गुरुवार, 25 जून 2015

वातायन-जुलाई,२०१५





वरिष्ठ साहित्यकार उपेन्द्र कुमार मूलतः कवि और गज़लकार हैं, लेकिन कहानी, व्यंग्य, आलेख, यात्रा संस्मरण आदि विधाओं में भी उपेन्द्र जी ने प्रशंसनीय योगदान दिया है. उपेन्द्र जी ने कभी ’बरगद’ जैसी साहित्यिक संस्था की स्थापना की थी, जिसकी नियमित गोष्ठियों ने साहित्यकारों को निरंतर लेखन के लिए प्रोत्साहित किया.  
झूठ की मूठ उपेन्द्र जी की चर्चित कहानी है जिसे उन्होंने मार्च,२००२ में लिखा था. इसे पढ़कर मैं उनके कथा कौशल को कभी भूल नहीं पाया और वातायन में इसे प्रकाशित कर आप मित्रो को पढ़वाने का इच्छुक था. यदि आप इसे नहीं पढ़ते तो निश्चित ही एक उल्लेखनीय कहानी पढ़ने से अपने को वंचित करेंगे.   

(उपेन्द्र कुमार)
कहानी
झूठ की मूठ

उपेन्द्र कुमार

मेरे एक मित्र हैं। कहानी उन्ही की है। मेरी उनसे कभी मुलाकात हुई हो ऐसा स्मरण नहीं। फिर भी उन्हें मित्र मानने के दो प्रमुख कारण हैं। पहला, तो यह कि वे मेरे बहुत सारे मित्रों के मित्र हैं। और दूसरा सभी मित्रों ने मेरा और उनका नाम अपनी व्यक्तिगत टेलीफोन डायरी में एक ही पन्ने पर लिख रखा है। यह और बात हे कि साहित्यकार के नाते उनका नाम प्रकाश में आ गया है जबकि मेरा कहीं हाशिए पर टहल रहा है। वैसे कहानी तो किसी नाम से कही जा सकती है। मान लिया जाए कि मेरे उस प्रसिद्ध साहित्यकार मित्र का नाम से उलझन की आशंका हो तो इस कथा के नायक का नाम ठाकुर उपेन्द्र नारायण सिंह रख लिया जाए। अब नाम यदि ठाकुर साहब हो तो फिर केवल लेखक कवि होने से तो काम चलेगा नहीं कुछ तो ठाकुरों वाली बात होनी चाहिए। और वह थी भी। ठाकुर उपेन्द्र के पास एक तलवार थी। पुरखों की। पीड़ियों से चली आ रही वह प्रसिद्ध तलवार ठाकुर उपेन्द्र को उत्तराधिकार में प्राप्त हुई थी। यह तलवार पुरखों के बडे़ काम आई थी। इसके बल पर बवलाओं की इज्जत लूटी गई थी, दलित बंधुआ मजदूर बने थे, मुगलों के चरणों पर लोट-लोटकर इसने मालिकों के लिए जागीरें हासिल की थीं, अंग्रेज बहादुर की हुकूमत कायम रखने को इसने कितने विद्रोहियों की गर्दनें उतार दी थीं... इस तरह की कितनी सेवाएं थी। जो इस तलवार ने पुरखों की की थीं।
            उपेन्द्र जी यूं तो तलवार के नहीं कलम के धनी थे और उन्होंने जो भी लिखा कहानी, कविता लेख आलोचना, सबकी हिंदी साहित्य में धाक थी। वैसे धाक और आंतक तो उनके तलवार की भी कम नहीं थी, विशेषकर उन साहित्यकारों पर जो उनकी टोली के नहीं थे, क्योंकि उपेन्द्र जी, कलम और तलवार के स्थानों की परस्पर अदला-बदली करते ही रहते थे। कुद मिलाकर स्थिति यह थी कि कलम और तलवार के सम्मिलित प्रभाव में उपेन्द्र जी हिंदी साहित्य के क्षेत्र में निरंतर प्रगति और प्रसिद्ध के पथ पर बड़े क्या, दौड़ते चले जा रहे थे। परंतु अच्छे दिन तो विधाता से राम और कृष्ण के भी नहीं देख्े गए। फिर ठाकुर उपेन्द्र क्या चीज थे। शनि देवता ने एक दिन उनकी भी खबर ले डाली।
            हुआ ये कि ठाकुर की तलवार चोरी चली गई।
