हम और हमारा समय
रूपसिंह चन्देल
रूपसिंह चन्देल
जनवरी, 2008 अंक में इसी स्तंभ के अंतर्गत लघुकथा को लघुकहानी कहते हुए मैनें कथाकार सुभाष नीरव की लघु कहानियां प्रकाशित की थीं। इस विधा में मैंने भी पर्याप्त लिखा है और ‘कुर्सी संवाद‘ तथा ‘कथाबिंदु‘ (सहयोगी रचनाकार– सुभाष नीरव और हीरालाल नागर) पुस्तकों को लघुकथा संग्रह कहा था। 1990 में प्रकाशित ‘प्रकारातंर’ (सम्पादित) को भी लघुकथा संकलन ही कहा था। लेकिन अब मैं यह अनुभव करता हूं, और जैसाकि वातायन के जनवरी अंक में मैनें कहा था, इस विधा को लघु कहानी ही कहा जाना चाहिए। मुझसे पहले भी कुछ रचनाकारों ने यह मुद्दा उठाया था।
दिसम्बर 2007 के ‘नया ज्ञानोदय‘ में डॉ0 गोपाल राय ने अपने आलेख ‘आलोचना में पारिभाषिक पदों के प्रयोग की अराजकता’ में इस विषय पर अपनी महत्वपूर्ण टिप्पणी की है । वह लिखते हैं –– ‘‘हिन्दी में ‘शार्ट स्टोरी‘ के लिए ‘आख्यायिका‘ और ‘गल्प पदों‘ का प्रयोग इतना प्रचलित हो चुका था कि उन्होनें अपनी वैसी रचनाओं के लिए कहानी, आख्यायिका, और गल्प पदों का प्रयोग साथ-साथ किया । पर हम जानते हैं कि हिन्दी में ‘शार्ट स्टोरी‘ के लिए ‘आख्यायिका‘ और ‘गल्प पद‘ नहीं चले, जिसका श्रेय रामचंद्र शुक्ल को है। उन्होंनें ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास में‘ शार्ट स्टोरी के लिए ‘छोटी कहानी‘ पद का प्रयोग किया जो उनके बाद ‘कहानी‘ के रूप में प्रचलित हुआ। आज भी यही पद सामान्य रूप से प्रचलित है पर इधर कुछ दिनों से ‘कहानी‘ के लिए ‘कथा‘ पद का भी प्रयोग होने लगा है जो भ्रमोत्पादक है । उसी के तर्ज पर ‘लघुकथा‘ पद तो और भी अनर्थकारी है।”
अत: लघुकथा के लिए ‘लघुकहानी‘ कहीं अधिक उपयुक्त, सार्थक एवं तर्कसंगत है । आशा है इस दिशा में सक्रिय रचनाकार इस विषय पर गंभीरता से विचार करेंगे। प्रस्तुत हैं कथाकार महेश दर्पण की दो लघु कहानियॉं। अन्य भाषाओं से हिन्दी में होने वाले ‘अनुवाद’ की वर्तमान स्थिति पर कवि सुशील कुमार का आलेख प्रकाशित किया जा रहा है। सुशील ने निश्चित ही एक गंभीर मुद्दा उठाया है, जिस पर विचार किया जाना चाहिए।
महेश दर्पण की दो लघु कहानियाँ
शाट
किसी का बेटा जा चुका था तो किसी की मां गुजर चुकी थी। किसी की बीवी नहीं रही थी तो किसी का पिता दम तोड़ चुका था। कोई बाल-बाल बच गया था तो किसी को दहशत मारे डाल रही थी ।
विस्फोट के बाद तीसरे दिन भी शहर के ज्यादातर लोग बेहद परेशान थे। किसी का बेटा अस्पताल में था तो किसी की मां। किसी की कोई खबर नहीं थी तो कोई पहचान में ही नहीं आ पा रहा था पुलिस के कहने के बावजूद कोई यह मान ही नहीं रहा था कि उसका भाई नहीं रहा तो कोई ऐन शिनाख्त के वक्त ही दम तोड़े दे रहा था। लोग पगलाये से इधर से उधर भाग रहे थे।
अखबार वाले ही नहीं , टीवी चैनलों वाले भी दौड़- दौड़ कर पीडि़तों से उनका हाल पूछने में लगे हुए थे।
एक चैनल वाला अपने आफिस को रिपोर्ट कर रहा था, “अब तक 60 से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं और इससे भी ज्यादा घायल हो गए हैं।
शहर की एक बच्ची इस सबसे बेखबर थी। बच्ची ने अपनी प्यारी गुड़िया को कस कर पकड़ा हुआ था। अपने में डूबी।, गुड़िया थामे वह जाने किस तरफ बढ़ी चली जा रही थी।
ठीक इसी वक्त उस पर भी किसी चैनल वाले की नजर पड़ गई। वह फौरन उसकी तरफ लपका – “ए बच्ची , कहां जा रही हो?”
