हम और हमारा समय
स्वैच्छिक सेवा अवकाश ग्रहण के लगभग एक वर्ष बाद एक दिन मेरा एक सहयोगी एक कार्यक्रम में मुझे मिला. देर तक बातचीत के बाद उसने एक ऎसा प्रश्न किया जिसने मुझे चौंका दिया था.
"आपका धंधा कैसा चल रहा है ?" उसने पूछा था.
"कौन-सा धंधा ?"
"वही, लिखने का…" उसने मेरे चेहरे के भाव पढ़ने का प्रयत्न किया, फिर बोला, "इन्कम तो अच्छी हो जाती होगी ?"
मैंप. उसे क्या उत्तर दूं सोचता रहा. उत्तर न देना ही बेहतर था. वह भी शायद इस बात को समझ गया था. वह हर काम को अर्थ से जोड़कर देखने वालों में से था. अपनी जगह वह गलत भी न था. यदि मेरे लिखने से आय नहीं होती तो मैं लिखता ही क्यों हूं ? और यदि आय है तो उसकी दृष्टि में मेरा लेखन-कर्म 'धंधा' ही हुआ. यह एक सामान्य-जन का प्रश्न था, जिसके पास मेरे काम के मूल्यांकन के लिए वही उपयुक्त शब्द था. लेकिन जब एक वरिष्ठ कथाकार और एक बड़ी कथा-पत्रिका के संपादक ने प्रश्न किया कि 'आपने कभी सोचा कि आप क्यों लिखते हैं ?" पहली बार उनके प्रश्न से कुछ भी अटपटा नहीं लगा था, परन्तु उन्होंने जब महीनों के अंतराल में तीन बार यही प्रश्न दोहराया तब अस्वाभाविक लगना स्वाभाविक था और उसके निहितार्थ को समझना भी आवश्यक था. प्रश्न देखने में जितना सहज दिखता है, उत्तर भी उतना ही सीधा-सहज हो सकता है, लेकिन सम्पादक जी के पूछने में जो असहजता थी उसने मेरे लिए प्रश्न को अधिक ही गूढ़ बना दिया था.
भले ही संपादक जी वर्षों पहले लिखना छोड़ चुके थे और अपनी पत्रिका के माध्यम से न लिखने के कारणों की चर्चा कर विवाद भी पैदा कर चुके थे (क्योंकि विवादों में रहना उनकी फितरत है). एक समय वह हिन्दी कथा-साहित्य के चर्चित हस्ताक्षरों में थे (और चर्चा का आधार साहित्य की उत्कृष्टता से नहीं अन्य कारणों से था, यह आज हिन्दी साहित्य के इतिहास में दर्ज है) और "'वह क्यों लिख रहे थे ?" उनसे उलट प्रश्न पूछा जा सकता था. वह आज भी कभी मन बहलाने के लिए लिख लेते हैं और अपनी पत्रिका के माध्यम से अपने कुछ चाटुकारों को 'प्रमोट' करने में ऎड़ी-चोटी का जोर भी लगा देते हैं. लेकिन क्या उन्होंने कभी अपने किसी चाटुकार से पूछा कि 'वह' क्यों लिखता है ? शायद उनकी दृष्टि में 'वह' समकालीन साहित्य का सर्वश्रेष्ठ लिख रहा है. लेकिन 'सर्वश्रेष्ठ' को किसी के प्रमोशन की दरकार नहीं होती… पाठक उसे खोज ही लेते हैं. जब संपादक जी अपने किसी चाटुकार की किसी पुस्तक की एकाधिक समीक्षाएं एक ही अंक में प्रकाशित करते हैं तो उसके 'सर्वश्रेष्ठ' को लेकर उनके अंदर के भय और उहापोह को सहजता से समझा जा सकता है.
इन्हीं वरिष्ठ कथाकार और सम्पादक जी के प्रश्न ने मुझे प्रेरित किया है कि इस विषय पर मैं अपने कुछ वरिष्ठ और समकालीन लेखकों से 'वातायन' में लिखने के लिए अनुरोध करूं. वरिष्ठ चित्रकार और साहित्यकार हरिपाल त्यागी जी ने मेरे अनुरोध की रक्षा करते हुए इस विषय पर लिखा जिसे मैं इस अंक में प्रस्तुत कर रहा हूँ. इस श्रंखला को जारी रखने का प्रयास रहेगा.
मैं क्यों लिखता हूं?
हरिपाल त्यागी
दुनिया में शायद ही कोई ऎसा विषय हो जहां लेखन के बिना काम सधता हो. लेकिन इस प्रश्न के पीछे 'लिखने' का मतलब सृजनात्मक साहित्यिक लेखन से है. हमारी चर्चा का विषय भी साहित्यिक लेखन पर ही केन्द्रित है. यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है कि एक चित्रकार के रूप में अपनी पहचान बनाने के बावजूद मैं लिखता-पढ़ता भी हूं और यह मेरी मानसिक खुराक में शामिल है.