            शुरू में तो उपेन्द्र जी ने यह खबर दबाने-छिपाने की पूरी कोशिश की और अपने बल-बूते पर तलवार की खोज करते रहे। परंतु जिस चमकती तलवार ने अतीत में एक दिन के लिए भी साथ नहीं छोड़ा था, जो मित्रों के आंखों की ठंडक और शत्रुओं के लिए शिव का तीसरा नेत्र थी, एक बार जो ओझल हुई तो फिर नहीं मिली तो नहीं मिली।
            ऐसी खबरें छिपाए छिपती भी नहीं। बात दबाने से दबती तो क्या और तेली से फैली। फैलते-फैलते ठाकुर कुल के कवि शिरोमणि तक पहुंची। वे जेब में चना-चबेना रखे शाम के तरल-गरल की व्यवस्था के लिए शिकार की तलाश में निकलने नही-वाले थे कि यह दर्दनाक खबर उन्हें मिली। उन्हें पहले तो इस बात का विश्वास ही नहीं हुआ। फिर सच्चाई जानने तुरंत ठाकुर के घर पहुंचे। वहां चतुर्दिक व्याप्त शोक तथा सूनेपन ने दुर्घटना का पूर्वाभास करवा दिया। व्यथित स्वर में उन्होंने पूछा, ‘‘तलवार रखी कहां थी?’’ उपेन्द्र जी के कुंठित कंठ से मरी-मरी आवाज निकली ‘‘यहीं सामने दीवार पर टंगी थी।’’
            सुनते ही कवि शिरोमणि एक साथ आश्चर्य, क्रोध और दुख की त्रिवेणी वन गए, ‘‘अरे जो साहित्य से इतर चीजें हैं कम से कम उनमें तो बुद्धि का प्रयोग किया करों। चोर की निगाह सबसे पहले तलवार पर पड़ती ही थी। दीवार से उतारने में भी उसे क्या दिखत होती। फिर वह कुछ और क्यों चुराता। ले गया उसे ही। तुम्हारी तलवार तो ठाकुर-कुल की सुरक्षा की साहित्यिक गारंटी थी। उसी की बदोलत तो हमने कभी साहित्यिक पुरस्कारों के अश्वमेधी घोडों को अपने राज्य की सीमा नहीं लाधने दी। कहो भला, गुरू विश्वमित्र जी सुनेंगे तो क्या होगा। क्या उनका गाथा शर्म से नही झुक जाएगा।’’
            गुरू विश्वविमत्र के कोप की चिंता तो उपेन्द्र जी को भी बुरी तरह सता रही थी। वे जानते थे कि यदि कोई महत्वपूर्ण बात कवि शिरोमणि को पता लगी तो समझो गुरू विश्वमित्र जी को भी पता लगी ही लगी और सचमुच उपेन्द्र जी अभी चैन की सांस भी नहीं ले पाए थे कि विश्वमित्र जी दृष्टिगोचर हुए।
            अपने क्रोध को किसी तरह दबाते हुए उन्होंने भी वही प्रश्न पूछा ‘‘तलवार रखी कहां थी?’’
            उपेन्द्र जी की तो सिट्टी-पिट्टी गुम। दीवार पर टांगने की बात पर तो डांट सुन ही चुके थे। घबड़ाहट में कुछ सूझ भी नहीं रहा था। मिमियाते हुए झूठ बोले, ‘‘जी तकिए के नीचे। में उसे अपने तकिए के नीचे रखकर सोता था।’’
            इतना कहना था कि उनकी शामत आ गई। प्रारंभ हो गया कुलगुरू का व्याख्यान-‘‘तुम्हारे लेखन से कुछ-कुछ अंदाजा तो मुझे पहले से ही था परंतु तुम इतने मूर्ख होगे ऐसा कभी नहीं सोचा था। अरे चोर तो सबसे पहले तकिए के नीचे ही देखते हैं। तुम्हें तो सावधानी बरतनी थी। दरअसल मानव-मन की थोड़ी भी पहचान नहीं है तुम्हें। यही तुम्हारे लेखन की सबसे बड़ी कमजोरी रही है। किसी भी सुधार की आशा ही व्यर्थ है। एक पीढ़ी ने राजपाट गंवाया। उसके बाद की पीढ़ी ने शराब-कबाब में स्वास्थ्य गंवाया। अगली पीढ़ी ने ने चरित्र गंवाया। फिर भी संतोष था कि चलों तलवार तो सुरक्षित बची है हमारे पास। तुम्हारी पीढ़ी ने उसे भी गंवा दिया। छोटी-मोटी रियासतों की कौन कहे अब तो तुम्हारे कारण तक्षशिला और साहित्य अकादमी के साम्राज्य भी संकट में पड़ गए। मात्र मंत्रों/आलोचनों के सहारे में तुम सबकी कब तकऔर कहां तक रक्षा करता रहूंगा?’’
