शुक्रवार, 5 दिसंबर 2008

बातचीत




संगत में संवाद

प्रसिद्ध साहित्यकार राजी सेठ से रमेश दवे की लंबी बातचीत :

वरिष्ठ कवि और आलोचक रमेश दवे ने राजी जी से लंबी बातचीत की जिसे 'साहित्य में संवाद' शीर्षक से 'संवेद फाउंडेशन', ( बी-३/४४, तीसरी मंजिल, सेक्टर-१६, रोहिणी, दिल्ली ) ने पुस्तकाकार ( ६४ पृष्ठ) रूप में प्रकाशित किया है. प्रस्तुत हैं उसके कुछ महत्वपूर्ण अंश.

रमेश दवे : वैसे तो कई प्रश्न ऎसे होते हैं जो लगभग हर लेखक से पूछे जाते हैं लेकिन यदि किसी लेखक के जीवन और लेखन दोनों के अन्दर से प्रश्न खोजे जाएं तो ऎसा लगेगा जैसे लेखक बनना ही आपकी स्वाभाविक नियति थी. क्या आपको लगता है कि आपका लेखन आत्मप्रेरित के साथ स्वाभाविक नियति ही है?

राजी सेठ : लगता है कभी कुछ चीजें अस्तित्व में होती हैं, पर आंखों से ओझल होती हैं जैसे कि उनकी उपलब्धता या उद्घाटन का समय अभी आया नहीं होता. आपकी इस बात पर एक बिम्ब दिमाग में आता है --- कोई एक वस्तु है पर वह औंधी पड़ी है, जो सामने होते हुए भी दिखायी नहीं पड़ रही-- कुछ -कुछ ऎसी है मेरे लेखन की शुरुआत. कह सकती हूं कि जीवन में अगर घर-गृहस्थी के अतिरिक्त कुछ और होना ही था, तो लेखन को ही सम्भव होना था, क्योंकि साहित्य के प्रति अनुराग ही मेरी प्रकृति और प्रवृत्ति के नजदीक पड़ता है. यदि मेरी योग्यता या क्षमता कुछ हो तो वह भी उसी दिशा में जाएगी. हां, यह जरूर है कि लेखक जैसा होने के जो बाहरी लक्षण होते हैं जैसे --- प्रकाशन की दुर्दम्य आकांक्षा, प्रेरक महत्वाकांक्षा, कुछ होने की इच्छा, यशेष्णा, पैशन आदि-आदि के प्रकट रूप सामने न होने से दोनों बातों में जुड़ाव नहीं बन पाया या वैसा कुछ मेरी समझ में नहीं आया. जब लेखन अनायास शुरू हो गया, तो कार्य-कारण श्रंखला मन में जुड़ने लगी. 'अनायास' इस अर्थ में कि शुरुआती दौर में अहमदाबाद (जहां मेरे पति पोस्टेड थे) में एक अहिन्दीभाषी कथा-शिविर लगा था. मैंने यों ही रोज-रोज की एकरसता से थककर उसमें भाग लिया था. अध्यक्ष श्री विष्णु प्रभाकर थे जिन्हें मैंने पहली बार देखा था. देशभर की उन अनेकों प्रविष्टियों में मेरी कहानी 'एक बड़ी घटना' सर्वश्रेष्ठ मानी गयी थी. तब तक डॉ. भोला भाई पटेल से परिचय हो गया था. वह उन दिनों अज्ञेय पर अपनी थीसिस लिख रहे थे. झिझकते मैंने अपनी एक कहानी
'समान्तर चलते हुए' उन्हें दिखायी थी जिसे उन्होंने अच्छी मानकर अज्ञेय सम्पादित 'नया प्रतीक' में भेज दिया था. वह कहानी वहां तुरन्त छप भी गयी. मेरे लिए अविश्वसनीय लगने की हद तक यह एक महास्वीकृति थी. उसके बाद फिर सिलसिला चल निकला. 'धर्मयुग' के भारती जी और 'कहानी' पत्रिका के श्रीपत राय से भी ऎसे ही प्रत्युत्तर मिले. शायद यही मेरी स्वाभाविक नियति थी. आत्मप्रेरणा से तो पता नहीं कुछ हो पाता या नहीं, पर इन घटनाओं ने उस समय की मेरी जीवन-स्थितियों में मुझे बहुत सहारा दिया. एक तरह से दिशा दिखा दी. अपने रुझानों के चलते मैंने अपने को वहां पूरे मन, प्राण से झोंक दिया. कह सकती हूं कि अपने घटकों, अपनी गढ़न-बुनावट को देखते यही मेरी स्वाभाविक नियति थी नहीं तो इतने हल्के से घटनाक्रम से यात्रा कैसे शुरू हो जाती.

