रविवार, 4 जनवरी 2009

वातायन – जनवरी 2009




हम और हमारा समय

वर्ष २००८ अनेक दुखद स्मृतियां छोड़कर विदा हो गया. देश के अनेक शहरों में हुए आतंकवादी बम धमाकों के बाद २६ नवम्बर को मुम्बई में हुए आतंकवादी हमले ने दुनिया के सामने पाकिस्तान की वास्तविकता उजागर कर दी . दुनिया अब तक जिस हकीकत की ओर से आंखे बंद किये हुए थी आंखे खोलकर यह अनुभव करना प्रारंभ कर दिया कि विश्व में आंतकवाद की जड़ें पाकिस्तान में मौजूद हैं. अमेरिका का पालित-पोषित जिन्न आज उसके लिए ही चुनौती बना हुआ है. मुम्बई आंतकवादी हमले के ठोस प्रमाण अमेरिका और ब्रिटेन की खुफिया एजेंसियों द्वारा उपलब्ध करवाए जाने और आंतकवादियों के विरुद्ध कार्यवाई किये जाने के लिए लगातार दबाव डालने के बावजूद पाकिस्तान के कान में आज तक जूं नहीं रेगीं. बेशर्मी की अपनी पुरानी परम्परा को दोहराते हुए उसने भारत के विरुद्ध यौद्धिक तैयारियां प्रारंभ कर दी हैं. आतंकवाद के विरुद्ध अमेरिका के सहयोगी के रूप अपने को प्रस्तुत कर उसने अमेरिका से अरबों डॉलर घसीट लिए, जिसका उपयोग सैन्य हथियार खरीदने और दुनिया में आतंकवाद फैलाने के लिए जिहादियों को तैयार करने लिए किया. आतंकवाद से प्रभावित और उसके विरुद्ध सोचने वाले देश यदि आज एक जुट होकर पाकिस्तान के विरुद्ध उचित कार्यवाई नहीं करते तो भारत ही नहीं दुनिया के तमाम देश इसका शिकार होने से बच पायेगें कहना कठिन है.

आतंकवाद के साथ ही विश्व में छायी आर्थिक मंदी ने गंभीर स्तिथियां उत्पन्न कर दी हैं. कहने के लिए ही हम अभी तक इससे अप्रभावित हैं लेकिन वास्तविकता यह है कि कार्पोरेट जगत दो-चार करके अपने कर्मचारियों को निकाल रहा है. हमें आशा करनी चाहिए कि नये वर्ष में दुनिया इन स्तिथियों से उबरने का मार्ग खोज लेगी.

“वातायन” में इस माह प्रस्तुत है वरिष्ठ कथाकार एवं कवि सुभाष नीरव का आलेख - 'मैं क्यों लिखता हूँ ?', कमलेश्वर पर उनके जन्म दिन ६ जनवरी के अवसर पर मेरा संस्मरण और अप्रवासी युवा कथाकार और कवि इला प्रसाद की कहानी.

नववर्ष २००९ के लिए “वातायन” की ओर से मित्रों- पाठकों को शुभकामनाएं.

आलेख



मैं क्यों लिखता हूँ ?
सुभाष नीरव

प्रारंभ में लेखन के लिए बीज हमें हमारे जीवन की घटनाओं से ही मिलते हैं और उन्हें अंकुरित-पल्लवित करने में हमारे आसपास का परिवेश और स्थितियां सहायक बनती हैं, ऐसा मेरा मानना है। इसलिए यहाँ अपने जीवन की उन पारिवारिक स्थितियों-परिस्थितियों का उल्लेख कर लेना मुझे बेहद आवश्यक और प्रासंगिक प्रतीत हो रहा है जिसकी वजह से मेरे अंदर लेखन के बीज पनपे और जिन्होंने मुझे कलम पकड़ने के लिए प्रेरित किया। ''मैं क्यों लिखता हूँ?'' आज जब मैं इस प्रश्न से दो-चार हो रहा हूँ तो मुझे अपने लेखन के बिलकुल शुरुआती दिन स्मरण हो आ रहे हैं। यह प्रश्न मुझे मेरे अतीत को खंगालने के साथ-साथ मुझे स्मृतियों-विस्मृतियों के बीच उन दिनों की तरफ भी धकेल रहा है जब मैं इंटर कर चुकने के बाद एक असहय अकेलेपन और बेकारी के दंश को झेल रहा था और इस दंश से मुक्ति, मैं साहित्य में ढूँढा करता था। साहित्यिक पत्रिकाएं और पुस्तकें मुझे इस दंश से, भले ही कुछ देर के लिए, मुक्ति दिलाती थीं। कहानी, उपन्यासों के पात्र मेरे साथी बन जाते थे और कई बार कोई पात्र तो मुझे बिलकुल अपने सरीखा लगता था। मुझे लेखन विरासत में नहीं मिला। जिस बेहद गरीब मजदूर परिवार में मैं पला-बढ़ा, उसमें दूर-दूर तक न तो कोई साहित्यिक अभिरूचि वाला व्यक्ति था और न ही आसपास ऐसा कोई वातावरण था। पिता पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक छोटे-से नगर, मुराद नगर में स्थित आर्डिनेंस फैक्टरी में वर्कर थे जहां वह बारह घंटे लोहे से कुश्ती किया करते थे। फैक्टरी की ओर से रहने के लिए उन्हें जो मकान मिला हुआ था, वहां आसपास पूरे ब्लॉक में विभिन्न जातियों के बेहद गरीब मजदूर अपने परिवार के संग रहा करते थे, जिनमें पंजाबी, मेहतर, मुसलमान, पूरबिये, जुलाहे आदि प्रमुख थे। एक ब्लॉके में आगे-पीछे कुल 18 क्वार्टर होते थे- नौ आगे, नौ पीछे। दोनों तरफ ब्लॉक के बीचोंबीच एक सार्वजनिक नल होता था जहां सुबह-शाम पानी के लिए धमाचौकड़ी मची रहती थी, झगड़े होते थे, एक दूसरे की बाल्टियाँ टकराती थीं। मेरे हाई स्कूल करने तक वहाँ घरों में बिजली नाम की कोई चीज नहीं थी। बस, स्ट्रीट लाइट हुआ करती थी। ऊँचे-लम्बे लोहे के खम्भों पर लटकते बल्ब शाम होते ही सड़क पर पीली रोशनी फेंकने लगते थे। मुझे अपनी पढ़ाई-लिखाई मिट्टी के तेल के लैम्प की रोशनी में करनी पड़ती थी या फिर घर के पास सड़क के किनारेवाले किसी बिजली के खम्भे के नीचे चारपाई बिछाकर, उसकी पीली मद्धिम रोशनी में अपना होमवर्क पूरा करना पड़ता था।
घर में तीन बहनें, तीन भाई, पिता, अम्मा के अलावा नानी भी थी। नानी के चूंकि कोई बेटा नहीं था, भारत-पाक विभाजन के बाद, वह आरंभ में तो बारी-बारी से अपने तीनों दामादों के पास रहा करती थीं, पर बाद में स्थायी तौर पर अपने सबसे छोटे दामाद यानी मेरे पिता के पास ही रहने लगी थीं। वह बाहर वाले छोटे कमरे में जो रसोई का भी काम करता था, रहा करती थीं। जब तक उनकी देह में जान थी, हाथ-पैर चलते थे, वह फैक्टरी के साहबों के घरों में झाड़ू-पौचा, बर्तन मांजना, बच्चों की देखभाल आदि का काम किया करती थी और अपने गुजारे लायक कमा लेती थीं। बाद में, जब शरीर नाकारा होने लगा तो उन्होंने काम करना छोड़ दिया और वह पूरी तरह अपने दामाद और बेटी पर आश्रित हो गई। दादा भी थे पर वह हमारे साथ वाले घर में हमारे चाचा के संग रहते थे। घर में मुझसे बड़ी एक बहन थी और मुझसे छोटी दो बहनें और दो भाई। उन सस्ती के दिनों में भी पिता अपनी सीमित आय में घर का बमुश्किल गुजारा कर पाते थे। उनकी स्थिति उन दिनों और अधिक पतली हो जाती जब फैक्टरी में 'ओवर टाइम' बन्द हो जाता। कई बार तो शाम को चूल्हा भी न जलता था। पिता घर से छह-सात मील दूर कस्बे की जिस लाला की दुकान से हर माह घर का राशन उधार में लेकर डाला करते थे, ऐसे दिनों में वह भी गेंहू-चावल देने से इन्कार कर दिया करता था। पिछले माह का उधार उसे पहले चुकाना पड़ता था, तब वह अगले माह के लिए राशन उधार देता था। ओवर टाइम बन्द हो जाने पर पिता पिछले माह का पूरा उधार चुकता करने की स्थिति में न होते, वे आधा उधार ही चुकता कर पाते थे। घर में कई बार शाम को चावल ही पकता और उसकी माड़ निकाल कर रख ली जाती और कुछ न होने पर उसी ठंडी माड़ में गुड़ की डली मिलाकर हम लोग पिया करते और अपनी क्षुधा को जबरन शांत करने का प्रयास किया करते थे। माँ, घर के बाहर बने बाड़े में से चौलाई का साग तोड़ लाती और उसमें दो आलू काटकर सब्जी बनाती। सन् 1962 में भारत -चीन युद्ध के दौरान जब गेंहू-चावल का अकाल पड़ा तो हमने बाजरे की बिना चुपड़ी रोटियाँ भी खाईं जिन्हें गरम-गरम ही खाया जा सकता था, ठंडी हो जाने पर वे पत्थर -सी सख्त हो जातीं और उन्हें चबाते-चबाते हमारे मुँह दुखने लगते।
ऐसे में पिता जो पूरे परिवार की गाड़ी किसी प्रकार खींच रहे थे, की नज़रें मझे पर टिक गई थीं। वे चाहते थे कि मैं हाई-स्कूल करने के बाद कोई काम-धंधा या नौकरी देखूं ताकि उन्हें कुछ सहारा मिल सके। उधर उन्हें जवान होती बेटियों के विवाह की चिंता भी सताये जा रही थी। वे चाहते थे कि किसी तरह सबसे बड़ी बेटी की वह शादी कर दें। मुझे भी पिता की दयनीय हालत पर बेहद तरस आता और मैं सोचता कि पढ़ाई में क्या रखा है, मैं भी किसी फैक्टरी, कारखाने में लग जाऊँ और कुछ कमा कर पिता का बोझ हल्का करूँ।
लेकिन मुझे किताबों से बहुत प्रेम था। भले ही वे पाठयक्रम की पुस्तकें थीं। नई किताबों के वर्कों से उठती महक मुझे दीवाना बना देती थी। हाई स्कूल की बोर्ड की परीक्षा देने के बाद मैं एक दिन घर से भाग निकला और अपनी बड़ी बहन जो दिल्ली में ब्याही थी और मोहम्मद पुर गांव में एक किराये के मकान में रहती थी, के पास जा पहुँचा। मेरे जीजा ठेकेदार थे और सरकारी इमारतों की मरम्मत, सफेदी आदि के ठेके लिया करते थे। मुझे अकस्मात् अकेले आया देख वे हतप्रभ थे। पिता चूंकि मुझे आगे पढ़ाना नहीं चाहते थे, इसलिए मैंने जीजा से कहा कि वह मुझे कहीं भी छोटे-मोटे काम पर लगवा दें, भले ही मजदूर के रूप में अपने पास ही रख लें। मुझे पूरी उम्मीद थी कि मैं बोर्ड की परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाऊँगा क्योंकि मेरे पेपर्स अच्छे गए थे। मैं चाहता था कि जब परीक्षा परिणाम निकले तो मेरे पास कम से कम इतने पैसे अवश्य हों कि मैं आगे दाखिला ले सकूं। मेरे जीजा ने मुझे नार्थ ब्लॉक में कह-सुनकर डेलीवेजर के रूप में लगवा दिया- साढ़े तीन रुपये दिहाड़ी पर। सन् 1970 की गर्मियों के दिन थे। मुझे वाटर कूलरों में पानी भरने पर लगा दिया गया था। उन दिनों वहां पाइप से कूलरों में पानी नहीं भरा जाता था। हर डेलीवेजर को दो-दो बाल्टियाँ इशू होती थीं। उन्हें नल से भरकर हमें कूलरों में सुबह-शाम पानी भरना पड़ता था। बीच के वक्त हमसे दूसरा काम लिया जाता जैसे कमरों की साफ-सफाई का, सामान इधर-उधर करने का, चपरासीगिरी का। कभी-कभी किसी साहब के घर का काम करने के लिए भी भेज दिया जाता। छुट्टी के दिन हम लोग डयूटी लगवा लेते थे ताकि कुछ पैसे और बन सकें। मैंने वहां दो माह काम किया। माह के अंत में जो रुपये मुझे मिलते, मैं उन्हें बहन को दे देता। जब बोर्ड की परीक्षा का परिणाम अखबार में निकला, मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। मैं गुड सेकेंड डिवीजन से पास हो गया था। मैंने आगे काम करने से इंकार कर दिया और बहन से अपने रुपये लेकर सीधा मोदी इंटर कालेज, मोदी नगर में दाखिला लेने चला गया। मेरा दाखिला भी हो गया। पिता इस पर खुश नहीं थे लेकिन बाद में वह मान गए। इंटर करने तक के वे दो साल बड़े कष्टप्रद रहे। मैं रेल का मासिक स्टुडेंट पास बनवाकर अपने कुछ मित्रों के संग कालेज जाया करता था। कई बार ट्रेन छूट जाती, मेरे पास बस से जाने के पैसे न होते और उस दिन छुट्टी हो जाती। अगले रोज़ कालेज में सजा मिलती। प्रिंसीपल बहुत सख़्त था, कुछ सुनता ही नहीं था। कालेज से नाम काट देने की धमकी देता था। दोपहर में साढ़े बारह बजे कालेज से छुट्टी होती। इसी समय की एक ट्रेन थी जो बहुत मुश्किल से हम पकड़ पाते। कालेज रेलवे लाइन की बगल में था और स्टेशन से दसेक मिनट की दूरी पर था। प्राय: ट्रेन दस-पन्द्रह मिनट लेट हुआ करती थी, इसलिए मिल जाया करती थी। लेकिन जिस दिन सही समय पर आती हमें अपने कालेज से ही दौड़ लगानी पड़ती। स्टेशन पहुँचते-पहुँचते हमारे साँस फूल जाते, कभी चलती ट्रेन में चढ़ने में कामयाब हो जाते, कभी वह छूट जाती। इसके बाद चार बजे की ट्रेन थी जो प्राय: लेट होती और उससे घर पहुँचते-पहुँचते शाम हो जाती। मित्र तो बस पकड़कर चले जाते पर मेरे पास पैसे न होने के कारण मुझे वहीं स्टेशन पर समय बिताना पड़ता। मैं माल गोदाम में पड़े सामान के गट्ठरों पर बैठ कर अपना होम वर्क करता और पढ़ा करता। कभी कभी सुबह जल्दी में लंच बॉक्स छूट जाता तो दोपहर में भूख के मारे बुरा हाल हो जाता। मित्र कभी कभी अपना लंच शेयर करवाते, कभी नहीं। ऐसी स्थिति में यदि मेरे पास एक दो रुपये होते तो मैं पचास पैसे के मिर्च वाले लाल चने लेकर खाया करता और ढ़ेर सारा पानी पीकर अपनी भूख को शांत करने की कोशिश किया करता।