            उपेन्द्रजी सर थामे बैठे रहे और गुरू विश्वमित्र पैर पटकते हुए चले गए।
            उपेन्द्र जी अभी सोच ही रहे थे कि अब कौन आ सकता है और उसे क्या बताना होगा कि तभी कुलाधिपति बशिष्ठ जी प्रगट हुए। उनके होंठों पर वही स्थायी रहने वाली हंसी उस समय भी विद्यमान थी। शायद थे भूल ही गए थे कि मातमपुर्सी में आए हैं। बहरहाल प्रश्न उनका भी वही था, ‘‘तलवार रखी कहां थी?’’
            उपेन्द्र जी कुलाधिपति की कृपाओं अयौर अपनी कृतघ्नताओं को याद कर कुछ शर्मिंदा तो अवश्य थे परंतु मन में जिद वही थी। इस पंडित से तो पटखनी नहीं ही खाऊंगा। अस्तु, सुविचारित उतर दिया, ‘‘तिजोरी में रखी थी।’’ कुलाधिपति जी हतप्रभ। बोले, ‘‘वाह भाई वाह, भोपाल के दिनों से लेकर आज तक तुममें कोई विकास ही नहीं हुआ। चोर तो सबसे पहले तिजोरी की ही खबर लेते हैं और फिर तुम्हें तो आवश्यकता होने पर भी तिजोरी नहीं रखनी चाहिए। यारों को भनक लग गई तो सारी जनवादी चेतना और प्रगतिशील लेखन धरा रह जाएगा। यानि कीमती सामान तो कहीं दूसरी जगह रखते और तिजोरी में अपना साहित्य रख देते। मुझे ही देखो मेरी भाष्य और टीकाएं छपती रहती है। लोग उन्हें सहेज कर रखते भी हैं। परंतु मेरा सबसे महत्वपूर्ण लेखन अखबारों में होता है जो उठा कर फेंक दिया जाता है। खैर चलो, तुम ये बातें नहीं समझोगे। एक तो अभी बच्चे हो, दूसरे कुसंग में पड़े रहते हो। फिर भी मेरा कहा मानो तो तलवार का दुःख छोड़ दो। क्योकि तलवार रखने वाले के पास जो स्वाभिमान, धैर्य और पराक्रम चाहिए वह तुम्हारे पास नहीं है। जहां थोड़े दिन शांति से बीतते हैं तुम्हारे हाथ में खुजली होने ... है। किसी न किसी पर अकारण ही तलवार चला देते हो। मुझ तक को नहीं बख्शा तुमने और फिर भी ग्रांट या स्कॉलरशिप की तलाश में मेरे दफ्तर में हाजिर हो जाते हो।’’
            उपेन्द्रजी सोच रहे थे कि कुलाधिपति जब बोलने पर आते हैं तो बालते ही चले जाते हैं। सच में उनका प्रवचन चालू था, ‘‘देखो केवल विदेशी साहित्य पढ़कर गाहे-बगाहे उसकी नकल जैसा कुछ लिखकर या वमन कर तुम मुनि वशिष्ठ नहीं बन सकते। उसके लिए और भी बहुत कुछ चाहिए जो तुममें नहीं है। इसलिए मेरी मानो तो मेरे अष्टछाप में शामिल हो जाओं। तलवार के बिना भी तुम्हारा भविष्य कल्याणमय होगा।’’ सांत्वना देकर कुलाधिपति वशिष्ठ तो प्रस्थान कर गए पर शांति तो नसीब में ही नहीं थी।
            हिंदी साहित्य के शुक्रचार्य क्यों पीछे रहते। खबर मिलते ही अपने वाहन गरूड़पर सवार वे भी आ धमके। फिर वही प्रश्न, ‘‘तलवार रखी हां थी?’’ उपेन्द्र जी ने मन ही मन निश्चय किया कि अब इनसे तो पटखनी नही ही खाऊंगा। कहा, ‘‘संदूक में रखी थी।’’ ‘‘क्यों भाई संदूक में क्या सोचकर रखी थी?’’ शुक्राचार्य का भाषण शुरू हुआ, ‘‘चोर क्या तुम्हारे कपड़े-वर्तन चुराने आएगा? जिरो भी कीमती सामान की तलाश होगी वह संदूक तो जरूर ही देखेगा। पता नहीं तुम्हें कब समझ आएगी। लेखन में नहीं तो कम से कम जीवन में तो मैच्योर बनो। कहो अब क्या होगा। उधार के हल से खेती नहीं होती जैसे अन्य अनेक मुहावरों को झूठ सिद्ध करते हुए जब भी जरूरत होती थी। मैं गरूड़ में तुमसे तलवार भंजवा लेता था।’’
