हम और हमारा समय
‘स्मृति पुरस्कारों’ का मायाजाल
हिन्दी में ब्लॉगों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है। यह सुखद है। ‘वातायन’ का सृजन साहित्य, समाज और संस्कृति से सम्बन्धित उन विषयों पर चर्चा करने के लिए किया गया है जिनका प्रकाशन पत्र-पत्रिकाओं में संभव होते हुए भी प्राय: इसलिए संभव नहीं हो पाता क्योंकि वह पत्र-पत्रिकाओं के संपादकों की नीतियों के विरुद्ध भले ही न हो, लेकिन उनके निजी विचारों के विरुद्ध होता है। यह सर्वविदित है कि हिन्दी साहित्य में कुछ रचनाकार और सम्पादक राजनीति करते हैं। संभव है, सभी भाषाओं में ऐसा हो, लेकिन हिन्दी में यह स्थिति शायद सर्वाधिक है। यहाँ मुझे अपने एक मित्र की बात याद आती है जो उन्होनें लगभग दस वर्ष पूर्व दिल्ली में नार्थ-ब्लॉक के गेट के सामने कही थी। उनका कहना था, ‘‘जो राजनीति करेगा वही साहित्य में चर्चा में रहेगा।" और मैनें कहा था, ‘‘राजनीति वही करते हैं जिनके पास या तो लेखकीय क्षमता नहीं होती या जो चुक चुके होते हैं।" (यहॉं यह बताना अनुचित न होगा कि मेरे वे मित्र साहित्य के पुराने राजिनीतिकार थे और उन दिनों एक प्रकाशक के लिए काम करते हुए अपनी राजनीति की धार को चमका रहे थे।)
‘स्मृति पुरस्कारों’ का मायाजाल
हिन्दी में ब्लॉगों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है। यह सुखद है। ‘वातायन’ का सृजन साहित्य, समाज और संस्कृति से सम्बन्धित उन विषयों पर चर्चा करने के लिए किया गया है जिनका प्रकाशन पत्र-पत्रिकाओं में संभव होते हुए भी प्राय: इसलिए संभव नहीं हो पाता क्योंकि वह पत्र-पत्रिकाओं के संपादकों की नीतियों के विरुद्ध भले ही न हो, लेकिन उनके निजी विचारों के विरुद्ध होता है। यह सर्वविदित है कि हिन्दी साहित्य में कुछ रचनाकार और सम्पादक राजनीति करते हैं। संभव है, सभी भाषाओं में ऐसा हो, लेकिन हिन्दी में यह स्थिति शायद सर्वाधिक है। यहाँ मुझे अपने एक मित्र की बात याद आती है जो उन्होनें लगभग दस वर्ष पूर्व दिल्ली में नार्थ-ब्लॉक के गेट के सामने कही थी। उनका कहना था, ‘‘जो राजनीति करेगा वही साहित्य में चर्चा में रहेगा।" और मैनें कहा था, ‘‘राजनीति वही करते हैं जिनके पास या तो लेखकीय क्षमता नहीं होती या जो चुक चुके होते हैं।" (यहॉं यह बताना अनुचित न होगा कि मेरे वे मित्र साहित्य के पुराने राजिनीतिकार थे और उन दिनों एक प्रकाशक के लिए काम करते हुए अपनी राजनीति की धार को चमका रहे थे।)
हम हिन्दी को विश्वभाषा बनाना चाहते हैं और यह भी चाहते हैं कि उसे संयुक्त राष्ट्रसंघ में मान्यता प्राप्त हो, लेकिन अपने को चर्चा में रखने से लेकर पुरस्कारों तक जो राजिनीति हिन्दी में व्याप्त है उससे उसके भविष्य के विषय में सोचा जा सकता है। पुरस्कारों की स्थिति यह है कि देश की महत्वपूर्ण संस्थाओं में राजनीति इस हद तक प्रविष्ट हो चुकी है कि हिन्दी के वरिष्ठतम लेखकों की महत्वपूर्ण कृतियों को दरकिनार कर किसी पूंजीपति महिला या उच्च-पदाधिकारी के पहले उपन्यास या कविता संग्रह को पुरस्कार के लिए चुन लिया जाता है। इसके अतिरिक्त, स्मृति पुरस्कारों की बाढ़ हमें सोचने के लिए विवश करती है। यहाँ मैं अपनी बात इसी विषय पर केन्द्रित करना चाहता हूँ।