रमेश दवे : आपके पास कविमानस, कथामानस के साथ-साथ एक दार्शनिक मानस भी है. भाषा की नव्यतम समझ के साथ-साथ उत्कृष्ट विश्व-कृतियों के अनुवाद की भी गहरी समझ है. आपको अपना कौन-सा लेखकीय रूप सर्वाधिक पसन्द है--- कवि, कथाकार या अनुवादक का ? क्यों ?

राजी सेठ : चेतना में दीवारें नहीं होतीं. कुछ भी, कभी भी किया जा सकता है. मुझे लगता है हम रचना-रूप को नहीं, रचनारूप अपने तनाव-दबाव, शिल्प और भाषा सहित हमें चुनता है. किसी खास समय या विषय पर क्यों कहानी ही लिखी गयी, क्यों कविता, कहना कठिन है. सवाल मनोगत आशय को पकड़ने का है वह जैसे भी पकड़ा जाए. दार्शनिक मानस की बात भी रचनात्मक मानस से अलग नहीं है. दार्शनिक मानस का होना अर्थात मननशील होना. चीजों को तटस्थ, तार्किक रूप से तल तक देखने की दीक्षा में होना. हर सोचने-समझने वाले व्यक्ति में यह प्रक्रिया अन्तर्निहित है. मैं इस वर्गीकरण को अलग से महत्व नहीं देती. अनुभव के लिए विचार और विचार के लिए अनुभव की बलि नहीं दी जा सकती. रचना एक प्रभावी सम्प्रेषणीय संश्लेष है, जिसे इसी तरह निष्पन्न होना होता है. मुझे अलग से यह कहने में भी कठिनाई होगी कि मुझे अपना कौन-सा लेखकीय रूप सर्वाधिक पसन्द है. मेरे सभी काम अनायास होते हैं, रास्ते में आन पड़ते हैं. जर्मन कवि रिल्के के १०० पत्रों का अनुवाद किया क्योंकि १० पत्रों की पहली पुस्तक 'लेटर्स टू ए यंग पोएट' ने 'निष्कवच' लिखते समय मुझे अधबीच पकड़ लिया. इतनी गहरी, समृद्ध , गम्भीर रचना-अधीरता और समर्पण के वहां दर्शन हुए कि छुटकारा पाना मुश्किल था. उस टेक्स्ट के सारतत्त्व को आत्मसात करने के लिए मुझे अक्षर-अक्ष्रर में निहित स्पंदन को अनुवाद द्वारा अपनी भाषा की लय में पकड़ना पड़ा. उस काम ने मेरा पुनः संस्कार ही किया, वह अलग बात है, पर इस बारे में मैंने कोई कांशस निर्णय नहीं लिया था. वस्तुतः विधा मुझे चुनती है, मैं विधा को नहीं चुनती. किसी इंटेस ज्योतित क्षण में जिसे होना होता है होने लगता है, मैं किस विधा का बेहतर उपयोग कर सकती हूं, यह मुझे दूसरों के रिस्पांस से पता लगता है. मेरे भीतर तो सब कुछ गडमड-सा ही है.