मैं क्यों लिखता हूं – यह प्रश्न मेरे लिए अब नया नहीं रह गया है. पहले भी मैंने अपने लिखने के कारणॊं पर छिटपुट टिप्पणियां की हैं और इस प्रश्न के पीछे छिपे मंतव्यों को समझने की कोशिश की है. ऊपर से देखने में प्रश्न जितना सीधा-सपाट लगता है, उतना है नहीं, अपने गर्भ में अनेकानेक मंतव्यों, आशयों और जिज्ञासा के कारण यह बहुत-सी जटिलताएं समेटे हुए है. उनमें से कुछ आशय और मंतव्य समय के साथ-साथ खुद भी बदलते गए हैं.
प्रश्न के भीतर छुपे वे नये और पुराने उद्देश्य क्या हैं या क्या हो सकते हैं, पहले यह जान लेना जरूरी है, ताकि उत्तर सही-सही और सिलसिलेवार दिया जा सके. मसलन, एक मंतव्य तो यही हो सकता है कि एक चित्रकार, जो अपने विचारों और मनोभावों को रंग और रेखाओं के प्रयोग से अभिव्यक्त करता आया है, के लिए सृजनात्मक लेखन क्यों जरूरी हुआ? इसके साथ यह आशंका भी चिपकी हो सकती है कि शायद लाख कोशिश के बाद, मैं उतना अच्छा लेखक सिद्ध न हो पाऊं जितना चित्रकार के रूप में सिद्ध हो चुका हूं. कहीं ऎसा न हो कि दोनों दिशाओं में हाथ मारने से मैं इधर का रहूं, न उधर का. मेरे एक-दो शुभचिंतकों ने तो चेतावनी ही दे डाली कि चित्रकला के मुकाबले लेखन मेरे लिए घाटे का सौदा है और बैठे-बिठाए जोखिम मोल लेने वाली बात है. आज हिन्दी का बड़े से बड़ा लेखक भी यह दावा नहीं कर सकता कि केवल लेखन के बल पर उसे आर्थिक निश्चितंता प्राप्त है और वह अपनी आजीविका सम्मानपूर्वक चला सकता है. अलावा इसके, लेखन से हाल-फिलहाल किसी सामाजिक परिवर्तन की बात भी गले नहीं उतरती. विश्व पूंजीवाद के मौजूदा दौर में, जबकि मूल्यों का लगातार ह्रास हो रहा है और उन में साहित्यिक मूल्यों को भी शामिल करके देखा जाना चाहिए, साहित्य-सृजन एकदम गैरजरूरी हो गया है. सरकारी और गैर सरकारी साहित्यिक सम्मान, पुरस्कार और अभिनंदन लोमड़ियों द्वारा मुर्गों के गुणगान के समान हैं. लेखकीय गरिमा और प्रतिष्ठा में इन से कोई इजा़फा नहीं हुआ है. यह सारा तंत्र संदेह के घेरे में है, जहां उद्देश्य साहित्य का विकास न होकर कुछ और है.
मैं अपने शुभचिंतकों की बात से सहमत हूं, फिर भी लिखने की जिद पर अड़ा हूं. यह जिद मेरी जीवन प्रणाली का हिस्सा है. अगर बात को बदले की भावना से कहा हुआ न माना जाए तो मैं कहना चाहूंगा कि मैंने अनेक साहित्यकारों को पढ़ा है और अब मुझे भी यह अधिकार है कि दूसरों को अपना लिखा पढ़ाऊं. जब दूसरे सभी मेरे हमसफ़र जिंदगी की मार झेल सकते हैं तो मैं उनसे अलग क्यों रहूं?
चित्रकला और साहित्य एक-दूसरे का विकल्प नहीं हैं और दोनों विधाओं की अपनी अलग-अलग स्वायत्तता है. दोनों एक-दूसरे की पूरक हो सकती हैं, लेकिन एक-दूसरे का स्थान नहीं ले सकतीं. इन दो विधाओं के अलावा, अगर मैं अपनी आनंदानुभूति में नाचना भी शुरू कर दूं तो इस में किसी को क्यों आपत्ति हो? मेरे ख़याल से एक पढे़-लिखे व्यक्ति से ऎसे प्रश्न करना कि वह लिखता क्यों है, पढ़ता क्यों है निहायत बेतुकी बात है.
उनका यह भी कहना है कि मौजूदा दौर में बड़ी तेजी से एक ऎसा समाज विकसित हो रहा है जो साहित्य-कला एवं सांस्कृतिक गतिविधियों के प्रति उदासीन रवैया अपनाता है या फिर इन्हें बाजारवाद की जरूरत के मुताबिक ढाल कर देखता है. सारे कला मूल्य और गुणवत्ता कागज के चंद टुकड़ों में तब्दील हो रहे हैं. करोड़ों की नीलामी के शोर-शराबे में कला संवेदना और कलात्मक गुणवत्ता दम तोड़ रहे हैं. साहित्य का तो और भी बुरा हाल है- प्रसिद्ध कवि नागार्जुन को भी कहना पड़ा था : "प्रभु तुम कर दो वमन / होगा मेरी क्षुधा का शमन." ऎसे में मैं क्यों लिखता हूं या कोई भी क्यों लिखता है यह जानना बहुत जरूरी है.