            गरूड़धिपति ने पाइप सुलगाते हुए अपनी मोहिनी मुसकान फेंकी और ठेठ भाषा पर उतर आए, ‘‘छोड़ो ये रंडी-रोना और तलवार-वलवार को भूलकर मेरा वामहस्त स्थायी रूप से पकड़लो। तलवार हिंसा का प्रतीक है जब कि वाम विचारधारा का। प्रगतिशीलता के नाम पर जिसे चाहो पीट डालो और सुर्खरू भी बने रहो। मेरे संपादकीय तो तुम पढ़ते ही होगे। फिर चोरी-बोरी का भी कोइ्र डर नहीं। सोचने समझने की तो खैर तुम्हारी आदत नहीं है, फिर भी यदि संभव हो तो स्वभाव के प्रतिकूल मेरे प्रस्ताव पर विचार करना।’’ इतना कहकर गरूड़ाधिपति ने अपना पाइए राखदानी में उडे़ला काले चश्मे के पीछे से अपनी वही डॉन स्टाइल वाली मुस्कान फेंकी और उठकर फड़फड़ाते चल दिए।
            दरवाजे पर फिर खटखट हुई उपेन्द्र जी ने  देखा कि भारत सरकार के डायरेक्टर का पद छूटने पर बहुत दिनांे तक इधर-उघर भटकने के बाद, साहित्य की राजनीति में तक्षशिला के माध्यम से पुनः प्रवेश करने वाले गंगापुत्र धवल अपनी मोहक मुसकान के साथ द्वारन पर विराजमान थे। बिना किसी विशेष पूछताछ के धवल जी शुरू हो गए, ‘‘बंधुवर जाने दो। जो होता है अच्छे के लिए होता है। तलवार है भी बेकार की चीज! मैं तो स्वयं परेशान हूं अपने यहां की तलवार से। लाख कोशिशों के बावजूद म्यान में टिकती ही नहीं। इस तलवार के चलते तो बंधु, मेरी चेयरमैनी खतरे में पड़ी रहती है। लोग चाहे मेरी जितनी उपेक्षा या विरोध करे, मैं तो सदा सबकी सहायता को तत्पर रहता हूं। इस संकट की घड़ी में मैं आपके साथ हूं। मेरी बिना मांगी सलाह यदि आप मानें तो अब तलवार के मोह सेे स्वयं को मुक्त करें और यदि आप सच में ऐसा कुछ चाहते ही हैं तो मेरे एक मित्र हैं। रक्षा मंत्रालय में। उनसे कह करे आपको एक तोप दिलवा दूंगा। बस आप लाइसेंस का प्रबंध कर मुझे सूचित भर कर दें। बाकी का जिम्मा मेरा।’’
            उपेन्द्र जी बिचारे ने राहत की सांस ली कि धवल जी ने शाश्वत् प्रश्न नहीं पूछा। वह बेकार के झूठ बोलने से बच गए। आश्वस्त मन से उपेन्द्र तोप रखने की संभावनाओं पर विचार कर रहे थे कि धवल जी ने तोप का गोला छोड़ ही दिया, ‘‘वैसे वंधुवर, तलवार रखी कहां थी?’’
            हड़बडा कर उन्होंने उत्तर दिया, ‘‘बिस्तरे के नीचे।’’
            धवल जी ने दोनों हाथ जोड़ दिए, ‘‘धन्य हैं आप, महाराणा प्रताप की परंपरा आज भी निभा रहे हैं। धरती पर सोना या तलवार के साथ पलंग पर सोना एक जैसी ही बात है और यही कारण है कि आपके लेखन में वह पैनापन है कि छू भर जाए तो काट-छील कर रख दे। सच बात तो यह है कि मैं पहाड़ी आदमी स्वभाव से ही इतना भीरू हूं कि इसी काटने-छीलने आदि के डर से आपका साहित्य न कभी पढ़ा है न पढ़ पाऊंगा। परंतु आप इसकी चिंता न करें। वाह वाह, क्या बढ़िया बात है। तलवार के साथ सोना। सोना पाने के लिए तो तलवार का बहुत प्रयोग हुआ पर साथ सोने के लिए तलवार का उपयोग आप जैसे ओरिजिनल थिंकर के ही बस की बात है। अवश्य ही अपने रात में गलत तरफ करवट ले ली होगी और चोर बिस्तर के दूसरी तरफ के उभार का रहस्य जानने के प्रयत्न में तलवार ले उड़ा होगा।’’