रमेश दवे : तत-सम' आपका पहला उपन्यास है. न वह प्रेमचन्द्र, रेणु, या जैनेन्द्र की परम्परा में है, न यशपाल, भीष्म साहनी या कृष्णा सोबती की परम्परा में? अज्ञेय ने 'शेखर एक जीवनी' के जरिए जो लिखा है, उसकी कोई ध्वनि भी 'तत-सम' में नहीं है.यह उपन्यास आपकी किस आन्तरिक चेतना का अनावरण या उद्घाटन है?

राजी सेठ : पहली बात तो यह है कि किसी को किसी दूसरे की तरह क्यों होना चाहिए या वैसा होने की आकांक्षा क्यों रखनी चाहिए. वस्तुतः हर उपन्यास लेखक के आत्मप्रत्यय का प्रतिफलन है. उसके उपार्जित सत्य का अन्वेषण, उसकी चेतना को जकड़े हुए किसी हिस्से का अनावरण . वह दूसरों का सत्य कैसे हो सकता है. लेखक यथासम्भव अपने मानसिक रूपकारों के नजदीक जाता है. वहीं अपने अर्थविस्तार की जमीन ढूंढ़ता है. समय की बाहरी क्रमबद्धता को तोड़कर अपना समय रचता है. उसमें अपने पात्रों को अवस्थित करता और अपने अभिप्राय को रचनात्मक रूप से उकेरता है. अपने अनुभव और अपने विजन से अपना अपरिहार्य गठजोड़ होने पर भी मनुष्यमात्र के सामाजिक और सर्वजनीन पक्ष को तौलता रहता है. यह सामान्य प्रक्रियाएं 'तत-सम' पर भी लागू होती हैं. अपनी रचना में दूसरों की नकल, अनुसरण, ध्वनियों का पीछा करने की गुंजाइश है कहां? मेरे लिए तो और भी नहीं जो मैं उतने लम्बे समय तक साहित्य की दुनिया और उसके प्रभावों से दूर रही हूं. वैसे भी कोई दूसरों की तरह क्यों होना चाहेगा. जिन लेखकों की आपने चर्चा की है वे भी तो अपने ही आधारों पर खड़े होकर बड़े हुए हैं.

रमेश दवे : आप में विभाजन का नॉस्टेल्जिया है. इस नॉस्टेल्जिया को आपके पात्रों के नामों में पकड़ा जा सकता है --- जैसे सुरजीत, वीरां, कप्पी, तिन्नी, चन्नी आदि. पंजाबीपन का यह दबाव तो आप पर स्वाभाविक लगता है लेकिन रामरिख जैसे नाम उतने सहज नहीं लगते. क्या विभाजन का क्षोभ या पंजाबी आत्मीयता आज भी आपकी कथाओं में नॉस्टेल्जिया की तरह हस्तक्षेप करता है?

राजी सेठ : यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि इस नॉस्टेल्जिया को एक रचनात्मक सरोकार की तरह देखने की मुझमें ज्यादा प्रखर प्रतीति है. नामों में क्या है. वे तो परिवेश की औलाद हैं, इसलिए संस्कृति विशेष को इंगित भी कर सकते हैं, पर हमेशा ऎसा नहीं होता. लिखते समय के दबाव में जो नाम ध्यान में आया वह कथा के पूरा होने तक वहीं स्थित हो जाता है. लिखते समय अक्सर कॊई नाम देना मुझसे नहीं भी बन पाता. अन्तर्वस्तु के उकेरने की प्रमुखता के वातावरण में 'यह' 'वह' से काम चला लेती हूं. वैसे पात्रों के नामों के चुनाव को लेकर इस तरह के नतीजे निकालना मुझे अस्वाभाविक ही नहीं, गलत भी लगता है. नाम किसी का कुछ भी हो सकता है. जब मैं साहित्य-रचना हिन्दी में करती हूं, हिन्दी बोलती हूं, उत्तर प्रदेश में रहती रही हूं तो 'रामरिख' नाम चुनने में अजूबा क्या है. आज के सिकुड़ते संसार में नाम तो दक्षिण भारतीय या किसी और भाषा को इंगित करता हुआ भी हो सकता है.