विकसित होते हुए साहित्यिक संस्कारों से वंचित और उदासीन धन-पशुओं का समाज किसी भी सच्चे कलाकार या साहित्यकार के लिए आदर्श नहीं हो सकता, उसकी प्रवृत्तियों को उजागर करने में लेखन भी एक कारगर हथियार है. आखिर साहित्य जीवन की आलोचना के अलावा और है भी क्या. हालांकि जीवन सभी के लिए एक जैसा नहीं है, इसलिए लेखन के उद्देश्य और कारण भी समान नहीं है. कोई एक लेखक भी कई विभिन्न कारणॊं से लिख सकता है.
देखा जाए तो न लिखने के पक्ष में और भी अनेक तर्क दिए जा सकते हैं, दिए जाते भी हैं. शायद इन्हीं तर्कों -कुतर्कों के वशीभूत रेस के कई घोड़े हताश होकर लेखन से किनारा कर बैठे हैं. अपने को प्रयोगधर्मा बताने वाले एक सुपरिचित वरिष्ठ कथाकार ने तो न लिखने का कारण भी लिखित रूप में प्रस्तुत किया था, हालांकि इस एक कारण को बताने में वे कुछ शरमा जाते हैं कि वे चुक गए हैं, जबकि मुख्य कारण यही है. समझदारी का सबूत देते हुए एक दूसरे लेखक ने, न लिखने के पक्ष में कोई दलील न देते हुए और जितना लिख चुके हैं उसे ही पर्याप्त समझते हुए, शायद दूसरों को मौका देने के लिए ही, स्वयं लेखन को तिलांजलि दे दी. अब वे लाख उकसाने के बावजूद स्थितप्रज्ञ अवस्था में ही हैं और सिर्फ 'हां-हूं' करके रह जाते हैं किसी रचनाकार को पारिश्रमिक दें, न दें, लेकिन किसी लेखक या कवि को पहलवान बनाने में पीछे रहने वाले नहीं. आलोचना-साहित्य को सृजनात्मकता से जोड़नेवाले एक और जाने-माने साहित्यकार धीरे-धीरे लेखन से विरक्त होते गए, फिर भी चुप होकर नहीं बैठे - एक अदद माइक देखते ही आज भी आंखों में चमक आ जाती है. उदार इतने कि दुश्मनों पर प्यार उमड़ने लगे. मूड न हो तो दोस्तों से कतराकर निकल जाएं- वक्त के अनुकूल ही उनका अगला कदम उठेगा, यह तय है.
आदर्श बुद्धिजीवी का लक्षण है कि वह प्रत्येक सही बात पर असहमत हो. दिग्गजों ने लिखना छोड़ा - यह तो ठीक, लेकिन बुद्धिजीवी को किसी के बोलने पर भी आपत्ति है. रचनाकारों को सभी सृजनात्मक कष्टों से उबारने के लिए वे उन्हें मीडिया विमर्श के बारे में बताते हैं और तकनीकी लेखन अपनाने की सलाह दे डालते हैं, क्योंकि पुस्तक मेलों में पाकशास्त्र और कढा़ई -बुनाई का साहित्य कथा-कहानी और कविता वगैरह से कहीं ज्यादा बिकता देखा गया है. किसी भी क्षेत्र में जमने के लिए माल का ब्रांडेड होना जरूरी है. जो ब्रांड होने की क्षमता नहीं रखता उसे जिन्दगी घसीटनी ही पड़ेगी और आने वाले प्रत्येक दिन में उस पर जिन्दगी का बोझ बढ़ता जाएगा.
ऎसे मूल्यवान सुझावों को बेगौर करते हुए, साथ ही, लेखन से जुड़े सभी नये-पुराने खतरों का जोखिम उठाते हुए मैं लगातार लिख रहा हूं और कभी-कभी खुद से ही पूछने लगता हूं कि आखिर वे कारण हैं क्या जिन के वशीभूत मैं कलम उठाने को मजबूर हो जाता हूं. तब 'समझदारी से भरी' किसी भी बात का असर मुझ पर क्यों नहीं हो पाता ? लेखन से जुड़े खतरे मेरे इरादे को बदल क्यों नहीं पाते? बल्कि, तमाम दुख-तकलीफ के बीच मैं आत्मतुष्टि और रचनात्मक आह्लाद के क्षण भी निकाल ही लेता हूं… और ये ही वो लम्हे हैं जो मुझे आगे और लिखने की प्रेरणा तथा शक्ति से भर देते हैं. खुशी और सुखानुभूति से भरे वे क्षण, जिन में मेरी बेचैनियां, पीड़ाएं और मानसिक कसमसाहटें भी शामिल हैं, मुझे लिखने को विवश करते रहे हैं और यह ऎसा नशा है जिसके सामने दुनिया के सभी नशे फीके पड़ जाते हैं.