            तक्षशिला में जब बात फैल चुकी थी तो प्रबंधक जी कैसे पीछे रहते। वे भी पहुंचे और हंसते हुए बोले, ‘‘अरे भाई मैं तो अब साम्यवादी हो गया हू। न तलवार में, न जाति प्रथा वगैरह में विश्वास है मेरा। आपकी हानि पर फिर भी मैं दुःखी हूं। वैसे तलवार रखी कहां थी?’’
            फिर वही बेताल प्रश्न जिससे जूझ-जूझकर उपेन्द्र जी अब तक थक चुके थे। परंतु उत्तर तो देना ही था। चिढ़ते हुए कहा, ‘‘कमर में बांध कर सोया था।’’ सुन कर प्रबंध जी खिलखिला उठे, ‘‘अरे आप सोते समय अपने ऊपर किसी कुमार्गी के हमले से आशंकित थे क्या? फिराक साहब को तो स्वर्गवासी हुए जमाना गुज़र गया। अब आजकल कौन ऐसा वीर पुरूष इस धरती पर विचरण कर रहा है जिससे आपको इस उम्र में भी भय लग रहा है। उस तलवार को तो आपके .... ने भी कभी कमर में नहीं बांधा। फिर आपने यह दुःसाहस क्यों किया और किया तो फल भुगतिए। दुःसाहसी तो आप हैं ही। आपकी जादूई यथार्थ की कहानियां देखते समय मेरे मन में एक पुरानी अंग्रेजी की कहावत अक्स घूमती है कि जहां देवदूत भी जाने का साहस नहीं करते, मुर्ख धंस पड़ते हैं। ऊपर से आपको कलर ब्लांइडनेस अलग है। जो छाते सबको काले दीखते हैं आपको पीले नज़र आते हैं और संतो के धवल चरित्र काले। वैसे अभी भी बहुत देर नहीं हुई है। आप मेरे द्वारा रचित ग्रंथों को हृदयंगम करो, तोते की तरह नहीं, समझकर जो आपके लिए निश्चय ही कठिन कार्य है, तो आपका भविष्य ठीक-ठाक हो जाएगा। कुछ ढंग का लिख-पढ़ सकोगे और तलवार की भी जरूरत नहीं पड़ेगी। फिर भी यदि आपको संतोष नहीं हो तो हमारे तक्षशिला में एक तलवार है, भारतवर्ष की सबसे वीर तलवार, आप जब चाहो उसे आपको सौंप, हम उसी तरह प्रसन्न होंगे जैसे किसी चरित्रहीन कन्या का विवाह निपटा उसके माता-पिता प्रसन्न होते हैं।’’
            इतने सारे मेहमानों को निपटाने के बाद उपेन्द्र जी की स्थिति चिंताजनक हो गई थी। उन्हें तलवार के खोने से ज्यादा दुःख इस बात पर हो रहा था कि वह तलवार रखने की कोई ऐसी जगह नहीं सोच पाए जिसे सामने बाला भी उचित माने। यह असफलता उन्हें पागल किए दे रही थी। अपने सारे लेखन, अपने जीवन दर्शन यहां तक कि उन्हें स्वयं से भी वितृष्णा हो रही थी। चिढ़ थी कि बढ़ती ही जा रही थी। साध ही रक्तचाप भी।
            ऐसे ही समय में पधारे विरूचि कथा संपादक श्री वादरायण। ठाकुर को तो उन पर-संपादकीय के चलते पहले ही गुस्सा था और शक भी। पुलिस वालों का तो चारों से बाढ़ा संबंध होता है। कही वादरायण ने ही तो किसी शातिर चोर को उकसा उनकी तलवार चोरी नहीं करवा दी। बुझे मन से स्वागत किया। पर वादरायण जी कहां मानने वाले? शुरू हो हो गए, ‘‘देखो भाई मैं तो स्वयं शस्त्र धारण नहीं करता और निहस्थों पर वार करना क्षुद्रता है अतएव में तुम पर ओ से कुछ नहीं लिखूंगा। निश्विंत रहे। पर तुमने तलवार रखी कहां थी?’’