सन् 1972 में इंटर की परीक्षा पास की तो पिता ने हाथ खड़े कर दिए। वह आगे पढ़ाने के लिए कतई तैयार नहीं थे। वे चाहते थे कि अब मैं कोई न कोई कामधंधा या नौकरी देखूं। वे दिन बड़े भयावह और संत्रास भरे थे। मेरे पास नौकरी के लिए आवेदन करने लायक पैसे तक नहीं होते थे। पिता की स्थिति बड़ी दयनीय थी। तनख्वाह का सारा पैसा उधारी चुकाने में चला जाता था। घर में कभी कभी फाके जैसी हालत होती। मैंने आसपास की फैक्टरियों में काम तलाशने की बहुत कोशिश की पर कामयाब नहीं हो पाया। बगैर सिफारिश के कोई रखता नहीं था। इन दिनों मैं बेकारी के भीषण दंश को झेल रहा था। मैं स्वयं को बेहद अकेला, असहाय और उदास महसूस करता। कई बार घर से भाग जाने की इच्छा होती। रात रात भर नींद नहीं आती थी। किसी से बात करने को मन नहीं करता था। मेरा स्वभाव रूखा और चिड़चिड़ा हो गया था।
इंटर करते समय कालेज की लायब्रेरी में मुझे हिंदी पत्रिकायें जैसे- धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान,कादम्बिनी , नवनीत, सारिका, सरिता, मुक्ता आदि पढ़ने को मिल जाती थीं। लेकिन मुराद नगर में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी। खरीद कर मैं पढ़ नहीं सकता था। अखबार पढ़ने के लिए घर से डेढ़-दो मील किसी चायवाले या पानवाले की दुकान पर जाना पड़ता। तभी मेरे एक मित्र ने मुझे आर्डिनेंस फैक्टरी की एक छोटी-सी लायब्रेरी जो नई-नई खुली थी, का सदस्य बनवा दिया। वहाँ से साहित्यिक पुस्तकें इशू करवा कर मैं पढ़ने लगा था। हिंदी के नये पुराने कई लेखकों के उपन्यास, कहानी संग्रह, कविता संग्रह जो भी उस पुस्तकालय में उपलब्ध होते, मैंने पढ़ने आरंभ कर दिए थे। ये किताबें मुझे सुकून देती थीं। मैं इनमें खो जाता था। अपना अकेलापन, अपना दुख, अपनी पीड़ा, बेकारी का दंश भूल जाता था। यहीं मैंने प्रेमचंद को पूरा पढ़ा।
इन्हीं दिनों मैंने अनुभव किया कि मैं कवि होता जा रहा हूँ। मैं अपने अकेलेपन के संत्रास को तुकबंदियों में उतारने लगा। ऐसा करने पर मुझे लगता कि मेरा दुख कुछ कम हो गया हो जैसे। उन अधपक्की, अधकचरी कविताओं का रचियता और पाठक मैं ही था। मेरा बहुत मन होता कि कोई मेरी कविता सुने या पढ़े। इधर फैक्टरी में ओवर टाइम लगना आरंभ हो गया था और पिता ने मुझे जेब खर्च के लिए कुछ पैसे देने प्रारंभ कर दिए थे। उन पैसों से मैं नौकरी के लिए आवेदन पोस्ट करने लग पड़ा था। ढेरों इंटरव्यू और लिखित परीक्षाएं दीं पर सफल नहीं हुआ। एक दिन मेरी किस्मत का बंद दरवाजा खुला। मेरा मेरठ कचेहरी में क्लर्क के पद के लिए चयन हो गया, पर मुझे पैनल में डाल दिया गया था। लगभग आठ-नौ महीने के बाद मेरी तैनाती गाजियाबाद सिविल कोर्ट में हुई। मेरे ही नहीं, घर के सभी सदस्यों के पैर धरती पर नहीं पड़ रहे थे। पिता की आंखों में चमक आ गई थी। माँ ने घर में कीर्तन रखवा लिया था।
गाजियाबाद मैं रेल से आता-जाता था। शाम को लौटते वक्त गाजियाबाद स्टेशन पर बुक स्टालों पर मैं पत्रिकाओं के पन्ने पलटने लगा था। मैं अब पत्रिकाओं के पते नोट करता और अपनी कच्ची-पक्की कविताओं को संपादकों को भेजा करता। फिर कई-कई दिन संपादकों के उत्तर की बेसब्री से प्रतीक्षा किया करता। पर मेरी हर रचना सखेद लौट आती थी। मन बेहद दुखी होता। लेकिन रचनाएं भेजना मैंने बन्द नहीं किया। एक दिन दिल्ली प्रेस की पत्रिका ''मुक्ता'' से मुझे जब स्वीकृति पत्र मिला तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। मैं चाहता था कि मैं अपनी इस खुशी को किसी के संग शेयर करुँ। एक दो मित्रों से बात की पर उन्होंने कोई खुशी जाहिर नहीं की। धीरे-धीरे मेरी कविताएं ‘सरिता’ ‘मुक्ता’ में नियमित रूप से छपने लगीं। ये बड़ी रोमानी किस्म की कविताएं होती थीं। कलर पृष्ठों पर छपती थीं। मैं अपनी छपी हुई कविताओं को और उन कविताओं के साथ छपे युवतियों के रंगीन चित्र को देखकर मुग्ध होता रहता। मुझे लगता जैसे मैं देश का एक बड़ा कवि हो गया होऊँ। ‘सरिता-मुक्ता’ में छपने वाली रचनाओं का पारिश्रमिक भी मुझे मिलता था। उस पारिश्रमिक से मैं पत्र पत्रिकाएं खरीदा करता। मुराद नगर के स्थानीय कवि जो मंचों पर कविताएं पढ़ा करते थे, अब मुझे जानने लगे थे। उन दिनों मुझ पर एक अजीब सा नशा सवार रहने लगा था। पर डेढ़-दो वर्ष में ही मेरा यह नशा उतर गया। मुझे अपने लिखे से ही वितृष्णा होने लगी। धीरे-धीरे मुझे समझ में आने लगा था कि यह सब नकली लेखन है। मेरी ऑंखों के सामने लाचार, विवश मेरी बूढ़ी नानी आने लगी थी, थके-हारे पराजित से पिता की कातर नज़रें मेरा पीछा करने लगी थीं, माँ का बुझा-बुझा-सा रहने वाला चेहरा और छोटी बहनों की ऑंखों में बनते-टूटते सपने मुझे तंग-परेशान करने लगे थे। मैं अपने आप से प्रश्न करता कि जो कुछ मैं लिख रहा हूँ, उसमें ये लोग कहाँ हैं ? कहाँ हैं इनकी दुख-तकलीफों का चित्रण, जीवन का सच क्या है ? मैं अपने आसपास के यथार्थ से मुँह क्यों मोड़ रहा हूँ ? मेरे अंदर ऐसे विचारों का प्रस्फुटन ठीक तब से होने लगा जब से मैं गंभीर साहित्य पढ़ने लगा था। सारिका, साप्ताहिक हिंदुस्तान की कहानियां मुझे जब से उद्वेलित करने लगी थीं। इन कहानियों के पात्र मुझे भीतर तक कुरेदने लगे थे और मुझे अपने लेखन को जीवन की तल्ख़ सच्चाइयों, कड़वे यथार्थ की ओर उन्मुख करने को प्रेरित करने लगे थे।
अच्छा साहित्य न केवल एक बेहतर मनुष्य बनाता है बल्कि एक लेखक को बेहतर लेखक भी बनाता है। मैंने अपने दादा, नानी के दु:ख-दर्दों को बहुत करीब से देखा था। पिता को परिवार के लिए हाड़-मांस गलाते देखा था। माँ को परिवार की रोटी-पानी की चिंता में हर समय घुलते देखा था। अपने परिवार के साथ-साथ अपने पड़ोस में रहते बूढ़ों की दुगर्ति मैंने देखी थी। बुढापे में लाठी का सहारा कहे जाने वाले बेटों की अवहेलना में बूढ़ों को तिल-तिल मरते देखा था। यह एक सामाजिक यथार्थ था मेरी ऑंखों के सामने, इस यथार्थ की छवियाँ, इनका चित्रण कथा-कहानियों में देखता तो मैं भी अपने आप से प्रश्न करता- मैं भी ऐसा क्यों नहीं लिखता जिसमें इन लोगों की बात हो। ये जीवित पात्र मुझे अब बार-बार उकसाने लगे थे। बदलते समय ने मेरे सरोकार और मेरे लेखक के कारण को बदलने में मदद की। मैंने पहली कहानी लिखी- ''अब और नहीं।'' यह एक रिटायर्ड वृद्ध की व्यथा-कथा थी जिसे मैंने अपने ढंग से लिखने की कोशिश की। बूढ़े-बुजुर्ग लोग मेरी संवेदना को झकझोरते रहे हैं और मैं समय-समय पर इनको केन्द्र में रखकर कहानियाँ लिखता रहा हूँ। ''बूढ़ी ऑंखों का आकाश'', ''लुटे हुए लोग'', '' इतने बुरे दिन'', ''तिड़के घड़े'', ''उसकी भागीदारी'' ''आख़िरी पड़ाव का दु:ख'' ''जीवन का ताप'' ''कमरा'' मेरी ऐसी ही कहानियाँ/लघुकथाएं हैं।
बेकारी के दंश को अभिव्यक्त करती मेरी कहानी ''दैत्य'' हो अथवा ''अंतत:'' दोनों के पीछे मेरे अपने बेकारी के दिन भले रहे हों, पर ये कहानियां व्यापक रूप में भारत के हजारों-लाखों बेकार युवकों के संताप को ही व्यक्त करती हैं।