साहित्यिक रेस के वे घोड़े कभी मेरे प्रिय लेखकों में हुआ करते थे. जब वे ही बेजार हो कर बैठ गए तो मेरा यह दायित्व बनता है कि बढ़ कर साहित्य की मशाल स्वयं थाम लूं. हालांकि, साहित्य-कला और संस्कृति के क्षेत्र में कोई किसी का स्थान नहीं ले सकता और प्रत्येक को अपनी जमीन खुद तोड़नी पड़ती है जो पहले टूट चुकी जमीन से कहीं अधिक कड़ी होती है, लेकिन चुनौती स्वीकारने का नाम ही तो जिंदगी है और इसका कोई शॉर्टकट नहीं है- एक आग का दरिया है और डूब के जाना है…
एक साक्षात्कार के बीच मुझ से पूछा गया कि मैं सृजनात्मक आनन्द चित्रकला में अधिक महसूस करता हूं या साहित्य-सृजन में ? मेरा उत्तर यही है कि जब मैं लिख रहा होता हूं तो साहित्य-सृजन में मुझे आनंद मिलता है, लेकिन चित्र-रचना के दौरान चित्र में ही. मुख्य बात विधा की नहीं, सृजन की है. सृजन-सुख से वंचित कोई आदमी शायद इस बात को समझ ही नहीं पाता. क्या संतान की इच्छुक किसी नारी को भंयकर प्रसव पीड़ा का भय दिखा कर और बाज औकात संतानोत्पत्ति की प्रक्रिया में नारी की मृत्यु तक हो जाने का वर्णन करके उसे मां बनने के सुख और अधिकार से रोका जा सकता है ? यही नियम सृजनात्मक लेखन और अन्य विधाओं पर लागू होता है. यह इतना सहज-स्वाभाविक है कि यह प्रश्न ही बेतुका और बेमाने हो जाता है. एसे में प्रश्नकर्ता से ही पलट कर पूछने की इच्छा होती है कि वह जी क्यों रहा है? ताजा हवा फेफड़ों में भरकर गर्म सांसें और अपानवायु बाहर निकालने का मतलब क्या है ? जबकि, मनुष्य की तमाम जिंदगी दुख- तकलीफ़ की खान है. फिर क्यों जिंदगी से जोंक की तरह चिपटे हुए हो ?
विकसित होते हुए साहित्यिक संस्कारों से वंचित और उदासीन धन-पशुओं का समाज किसी भी सच्चे कलाकार या साहित्यकार के लिए आदर्श नहीं हो सकता, उसकी प्रवृत्तियों को उजागर करने में लेखन भी एक कारगर हथियार है. आखिर साहित्य जीवन की आलोचना के अलावा और है भी क्या. हालांकि जीवन सभी के लिए एक जैसा नहीं है, इसलिए लेखन के उद्देश्य और कारण भी समान नहीं है. कोई एक लेखक भी कई विभिन्न कारणॊं से लिख सकता है.
देखा जाए तो न लिखने के पक्ष में और भी अनेक तर्क दिए जा सकते हैं, दिए जाते भी हैं. शायद इन्हीं तर्कों -कुतर्कों के वशीभूत रेस के कई घोड़े हताश होकर लेखन से किनारा कर बैठे हैं. अपने को प्रयोगधर्मा बताने वाले एक सुपरिचित वरिष्ठ कथाकार ने तो न लिखने का कारण भी लिखित रूप में प्रस्तुत किया था, हालांकि इस एक कारण को बताने में वे कुछ शरमा जाते हैं कि वे चुक गए हैं, जबकि मुख्य कारण यही है. समझदारी का सबूत देते हुए एक दूसरे लेखक ने, न लिखने के पक्ष में कोई दलील न देते हुए और जितना लिख चुके हैं उसे ही पर्याप्त समझते हुए, शायद दूसरों को मौका देने के लिए ही, स्वयं लेखन को तिलांजलि दे दी. अब वे लाख उकसाने के बावजूद स्थितप्रज्ञ अवस्था में ही हैं और सिर्फ 'हां-हूं' करके रह जाते हैं किसी रचनाकार को पारिश्रमिक दें, न दें, लेकिन किसी लेखक या कवि को पहलवान बनाने में पीछे रहने वाले नहीं. आलोचना-साहित्य को सृजनात्मकता से जोड़नेवाले एक और जाने-माने साहित्यकार धीरे-धीरे लेखन से विरक्त होते गए, फिर भी चुप होकर नहीं बैठे - एक अदद माइक देखते ही आज भी आंखों में चमक आ जाती है. उदार इतने कि दुश्मनों पर प्यार उमड़ने लगे. मूड न हो तो दोस्तों से कतराकर निकल जाएं- वक्त के अनुकूल ही उनका अगला कदम उठेगा, यह तय है.