“जिदल मेरी गुलिया को कोई खतरा न हो।“
“तुम्हें डर नहीं लगता?”
“मेली गुलिया है तो साथ में।“
चैनल वाला उसकी मासूमियत के सामने इस कदर बेबस हो गया कि उसे यह खयाल ही न रहा कि गुड़िया लिए उस बच्ची का शाट अपने चैनल के लिए रिकॉर्ड कर ले। देखते-देखते वह उसकी नजरों से ओझल हो गई।
आदत
दफ्तर जाते समय वह हर रोज गली के नुक्कड़ पर पहुंच कर पल भर को रुकता। पलट कर देखता और हाथ कुछ ऊपर उठा कर हिला देता।
दिसम्बर 2007 के ‘नया ज्ञानोदय‘ में डॉ0 गोपाल राय ने अपने आलेख ‘आलोचना में पारिभाषिक पदों के प्रयोग की अराजकता’ में इस विषय पर अपनी महत्वपूर्ण टिप्पणी की है । वह लिखते हैं –– ‘‘हिन्दी में ‘शार्ट स्टोरी‘ के लिए ‘आख्यायिका‘ और ‘गल्प पदों‘ का प्रयोग इतना प्रचलित हो चुका था कि उन्होनें अपनी वैसी रचनाओं के लिए कहानी, आख्यायिका, और गल्प पदों का प्रयोग साथ-साथ किया । पर हम जानते हैं कि हिन्दी में ‘शार्ट स्टोरी‘ के लिए ‘आख्यायिका‘ और ‘गल्प पद‘ नहीं चले, जिसका श्रेय रामचंद्र शुक्ल को है। उन्होंनें ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास में‘ शार्ट स्टोरी के लिए ‘छोटी कहानी‘ पद का प्रयोग किया जो उनके बाद ‘कहानी‘ के रूप में प्रचलित हुआ। आज भी यही पद सामान्य रूप से प्रचलित है पर इधर कुछ दिनों से ‘कहानी‘ के लिए ‘कथा‘ पद का भी प्रयोग होने लगा है जो भ्रमोत्पादक है । उसी के तर्ज पर ‘लघुकथा‘ पद तो और भी अनर्थकारी है।”
अत: लघुकथा के लिए ‘लघुकहानी‘ कहीं अधिक उपयुक्त, सार्थक एवं तर्कसंगत है । आशा है इस दिशा में सक्रिय रचनाकार इस विषय पर गंभीरता से विचार करेंगे। प्रस्तुत हैं कथाकार महेश दर्पण की दो लघु कहानियॉं। अन्य भाषाओं से हिन्दी में होने वाले ‘अनुवाद’ की वर्तमान स्थिति पर कवि सुशील कुमार का आलेख प्रकाशित किया जा रहा है। सुशील ने निश्चित ही एक गंभीर मुद्दा उठाया है, जिस पर विचार किया जाना चाहिए।
महेश दर्पण की दो लघु कहानियाँ
शाट
किसी का बेटा जा चुका था तो किसी की मां गुजर चुकी थी। किसी की बीवी नहीं रही थी तो किसी का पिता दम तोड़ चुका था। कोई बाल-बाल बच गया था तो किसी को दहशत मारे डाल रही थी ।
विस्फोट के बाद तीसरे दिन भी शहर के ज्यादातर लोग बेहद परेशान थे। किसी का बेटा अस्पताल में था तो किसी की मां। किसी की कोई खबर नहीं थी तो कोई पहचान में ही नहीं आ पा रहा था पुलिस के कहने के बावजूद कोई यह मान ही नहीं रहा था कि उसका भाई नहीं रहा तो कोई ऐन शिनाख्त के वक्त ही दम तोड़े दे रहा था। लोग पगलाये से इधर से उधर भाग रहे थे।
अखबार वाले ही नहीं , टीवी चैनलों वाले भी दौड़- दौड़ कर पीडि़तों से उनका हाल पूछने में लगे हुए थे।
एक चैनल वाला अपने आफिस को रिपोर्ट कर रहा था, “अब तक 60 से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं और इससे भी ज्यादा घायल हो गए हैं।
शहर की एक बच्ची इस सबसे बेखबर थी। बच्ची ने अपनी प्यारी गुड़िया को कस कर पकड़ा हुआ था। अपने में डूबी।, गुड़िया थामे वह जाने किस तरफ बढ़ी चली जा रही थी।
ठीक इसी वक्त उस पर भी किसी चैनल वाले की नजर पड़ गई। वह फौरन उसकी तरफ लपका – “ए बच्ची , कहां जा रही हो?”