यह स्थिति सुखद ही कही जाएगी कि हिन्दी में निरंतर लेखकों की संख्या बढ़ रही है, पुस्तकें छप रही हैं और छप इसलिए रही हैं क्योंकि वे बिक रही हैं। यह अलग बात है कि वे पाठकों की पहुँच से बाहर सरकारी गोदामों की शोभा अधिक बढ़ा रही हैं। पिछले बीस वर्षों में प्रकाशकों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। कल तक जो किसी प्रकाशक के यहॉं ‘सेल्स’ का काम देखते थे या ‘डिस्पैच’ के लिए बंडल तैयार करते थे, आज वे सफल प्रकाशक हैं। कोई लेखक पचीस-तीस वर्षों के लेखन के बाद भी सफलता-असफलता के बीच झूलता रह सकता है (बल्कि झूलता ही रहता है), लेकिन कोई प्रकाशक पांच-छ: वर्षों में जीवन की उन तमाम सुख-सुविधाओं को जुटा लेता है, अच्छे स्टेट्स के लिए आज जिनकी आवश्यकता है। बात इतनी ही नहीं है। जिस प्रकार लेखकों और प्रकाशकों की संख्या बढ़ी है, उससे भी अधिक पुरस्कारों की संख्या में वृद्धि हुई है। पाँच सौ से लेकर पाँच लाख तक के पुरस्कार दिए जाने लगे हैं। एक समय था जब सब कुछ सीमित था। गिने-चुने पुरस्कार थे। लेकिन आज परिदृश्य बदल गया है। पहले लेखक पुरस्कारों के लिए नहीं लिखता था। पुरस्कार उसकी सोच में नहीं होता था। कुछ वरिष्ठ लेखकों ने कभी पुरस्कार न लेने का निर्णय तक किया हुआ था (भले ही बदली परिस्थितियों में उन्होनें भी अपने निर्णय बदल दिए)। लेखक यह मानकर चलता था कि पुरस्कार लेखक से बड़ा नहीं होता। लेकिन, अब लेखक शायद यह सोचने लगा है कि ‘अमुक’ ‘तमुक’ पुरस्कार पाकर ही वह बड़ा लेखक बन जाएगा। इस विषय में मात्र एक उदाहरण पर्याप्त है। स्व. मनोहर श्याम जोशी को लंबी उपेक्षा के बाद ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ दिया गया था। लेकिन जोशी जी की लेखकीय प्रतिष्ठा में उसने चार चाँद नहीं लगाए थे। जबकि जाशी जी जैसे अनेकों प्रतिष्ठित, और पुरस्कार पाने की योग्यता रखने वाले लेखकों-कवियों की उपेक्षा करके, (एक-दो रचनाकारों को छोड़कर) हिन्दी में जिन लोगों को ‘साहित्य अकादमी’ द्वारा पिछले आठ-दस वर्षों में पुरस्कृत किया गया, उससे ‘साहित्य अकादमी’ प्रश्नों के घेरे में आ गयी। अब वह अपने प्रारंभिक काल जैसी निर्विवादित संस्था नहीं रही।
बहरहाल, आज के लेखक की मानसिकता और उसकी स्थिति को समझकर, उसकी पुरस्कारों की भूख को भांपकर अनेकों संस्थाएं कुकुरमुत्तों की भांति उग आयीं, जिन्होंने एक कहानी, पाँच लघुकथाओं, बाल कहानी संग्रह से लेकर कहानी-कविता संग्रहों, उपन्यास, आलोचना, पत्रकारिता अर्थात् लिखित शब्द की हर विधा तक ही नहीं, वरन टी. वी., रेडियो आदि तक अपने को फैला लिया और पुरस्कारों की बाढ़-सी आ गयी। पुरस्कार पाने के लिए लेखक-कवि एक कहानी, उपन्यास, कविता लिख सरपट- लटपटाते हुए पुरस्कार झपट दौड़ में शामिल होने लगे। पुरस्कार उनकी सीमा बन गये। परिणाम, कुछ और चतुर लोगों ने अपने आत्मीयों के दिवंगत होते ही ‘स्मृति पुरस्कार’ देने प्रारंभ कर दिये। इन स्मृति पुरस्कारों की स्थापना के पीछे आत्मीयों की स्मृति को सुरक्षित रखने या उनके साहित्यिक अवदान के प्रति लोगों को आकर्षित करने से अधिक अपने को चमकाने की मानसिकता अधिक रहती