आदर्श बुद्धिजीवी का लक्षण है कि वह प्रत्येक सही बात पर असहमत हो. दिग्गजों ने लिखना छोड़ा - यह तो ठीक, लेकिन बुद्धिजीवी को किसी के बोलने पर भी आपत्ति है. रचनाकारों को सभी सृजनात्मक कष्टों से उबारने के लिए वे उन्हें मीडिया विमर्श के बारे में बताते हैं और तकनीकी लेखन अपनाने की सलाह दे डालते हैं, क्योंकि पुस्तक मेलों में पाकशास्त्र और कढा़ई -बुनाई का साहित्य कथा-कहानी और कविता वगैरह से कहीं ज्यादा बिकता देखा गया है. किसी भी क्षेत्र में जमने के लिए माल का ब्रांडेड होना जरूरी है. जो ब्रांड होने की क्षमता नहीं रखता उसे जिन्दगी घसीटनी ही पड़ेगी और आने वाले प्रत्येक दिन में उस पर जिन्दगी का बोझ बढ़ता जाएगा.
ऎसे मूल्यवान सुझावों को बेगौर करते हुए, साथ ही, लेखन से जुड़े सभी नये-पुराने खतरों का जोखिम उठाते हुए मैं लगातार लिख रहा हूं और कभी-कभी खुद से ही पूछने लगता हूं कि आखिर वे कारण हैं क्या जिन के वशीभूत मैं कलम उठाने को मजबूर हो जाता हूं. तब 'समझदारी से भरी' किसी भी बात का असर मुझ पर क्यों नहीं हो पाता ? लेखन से जुड़े खतरे मेरे इरादे को बदल क्यों नहीं पाते? बल्कि, तमाम दुख-तकलीफ के बीच मैं आत्मतुष्टि और रचनात्मक आह्लाद के क्षण भी निकाल ही लेता हूं… और ये ही वो लम्हे हैं जो मुझे आगे और लिखने की प्रेरणा तथा शक्ति से भर देते हैं. खुशी और सुखानुभूति से भरे वे क्षण, जिन में मेरी बेचैनियां, पीड़ाएं और मानसिक कसमसाहटें भी शामिल हैं, मुझे लिखने को विवश करते रहे हैं और यह ऎसा नशा है जिसके सामने दुनिया के सभी नशे फीके पड़ जाते हैं.
साहित्यिक रेस के वे घोड़े कभी मेरे प्रिय लेखकों में हुआ करते थे. जब वे ही बेजार हो कर बैठ गए तो मेरा यह दायित्व बनता है कि बढ़ कर साहित्य की मशाल स्वयं थाम लूं. हालांकि, साहित्य-कला और संस्कृति के क्षेत्र में कोई किसी का स्थान नहीं ले सकता और प्रत्येक को अपनी जमीन खुद तोड़नी पड़ती है जो पहले टूट चुकी जमीन से कहीं अधिक कड़ी होती है, लेकिन चुनौती स्वीकारने का नाम ही तो जिंदगी है और इसका कोई शॉर्टकट नहीं है- एक आग का दरिया है और डूब के जाना है…
एक साक्षात्कार के बीच मुझ से पूछा गया कि मैं सृजनात्मक आनन्द चित्रकला में अधिक महसूस करता हूं या साहित्य-सृजन में ? मेरा उत्तर यही है कि जब मैं लिख रहा होता हूं तो साहित्य-सृजन में मुझे आनंद मिलता है, लेकिन चित्र-रचना के दौरान चित्र में ही. मुख्य बात विधा की नहीं, सृजन की है. सृजन-सुख से वंचित कोई आदमी शायद इस बात को समझ ही नहीं पाता. क्या संतान की इच्छुक किसी नारी को भंयकर प्रसव पीड़ा का भय दिखा कर और बाज औकात संतानोत्पत्ति की प्रक्रिया में नारी की मृत्यु तक हो जाने का वर्णन करके उसे मां बनने के सुख और अधिकार से रोका जा सकता है ? यही नियम सृजनात्मक लेखन और अन्य विधाओं पर लागू होता है. यह इतना सहज-स्वाभाविक है कि यह प्रश्न ही बेतुका और बेमाने हो जाता है. एसे में प्रश्नकर्ता से ही पलट कर पूछने की इच्छा होती है कि वह जी क्यों रहा है? ताजा हवा फेफड़ों में भरकर गर्म सांसें और अपानवायु बाहर निकालने का मतलब क्या है ? जबकि, मनुष्य की तमाम जिंदगी दुख- तकलीफ़ की खान है. फिर क्यों जिंदगी से जोंक की तरह चिपटे हुए हो ?