मेरे लेखन के पीछे जो मुख्य कारण व कारक सक्रिय रहा, वह था मेरा अपना परिवार। अभावों, दु:खों-तकलीफों में जीता परिवार। धीरे-धीरे उसमें आस पास का समाज भी जुड़ता चला गया। ज़रूरी नहीं कि एक समय में लिखने का जो कारण रहा हो, दूसरे समय में भी वही रहे। समय के साथ-साथ ये कारण बदलते रहते हैं। जैसे-जैसे लेखक अपने समय और समाज से गहरे जुड़ता जाता है, उसके सरोकार और लिखने के कारण भी उसी प्रकार बनते-परिवर्तित होते रहते हैं। अगर मैं यहाँ यह कहूँ कि ‘प्रेम’ भी मेरे लेखने का एक कारण रहा है तो गलत न होगा। प्रेम भी हमारी सृजनात्मकता को उर्वर बनाता है और उसमें गति लाता है। जब आप प्रेम में होते हैं, तो सृजन के बहुत करीब होते हैं, ऐसा मेरा अनुभव और मानना है। एक समय, मोहल्ले की एक लड़की जो हमारे घर के सामने रहा करती थी, से हुए मेरे इकतरफा प्रेम ने भी मुझसे बहुत कुछ लिखवाया। ढेरों प्रेम कविताएं, कई प्रेम कहानियाँ। इनमें से कुछ ही सुरक्षित रह सकीं, बहुतों को मुझे नष्ट करना पड़ा। इस सन्दर्भ में मुझे एक प्रसंग याद आ रहा है। जिस लड़की से मुझे इकतरफा प्रेम था, मैं उसे अपने लेखकीय गुण से इंप्रैस करना चाहता था। मैं अपने को लेखक होने के नाते एक विशिष्ट व्यक्ति मानता था और चाहता था कि मेरे इस गुण के वशीभूत वह मुझसे प्रेम करने लगे। मैंने मालूम किया कि उस लड़की के घर कौन-सा हिंदी का अखबार आता है। फिर मैंने एक कहानी लिखी और उसी अखबार में छपने के लिए भेज दी। उस अखबार में कहानी के साथ लेखक की फोटो भी छपा करती थी। एक रविवार कहानी छप गई। मेरी फोटो सहित। लेकिन विडम्बना देखें कि उस दिन उसके घर में वह अखबार नहीं आया, हॉकर उसके बदले में दूसरा अखबार डाल गया। मेरी हसरत पर मानो तुषारापात हो गया।
इस घटना के बाद यह अलग बात है कि उस लड़की से मेरा प्रेम चला। पर इसके पीछे मेरा लेखन कारण नहीं बना। उस लड़की ने मुझे मेरे लेखक होने के नाते प्रेम नहीं किया। हमारा यह प्रेम ऊँची पींगे लेने लगा। हम अकेले में मिलते, सिनेमा देखने जाते, पार्को में मिलते और बीच-बीच में पत्रों का आदान-प्रदान भी होता। पुराना किला, चिड़ियाघर, मदरसा, कुतुब, इंडिया गेट, प्रगति मैदान, कनॉट प्लेस ऐसी कोई जगह नहीं थी दिल्ली की जहाँ हम न मिला करते। लेकिन फिर वही हुआ जैसा कि एक भारतीय समाज में होता है। उसके माँ-बाप ने अपनी बिरादरी में उसका विवाह तय कर दिया। उस समय मेरे दिल के कितने टुकड़े हुए मैं ही जानता हूँ। चोट खाया मैं मजनूं-सा प्रेम कविताएं लिखता रहा और लिख-लिख कर फाड़ता रहा। फिर उसका विवाह हो गया। मुझे लगा, अब हम कभी नहीं मिल पाएंगे। मेरे माँ-बाप ने मेरा विवाह भी कर दिया।
कई बरसों बाद इसी प्रेम के अहसास ने मुझसे ''चोट'' जैसी प्रेम कहानी लिखवाई जिसमे पढ़कर मेरी पत्नी ने नाक-भौं सिकौड़ी थी और कहा था- यह क्या कहानी है ? उन दिनों मेरा भीषण एक्सीडेंट हुआ था और बायें पैर की पाँच हड्डियाँ टूट गई थीं। घर पर मेरे लेखक मित्र मुझे मिलने आया करते थे। रूप सिंह चन्देल तो प्राय: मेरा हाल-चाल जानने आया करते। चन्देल ने वह कहानी पढ़ी और कहा कि इसे तुरत बलराम को दे दो। बलराम उन दिनों 'नवभारत टाइम्स' का रविवासरीय देखा करते थे। बलराम ने कहानी छापी, संग में फोटो और उसके साथ मेरे दुर्घटनाग्रस्त हो जाने की सूचना भी। ''लौटना'' कहानी में भी असफल प्रेम के उसी अहसास को एक दूसरे कोण से अभिव्यक्त करने की कोशिश की गई है।
लेखक अपने समय और समाज से कट कर कदापि नहीं रह सकता। ''वेलफेयर बाबू'' ''औरत होने का गुनाह'' ''गोष्ठी'' कहानियाँ मेरे अपने समय और समाज की कहानियाँ हैं और मैंने इन्हें लिख कर अपने सामाजिक सरोकार और लेखन के उद्देश्य को स्पष्ट करने की कोशिश की है।
मुझे हमेशा लगता रहा कि लेखन ही एक ऐसा माध्यम है जो मेरी निजता को सामाजिकता में बदल सकता है। जिनके लिए मैं कुछ नहीं कर पाया, मैं उनकी दुख-तकलीफों को अपने लेखन में रेखांकित कर सकता हूँ और उनके लिए 'कुछ न कर पाने' की अपनी पीड़ा को मैं लिखकर कम कर लेता हूँ।
इसमें दो राय नहीं कि मेरे अब तक के लेखन के पीछे मेरे माता-पिता के संघर्ष और अभावों भरे दिन रहे हैं, मेरे अपने संघर्ष रहे हैं। लेकिन साथ ही साथ समय ने मुझे अपने समाज और परिवेश के प्रति भी जागरूक बनाया है। उस समाज में रह रहे हर गरीब, दुखी, असहाय, पीड़ित, दलित, शोषित व्यक्ति के प्रति संवेदनात्मक रिश्ता कायम किया है। अपनी कहानियों, लघुकथाओं में मैंने सदैव कोशिश की कि इन लोगों के यथार्थ को ईमानदारी से स्पर्श कर सकूं और तहों के नीचे छिपे 'सत्य' को उदघाटित कर सकूं। मुझे नहीं मालूम कि मैं इसमें कहाँ तक सफल हुआ हूँ, पर मुझे अपने लिखे पर संतोष है। मुझे यह मुगालता कभी नहीं रहा कि मेरे लेखन से समाज में कोई परिवर्तन हो सकता है। कहानी, लघुकथा और कविता लिखते समय मैं अपने समय और समाज के प्रति जागरुक और ईमानदार रहूँ, ऐसी मेरी कोशिश और मंशा रहती है। आलोचक समीक्षक मेरी रचनाओं को लेकर क्या कहते हैं या क्या कहेंगे, इसकी तरफ़ मैं अधिक ध्यान नहीं देता। लिखना मेरा एक सामाजिक कार्य है और मैं इसे अपनी तरफ से पूरी ईमानदारी से करते रहना चाहता हूँ। यदि मेरी कोई रचना किसी की संवेदना को जगा पाती है अथवा उसे हल्का सा भी स्पर्श करती है तो यह भी कोई कम उपलब्धि नहीं है मेरे लिए।
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जन्म: 27–12–1953, मुरादनगर (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा: स्नातक, मेरठ विश्वविद्यालय
कृतियाँ: ‘यत्कचित’, ‘रोशनी की लकीर’ (कविता संग्रह)
‘दैत्य तथा अन्य कहानियाँ’, ‘औरत होने का गुनाह’
‘आखिरी पड़ाव का दु:ख’(कहानी-संग्रह)
‘कथाबिंदु’(लघुकथा–संग्रह),
‘मेहनत की रोटी’(बाल कहानी-संग्रह)
लगभग 12 पुस्तकों का पंजाबी से हिंदी में अनुवाद, जिनमें
“काला दौर”, “कथा-पंजाब – 2”, कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा पंजाबी कहानियाँ”, “पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं”, “तुम नहीं समझ सकते”(जिन्दर का कहानी संग्रह), “छांग्या रुक्ख”(बलबीर माधोपुरी की दलित आत्मकथा) और “रेत” (हरजीत अटवाल का उपन्यास) प्रमुख हैं।
सम्पादन अनियतकालीन पत्रिका ‘प्रयास’ और मासिक ‘मचान’ ।
ब्लॉग्स: सेतु साहित्य( उत्कृष्ट अनूदित साहित्य की नेट पत्रिका )
http://www.setusahitya.blogspot.com/
वाटिका(समकालीन कविताओं की ब्लॉग पत्रिका)
http://www.vaatika.blogspot.com/
साहित्य सृजन( साहित्य, विचार और संस्कृति का संवाहक)
http://www.sahityasrijan.blogspot.com/
गवाक्ष (हिंदी–पंजाबी के समकालीन प्रवासी साहित्य की प्रस्तुति)
http://www.gavaksh.blogspot.com/
सृजन–यात्रा ( सुभाष नीरव की रचनाओं का सफ़र)
http://www.srijanyatra.blogspot.com/
पुरस्कार/सम्मान: हिन्दी में लघुकथा लेखन के साथ-साथ पंजाबी-हिन्दी लघुकथाओं के श्रेष्ठ अनुवाद के लिए ‘माता शरबती देवी स्मृति पुरस्कार, 1992’ तथा ‘मंच पुरस्कार, 2000’ से सम्मानित।
सम्प्रति : भारत सरकार के पोत परिवहन मंत्रालय
में अनुभाग अधिकारी(प्रशासन)।
सम्पर्क: 372, टाईप–4, लक्ष्मी बाई नगर, नई दिल्ली–110023
ई मेल: subhashneerav@gmail.com
http://www.subhneerav@gmail.com/
दूरभाष : 011–24104912(निवास)
09810534373
संस्मरण