विभाजन का क्षोभ या पंजाबी आत्मीयता मेरे लेखन में हस्तक्षेप करने का कोई डर पैदा नहीं करती. मैं जो लिख रही होती हूं, पूरी तरह उसी की होकर रहती हूं, यह बात अलग है कि उपयुक्तता के हक में मैं उन भाषाओं के शब्दॊं का खुलकर इस्तेमाल करती होऊं जो भाषाएं मैं जानती हूं. इसमें उर्दू, गुजराती, पंजाबी, अंग्रेजी सभी कुछ शामिल हैं. अंग्रेजी के प्रयोग को लेकर पहले मैं सचेत नही थी, पर अब सचेत हूं. जहां तक बने हिन्दी में उसका समानार्थी शब्द ढूंढ़ना चाहती हूं, जब तक असफल न हो जाऊं. इस क्रिया से मुझे अपनी प्रियतर भाषा (हिन्दी) के समृद्ध और समावेशी होने का सुख मिलता है. ऎसा करना अपना दायित्व भी लगता है.

पंजाबी भाषा बोलना मुझे खूब पसन्द है, पर अब ऎसे अवसर जीवन में कम होते जा रहे हैं. पंजाबी का लोक-संगीत अपनी लय-ताल के लिए उतना ही पसन्द है, जितना भारतीय शास्त्रीय संगीत.

रमेश दवे : एक रचनाकार अपने लेखन की निरन्तरता बनाये रखने को लेकर स्वयं से असन्तुष्ट ही रहता है. वह अपने असन्तोष के भीतर से भविष्य के सन्तोष या भविष्य की रचनात्मक उत्कृष्टता की खोज करता है. क्या आपको ऎसा लगा कि आपने अपनी रचनाओं से उस सन्तोष को हासिल कर लिया है और अगर ऎसा नहीं लगता तो क्या आपके अन्दर उसे पाने की छटपटाहट है?

राजी सेठ : छटपटाहट और असन्तोष की बात क्या कही जाए, वह तो अस्तिव्त का दूसरा नाम हो गया है. अव्वल तो देर से लिखना शुरू किया. लगता है अभी तो मैं अपने हाथ मांज रही हूं. अपने उपकरणॊं को जांच रही हूं, रचना-कौशल की क्षमताओं तक को नापने-तौलने के लिए मुझे अभी तक पूरा समय नहीं मिला. अपने जीवन-अनुभव में रचने के लिए जो कुछ मुझे महत, बृहत लगता रहा है, अभी तो उससे भी छेड़छाड़ नहीं की. हो सकता है ऎसा सोचना मात्र मेरा भ्रम हो, और मैं अपनी क्षमताओं में ही छोटी पड़ती होऊं. एक बात और - किसी घटना के ज्ञान को झट विवरणात्मक चित्रण में रूपान्तरित करने की जल्दी मेरे स्वभाव में नहीं है, मुझे उस आत्म-प्रकाशित, (शायद मेरी अपनी दृष्टि से पूर्ण (?) किसी ऎसे क्षण की तलाश रहती है, जिसमें अनुभव कम-से कम एक बार, काल के सभी आयामों में एकबारगी खुलता हुआ दिखायी दे जाए - किसी चित्र की तरह, जिसकी सतह तो सपाट होती है, पर जिसमें कितनी ही वीथियां, परतें, काट , तराश एक साथ दीख जाती हैं. ऎसी कठिन शर्तों के बीच जो रचना करने का सपना लेकर बैठा हो, उसे छटपटाहट के सिवा और क्या हाथ लगेगा?

रमेश दवे : आपको उपन्यास लेखन और कहानी लेखन के बीच किस तरह का भेद दिखाई देता है जबकि प्रवृत्ति दोनों की एक समान है.

