक-दो जनों ने टोपी-साफी (चिलम) पीने का न्योता दिया, मगर जरूरी काम का बहाना कर के वह आगे निकल गया. बाजार से होता हुआ वह उत्ती पांडी की तरफ मुड़ गया. वहां थोड़ी देर भटकने के बाद कल नहीं पड़ी, तो घर की तरफ लौट पड़ा. एकाएक उस के मन में यह डर घर कर गया कि कहीं रामरक्खी आवेश में कुछ कर न बैठे. बस, उन्हीं पैरों लौट आया. बाहर का दरवाजा वैसा ही खुला था, जैसा छोड़ गया था. दबे आंगन में आया. सुफे में झांका, तो रामरक्खी मुंग-सिर लपेटे पड़ी थी और रोया हुआ कस्तूरी सिरहाने बैठा था. कस्तूरी की नजर दहलीज पर ठिठके दादा पर पड़ी तो एकदम त्रस्त होकर कांप-सा गया.

“ओय, तू मदरसे नहीं गया?” गणपत ने वहीं से झिड़कते हुए पूछा.

कस्तूरी भयभीत आंखों से दादी की तरफ देख रहा था. रामरक्खी पूर्ववत बिसूरती हुई लेटी थी—न हिली, न डुली.

“चल, उठ!” गणपत ने भीतर आकर बालक को बांह से पकड़कर उठाया, “वंज (जा) मदरसे.” मगर तभी उसे खयाल आया कि शायद बालक को कुछ खाने को नहीं मिला, इसीलिए मदरसे नहीं गया. तत्काल जा कर रसोईघर में देखा. रोटियों वाला छकोरे (टोकरा) खाली पड़ा था. तो आज रोटी नहीं पकी घर में. चूल्हा भी ठंडा पड़ा है---सोच-सोच कर गणपत को अपनी करनी पर पछतावा हुआ, “मुझे ऎसा नहीं करना चाहिए था.”

रसोई के कोने में टीन-कनस्तर रखा था. उसे खोला, तो उस में मुरुंडे भरे थे. गणपत ने दो मुरुंडे लिए और सुफे की दहलीज में खड़े कस्तूरी के हाथ में पकड़ाए और कहा, “वंज, भज के वंज, मदरस्से.”

कस्तूरी मुरुंडे पाकर खुश हो गया. दादी की तकलीफ जैसे एकदम भूल गया और उसके साथ थोड़ी देर पहले जो सहानुभूति उपजी थी, वह भी मुरुंडे पाकर जैसे एकदम तिरोहित हो गई थी. दादी मांगने पर भी रुला-रुलाकर एक-आध मुरुंडा ही देती थी. आज दादा ने बिन मांगे दो मुरुंडे दे दिए थे.

“रस्तेव (रास्ते में) रुके नै!” दादा ने तनबीह की, ’नै तां मरसऊं.(मारूंगा)”.

कस्तूरी ने अभी मुंह तक नहीं धोया था. पता नहीं, हगने भी गया था या नहीं. कपड़े बदलने की बात ही नहीं थी, क्योंकि बच्चे एक ही कुर्ते-कमीज में हफ्ता-हफ्ता गुजारे देते थे.

सुफे के किवाड़ के पीछे दीपदान के साथ उसका बस्ता रखा था. उसे इस तरह उठाया जैसे दादी को ज्ञान न हो, और फिर बाहर निकलकर भागा मदरसे की तरफ. मुरुंडा शै ही ऎसी थी.

गणपत ने पीछे आकर अड़ाड़ वाले दरवाजे को बंद करने से पहले मलिकों की हवेली के आते रेत में पैर रपट कर चलते पोते को ताकीद की, “सीधा मदरस्से जाना. रास्ते में खेलते नहीं रहना.”

गणपत दरवाजा भेड़ कर भीतर आया. सुफे में पलंग (बड़ी खाट) पर लेटी रामरक्खी के सिरहाने थोड़ी देर चुपचाप खड़ा रहा. फिर कुछ बुदबुदाते हुए रसोईघर में गया और घी-हल्दी तैयार करके ले आया. जानता था कि तख्ती की चोट काफी जोर की लगी थी. इसलिए हल्दी की कटोरी हाथ में लिए रामरक्खी के सिरहाने खड़ा होकर इस तरह बोला जैसे सारे कांड के लिए दोषी रामरक्खी ही थी.

