विशेष
एक
वसंत घर आ गया
अतसि नील गोटे की
सरसों सी पीली-पीली
पुण्य पीत साड़ी में वेष्टित
नवनीत गात कोंपलों- सी रक्ताभअधरों पर लिए हुए
तार झीनी बोली में
कोयल-सा गा गया।
क्षण क्षण बदलाती सौंदर्य की छायाओं-सा
जीवन के पतझड़ में
कोई मुस्का गया
वासंती छवि का समंदर लहरा गया
लगा कि जैसे वसंत घर आ गया।
दो
सूरज की पेशी
आंखों में
रंगीन
नज़ारे
सपने बड़े बडे़.
भरी धार लगता है
बालू बीच खड़े.
बहते हुए समन्दर
मन के ज्वार
निकाल रहे.
दरकी हुई शिलाओं में
खरापन डाल रहे
मूल्य पड़े हैं बिखरे
जैसे
शीशे के टुकड़े
नजरोंमकके ओछेपन
जब
इतिहास रचाते हैं
पिटे हुए मोहरे
पन्ना पन्ना भर जाते हैं
बैठाये जाते हैं
सच्चों पर
पहरे
तगड़े.
अंधकार की पंचायत में
सूरज की पेशी
किरणें
ऎसे करें गवाही
जैसे
परदेसी
सरेजाम
नीलम रोशनी
ऊंचे भाव चढ़े.
भरी धार लगता है
जैसे
बालू बीच खड़े.
तीन
बोगनबेलिया
ओ पिया
आग लगाए बोगनबेलिया!
पूनम के आसमान में
बादल छाया
मन का जैसे
सारा दर्द छितराया,
सिहर-सिहर उठता है
जिया मेरा,
ओ पिया!
लहरों की दीपों में
कांप रही यादें
मन करता है
कि
तुम्हे
सब कुछ बतला दें-
आकुल
हर क्षण को
कैसे जिया,
ओ पिया !
पछुआ की सांसों में
गंध के झकोरे
वर्जित मन लौट गए
कोरे के कोरे
आशा का
थर थरा उठा दिया!
ओ पिया!
चार
अंग अंग चन्दन
एक नाम अधरों पर आया
अंग-अंग
चन्दन
वन हो .
बोल हैं
कि वेद की रिचाएं?
सांसों में
सूरज उग आएं
रितुपति के छंद
तैरने लगे
मन सारा नील गगन हो गया.
गंध गुंथी बाहों का घेरा
जैसे
मधुमास का सवेरा
फूलों की भाषा में
देह बोलने लगी
पूजा का
एक जतन
हो गया.
पानी पर खींचकर लकीरें
काट नही सकते जंजीरे.
आसपास अजनबी अंधेरों के देरे हैं
अग्निबिन्दु
और सघन हो गया!
अंग-अंग
चन्दन वन हो गया!
पांच
ज़िन्दगी (चार कविताएं)
(१)
रूप की जब उजास लगती
ज़िन्दगी,
आसपास लगती है
तुमसे मिलने की चाह
कुछ ऎसे
जैसे खुशबू को
प्यास लगती है.
(२)
न कुछ कहना
न सुनना
मुस्कराना
और आंखों में ठहर जाना
कि जैसे
रौशनी कि
एक अपनी धमक होती है
वो इस अंदाज में
मन की तहों में
घुस गए
उन्हें मन की तहों ने
इस तरह अंबर पिरोया है
सुबह धूप जैसे
हार में
सबनम पिरोती है.
(३)
जैसे तारों के नर्म बिस्तर पर
खुशनुमा चांदनी
उतरती है
इस तरह ख्वाब के बगीचे में
ज़िन्दगी
अपने पांव धरती है
और फिर करीने से ताउम्र
सिर्फ
सपनों के
पर कुतरती है
(४) जिन्दगी की ये ज़िद है
ख्वाब बन के
उतरेगी.
नींद अपनी ज़िद पर है
-- इस जनम में न आएगी
दो ज़िदों के साहिल पर
मेरा आशियाना है
वो भी ज़िद पे आमादा
--ज़िन्दगी को
कैसे भी
अपने घर
बुलाना है.
डॉ० कन्हैयालाल नन्दन : जन्म सन १९३३ में, उ०प्र० के फतेहपुर जि़ले के गांव परसदेपुर में. आपने डी०ए०वी० कॉलेज कानपुर से बी०ए), प्रयाद वि०वि० से एम०ए० और भावनगर यूनिवर्सिटी से पी-एच०डी० की उपाधि ली. चार वर्ष तक मुंबई वि०वि० के कॉलेजों में हिन्दी अध्यापन के बाद १९६१ से १९७२ तक ’धर्मयुग’ में सहायक सम्पादक रहे; १९७२ से क्रमशः ’पराग’ ’ सारिका’ और ’दिनमान’ का संपादन. तीन वर्ष’ नवभारत टाइम्स में फीचर सम्पादक. छह वर्षत क हिन्दी ’संडे मेल’ के प्रधान संपादक रहे. तीस से अधिक पुस्तकें.
संपर्क : १३२ ए० कैलाश हिल्स कालोनी,
नई दिल्ली
E-mail: klnandan@yahoo.com
1 टिप्पणी:
आंखों में
रंगीन
नज़ारे
"wah bhut sunder poems, read all of them and liked them"
Regards
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