            अब इस प्रश्न के बाद उपेन्द्र जी बेचार क्या निश्चित रहते। चिड़ते हुए बोले, ‘‘पुरस्कार कुमार के रहते भला आपको दूसरी तलवार की क्या जरूरत। तलवार तो मैंने अलमारी में किताओं के पीछे छुपाकर रखी थी। जरा पुलिस-दुलिस से कहकर कुछ करवाइए।‘‘ यह सुनते ही वादरायण जी तुरंत पुलिस अफसर वाले रौब में आ गए, ‘‘तुम्हारी सबसे बड़ी भूल यह है कि तलवार रखने में तुमने सावधानी नहीं बरती। तुम्हारे यहां चोरी करने कोई साधारण यह चलता चोर तो आएगा नहीं। मैं अपने पुलिसिए अनुभव के आधार पर शर्त लगा सकता हँू कि तुम्हारे यहां आने से पहले उस चोर ने तुम्हारे विषय में पूरी रिसर्च की होगी। आश्चर्य नहीं कि सिरदर्द की गोलियां खा-खाकर तुम्हारा साहित्य भी पढ़ा हो। अब यदि कोई थोड़ा-सा समझदार भी तुम्हारी रचनाएं पढ़ेगा तो तुरंत जान जाएगा कि तुम अपनी तलवार निश्चय ही लिखने-पढ़ने वाली सामग्री के साथ रखते होंगे। उसे तो अपना पूरा काम समाप्त करने में पांच मिनट से ज्यादा नहीं लगे होंगे। खैर अब तलवार खोने का शोक मनाना छोड़ो और कुछ कायदे का साहित्य पढ़ो। तुम्हारे यहां तो वह उपलब्ध भी नहीं होगा। लेकिन इस संकट के समय में तुम्हारी सहायता अवश्य करूंगा। ऐसा करता हूं कि गम गलत करने के लिए एक क्रेट रम और पढ़ने के लिए विरूचिकथा के सारे अंक, मोटे-मोटे विशेषांकों सहित तुम्हारे पास भिजवा देता हूं। दोनों चीजें एकदम फ्री। तुम भी मित्र क्या याद करोगे।’’
            उनके जाने के बाद उपेन्द्र जी ने उन्हें और उनकी पत्रिका दोनों को एक भारी-भरकम भद्दी गाली दी और भड़ाक से दरवाजा बंद किया। इस बार भी तलवार रखने की गढ़ी हुई जगह गलत निकाली। क्रोध, चिढ़ और रक्तचाप अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच रहे थे। लग लग रहा था जैसे दिमाग की नसें फट जाएंगी। उपेन्द्र जी को समझ में आने लगा था कि आखिर उनके और निराला जैसे महान साहित्यकार, छुटमैयों द्वारा कैसे पागल बना दिए जा सकते हैं या बना दिए गए थे।
            इसी विषम परिस्थिति में दुर्भाग्य के मारे सह गरूड़पति पधार गए। उन्हें देख इधर उपेन्द्र जी की चिढ़ थोड़ी और बढ़ी और उधर वह भी सबसे बाद में आने की सफाई देने में लग गए, ‘‘ऐसा है उपेन्द्र जी कि आप तो जानते ही हैं कि साहित्य के जगत् में होने वाली घटनाओं या रचनाओं की सूचना मुझे गरूड़पति जी के द्वारा ही होती है। वे जितना बताते हैं और जितना, दिखाते हैं में उतना ही जानता,  देखता और मानता हूं। पता तो मुझे पहले ही चल गया था परंतु विवशता थी। उनके द्वारा बताया जाना भी तो आवश्यक था। आज जब उन्होंने मुझे बताया तो विश्वास मानिए में बिना एक क्षण की भी देरी किए गरूड़ कार्यालय से सीधा आपके ही पास दौड़ा चला आया हूं। दुःख प्रगट करने। आखिर ये सब हुआ कैसे? तलवार रखी कहां थी?‘‘