है। इन स्मृति पुरस्कारों की पड़ताल से अनेक रहस्यमय तथ्यों का उदघाटन संभव है। इनमें अनेक उन मृत-व्यक्तियों की स्मृति पर संचालित हैं जिनका साहित्य से कोई लेना-देना नहीं था और यदि था भी तो न के बराबर। एक मित्र का ऐसा ही उदाहरण है। इसे पत्नी के प्रति उनका अगाध प्रेम ही कहा जाएगा, जिसे उन्होंने मरणोपरांत लेखिका ही नहीं बनाया, बल्कि उनकी स्मृति में पुरस्कार भी देने लगे। कल तक जो लोग उन मित्र की उपेक्षा करते थे, अब उनके आगे-पीछे होने लगे। पत्नी के बहाने अब मित्र चमक रहे थे। उनके परिवार के सभी सदस्य चमक रहे थे। प्रतिवर्ष मुख्यमंत्री से लेकर केन्द्रीय मंत्री कार्यक्रम की अध्यक्षता के लिए आने लगे थे। स्पष्ट है कि पचीस-तीस हजा़र रुपये खर्च कर मित्र और उनका परिवार सत्ता के निकट पहुंच गया था, जिसके प्रत्यक्ष-परोक्ष लाभ हैं।
कुछ व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के भी ऐसे ही उदाहरण हैं। लेकिन इन पुरस्कारों के आयोजनों से कुछ चतुर लोग जुड़े हुए हैं जो प्रतिवर्ष पुरस्कार की बंदूक लाला जी के कंधे पर रखकर दागते रहते हैं। इससे लाला जी की दुकान चमक रही है या नहीं, लेकिन आयोजक लोग अपने को चमकाने में अवश्य सफल रहे हैं। ऐसा नहीं है कि सभी स्मृति पुरस्कारों की स्थिति ऐसी ही है। लेकिन, जो निर्विवाद हैं उनकी संख्या बहुत कम है।
ऐसी स्थिति में पुरस्कारों की राजनीति और उसके पीछे दौड़ते लेखकों की कमज़ोरी से लाभ उठाने से वे तत्व पीछे क्यों रहते जो भ्रष्ट, लंपट और हत्यारे हैं, लेकिन सम्पन्न हैं, बड़े व्यावसायिक हैं या उच्चपदासीन हैं। इन पुरस्कारों के लिए बड़े-बड़े दिग्गजों को लार टपकाते और उनके आयोजनों में शिरकत करते देखा गया है।
एक उदाहरण यहाँ भी पर्याप्त है। मार्च, 2006 में दिल्ली में एक ऐसा ही पुरस्कार प्रारंभ किया गया और एक युवा कवयित्री को दिया गया। उस कवयित्री को क्या पता कि जिसकी स्मृति में वह पुरस्कार ग्रहण कर रही थी, उसकी पूंजीवादी मानसिकता, लालच और क्रूरता के कारण उपजी पारिवारिक कलह ने न केवल असमय उसके पिता को निगल लिया था बल्कि उसका एक छोटा भाई भी उसके षड्यंत्रों से आहत होकर मृत्यु का शिकार हो गया था। उन देवी जी के नाम से उसके पति ने न केवल एक स्मृति पुरस्कार प्रारंभ किया बल्कि एक संस्था की स्थापना भी की। उस ‘स्मृति पुरस्कार’ के बहाने अपनी राजनीति चमकाने में निमग्न उसके पति की उसके पिता और परिवार के प्रति किये उसके षड्यंत्र में क्या भूमिका थी, यह जाँच का विषय है। इस पुरस्कार प्रकरण में दो बातें आश्चर्यचकित करने वाली थीं। एक – उस मृत कवयित्री के कवि-स्वरूप का ज्ञान साहित्य जगत को उसके मरणोपरांत हुआ था, और दो– उस स्मृति पुरस्कार समारोह में हिन्दी के अनेक आलोचक, कवि-कवयित्रियाँ, प्राध्यापक, लेखक शामिल हुए थे, जिनमें से अनेकों ने मृत कवयित्री और उनके पति का यशोगान चारणभाव से किया था। इनमें से अनेक ऐसे भी थे जो उस दर्दनाक हादसे से परिचित थे जिसे अंजाम देकर कवयित्री जी दिवंगत हुई थीं। एक ट्रेड यूनियन नेता की हत्या करवाने वाले एक औद्योगिक घराने द्वारा प्रारंभ किये गये एक साहित्यिक पुरस्कार को घृण्य मानने वाले ये बौद्धिक वैसे ही दूसरे पुरस्कार में शामिल होने और चारणभाव से प्रशंसा करने कैसे पहुंच गये थे? क्या इसलिए कि उस स्मृति पुरस्कार को प्रारंभ करने वाले व्यक्ति ने शातिरपन से अपने चारों ओर एक ऐसा भ्रमजाल बुन रखा है जिससे वे उसकी वास्तविक छवि नहीं देख पाये, या हमपेशा- हमजातीय होने के कारण या दोनो ही कारणों से। वास्तविकता जो भी हो, चिन्तनीय और निन्दनीय कही जायेगी।