लेकिन नहीं, यह प्रश्न भी उतना ही बेतुका और बेमाने है जितना मेरे लिखने से संबंधित पूछे जाने वाला प्रश्न. जीना भी उतना ही सहज-स्वाभाविक है. जिंदगी बड़ी नियामत है, मैं इसी से अनुभव बटोर कर उन्हें शब्द देता हूं ताकि ये शब्द-बीज अंकुरित होकर हजारों हजा़र जिंदगियों में फूलें-फलें. यह वो रोशनी है जिस में मैं खुद की तलाश भी करता हूं- भाड़ में जाए विश्वपूंजीवाद और कितनी भी नंगई पर उतरे विश्व बाजारवाद, मुझे अपनी शर्तों पर जीना है…
अपनी शर्तों पर जीने की जि़द में मेरा रचना कर्म भी शामिल है, जो मुझे रचनात्मक ऊर्जा और शक्ति देता है. इसी से मुझ में जीने का विश्वास पैदा हुआ है- अपनी शर्तों पर जीने का विश्वास ! 'एक आग है जिस में मैं लगातार जलता रहता हूं. अपना सारा जीवन इसी आग के हवाले है. एक दिन सारा जीवन ही जल कर राख हो जाएगा. यही एक आखिरी सच है. लेकिन अपने काग़ज-कलम और कुछ अन्य कला सामग्री के साथ मुझे जलाने वाली यही आग मेरी ऊर्जा और ताकत में बदल जाती है और उसी की रोशनी में मैं खुद को पहचान पाता हूं- तब जिंदगी के लिए दी गई प्रत्येक कुर्बानी मृत्यु न होकर जीवन की निरंतरता में बदल जाती है.'
आग से गुजर कर आए मेरे शब्द रोटी का विकल्प तो नहीं ही हैं, क्योंकि शब्दों से अखबारों या पत्र-पत्रिकाओं का पेट भले ही भरा जा सके लेकिन मनुष्य को तो रोटी ही चाहिए. फिर भी, मैं शब्दों की ही खेती करता हूं, इन्हीं शब्द-बीजों को दूर-तक लोगों के दिलो-दिमाग में बोने के लिए लिखता हूं- हालांकि बंजर धरती में अच्छे बीज भी बेकार हो सकते हैं, लेकिन बंजर धरती को बार-बार जोत कर उर्वरा बनाना भी मेरे रचना कर्म का हिस्सा है. मैं इस में कितना सफल हो पाता हूं, सफल हो भी पाता हूं या नहीं, यह तो वक्त ही बताएगा और हर रचनाकार को धैर्यपूर्वक अपने वक्त का इंतजार करना होता है. आत्मविश्वास ही इस में मदद कर सकता है. फिर भी, जोखिम भरा काम है- इसकी न कोई शर्त है, न गारंटी. आस-पास कितना भी सौंदर्य बिखरा हो लेकिन दृष्टि न हो, तब सब कुछ बेकार है.
एक बार दागिस्तान के प्रसिद्ध लोक कवि रसूल हमजा़तोव से उसके गांव के किसानों ने पूछा, 'तुम कविताएं लिखते हो. तुम्हारा बाप भी कविताएं लिखा करता था- तुम लोग काम कब करते हो? जबकि, हमें तो रोज आठ घंटे फार्म पर कड़ी मशक्कत के साथ गुजारने पड़ते हैं.'
तब रसूल हमजा़तोव ने कहा कि 'एक रचनाकार की ड्यूटी आठ घंटे की नहीं, बल्कि पूरे चौबीस घंटे की होती है और वह अंतर्चेतना से स्वयं ही स्वयं को निर्देशित करता है. आराम के क्षणॊं में भी वह काम कर रहा होता है.'
पता नहीं, वे किसान उसकी बात के मर्म को समझ पाये या नहीं, लेकिन दो रचनाओं के बीच अंतराल को देखते हुए यह निष्कर्ष निकाल बैठना कि लेखक चुपचाप खाली बैठा आसमान को ताकता रहता है, भयंकर भूल होगी.
यह सच है कि चेतना पर आर्थिक दबावों का असर पड़ता है. सच यह भी है कि विश्वपूंजीवाद और बाजारवाद और इसी से जुड़ा उपभोक्ता वर्ग अपने खिलाफ उठाये गए किसी भी विचार, आवाज और सृजनात्मकता के पक्ष में नहीं है और मानवीय संवेदना तथा सामाजिक न्याय के अलावा मनुष्य जाति के गौरवपूर्ण इतिहास को भी वह अवहेलना और उपहास की नजर से देखता है, लेकिन ये सब बातें ही रचनात्मक साहित्य के लिए खाद का काम करती हैं और वह लेखन कर्म के प्रति और भी जिम्मेदारी का अनुभव करता है. एक सच्चे-सजग कलाकार और साहित्यकार का काम है कि वह नये समय की चुनौतियों को स्वीकार करे, तभी उस के लिखने का कुछ मतलब होगा. वर्ना कोई पकड़ कर पूछ सकता है कि तुम क्यों लिखते हो !