            एक तो वैसे ही सुसंगत ढंग से सोचना तक असंभव होने लगा था, दिमाग में क्रोध की लहर पर लहर उठ रही थी, उपेन्द्र जी के लिए स्थिति एकदम असहय हो उठी थी। उनके प्रश्न ने और तन-मन में आग लगा दी। मन ही मन सोचा, जाति छिपाने के लिए नाम बदलकर बहुत चालाक बनते हो। सब कुछ जानबूझकर आए हो और भोलेपन का मुखौटा लगाए वही प्रश्न फिर पूछ रहे हो। इस बार ऐसी जगह बताऊंगा कि उपदेश देना भूल, सोचते ही रह जाओगे। सारी धूर्तता धरी-की-धरी रह जाएगी।
            प्रकटतः उपेन्द्र जी ने अपनी सौम्य मुखमुद्र बनाए राखी और पूर्णतः गंभीर आवाज में कहा, तलवार तो सोते समय में आत्मसात कर लेता था।’’
            गरूड़पति सहायक जी को पहले तो कुछ भी समझ में नहीं आया। आत्मसात का भला क्या अर्थ हो सकता है? सोचते-सोचते जब गुत्थी कुछ सुलझी तो उनका मुंह पूरे-का पूरा खुला रह गया। चिंता हुई कानों ने ठीक से सुना या नहीं और फिर मस्तिष्क ने ठीक सोचा या नहीं। पृष्ठभूमि से पूरी तरह अनजान वे कथन में शामिल चिढ़ और क्रोध को नहीं पहचान पाए। उपेन्द्र जी की ओर देखा तो वहां पूरी गंभीरता। अब गरूड़पति सहायक और चक्कर में पड़े कि यदि यह कथन सत्य है तो फिर चोरी क्योंकर संभव हुई। अपने सारे जीवन में ऐसी चोरी का कोई वृतांत उन्होंने नहीं सुना था। वे जितना सोचते उतना ही असंभव लगता कि इतने जतन से, ऐसी जगह रखी वस्तु की भी चोरी हो सकती है। एक गुत्थी सुलझी नहीं कि दूसरी हाजिर। अचानक उनके दिमाग में एक विचार कोंध और वह ट्यूब लाइट की तरह जले, ‘‘उपेन्द्र जी, अवश्य आपने सावधानी नहीं वरती। बिना किसी असावधानी के ऐसी चोरी असंभव है। मेरा विचार है कि आपने तलवार आत्मसात करते समय गफलत में निश्चय ही न केवल तलवार की मूठ बाहर छोड़ दो होगी वरन् सोए भी पेट के बल रहे होंगे और चोर ने इन्हीं बातों का फायदा उठा लिया।’’
            कथन समाप्त कर गरूड़पति सहायक जी ने मुस्कराकर उपेन्द्र जी की ओर ऐसे देखा जैसे कोई बच्चा कठिन सवाल हल कर पुरस्कार की आशा से अपने गुरू की ओर देखता है।
            इधर उपेन्द्र जी तो बेचारे पहले से ही बारूद का गोला बने बैठे थे। गरूड़पति सहायक जी की मुस्कान ने जैसे चिनगारी छुला दी। फिर जो विस्फोट हुआ ओर गरूड़पति सहायक जी को जो-जो पुरस्कार मिले उनका वर्णन कठिन है। किसी तरह वे जान बचाकर बाहर निकल पाने में सफल हुए और गिरते-पड़ते अपने घर पहुंचे।
            उनको बाहर निकालने के बाद उपेन्द्र जी ने जो किवाड़ बंद किए तो अब तक नहीं खोले हैं। परिचित-अपरिचित, मित्र बंधु-बान्धव यहां तक कि बांधवियां भी सांकल खटखटा, द्वार थपथपा ओर कॉलबेल बजा-बजा कर निराश हो लौट जाते हैं पर द्वार नहीं खुलता।
            पाठकगण! इधर उपेन्द्र जी कमरे में बन्द हैं और उधर उनकी तलवार खो जाने से बढ़े होंसलों वाले टुटपुंजिया आलोचक और सम्पादक उनके ऊपर खुलेआम साहित्यिक चोरी का इलजाम लगा रहे हैं। शायद इसीलिए कहा गया है-
                                                पुरूष वली नहीं होत है,
                                                            समय होत बलवान
                                                भिल्लन लूटी गोपिका!
                                                            वही अर्जुन वही वान।