शब्दों के जादूगर : कमलेश्वर
रूपसिंह चन्देल


कमलेश्वर जी से मेरी मुलाकात तब हुई जब वह “गंगा” के सम्पादक थे. मैंने ‘गंगा’ में कोई कहानी भेजी थी. कई महीने बीतने के बाद भी जब वहां से कोई उत्तर नहीं मिला, मैं कमलेश्वर जी से मिलने जा पंहुचा. मेरे मस्तिष्क में उनके व्यक्तित्व का जो स्वरूप बना हुआ था उसके कारण लंबे समय तक मैं 'मिलूं'-'न मिलूं' के उहापोह में रहा था, जबकि कई मित्रों से उनकी उदारता, सरलता, और सहृदयता के विषय में सुन चुका था. उससे पहले मैंने पत्र लिखकर कहानी के विषय में जानना चाहा, लेकिन कोई उत्तर नही मिला. कुछ सप्ताह और बीते. आखिर एक दिन अपरान्ह मैं जा पहुंचा 'गंगा' के कार्यालय. एक सज्जन से पूछा. उन्होंने कमलेश्वर जी के कमरे की ओर इशारा कर कहा, " बैठे हैं…"

ससंकोच मैंने कमरे में झांका. दरवाजा पूरी तरह खुला हुआ था. दरवाजे के ठीक सामने कमलेश्वर जी बैठे लिख रहे थे.

"सर, मैं रूपसिंह चन्देल." दरवाजे पर ठहर मैं बोला.

"अरे… आइये, चन्देल जी." लिखना रोक कमलेश्वर जी बोले और सामने पड़ी कुर्सी की ओर इशारा किया, "बैठिये। बस एक मिनट…" वह पुनः लिखने लगे थे.

वास्तव में उन्होंने एक मिनट ही लिया था. या तो वह आलेख का अंतिम वाक्य लिख रहे थे या वाक्य पूरा कर मुझसे बात करने के लिए आलेख बीच में ही छोड़ दिया था.

मैंनें अपने आने का अभिप्राय बताया.

"कहानी होगी… मैं उसे देख लूंगा. आप फिक्र न करें." कमलेश्वर जी ने पूछा "और क्या लिख रहे हैं?"

"कुछ लघुकथाएं (लघु कहानियां) और बाल कहानियां."

"लघुकथाएं भेजिए… आपने देखा होगा, गंगा में हम लघु कथाएं भी छापते हैं."

कमलेश्वर जी से उस पन्द्रह मिनट की मुलाकात में मैं उनसे बहुत प्रभावित हुआ. कहानी तो 'गंगा' में प्रकाशित नहीं हुई, लेकिन बंद होने से पहले मेरी एक लघुकथा अवश्य प्रकाशित हुई थी.

उस मुलाकात के बाद लंबे समय तक मैं उनसे नहीं मिला. १९९२ या १९९३ में उनके एक कहानी संग्रह पर मैंने 'जनसत्ता' के लिए समीक्षा लिखी, जिसके प्रकाशित होने पर उसकी फोटो प्रति मैंनें उन्हें भेजी. खूबसूरत हस्तलेख में कमलेश्वर जी का पत्र मिला. लिखा था, "आप एक अच्छे कहानीकार हैं…मेरी सलाह है कि समीक्षा लिखने से अपने को बचाएं."