राजी सेठ : उपन्यास लम्बा और कहानी छोटी यह तो एक प्रकट किस्म का भेद है, जिस पर ध्यान देना जरूरी नहीं भी है क्योंकि इनके भेद-विभेद का आधार लम्बा या छोटा होना नहीं है. यह मात्र फलक के चुनाव का मामला भी नहीं है. फलक के चुनाव की बात तो चुनाव में निहित-सी है. उपन्यास एक सिलसिलेवार रेलैक्स्ड विधा है. उपन्यास अन्तर्वस्तु को थामे रहकर भी इधर-उधर, पार्श्वों में ताक-झांक कर सकती है. उप-कथाओं, गौण पात्रों, हाशिय की स्थितियों से सांझा करता हुआ बार-बार अपनी मुख्यधारा में शामिल हो सकता है. उसका घटित एक तरह से सतत वर्तमान है. वह आगे-पीछे के समय को नाथते हुए चलता है, अपने समय की रचना करता चलता है.

वस्तुतः इन दोनों विधाओं का भेद इनके चरितार्थन में है. ठीक से याद नहीं पर शायद 'ओ कॉनर' ने अपनी व्याख्या में इस मुद्दे का स्मरणीय स्पष्टीकरण किया था. उनके अनुसार, कहानी का गंतव्य रहस्योद्घाटन (रीवीलेशन) में है, उपन्यास का विकसनशीलता (इवोल्यूशन) में. कहानी अपनी चुनी हुई स्थिति को एकाएक प्रकाशित कर देने के बिन्दु तक लाती है. उपन्यास में स्थिति, पात्र, समय, अक्सर स्थान भी गतिशील या विकसनशील बने रहते हैं. वहां लेखक का धीरे-धीरे वयस्क होता विजन पाठक को साथ लेता, मूल्यों की उसकी समझ के दायरे में दाखिल होता चलता उसकी अवेयरनेस को बदलता है.

मेरे विचार में कहानी एक कठिनतर विधा है. वह चुस्त, पैनी, सटीक, बेराहत, अपनी धुरी (केन्द्रीयता) पर कायम रहते हुए भी, समय के तीनों आयामों की जटिलताओं को साथ लेने और संकेतित करने के अवसरों को भांपती हुई, एक एसा नुक्ता चुनती है, जहां कम कहते हुए भी भीतर-बाहर का सब कुछ एक साथ प्रकाशित हो सके. उसका काम अपने समेटने को एकाएक खोल देना है. प्रभाव की तीक्ष्णता और चिन्ता ही उसे कहानी बनी रहने देती है. यह कहना गलत नही होगा कि कथालेखन सम्वेदना के संयम और मित्भाषी होने के कौशल का क्रिटिकल आर्ट है. वहां अधिक कहने का लोभ , बनती हुई प्रभावान्विति को बिगाड़ सकता है. कहानी की सिद्धि प्रभाव की एकान्विति को पाना है वही उसके शिल्प का निर्माण करती है. इतनी कसी हुई होती है कि कहा जा सकता है कि अपने अन्त से ही शुरू होती है. प्रभाव की चिन्ता से मुक्त होकर कहानी अपने आधारों को शिथिल कर देती है. इन मापदण्डों के बीच तुलती, वह बड़ी-से बड़ी और छोटी-से -छोटी हो सकती है. वहां आशय ऎसे खिंचकर आता है जैसे मुट्ठी बांधकर कोई नदी में पड़े जाल को खींचकर आशय को बाहर लाता है.

रमेश दवे : आप अपनी कहानियों में मृत्यु को बहुत स्थान देती हैं, क्यों? क्या इसका सम्बन्ध आपकी किन्हीं जीवनगत घटनाओं से है?