लेकिन यह हवा जिस दिशा में बह रही है, उससे यह सिलसिला थमता नहीं दिख रहा है। नयी पीढ़ी को ऐसे स्वार्थी तत्वों ने भ्रम में डाल दिया है कि पुरस्कार ही साहित्य में स्थापित होने का एकमात्र आधार है। स्पष्ट है कि पुरस्कार के नाम पर अपने को चमकाने वालों की दुकानें चलती रहेंगी। उनके अपने हित सधते रहेंगें और आम-जन इस मायाजाल को समझने में लहू-लुहान होता रहेगा। ऐसी स्थिति में हिन्दी के विश्व भाषा बनने और संयुक्तराष्ट्र संघ में मान्यता प्राप्त करने के विषय में सोचा जा सकता है।
'हमाम' तो एक ही है
और अंत में -
यह कैसा मार्क्सवाद है कि तसलीमा नसरीन को कलकत्ता छोड़ने के लिए विवश होना पड़ा। समझदार लोग कहते हैं कि राजनीति के कई चेहरे होते हैं। इस विषय में हमारे देश के सभी राजनीतिक दल निर्विवादित हैं।
वातायन
अगला अंक
‘वातायन’ के आगामी अंक में विश्व-प्रसिद्ध रूसी लेखक ‘लियो तोल्स्तॉय’ का संक्षिप्त जीवन-परिचय और कथाकार सुभाष नीरव की लघुकहानियाँ।
'हमाम' तो एक ही है
बाबरी मस्जिद, गुजरात नरसंहार के बाद देश को एक बार पुन: नन्दीग्राम में शर्मशार होना पड़ा। मेधा पाटकर के मुंह पर तमाचा मारकर उन्हें अपमानित किया गया। बुद्धिजीवियों, कलाकारों, साहित्यकारों, पत्रकारों ने विरोध प्रदर्शन किया। लेकिन पश्चिम बंगाल के प्रबुद्ध राजनीतिज्ञों ने नन्दीग्राम की घटना को उचित ठहराया। अत: इस देश में पार्टियां, उनके घोषणा-पत्र आदि भले ही अलग-अलग हों, लेकिन वे जिस हमाम में ऊभ-चूभ हैं, वह एक ही है, जिसे ‘सत्ता का हमाम’ कहते हैं।
और अंत में -
यह कैसा मार्क्सवाद है कि तसलीमा नसरीन को कलकत्ता छोड़ने के लिए विवश होना पड़ा। समझदार लोग कहते हैं कि राजनीति के कई चेहरे होते हैं। इस विषय में हमारे देश के सभी राजनीतिक दल निर्विवादित हैं।
वातायन
अगला अंक
‘वातायन’ के आगामी अंक में विश्व-प्रसिद्ध रूसी लेखक ‘लियो तोल्स्तॉय’ का संक्षिप्त जीवन-परिचय और कथाकार सुभाष नीरव की लघुकहानियाँ।
13 टिप्पणियां:
भाई चन्देल, आख़िर तुमने भी नेट पर ब्लाग की महत्ता को समझा। यह अभिव्यक्ति का एक आधुनिक सशक्त माध्यम है और इसका हमें वर्तमान समय में अपनी स्वतंत्र अभिव्यक्ति के लिए सदुपयोग करना ही चाहिए। बहुत खूबसूरत ब्लाग है और तुम्हारी वैचारिक सोच और पक्ष को सामने लाता है। आज नेट पर ब्लागों की भरमार है किन्तु साफ़-सुथरे और लीक से हटकर ब्लाग अभी गिने-चुने ही हैं। आने वाले वक्त में इनकी संख्या बढ़ेगी, इसमें कोई सन्देह नहीं। "वातायन" के पहले ही अंक में जो गम्भीर, प्रासंगिक और ज्वलंत मुद्दे तुमने उठाये हैं, वो एक संवेदनशील और ईमानदार लेखक की सोच और उसकी वैचारिक पक्षधरता को स्पष्ट करते हैं। आशा है, "वातायन" भविष्य में और अधिक गम्भीर मुद्दों को उठाएगा। बहुत-बहुत बधाई !