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उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले के महुवा गांव मे 20 अप्रैल, 1934 को जन्मे हरिपाल त्यागी शिक्षा प्राप्त करने के बाद विवाहोपरान्त 1955 में आजीविका की तलाश में पिता के साथ दिल्ली आ गये. चित्रकला, काष्ठ शिल्प कार्य और लेखन को अभिव्यक्ति का माध्यम चुना. अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं एवं उल्लेखनीय पुस्तकों में पेण्टिंग्स तथा साहित्यिक रचनाएं प्रकाशित एवं संगृहीत. अनेक नगरों-महानगरों में एकल चित्रकला प्रदर्शनियां आयोजित एवं सामूहिक कला-प्रदर्शनियों में भागीदारी.
'आदमी से आदमी तक'(शब्दचित्र एवं रेखाचित्र) भीमसेन त्यागी के साथ सहयोगी पुस्तक. 'महापुरुष' (साहित्य के महापुरुषों पर केन्द्रित व्यंग्यात्मक निबन्ध) एवं रेखाचित्र प्रकाशित.
दो उपन्यास, एक कहानी संग्रह तथा संस्मरणॊं की एक पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य. 'भारतीय लेखक' (त्रामासिक पत्रिका) का सम्पादन.
साहित्य एवं कला के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए अनेक बार पुरस्कृत-सम्मानित. देश-विदेश में पेण्टिंग्स संग्रहित.
एफ़- 29, सादतपुर विस्तार, दिल्ली-110094
फोन : 011-22961856
E-mail : haripaltyagi@yahoo.com
अपनी शर्तों पर जीने की जि़द में मेरा रचना कर्म भी शामिल है, जो मुझे रचनात्मक ऊर्जा और शक्ति देता है. इसी से मुझ में जीने का विश्वास पैदा हुआ है- अपनी शर्तों पर जीने का विश्वास ! 'एक आग है जिस में मैं लगातार जलता रहता हूं. अपना सारा जीवन इसी आग के हवाले है. एक दिन सारा जीवन ही जल कर राख हो जाएगा. यही एक आखिरी सच है. लेकिन अपने काग़ज-कलम और कुछ अन्य कला सामग्री के साथ मुझे जलाने वाली यही आग मेरी ऊर्जा और ताकत में बदल जाती है और उसी की रोशनी में मैं खुद को पहचान पाता हूं- तब जिंदगी के लिए दी गई प्रत्येक कुर्बानी मृत्यु न होकर जीवन की निरंतरता में बदल जाती है.'
आग से गुजर कर आए मेरे शब्द रोटी का विकल्प तो नहीं ही हैं, क्योंकि शब्दों से अखबारों या पत्र-पत्रिकाओं का पेट भले ही भरा जा सके लेकिन मनुष्य को तो रोटी ही चाहिए. फिर भी, मैं शब्दों की ही खेती करता हूं, इन्हीं शब्द-बीजों को दूर-तक लोगों के दिलो-दिमाग में बोने के लिए लिखता हूं- हालांकि बंजर धरती में अच्छे बीज भी बेकार हो सकते हैं, लेकिन बंजर धरती को बार-बार जोत कर उर्वरा बनाना भी मेरे रचना कर्म का हिस्सा है. मैं इस में कितना सफल हो पाता हूं, सफल हो भी पाता हूं या नहीं, यह तो वक्त ही बताएगा और हर रचनाकार को धैर्यपूर्वक अपने वक्त का इंतजार करना होता है. आत्मविश्वास ही इस में मदद कर सकता है. फिर भी, जोखिम भरा काम है- इसकी न कोई शर्त है, न गारंटी. आस-पास कितना भी सौंदर्य बिखरा हो लेकिन दृष्टि न हो, तब सब कुछ बेकार है.
एक बार दागिस्तान के प्रसिद्ध लोक कवि रसूल हमजा़तोव से उसके गांव के किसानों ने पूछा, 'तुम कविताएं लिखते हो. तुम्हारा बाप भी कविताएं लिखा करता था- तुम लोग काम कब करते हो? जबकि, हमें तो रोज आठ घंटे फार्म पर कड़ी मशक्कत के साथ गुजारने पड़ते हैं.'
तब रसूल हमजा़तोव ने कहा कि 'एक रचनाकार की ड्यूटी आठ घंटे की नहीं, बल्कि पूरे चौबीस घंटे की होती है और वह अंतर्चेतना से स्वयं ही स्वयं को निर्देशित करता है. आराम के क्षणॊं में भी वह काम कर रहा होता है.'
पता नहीं, वे किसान उसकी बात के मर्म को समझ पाये या नहीं, लेकिन दो रचनाओं के बीच अंतराल को देखते हुए यह निष्कर्ष निकाल बैठना कि लेखक चुपचाप खाली बैठा आसमान को ताकता रहता है, भयंकर भूल होगी.