राजी सेठ : यह तो मानना ही पड़ेगा कि मृत्यु का विचार, क्योंकि जन्म के साथ ही पैदा हो जाता है इसलिए इसके अस्तित्व को लेकर एक मानसिक खांचा, हर किसी के दिमाग में पहले से रहता है जो जीवन-अनुभव के हस्तक्षेप के चलते जुड़ता-घटता रहता है. जैविक वास्तविकता के अलावा मृत्यु का विचार एक मानसिक विचार भी है जो औरों की तरह मेरे मनाकाश में भी रहता आया है. जिसका उपयोग जीवन के ही एक आयाम की तरह हम रचनाओं में करते ही करते हैं-- एक स्थिति-परिस्थिति की तरह. संयोगवश आत्मीयों की अकाल मृत्य जैसी कई दुर्घटनाएं भी जीवन में कुछ कम नहीं घटीं. उहोंने मानसिक खांचों को काफी दूर तक हिलाया-डुलाया भी. नयी वास्तविकताओं से सामना करना पड़ा जिसमें विस्मृति और सृजनात्मकता दोनों ने काफी सहारा दिया, पर उपस्थित सन्दर्भ में अपनी बात करूं तो कह सकती हूं कि मृत्यु सदा से ही, बहुत से रूपों में मेरे एहसास के घेरे में बनी रही है. छुटपन में वह आत्मीयों (मुख्यतः माता-पिता दादा) को खो देने के डर से जुड़ी रही. अपनी बचकानी जैसी कल्पना में हर बार मैंने ऎसा कुछ हो सकने से पहले ही, स्वयं मरने की कामना की है पर कालान्तर में वास्तव के घटित का सामना करते सारा परिप्रेक्ष्य ही बदल गया. एसा तो होना ही था. समझ में आया कि किसी चीज की कल्पना घटित से ज्यादा भयानक होती है, क्योंकि वह असल के अनुमान में, अपरिहार्यता हमारे लिए जानी-मानी चीज हो जाती है पर अपनी रचनाओं में मृत्यु का उपयोग मैंने एक आत्यन्तिक इंटेंस स्थिति को पा सकने की गरज से किया है. उस टर्मिनल प्वाइंट पर खड़े होकर देखने से स्थिति, घटनाक्रम ऎंगल सब बदल जाता है, तब पात्रों पर उन घटनाओं का प्रभाव भी मेरे लिए जांचने-परखने की चीज़ हो जाता है. मैं पहले भी कह चुकी हूं कि मेरी कहानियां, घटनाओं को लेकर कम और घटनाओं के 'प्रभाव' की पड़ताल करने की प्रक्रिया में लिखी जाती हैं. मृत्यु के मुद्दे से लगकर और भी बहुत कुछ है जो कहा जा सकता है पर वह मेरे रचना-प्रसंग से इतर होगा, इसलिए उसकी चर्चा करना जरूरी नहीं लग रहा.

रमेश दवे : लेखन में दिशा पा लेने के बाद आपको लगता है कि आपको अपना लक्ष्य मिल गया है ?

राजी सेठ : 'लक्ष्य' मिल जाने के तो बहुत बड़े मायने हैं. अभी तो ठीक से यह भी मालूम नहीं कि इस धरती पर हमारे होने का लक्ष्य क्या है. इतना जानती हूं लेखन में 'दिशा' मिल जाने से अब अपनी जिम्मेदारियों के अतिरिक्त, कहीं और, इधर-उधर ध्यान नहीं जाता. भटकन नहीं होती. हताशा जरूर होती है कि लिखना जिस एकाग्रता और सघनता के गहन में जाकर होना चाहे, नहीं हो पाता. पढ़ने-सोचने-लिखने के लिए समुचित समय नहीं मिलता. कहना चाहिए, समय मिल जाता है पर समय में गुणवत्ता का पहलू गायब होता है.ये सब पीड़ादायक एहसास है.
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राजी का जन्म ४ अक्टूबर, १९३५ को नौशेहरा (अविभाजित भारत) में हुआ था. एम.ए.(अंग्रेजी साहित्य), विशेष अध्ययन तुलनात्मक धर्म और भारतीय दर्शन. हिन्दी, अंग्रेजी, पंजाबी , उर्दू और गुजराती का भाषा ज्ञान. लेखन की शुरूआत जीवन के उत्तरार्द्ध में. लगभग सभी विधाओं में लेखन.