कमलेश्वर जी की सलाह उचित थी. उनकी सलाह के बावजूद मैं समीक्षाएं लिखना रोक नहीं पाया. उन दिनों ‘जनसत्ता’ में मंगलेश डबराल साहित्य देखते थे. जब मैं उनके पास जाता वह दो-चार पुस्तकें मुझे पकड़ा देते… सभी कहानी संग्रह या उपन्यास. महीने में लगभग दो समीक्षाएं मेरी वह छापते भी. उससे पहले 'दैनिक हिन्दुस्तान' में आनंद दीक्षित मुझसे साग्रह लिखवाते रहे थे. जब भी अच्छे संग्रह या उपन्यास आते, दीक्षित जी फोन करके मुझे बुला लेते. कमलेश्वर जी की बात न मानने का खामियाजा मुझे भुगतना पड़ा. समीक्षक - आलोचक बनना मेरा स्वप्न कभी नहीं रहा और न ही यह विचार कभी मन में आया कि अब तक लिखी समीक्षाओं के आधार पर कोई पुस्तक तैयार कर लूं, जैसा कि कुछ लेखकों ने किया भी. उल्टे शत्रु अलग बनाए… यह सब जानते हुए भी लिखना बंद नहीं कर पाया, कम अवश्य हुआ.

लंबे अंतराल के बाद एक साहित्यिक कार्यक्रम में कमलेश्वर जी से मुलाकात हुई. उन दिनों वह बहुत व्यस्त थे. धारावाहिकों के लिए काम कर रहे थे. टकराते ही प्रणाम कर मैने अपना परिचय दिया. कमलेश्वर जी तपाक से बोले, "चन्देल जी, आपको बताने की आवश्यकता नहीं." और वह अपनी व्यस्तताओं की चर्चा करने लगे थे, "क्या करूं…मेरी एक टांग हवाई जहाज में होती है- दिल्ली - मुम्बई के बीच झूलता रहता हूं."

उसके पश्चात फिर कुछ समय बीत गया. एक दिन रात कमलेश्वर जी का फोन आया. मैं गदगद.

"चन्देल, मैं अब पूरी तरह दिल्ली आ गया हूं. 'चन्द्रकान्ता' का काम जल्दी ही सिमट जायेगा… कुछ दिनों की ही बात है…आप संपर्क में रहें. आपके साथ कुछ करना चाहता हूं."

मेरे लिए इससे बड़ी प्रसन्नता की बात क्या हो सकती थी कि कमलेश्वर जी ने मुझे इस योग्य समझा था. मैंने पूछ लिया, "भाई साहब , क्या योजना है?"

"आल्हा-ऊदल पर एक धारावाहिक की योजना है."

मैंने स्वीकृति दे दी. मैंने तब सोचा था, और आज भी सोचता हूं कि आल्हा-ऊदल के लिए उन्होंने मेरा चयन शायद इसलिए किया होगा क्योंकि वे दोनों चन्देल नरेश परिमर्दिदेव के साली के पुत्र थे और उन्हीं के दरबार में थे. दोंनो ने उनके लिए कई गौरवपूर्ण लड़ाइयां लड़ी थीं और 'लोक पुरुष' बन गये थे.

मैंने कमलेश्वर जी से हां तो कह दी, लेकिन स्वयं द्विविधा में पड़ गया था. वह द्विविधा थी मेरी सरकारी नौकरी. जिस विभाग में नौकरी करता था वहां ऎसी किसी भी गतिविधि में शामिल होने की भनक मेरी प्रताड़ना का कारण बन सकता था. स्थितियां ऎसी न थीं कि नौकरी छोड़कर कमलेश्वर जी के साथ जुड़ लेता. अस्तु मैंने कमलेश्वर जी से संपर्क नहीं साधा और उन्होंने भी मुझे याद नहीं किया. पूरी तरह दिल्ली आकर उनकी प्राथमिकताएं बदल गयी थीं. वह लेखन और पत्रकारिता में डूब गये थे. उन्होंने 'भास्कर' समूह के प्रधान सम्पादक का पद स्वीकार लिया था, ''कितने पाकिस्तान' पर काम कर रहे थे और कई अखबारों के लिए नियमित स्तंभ लिख रहे थे.

उन्हीं दिनों की बात है. मे्रे एक मित्र सरकारी सेवा से अवकाश प्राप्त कर दिल्ली में बस गये और स्वतंत्र लेखक और पत्रकारिता का मार्ग ग्रहण किया. यह एक कठिन मार्ग है. कठिनाइयां होनी ही थीं. उन्हें मुकम्मल नौकरी की तलाश थी, क्योंकि तब उनकी आयु पैंतालीस के आस-पास थी. पारिवारिक दायित्व और छोटी-सी पेंशन. मैं चाहता था कि उन्हें किसी अखबार - पत्रिका में काम मिल जाये. वह स्वयं इस दिशा में प्रयत्नशील थे. मैंने अपने वरिष्ठ मित्र योगेन्द्र कुमार लल्ला से बात की, जो उन दिनों 'अमर उजाला' (मेरठ) में संयुक्त सम्पादक थे. मित्र उनसे मिलने गये. लेकिन बात आगे नहीं बढ़ी. तभी मुझे विचार सूझा कि यदि वह कमलेश्वर जी से मिल लें तो शायद कुछ बात बन जाये. सुना था कि कमलेश्वर जी ने लगभग सौ लोगों को या तो नौकरी दिलवायी थी या किसी न किसी रूप में उनकी सहायता की थी. अपना विचार मित्र पर प्रकट किया. वह बोले, "कमलेश्वर जी मुझे नहीं जानते… कैसे मिलूं-कहूं!"

"मैं मिलवा दूंगा…कह भी दूंगा." मैंने कहा.

इसे संयोग ही कहना होगा कि कुछ दिनों बाद ही एक साहित्यिक कार्यक्रम में कमलेश्वर जी से मुलाकात हो गयी. मित्र मेरे साथ थे. मैंने कमलेश्वर जी को उनका परिचय दिया तो वह तपाक से बोले, " चन्देल, मैं इन्हें जानता हूं". दरअसल कमलेश्वर जी की यह विशेषता थी कि वह किसी को यह अहसास नहीं होने देते थे कि वह उसे नहीं जानते थे.

"भाई साहब, ये आपसे अपने किसी काम से मिलना चाहते हैं." मैंने कहा, "इन्हें आपकी मदद की आवश्यकता है."

"सण्डे को फोन करके आ जायें."

लगभग डेढ़ वर्ष तक उस मित्र ने कमलेश्वर जी के साथ काम किया. उसके बाद उन्होंने उन्हें 'दैनिक भास्कर' में बतौर उप-सम्पादक नौकरी दिला दी, जहां वह स्वयं प्रधान संपादक थे. यद्यपि मित्र को कमलेश्वर जी के साथ जोड़ने में मेरी कोई अहम भूमिका नहीं थी, जिसे मित्र ने कमलेश्वर जी पर लिखे अपने संस्मरण में स्पष्ट भी किया, लेकिन मैं कमलेश्वर जी के प्रति कृतज्ञ अनुभव करता रहा. मैंने उनसे पहली और अंतिम बार किसी काम के लिए कहा और उन्होंने मुझे महत्व दिया था. जैसा कि कहा, कमलेश्वर जी ने अनगिनत लोगों की सहायता की और लोग उनके प्रति कृतज्ञ रहे, लेकिन ऎसे भी उदाहरण हैं जो बाद में उन्हें गाली देते देखे गये. ऎसा ही एक उदाहरण एक अनुवादक, टिप्पणीकार और कवि महोदय का है.

हुआ यह कि २६ मई,२००६ (शनिवार) को हिमाचल की 'शिखर' संस्था ने कमलेश्वर जी को प्रथम शिखर सम्मान प्रदान किया. सम्मान हिमाचल के तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह ने उन्हें दिल्ली आकर हिमाचल भवन में प्रदान किया, क्योंकि उन दिनों खराब स्वास्थ्य के कारण कमलेश्वर जी ने शिमला जाने में असमर्थता व्यक्त की थी. कार्यक्रम के संयोजक कथाकार -पत्रकार बलराम थे. बलराम का आग्रह था कि मैं वहां 'कितने पाकिस्तान' पर बोलूं. कमलेश्वर जी पर अंग्रेजी में केशव और उर्दू में साहित्य अकादमी के तत्कालीन अध्यक्ष डॉ. गोपीचाद नारंग को बोलना था. हिन्दी के लिए मुझे चुना गया था. मैं बोला. अगले दिन कई अखबारों में समाचार प्रकाशित हुआ. जिन अनुवादक , टिप्पणीकार और कवि सज्जन का उल्लेख किया, वह २८ मई को मेरे घर आये. उन्होनें 'जनसत्ता' में समाचार पढ़ा था. कार्यक्रम की चर्चा चली तो उत्तेजित स्वर में बोले, "कमलेश्वर जैसा कमीना व्यक्ति मैंने अपनी जिन्दगी में कोई दूसरा नहीं देखा."

मैं हत्प्रभ.

मुझे कुछ कहने का अवसर दिए बिना वह आगे बोले, "देखा कैसे 'शिखर सम्मान' मैनेज कर लिया."

"कमलेश्वर जी को उसे मैनेज करने की क्या आवश्यकता थी. उन्हें सम्मानित कर 'शिखर संस्था' ने स्वयं को सम्मानित अनुभव किया होगा." मैंने प्रतिवाद किया.

क्षणभर की चुप्पी के बाद वह बोले,"और कुछ लोगों को मंच चाहिए होता है बोलने के लिए…कैसा भी मंच हो…बोल आते हैं." यह टिप्पणी मेरे लिए थी उनकी . उसके बाद तेजी से उन्होंने मेज पर से अपना चश्मा और पान का पैकेट (वह पान खाने के शौकीन हैं. एक खाते हैं और चार बंधा लेते हैं और हर समय साथ लेकर चलते हैं ) उठाया और मेरे कुछ कहने से पहले ही बिना दुआ - सलाम प्रस्थान कर गये. लेकिन जब कमलेश्वर जी की मृत्यु हुई तब ये सज्जन मेरे साथ उनकी अंत्येष्टि में गये थे. गाड़ी में हमारे साथ एक वरिष्ठ कवि और एक कथाकार मित्र भी थे.