यह सच है कि चेतना पर आर्थिक दबावों का असर पड़ता है. सच यह भी है कि विश्वपूंजीवाद और बाजारवाद और इसी से जुड़ा उपभोक्ता वर्ग अपने खिलाफ उठाये गए किसी भी विचार, आवाज और सृजनात्मकता के पक्ष में नहीं है और मानवीय संवेदना तथा सामाजिक न्याय के अलावा मनुष्य जाति के गौरवपूर्ण इतिहास को भी वह अवहेलना और उपहास की नजर से देखता है, लेकिन ये सब बातें ही रचनात्मक साहित्य के लिए खाद का काम करती हैं और वह लेखन कर्म के प्रति और भी जिम्मेदारी का अनुभव करता है. एक सच्चे-सजग कलाकार और साहित्यकार का काम है कि वह नये समय की चुनौतियों को स्वीकार करे, तभी उस के लिखने का कुछ मतलब होगा. वर्ना कोई पकड़ कर पूछ सकता है कि तुम क्यों लिखते हो !
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उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले के महुवा गांव मे 20 अप्रैल, 1934 को जन्मे हरिपाल त्यागी शिक्षा प्राप्त करने के बाद विवाहोपरान्त 1955 में आजीविका की तलाश में पिता के साथ दिल्ली आ गये. चित्रकला, काष्ठ शिल्प कार्य और लेखन को अभिव्यक्ति का माध्यम चुना. अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं एवं उल्लेखनीय पुस्तकों में पेण्टिंग्स तथा साहित्यिक रचनाएं प्रकाशित एवं संगृहीत. अनेक नगरों-महानगरों में एकल चित्रकला प्रदर्शनियां आयोजित एवं सामूहिक कला-प्रदर्शनियों में भागीदारी.
'आदमी से आदमी तक'(शब्दचित्र एवं रेखाचित्र) भीमसेन त्यागी के साथ सहयोगी पुस्तक. 'महापुरुष' (साहित्य के महापुरुषों पर केन्द्रित व्यंग्यात्मक निबन्ध) एवं रेखाचित्र प्रकाशित.
दो उपन्यास, एक कहानी संग्रह तथा संस्मरणॊं की एक पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य. 'भारतीय लेखक' (त्रामासिक पत्रिका) का सम्पादन.
साहित्य एवं कला के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए अनेक बार पुरस्कृत-सम्मानित. देश-विदेश में पेण्टिंग्स संग्रहित.
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फोन : 011-22961856
E-mail : haripaltyagi@yahoo.com
4 टिप्पणियां:
darpan.mahesh@gmail.com
tyagi ji has written a good lekh. particularly the ref of dagistan tuched me a lot. writting is certainly a job of 24 hours.
Mahesh Darpan
हम और हमारा समय में आपने बहुत अच्छा विषय उठाया है 'मैं क्यों लिखता हूं', जारी रखें। आज के संदर्भ में, जब आम जीवन को बाज़ार और भौतिक उपलब्धियों की सेंध बहुत भीतर तक बेध रही है, इस तरह के मौलिक प्रश्न पर रचनात्मक सोच की बारीकियों को उजागर करना समय की मांग भी है।
With all my regards to rev'd writers- Dr Chandel and Dr Tyagi Sahab, you have really embarked on a very interesting dialogue on one of the most pertinent issue probably little debated so far. And this is the right platefarm when the stalwarts of Hindi literature can delve deep over it. I would not deny that Hindi literature has suffered a setback in the recent years when shallow writings have been awarded great value as pointed out by Dr Tyagi. I don't understand the feeling and purport of the person who posed the question 'Main kyon likhata hoon' but it should be welcomed with right note. Let us be positive and come out with our views to the betterment of the cause of Hindi.
Dr Chandel Sahab as a seasoned writer has also mastered the arat of blog presentation and he must be accorded a very very warm welcome. He has now clicked on the right issue and it should continue with the same spirit as of now.
I have a lot of appreciation for Dr Tyagi who as a creative artist and writer has initiated the discussion in the most befitting manner.
Creativity is life. There is no meaning in life if there is no creativity. Life will be dull for a wise if he has no creative contribution in his respective field. Krishna calls is Svadharma in Shrimad Bhagavadgita and exhorts to stick to one's Svadharma (the spontaneous flair in one's work or nature)or better die. For a writer if he/she does not write, what else can be expected. Writing is a matter for his survival. This does not mean that he is writing is motivated in order to mint money. If someone thinks so if will be a negative attitude. Action thy duty reward is not thy concern, declares Gita.
J.L.GUPTA 'CHAITANYA', Delhi
इस प्रकार के गम्भीर लेखन से जुड़े मुद्दों,विषयों अथवा स्तम्भों की महती आवश्यकता नेट पर है.कहीं न कहीं पाठकीय चेतना के ह्रास के पुरने की क्षीण ही सही, आशा तो बँधती है.
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