प्रकाशन : अंधे मोड़ से आगे, तीसरी हथेली, यात्रा-मुक्त, दूसरे देश काल में, यह कहानी नहीं, किसका इतिहास, गमे हयात ने मारा, सदियों से , खाली लिफाफा (कहानी-संग्र), तत-सम, निष्कवच (उपन्यास). जर्मन कवि रिल्के के सौ पत्रों का हिन्दी अनुवाद. अंग्रेजी सहित कई भारतीय भाषाओं में रचनाएं अनूदित . कई पुस्तकें विश्वविद्यालयों के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में.

भारतीय भाषा परिषद पुरस्कार और हिन्दी अकादमी सम्मान/ पुरस्कार, अनन्त गोपाल शेवड़े पुरस्कार सहित कई पुरस्कारों से सम्मानित, कई महत्वपूर्ण संस्थाओं की सम्मानित सदस्य. भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला की फैलो रहीं.

सम्पर्क : एम-१६, साकेत, नयी दिल्ली-११००१७
दूरभाष : ०११-२९५६२२३२, २९५६३२५६


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रमेश दवे

जन्म : ०७ नवम्बर, १९३५, शाजापुर (म.प्र.)

शिक्षा : एम.ए.(इतिहास, अंग्रेजी साहित्य और शिक्षा ).
प्रकाशन : कांच के दरख्त का डर, पिकासो के घोड़े हुसैन के घर (कविता), समकालीन अफ्रीकी साहित्य , समकालीन रचना और विचार, कृष्ण बलदेव वैद गल्प का विकल्प, आलोचना : समय और साहित्य, हिन्दी आलोचना : अन्त का आरम्भ (आलोचना), एक नहीं था अफलातून, सुल्तान अहमद का हुक्मनामा, चीख (नाटक), देह दीक्षा (कहानी-संग्रह). स्वीडिश कथाकार पॉर लागरक्विस्त के उपन्यास और अफ्रीकी कविताओं का हिन्दी अनुवाद.

'समावर्तन' के प्रधान सम्पादक.

मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी का नन्ददुलारे बाजपेयी आलोचना सम्मान.

सम्प्रति : अध्यक्ष, मध्य प्रदेश, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, भोपाल.
संपर्क : एस.एच.१९, ब्लॉक-८, सह्याद्रि परिसर,
भदभदा रोड, भोपाल -४६२००३

2 टिप्‍पणियां:

सहज साहित्य ने कहा…

राजी सेठ से रमेश दवे की बातचीत अच्छी लगी । साक्षात्कार के माध्यम से लेखक को एवं उसकी रचना को जानने का अधिक अवसर मिलता है । पत्रिकाओं ने इन सबसे किनारा कर लिया है ।ब्लॉग इसे ज़िन्दा रख रहे हैं ,यह शुभ संकेत है ।
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
rdkamboj@gmail.com

Ila ने कहा…

राजी सेठ मेरी प्रिय लेखिका रहीं। उनकी किताबें न स्वयं खरीद कर पढ़ी वरन मित्रों को जन्मदिन उपहारस्वरूप देकर पढ़ने को प्रेरित भी करती रही। अंधे मोड़ से आगे , तीसरी हथेली .... आदि की कहानियों का कथ्य अपने शिल्प और भाषा की वजह से विशिष्ट ही कहा जायेगा। काव्यमयी भाषा है राजी सेठ की कहानियों कि जिन्हें पढ़ना बहुत सुखद लगता है।
रमेश दवे जी और रूप सिंह जी का इस वार्ता को सुलभ कराने के लिए आभार!
इला