-0-0-0-0-

परिचय : 

हिन्दी कविता एवं गज़लों के क्षेत्र में अपना एक अलग स्थान रखने वाले उपेन्द्र कुमार इंजीनियरिंग एवं विधि में स्नातक हैं. लंबे समय तक प्रशासनिक सेवा से जुड़े रहे. लिखना किंचित विलंब से प्रारंभ हुआ. अब तक आठ कविता संग्रह एवं दो गज़ल संग्रह प्रकाशित. हिन्दी अकादमी, दिल्ली का कृति सम्मान और साहित्यकार सम्मान प्राप्त. व्यंग्य लेखन के क्षेत्र में भी पहचान.


6 टिप्‍पणियां:

सुभाष नीरव ने कहा…

सुबह से नेट बन्द था, अभी 4 बजे चला तो उपेन्द्र कुमार की कहानी पढ़ी। इससे पहले मैंने कभी उपेन्द्र जी की कोई कहानी नहीं पढ़ी थी। कविताएँ, ग़ज़लें सुनता और पढ़ता आया हूँ और एक सुलझे हुए कवि के रूप में ही उन्हें लेता रहा हूँ। लेकिन यह कहानी जो वस्तुत: एक व्यंग्य कथा है और जिसमें एक जबरदस्त फैंटेसी का इस्तेमाल किया गया है, को पढ़कर विस्मित हुआ। उनकी गद्य कला का भी कायल हुआ। उम्मीद है, उनके पास ऐसी अन्य गद्य रचनाएं भी होंगी। खैर, चंदेल यार तुम अभी भी ब्लॉग से जुड़े हुए हो, यह देखकर भी हैरत होती है, वो इसलिए कि अब ब्लॉग की रीडरशिप बिल्कुल खत्म सी हो गई है। तुम स्वयं देखोगे कि ब्लॉग पर अब लोग टिप्पणी नहीं करते।

बलराम अग्रवाल ने कहा…

उपेंद्र जी निरे कवि नहीं है, और न ही निरे अफसर हैं, उनके इस गुण का पता गत माह या इसी माह के शुरू में डीयर पार्क, दिलशाद गार्डन की एक सुबह चल गया था। आज पहली बार पता चला कि वे कवि अथवा ग़ज़लगो ही नहीं, व्यंग्यकार भी अव्वल दर्जे के हैं। किस धैर्य के साथ चुटकियाँ लेते हुए कहानी लिखी है, वाह! और उससे भी बड़ी वाह भाई चन्देल जी, आपको जिसकी निगाह ने इस उत्तम रचना को परखा और हम तक पहुँचाने का कार्य किया। धन्यवाद।

Ria Sharma ने कहा…

उपेन्द्र कुमार जी को आपके माध्यम से ही पहचान सकी। सुन्दर शैली में कही गई कहानी साझा करने के लिए आपका शुक्रिया चंदेलजी। शीघ्र ही उनकी अन्य रचनाओं से भी रूबरू करवाइएगा।

Live Traffic Feed आपने सही लगाया। सुबह से ग्यारह पाठक पढ़ चुके हैं इसे। हाँ टिप्पणी के मामले में ब्लॉग के पाठक कंजूस हो गए हैं इसमें कोई शक नहीं।

Ria Sharma ने कहा…

उपेन्द्र कुमार जी को आपके माध्यम से ही पहचान सकी। सुन्दर शैली में कही गई कहानी साझा करने के लिए आपका शुक्रिया चंदेलजी। शीघ्र ही उनकी अन्य रचनाओं से भी रूबरू करवाइएगा।

Live Traffic Feed आपने सही लगाया। सुबह से ग्यारह पाठक पढ़ चुके हैं इसे। हाँ टिप्पणी के मामले में ब्लॉग के पाठक कंजूस हो गए हैं इसमें कोई शक नहीं।

PRAN SHARMA ने कहा…

उपेन्द्र कुमार जी के नाम से मैं वाक़िफ़ नहीं था। कभी उनकी कोई कहानी और

ग़ज़ल - कविता पढ़ने का मौक़ा नहीं मिला। उनकी यह कहानी पढ़ कर लगा है

कि वे मंजे हुए रचनाकार हैं। अच्छी कहानी के लिए उनको भरपूर दाद देने को जी

कर रहा है। रूप जी , आपकी कृपा - दृष्टि हर किसी की अच्छी रचना की खोज में

रहती है। आप का जवाब नहीं। आपको ढेरों शुभ कामनाएँ।

अर्चना ठाकुर ने कहा…

बेहद रोचक ,सरस, श्रेष्ट कोटि की उपेन्द्र कुमार जी द्वारा रचित कहानी पढ़वाने का बहुत शुक्रिया.....वास्तव में एक रचनाकार को दूसरा रचनाकार बेहतर समझ सकता है पर बात ये है कि ऐसे अवसर रचनाकार देता कितना है ...आपका प्रयास बहुत सराहनीय है..एक बढ़िया व्यंग रचना है...एक तलवार से तंत्र की अच्छी बखिया उघाड़ी गई है...परन्तु क्षमा के साथ कहना चाहूंगी की काफी फॉण्ट की गलतियाँ है..जिससे कहानी की सरसता में रुकावट आती है....