“उठ, ध्यो-हरदी लगवा घिन!”

दीवार की तरफ मुंह कर के लेटी रामरक्खी ने दांतों में पल्ला दबा लिया, ताकि रुलाई न फूटे. गणपत कुछ देर पत्नी की तरफ देखते हुए जैसे गुन रहा था. फिर पलंग की बाही पर नितंब टिका कर धीरे से बैठा, तो खाट चरमरायी. रामरक्खी ने माथे के आगे बांह रखी हुई थी. उसे जबरदस्ती हटाते हुए झांककर गणपत इस तरह बात करने लगा जैसे कहना चाहता हो कि जो हुआ, अब उस पर झाड़ू मारो.

“हुण छोड़!” गणपत ने यह बात कही तो सही, मगर स्वर में अब भी दबंगपना था.

गणपत ने हाथ आगे किया, तो रामरक्खी ने उसे झटक दिया.

गणपत को आवेश तो आया, मगर अपने ऊपर जब्त रखे बैठा रहा. फिर पत्नी की पीठ पर से पेपणी उठा कर घी-हल्दी लगाने को उद्यत हुआ, तो रामरक्खी ने उसी उग्रता से हाथ झटक दिया, और बिफर कर बोली,

“मैंडे नाल कलाम न कर !”

पीठ पर से पेपणी क्षण-भर के लिए हटी थी. गणपत का तो जैसे त्राह ही निकल गया था. इतना बड़ा नील पड़ गया था. लगा पछताने कि इतनी बेदर्दी से नहीं मारना चाहिए था.

थोड़ी देर बैठा पश्चात्ताप करता रहा. फिर धीरे से बोला, “हुण छोड़ वी. मैं पच्छॊताया. धो-हरदी लगवा घिन.”

“…..”

“लगवा घिन!” गणपत ने एक क्षण प्रतीक्षा के बाद एकदम असहिष्णु स्वर में कहा, और फिर जैसे धमकाते हुए बोला, “नै तां होर मरसऊं!”

रामरक्खी एकदम उफन पड़ी. बोली, “कसूर छोड़ी आ? पूरी कर घिन.”

हाथ में कटोरी पकड़े गणपत व्यग्र-व्याकुल-सा उसकी ढकी पीठ की तरफ देख रहा था. फिर जैसे खिसियाया हुआ-सा अपने आप से कह उठा : यह औरत हमेशा ताने मारती है. और कोई बस नहीं चला, तो मेरे चाल-चलन पर ही इल्जाम लगाने बैठ गई. कोई पूछे इस शख्स्याणी से, मेरी उम्र है यह कसब करने की? फिर हमेशा एक ही बात कहती है, “तैंडी चिट्टी दाढ़ी होई, तैंडी चिट्टी दाढ़ी होई….”

थोड़ी देर वह इसी तरह बुदबुदाता रहा. फिर धीरे से उस ने पेपणी उठाई. अब के रामरक्खी ने कोई विरोध नहीं किया और गणपत ने नील वाली जगह पर घी-हल्दी चुपड़ी. रामरक्खी चुपचाप लेटी रही. हिली-डुली तक नहीं.

अब गणपत उस के घुटने पर भी घी-हल्दी लगाना चाहता था. मगर औरतें इतने तंग पांयचे की सुथण-सलवार पहनती थीं कि पिंडलियों से ऊपर पांयचा उठता नहीं था. इसलिए गणपत बोला, “उठके सूथण उतार.”

रामरक्खी बोली तो नहीं, मगर सुथण उतारने की बात सुन उसकी हंसी फूट पड़ती यदि उसने मुंह में कपड़ा न ठूंस लिया होता.

अब के गणपत ने ज्यादा जोर देना उचित नहीं समझा. उठा और घी-हल्दी की कटोरी जाले में रखकर चुपचाप बाहर निकल गया.

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