“जिदल मेरी गुलिया को कोई खतरा न हो।“
“तुम्हें डर नहीं लगता?”
“मेली गुलिया है तो साथ में।“
चैनल वाला उसकी मासूमियत के सामने इस कदर बेबस हो गया कि उसे यह खयाल ही न रहा कि गुड़िया लिए उस बच्ची का शाट अपने चैनल के लिए रिकॉर्ड कर ले। देखते-देखते वह उसकी नजरों से ओझल हो गई।
आदत
दफ्तर जाते समय वह हर रोज गली के नुक्कड़ पर पहुंच कर पल भर को रुकता। पलट कर देखता और हाथ कुछ ऊपर उठा कर हिला देता।
दरवाजे से लगी सीढि़यों पर खड़ी पत्नी उसकी ओर देखती जवाब में हाथ हिलाती नजर आती। उसका हिलता हाथ देख कर वह सुकून से भर जाता और फिर पलट कर अपने रास्ते चल देता। उसे मालूम रहता कि इसके बाद भी पत्नी कुछ देर और उसे ओझल होते देखती रहेगी और फिर दरवाजा उढ़का कर अपने रोजमर्रा के काम-काज में मगन हो जाएगी।
रोज की तरह आज भी यही हुआ। उसने नुक्कड़ पर पहुँच कर पल भर के लिए खुद को रोका। फिर पलट कर जैसे ही हाथ ऊपर उठा कर हिलाने को हुआ, उसे खुद पर हंसी आ गई। दरवाजे पर पत्नी भला कहाँ से नजर आती। वह तो खुद उसे खाट पर बीमार हालत में छोड़ कर आया है। उसका उठा हुआ हाथ कुछ मरियल अंदाज में नीचे आया। इसके बाद वह पलट कर चल जरूर दिया, लेकिन रह-रह कर जाने क्यों उसे यही लगता रहा जैसे आज कुछ छूटा जा रहा है।
रोज की तरह आज भी यही हुआ। उसने नुक्कड़ पर पहुँच कर पल भर के लिए खुद को रोका। फिर पलट कर जैसे ही हाथ ऊपर उठा कर हिलाने को हुआ, उसे खुद पर हंसी आ गई। दरवाजे पर पत्नी भला कहाँ से नजर आती। वह तो खुद उसे खाट पर बीमार हालत में छोड़ कर आया है। उसका उठा हुआ हाथ कुछ मरियल अंदाज में नीचे आया। इसके बाद वह पलट कर चल जरूर दिया, लेकिन रह-रह कर जाने क्यों उसे यही लगता रहा जैसे आज कुछ छूटा जा रहा है।
3 टिप्पणियां:
My dear Chandel,
Gone through your Feb issue. Good work done. Keep it up.
I. BURMAN
Sir,
Congratulations on the arrival of your Blog. You will certainly have a Global appeal now.
Sandeep Joshi
Achchhi laghu kathaen bana laghu kahaniyan padhvaane ke liye dhanywad
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