उन सज्जन ने सबके सामने जो रहस्योद्घाटन किया उसने मुझे चौंकाया था. कमलेश्वर जी ने उनके बेटे की दो बार नौकरी लगवाई थी. नौकरी ही नहीं लगवाई थी, बल्कि उन्हें फोन करके सूचित भी किया था कि उनका बेटा जाकर वहां से नियुक्ति-पत्र ले ले.

हिन्दी में दूसरा कोई लेखक इतना उदार मुझे नहीं मिला, जितना कमलेश्वर जी थे. यदि कोई उदार रहा भी तो वह उनकी जैसी सक्षम स्थिति में नहीं रहा होगा. दरअसल दूसरों का कष्ट उन्हें अपना लगता था. शायद इसका कारण यह था कि उन्होंने अपने जीवन की शुरूआत बहुत ही संघर्षों से की थी. एक स्थान पर अपनी उस स्थिति का उल्लेख करते हुए उन्होंने लिखा कि वह उन दिनों दिल्ली के राजेन्द्र नगर में रहते थे. बेटी छोटी थी. नौकरी कॊई थी नहीं. उन दिनों नाश्ते के लिए एक अण्डा उबाला जाता, जिसके पीले हिस्से को ब्रेड में लगाकर वे बेटी को देते और ऊपर के सफेद हिस्से को आधा गायत्री जी और आधे को वह ब्रेड के साथ लेते. कह सकते हैं कि कमलेश्वर जी कभी अपने अतीत को भुला नहीं पाये तभी अपने पास आए हर जरूरत मंद की सहायता के लिए तत्पर रहे. जब रमेश बतरा बीमार होकर अस्पताल में भर्ती हुए, कमलेश्वर जी ही ऎसे साहित्यकार थे जो गायत्री जी के साथ नियमित शाम रमेश को देखने जाते रहे थे. डाक्टर रमेश का कोई ऑपरेशन करना चाहते थे, जिसके लिए लगभग सत्तर हजार रुपये खर्च होने थे. कमलेश्वर जी ने डाक्टर से कहा कि, " आप खर्च की चिन्ता न करें, मैं दूंगा…जो भी खर्च होगा… वे ऑपरेशन करें." रमेश ने मुम्बई में ‘सारिका’ में उनके साथ काम किया था. सोचा जा सकता है कि वह कितना चाहते थे लोगों को. बाद में डाक्टरों ने यह कहकर रमेश का ऑपरेशन नहीं किया था कि वह आखिरी स्टेज में थे.

हिन्दी में आज जो दलित विमर्श चर्चा के केन्द्र है, उसे कमलेश्वर जी ने तब उठाया था, जब यह लोगों की कल्पना से बाहर था…भले ही उसका स्वरूप कुछ और था.

कमलेश्वर प्रखर प्रतिभा के धनी और प्रयोगशील व्यक्ति थे. उन्हें यदि शब्दों का जादूगर कहा जाय तो अत्युक्ति न होगी. उन्होंने अनेक फिल्में लिखीं और लगभग सौ फिल्मों के लिए संवाद लिखे. सतह से उठकर उन्होंने शिखर छुआ.वह पहले और शायद अंतिम व्यक्ति थे जो बिना आई.ए.एस. रहे दूरदर्शन के अतिरिक्त महानिदेशक पद पर रहे थे. इंदिरा गांधी को केन्द्र में रखकर 'आंधी' जैसी फिल्म लिखने वाले कमलेश्वर जी को इंदिरा जी बहुत पसंद करती थीं. अंतिम दिनों में वह इंदिरा जी पर बनने वाली फिल्म के लिए काम कर रहे थे. सही मायने में वह विराट व्यक्तित्व के धनी और अथक परिश्रमी थे. उनके साथ मेरी दो मुलाकातें अविस्मरणीय रहीं. एक में मैंने उनका लंबा साक्षात्कार किया था. दूसरी में मैं सपरिवार उनके घर था. लगभग ढाई घण्टे मेरे परिवार के साथ घुल-मिलकर वह बातें करते रहे थे.

जिस रात कमलेश्वर जी की मृत्यु हुई, उस दिन अपरान्ह चार बजे मेरी मुलाकात उनके साले डॉ. माधव सक्सेना 'अरविन्द' (कथाबिंब त्रैमासिक (मुम्बई) के सम्पादक ) के साथ कनॉट प्लेस के कॉफी होम में निश्चित थी. अरविन्द जी सपत्नीक वैवाहिक कार्यक्रम में सम्मिलित होने के लिए आए थे. भाभी जी भी कॉफी होम आयीं थीं. उन्होंने कथाकार विजय को भी बुला लिया था. बातचीत के दौरान कमलेश्वर जी की चर्चा आयी तो अरविन्द जी बोले, "स्वास्थ्य ठीक नहीं है, फिर भी शादी में वे दीदी के साथ पहुंचे थे."

दरअसल कमलेश्वर जी किसी भी आत्मीय के कार्यक्रम में जाने या मिलने का कोई अवसर छोड़ना नहीं चाहते थे. मृत्युवाले दिन भी कुछ ऎसा ही हुआ था. वह विदेश से आये अपने एक मित्र से मिलने गये थे, लेकिन घर नहीं लौट पाये. वह उनकी अंतिम यात्रा सिद्ध हुई थी.

कमलेश्वर जी की मृत्यु हिन्दी जगत के लिए अपूरणीय क्षति है. वह कितना 'पापुलर' थे, इसका प्रमाण यह था कि उनकी मृत्यु के पश्चात देश के अनगिनत शहरों-कस्बों में उनके लिए शोक सभाएं आयोजित की गईं और अनेक पत्रिकाओं ने उन पर विशेषांक निकाले थे. शायद ही किसी हिन्दी लेखक की मृत्यु के बाद इतना सब हुआ हो. उनके साक्षात्कार का एक अंश 'गगनांचल' में प्रकाशित करने के विषय में जब मैंने डॉ. कन्हैयालाल नन्दन जी से बात की तब छूटते ही वह बोले थे, "उनके साक्षात्कार के विषय में पूछने की क्या बात रूपसिंह … उनके लिए मैं कुछ भी कर सकता हूं ."

तो ऎसे थे कमलेश्वर जी… चमत्कारिक व्यक्तित्व. कुछ लोग उनकी प्रशंसा करते हुए उनकी कुछ कमियों - कमजोरियों का उल्लेख करना नहीं भूलते. कमियां - कमजोरियां इंसान में ही होती हैं और कमलेश्वर जी भी एक इंसान ही थे.

रूपसिंह चन्देल
बी-३/२३०, सादतपुर विस्तार ,
दिल्ली-११००९४

कहानी
आकाश
इला प्रसाद


क्या आप जानते हैं, सुन्दर लड़कियाँ क्या चाहती हैं ? हो सकता है आप जानते हों लेकिन आश्वस्त न हों कि जो जानते हैं, सही ही है तो चलिए मैं बतलाए देती हूँ। सुन्दर लड़कियाँ हर किसी की आँख में अपने लिए तारीफ़ देखना चाहती हैं।
आप कहेंगे ,बस इतना ही ? वह तो उन्हें सहज रूप में उपलब्ध होता है। सबॊं की आँखों में अपने लिए प्रशंसा देखते- सुनते ही तो वे बड़ी होती हैं।
लेकिन एक और बात है।
वे आकाश होना चाहती हैं।
क्या आप यह बात जानते थे? नहीं न, लेकिन मुझे पता है। क्योंकि मैंने ऋचा को देखा है। और अब जब मैं किसी सुन्दर लड़की से बातें करती हूँ तो मुझे पहले से पता होता है कि यह क्या चाहती होगी क्योंकि सुन्दर लड़कियाँ सब एक जैसी होती हैं , इस मामले में। वे आकाश होना चाहती हैं और ऋचा तो सौन्दर्य की परिभाषा सी थी।
वह कॉलेज कारीडोर में चलती तो दोनों ओर लड़के खड़े रहते - उसकी एक झलक पाने के लिए। उसकी गर्दन और ऊँची हो जाती। लड़कों में बाजियाँ लगतीं कि कौन जाकर उससे बात कर सकता है। गाने बजाए जाते -"तुमसे अच्छा कौन है !"
वह मुस्कराती, एक नजर देखती, चल देती।
लड़के दिल थाम लेते।
लेकिन यह तो कॉलेज के दिनों की बात है।
आत्मविश्वास से भरी, सारी दुनिया को अपने कदमों तले लेने को आतुर यह लड़की बड़ी हो गई। अब आगे आप सोचिए। सौन्दर्य के साथ यदि मष्तिष्क भी मिला हो, किसी को तो ?
उसे मिला था।
मैं कोई परी कथा नहीं सुना रही आपको । अपने चारों ओर देखिए। ऐसी लड़कियाँ होती तो हैं ही , चाहे बहुत थोड़ी। तो कहानियाँ भी तो ऐसी ही लड़कियों की बनती है न।
या यूँ कहिए कि वे कहानी बन जाना चाहती हैं।
तो ऋचा बहुत वर्षों तक कहानी बनी रही। लड़के इंतजार करते रहे कि वह शादी करेगी। कुछ जो अपने कॊ लायक समझते थे उन्होंने शराफ़त से रिश्ते भिजवाए, कुछ ने खुद प्रस्ताव रखा और वह सारे के सारे रिश्तों को उनके मुँह पर मार आई।
तब मेरी समझ में कुछ नहीं आता था।
वह मुझे अबूझ लगती थी। मैं ऐसी कॊई परी नहीं थी , पढ़ने में अच्छी थी सो उसने अपनी दोस्ती के काबिल समझ रखा था। उसके साथ चलती मैं कई बार हीन भाव से भर जाती।
वह अपनी विजय के किस्से सुनाती। मैं नासमझ पूछती - "तो तुम उससे शादी क्यों नहीं कर लेती ?
"उससे कौन शादी करेगा जी ? " वह मुँह बनाती।
हर बार वही। मैं चकित होती, आखिर इसे क्या चाहिए !
तब इलाहाबाद में अपनी पीएच डी समेट रही थी कि अचानक उसका पत्र मिला। "मैं शादी कर रही हूँ।"
मैं चकित, मैं प्रसन्न। उत्सुक भी कि कौन है वह खुशनसीब जिसको ऋचा ने इस काबिल समझा।
थीसिस जमाकर घर पहुँची तो अशोक आया हुआ था , इन्दौर से। मामा का लड़का।
बातों बातों में मैं बोल पड़ी "पता है ऋचा की शादी हो गई। "
अशोक एक बार उससे मिला था। उसकी सुन्दरता से , तेज दिमाग से प्रभावित हुआ था। सुनते ही चंचल हो उठा - कब हुई, किससे हुई?"
"तुमसे नहीं हुई , बस।" मैंने चिढ़ाया ।
वह उदास हो गया। चोट शायद गहरी थी।
"बैंक में है। तुम्हारे इन्दौर का ही है। निशीथ नाम है ।"
उसके पिता का नाम श्यामसुन्दर वर्मा है?"
"हाँ।"
"उससे कैसे इसने शादी कर ली ?"
'तुम्हें क्या?"
"वह लड़का अच्छा नहीं । उस परिवार को तो पूरा शहर जानता है !
"ईर्ष्या हो रही है ?"
"नहीं, तुम मिल लेना। कभी तो मिलोगी ही। तुम्हारी प्यारी दोस्त है। तब याद करोगी।"
वह मेरी प्यारी दोस्त तो थी ही। थोड़ा गर्व भी था मुझे उसपर कि आज कम्पनी की मैनेजर हो गई है ,तब जाकर उसे शादी का मन हुआ। समझ लेना चाहिए था मुझे पहले ही कि उसके जैसी जहीन दिमाग,सुन्दर लड़कियाँ जिन्दगी में छॊटी चीजों से समझौता नहीं करतीं। बड़ी नौकरी। बड़े शहर में। अपने कॊ पूरी तरह स्थापित कर चुकी थी वह , तब जाकर शादी की ।
मेरे माता-पिता अभी तक एक लड़का तलाश रहे थे जो उनकी नालायक बेटी का बोझ उठा सके। लेकिन उससे मेरी कोई तुलना नहीं थी। जब वह रिश्ते लौटा रही थी तब भी मेरे दरवाजे कॊई नहीं आया था। मेरी उम्र बढ़ती जा रही थी। मेरे पिता को डर लगा रहता था कि आखिर मेरी शादी होगी भी क्या ? लेकिन, वह तो इस मुद्दे पर बिल्कुल बेपर्वाह थी और आज उसने शादी भी कर ली थी।
हम बहुत समय तक उसकी शादी की ही चर्चा करते रहे। हर किसी को उत्सुकता थी और ढेर सारी बातें जमा हो रही थीं। लेकिन सबका सार एक ही था "आखिर उसने उस लड़के में क्या देखा ?'
"टॊल, डार्क, हैन्डसम।" उसने लिखा था। मैं बतलाती तो दोस्त लोग हँस देते ।