एक नया रूप धर कर आए हो
बातें खूब अच्छी सी बताए हो
चांद सा रूप भला तुम्हारा है
सिंह जैसी दहदहाड़ गर्जाए हो
कहानियां तो तुम्हारी मन को भाती हैं
आप कैसे कहते हो छप नहीं पाती हैं
मुद्दे खूब अच्छे हैं जो तुमने उठाए हैं
चर्चा में आएं, चर्चा बन घनघोर छाएं
ऐसी उम्मीद जगी है, तुमने जगाई है
आग लगाई है जो ब्लॉग के जरिए पाई है
चिंगारी शोला बन के दहक दहक जाएगी
हर ब्लॉग में उसकी महक महक आएगी
मै यहां पर कविताएं देखने का प्रयत्न कर रहा था..
कवि कुलवंत सिंह
कोई भी लेखक पुरुस्कारों के लिए नही लिखता है..क्या लिखने पर क्या मिलता है इस लिए भी कोई नही लिखता है..और पुरुस्कार मिलने यां न मिलने से भी किसी अच्छे लेखक के लेखन पर असर नही पड़ता है, तो फिर विचारों का यह विरोधाभास क्यों ?
भाई चन्देल का यह आलेख उन्हीं विरोधाभासों की ओर संकेत कर रहा है भाई कुलवंत जी! छोटे से लेकर बड़े पुरस्कारों की चयन समितियों में बैठे मुखौटाधारी विद्वान लोग किस तरह मुड़-मुड़ अपने-अपने लोगों को रेवड़ियाँ बाँटते हैं, यह क्या अब किसी से छिपा है? उन्हें तो लगता है, साहित्य की सच्ची और नि:स्वार्थ सेवा वही कर रहे हैं। इनके चेहरों पर से नकाब तो उतारने ही चाहिएं न! भाई चन्देल ने यह साहस दिखलाया है तो उसकी तारीफ़ तो करनी ही पड़ेगी।
आदरणीय भाई रुपचंदेल जी,'वातायन' हिन्दी ब्लाग से गुजर कर हृदय में हर्ष हुआ । खूबसूरत और साफ़-सुथरे ब्लाग के लिये आपको बधाई । प्रवेशांक में ही 'स्मृति पुरस्कारों के मायाजाल' का खुलासा हिन्दी सहित्य में आपके द्वारा एक स्वस्थ परंपरा की शुरुआत है ।"हम और हमारा समय' के बहाने उठाया गया सवाल ज्वलंत और श्लाध्य है । उपन्यास- सम्राट प्रेमचंद के अनुसार एक लेखक स्वयं दीपक की तरह जल-जलकर प्रकाश बिखेरता है । लेकिन आज पुरस्कारों के पीछे की ओछी राजनीति का मूल कारण है लेखक-कवियों की अपना नाम कमाने की अंधी होड़ । यह साहित्य में बाजारवाद और मार्केटिंग के बढते प्रभाव के चलते फलित हो रहा है । प्रकाशक सिर्फ़ अपनी चांदी काटने में मशगुल हैं और इस राजनीति में परोक्ष रुप से शामिल भी हैं । ....नंदीग्राम भी जल रहा है । यह और तसलीमा का कोलकाता से उच्छेदीकरण के मसले पर प. बंगाल में मार्क्सवादियों के मुखौटे के पीछे का असली चेहरा भी साफ़ हो चुका है । संक्षेप में, 'वातायन' ने सामयिक और सही मुद्दा उठाया है ।आशा है,ब्लाग अपनी पहचान बनायेगी ।
--सुशील कुमार ।
Well done. It's commedable work. Hope and wish for good success.