लेकिन बात सच थी।
मैं उन दोनों से मिली और चकित रह गई।
"कैसे तुमने इससे शादी कर ली?" मैंने ऋचा से अकेले में पूछा ।
"मैं आकाश हो गई थी।"
"क्यों?"
"क्योंकि मैं आकाश होना चाहती थी।"
"जमीन पर आ गई?"
"हाँ।"
"कैसे हुआ यह सब?"
"आकाश में आग लगी थी। ...फ़िर रुक कर उसने जोड़ा - और इतनी भी राख ना बनी कि मेरी ही मुट्ठियाँ भर सकें। मैंने वो निगाहें तलाशीं जिनमें आकाश को पाने की लालसा थी। लेकिन मुर्दा निगाहों से कॊई टकराना ही नहीं चाहता।"
मैं चुप हो गई।
"जिन्दगी में किसी को सबकुछ नहीं मिलता ", वह समझदारी से बोल रही थी -"मुझे भी नहीं मिला। तो क्या हुआ!"
"कुछ नहीं। रह सकोगी इसके साथ ? इसने तो तुमसे विवाह के बाद नौकरी भी छोड़ दी है।"
"निशीथ में कुछ अच्छी बातें हैं। तुम समझ नहीं पा रही। इसने मेरी सहायता की जब मुझे घोटाले में बेवजह फ़ँसाया जा रहा था। इसके कॉन्टैक्ट्स हैं। यह मेरी नौकरी भी संभाल सकता है और जिन्दगी भी। मैं इस महानगर में अकेले रहने का साहस नहीं जुटा पा रही थी। उसे अमीर होना है, जल्दी से, इसीलिए बिजनेस करना चाहता है , नौकरी छोड़ दी।
“मैं फ़िर आकाश हूँ। हो जाऊँगी।"
"अच्छी बात है।"

इसके बाद पाँच वर्षों तक हम नहीं मिले। उसके बेटे की तस्वीर मुझे अरसे बाद मिली , जब वह चलना सीख चुका था। मैंने सुना ऋचा चुनाव में खड़ी होना चाहती है। चुनावों में निशीथ ने खूब पैसे कमाए और वह सचमुच अमीर हो गया। उसे अपने बड़े से फ़्लैट में ले आया। लेकिन ऋचा चुनाव में नहीं जीत पाई थी।
हम फ़िर मिले। मुझे एक कॉलेज की नौकरी मिल गई थी। मेरे पैसे राजनीति की वजह से अटके पड़े थे। नौकरी के बावजूद घर में खाने का जुगाड़ बिठाना मुश्किल। मैं उसके कान्टैक्ट्स का लाभ लेना चाहती थी।
उसने मेरी सहायता की।
"तुम तो सचमुच आकाश हो। " इस बार मैंने उसकी तारीफ़ की। उसकी वजह से मेरी समस्या सुलझी थी।
वह तृप्त भाव से मुस्कराई।
लेकिन मेरे सामने भी पति पत्नी के झगड़े चलते रहे। बेटा भागकर मेरी गोद में दुबक जाता।
"यह क्या है? क्यों इतना लड़ते हो ?"
"कहता है आफ़िस में बॉस के साथ इतनी बातें करती हो, यहाँ- वहाँ जाती हो तो मेरे दोस्त के साथ क्यों नहीं जा सकती ?"
"कहाँ जाना है ? तुम अकेले उसके साथ क्यों जाओगी ?"
"वही तो। कहता है उसके साथ जाओगी तो अगले चुनाव में जीत जाओगी। यह सुन्दरता किस काम की।"
मैं लौट आई।

वह लगातार बीमार चल रही थी। आजकल वापस अपने छोटे से शहर में थी, जहाँ मैं अब भी नौकरी कर रही थी और अपनी छोटी सी गृहस्थी में अपने सुदर्शन पति और बच्चों के साथ संतुष्ट थी। मैं आकाश नहीं थी और वह मेरे साथ रह सकती थी।
"मैं निशीथ के साथ नहीं रह सकती। " वह बोली
"तो तलाक दे दो।"
"बेटा नहीं मानता। पूरा बाप पर गया है। कुछ नहीं समझता। सारे समय बाप की तरफ़दारी।"
"उसे जाने दो उसके साथ।" मैं चिढ़कर बोली। "मर रही हो और हाल नहीं देखता।"
"मैं बेटे को नहीं छोड़ सकती।"
मुझे याद आया, निशीथ ने बतलाया था, वह गर्भावस्था के दिनों में अत्यधिक उद्विग्न रहा करती थी। मानसिक रुप से बच्चे को जन्म देने को तैयार ही नहीं थी। तब इस बात को लेकर भी उनमें खूब झगड़े होते थे। लेकिन जन्म के बाद से बेटा सर्वस्व था।
"तो झेलो।"मैंने कहा "बीमार रहॊ।"
वह लौट गई।

वह चाहती क्या है ? यह सवाल मुझे उलझाए रहता। वह बीमार ही रही। यह और बात है कि तब भी हर कोण से वह अब भी सुन्दर ही नजर आती थी। कॉलेज के दिनों के उसके दीवाने चाहे अब शादीशुदा लोगों में अपना नाम लिखा चुके थे, उसकी जिन्दगी को लेकर उनमें अब भी दिलचस्पी बाकी थी। उसके, रुतबे, विवाह, सन्तान , पति . अशान्त जिन्दगी सब की खबर अब हर किसी को थी। वह अब भी चर्चा में थी। मशहूर थी।
हर किसी को अब उससे सहानुभूति थी। वे उससे मिल भी आते।
निशीथ और भड़कता। गालियाँ देता।
मैंने सुना, वह अपने ही घर के बाहर रात भर बैठी रही। निशीथ ने उसे घर से निकाल दिया था। फ़िर एक मित्र के यहाँ जा कर रही, दो दिनों तक। तब फ़िर वापस लौटने की अनुमति मिली। उसके सारे पैसे भी अब ज्वायन्ट अकाउन्ट या निशीथ के अकाउन्ट में थे। बेटा अब भी पिता को छोड़ने को तैयार न था। वह अपनी सुन्दरता को अब भी बचाए हुए थी। अप्राप्य बनी हुई थी। आकाश थी। जब एक नजर के इशारे पर वह काम करा सकती थी तो खुद को परोसने की जरुरत क्या ? लेकिन निशीथ का अविश्वासी मन मानता ही नहीं था कि वह ऐसी ही रही है। वह तो विवाह के पहले उसे अपने साथ होटल में दो रात सुला चुका था। विवाह के बाद की विशिष्ट जिन्दगी के सपने दिखा कर। उस अप्राप्य सौन्दर्य को मुट्ठी में मसल चुका था।
लेकिन यह सब मैं आज जानती हूँ क्योंकि ज्योतिषी अंकल के सामने वह झूठ नहीं बोल पाई थी। उसने निशीथ के साथ अपने विवाह पूर्व सम्बन्धों की बात स्वीकार की थी। यह भी कि पारिवारिक झगड़े सुलझाने के लिए जो कोर्ट केस चल रहा था उसे जीतने के लिए उसे निशीथ की सहायता लेनी पड़ी थी। आफ़िस में अपने पद पर बने रहने के लिए भी। आकाश में आग कैसे लगी , कब लगी , अब मेरी समझ में आने लगा था। यह भी कि सौन्दर्य, मष्तिष्क और कैल्कुलेटिव प्रवृत्ति के बावजूद वह एक कमजोर, भावुक और मोहग्रस्त लड़की थी,जो आकाश होने का भ्रम पाले हुए थी। अब मैं जानती हूँ , सब सुन्दर लड़कियाँ आकाश नहीं होतीं। वे आकाश होना चाहती हैं ,व्यक्तित्व के उस विस्तार के अभाव के बावजूद , क्योंकि वे सुन्दर हैं।
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झारखंड की राजधानी राँची में जन्म। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से सी. एस. आई. आर. की रिसर्च फ़ेलॊशिप के अन्तर्गत भौतिकी(माइक्रोइलेक्ट्रानिक्स) में पी.एच. डी एवं आई आई टी मुम्बई में सी एस आई आर की ही शॊध वृत्ति पर कुछ वर्षों तक शोध कार्य । राष्ट्रीय एवं अन्तर-राष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में शोध पत्र प्रकाशित । भौतिकी विषय से जुड़ी राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय कार्यशालाओं/ सम्मेलनों में भागीदारी एवं शोध पत्र का प्रकाशन/प्रस्तुतीकरण।कुछ समय अमेरिका के कालेजों में अध्यापन।
छात्र जीवन में काव्य लेखन की शुरुआत । प्रारम्भ में कालेज पत्रिका एवं आकाशवाणी तक सीमित।
"इस कहानी का अन्त नहीं " कहानी , जो जनसत्ता में २००२ में प्रकाशित हुई , से कहानी लेखन की शुरुआत। अबतक देश-विदेश की विभिन्न पत्रिकाओं यथा, वागर्थ, हंस, कादम्बिनी, आधारशिला , हिन्दीजगत, हिन्दी- चेतना, निकट, पुरवाई , स्पाइल आदि तथा अनुभूति- अभिव्यक्ति , हिन्दी नेस्ट, साहित्य कुंज सहित तमाम वेब पत्रिकाओं में कहानियाँ, कविताएँ प्रकाशित। "वर्तमान -साहित्य" और "रचना- समय" के प्रवासी कथाकार विशेषांक में कहानियाँ/कविताएँ संकलित । डा. अन्जना सन्धीर द्वारा सम्पादित "प्रवासिनी के बोल "में कविताएँ एवं "प्रवासी आवाज" में कहानी संकलित। कुछ रचनाओं का हिन्दी से इतर भाषाओं में अनुवाद भी। विश्व हिन्दी सम्मेलन में भागीदारी एवं सम्मेलन की अमेरिका से प्रकाशित स्मारिका में लेख संकलित। कुछ संस्मरण एवं अन्य लेखकों की किताबों की समीक्षा आदि भी लिखी है । हिन्दी में विज्ञान सम्बन्धी लेखों का अनुवाद और स्वतंत्र लेखन। आरम्भिक दिनों में इला नरेन के नाम से भी लेखन।कृतियाँ : "धूप का टुकड़ा " (कविता संग्रह) एवं "इस कहानी का अंत नहीं" ( कहानी- संग्रह) ।सम्प्रति :स्वतंत्र लेखन ।
सम्पर्क : ILA PRASAD
12934, MEADOW RUN
HOUSTON, TX-77066
USA

9 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

SUBHASH NEERAV AUR ROOP SINGH
CHANDEL DONO KE LEKH DAMDAAR HAIN,
HRIDAY KO CHHOO LENE WAALE.SACH
KAHUN TO DONO HEE LEKHON SE BAHUT
KAUSHISH KE BAAD BHEE MERE AANKHEN
SAJAL HO GAYEEN.

बेनामी ने कहा…

mein kyon likhta hoon? -ek saans men par gaee. bahut eemandar koshish hai. or mera khayal hai ki eemandaree lekhan kee avashyak shart hai. pathak ko wo hee rachnayen asar kartee hein . kyonki is bhoutikwad ke yug men hum sbhee ko kaheen na kaheen naqleepan orna parta hai or bheetar se hum usase nijat pana chahte hein .Naheen?

Rekha Maitra

Dr. Sudha Om Dhingra ने कहा…

मैं क्यों लिखता हूँ
सुभाष नीरव को एक समय से पढ़ रहीं हूँ पर उनका लेख ''मैं क्यों लिखता हूँ ''
पढ़ कर कई बार आँखें नम हुई . ''बूढ़ी आँखों का आकाश'', ''लुटे हुए लोग'', '' इतने बुरे दिन'', ''तिड़के घड़े'', ''उसकी भागीदारी'' ''आख़िरी पड़ाव का दु:ख'' ''जीवन का ताप'' ''कमरा'' सब कहानियाँ मेरी पढ़ी हुई हैं .''बूढ़ी आँखों का आकाश'' ''तिड़के घड़े'' ''आख़िरी पड़ाव का दु:ख'' ''लौटना'' बहुत ही भावुक कर गईं थीं मुझे .अपने बारे में इतनी ईमानदारी से लिखना भी बहादुरी का काम है --सुभाष नीरव जी को शुभ कामनाएं -बधाई .

संस्मरण
शब्दों के जादूगर -कमलेश्वर
रूप सिंह चन्देल
बखूबी वर्णन -बहुत सी यादें ताज़ा हो गईं .
रमेश बत्रा की जालंधर में गोष्ठियां --सिमर सदोष (हिन्दी अजीत के संपादक )तब हिन्दी मिलाप के संपादक हुआ करते थे -के घर में रमेश बत्रा से मुलाकात .रमेश तब दिल्ली में थे और मैं दैनिक पंजाब केसरी के साहित्य संस्करण में सह -संपादक के रूप में जुड़ी ही थी.जब भी भारत जाती थी उन्हें मिलती ही थी. विस्तार पत्र लंबा कर देगा. संक्षिप्त में कमलेश्वर जी के साथ भी बहुत से यादें जुड़ीं हैं --आभारी हूँ आप ने बहुत कुछ याद दिला दिया वरना अमेरिका की व्यस्तताएं तो अपने तले कितना कुछ दबा देती हैं -कुरेदना भी चाहो तो कुरेद नहीं पाते.
आप के ब्लाग को बाकायदा पढ़तीं हूँ --उत्तम साहित्य देते रहिये यही कामना करती हूँ .
इला की कहानी -
आकाश
खुबसूरत चरित्र की खुबसूरत कहानी है .
सरल ,सादा तरीके से मानसिक ग्रंथियों को गुंथा गया है .खूबसूरती के एहसास से पैदा हुई कुंठाएं जो आकाश बन गई थीं.इला बड़ी आसानी से अपनी कहानी में कह गई है .इला की लेखनी
कड़वी से कड़वी बात को भी पाठक तक रोचकता से पहुँचाने की क्षमता रखती है- बधाई -शुभकामनाएँ
सुधा ओम ढींगरा

सहज साहित्य ने कहा…

सुभाष नीरव का लेख -'मैं क्यों लिखता हूँ'बेजोड़ है । आग में तपे बिना सोने में चमक नहीं आती हैं । नीरव जी की आज तक की सबसे उत्कृष्ट रचना है ।बहुत बधाई !
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

Ila ने कहा…

नीरव जी ने जिस ईमानदारी से अपने संघर्षों की कथा कही है, वह बेजोड़ है। बहुत पहले पांदेय बेचन शर्मा उग्र की जीवनी "अपनी खबर " पढ़ी थी । उसकी यादें ताजा हो गईं। सुभाष जी का आत्मकथ्य छापने के लिए रूप सिंह जी ,आप बधाई के पात्र हैं।
कमलेश्वर पर आपका संस्मरण उनके व्यक्तित्व के कुछ अनजान पहलुऒं को सामने रखता है और बहुत रोचक है। इन दोनों ही आलेखॊं के लिए वातायन का अंक पढ़ा जायेगा।
इला

बेनामी ने कहा…

Vaatayan ka January, 2009 ank vishisht laga.

Roop Singh Chandel dwara Kamleshwar ji per likha jeevant sansmaran padhte huye Kamleshwar ji ka chehra aankho ke aage ghoomta raha. Sach hai ki Kamleshwar ji ek mahan lekhak hone ke saath-saath ek nek dil insaan bhi thhe jo badi baat hai.

Joojharu aur samvedansheel rachnakar Subhash Neerav ki srijan yatra pathakon ko lekhan ke vastavik sarokaron se saajha karati hai. Itminan hota hai ki lekhan na to fashion bhar hai, na hi time pass, balki yeh vyakti ko jimmedar banata hai aur jeevan-sangharsh ke liye urja pradaan kartaa hai. Subhash Neerav ki saafgoee aur bebaak bayaani unke imandaar lekhan ke prati samman jagaati hai.

Pravasi rachnakaron me Ila Prasad ki kahaniyan dhyan aakrisht karne me poori tareh saksham hain. Is ank me prakashit unki kahani 'Aakash' achhi lagi. Yeh kahani apne abheesht ko prapt karne me safal huyee hai.

Vaatayan ke is ank ki vishishtata ke liye Roop Singh Chandel, Subhash Neerav aur Ila Prasad ko Haardik Badhai.

Alka Sinha

बेनामी ने कहा…

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