J.L.GUPTA
सुशील कुमार जी के यहां ‘वातायन‘ देखा । स्मृति पुरस्कारों को लेकर पहले अंक में आपने जो मुद्दा उठाया है,उसके पीछे जो विडंबनाएं और विसंगतियां हैं उससे सच्चे साहित्यसेवियों की बड़ी क्षति हो सकती है । इसलिये आज के परिदृश्य में यह आलेख प्रासंगिक और महत्वपूर्ण साबित होता है । बारीकी से इसकी पड़ताल होनी चहिए । तभी कवि-लेखकों का सही मूल्यांकन हो सकेगा । भविष्य में आप हिंदी साहित्य के अनुवाद के क्षेत्र में रचे जा रहे प्रपंच को भी बेनकाब करें और बहस में लोगों को शामिल करें ।शुभकामनाएं।--अशोक सिंह, कवि, पुराना दुमका, दुमका, झारखंड-८१४१०१
Dear Chandel,
Hearty congratulations for giving your thoughts a wonderful channel of modern world to mobilize the literary world as well as the intellectual masses. This effort would enable the writers to express their views in a democratic and fearless manner without any interference of editors. I hope such efforts would discourage the opportunist approach and stop the intrusion of cheap literary politicians. Your first explosion on corrupt practice of rewards distribution is worth appreciable to expose the new literary feudal lords and their slaves.
Wish you success to keep this spirit up for ever!
Dear Chandel,
Hearty congratulations for giving your thoughts a wonderful channel of modern world to mobilize the literary world as well as the intellectual masses. This effort would enable the writers to express their views in a democratic and fearless manner without any interference of editors. I hope such efforts would discourage the opportunist approach and stop the intrusion of cheap literary politicians. Your first explosion on corrupt practice of rewards distribution is worth appreciable to expose the new literary feudal lords and their slaves.
Wish you success to keep this spirit up for ever!
Ish kumar Gangania
Chandel ji
aapke vaatayan ke safar ke saath ye pratikriya
नीरव said...
भाई चन्देल का यह आलेख उन्हीं विरोधाभासों की ओर संकेत कर रहा है भाई कुलवंत जी! छोटे से लेकर बड़े पुरस्कारों की चयन समितियों में बैठे मुखौटाधारी विद्वान लोग किस तरह मुड़-मुड़ अपने-अपने लोगों को रेवड़ियाँ बाँटते हैं, यह क्या अब किसी से छिपा है? उन्हें तो लगता है, साहित्य की सच्ची और नि:स्वार्थ सेवा वही कर रहे हैं। इनके चेहरों पर से नकाब तो उतारने ही चाहिएं न! भाई चन्देल ने यह साहस दिखलाया है तो उसकी तारीफ़ तो करनी ही पड़ेगी।
padkar bahut hi acha laga. ye to duniyadaari bhi hai jismein siyasat miljul kar saans le rahi hai.
Jubh sach ke paav ladkhadaaye
Vahi jhoot ne apne dere jamaaye
Devi
Dear Chandel Saheb,
Congratulating u for ur unveiling the another face of our literary world, particularly hindi literary world, as I really do not know about the other languages. But definitely, it is a cruel reality of our time and I suppose we have let ourselves indulge in such irrational activities with or without our will as our inner conscious stops our way to oppose these types of awards selection because of one reason or other whatsoever it is without knowing the rights & the wrongs of our system whereas it is our moral & social responsibility to oppose all the wrong ones happening around us .This is affecting our thoughts, our value system even our whole life. You have certainly peeped through the windows where sky is not the blue. Keep it up. I will also like to contribute to ur blog as to my own ability.
Ramesh Kapur
Vaatayan Ko dekh-padhkar uspar tippani chhodne wale mitron ko dhanyvad.
Chandel
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